प्रेम,एक ऐसी दिव्य अनुभूति, जिससे सुन्दर,जिससे अलौकिक संसार में और कोई अनुभूति नहीं.जब यह ह्रदय में उमड़े तो फिर सम्पूर्ण सृष्टि रसमय सारयुक्त लगने लगती है.ह्रदय विस्तृत हो ब्रह्माण्ड में और ब्रह्माण्ड ह्रदय में समाहित हो जाता है. मन और कल्पनाएँ अगरु के सुवास से सुवासित और उस जैसी ही हल्की हो व्योम में धवल मेघों के परों पर सवार हो चहुँ ओर विचरने लगता है. मन तन से और तन मन से बेखबर हो जाता है. यह बेसुधी ही आनंद का आगार बन जाती है.पवन मादक सुगंध से मदमाने लगता है और मौन में संगीत भर जाता है. जीवन सार्थकता पाया लगता है..
मनुष्य ही क्या संसार में जीवित ऐसा कोई प्राणी नहीं, जो प्रेम की भाषा न समझता हो और इस दिव्य अनुभूति का अभिलाषी न हो . आज तक न जाने कितने पन्ने इस विषय पर रंगे गए परन्तु इसका आकर्षण ऐसा, इसमें रस ऐसा, कि न तो आज तक कोई इसे शब्दों में पूर्ण रूपेण बाँध पाया है और न असंख्यों बार विवेचित होने पर भी यह विषय पुराना पड़ा है.आज ही क्या, सृष्टि के आरम्भ से इसके अंतिम क्षण तक यह भाव,यह विषय, अपना शौष्ठव,अपना आकर्षण नहीं खोएगा, क्योंकि कहीं न कहीं यही तो इस श्रृष्टि का आधार है..
माना जाता है प्रेम सीमाएं नहीं मानता. यह तो अनंत आकाश सा असीम होता है और जो यह मन को अपने रंग में रंग जाए तो ह्रदय को नभ सा ही विस्तार दे जाता है.प्रेम का सर्वोच्च रूप ईश्वर और ईश्वर का दृश्य रूप प्रेम है..और ईश्वर क्या है ?? करुणा,प्रेम, परोपकार इत्यादि समस्त सद्गुणों का संघीभूत रूप. तो तात्पर्य हुआ जो हृहय प्रेम से परिपूर्ण होगा वहां क्रोध , लोभ , इर्ष्या, असहिष्णुता, हिंसा इत्यादि भावों के लिए कोई स्थान नहीं बचेगा. प्रेमी के ह्रदय में केवल ईश्वर स्वरुप सत का वास होगा और जहाँ सत हो, असत के लिए कोई स्थान ही कहाँ बचता है..
पर वास्तविकता के धरातल पर देखें, ऐसा सदैव होता है क्या ?? प्रेम पूर्णतया दैवीय गुण है,परन्तु इसके रहते भी व्यक्ति अपने उसी प्रेमाधार के प्रति शंकालु , ईर्ष्यालु , प्रतिस्पर्धी, स्वार्थी, कपटी,क्रोधी,अधीर होता ही है. तो क्या कहें ?? प्रेम का स्वरुप क्या माने ?? हम दिनानुदिन तो देखते हैं, प्रेम यदि ह्रदय को नभ सा विस्तार देता है तो छुद्रतम रूप से संकुचित भी कर देता है और कभी तो दुर्दांत अपराध तक करवा देता है. फिर क्या निश्चित करें ? क्या यह मानें कि प्रेम व्यक्ति की एक ऐसी मानसिक आवश्यकता है,जो अपने आधार से केवल सुख लेने में ही विश्वास रखता है, प्रेम के प्रतिदान का ही आकांक्षी होता है? प्रेमी उसकी प्रशंशा करे, उसपर तन मन धन न्योछावर कर दे, उसके अहम् और रुचियों को सर्वोपरि रखे, उसे अपना स्वत्व समर्पित कर दे,तब प्रेमी को लगे कि उसने सच्चे रूप से प्रेम पाया...क्या यह प्रेम है?
क्या इस भाव को जिसे अलंकृत और महिमामंडित कर इतना आकर्षक बना दिया गया है, वैयक्तिक स्वार्थ का पर्यायवाची नहीं ठहराया जा सकता ? एक प्रेमी चाहता क्या है? अपने प्रेमाधार का सम्पूर्ण समर्पण ,उसकी एकनिष्ठता,उसका पूरा ध्यान ,उसपर एकाधिकार, उसपर वर्चस्व या स्वामित्व, कुल मिलाकर उसका सर्वस्व. एक सतत सजग व्यापारी बन जाता है प्रेमी,जो व्यक्तिगत लाभ का लोभ कभी नहीं त्याग पाता. लेन देन के हिसाब में एक प्रेमी सा कुशल और कृपण तो एक बनिक भी नहीं हो पाता.हार और हानि कभी नहीं सह सकता और जहाँ यह स्थिति पहुंची नहीं कि तलवारें म्यान से बाहर निकल आतीं हैं..
प्रेम पाश में आबद्ध प्रेमी युगल प्रेम के प्रथम चरण में परस्पर एक दूसरे में सब कुछ आलौकिक देखता है.जो वास्तव में सामने वाले में रंचमात्र भी नहीं,वह भी परिकल्पित कर लेता है. सामने वाले में उसे रहस्य और सद्गुणों का अक्षय भण्डार दीखता है..युगल परस्पर एक दूसरे के गहन मन का एक एक कोना देख लेने,जान लेने और उसे आत्मसात कर लेने की सुखद यात्रा पर निकल पड़ते हैं. आरंभिक अवस्था में युगल एक दूसरे के लिए अत्यधिक उदार रहते हैं, प्रतिदान की प्रतिस्पर्धा लगी रहती है,जिसमे दोनों अपनी विजय पताका उन्नत रखना चाहते हैं, पर जैसे जैसे ह्रदय कोष्ठक की यह यात्रा संपन्न होती जाती है,कल्पनाओं का मुल्लम्मा उतरने लगता है,यथार्थ उतना सुन्दर ,उतना आकर्षक नहीं लगता फिर. रहस्य जैसे जैसे संक्षिप्तता पाता है,कल्पना के नील गगन में विचारने वाला मन यथार्थ के ठोस धरातल पर उतरने को बाध्य हो जाता है,जहाँ कंकड़ पत्थर कील कांटे सब हैं..इसे सहजता से स्वीकार करने को मन प्रस्तुत नहीं होता और तब आरम्भ होता है हिसाब किताब,कृपणता का दौर.
जो युगल एक दूसरे के लिए प्राण न्योछावर करने को आठों याम प्रस्तुत रहते थे, अपने इस प्रेम को जीवन की सबसे बड़ी भूल मानने लगते हैं,इस परिताप की आंच में जलते प्रेमी क्षोभ मिटाने को सामने वाले को अतिनिष्ठुर होकर दंडित करने लगते हैं और एक समय के बाद इस प्रेम पाश से मुक्ति को छटपटाने लगते हैं या फिर एक बार फिर से एक सच्चे प्रेम की खोज में निकल पड़ते हैं. कहाँ है प्रेम,किसे कहें प्रेम ?? इस युगल ने भी तो बादलों की सैर की थी तथा प्रेम के समस्त लक्ष्ण जिए थे और मान लिया था कि उनका यह प्रेम आलौकिक है.
अब एक और पक्ष -
प्रेम स्वतःस्फूर्त घटना है,जो किसे कब कहाँ किससे और कैसे हो जायेगा ,कोई नहीं कह सकता..इसपर किसी का जोर नहीं चलता और न ही यह कोई नियम बंधन मानता है.
अस्तु,
पचहत्तर हजार आबादी वाला एक गाँव, जिसमे पांच महीने में चौदह वर्ष से लेकर पचपन वर्ष तक के छः प्रेमी जोड़े अपना स्वप्निल संसार बसाने समाज के समस्त नियमों के जंजीर खंडित करते घर से भाग गए.यह आंकडा उक्त गाँव के स्थानीय पुलिस थाने में दर्ज हुए जिसे लोगों ने जाना. ऐसे कितने प्रकरण और हुए जिसे परिवार वालों ने लोक लाज के बहाने दबाने छिपाने का प्रयास किया,कहा नहीं जा सकता. इन छः जोड़ों में से तीन जोड़ा था ममेरे चचेरे भाई बहनों का,एक जोड़ा मामा भगिनी का, एक जोड़ा गुरु शिष्या का और एक जोड़ा जीजा साली का. निश्चित रूप से उसी अलौकिक प्रेम ने ही इन्हें कुछ भी सोचने समझने योग्य नहीं छोड़ा.यह केवल स्थान विशेष की घटना नहीं,विकट प्रेम की यह आंधी सब ओर बही हुई है जो अपने वेग से समस्त नैतिक मूल्यों को ध्वस्त करने को प्रतिबद्ध है...
तो फिर प्रेम तो प्रेम होता है,इसमें सही गलत कुछ नहीं होता,मान कर इन घटनाओं को सामाजिक स्वीकृति/मान्यता मिल जानी चाहिए क्या ?? यह यदि आज गंभीरता पूर्वक न विचारा गया तो संभवतः मनुष्य और पशु समाज में भेद करना कठिन हो जायेगा. शहरों महानगरों में गाँवों की तरह सख्त बंदिश नहीं होती और वहां परिवार तथा आस पड़ोस में ही प्रेम के आधार ढूंढ लेने की बाध्यता भी नहीं होती ,इसलिए वहां चचेरे ममेरे भाई बहनों में ही यह आधार नहीं तलाशा जाता..पर एक बार अपने आस पास दृष्टिपात किया जाय..आज जो कुछ यहाँ भी हो रहा है,सहज ही स्वीकार लेना चाहिए??
परंपरा आज की ही नहीं ,बहुत पुरातन है, पर आज बहुचर्चित है..यह है "आनर किलिंग". इसके समर्थक और विरोधी दोनों ही अपना अपना पक्ष लेकर मैदान में जोर शोर से कूद पड़े हैं.पर "आनर किलिंग" के नाम पर न तो डेंगू मच्छरों की तरह पकड़ पकड़ कर प्रेमियों का सफाया करने से समस्या का समाधान मिलेगा और न ही प्रेम को इस प्रकार अँधा मान कर बैठने से सामाजिक मूल्यों के विघटन को रोका जा सकेगा . आज आवश्यकता है व्यक्तिमात्र द्वारा व्यक्तिगत नैतिकता,सामाजिक मूल्यों की सीमा रेखाओं को सुदृढ़ करने की और प्रेम के सच्चे स्वरुप को पहचानने और समझने की.
समग्र रूप में जो प्रेम व्यक्ति के ह्रदय को नभ सा विस्तृत न बनाये,फलदायी सघन उस वृक्ष सा न बनाये जो अपने आस पास सबको फल और शीतल छांह देती है,जो व्यक्ति को सात्विक और उदार न बनाये,उसका नैतिक उत्थान न करे , वह प्रेम नहीं, प्रेम का भ्रम भर है. प्रेम अँधा नहीं होता,बल्कि उसकी तो हज़ार आँखें होती हैं जिनसे वह असंख्य हृदयों का दुःख देख सकता है और उनके सुख के उद्योग में अपना जीवन समर्पित कर सकता है..
------------
22.10.10
Subscribe to:
Posts (Atom)