22.8.08

भ्रम

दर्पण के सम्मुख जो आई,
अपनी ही छवि से भरमाई.

मतिभ्रम ने जो जाल बिछाया,
जान न पाई मैं वह माया.

अपर मान उसे संगी माना,
दुःख सुख का सहगामी जाना.

मुग्ध हुई मैं उसको पाकर,
आपा खोया नेह जोड़ कर.

छवि ने भी तो साथ निभाया,
साथ हंसा वह साथ ही रोया.

मन ने जब जो भाव रचाया,
दर्पण ने भी वही दिखाया.

जान न पायी इस छल को मैं,
हास मेरे थे रुदन में थी मैं.

छवि को चाहा गले लगालूं,
नेह बंध को और बढ़ा लूँ.

दौडी जो शीशे से टकराई ,
छिन्न हो गई तंद्रा सारी.

पोर पोर में शीशे चुभ गए,
घायल अन्तःस्थल को कर गए.

चुभते शीशे मन पर जम गए,
पीड़ा प्रतिपल स्थायी कर गए.

मोह का बंधन टूट तो गया,
उर में पर वह रुदन भर गया.

दर्पण को अब क्योंकर कोसूं,
दोष मेरा, क्या उसमे खोजूं.

निज भ्रम ने ही मुझको लूटा,
नेह का बंधन निकला झूठा.

नेह मरीचिका बड़ी प्रबल है,
अपनी ही छवि करती छल है..........

14 comments:

Nitish Raj said...

पोर पोर में शीशे चुभ गए,
घायल अन्तःस्थल को कर गए.

चुभते शीशे मन पर जम गए,
पीड़ा प्रतिपल स्थायी कर गए

दिल को छू लेने वाली पंक्तियां
बहुत सुंदर

कुश said...

पोर पोर में शीशे चुभ गए,
बहुत गहरी बात..

कुछ पंक्तिया तो बहुत ही सुंदर लिखी गयी है.. बहुत बहुत बधाई

Rajesh Roshan said...

इस छल को तो समझना ही होगा....

रंजू भाटिया said...

निज भ्रम ने ही मुझको लूटा,
नेह का बंधन निकला झूठा.

नेह मरीचिका बड़ी प्रबल है,
अपनी ही छवि करती छल है..........

सही कहा बहुत अच्छी लगी आपकी यह रचना ज़िन्दगी के सच के करीब

शोभा said...

मुग्ध हुई मैं उसको पाकर,
आपा खोया नेह जोड़ कर.

छवि ने भी तो साथ निभाया,
साथ हंसा वह साथ ही रोया.

मन ने जब जो भाव रचाया,
दर्पण ने भी वही दिखाया.
बहुत सुन्दर।

राकेश जैन said...

lagta hai apke jeevan me mile kisi gahre aghat ka satya vritant hai.

डॉ .अनुराग said...

चुभते शीशे मन पर जम गए,
पीड़ा प्रतिपल स्थायी कर गए.

मोह का बंधन टूट तो गया,
उर में पर वह रुदन भर गया.

दर्पण को अब क्योंकर कोसूं,
दोष मेरा, क्या उसमे खोजूं.



बहुत खूबसूरत.....बहुत गहरे भावः है....

Udan Tashtari said...

दर्पण को अब क्योंकर कोसूं,
दोष मेरा, क्या उसमे खोजूं.


-बहुत उम्दा, क्या बात है!
आनन्द आ गया.

श्रीकांत पाराशर said...

khubsurat rachana, khubsurat andaz

Gyan Dutt Pandey said...

निज भ्रम ने ही मुझको लूटा,
नेह का बंधन निकला झूठा.


मुझे भी लगता है - जो है, अपने अंदर है। अन्दर जो प्रसन्नता/उपलब्धि/नैराश्य या आत्महन्ता भाव हैं, उन्हे कोई बहरी नहीं हम ही पोषित या बदल सकते हैं।

Smart Indian said...

"अपनी ही छवि करती छल है..."
सत्य वचन!

Tarun said...

bahut sundar khaskar ye lines

दर्पण को अब क्योंकर कोसूं,
दोष मेरा, क्या उसमे खोजूं.

निज भ्रम ने ही मुझको लूटा,
नेह का बंधन निकला झूठा.

नेह मरीचिका बड़ी प्रबल है,
अपनी ही छवि करती छल है..

ललितमोहन त्रिवेदी said...

निज भ्रम ने ही मुझको लूटा,
नेह का बंधन निकला झूठा.
मन की अनुभूतियों को बहुत गहरे से छुआ है आपने !लेखन में यही स्निग्धता निरंतर बनाये रखें !

सुधीर राघव said...

बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति।