परीक्षा फल तीन महीने बाद निकलने वाला था,सो उसबार वहां गयी तो पूरे ढाई महीने रहने का अवसर मिल गया ... आनंद सर्वत्र पसरा पड़ा था वहां जिसमे हम दिन रात डूबते उतराते रहते थे..आनंद के अजस्र स्रोतों मध्य सर्वाधिक सुखकारी उसका वह साहचर्य सुख ही था जो मेरी ममेरी बहन की सहपाठी सातवीं कक्षा में अध्यनरत छात्रा थी.. प्रतिदिन सुबह विद्यालय जाने से पूर्व वह यहाँ अपनी सखी को संग लेने आया करती थी. पहली बार जब उसपर दृष्टि पड़ी थी तो ठिठक कर रह गयी थी..उसके भोलेपन और अनिद्य सौंदर्य ने ह्रदय को ऐसे बाँधा कि उसके सानिध्य को यह विकल रहने लगा था.. बहन को मैंने मना लिया कि विद्यालय से वापसी में प्रतिदिन उसे वह अपने साथ लेती आये.
दूध में गुलाब की पंखुडियां घोल शायद ईश्वर ने उसे रंग दिया था. हंसती तो रक्ताभ कपोल ह्रदय में उजास भर देते थे.. बड़ी बड़ी विस्तृत आँखें और सघन पलकें बिना काजल लगाये भी कजरारी लगतीं थीं और उसके अधर...उफ़ !!! बात बात पर उसका खिलखिलाना किसी भी मुरझाये मन को तरोताजा करने में समर्थ था. जान बूझ कर मैं उन दोनों को अपने पास बिठा लेती और कभी कहानियां सुना तो कभी चुटकुले उन्हें भरमाती..वे मुग्ध हो अपने मुख मंडल पर प्रसंगोनुकूल भाव बिखेरतीं और मैं विभोर होकर अपने हिस्से का रस लेती..कभी कहीं किसी पटचित्र में राधा रानी की मनोहारी छवि देखी थी, उस बाला में मुझे वही रूप साकार दीखता था.
मेरे उस पूरे प्रवास में यह क्रम कभी बाधित न हुआ था.. वहां से वापसी से हफ्ते भर पहले पता चला कि उसका विवाह सुनिश्चित हो गया है जो कि छठवें ही दिन होनेवाला है...बैठक में उसके दादाजी मेरे नानाजी को न्योतने आये थे..तिलमिलाती हुई मैं उनके सम्मुख पहुँची. हालाँकि तब मेरी भी अवस्था ऐसी न थी कि कोई मुझ किशोरी को गंभीरता से लेता. पर इससे मैं अपने प्रश्न पूछने की अर्हता थोड़े न खोने वाली थी..मैंने जाकर प्रश्न दाग ही दिया..
संभवतः वे स्वयं ही अपना पक्ष रख शान बघारने और मेरे नानाजी को सीख देने के लिए इस प्रश्न की आकांक्षा कर रहे थे, सो अतिउत्साहित हो उन्होंने अपना पक्ष रखा ..." हमारे मैथिल समाज में कन्यादान की परंपरा है..कन्या का अर्थ है ऐसी कन्या, जो सचमुच ही कन्या हो. यदि कन्या अपने मायके में ही बड़ी ही जाती है तो माता पिता नरकगामी होते हैं. समय भले कितना भी बदल गया हो,पर हमारे वंश में आजतक इस परंपरा का खंडन न हुआ है और न होगा...."
अगले छः दिन मैं तिलमिलाती रही और ठान लिया था कि जो हो जाए, किसी स्थिति में नहीं जाउंगी इस विवाह में..पर न जाने कौन सी डोर थी जिसमे आबद्ध सम्मोहित सी अन्य परिवार जनों संग मैं उनके घर की ओर बढ़ चली..जब हम पहुंचे,द्वार पूजा संपन्न हो चुकी थी और अगले रीति की प्रतीक्षा में वर अपने संगी साथियों संग पंडाल में ही विराज मान थे..माथे पर सुशोभित मौर के कारण वर का मुख मंडल तो न दिखा पर उनका पहलवान सा डील डौल मेरी पिंडलियों को कंपकपा गया...वहां हँसी हिलोड़ का माहौल था और गुजरते हुए मेरे कानों में वर के एक संगी का स्वर गया - "देखो, आज जदि किला फतह न किया न...तो फिर......, फिर जीवन भर गुलाम बने रहना ,सो ध्यान रहे......हा हा हा हा....."
पीली साड़ी और आभूषण से सुसज्जित उस गुडिया का मुग्धकारी रूप नैनों को ऐसे मोह गया कि पलकें, कई पल को अपना स्वाभाविक गुण ही भूल गयीं.एकटक स्थिर हो गयीं उसपर जाकर.पर यह अवस्था अधिक देर तक न रह पाई.जैसे ही परिस्थिति का ध्यान आया, आँखें धार बहाने लगीं.उनके घर के निकट ही हमारा घर था, छोटी बहन को नानी को बता देने को कह मैं घर वापस चली आई...
नानी मामी जब वापस आयीं तो वर और वर के घर के गुण बखाने नहीं अघा रही थीं..कई पीढ़ियों से लक्ष्मी जी ने झा जी के घर में स्थायी निवास बना रखा था.पर सरस्वती जी की कृपा दृष्टि उन्हें अबतक न मिली थी.. झा जी ने अपने जीवन में बड़ा प्रयास किया पर दो पीढ़ियों में न तो कोई बाल बच्चा उच्च शिक्षा पा सका न ही चाहकर भी अबतक वे कोई इंजीनियर डाक्टर दामाद दरवाजे पर उतार पाए थे. परन्तु इस बार ईश्वर ने उनकी साध पूरी कर दी थी.. वर के घर केवल लक्ष्मी जी ही नहीं सरस्वती जी भी बसती थीं.वर बिजली विभाग में कनीय अभियंता थे...
उसबार जो ननिहाल से वापस आई तो फिर दो वर्ष बाद ही ममेरे भाई के विवाह के अवसर पर पुनः जाने का सुयोग बना ..प्रणाम पाती, कुशल क्षेम ,भोजन इत्यादि का उद्योग संपन्न हुआ ही था कि छोटी बहन पूछ बैठी...दीदी आपको मेरी वो सखी याद है ?? मिलेंगी उससे ??? मेरा ह्रदय उस स्मृति गंध से आलोड़ित हो गया.तीव्र उत्कंठित हो मैंने उससे आग्रह किया कि बाकी सब बाद में होता रहेगा,पहले तू मुझे उससे मिलवा दे.
यह एक अच्छी परंपरा थी उनमे, कि विवाह भले बाल्यावस्था में हो जाए पर द्विरागमन(गौना) कम से कम तीन, पांच या सात वर्ष बाद ही हुआ करता था.दामाद भले अपने ससुराल आता जाता रहता था,पर कन्या गौने के बाद ही अपने ससुराल जाती थी. अभी उसका गौना नहीं हुआ था इसलिए वह यहीं रह रही थी..लम्बे डग भरते हम उसके घर पहुँच गए.बड़ा परिवार था उनका , कई महिलायें आँगन में विराजित थीं. शिष्टाचार निभाते पैर छूने का अभियान चल पड़ा और इसी क्रम में बच्चे को गोद में लिए मैंने जिसके पैर छुए ,अनायास वहां हंसी की फुहार फूट पडी .. वह भी लपक कर पीछे हट गई. सिर उठाकर देखा तो प्रथम दृष्टया पहचान न पाई..
बहन ने झकझोरा...अरे दी, नहीं पहचाना आपने...इसी से तो मिलने दौड़ी हुई आयीं थीं आप. ध्यान से देखा, तो कलेजा दरक गया. वह जो छवि मन में बसी थी,उसकी क्षीण सी रेखा बची थी वहां. पूरा चेहरा बरौनियों से भरा हुआ. रंग उतरकर गेहूंआ भी नहीं बच गया था. लम्बी अवश्य हो गई थी पर लावण्यता रंचमात्र भी न बची थी उसमे.. कहीं अनजाने में यदि देखती तो किसी हालत में उसे नहीं पहचान पाती मैं..एक और धमाका हुआ...बताया गया कि यह गोद का बालक उसी का कोखजाया है..
किला केवल फतह ही नहीं हुआ था, अपितु उसे पूर्णतः ध्वस्त भी कर दिया गया था.....
...............
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44 comments:
बहुत मर्मस्पर्शी.
क्या कहें? समझ नहीं आ रहा. वो सुबह कभी तो आएगी की तर्ज पर कहा जा सकता है कि शायद स्थिति बदले.
अफ़सोस की अभी भी ऐसी कुप्रथाएं समाज में विद्यमान हैं.
`कहीं अनजाने में यदि देखती तो किसी हालत में उसे नहीं पहचान पाती मैं'
बहुत दिनों बाद देखने पर ऐसी दुविधा अक्सर हो जाया करती है। अच्छी मर्मस्पर्शी रचना के लिए बधाई॥
गोद का बालक उसी का खोखजाया है..
किला केवल फतह ही नहीं हुआ था, बल्कि उसे पूर्णतः ध्वस्त भी कर दिया गया था.....
..मार्मिक! बाल विवाह हमारे समाज की कुप्रथा है। आज भी है..कितनी शर्मनाक बात है!
..कोखजाया।
बहुत मार्मिक ....आज भी यह प्रथा चल रही है ..यही अफ़सोस होता है ..
बहुत मार्मिक कहानी है। शुभकामनायें
दुखद। शायद अब इन प्रथाओं में बदलाव आ गया हो। पर अगर अब भी ज़ारी है तो स्थिति अफ़सोसजनक है।
बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
काव्य प्रयोजन (भाग-८) कला जीवन के लिए, राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें
यह एक आम दृश्य है भारतीय परिवेश का .....विवाह के पहले का सौन्दर्य विवाहोपरांत बदसूरती में बदल जाता है -,गावों में तो लगभग शतप्रतिशत ऐसा ही होता है -कुपोषण ,जल्दी जल्दी बच्चे -यही कारण होते हैं -आप का संस्मरण इसी बात की पुष्टि करता है !
दो संशोधन कर लीजियेगा -क्षात्रा नहीं छात्रा और खोख नहीं कोख
यह गलत दिशा है, यह नहीं स्वीकार्य है।
दुखद .. इस तरह के विवाह की परंपरा अभी तक पूर्णतः खत्म नहीं हो पाई है।
दुखद....बहुत मर्मस्पर्शी.......
आज भी यह स्थिति अफ़सोसजनक है।
अच्छी मर्मस्पर्शी रचना के लिए.... बधाई
कुप्रथाएं तो मै इसे नही कहुंगा, क्योकि जिस समय यह प्रथाएं बनी होंगी उस समय समाज का ढांचा अलग था, उस समय हिन्दुयो की लडकियो को मुस्लिम अक्रमनकारी, जबर्दस्ती उठा के ले जाते थे, हिन्दु जो संख्या मै कम होते थे,उन मे एकता नही होती थी, उन से लड नही पाते थे इस लिये आपस मै एकता पेदा करने के लिये बच्चो की शादी कर देते थे, ओर इस प्रकार एक ओर एक मिल कर एक गठन बन जाता था, ओर फ़िर यह बहु जिस गांव या जिस कबीले मे जाती थी, उस कबीले की इज्जत होती थी, ओर फ़िर सब मिल कर उस हमला वर से लडते थे, लेकिन अब समय बदल गया है ओर हमे उन ही प्रथाओ से बंधे नही रहना चाहिये, आप की इस कहानी से सहमत हुं,आज हमे इस बारे सोचना चाहिये. धन्यवाद
एक स्पष्टीकरण देना चाहूंगी...
न तो यह पूर्णतः कपोल कल्पित कथा है,न कोरा संस्मरण और न ही किसी व्यक्ति विशेष की जीवन गाथा है...
यह सत्य है कि आज बहुतायत में यह स्थिति नहीं...पर कभी परंपरा के नाम पर तो कभी दहेज़ के भय से कस्बों और गाँवों में हिन्दू मुस्लिम दोनों धर्मों में कुछ हद तक आज भी बाल विवाह तथा बेमेल विवाह की कुप्रथा पोषित है..
गाजे बाजे के शोर में आज भी न जाने कितनी बालाओं का आर्तनाद रोज गुम होता है,जिनपर इस अत्याचार या बलात्कार की रिपोर्ट कहीं दर्ज नहीं होती....
पर सोचना तो पड़ेगा न कि इसके समूल नष्ट के लिए सार्थक क्या किया जा सकता है...
क्या कहें इस पर !
इस तरह की कुप्रथाएं गांवों में आज भी है ... राजस्थान तो आखा तीज पर ऐसे बेमेल विवाहों के लिए कुख्यात है ..यथासंभव कोशिश की जानी चाहिए इन्हें रोकने की ..
सामाजिक बुराई पर अच्छी कहानी ..!
आपका शिल्प साध हुआ है और भाषा सदैव प्रभावी होती है इस पर फिर से क्या कहूँगा लेकिन रुढियों के बंधनों से फतह होते किले पर यह एक विचारणीय रचना है. पूरे उत्तर भारत में रीति रिवाज लगभग मिलते जुलते हैं और दक्षिण में स्थितियां और भी अधिक कठोर है. बालिका के विवाह की जल्दबाजी के पीछे कई सामाजिक और आर्थिक कारण रहे हैं. आपने वस्तुतः एक जीवन के नियोजित दमन का चित्र उकेरा है. भविष्य को सुनिश्चित करने के प्रयास में वास्तव में उसका भविष्य बाँध दिया गया है. वह जीवन की कच्चे धागे से बंधी डोर जिस दिन टूट गई उसके बाद की कहानी और भी भयावह है.
ये सच है कि हमारा भूतकाल इसी प्रकार की असंख्य स्मृतियों से भरा हुआ है. हम शिक्षित भी नहीं हो पा रहे हैं तो चेतन होने का विचार दूर की कौड़ी है. आपने रचना को कुछ इस तरह बुना है कि मुझे घर में नज़रबंद एक लड़की दिखाई देने लगी है. मानव के स्वभाविक स्वतंत्रता के विचार को हम सब मिल कर अंगूठा दिखा रहे हैं. समय की पगडण्डी पर कहीं उजाले की किरण दिखती है क्या ?
मार्मिक कहानी| समाज में बदलाव तो समाज के वयस्क सदस्य ही लाते हैं।
bharat me abhi bhi ANANADI ki kami nahi............:(
pata nahi kab ye kuprathayen khatm hongee!!
दुखद पूर्ण लगती है इस तरह की बातें .....पता नहीं इसका कहीं अंत है या नहीं ...आपके लिखे का ढंग मुझे हमेशा से बहुत प्रभावित करता है ...
अजश्र श्रोतों-अजस्र स्रोतों
मार्मिक कहानी,
यहाँ भी पधारें:-
अकेला कलम...
maarmik..baal-vivah jaisi kuprathaa aaj bhi nirmul nahi hui hai...oh.
बहुत समर्थ भाषा और शैली में समाज में व्याप्त कुरीतियों को दर्शाता यह आलेख दिल को छू गया।
यह आलेख हमारे पितृसत्तात्मक समाज के समक्ष यक्ष प्रश्न खड़ा करता है। समाज में विद्यमान कड़वे सच को बयान करते हुए यह आलेख स्मरण कराता है कि आधुनिक समय में भी कई स्त्रियां पुरूष के पुरातन भोग एवं अहं की प्रवृत्ति का शिकार बनती हैं।
बाल विवाह का विरोध करती सुन्दर कथा... हालांकि कुछ अविश्वसनीय बातें हैं इसमें..
मार्मिक ... हृदय स्पर्शीय ... ये विडंबना ही है की आज भी समाज में ऐसी कुरीतियाँ मौजूद हैं .... एकजुट हो कर खड़ा होना पढ़ेगा तभी मुक्ति मिलेगी समाज को ... आँखे खोलने वाली है आपकी पोस्ट ....
उफ़... एक पीड़ सी हो रही है हृदय में जैसे वर्षों बाद यात्रीजी (बाबा नागार्जुन) का द्विरागमन पढ़ा हो. बहुत सहजता से आपने इस कुरीति और तद्जन्य वेदना को व्यक्त किया है. आपकी भाषा तो बहुत समृद्ध है. धन्यवाद !!
अंतिम पंक्तिया जैसे किसी धारधार हथियार से लिखी गयी है.. बहुत गहरी चोट करती है..
एक साथ बहुत सारे शब्द मिल गए हिंदी के..
यह सच्चाई है कि आज भी बाल विवाह, बेमेल विवाह की कुप्रथा जीवित हैं ....चाहे वह गाँवों और कस्बों में ही क्यों न हों . इन विवाहों के सभी अपनी अपनी दलीलें देते हैं पर इसे पूरी तरह से ख़त्म होने में शायद अभी भी समय लगे . बहुत अच्छी प्रस्तुति ...भाषा..... उफ्फ....रंजना मन मोह लिया तुमने .
aapki shabdon par jo pakad hai kahi dekhne ko nahi milti ..
aap likhen or usmein chintan na ho aisa kabhi hua hi nahi hai ..utkrist lekhan hai aapka har drishti se
bhagvaan aapke lekhan ko us unchai tak le jaye jahan se aap sari dunia ko dikhai den or sab aapko ..chand suraj ki tarah
आप की कहानी अच्छी लगी क्यों की सच्ची है .सभी जगह कम उम्र , बेमेल शादियों से बच्चियां तबाह हो रही हैं.एसी अबलायें देखी गयी हैं जिनमे सुंदरता ही नहीं , गज़ब का टेलेंट भी था पढाई लिखाई छुट कर दो साल में दो बच्चे ला कर बर्बाद कर दी गयी .आप ने इस मामूली बात से जो मार्मिक खाका उस बच्ची का खींचा है कबीले तारीफ है.
आप की कहानी अच्छी लगी क्यों की सच्ची है .सभी जगह कम उम्र , बेमेल शादियों से बच्चियां तबाह हो रही हैं.एसी अबलायें देखी गयी हैं जिनमे सुंदरता ही नहीं , गज़ब का टेलेंट भी था पढाई लिखाई छुट कर दो साल में दो बच्चे ला कर बर्बाद कर दी गयी .आप ने इस मामूली बात से जो मार्मिक खाका उस बच्ची का खींचा है कबीले तारीफ है.
ओह्ह बाल विवाह की समस्या पर इससे ज्यादा मार्मिक आज तक नहीं पढ़ा कुछ भी...वास्तव में रोंगटे खड़े होने लायक. खास कर अंतिम पंक्तियाँ पढ़ कर तो सन्न रह गया....उम्मीद करता हूँ आपको कम से कम इस समस्या पर दुबारा ना लिखना पड़े.परिस्थितियाँ बदल रही है. झा जी लोग भी अब
थोड़ा सुधर जाए तो बेहतर. एक मर्मस्पर्शी गाथा.
- पंकज झा.
ओह!! बहुत ही मार्मिक कहानी...बाल-विवाह का तो यही हश्र होता है..पर अब बदलाव दृष्टिगोचर हो रहें हैं...काश,देश के कोने कोने में यह जागरूकता फैले.
meraa durbhaagya hai ki kaee
maheenon se main aapke blog par
nahin aayaa hoon aur mun
ko jhakjhor dene waalee kaee kahaniyon se vanchit rahaa hoon.
satya par aadhaarit aapkee is
kahani ne dil hilaa kar rakh diyaa.
aesee marmsparshee kahaniyan bahut
kam padhne ko miltee hain aajkal.
aapkee sashakt lekhnee ko naman.
रंजना जी ;
मैं तो कथा को पढकर बहुत भीतर तक सहम गया .. देश में कितनी सारी कुप्रताये है .. आपने इतनी अच्छी कथा लिखी , इसके लिये आपको आभार .
धन्यवाद.
सदिया बदल गयी पर कहीं कुछ नहीं बदला क्युकी सब अपनी अपनी छवि से बधे हैं कहानी का उदगम/सच भी होता हैं और वो कल्पना से भी भयंकर होता हैं . चलिये फिर मन को बाँध के प्रतिबद्ध हो की जो बदल सकते हैं वो बदले
एक हजार साल तक गुलाम रहे। जाने कितने संत आए और चले गए। हम नहीं सुधरे हैं। रिवाज के नाम पर बाल विवाह अब भी जारी है। किला फतह के नाम पर दोस्तों का उकसाना जारी है। एक हजार साल में न सुधरे तो पता नहीं कितने साल और चाहिए सुधरने में......तब तक जाने कितने गुलाब के फूल इसी तरह मुरझाते रहेंगे। देश इसी तरह गरीबी के दलदल में फंसा रहेगा।
अच्छी मर्मस्पर्शी रचना के लिए बधाई॥
sunder dhang se ki gaye marmik abhivyakti.
अब इस परम्परा को या कुल के रीति रिवाज को क्या कहेंगे ? कन्या का मतलब ही कम आयु की बच्ची से लगाया जाता है यही तो दुर्भाग्य है कि बच्चियां कम उम्र में ब्याह दी जाती है ,कम उम्र में माँ बन जाती है और अक्सर मर जाती है क्यों इस धरती पर आयीं क्यों चली गईं कुछ पता नहीं | जो ग्रंथो में लिखा है कितनी उम्र तक की को कन्या कहेंगे ,,किस उम्र तक की को गौरी कहेंगे ये पुरातन अर्थ अब बदल जाना चाहिए
हृदयस्पर्शी रचना...मन को छू गई...बधाई.
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'शब्द-शिखर'- 21 वीं सदी की बेटी.
अच्छी रचना है ।
मर्मस्पर्शी रचना ! ये कुप्रथा कम जरुर हुई है पर बंद नहीं हुई है | बाल विवाह (कम से कम लड़कियों के लिए) विवाह नहीं बल्कि एक सजा है... और इस सजा की त्रासदी से कई बच्चियां ताउम्र नहीं उबर पाती हैं|
oooofffff.....!!!
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