ज्योतिष शाश्त्र के अनुसार चन्द्रमा मन का कारक है, मन को नियंत्रित करता है,इसलिए जब यह आकाश में अदृश्य रहे या अपने पूर्ण रूप में विदयमान हो, दोनों ही अवस्था में मन पर विशेष प्रभाव डालता है.मनुष्य सहित बाकी जीव जंतु इस प्रभाव को कितना अनुभूत और अभिव्यक्त कर पाते हैं ,पता नहीं,परन्तु सागर को देखिये, वह कोई पर्दा नहीं रखता,उद्दात्त रूप में अपने आवेगों को अभिव्यक्त कर देता है.विछोह में विषादपूर्ण चीत्कार और संयोग में हर्षपूर्ण उछाह,परन्तु एक बात है,समस्त संसार को डुबो लेने की क्षमता रखने वाला वह उदधि और उसकी लहरें चाहे जितना तड़प लें,उत्साह उत्सव में चाहे जितनी दीर्घ उछाल ले लें, परन्तु अपनी सीमाओं का कभी अतिक्रमण नहीं करते ।
माघी पूर्णिमा है आज.वसंत का मधुरतम दिन, चमकते चाँद संग सबसे चमकीली सुन्दर रात। पतझड़ ने पेड़ों को भले उसठ कर दिया है, पर इसकी भरपाई धरती पर बिछे फूलों के पौधों ने कुछ यूं कर दिया है कि ऊपर नजर ही नहीं जा रही है। अरे ये नज़रों को छोड़ें तब तो कोई कुछ और देखे। अब स्वाभाविक है जब बासंती पवन मन में उछाह भर रहा हो, धरती पर बिछे फूल मन में उतर आये हों तो मन में प्रणय/ श्रृंगार/ काम और रति क्यों न उतरें।प्राचीन भारतीय परम्परा में वसंतोत्सव की व्यवस्था थी। बड़े ही हर्षोल्लास से वसंत की आगवानी और सम्मान किया जाता था। धर्म अर्थ के बाद काम की प्रतिस्थापना जीवन का आवश्यक सोपान था क्योंकि इसके बाद ही व्यक्ति मोक्ष तक पहुँच सकता था।धर्म अर्थ काम मोक्ष चारों सोपानों की सामान महत्ता, न कोई कम ,न कोई ज्यादा और तब सम्पूर्णता पाता यह जीवन, यह सृष्टि।
खैर, समय बदला है, धर्म अब जीवन धर्म, मानवता नहीं बल्कि सेकुलरिज्म की बेड़ियों में जकड़ी भौंचक इधर उधर देख रही है कि मैं क्या हूँ,कहाँ हूँ.. अर्थ जीविकोपार्जन नही जीवनधर्म बन गया,बाज़ार के चंगुल में फँस वसन्तोत्सव भाया कामोत्सव छिनरोत्सव में तब्दील हो गया और "मोक्ष",यह चाहिए किसे?
चार खूँटों (धर्म अर्थ काम मोक्ष) पर टिका जीवन दो खूँटों (अर्थ और काम) पर अटका संतुष्टि और संतुलन पाने को बेहाल है. कहाँ से मिले, कैसे मिले?
और उसमे भी कामदेव की लंगोट धर उसपर लटका, सब कुछ पा लेने को बौराया, उन्मुक्त भोगाकाश उड़ रहा किशोर युवा वर्ग जब जीवन का सर्वोच्च सुख और संतोष पाने को निकलता है तो उसके आगे नैतिकता धर्म धराशायी हो जाता है.पुचकार से मान गया/गयी तो ठीक वर्ना बलात्कार के बल पर प्रेमोत्सव/ भोगोत्सव मना लेंगे, उसका अवसर न मिला तो तेज़ाब से जला देंगे.अब भाई पुरुसार्थ के बल पर सुख संतोष पाने निकले हैं तो पाये बिना छोड़ेंगे थोडेही।
महानगरों और नगरों में जहाँ बहुतेरे विकल्प (अड़ोस पड़ोस, दुसरे मोहल्ले आदि) उपलब्ध है, वहाँ की विभीषिका फिर भी थोड़ी कम है, लेकिन गाँवों में जहाँ अधिक विकल्प नहीं, चचेरे ममेरे फुफेरे भाई बहन,चाचा भतीजी, मामा भाँजी,जीजा साली, शिक्षक छात्रा "न उम्र की सीमा हो, न जन्म का हो बंधन, जब प्रेम करे कोई ,तो देखे केवल मन " के मूल मंत्र के साथ भेलेन्टाइन फरियाने निकल पड़ते हैं. नैतिकता जाती है तेल लेने और व्यभिचार आचार में कोई फर्क नहीं बचता। संचार क्रांति (टीवी) की पीठ पर सवार हो बाज़ार ने भोगवाद को लोगों की रगों में ऐसे घोल दिया है कि शिराओं में बह रहे छिनरत्व को पृथक कर उसमे सात्विकता, नैतिकता बहा पाना कैसे सम्भव होगा ,पता नहीं।
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माघी पूर्णिमा है आज.वसंत का मधुरतम दिन, चमकते चाँद संग सबसे चमकीली सुन्दर रात। पतझड़ ने पेड़ों को भले उसठ कर दिया है, पर इसकी भरपाई धरती पर बिछे फूलों के पौधों ने कुछ यूं कर दिया है कि ऊपर नजर ही नहीं जा रही है। अरे ये नज़रों को छोड़ें तब तो कोई कुछ और देखे। अब स्वाभाविक है जब बासंती पवन मन में उछाह भर रहा हो, धरती पर बिछे फूल मन में उतर आये हों तो मन में प्रणय/ श्रृंगार/ काम और रति क्यों न उतरें।प्राचीन भारतीय परम्परा में वसंतोत्सव की व्यवस्था थी। बड़े ही हर्षोल्लास से वसंत की आगवानी और सम्मान किया जाता था। धर्म अर्थ के बाद काम की प्रतिस्थापना जीवन का आवश्यक सोपान था क्योंकि इसके बाद ही व्यक्ति मोक्ष तक पहुँच सकता था।धर्म अर्थ काम मोक्ष चारों सोपानों की सामान महत्ता, न कोई कम ,न कोई ज्यादा और तब सम्पूर्णता पाता यह जीवन, यह सृष्टि।
खैर, समय बदला है, धर्म अब जीवन धर्म, मानवता नहीं बल्कि सेकुलरिज्म की बेड़ियों में जकड़ी भौंचक इधर उधर देख रही है कि मैं क्या हूँ,कहाँ हूँ.. अर्थ जीविकोपार्जन नही जीवनधर्म बन गया,बाज़ार के चंगुल में फँस वसन्तोत्सव भाया कामोत्सव छिनरोत्सव में तब्दील हो गया और "मोक्ष",यह चाहिए किसे?
चार खूँटों (धर्म अर्थ काम मोक्ष) पर टिका जीवन दो खूँटों (अर्थ और काम) पर अटका संतुष्टि और संतुलन पाने को बेहाल है. कहाँ से मिले, कैसे मिले?
और उसमे भी कामदेव की लंगोट धर उसपर लटका, सब कुछ पा लेने को बौराया, उन्मुक्त भोगाकाश उड़ रहा किशोर युवा वर्ग जब जीवन का सर्वोच्च सुख और संतोष पाने को निकलता है तो उसके आगे नैतिकता धर्म धराशायी हो जाता है.पुचकार से मान गया/गयी तो ठीक वर्ना बलात्कार के बल पर प्रेमोत्सव/ भोगोत्सव मना लेंगे, उसका अवसर न मिला तो तेज़ाब से जला देंगे.अब भाई पुरुसार्थ के बल पर सुख संतोष पाने निकले हैं तो पाये बिना छोड़ेंगे थोडेही।
महानगरों और नगरों में जहाँ बहुतेरे विकल्प (अड़ोस पड़ोस, दुसरे मोहल्ले आदि) उपलब्ध है, वहाँ की विभीषिका फिर भी थोड़ी कम है, लेकिन गाँवों में जहाँ अधिक विकल्प नहीं, चचेरे ममेरे फुफेरे भाई बहन,चाचा भतीजी, मामा भाँजी,जीजा साली, शिक्षक छात्रा "न उम्र की सीमा हो, न जन्म का हो बंधन, जब प्रेम करे कोई ,तो देखे केवल मन " के मूल मंत्र के साथ भेलेन्टाइन फरियाने निकल पड़ते हैं. नैतिकता जाती है तेल लेने और व्यभिचार आचार में कोई फर्क नहीं बचता। संचार क्रांति (टीवी) की पीठ पर सवार हो बाज़ार ने भोगवाद को लोगों की रगों में ऐसे घोल दिया है कि शिराओं में बह रहे छिनरत्व को पृथक कर उसमे सात्विकता, नैतिकता बहा पाना कैसे सम्भव होगा ,पता नहीं।
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