सम्पूर्ण भौतिक संसार (यूनिवर्स) भौतिकी के नियम से बंधा हुआ है।यहाँ कोई भी कण एक दुसरे से स्वतंत्र नहीं।कोई भी क्रिया प्रतिक्रिया विहीन नहीं,कोई भी सूचना परिघटना और मनः स्थितियाँ गुप्त नहीं, सबकुछ प्रकट, संरक्षित,अनंत काल तक अक्षय और सर्वसुलभ(जो भी इसे जानना पाना चाहे उसके लिए सुलभ) रहता है, इसी व्योम में, ऊर्जा कणों(इलेक्ट्रॉनिक पार्टिकल) में रूपांतरित होकर।
जैसे प्रसारण केन्द्रों द्वारा निर्गत/प्रसारित दृश्य श्रव्य तरङ्ग वातावरण में सर्वत्र व्याप्त रहते हैं और जब कोई रिसीवर उन फ्रीक्वेंसियों से जुड़ता है, तो वे तरंग रेडियो टीवी इंटरनेट द्वारा हमारे सम्मुख प्रकट उपस्थित हो जाते हैं,ठीक ऐसे ही मस्तिष्क/चेतना रूपी रिसीवर भी काम करता है। यदि हम चाहें तो अपने मस्तिष्क को चैतन्य और जागृत कर व्योम में संरक्षित भूत भविष्य के परिघटनाओं तथा ज्ञान को भी पूरी स्पष्टता से सफलता पूर्वक प्राप्त कर सकते हैं, जो चाहे हजारों लाखों साल पहले क्यों न घट चुके हों या घटने वाले हों.ठीक वैसे ही जैसे युद्ध भूमि से सुदूर बैठे संजय ने अपनी चेतना को दूर भेज वहाँ का पूरा लेखा जोखा धृतराष्ट्र तक पहुँचा दिया था..ठीक ऐसे ही जैसे कई विद्वान लेखकों कवियों को पढ़ हम आश्चर्यचकित हो जाते हैं कि,वर्षों सदियों पहले घटित या भविष्य में सम्भावित इन परिस्थितियों परिघटनाओं को इतनी सटीकता और सुस्पष्टता से इन्होनें कैसे देख जान वर्णित कर दिया। देखा जाए तो यह विशिष्ठ सामर्थ्य केवल उनमें ही नहीं, बल्कि हम सबमें है,यह अलग बात कि उन असीमित आलौकिक शक्तियों को हम साधते नहीं हैं और हममें निहित रहते भी निष्क्रिय रह वे शक्तियाँ हमारे शरीर के साथ ही नष्ट हो जाती हैं।
यह अनुभव तो सबका ही रहा है कि अपने प्रियजनों, जिनसे हम मानसिक रूप से गहरे जुड़े होते हैं,उनके सुख दुःख संकट का आभास कोसों दूर रहते भी कितनी स्पष्टता से हमें हो जाता है।बस दिक्कत है कि अपनी उस शक्ति पर विश्वास और उसका विकाश हम नहीं करते, कई बार तो उसे शक्ति ही नहीं मानते,बस स्थूल पंचेन्द्रिय प्रमाणों पर ही अपने विश्वास का खम्भा टिकाये रखते हैं।
ऐंद्रिक शक्तियों की सीमा अत्यंत सीमित है,जबकि चेतना की शक्ति अपार विकसित।किसी को देखा सुना न हो,उसके विषय में कुछ भी ज्ञात न हो,फिर भी उसका नाम सुनते ही उसके प्रति श्रद्धा प्रेम वात्सल्य या घृणा जैसे भाव मन में क्यों उत्पन्न होते हैं?
वस्तुतः यह इसी चेतना के कारण होता है.चेतना उसके व्यक्तित्व/प्रभाक्षेत्र/ऑरा को पकड़ मस्तिष्क को सूचना दे देती है,कि अमुक ऐसा है,पर अधिकांशतः उसकी न सुन हम स्थूल प्रमाणों की खोज करने लगते हैं। हाँ, यह बात अलग है कि यदि मन कलुषित हो, उसमें उक्त के प्रति पूर्वनिश्चित पूर्वाग्रह हो, तो चेतना की यह अनुभूति क्षमता भी कुन्द रहती है.जैसे गड़बड़ाया हुआ एन्टीना ठीक से सिग्नल नहीं पकड़ पाता।मन मस्तिष्क को निर्दोष निष्कलुष और सकारात्मक रख ही अपनी प्रज्ञा को जागृत और सशक्त रखा जा सकता है।
वस्तुतः यह इसी चेतना के कारण होता है.चेतना उसके व्यक्तित्व/प्रभाक्षेत्र/ऑरा को पकड़ मस्तिष्क को सूचना दे देती है,कि अमुक ऐसा है,पर अधिकांशतः उसकी न सुन हम स्थूल प्रमाणों की खोज करने लगते हैं। हाँ, यह बात अलग है कि यदि मन कलुषित हो, उसमें उक्त के प्रति पूर्वनिश्चित पूर्वाग्रह हो, तो चेतना की यह अनुभूति क्षमता भी कुन्द रहती है.जैसे गड़बड़ाया हुआ एन्टीना ठीक से सिग्नल नहीं पकड़ पाता।मन मस्तिष्क को निर्दोष निष्कलुष और सकारात्मक रख ही अपनी प्रज्ञा को जागृत और सशक्त रखा जा सकता है।
आज शब्दों पर हमने अपनी निर्भरता आवशयकता से अधिक बढ़ा ली है।मन में द्वेष पाला व्यक्ति भी यदि मीठी बोली बोलता है तो चेतना द्वारा दिए जा रहे सूचना कि सामने वाला छल कर रहा है,को हम अनसुना कर देते हैं। स्थूल प्रमाणों (आँखों देखी, कानों सुनी) पर अपनी आश्रयता अधिक बढ़ाने के कारण शूक्ष्म अनुभूति क्षमता अविकसित रह जाती है और उसपर कभी यदि चेतना की सुनने की चाही और वह सही सिद्ध न हुआ तो उससे विद्रोह छेड़ उसे और भी कमजोर करने में लग जाते हैं।
एक वृहत विज्ञान है यह,जिसे "ऑरा साइन्स" कहते हैं।जैसे भगवान् के फोटो में उनके मुखमण्डल के चारों ओर एक प्रकाश वृत रेखांकित किया जाता है,वैसा ही प्रभा क्षेत्र प्रत्येक मनुष्य के चारों और उसे आवृत्त किये होता है।यह प्रभाक्षेत्र निर्मित होता है व्यक्ति विशेष के शारीरिक मानसिक अवस्था,उसकी वृत्ति प्रवृत्ति,सोच समझ चिंतन स्वभाव संवेदना संवेग स्वभावगत सकारात्मकता नकारात्मकता की मात्रा द्वारा। जिसका प्रभाव जितना अधिक उसी अनुसार निर्मित होता है उसका प्रभामण्डल भी। डाकू रहते अंगुलिमाल का जो प्रभामण्डल रहा, सत्पथ पर आते ही कर्म और वृत्तिनुसार उसके प्रभामण्डल में भी वैसा ही परिवर्तन हुआ.डाकू अंगुलिमाल का प्रभामण्डल भयोत्पादी था, जबकि साधक का स्मरण सुख शान्तिकारी हो गया।
वैसे अपने कर्म आचरण से जो जितना सकारात्मक होता है, उसका प्रभामण्डल भी उतना ही बली प्रभावशाली होता है। प्रत्यक्ष और निकट से ही नहीं,हजारों लाखों कोस दूर भी बैठे भी संवेदनात्मक रूप से स्मरण करते कोई भी किसी से जो सम्बद्ध (कनेक्ट) होता है, वस्तुतः दोनों के प्रभा क्षेत्र का प्रभाव होता है यह। आजकल तो इस विद्या का उपयोग विश्व भर में "डिस्टेंस रेकी", "ऑरा हीलिंग" नाम से शारीरिक मानसिक उपचार हेतु किया जा रहा है और इसके सकारात्मक प्रभावों परिणामों (सक्सेस रेट) को देखते इसपर आस्था और इसकी प्रमाणिकता भी दिनोदिन बढ़ती ही जा रही है।
हमने अनुभव किया तो है कि, किसी साधु संत पीर पैग़म्बर देवी देवता भगवान्,चाहे वे हमारे बीच हों या न हों,किसी संकट में जब हम उनका स्मरण करते है,कष्ट हरने की उनसे याचना करते हैं,तो एक अभूतपूर्व शान्ति ऊर्जा और निश्चिंतता का अनुभव करने लगते हैं।असल में यह मन का भ्रम नहीं,बल्कि वास्तव में घटित होने वाला सत्य/प्रभाव है।ठीक रेडियो टीवी की तरह जैसे ही हम उस ऊर्जा स्रोत से जुड़ते हैं,ऊर्जा रिसीव कर ऊर्जान्वित हो उठते हैं।
सात्विक खान पान,रहन सहन,स्वाध्याय और सतसाधना द्वारा हम अपने अंतस की इस आलौकिक ऊर्जा को जगा सचमुच ही उस अवस्था को पा सकते हैं,जैसा पुराणों में वर्णित आख्यानों में ऋषि मुनि संत साधकों अवतारों को पाते सुना है। मिथ नहीं सत्य है यह।
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