17.5.10

उन्माद सुख ....

अपने जन्मजात संस्कार और अभिरुचियों के अतिरिक्त अपने परिवेश में जीवन भर व्यक्ति जो देखता सुनता और समझता है उसीके अनुरूप किसी भी चीज के प्रति उसकी रूचि- अरुचि विकसित होती है..बचपन से ही नशेड़ियों को जिन अवस्थाओं में और व्यवहार के साथ मैंने देखा , इसके प्रति मेरे मन में इतनी घृणा और वितृष्णा भर गयी थी कि मैं मान न पाती थी कि कोई नशेडी सज्जन भी हो सकता है. यह घृणा वर्षों तक मन को घेरे रही, पर कालांतर में मुझे इस उन्माद में भी एक बड़ी अच्छी बात दिखी . मुझे लगा नशा, नशेड़ी का भले लाख अहित करे पर जब किसी को जानना समझना और उसके प्रति अपनी धारणा स्थिर करनी हो, तो यह बड़े काम की हुआ करती है.क्योंकि और कुछ हो न हो उन्माद/नशा व्यक्ति को हद दर्जे का ईमानदार अवश्य बना देती है...

एक बार व्यक्ति टुन्नावस्था को प्राप्त हुआ नहीं कि देख लीजिये, अपने सारे मुखौटे अपने हाथ नोचकर वह अपने वास्तविक स्वरुप में आपके सामने उपस्थित हो जायेगा.फिर जी भरकर उसे देखिये परखिये और अपना अभिमत स्थिर कीजिये . मन के सबसे निचले खोह में यत्न पूर्वक संरक्षित दु - सु वृत्तियों ,भावों और स्वार्थों को एकदम प्लेट में सजा वह आपको सादर समर्पित कर देगा फिर आश्वस्त होकर निश्चित कीजिये की सामने वाले को कितना महत्त्व तथा अपने जीवन में स्थान देना है..

यह विभ्रम न पालें कि सामने वाला यदि गलियां दे रहा है तो दोष उस नशीले पदार्थ का है.वस्तुतः यह तो उसकी स्वाभाविक अंतर्वृत्तियां हैं,जिसपर से जैसे ही बुद्धि का नियंत्रण शिथिल पड़ा नहीं कि मन मनमौजी बन बैठा... इस परम पावन टुन्नावस्था में सभी लोग गलियां ही नहीं देते जहाँ कुछ लोग अत्यधिक भावुक हो जाते हैं, कुछ आक्रोशित , तो कुछ एकदम सुस्त पस्त हो जातें है और कई तो कवि शायर तक हो जाते हैं...अपने यहाँ कई महान गायक ऐसे हैं जो बिना मद्यपान के उत्कृष्ट प्रदर्शन ही नहीं कर पाते....
वो अमिताभ बच्चन जी ने जो परम दार्शनिक अविस्मरनीय अमृतवाणी कही थी इस सन्दर्भ में, वह यूँ ही नहीं कही थी..." नशा शराब में होता तो नाचती बोतल...."

तो बात तय रही कि जब व्यक्ति उन्मादित हो तो सरलता पूर्वक मुखौटे के पीछे के व्यक्ति को देखा परखा जा सकता है...सो जो नशा नहीं करते और इससे घृणा करते हैं,इस आधार पर इसे कल्याणकारी मान सकते हैं.. वैसे नशा केवल शराब गांजा भांग अफीम इत्यादि इत्यादि अवयवों का ही नहीं होता ,बल्कि कुछ उन्माद / नशा तो ऐसे होते हैं कि इनके आगे बड़े से बड़े ड्रग्स भी पानी भरते हैं. खाने पीने वाले अवयवों से उन्माद तो इनके सेवनोपरान्त ही चढ़ता है, जो कुछ समयोपरांत स्वतः ही उतर जाता है, पर " अहंकार " का मद तो ऐसा मद है जो व्यक्ति को आभास भी नहीं हो पाता कि कब यह सर चढ़ कर कुण्डली मार बैठ गया और से ऐसे ऐसे कार्य करवाने लगा जो उसके पतन को सुनिश्चित किये चला जा रहा है. अब चाहे यह धन ,बल ,बुद्धि, समृद्धि, पद ,रूप या इस प्रकार के किसी भी गुण का अहंकार उन्माद हो...

यूँ सन्मार्ग पर चलने का, परोपकार करने का या अच्छे काम करने का नशा भी कई लोगों को होता है और जिन लोगों को यह नशा होता है ऐसे ही लोग दुनियां को दिशा देते हैं,मानवता को सिद्ध और सार्थक करते हैं,पर यह नशा जरा दुर्लभ है. तनिक ध्यान देकर दोनों प्रकार के उन्माद का अंतर समझना होगा. सात्विक उन्मादी निश्चित ही विशाल हृदयी ,विनयशील ,परदुखकातर होते हैं , उनके समस्त प्रयास कल्याणकारी होते हैं. सत्य, धर्म के रक्षार्थ सहज ही प्राणोत्सर्ग को ये तत्पर रहते हैं. करुणा क्षमा ममत्व इनके स्थायी गुण होते हैं,इनकी सोच समझ चिंतन,सब सात्विक और विराट हुआ करते हैं और इसके ठीक विपरीत अभिमानी अपने सुख संतोष और तुष्टि हित ही समस्त उद्यम करते हैं , किसी को अपमानित प्रताड़ित कर ये परमसुख पाते हैं... और तो और यदि कोई इनका अहित करे ,कहीं इनका अहम् आहत हो तो किसीके प्राण लेने में भी ये पल को नहीं झिझकते ..

बड़ी विडंबना है...नाम यश पद प्रतिष्ठा सुख एकत्रित करने को, हर प्रकार से बड़ा होने को, जो व्यक्ति प्रतिपल सजग सचेष्ट रहता है,वह स्मरण नहीं रख पाता कि यदि उसे बड़ा होना है ,मान पाना है, तो सचमुच ही बड़ा बनना पड़ेगा, संकीर्ण ह्रदय,छोटी सोच का रह वह कभी बड़ा नहीं हो सकता. कितना भी कुशल अभिनेता क्यों न हो, मुखौटा लगा, कुछ समय के लिए व्यक्ति नाम,मान, यश, प्रतिष्ठा यदि कमा भी ले, तो उसे चिरस्थायी नहीं रख सकता. कोई न कोई पल ऐसा आएगा जब अभिमान मद में चूर हो व्यक्ति चूकेगा ही और सारी पोल पट्टी खुलते क्षण न लगेगा ...

अंगुलिमाल जब गंडासा ले भगवान् बुद्ध की हत्या करने को उद्धत हो उनके सामने आ खड़ा हो गया तो भी भगवान् बुद्ध की जो स्थायी प्रवृत्ति क्षमा दया करुणा और शांति थी,वही बनी रही और उनके इसी गुण ने, उनके विराट व्यक्तित्व ने, अंगुलिमाल को भी हत्यारे से योगी बना दिया. यह होता है सात्विक स्वरुप और उसका असर . यह कहकर हथियार रखा जा सकता है कि ये सब बड़ी बड़ी बातें हैं, हम साधारण जन भगवान् बुद्ध थोड़े न बन सकते हैं,पर भाई एक बार अपने ह्रदय को टटोल कर देखें, यदि यह अवसर मिले कि मन भर मान सम्मान,पद प्रतिष्ठा की मात्रा बटोर लेने का अवसर मिले , तो अपने रूचि के क्षेत्र में भगवान् बुद्ध सा सफल, सिद्ध, प्रसिद्द और पूज्य कौन नहीं होना चाहेगा ?

तुलसी दास जी ने कहा है- " कुमति सुमति सबके उर रहहीं..." सभी धर्मों, सम्प्रदायों, पंथों ने स्वीकारा है कि मनुष्य के भीतर देव और दानव दोनों ही बसते हैं, बस बात है कि किसे किसने अपने वश में कर रखा है..दानव देव के वश में होगा तो मनुष्य देवतुल्य हो जायेगा और देव दानव के वश में होगा तो मनुष्य असुर सम होगा. महाभारत के महा संग्राम में रथ पर बैठे अर्जुन और सारथि बने कृष्ण कितना कुछ सिखा जाते हैं.... जबतक व्यक्ति स्वयं को अपनी वृत्तियों को इस प्रकार निबंधित न करेगा ,वह जीवन संग्राम नहीं जीत सकता.इस रथ में जुटे घोड़े वस्तुतः काम क्रोध लोभ मोह और अहंकार रूपी स्वेच्छाचारी घोड़े हैं जो सदैव ही मनुष्य को तीव्र वेग से अपनी अपनी दिशा में भगा ले जाने को उद्धत रहते हैं..परन्तु एक बार जब इनकी लगाम व्यक्ति कुशल सारथी ईश्वर (विवेक) के हाथों सौंप देता है, अभ्यास द्वारा बल(अर्जुन के रथ पर विराजमान हनुमान जी ) को साध निष्काम कर्म को तत्पर और समर्पित होता है, जीवन संग्राम में धर्ममार्ग से क्षण को भी विलगित नहीं होता है , तो फिर साधन साथ हो न हो,विजयश्री उसे मिलती ही है...

दुनिया में इतने सारे लोग जो इस प्रकार विभिन्न व्यसनों में लिप्त हैं, उन्मादित होने को लालायित रहते हैं , ऐसा नहीं है कि प्रमाद /नशा में कोई सुख नहीं. सुख है, और बहुत बहुत सुख है.सुख है तभी तो लोग इसकी ओर इस तरह भागते हैं...पर तय यह करना होगा कि कौन सा सुख किस कीमत पर लेना है.दुनियां में मुफ्त कुछ भी नहीं होता, हर सुख की कोई न कोई कीमत होती है, बस चयन में जो चपलता, बुद्धिमानी दिखायेगा ,वही जय या पराजय पायेगा...


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