1.8.08

जो स्वप्न सिखा गया... !

अनंत काल के अनथक साधना और अन्वेशनोपरांत प्रबुद्ध ऋषियों मनीषियों से लेकर साधारण जनों तक ने सुखमय जीवन के जो सूत्र प्रतिपादित किए हैं,लाख जानने सहमत होने के बाद भी सर्वदा या विपत्ति काल में पूर्णतः वे कहाँ याद रह पाते हैं। मन बुद्धि कष्ट के क्षणों में भी स्थिर रहे,विचलित न हो यह नही हो पाता।जन्म लिया है तो एक न एक दिन मृत्यु को प्राप्त होना ही होगा और जाते समय कुछ भी साथ न जाएगा,सब जानते हैं.अपनी आंखों के सामने असमय मृत्यु को प्राप्त होते देखते हैं और जीवन की क्षणभंगुरता से परिचित भी होते हैं,पर सच माने तो व्यवहार में हम अपने लिए मृत्यु को मान,इस सत्य को आत्मसात और निरंतर स्मरण में नही रख पाते.मृत शरीर के साथ श्मशान तक भी जाते हैं तो भी यह नही मान पाते कि क्या पाता किस अगले क्षण में मेरी बारी हो.

वर्ष १९९७ की बात है.एक साधारण सी परेशानी हुई जिसे महीने भर तक बीमारी नही माना.परेशानी थी दाहिने पैर में कमर और घुटने के बीच दर्द रहने लगा,जो कि क्रमशः तीव्र से तीव्रतर ही होता गया.कभी सोचती अधिक चलने के कारण हुआ होगा कभी कमजोरी के कारण तो कभी कुछ.बस एक ऐंठन भर से ज्यादा नही माना.पर जब स्थिति में दवाइयाँ लेने के बाद भी कोई बदलाव नही आया,बल्कि दर्द के मारे रातों की नीद चैन समाप्त हो गया तथा धीरे धीरे जमीन पर पूरी तरह पैर रखना भी दूभर होने लगा तो फ़िर अस्पतालों का चक्कर शुरू हुआ जो अगले दस महीने तक चला.इन दस महीनो में एलोपैथ,होमियोपैथ,नेचुरोपैथ,झाड़ फूंक से लेकर कोई भी चिकित्सकीय पद्धति ऐसी न बची जिसे आजमाया न हो या जहाँ की ख़ाक न छानी हो. बिस्तर ही नही पकड़ाया इस पैर के दर्द ने बल्कि और भी कई सारे ऐसे ऐसे रोगों ने घेर लिया कि एक की ख़बर लो तबतक एक और सामने आकर खड़ा हो जाता था. शरीर केवल हड्डियों का ढांचा भर रह गया था और अपने हाथों एक गिलास पानी लेकर पीना भी दूभर हो गया था.ग्यारहवें महीने में जब रोग का पता चला तबतक वह काफ़ी एडवांस स्टेज में पहुँच चुका था.खैर इलाज़ आरम्भ हुआ.पर किस्मत का खेल था कि दवा की जो कोई भी कोम्बिनेसन दी जाती वह रिएक्सन कर जाता और चिकित्सकों को वह दवा बंद करनी पड़ती.घर परिवार वालों से लेकर चिकित्सकों तक को यह भरोसा न रहा था कि मैं बच पाउंगी.

उन्ही दिनों जब अस्पताल में पड़ी थी एक दिन एक स्वप्न देखा. देखा कि मैं मर चुकी हूँ और मेरे आस पास सभी रिश्ते नाते,संगी साथी मुझे घेरे रोये जा रहे हैं.मुझे लग रहा है कि इन सब लोगों को यह ग़लत फहमी कैसे हो गई कि मैं मर चुकी हूँ,जबकि मैं तो जीवित हूँ.मैं कभी अपने पति को तो कभी अपनी माँ को जा जा कर झकझोर कर कह रही हूँ कि मैं जीवित हूँ.लेकिन यह मैं भी देख रही हूँ कि मेरा शरीर जमीन पर रखा हुआ है और मैं शरीर से बाहर सबलोगों के पास अपने एक और शरीर के साथ जाकर बात कर रही हूँ जिसे कोई देख नही पा रहा.अपना पूरा जोर लगा मैं चिल्लाकर सबसे अपनी बात कह रही हूँ पर कोई उसे नही सुन पा रहा है और एक एक कर मेरे दाह संस्कार पूर्व के सारे रस्म निभाए जा रहे हैं.फ़िर मेरे शरीर को एक गाड़ी में लेकर बहुत सारे लोगों के साथ मेरे पति श्मशान की ओर लिए जा रहे हैं.मैं बिलख रही हूँ कि मैं मरी नही हूँ,मुझे अपने से अलग न करो पर किसी के कानो तक मेरी आवाज़ नही पहुँचती.जब श्मशान पहुँचती हूँ तो वहां पहले से ही और भी बहुत सारे शव रखे हुए हैं और मुझे देख सब हंस रहे हैं और खुशियाँ मना रहे हैं.इतने सारे शव बन चुके अजनबियों को देख और अपने लिए चिता सजाते देख भय और दुःख से विह्वल हो विलाप करने लगती हूँ और साथ ही बार बार जाकर पति को झकझोरती हूँ कि बाकी भले सारे मुझे मृत मान लें और मेरी आवाज़ न सुन पायें पर आप कैसे नही मुझे सुन देख महसूस कर पा रहे? पर मेरे रुदन यूँ ही अनंत में लीन हो जा रहे हैं,बिना किसी के कानो को छुए,किसी ह्रदय को प्रभावित किए.....सहसा शवगृह का स्वामी आकर उद्घोषणा करता है कि आज लकड़ी तथा बिजली न होने के कारण शवों का दाह संस्कार नही हो पायेगा,इन्हे कल तक के लिए वही छोड़ दिया जाए.सारी व्यवस्था कल तक दुरुस्त हो जायेगी और कल दाह संस्कार किया जाएगा.मेरे माता पिता,बच्चे,पति सब मुझे उन अनजान शवों के बीच जो कि मुझे नोच कर खा जाने के लिए बस मेरे परिवार जनों के वहां से हटने की प्रतीक्षा कर रहे है,खुश हो तालियाँ बजा रहे हैं,छोड़ कर घर की ओर चले जा रहे हैं और मैं भय से थरथराती,सबको पुकारती विलाप करती वहीँ पड़ी हूँ.............. और फ़िर मेरी नींद टूट गई.

स्वप्न का वह सत्य मुझे क्या अनुभूति दे गया और क्या क्या सिखा गया उसे शब्द दे पाना मेरे लिए असंभव है.मृत्यु के बाद के जीवन की बताने वाला या निश्चित रूप से इसके बारे में कुछ कह पाने वाला कोई नही है.पर यदि धर्म पुराणों की माने तो मृत्यु के बाद शरीर भले प्राण वायु से वंचित हो जाता है पर चेतना तुंरत नही मरती.जिसे हम ''मैं'' कहते हैं,वह यही चेतना तो है.संभवतः जो कुछ मैंने स्वप्न में देखा वह एक सत्य ही हो.किसी अपने के मृत्यु को बुद्धि द्वारा सत्य मानते हुए भी जब हम घटित और सत्य को सत्य मानने में तत्क्षण प्रस्तुत नही होते तो यह 'मैं' जिस शरीर में रहता है अनायास शरीर के नष्ट होने पर मृत्यु को सहजता से कैसे स्वीकार सकता है.

इस स्वप्न ने ज्ञानी मनीषियों द्वारा कहे गए वचनों को सद्यस्मृत रखने को पूर्णतः तैयार कर दिया कि.....
- मृत्यु जब चिरंतन सत्य है तो प्रतिपल इसके लिए मानसिक रूप से तैयार रखना है स्वयं को.
- जितना कुछ लेकर आए थे इस संसार में उतना ही कुछ साथ जाएगा और साथ केवल किए हुए कर्म ही जायेंगे.सो यदि संचित करना हो तो सत्कर्म कर संतोष अर्जित कर झोली भर लो.

- ईश्वर प्रदत्त इस शरीर के साथ साथ प्रतिक्षण का सदुपयोग और सम्मान करो.
- सुख या दुःख जो मिला उसे हर्ष से स्वीकार करो और धैर्य को पकड़े रहने को सतत प्रयत्नशील रहो.

प्रभु से प्रार्थना है कि प्रयाण काल में रोग ,शोक, मोह , भय, तृष्णा, असंतोष और पश्चात्ताप न सताए।बस मन में संतोष के साथ प्रभु का स्मरण हो और प्रसन्न मन से उसे कह पाऊं.....'' तुमने जो जीवन और अवसर दिया,उसमे इस छोटी बुद्धि और सामर्थ्य के सहारे जो कुछ कर सकी किया,अब यह शरीर माँ धरित्री को समर्पित है........... "

19 comments:

Gyan Dutt Pandey said...

यह मृत्यु के पूर्व मृत्यु का अनुभव कई लोगों ने किया है, और जिसने भी किया है वे प्रज्ञा के एक नये आयाम को अनुभव कर लेते हैं।
आपको यह वैशिष्ठ्य प्राप्त हुआ; गौरव की बात है। यह गौरव व्यक्ति को और विनम्र बनाता है।
बहुत अच्छी पोस्ट।

Udan Tashtari said...

बहुत सुन्दर गहन अध्यातमिक चिन्तन. आभार.

मोहन वशिष्‍ठ said...

रंजना जी जैसा ग्‍यानदत्‍त पांडेय जी ने कहा हे बिल्‍कुल ठीक कह रहे हैं मैं सहमत हूं और अगर हम अपनी मौत या किसी की भी मौत स्‍वपन में देखते हैं तो इससे आयु वृद्वि होती है अच्‍छा माना जाता है बहुत ही अच्‍छे ढंग से आपने पोस्‍ट को पोस्‍ट किया है बधाई हो

कुश said...

विज्ञान की माने तो उस वक़्त आप ऐसे दौर से गुज़र रही थी.. जिसमे आपको मृत्यु की संभावना नज़र आ रही थी.. और इन्ही सब के बारे में सोचने की वजह से आपके अवचेतन मस्तिष्क में अंकित हो गयी. जो आराम की अवस्था में आपको स्वप्ना द्वारा दिखी..

अध्यात्म कहता है की स्वप्ना में मृत्यु के बारे में देखना आयु वृद्धि करता है..

पांडे जी का कहना भी सही है.. की इस तरह का स्वप्न जीवन को एक नया आयाम देता है.. खैर कुछ भी हो आपने इस से सड़विचार ग्रहण किए और उन्हे आत्मसात किया, इस बात की मुझे खुशी है.. पिछली बार की तरह इस बार भी आपकी पोस्ट बढ़िया रही

शोभा said...

बहुत सुन्दर लिखा है। बधाई।

पारुल "पुखराज" said...

kya kahuun di...padhaa ,ghabrahat hui aur sambal bhii milaa..suntey hain aatma vicharti hai..kayi kayi dino tak...ye vishay kheenchta bhi hai aur darataa bhii...bahut achhi lagi post di..

संजय शर्मा said...

शायद यह ज्ञान की उच्चतम अवस्था है .दिक्कत ये है कि बदस्तूर जारी नही रहता यह ज्ञान .

admin said...

इस स्वप्न के बहाने आपने वह सत्य देख लिया है, जिसे समझने में लोगों की उम्र निकल जाती है।

कथाकार said...

मेरे और आप जैसे बहुत से होंगे जो कभी मौत से रूबरू बमिल कर आये होंगे लेकिन आप जैसी अभिव्‍यक्ति सबके पास कहां, बेशक वे पल पूरी जिंदगी पीछा नहीं छोड़ते.
अच्‍छा बन पड़ा है.

सूरज

vipinkizindagi said...

बहुत सुन्दर और गहन अभिव्‍यक्ति

रंजू भाटिया said...

रंजना हमारे नाम ही एक जैसे नही शायद कई अनुभूतियाँ भी एक सी हैं :) शायद यह भी कोई संकेत हो ..सपना यूँ देखना ....मैं भी इसका कारण यह समझती हूँ कि जब हम यूँ परेशानी से गुजर रहे होते हैं तो सपने में शायद हम उसका वह अर्थ देखते हैं जो हम कई अपने अवचेतन मन में कहीं सोचते हैं ...या कोई संकेत भी समझ ले [क्यूंकि मैं अक्सर इसको सकारात्मक रूप में लेती हूँ]कि आप जिस संकट के दौर से गुजर रहे हैं उस से पार पा जायेंगे जैसा आपके साथ हुआ ..यही सकरात्मक सोच हमें जीवन की और आगे बढ़ने का संकेत भी देती हैं ..कई बार और भी संकेत पा जाते हैं हम इस को मैं फ़िर कभी आपसे मेल पर चर्चा करुँगी .... .पर चलो अच्छा है की आप उस संकट से बाहर आ गई और स्वस्थ रहे यही दुआ है ...आपने यह अनुभव यहाँ बांटा बहुत अच्छा किया ..ऐसे गहन अनुभवों से बहुत कम लोग गुजर पाते हैं और याद रख पाते हैं |

राकेश खंडेलवाल said...

गहन इस नील नभ के पार भी नभ दूसरा कोई
अमर आलोक देवों का जहां आवास सचमुच है
नयन की कालिमा के पार जैसे मन तुम्हारा है
कि मन के पार भी जैसे कहीं अव्यक्त सा कुछ है

Pramendra Pratap Singh said...

मैने अपनी भतीजी अदिति को कई बार सोते समय हँसते हुये देखा है अम्‍मा जी करती है वह भगवान के साथ खेल रही है।

बालकिशन said...

आपने यह अद्भुत अनभव हम सब के साथ बाँट कर एक बेहद ही प्रशंसनीय कार्य किया.
इस संदेश में ही जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई छुपी है.
आपको बहुत बहुत धन्यवाद.

inshan said...

Ranjanaji aap ke chintan aur soch bahut hi gahrye hai. Likhte rahiye aur humlog ko labhanvint hone ka sukhad anhubhti main dubki lagane dijye

योगेन्द्र मौदगिल said...

प्रेरक प्रसंग..
स्वप्न विन्यास ऐसा भी हो सकता है ?
कल्पनातीत...
वाह..........

अभिन्न said...

- मृत्यु जब चिरंतन सत्य है तो प्रतिपल इसके लिए मानसिक रूप से तैयार रखना है स्वयं को.
- जितना कुछ लेकर आए थे इस संसार में उतना ही कुछ साथ जाएगा और साथ केवल किए हुए कर्म ही जायेंगे.सो यदि संचित करना हो तो सत्कर्म कर संतोष अर्जित कर झोली भर लो.

- ईश्वर प्रदत्त इस शरीर के साथ साथ प्रतिक्षण का सदुपयोग और सम्मान करो.
- सुख या दुःख जो मिला उसे हर्ष से स्वीकार करो और धैर्य को पकड़े रहने को सतत प्रयत्नशील रहो.
संग्रहणीय पंक्तियाँ है ,अद्यात्मिक सोच का बेहतर प्रस्तुतिकरण ,"life after life " और "life after death 'जैसी पुस्तकों की याद ताज़ा हो गई है जिनके पूछ पन्ने हाल में ही पदने को मिले .

Gajendra said...

रंजनाजी,
सन 200 मे मैं जमशेदपुर में रहता था। एक जबर्दस्त दुर्घटना हुई और मै 14 दिनों तक वेंटीलेटर पर रहा। तीन ऑपेरेशन हुए और फिर मैं बैशाखी पर चलने लायक हुआ। अब ठीक हूँ। हर ऑपेरेशन के बाद जब अनेस्थीशिया का प्रभाव खतम होने लगता था तो मेरी स्थिति अचेतन से चेतन में आते आते वैसी ही होने लगती थी जैसे आपने अपने स्वन के अनुभव के वृत्तांत में लिखा है। मेरी पत्नी प्रेग्नेंट थी और डिलीवरी का दिन था जब ये दुर्घटना हुई थी। सब याद दिला दिया आपने।
बहुत अच्छा लिखती हैं आप।

Smart Indian said...

What a dream! You've described it so well that I could actually feel the pain. How did you finally recover from the disease and pain - just curious?