27.4.18

एकलव्य कथा

कक्षा 9-10 के अहिन्दीभाषी बच्चों को हिन्दी पढ़ाते समय श्रुतिलेख लिखवा रही थी और इसी क्रम में शब्द "एकलव्य" लिखवाया। उत्सुकतावश मैनें उनसे पूछ लिया कि क्या वे एकलव्य के विषय में जानते हैं? उन्होंने कथा के विषय में जो बताया,मैं सन्न रह गयी।

उनके अनुसार एकलव्य बड़ा ही कुशाग्रबुद्धि बालक था, लेकिन क्योंकि वह छोटी जाति का था इसलिए उसे ब्राह्मण द्रोणाचार्य ने शिक्षा नहीं दी और जब उसने गुरु द्वारा राजपुत्रों को दी जा रही शिक्षा को छुप छुप कर देखते सबकुछ सीख लिया और गुरु प्रतिमा के सम्मुख निरन्तर अभ्यास द्वारा ऐसी पारंगतता पा ली कि उसकी बराबरी करने वाला कौरवों पाण्डवों में कोई भी नहीं था तो, यह पता चलने पर गुरु द्रोणाचार्य ने छलपूर्वक गुरुदक्षिणा में उससे उसके दाहिने हाथ का अँगूठा माँग लिया ताकि वह कभी भी अपनी प्रतिभा दक्षता का उपयोग नहीं कर पाए और सँसार भर में द्रोणाचार्य के राजपुत्र शिष्य ही सर्वश्रेष्ठ रहें।

बच्चों के कोमल मस्तिष्क पर कथा(विष)जिस रूप में अङ्कित हुई, काश कि शिक्षक यह देख समझ पाते। कथा के इस स्वरूप के अनुसार -

* हिन्दुओं में भेदभाव परक जाति व्यवस्था महाभारत काल में भी ऐसी थी कि तथाकथित छोटी जाति में जन्में लोगों को शिक्षा तक से वन्चित रखा जाता था।और यदि कोई प्रतिभावान शिक्षा तक पहुँच भी जाता था तो ऊँची जाति के लोग उनसे छलपूर्वक वह छीन लेते थे।

* गुरुदक्षिणा(फीस) देने में असमर्थ क्षात्रों के प्रति गुरु इतने कठोर/क्रूर होते थे कि उनको अक्षम बनाने में तनिक भी संकोच नहीं करते थे।

*गुरु लोभी होते थे और आर्थिक रूप से समर्थों को ही शुल्क की एवज में शिक्षा देते थे।

*क्षत्रिय तथा ब्राह्मण क्रूर स्वार्थी, दलितों के शोषक होते थे।

इस प्रभाव को निरस्त निष्प्रभावी करना अत्यंत आवश्यक था। सो मैनें बच्चों से कुछ काउण्टर क्वेश्चन पूछे।

प्र.- हिन्दूधर्म के मुख्य ग्रन्थ कौन कौन हैं?
उ.- महाभारत, गीता, रामायण।
प्र.- महाभारत गीता किसने लिखी थी?
उ.- वेदव्यास ने..
प्र.- वेदव्यास की जाति क्या थी?
उ.- शूद्र(मछुआरिन माता)
प्र.- रामायण किसने लिखी थी?
उ.- वाल्मीकि।
प्र.- इनकी क्या जाति थी?
उ.- शूद्र।
प्र.- भारत के कुछ ऋषियों संतो महापुरुषों के नाम बताओ जिनके प्रति लोगों में अपार श्रद्धा है?
उ.- रहीम,कबीर, रैदास,तुलसीदास, सूरदास,मीराबाई,पिछले कुछ सौ वर्षों के और विश्वामित्र, वाल्मीकि, शबरी आदि जैसे असंख्यों सन्त विद्वान पराक्रमी योद्धा जो जन्मे चाहे जिस भी जाति में परन्तु अपना जो कर्म उन्होंने चुना, संसार उसी रूप में उन्हें पूजता है।

ब्राह्मण द्रोणाचार्य सा पराक्रमी योद्धा, शस्त्रज्ञाता उनके समय में बहुत ही गिने चुने थे जबकि जाति से वे ब्राह्मण थे और जाति अनुसार उन्हें केवल शास्त्रज्ञाता होना चाहिए था।इसी तरह विश्वामित्र क्षत्रिय थे,किन्तु उन्होंने ब्राह्मणत्व स्वीकार लिया था। शूद्र वेदव्यास और वाल्मीकि महर्षि बने।

तो, अव्वल तो उस समय कर्म के आधार पर जो वर्ण व्यवस्था थी,वह जन्म आधारित बिल्कुल न थी। बाद में जब जाति व्यवस्था जन्मगत हुई भी तो उसका आधार यह था कि जो जिस जाति में जन्मता है,उसमें अपने परिवारगत पेशे से सम्बन्धित दक्षता सहज ही आ जाती थी, सो लोगों को यह फायदेमंद लगा और लोगों ने इस व्यवस्था को सहर्ष अपनाया।लेकिन जन्मगत जाति व्यवस्था में भी ऊँचनीच छोटे बड़े का कोई स्थान न था क्योंकि सामाजिक ताने बाने में हर व्यक्ति(जाति) उतना ही महत्वपूर्ण था और किसी के बिना किसीका काम नहीं चल सकता था।

अब जहाँ तक बात रही द्रोणाचार्य और एकलव्य के प्रसंग की,,तो पहले तो द्रोणाचार्य प्रतिज्ञाबद्ध थे केवल कुरुकुल के ही बच्चों को शिक्षा देने के लिए, इसलिए वे किसी और को शिक्षा नहीं दे सकते थे।
दूसरे, उस समय गुरुओं का दायित्व बहुत बड़ा होता था। किसी भी कुपात्र(जो उस शिक्षा का सार्थक सात्विक उपयोग न करे) को वे शिक्षा नहीं देते थे। यदि किसी ने उनकी शिक्षा का दुरुपयोग किया तो इसकी जिम्मेदारी स्वयं लेते गुरु स्वयं को दारुण दण्ड देते थे।
द्रोणाचार्य इसके जीते जागते प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि जब उनके शिष्यों(कौरवों) ने उनकी शिक्षा का उपयोग विध्वंसक गतिविधियों में किया तो उन्होंने धर्म के पक्ष में खड़े अपने प्रिय शिष्य अर्जुन के हाथों अपनी मृत्यु को स्वीकारा।इससे बड़ा दण्ड स्वयं को गुरु और क्या दे सकता है कि अपने ही शिष्य के हाथों अपना वध करवाये।

एकलव्य कुशाग्रबुद्धि था,अपार क्षमतावान था, किन्तु गुरु को यह अंदेशा था कि उसकी क्षमता का उपयोग कोई भी विध्वंसक कर सकता है। इसलिए उन्होंने गुरुदक्षिणा में उसके दाहिने हाथ का अँगूठा माँगा। दाहिने हाथ का यह अँगूठा फिजिकली काट कर नहीं माँगा या एकलव्य ने दिया,, बल्कि उस अँगूठे के प्रयोग की वर्जना का व्रत/शपथ द्रोणाचार्य ने एकलव्य से लिवाया। कथा बच्चों को सरलता से समझ में आ जाय इसलिए कहीं कहीं चित्र वैसा बना दिया जाता है जिसमें चित्रित होता है कि एकलव्य अपना अँगूठा काट कर गुरु को भेंट कर रहे,,या फिर कथा में इस तरह से वर्णन आता है।एकलव्य के इस महान गुरुदक्षिणा के बदले गुरु ने भी एकलव्य को ऐसी अमोघ शक्ति/वरदान दिया कि एकलव्य अपनी जाति में ही नहीं,सँसार भर में सदा के लिए पूजित सम्माननीय और आदर्श व्यक्ति हुआ।आज भी यदि किसी शिष्य की बात होती है तो एकलव्य को सर्वश्रेष्ठ शिष्य की पदवी प्राप्त होती है जो गुरु के वरदान और शिष्य के उत्तम चरित्र के कारण ही सम्भव हुआ। 

हम जब बच्चों को शिक्षा दे रहे होते हैं तो केवल शब्द या वाक्य ज्ञान नहीं करा रहे होते,बल्कि उनका चरित्र गढ़ रहे होते हैं। ऐसे में हमारा नैतिक दायित्व होता है कि बहुत सोच समझ कर विषय तथा प्रसंगों को उनके सम्मुख रखें। इस क्रम में यदि कुछ नेगेटिव बातों के नैरेटिव हमें बदलने भी पड़ें, तो कोई दिक्कत नहीं। 16-17 के बाद बच्चों में ज्यों ज्यों परिपक्वता आती जाय, चीजें उनके सामने ज्यों की त्यों रखी जाँय, तो कोई दिक्कत नहीं।
वस्तुतः बचपन में नींव में रखी गयी सकारात्मकता की शक्ति ही वयस्क होने पर संसार की नकारात्मकता को झेलने में काम आती है।सात्विक बातों से ही सच्चरित्रता निर्मित होती है और दृढ़ चरित्र के सहारे ही व्यक्ति जीवन में सात्विक सुख और सन्तोष तक पहुँच सकता है।