15.11.11

न्यायप्रिय राजा ....

एक राजा थे, बड़े ही न्यायप्रिय..न्याय करना एक तरह से उनका शौक था,जूनून था,जिन्दगी थी...जबतक दिन भर में सौ, डेढ़ सौ न्याय न कर लेते उन्हें चैन न मिलता,खाना न पचता..कहते हैं, जस राजा तस प्रजा.. उनके विश्वस्त स्वामिभक्त दरबारियों को भी न्याय प्रक्रिया में भाग लेने से प्रिय और कुछ भी न था..वे भी अपना सब काम धाम किनारे कर राजा को न्याय करते देखते रहते और इस एकमात्र विषय की जुगाली करते रहते .
तो एक दिन ऐसे ही न्याय प्रक्रिया के बीच दो अपराधियों को लाया गया.
राजा ने दोनों के अपराध पूछे. तो बताया गया कि "क" ने दस चूहे और पचास मच्छर जान से मारे हैं, कोतवाल को थप्पड़ से मारा है और राजा को अन्यायी कहा है...
और "ख" ने पंद्रह आदमियों को मारा, बीस एक डाके डाले ,करीब डेढ़ दर्जन बलात्कार किया और कई हेराफेरियां की हैं..
राजा अत्यंत क्रोधित हो गए कि जिस राज्य को वे रामराज्य बनाने के लिए दिन रात सोचते रहते हैं,वहीँ उनकी प्रजा ऐसे कारनामों से उनके अभियान पर पानी फेरने को तैयार रहती है...
घुडकते हुए वे गरजे - अरे दुष्टों, क्यों की तुम लोगों ने ऐसी हरकतें..जीव हत्या !!! ऐसा जघन्य अपराध !!! दे दूँ फांसी..???
"क" हड़का नहीं, बल्कि अड़ गया और बोला -

"महाराज, ये भी क्या बात हुई..चूहे मेरी फसलों को नष्ट कर रहे थे, तो न मारता उन्हें...और आपको पता भी है, आपके राजमहल के बाहर क्या स्थिति है .जिन म्युनिसिपैलिटी वालों को नगर की सफाई व्यवस्था देखनी है, मच्छड मारना है, वे तो राजमहल चमकाने और यहाँ के मच्छड मारने में लगे रहते हैं ,तो जो मच्छड दिन रात हमारा खून पीते रहते हैं,उन्हें मार हम अपना खून नहीं बचा सकते..?
और यह कोतवाल , वर्दी की धौंस दिखाकर हफ्ता मांग मांग हमें कंगाल किये हुए है..आज मैंने मना किया तो इसने मुझपर कोड़े बरसाए , तो बताइए न धोता उस अन्यायी को ..? "
"क" की दबंगई और ध्रिष्ट्ता देख राजा समेत समस्त दरबारी हतप्रभ रह गए..
 "ख" की उपस्थिति और अपराध तो लोग भूल ही गए...
ऐसा दुस्साहस ..!!!
सन्नाटा पसर गया दरबार में...
ऐसे में सबसे पहली आवाज उभरी "ख" की -
धिक्कार है,धिक्कार है...शेम शेम...
हमारे अन्नदाता प्रजापालक के साथ ऐसी बेहूदगी से सवाल- जवाब, ऊंची आवाज ..यह तो राज्य को चुनौती है..देशद्रोह है..
सबने "ख" से सहमति जताते हुए - शेम शेम और धिक्कार है, धिक्कार है.. उचारा ..
काफी समय लगा कोलाहल शान्त होने में..फिर बारी आई "ख" की ..
उससे पूछा गया कि ये हत्याएं और अपराध उसने क्यों किये...बिना एक पल गँवाए अत्यंत कातर और विनीत स्वर में गिडगिडा उठा वह ..
"महाराज ये जो भी अपराध गिनाये गए हैं, अपराध हैं,यह मैंने अभी अभी जाना है...सर्वथा अनभिज्ञता में यह सब कर गया  .. अब चूँकि मैंने ईश्वरपुत्र महाराज के साक्षात दर्शन कर लिए तो एकदम से विवेक जाग उठा मेरा, मन निर्मल हो गया... और अभी के अभी मैं ईश्वरपुत्र हमारे महान राजा तथा पवित्र धर्मग्रन्थ की शपथ लेकर कहता हूँ कि अब आगे से कभी भी ऐसे कर्मों में लिप्त नहीं होऊंगा.. "
दोनों पक्षों की सुन ली गई थी.गहन मंत्रणा हुई. और पवित्र न्यायप्रिय राजा ने अपना न्याय सुनाया :-
"ईश्वर ने इस सृष्टि की रचना की ,सब जीवों को जीवन जीने का सामान अधिकार दिया,जिसे लेने का मनुष्य को कोई अधिकार नहीं..इस तरह हत्या के तो "क" और "ख" दोनों ही सामान रूप से दोषी हैं, परन्तु जैसा कि सबने देखा "क" को न ही अपने किये पर पश्चाताप है और न ही आगे वह ऐसा नहीं करेगा, इसका उनसे कोई आश्वासन दिया है, इसके साथ ही राज्य या सत्ता के प्रति इसके मन में स्नेह या आदर का कोई भाव लक्षित नहीं होता..ऐसे अपराधी मनोवृत्ति के मनुष्य का समाज में खुले घूमना घातक है.अतः "क" को उसके जघन्य कृत्य और मानसिकता के लिए मृत्युदंड दिया जाता है..
और जैसा कि आप सबने अभी देखा कि देशभक्ति राष्ट्रप्रेम की भावना कैसे कूट कूट कर "ख" में भरी हुई है, कैसे उसे अपने कृत्य पर घोर पश्चाताप है..कैसे निर्मल और उच्च विचार हैं इसके.. साथ ही इसने आगे ऐसे किसी भी अपराध में लिप्त न होने की सौगंध खायी है ..अतः "ख" को अपराध मुक्त किया जाता है और साथ ही उसकी पवित्र भावना का आदर करते हुए ससम्मान  न्याय समिति में सलाहकार पद पर नियुक्त किया जाता है.."
दूध और पानी को अलग करता ऐसा विवेकपूर्ण न्याय...!!! प्रजा एक स्वर से साधु साधु कर उठी..जयघोष से राजमहल गुंजायमान हो उठा..
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समझे, कथा सन्देश (माने  कि  ओही - मोरल आफ द इस्टोरी) ???
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चलिए हमहीं बता देते हैं -
त मोरल ई है कि, राजनीति में पाप-पुण्य, सही-गलत, निति-नियम ..सब ऊ निर्धारित करता है जिसके हाथ में सत्ता होती है...

जदी राजा सही, त सबकुछ सही, आ राजा गोबर, त राष्ट्र गोबर... बाकी कोई मोरल बाला चिचिया छटपटा के का कर लेगा... चीं चपड़ जरूरत से जादे करेगा त भांग भूजते सूली लटकेगा..
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