कथा कहानियों से मेरा लगाव संभवतः जन्मगत ही था ,जो स्वतः ही मुझे इसके विभिन्न श्रोतों से सदैव ही जोड़ता रहा..कथा संसार में तन्मयता से विचरण कर नित नवीन अनुभव प्राप्त करना और उसे जीवन सन्दर्भ में देखना गुनना मुझे अतिशय प्रिय था. बचपन में नयी कक्षा में जाने के बाद जैसे ही नयी पुस्तकें मुझे मिलती , कक्षा में पढाये जाने की प्रतीक्षा किये बिना मैं उन्हें चाटने बैठ जाया करती. सबसे पहले हिंदी की पुस्तक फिर इतिहास की और जब सब चाट चुकती तो भूगोल आदि की पुस्तकें मैं घोंट जाया करती..इनके साथ पाए रोमांचक अनुभव मुझे असीम तृप्ति दिया करते..
आगे कॉलेज शिक्षा क्रम में भी मैंने साहित्य, इतिहास,समाज शास्त्र तथा राजनीति शास्त्र ही मुख्य विषय रूप में लिया,जो अंतत स्नातकोत्तर में साहित्य के साथ संपन्न हुआ..परन्तु एक बड़ी भारी समस्या थी..इतिहास की पूरी पुस्तक कहानी या उपन्यास की तरह तो मुझे कंटस्थ रहती , पर घटनाक्रमों की तिथियाँ और उलटे पुल्टे नाम मेरे मस्तिष्क से कभी चिपक न पाते.. इसी तरह राजनीति शास्त्र में भी सिद्धान्तकारों की उक्तियों/सिद्धांतों को जो कि लगभग एक से ही हुआ करते थे, उन्हें रटना और शब्द प्रतिशब्द परीक्षा में लिख पाना मुझसे कभी न हो पाया...मुझे लगता, सबने लगभग एक ही बात तो कही,फिर क्या फर्क पड़ता है कि वाक्य में किस शब्द का प्रयोग किया गया...
जहाँ एक ओर सैद्धांतिक (किताबी) तथा व्यावहारिक राजनीति (व्यवहार में राजनीति जिस रूप में है) में मुझे कोई साम्य न दीखता और फलतः इसकी उपयोगिता संदिग्ध दीखती थी वहीँ इतिहास भी मुझे रटने नहीं सीखने की बात लगती थी..मुझे लगता था,हजारों हजारों वर्ष का इतिहास हमें सिर्फ यही तो सिखाता है कि हमें अपने आज को कैसे सुखद बनाना है,क्या करने से बचना है और क्या अवश्य ही करना है..घटनाक्रमों की तिथियों में मगजमारी कर उन्हें रटने से अधिक आवश्यक है दुर्घटनाओं से सीख ले आगे के लिए सतर्क सजग रह जीवन और जगत में खुशहाली के लिए सचेष्ट रहना .वस्तुतः व्यापक रूप में शिक्षा का उद्देश्य मुझे आत्मविकास के अतिरिक्त और कुछ नहीं लगता...
दिनानुदिन शिक्षा का संकुचित होता उद्देश्य मुझे बड़ा ही विछुब्ध करता रहा है और यही समस्त विसंगतियों का भी कारण लगता है. हम चाहे कोई भी विषय ,कितना भी पढ़ जाएँ और विषय पर लाख विशारद्ता हासिल कर लें, नए नए अविष्कार कर लें,एक से बढ़कर एक नवीन कीर्तिमान स्थापित कर लें ,जब तक हम अपना नैतिक विकास नहीं कर लेते,एक सच्चा और अच्छा मनुष्य नहीं बन जाते , क्या हम सुशिक्षित होने का दंभ भर सकते है और सच्चे अर्थों में जीवन में सुख पा सकते हैं ?? आज शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य धनोपार्जन रह गया है और ऐसे में हम कैसे अपेक्षा कर सकते हैं कि व्यक्ति परिवार समाज और देश सुसंस्कृत, सुगठित और शांत रहेगा..
देखिये न, रोज तो नए नए अविष्कार हुए जा रहे हैं, भौतिक सुख सुविधाओं के उपकरणों से घर और बाज़ार अटे पटे पड़े हैं, पर मनुष्य रोज थोडा और अशांत ,थोडा और अकेला, थोडा और भयभीत होता चला जा रहा है. अशांत छटपटाता दिग्भ्रमित मनुष्य कुछ और साधन जुटा उसमे सुख ढूँढने बैठ जाता है.उसे लगता है,फलां सामान यदि वह खरीद ले तो पूरा संतुष्ट हो जायेगा और फिर उस सामान को जुटाने के लिए धन कमाने की होड़ में जुट जाता है..
वय का एक हिस्सा डिग्रियां जुटाने में, दूसरा हिस्सा डिग्रियां भंजा उपकरण जुटाने में और तीसरा हिस्सा भौतिक विलासिता में डूब अबतक क्षरित रोगयुक्त काया को रोगमुक्त करने के प्रयासों में जुट मनुष्य संपन्न करता है ..जीवन जो इस उद्देश्य और महत्वाकांक्षा संग आरम्भ हुआ कि येन केन प्रकारेण अधिकाधिक धन जुटाना है,विलासिता के साधन जुटाना है अंततः अशांति और व्याकुलता ही पाता है. जिसके पास जितना धन वह उतना ही अधिक व्याकुल. संसार का एक मनुष्य नहीं जो यह कहे,नहीं बस इतना ही मुझे चाहिए,इससे अधिक अब एक पैसा नहीं...
ऐसा नहीं है कि आज निचली कक्षा से लेकर ऊपरी कक्षाओं के पाठ्यक्रमो तक में चरित्र निर्माण या नैतिक उत्थान के पाठ्य सामग्री नहीं हैं. सत्य बोलना,आचरण को शुद्ध व्यवस्थित अनुशाषित तथा उद्दात्त रखने वाले पाठ नहीं हैं, पर समस्या यह है कि उन अच्छी बातों को भी इस तरह पढाया जाता है,जिसे बच्चे केवल रटने और परीक्षा में अंक लाने भर की उपयोगिता योग्य समझते हैं.व्यावहारिक रूप में न ही परिवार में अभिभावक अपने बच्चों में यह बैठा पाते हैं कि वे उन्हें शिक्षा इसलिए दिलवा रहे हैं ताकि उनके संस्कार परिष्कृत हों, उनका आत्मोत्थान हो और न ही शैक्षणिक संस्थाओं द्वारा व्यावहारिक रूप से यह प्रयास किया जाता है. आज व्यक्तित्व निर्माण अर्थोपार्जन के सम्मुख पूर्णतः गौण हो चुका है.मुझे तो सदैव ही यही लगता है कि आज जो शिक्षा व्यवस्था है वह मनुष्य नहीं भेड़ों की भीड़ तैयार कर रही है,जिसमे प्राण तो हैं पर चिंतन योग्यता नहीं..
ऐसे समय में मुझे रामायण ,महाभारत भगवतगीता आदि की उपयोगिता, प्रासंगिकता जो कि तेजी से हमारे घरेलू परिवेश आचरण और विश्वास से त्यज्य हुए जा रहे हैं, कुछ अधिक ही लगती है. इन के कथाओं में उल्लिखित पात्र,उनके जीवन चरित्र और परिस्थितियां वस्तुतः कोरे सैद्धांतिक नहीं,बल्कि पूर्णतः व्यवहारिक हैं,जो कि मनुष्यमात्र के विवेक और संस्कार का परिष्करण पुष्टिकरण और मार्गदर्शन करने की क्षमता रखते हैं..जबतक परिवार समाज का आस्तित्व इस धरती पर है,किसी भी धर्म पंथ के अनुयायी समाज के लिए यह प्रासंगिक रहेगा. इनकी शिक्षाओं में आज भी वह शक्ति है जो समाज को दिशा दिखा मनुष्यमात्र का नैतिक उत्थान कर सकती है. यह अलग बात है कि पूर्वाग्रह ग्रस्त हमारी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष सरकार इन से सम्बंधित पुस्तकों को पूर्णतः एक धर्म विशेष की पूजा पाठ संबंधी पुस्तकें ठहरा इन्हें पाठ्यक्रम से बाहर रखना ही श्र्येकर मानती है...
इन परिस्थितियों में गंभीरता से हमें विचार करना होगा कि हमें अपने और अपने संतान के सुख के लिए आत्मोत्थान के इन माध्यमो से जुड़ना ही होगा ,जीवन दृष्टिकोण को वृह्हत्तर करना ही होगा. संतोष और शांति साधन में नही होता बल्कि यह तो मनुष्य के ह्रदय में ही अवस्थित होता है,बस शाश्वत चिंतन द्वारा इस शक्ति को जागृत कर पाया जा सकता है..
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32 comments:
आईये जानें … सफ़लता का मूल मंत्र।
आचार्य जी
विचारणीय पोस्ट. नीति निर्देशकों के साथ-साथ माता-पिता भी अगली पीढी और समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी समझें तो सब अपने-आप बेहतर होगा. एक राष्ट्र के रूप में और व्यक्तिगत स्टार पर शायद हम भारतीय अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को उतनी अच्छी तरह नहीं निभा रहे है.
badhiya aur vichaarneey aalekh bahut kuch seekhne mila isse...
atyant sargarbhit post. nihsandeh shikshhit samaj hi rastr ke vikas me sahyogi ho sakta hai.
atyant sargarbhit post. nihsandeh shikshhit samaj hi rastr ke vikas me sahyogi ho sakta hai.
अब नैतिक शिक्षा ऑप्शनल सब्जेक्ट है जी
आज जो शिक्षा व्यवस्था है वह मनुष्य नहीं भेड़ों की भीड़ तैयार कर रही है,जिसमे प्राण तो हैं पर चिंतन योग्यता नहीं.....
सहमत हूँ आपसे ..व्यवहारिक शिक्षा की कमी ने ही समाज का बेडा गर्क कर रखा है ...
सार्थक आलेख ...
उम्दा चिन्तन करता आलेख. शिक्षा व्यवस्था में घोर परिवर्तन की दरकार है.
बहुत ही सार्थक चिन्तन है । इसी दिशा में मैं भी सोचता हूँ और आशा करता हूँ कि सब सोचें ।
बहुत सार्थक चिंतन. बहुत बढ़िया पोस्ट.
पढ़ाई-लिखाई से क्या पाना है? पढाई-लिखाई करके अगर एक अच्छे इंसान नहीं बने तो फायदा क्या?
चिंतन शील है आपकी पोस्ट .. विचार करने वाली बातें लिखी हैं आपने जो आज के समय में सब भूलते जा रहे हैं ... रोज़ रोज़ की मारा मारी में .. भोतिक सुविधाएँ जुटाने की होड़में सच में हम संवेदनहीन होते जा रहे हैं .. अपने से अलग कुछ सोच नही पाते ... शिक्षा का महत्व डिग्री लेने से आयेज भी है .. मानव निर्माण, राष्ट निर्माण और नेतिक समाज बनाने का जिम्मा भी इसी बात पर निर्भर करता है ....
अच्छा लगा आपका यह लेख ..बहुत कुछ समझने की जरुरत है
रंजना जी , खुद पर बात कहते हुए शुरू करके एक रोचक सा लाभप्रद लेख लिखा है आपने , सचमुच ऐसी ही शिक्षा की जरुरत है ,आपके विचार जानकर बहुत ख़ुशी हुई ।
सही कहा रंजना जी !ज्ञान ग्रहण कर लेने मात्र से वो अपने या समाज के लिए अच्छा नहीं हो जाता। उसे किस तरह, कहाँ और किसके लिए इस्तेमाल करना है ये हमें तब ही महसूस हो सकता है जब हमारे संस्कार नैतिक आचरण में बँधे हुए हों।
sahi kaha ji aapne...
bahut hee achhi rachna..
you write very good...
thamks..for vistimg my vlog..
Mahiye ek vidha hai.. lokgeet..punjav ki
Mahi.. is word for lover
so mahiye should ve love songs..
vut people write everything..
mahiye meter is ..
2 2 1 1 2 2 2
2 1 1 2 2 2
2 2 1 1 2 2 2
iski dhun ka ek example -
ek gaana tha...
Tum roothe ke mat zaana
Dil se hai kya shikwaa
deewaana hai deewana...
isi dhun me gaa ke dekhiye...khoovsurat lagenge..
Sarthak, Sateek v Samyik Chintan...Sadhuwad..
आपकी यह पोस्ट तब पढ़ रहा हूं, जबकि ताजा ताजा महाभारत पर एक टीका स्वरूपी ३५० पेज की पुस्तक समाप्त की है।
और आप से असहमति का कोई बिन्दु ही नहीं बन रहा। जो पुस्तक में पढ़ा है, उसे कई दिनों तक मन में चलाऊंगा। और कुछ तो व्यक्तित्व का अंग बन जायेगा!
आपके विचार और लेखनी हमेशा बहुत जरूरी विषयों पर सटीक चलती है. आपकी भाषा स्तरीय है और मुझे सदा प्रभावित करती है. थोड़ा समय और निकलने की कोशिश कीजिये यानि कुछ जल्दी आया करें.
आज की शिक्षा केवल भौतिक उन्नति के लिए प्रेरित करती है. आप जिन माध्यमों से जुड़ने की बात कर रही हैं वे आध्यामिक उन्नति के लिए हैं. ईशोपनिषद केवल भौतिक या केवल अध्यात्मिक उन्नति को हतोत्साहित करता है. ईशोपनिषद के अनुसार मनुष्य को भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनोंही क्षेत्रों में सक्रिय रहना चाहिए.आर्थात आज के सन्दर्भ में मनुष्य भौतिक उन्नति के लिए तो प्रयत्नशील रहे ही किन्तु आध्यात्मिकता में भी रुचि ले.
काश नैतिक शिक्षा की किताबें फिर से सिलेबस में शुरू हो जाएँ ... शायद बच्चों का आत्महत्या वाला दौर बंद हो जाए .. बहुत तकलीफ होती है इससे ...
बहुत सार्थक और विचारणीय पोस्ट है जब तक हमारा नैतिकाचरण सही नही होगा देश आगे नही बढ सकता।ेऔर इसके लिये स्कूलों मे नैतिक शिक्षा का प्रावधान होना चाहिये।धन्यवाद इस आलेख के लिये
बहुत -बहुत शुक्रिया ;
आपके लेख हमेशा की तरह आज भी बहुत रुचिकर लगे .पढने लगी तो पढ़ती ही गयी ---शिक्षा से लेकर आरक्षण तक और फिर ........... बहुत याद आये भी ,बहुत अच्छी लगी
शिक्षा के प्रति का आपका दृष्टिकोण सही है!... एक सार्थक लेख!
bahut gyanvrdhak aalekh apki bhashashaili mn moh leti hai .
shiksha sirf paisa kmane ka sadhn banta ja rha hai ye utna hi sahi hai jitna ki aaj mnushy sirf apne lie jeena seekh rha hai .
हजारों हजारों वर्ष का इतिहास हमें सिर्फ यही तो सिखाता है कि हमें अपने आज को कैसे सुखद बनाना है,क्या करने से बचना है और क्या अवश्य ही करना है.
saar hai vidhya arjan ka aapki baton mein
bahut lambe samay se aapke vicharon or anubhav se saje aalekh ka intjar tha
mera manna hai ki blogjagat ke har sadasy ko aapke lekh padhne chahiye
'आज व्यक्तित्व निर्माण अर्थोपार्जन के सम्मुख पूर्णतः गौण हो चुका है.मुझे तो सदैव ही यही लगता है कि आज जो शिक्षा व्यवस्था है वह मनुष्य नहीं भेड़ों की भीड़ तैयार कर रही है,जिसमे प्राण तो हैं पर चिंतन योग्यता नहीं..'
-बहुत हद्द तक आप के विचारों से सहमत हूँ..
शिक्षा के सिकुड़ते उद्देश्य भी बहुत हद्द तक जिम्मेदार हैं ही ..
-एक चिंतनशील विषय..सार्थक लेख.
ek sarthak aalekh.......achchha laga ye vicharpurn sansmaran aur uss par se apki abhivyakti.....:)
Nimantran: mere blog pe aane ka:)
भौतिक सुख सुविधाओं के उपकरणों से घर और बाज़ार अटे पटे पड़े हैं, पर मनुष्य रोज थोडा और अशांत ,थोडा और अकेला, थोडा और भयभीत होता चला जा रहा है.
बहुत सार्थक लेख है..
अशांति तो होगी ही, अब हमारी आशाएं बहुत बढ़ गयी हैं
अब सिर्फ रोटी, कपडा और मकान ही नहीं चाहिए...
मकान भी पॉस कालोनी / सोसाइटी में चाहिए, AC चाहिए, कार चाहिए, कार भी बड़ी होनी चाहिए,
२-४ फोरेन ट्रिप चाहिए, पहनने के लिए ब्रांडेड कपडे, जूते और घडी चाहिए -- और भी ना जाने क्या-क्या
जब इतना कुछ चाहिए, तो शांति को खुद से दूर तो करना ही होगा |
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हमारी विकृत शिक्षा प्रणाली में आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है. अपनी त्रुटिपूर्ण शिक्षाव्यवस्था का ही दोष है की आज ८०-९०% ज्यादा पढ़े लिखे लोग अपनी संस्कृति से प्रेम नहीं घृणा सा करने लगा है. सरकार, ख़ास कर सेकुलरों की जमात, विकृत शिक्षा प्रणाली में आमूल परिवर्तन करेगी.... सेकुलरों की सरकार ने ही तो भारत की शिक्षा प्रणाली को विकृत किया है.
मुझे लगता है हम अभिभावकों को अपने बच्चों के आत्मिक विकाश के लिए स्चूलों (अंग्रेजी, कॉन्वेंट, सरकारी) पर निर्भरता कम करनी चाहिए. अपने बच्चों को किसी ना किसी आध्यात्मिक संगठन में सप्ताह में कम से कम एक बार बच्चों को ले जाना चाहिए.
सुन्दर विचारणीय आलेख.
आपका सुस्पष्ट सार्थक चिंतन
पढकर अच्छा लगा.
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