उन्हें तो छोड़ ही दीजिये जिन्हें वामी प्रभाव में आकर सनातन उपहास करते प्रगतिशील बनना है,सनातन को हेय सिद्ध करना है,,,
उन आस्थावान हिन्दुओं ने भी धर्म को कम हानि नहीं पहुँचाई है जिन्होंने कर्मकाण्डों में से मूल और बाद में जुड़े आडम्बरों में भेद करना नहीं सीखा,प्रतीकों अभ्यासों के वैज्ञानिक मर्म को नहीं समझा जाना और पौराणिक पात्रों के महान चरित्रों को अपने जीवन आचरण में उतारने के स्थान पर उन्हें ऊँचे चबूतरे पर बैठाकर केवल फल पुष्प धूप बत्ती का अधिकारी बना कर मूर्तियों में सीमित कर दिया।अपने आराध्य के जीवन संघर्षों को सामान्य न रहने देकर उनके साथ इतने अस्वाभाविक अलौकिक चमत्कार जोड़ दिए कि भक्तों का ध्यान उनके संघर्ष और सफलतापूर्वक उनपर विजय पर नहीं अपितु चमत्कारों पर केन्द्रित होकर सिमट गया और दुःख में उनके आचरण से प्रेरित होकर धैर्य और सामर्थ्य की आकांक्षा रखने/माँगने के स्थान पर व्यक्ति और अधिक निर्बल कातर होकर उनसे मुक्ति की प्रार्थना करने लगा।चमत्कार कर पल में ईश्वर वह दुःख हर लें, अपार सुख साधन दे दें,इसके आग्रह में धूप दीप नैवेद्य लेकर मूर्तियों के सम्मुख डट गया।
तुलसीदास जी तक ने जब भी प्रभु श्रीराम को वन में पत्नी वियोग में रोते हुए दिखाया उसे सहज स्वाभाविक न रहने देकर "लीला" कह दिया।
राम या कृष्ण ने अपने सम्पूर्ण जीवन काल में जो संघर्ष किये और यह स्थापित किया कि संघर्षों को सुअवसर कैसे बनाया जाता है,वे कौन से गुण हैं जिन्हें साधकर व्यक्ति अनन्त काल तक के लिए विजयी,अमर और पूज्य हो सकता है,,इतने सुस्पष्टता से उन्होंने रूपरेखा सी खींच दी कि यदि मनुष्य जीवन के प्रत्येक परिस्थिति में उनका स्मरण रखे और स्वयं के भीतर भी उन गुणों का विकास करे, तो जीवन में दुःख कातरता हताशा का रंचमात्र भी स्थान बचेगा क्या? या फिर धन पद सत्ता साधन आदि पाकर जो मद में बौराये फिरते हैं और धार्मिक स्थलों, कार्यों में बड़े बड़े दान देकर यह मान लेते हैं कि अपने हिस्से का पुण्य कार्य उन्होंने निबटा लिया अब अपने सांसारिक सामर्थ्य का उपयोग कर अपने लाभ हेतु वे किसी का भी कुछ बिगाड़ सकते हैं,,ऐसी अवस्था बनेगी क्या?
कई ऐसे लोग जिनका दिनभर का अधिकांश समय पूजा पाठ में बीतता है किन्तु मन से अशान्त,सांसारिक मोह माया और दुःख से ग्रसित हताश निराश हैं, जब उनसे उनके आराध्यों के जीवन चरित सुनाकर उनसे प्रेरित होने की बात की है, वे कह उठते हैं,वे तो भगवान थे,यह सब उनकी लीलाएँ थीं।अर्थात वे मन से नहीं मानते कि वास्तव में उनके संघर्ष वास्तविक थे, मानवीय संवेदनाओं और सुख दुःख की अनुभूतियाँ उनकी भी वैसी ही थीं,जैसी हमारी है।
अतिमानवीयकरण का ही यह दुष्प्रभाव है कि हमने अपने आराध्यों को अपने जीवन से काट दिया है, उन्हें मूर्तियों और पूजाघरों में सीमित कर दिया है।
जिस कर्म और कर्मफल से हमारे आराध्यों ने स्वयं को मुक्त नहीं रखा,उस कर्मफल के चुटकी में नाश को हम ईश्वर के सम्मुख बैठ कर याचनारत रहते हैं,यह नहीं सोचते कि हमारे हिस्से का वह फल जो कदापि लुप्त नहीं हो सकता,भोगेगा कौन?क्योंकि कर्मफल तो नष्ट हो नहीं सकता।वह तो समय के कपाल पर अमिट हो अंकित हो जाता है।संसार में फैले अधर्म को समेटने और धर्म स्थापना क्रम में कृष्ण ने महान संहार रचा, महान शक्तिशाली एक पूरे वंश का तो समूल संहार हो गया।सही गलत को अलग कर दें,इसे केवल एक कर्म मानकर चलें।तो इस कर्म का फल श्रीकृष्ण ने गांधारी के यदुवंश के सम्पूर्ण नाश के श्राप रूप में सादर स्वीकार किया।उन्होंने तो जगत का उद्धार किया था।इतना बड़ा पुण्यकर्म। किन्तु इस क्रम में जो कर्म हुआ, उसके फल से उन्होंने स्वयं को मुक्त न रखा।
राम कृष्ण दुर्गा काली शंकर हनुमान, जिन्हें भी हम पूजते हैं या तपस्या कर वरदान में पाए असमनान्य सामर्थ्यवान वे अत्याचारी असुर राक्षस जिनसे घृणा करते हैं, किसी का भी जीवन उठाकर देख लीजिए जो उन्होंने एक ही सत्य स्थापित न किया हो कि कर्मफल अकाट्य है।
अतः दम्भी अत्याचारियों के कर्मों से सीख लेते और अपने आराध्यों के चरितों से प्रेरणा ऊर्जा लेते हुए यदि हम प्राप्त जीवनावधि को ईश्वर प्रदत्त सामर्थ्य सीमाओं में सुखी सफल और सार्थक करने को सचेष्ट हों, तभी उन अवतारों महानायकों का अवतरण और उद्देश्य परिपूर्ण होगा, हमारा समाज स्वस्थ धर्मपरायण और सुखी होगा और सनातन की जय होगी।
ॐ...
उन आस्थावान हिन्दुओं ने भी धर्म को कम हानि नहीं पहुँचाई है जिन्होंने कर्मकाण्डों में से मूल और बाद में जुड़े आडम्बरों में भेद करना नहीं सीखा,प्रतीकों अभ्यासों के वैज्ञानिक मर्म को नहीं समझा जाना और पौराणिक पात्रों के महान चरित्रों को अपने जीवन आचरण में उतारने के स्थान पर उन्हें ऊँचे चबूतरे पर बैठाकर केवल फल पुष्प धूप बत्ती का अधिकारी बना कर मूर्तियों में सीमित कर दिया।अपने आराध्य के जीवन संघर्षों को सामान्य न रहने देकर उनके साथ इतने अस्वाभाविक अलौकिक चमत्कार जोड़ दिए कि भक्तों का ध्यान उनके संघर्ष और सफलतापूर्वक उनपर विजय पर नहीं अपितु चमत्कारों पर केन्द्रित होकर सिमट गया और दुःख में उनके आचरण से प्रेरित होकर धैर्य और सामर्थ्य की आकांक्षा रखने/माँगने के स्थान पर व्यक्ति और अधिक निर्बल कातर होकर उनसे मुक्ति की प्रार्थना करने लगा।चमत्कार कर पल में ईश्वर वह दुःख हर लें, अपार सुख साधन दे दें,इसके आग्रह में धूप दीप नैवेद्य लेकर मूर्तियों के सम्मुख डट गया।
तुलसीदास जी तक ने जब भी प्रभु श्रीराम को वन में पत्नी वियोग में रोते हुए दिखाया उसे सहज स्वाभाविक न रहने देकर "लीला" कह दिया।
राम या कृष्ण ने अपने सम्पूर्ण जीवन काल में जो संघर्ष किये और यह स्थापित किया कि संघर्षों को सुअवसर कैसे बनाया जाता है,वे कौन से गुण हैं जिन्हें साधकर व्यक्ति अनन्त काल तक के लिए विजयी,अमर और पूज्य हो सकता है,,इतने सुस्पष्टता से उन्होंने रूपरेखा सी खींच दी कि यदि मनुष्य जीवन के प्रत्येक परिस्थिति में उनका स्मरण रखे और स्वयं के भीतर भी उन गुणों का विकास करे, तो जीवन में दुःख कातरता हताशा का रंचमात्र भी स्थान बचेगा क्या? या फिर धन पद सत्ता साधन आदि पाकर जो मद में बौराये फिरते हैं और धार्मिक स्थलों, कार्यों में बड़े बड़े दान देकर यह मान लेते हैं कि अपने हिस्से का पुण्य कार्य उन्होंने निबटा लिया अब अपने सांसारिक सामर्थ्य का उपयोग कर अपने लाभ हेतु वे किसी का भी कुछ बिगाड़ सकते हैं,,ऐसी अवस्था बनेगी क्या?
कई ऐसे लोग जिनका दिनभर का अधिकांश समय पूजा पाठ में बीतता है किन्तु मन से अशान्त,सांसारिक मोह माया और दुःख से ग्रसित हताश निराश हैं, जब उनसे उनके आराध्यों के जीवन चरित सुनाकर उनसे प्रेरित होने की बात की है, वे कह उठते हैं,वे तो भगवान थे,यह सब उनकी लीलाएँ थीं।अर्थात वे मन से नहीं मानते कि वास्तव में उनके संघर्ष वास्तविक थे, मानवीय संवेदनाओं और सुख दुःख की अनुभूतियाँ उनकी भी वैसी ही थीं,जैसी हमारी है।
अतिमानवीयकरण का ही यह दुष्प्रभाव है कि हमने अपने आराध्यों को अपने जीवन से काट दिया है, उन्हें मूर्तियों और पूजाघरों में सीमित कर दिया है।
जिस कर्म और कर्मफल से हमारे आराध्यों ने स्वयं को मुक्त नहीं रखा,उस कर्मफल के चुटकी में नाश को हम ईश्वर के सम्मुख बैठ कर याचनारत रहते हैं,यह नहीं सोचते कि हमारे हिस्से का वह फल जो कदापि लुप्त नहीं हो सकता,भोगेगा कौन?क्योंकि कर्मफल तो नष्ट हो नहीं सकता।वह तो समय के कपाल पर अमिट हो अंकित हो जाता है।संसार में फैले अधर्म को समेटने और धर्म स्थापना क्रम में कृष्ण ने महान संहार रचा, महान शक्तिशाली एक पूरे वंश का तो समूल संहार हो गया।सही गलत को अलग कर दें,इसे केवल एक कर्म मानकर चलें।तो इस कर्म का फल श्रीकृष्ण ने गांधारी के यदुवंश के सम्पूर्ण नाश के श्राप रूप में सादर स्वीकार किया।उन्होंने तो जगत का उद्धार किया था।इतना बड़ा पुण्यकर्म। किन्तु इस क्रम में जो कर्म हुआ, उसके फल से उन्होंने स्वयं को मुक्त न रखा।
राम कृष्ण दुर्गा काली शंकर हनुमान, जिन्हें भी हम पूजते हैं या तपस्या कर वरदान में पाए असमनान्य सामर्थ्यवान वे अत्याचारी असुर राक्षस जिनसे घृणा करते हैं, किसी का भी जीवन उठाकर देख लीजिए जो उन्होंने एक ही सत्य स्थापित न किया हो कि कर्मफल अकाट्य है।
अतः दम्भी अत्याचारियों के कर्मों से सीख लेते और अपने आराध्यों के चरितों से प्रेरणा ऊर्जा लेते हुए यदि हम प्राप्त जीवनावधि को ईश्वर प्रदत्त सामर्थ्य सीमाओं में सुखी सफल और सार्थक करने को सचेष्ट हों, तभी उन अवतारों महानायकों का अवतरण और उद्देश्य परिपूर्ण होगा, हमारा समाज स्वस्थ धर्मपरायण और सुखी होगा और सनातन की जय होगी।
ॐ...