24.9.08

व्रत उपवास

किसी भी धर्म में, परम्परा में निहित कर्मकांडों में कालक्रमानुसार भले बहुत से ऐसे नियम विधान जुड़ गए जो पूर्णरूपेण उसी विधि के साथ ग्राह्य अथवा अनुकरनीय न हों, पर उसकी पड़ताल उसके सूक्षम और व्यापक उद्देश्यों की धरातल पर करेंगे तो पाएंगे कि उसमे कितना गहन अर्थ छुपा पड़ा है। धार्मिक आस्था को दृढ़ करने के साथ साथ आचरण को व्यवस्थित करते हुए मानव संबंधों को प्रगाढ़ कर सभ्यता संस्कृति के पोषण संरक्षण की कैसी अद्भुद क्षमता इसमे निहित है.लंबे समय से चले आ रहे इन कर्मकांडों को वाहियात और बकवास कह नकारे जाने के पूर्व इनके पीछे छिपे तथ्यों और उद्देश्यों की पड़ताल अत्यन्त आवश्यक है.

व्रत उपवासों का आध्यात्मिक ही नही कल्याणकारी शारीरिक,मानसिक और सामाजिक पहलू भी है।समग्र रूप में व्रत अपने आप से किया हुआ एक संकल्प है, जिसकी पूर्णता आत्मबल बढ़ाने में परम सहायक होता है और उपवास सांकेतिक रूप में इन्द्रियों के नियामक का साधन है। शरीर की सबसे मौलिक आवश्यकता 'भूख' पर नियंत्रण पाने का प्रयास ,हठ साधना द्वारा मौलिक आवश्यकता पर विजय प्राप्त कर आत्मबल की संपुष्टि है.मनुष्य इन्द्रियों को जितना अधिक वश में रखने में क्षमतावान होगा उसका आत्मबल,क्षमता उतनी ही उन्नत होगी और विवेक जागृत होगा.सकारात्मक शक्ति ही मनुष्य को सकारात्मक कार्य के लिए भी उत्प्रेरित करती है. लेकिन इसका यह अर्थ नही कि सिर्फ़ भोजन भर त्याग देना व्रत या उपवास कहलायेगा और यह उतना ही सिद्धिदायी होगा.उपवास वस्तुतः मन, कर्म, वचन तथा व्यवहार में शुचिता लाने का व्रत/संकल्प लेते हुए अटलता से उस पर कायम रहते हुए सत्य पथ पर चलने के प्रयास का नाम है. भोजन भर छोड़ देना और अवधि समाप्ति तक मन ध्यान भोजन पर केंद्रित रखते हुए व्यंजनों के ध्यान में झुंझलाहट के साथ समय निकलना,व्रत उपवास नही है. ईश्वर ने मानव शरीर को जिन पचेंद्रियों से विभूषित किया है,जिनकी सहायता से हम सुख प्राप्त करते हैं,सुख प्रदान करने वाले ये इन्द्रियां यदि मनुष्य के विवेक की सीमा में न रहें तो बहुधा अत्यधिक सुख की अभिलाषा व्यक्ति को अनुचित कार्य करने को उकसाती ही नही कभी कभी विवश भी कर देती है और मनुष्य का अधोपतन हो जाता है.इसलिए इन व्रत उपवासों का प्रावधान सभी धर्मो में एक तरह से इन्द्रियों के नियमन के निमित्त किया गया है. किसी भी देवी देवता चाहे उसे अल्लाह कहें,जीसस क्राइष्ट या राम कृष्ण शंकर दुर्गा हनुमान या इसी तरह के अन्य देवी देवता(हिंदू धर्म में देवी देवताओं की जो संख्या तैंतीस कडोड़ मानी गई है,वह भी अपने आप में अद्भुद इसलिए है कि इस ब्रह्माण्ड में ऐसा कुछ भी नही जिसे श्रद्धा का पात्र नही माना गया है,चाहे वह चल हो या अचल.और उसके प्रतिनिधि विशेष के रूप में उसे देव या देवी के रूप में पूजनीय माना गया है ), सबसे पहले तो धार्मिक दृष्टि से यदि देखें तो,जिस किसी देवी देवता के नाम पर यह व्रत अनुष्ठान किया जाता है,मनुष्य जब इसका परायण करता है तो सहज ही उस से जुड़ जाता है और ध्यान में जब इष्ट हों,उसके प्रति प्रेम श्रद्धा और निष्ठा हो, तो सहज ही उसके स्मृति से जुड़कर मन उस इष्ट विशेष के गुणों से अभिभूत हो उसका अनुकरण करने को प्रेरित होता है.ईश्वर जो सकारात्मकता का पुंज है,सद्गुणों का भण्डार है,व्यक्ति जितना उसकी भक्ति में डूबता है उतना अधिक सद्गुणों से विभूषित होता है.यूँ भी तो हम देखते हैं न कि जिस किसी मनुष्य से मानसिक रूप से हम जितने गहरे जुड़े होते हैं अनजाने ही उस व्यक्तिविशेष के कई गुण हममे ऐसे आ मिलते हैं कि लंबे समय तक के प्रगाढ़ मानसिक सम्बन्ध दो व्यक्तियों के बीच सोच विचार और आचरण में आश्चर्यजनक साम्यता ला व्यक्तित्व को एक दूसरे का प्रतिबिम्ब सा बना देता है.यही कारण है कि अपने मन में ईश्वर की प्रीति धारण कर मन कर्म वचन से सदाचार पर चलने वाले मनुष्य भी देवतुल्य पूज्य हो जाते हैं.इसका एक पहलू यह भी है कि चूँकि प्रत्येक व्यक्ति में इतनी मात्रा में करनीय अकरणीय में विभेद कर अनुशाषित जीवन जीने की विवेक क्षमता तो होती नही है,सो यदि कर्मकांडों से जोड़कर उसे ईश्वर के प्रति आस्था रखने को विवश कर दिया जाता है तो व्रत विशेष के कालखंड में अनिष्ट के भय से ही सही जुड़कर कुछ पल को उस सर्वशक्तिमान से जुड़ता तो है और उस उपास्य विशेष से जुड़ना और उसके सद्गुणों की स्मृति भी व्यक्ति को सन्मार्ग के अनुसरण को प्रेरित करती है.

मानव समुदाय को परस्पर सुदृढ़ बंधन में आबद्ध रखने में धर्म सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और धर्म से मनुष्य को जोड़े रखने में धार्मिक अनुष्ठान और कर्मकांड पोषक की भूमिका निभाते हैं।क्योंकि समुदाय विशेष जब एक साथ किसी कालखंड विशेष में किसी अनुष्ठान को संपन्न करते हैं तो स्वाभाविक हो उनमे भाईचारे की भावना का संचार होता है.उदहारण के लिए हम देख सकते हैं, रमजान के महीने में एक साथ विश्व के सभी मुस्लिम धर्मानुयायी महीने भर का व्रत रख सूर्योदय से सूर्यास्त तक उपवास रखते हैं.निश्चित रूप से यह पूरे समुदाय को एकजुटता के सूत्र में आबद्ध करने में प्रभावकारी भूमिका निभाता है.

शारीरिक रूप से देखें तो भी उपवास का शरीर पर बड़ा ही महत्वपूर्ण सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। प्रतिदिन जो हम आहार ग्रहण करते हैं लाख चाहकर भी वे पूर्णरूपेण पोषक संतुलित और ऋतु अनुकूल नही होते.असंतुलित आहार शरीर में रक्त,वायु या पित्त दोष उत्पन्न करते हैं तथा लगातार भोजन के पाचन क्रिया में संलग्न तंत्र शिथिलता को प्राप्त होने लगते हैं.ऐसे में सप्ताह,पखवाडे या मास में एक बार नियमित रूप से यदि फलाहार ,निराहार,एकसंझा या बिना नमक के भोजन किया जाए तो पाचन तंत्र बहुत हद तक व्यवस्थित हो जाता है.किंतु उपर्युक्त किसी भी उपवास में जल के पर्याप्त सेवन से शरीर में संचित दूषित अवयव ( टाक्सिन) शरीर से निकल जाता है. कुछ लोग भोजन को दैनिक आवश्यकता मानते हैं और उपवास करना अपने शरीर को कष्ट पहुँचाना मानते हैं.लेकिन यह निःसंदेह एक भ्रम से अधिक कुछ भी नही.उपवास शरीर के हानिकारक अवयवों से शुद्धिकरण का सर्वथा कारगर उपाय है.

हम कहते हैं,विश्व ने,विज्ञान ने बहुत तरक्की कर ली है और मनुष्य का जीवन स्तर चमत्कारी रूप से उन्नत हुआ है।तथ्य को नाकारा नही जा सकता,परन्तु विश्व स्तर पर तरक्की लाख उचाईयां पा चुका हो अन्नाभाव में मरने वालों की संख्या में कमी करने की दिशा में बहुत कम कर पाया है.आज भी जनसँख्या वृद्धि का जो दर है, अन्न उत्पादन के दर की तुलना में वह कई गुना अधिक है,जो दिनोदिन मांग और पूर्ती के संतुलन को ध्वस्त करती जा रही है.पेट्रोल डीजल की बढ़ती दरों को महंगाई का प्रमुख कारण मानने वाले बहुत जल्दी ही यह मानना शुरू करेंगे कि जनसँख्या वृद्धि के सामने अन्न की कमी का दिनोदिन बढ़ता असंतुलन,इस संकट का बहुत बड़ा कारण है. भारत तथा इस जैसे बहुत से देशों में आज खेती करना निम्न दर्जे का काम माना जाता है और न तो पढ़े लिखे लोग कृषि कार्य में दिलचस्पी रखते हैं और न ही कृषि कार्य को बेहतर रोजगार का विकल्प मानते हैं.कृषि कार्य में जो लोग संलग्न हैं अधिकाँश संसाधनहीन ही हैं तथा कृषिकार्य उनका शौक नही मजबूरी है.बहुत तेज गति से पारंपरिक कृषकों का अन्य वैकल्पिक रोजगार क्षेत्र में पलायन हो रहा है.आज यह स्थिति तो आ ही गई न, कि विश्व भर में पेयजल समस्या बहुत बड़े रूप में उपस्थित हो गया है और "पानी बचाओ" मुहिम आन्दोलन का रूप लेता जा रहा है.हाल की ही बात है न दस रुपये किलो दूध पीने वाला समाज शुद्ध पेय जल के लिए न्यूनतम दस रुपये लीटर पानी खरीद कर पी रहा है. कारखाने उद्योग तो खूब लग रहे हैं.रोजगार के साधनों में निरंतर वृद्धि हो रही है,परन्तु खाने के लिए तो अन्न ही चाहिए.बहुत कुछ करना सर्वसाधारण के वश में नही पर इतना तो किया ही जा सकता है कि हम अपनी खुराक को उतनी ही रखें जितने की आवश्यकता इस शरीर को सुचारू रूप से स्वस्थ रखने के लिए है.धर्म के लिए न सही,सम्पूर्ण मानव समुदाय के हित के लिए और साथ ही अपने शरीर के लिए भी हितकारी नियमित निराहार का संकल्प लें तो किसी न किसी रूप में अन्न संकट से जूझने की दिशा में अपना योगदान दे सकते हैं.लोहे और कंक्रीट के फलते फैलते जंगल और सिकुड़ते कृषि भूमि के बीच मनुष्य मात्र का यह नैतिक कर्तब्य बनता है. धर्म में निहित कर्मकांड और व्रत उपवास के प्रावधान का यह महत सर्वमंगलकारी सामाजिक पहलू है,जिसकी उपयोगिता किसी भी काल में सन्दर्भहीन नही होगा.

धर्म व्यक्ति के ह्रदय के सबसे निकट होता है और धर्म के नाम पर आचरण की शुचिता का कार्य सर्वाधिक प्रभावकारी ढंग से कराया जा सकता है.धर्म के साथ इसलिए अनिष्ट के भय को जोड़ा गया कि यदि इसे स्वेच्छा पर नैतिक दायित्व रूप में छोड़ दिया जाता तो बहुत कम लोग ही इसका अनुसरण करते. धर्म से मजबूती से जोड़े रखने के महत उद्देश्य से ही कर्मकांडों की व्यवस्था की गई. कर्मकांड एक ओर जहाँ उत्सव रूप में व्यक्ति के मनोरंजन का सुगम साधन हैं वहीँ समाज को एकजुट रखने में सहायक भी.धार्मिक सामाजिक और शारीरिक रूप से मानव समुदाय के लाभ हेतु ही मनीषियों ने व्रत उपवास का प्रावधान कर रखा है..अतः इन प्रावधानों का अनुसरण कर हम निःसंदेह सुखी होंगे...

11.9.08

शक्ति पूजा


मातृ रूप में शक्ति पूजन, भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है और अनादि काल से अनवरत चली आ रही यह परम्परा में निहित है. हिंदू पुराणों आख्यानों की मानें तो केवल ब्रह्माण्ड की ही उत्पत्ति ही नही बल्कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा अन्य सभी देवी देवताओं की उत्पत्ति भी आदिशक्ति माँ दुर्गा ने ही की है.वे ही श्रृष्टि का आधार हैं.प्रकृति से लेकर चर अचर तक शक्ति रूप में जो कुछ भी श्रृष्टि में निहित उपस्थित है, वह माता का ही रूप है. इस महा शक्ति मातृशक्ति की साधना आराधना देवों तथा मानवो ने ही नही दानवों ने भी की है और जब भी कभी जिस किसी दानव ने शक्ति के मद में चूर हो मनुष्यों , देवों या प्रकृति का दमन किया है,भक्तों की आर्त पुकार पर माता ने उस दुष्ट का नाश कर भक्तों को उससे त्राण दिलाया है. श्रृष्टि के प्रत्येक कण में यह आदिशक्ति व्याप्त हैं.

बहुधा क्षत्रियों की कुलदेवी यही आदि शक्ति माँ दुर्गा ही हुआ करती हैं और इनके आशीष के बिना शक्ति प्रयोग तथा विजय की कल्पना भी नही की जा सकती.पुरातन काल में परंपरागत रूप में माँ शक्ति की पूजा अधिकांशतः घरों में ही की जाती थी.पर कालांतर में इसे उत्साव और त्यौहार के रूप में वर्ष में दो बार बसंत ऋतु तथा शरद ऋतु में नवरात्र में देवी की आराधना के साथ हर्षोल्लास से मनाया जाता है.

दुर्गा शप्तसी में में जो कथा वर्णित है,उसके अनुसार महिषासुर,चंड मुंड,शुम्भ निशुम्भ इत्यादि महादैत्यों ने जब देवताओं तथा मानव जाति को परास्त कर उन्हें त्राण दे त्रस्त कर दिया तो देवों ऋषियों के आर्त पुकार पर आदि शक्ति माता दुर्गा ने अपने विभूतियों के साथ इन असुरों का संहार किया और धर्म की प्रतिस्थापना की.सप्त्शी के अनुसार देवी की विभूतियों(उनके ही अन्य रूपों) तथा अन्य सभी देवताओं के शक्ति रूपों की तो चर्चा है परन्तु परम्परा और व्यवहार में पूजन काल में देवी के विग्रहों के साथ गणेश तथा विश्वकर्मा की जो पूजा की जाती है,इस से सम्बंधित मैंने आज तक जो कुछ भी पढ़ा जाना है, उसमे कहीं नही पाया और यह मेरे लिए बाल्यकाल से ही उत्सुकता का विषय रहा.दुर्गा पूजा में देवी दुर्गा की प्रतिमा के साथ साथ लक्ष्मी ,सरस्वती, विश्वकर्मा तथा गणेश इन सबके विग्रहों के भी स्थापना और आराधना होती है.सबने देखा होगा.परन्तु नवरात्र में जिस दुर्गा सप्त्शी के पाठ के बिना नवरात्र आराधना अपूर्ण मानी जाती है,उसमे कहीं भी गणेश और विश्वकर्मा के विग्रहों की चर्चा नही है.

परम्परा में यूँ ही तो नही कुछ आ जाता, सो इसके पीछे भी कोई तथ्य रहस्य अवश्य होगा ,यह मन कहता था पर कईयों से पूछने पर भी इस जिज्ञासा का समुचित समाधान मुझे आज तक नही मिला है.मेरा निवेदन सभी प्रबुद्ध जनों से है कि जो कोई भी मेरे इस जिज्ञासा को शांत करने में मेरी सहायता करेंगे ,मैं उनकी सदा आभारी रहूंगी.

कुछ वर्ष पहले अपने मन के इसी जिज्ञासा के साथ जब माता के सम्मुख बैठी हुई थी तो अचानक मन में एक बात कौंधी,यह सत्य के कितने निकट है नही जानती पर मुझे लगा कि ये विग्रह समूह कितनी बड़ी बात की ओर इंगित कर रहे हैं.एक ध्रुव सत्य जो सदा के लिए प्रासंगिक तथा विचारणीय है.किसी भी नवनिर्माण या विध्वंस के लिए ये इतने ही अवयव तो चाहिए.

माँ दुर्गा शक्ति की प्रतीक हैं, जो किसी भी कार्य के लिए सबसे पहली आवश्यकता है.

सरस्वती विद्या की प्रतीक हैं,शक्ति बिना विद्या/ज्ञान के कभी सफलता नही पा सकती.

लक्ष्मी धन की प्रतीक हैं,शक्ति और विद्या हों भी तो बिना धन के न तो सृष्टि / रचना / नवनिर्माण का कार्य हो सकता है न ही विध्वंश / युद्ध का.

गणेश बुद्दि,युक्ति और विवेक के स्वामी(प्रतीक) हैं.उपरोक्त तीनो चीजे हों भी और उसे विवेकपूर्ण ढंग से युक्तियुक्त प्रयुक्त न किया जाए तो सब व्यर्थ हो जाता है.

और विश्वकर्मा तकनीक और निर्माण के देवता माने जाते हैं. विध्वंश के लिए भी तकनीक चाहिए और भ्रष्ट व्यवस्था के विध्वन्सोपरांत नवनिर्माण के लिए भी बिना तकनीक और निर्माण की आवश्यकता है नही तो इसके बिना सम्पूर्ण प्रयास व्यर्थ और अर्थहीन हो जाता है.

सो कुल मिलकर मातृशक्ति को सर्वशक्तिसंपन्न होते हुए भी विजय तभी मिलती है जब अपने साथ वे इन शक्तियों को लेकर चलती हैं.सत्य ही है इन पंच्शक्तियों के बिना जर्जर व्यवस्था का विनाश और नवसृजन कर विजयश्री प्राप्त कर पाना असंभव है.सर्व शक्ति मान होते हुए भी विजयी वही हो सकता है जो विद्या ,विवेक ,धन और तकनीक के साथ विभूषित हो..

नवरात्र का वह पावन अवसर निकट ही है सो कुछ बात कर ली जाए वर्तमान समय में इस उत्सव को जिस प्रकार से मनाया जाता है उसके विषय में........

कुछ लोग माता के प्रति पेम और निष्ठा को ह्रदय में धारण किए, बिना कर्मकांड में लिप्त हुए मानसिक पूजन में विश्वास करते हैं तो कुछ लोग इसे बेहद सादगी पूर्ण ढंग से घर में ही कलश स्थापित कर इन नवो दिनों में कठोर साधना उपासना तथा व्रत उपवास के साथ संपन्न करते हैं.कुछ कलश स्थापना न भी करें तो यम् नियम पालन करते हुए विग्रहों के पूजा स्थल पर या मंदिरों में जाकर अर्चना करते हैं,परन्तु एक बहुत बड़ा समुदाय ऐसा है जिसके लिए यह एक ऐसा अवसर है जिसमे रात रात भर पंडालों में घूम घूम कर '' ऐश " करने का सर्वोत्तम सुयोग है.आस्था निष्ठा से इस वर्ग का दूर दूर तक कोई सरोकार नही रहता.दर्शनार्थियों को ताड़ना और छेड़ छाड़,इनके लिए आलौकिक आनंद प्रदायक होता है. .

सही है कि परम्परा में उत्सवों का प्रावधान धार्मिक भावनाओं के उद्दीपन के साथ साथ सामूहिक भावना को जाग्रत करने के लिए किया गया था.पर आज ये धार्मिक उत्साव जो रूप ले चुके हैं,उसमे धर्म तो लुप्त होता जा रहा है,हाँ फूहड़ ढंग से मनाया जाने वाला उत्सव बच गया है.जो दिनों दिन और बदतर होता जा रहा है.आस्था का स्थान आडम्बर ने ले लिया है.चाहे वह कडोडों रुपये मंहगे पंडालों के निर्माण के लिए हों या डांडिया और रास के रूप में आयोजित बड़े बड़े प्रायोजित कार्यक्रमों के माध्यम से हो.अब तो महानगरों में पेप्सी कोला जैसी कम्पनियाँ भी इन डांडिया कार्यक्रमों का आयोजन करवाने लगी हैं जहाँ भरी भरकम फीस देकर लोग सज धज कर डिस्को डांडिया करने पहुँचते हैं.आस्था और धर्म वहां गौण रहता है,उद्देश्य मात्र मनोरंजन भर रहता है...

पूजा पंडालों में भी चहुँ ओर पैसा ही चमकता है.एक प्रकार से होड़ सी रहती है इन पूजा मंडलियों के बीच.अधिकांशतः इन मंडलियों के कर्ता धर्ता संरक्षक समाज के तथाकथित भाई लोग ही हुआ करते हैं जिनके बीच यह शक्ति प्रदर्शन तथा वर्चस्व स्थापित करने का मामला होता है.वर्चस्व की इस लडाई में गोली बन्दूक चलना आम बात है.पूजा के नाम पर जमकर वसूली होती है और इस वसूली से एकत्रित धन का जो सदुपयोग होता है उसके बखान की आवश्यकता नही.सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है.पूजा पंडालों में मानक भव्यता और ताम-झाम भर होती है.

बड़ा ही अफ़सोस होता है,जितना धन पूजा के नाम पर इस तरह बहाया जाता है,जहाँ एक ओर निर्धन दाने दाने को मुहताज है , बिना इलाज के असमय दुनिया से विदा हो रहे हैं,कई मेधावी बालक हैं जो पैसे के अभाव में पढ़ नही पाते.जहाँ सड़कें टूटी हुई है या और भी न जाने कितने ही असंख्य समस्याएं हैं,जिसने जीवन को विषम बना दिया है.क्या इनसे निपटने की जिम्मेदारी सिर्फ़ सरकार की बनती है.सरकार और व्यवस्था को गलियां दे दे देने से समाज की जिम्मेदारी समाप्त हो जाती है? चार दिनों के लिए बनाये जा रहे भव्य से भव्यतम पंडालों के लिए जो धन पानी के लिए बहाया जाता है उसका उपयोग उसी माता के नाम पर सार्थक कार्यों में भी तो किया जा सकता है.यदि एक कोष बनाकर उन अभावग्रस्त लोगों की मदद करें, फैली हुई अव्यवस्था के लिए कुछ कदम उठायें तो क्या यह भगवान् के प्रति भक्ति से कमतर होगी?

स्थिति तो यह है कि पूजा के ये अवसर जिस प्रकार से शहर में अव्यवस्था फैलाते हैं, कि उन चार पाँच दिनों के स्थिति की स्मृति ही भयातुर कर देती है.जगह जगह सड़क जाम,शोर शराबा,शरारती तत्वों की हुल्लड़बाजी ,सारे काम काज ठप्प इतनी बेचैन करती है कि उत्सवों का आगमन उत्साहित नही आतंकित ओर क्षुब्ध कर देती है..

आस्था मन और आत्मा में बसने वाली,धर्म आचार और व्यवहार में समाहित होने वाली तथा उत्सव सामाजिक सौहाद्र बढ़ाने वाले अवयव हैं।कोई आवश्यक नही कि व्रत उपवास या अन्य धार्मिक अनुष्ठानों में लिप्त होकर ही आस्तिकता का निष्पादन किया जाय या उसे प्रगाढ़ किया जा सकता है। आस्था और धर्म व्यक्ति के आत्मोन्नति के साथ साथ समाज को उन्नत और सुदृढ़ करने के लिए है।धर्म के नाम पर आडम्बर और धन का अपव्यय सर्वथा अनुचित है और यदि इसे अधर्म कहा जाए तो कोई अतिशियोक्ति न होगी॥

माता सबको सद्बुद्धि तथा मानव धर्म के मर्म को समझ पाने का विवेक दें यही उनसे प्रार्थना है..

" सर्व मंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके,शरण्ये त्रयम्बिके गौरी नारायणी नमोस्तुते "