कभी कहीं पढ़ी हुई ,सुनी हुई एक सामान्य प्रसंग ,एक साधारण वाक्य या घटना भी कभी कभी मर्म को स्पर्श कर मन एवं चिंतन को ऐसे आंदोलित कर दिया करती है कि सोच की दिशा बदल जीवन धारा ही बदल जाया करती है....
आज अपनी एक नितांत ही व्यक्तिगत और गोपनीय अनुभूति यह सोचकर सार्वजानिक कर रही हूँ कि क्या पता जैसे प्रसंग ने मेरे सोच को परिवर्तित कर मुझे अनिर्वचनीय सुख लाभ का सुअवसर दिया,संभव है किसी और के सोच की दिशा को भी प्रभावित करे और उसके सुख का निमित्त बने...
भीड़ भाड़ सदैव ही मुझे आतंकित भयग्रस्त किया करती रही है और इससे बचने में मैं अपना पूरा सामर्थ्य लगा दिया करती हूँ...बाकी भीड़ से तो बच भी जाती थी पर अपने धर्मभीरू माता पिता संग मंदिरों के भीड़ का सामना छुटपन से ही करना पड़ा. धार्मिक स्थलों की अपार अव्यवस्थित भीड़,गन्दगी,पंडों की लूट खसोट,चारों और फ़ैली अव्यवस्था मन में इतनी वितृष्णा भरती थी कि मेरे समझ में नहीं आता था,इन सब के मध्य लोग अपनी श्रद्धा भक्ति का निष्पादन और भक्ति भाव का संवरण कैसे कर पाते हैं.इसके साथ ही तथाकथित भक्तों का क्षद्म रूप भी मुझे बड़ा ही आहत किया करता था और एक तरह से मंदिरों, कर्मकांडों के प्रति मेरी अरुचि दृढ से दृढ़तर होती गयी...मेरे अभिभावक मुझसे बड़े ही क्षुब्ध रहा करते थे. उनकी दृष्टि में मैं घोर नास्तिक थी....
मेरे विवाह के पहले तक हमारे अभिभावक वर्ष में एक बार देवघर (वैद्यनाथ धाम) अवश्य जाते थे. वहां के विहंगम दृश्य के क्या कहने......लोटे का जल शायद ही शिवशम्भू के मस्तक तक पहुँच पाता था.....समस्त पुष्प पत्र जल इत्यादि भक्तों पर ही गिरते थे..गर्भ गृह की यह अवस्था होती थी कि अधिकांशतः भोलेनाथ ही भक्तों के चरण रज प्राप्त करते थे.. यदि कोई उनके स्पर्श का सुअवसर पा जाता तो लगता यदि भोलेनाथ धरती को इतने जकड़ कर न पकडे होते तो कबके भक्त उन्हें समूल उठा अपने जेब में रख चलते बनते...
इस धक्का मुक्की में भक्ति भाव कितना बचा रहता था पता नहीं,हर व्यक्ति दुसरे को अपने स्थान का अपहर्ता घोर शत्रु सम लगता था और वश चलता तो सामने वाले को खदेड़ कर वहां से भगा देता. इस भीड़ में चोरों,जेबकतरों और ठगों की चांदी कटती थी....
उत्तर भारत के प्रायः सभी धर्मस्थलों की कमोबेश यही स्थिति आज भी है .हाँ दक्षिण भारत के जितने भी धर्मस्थलों पर आज तक भ्रमण किया ,अपार भीड़ के बावजूद मंदिर प्रशासन तथा स्थानीय प्रशासन के हस्तक्षेप से क्रमबद्ध कतारों के कारण बहुत अधिक धक्का मुक्की की स्थिति कहीं नहीं देखी...
बचपन में तो अभिभावकों के साथ जब कभी भी इस भीड़ भाड़ में जाने की बाध्यता बनी,मेरा प्रयास होता था ,शीघ्रता से उस भीड़ से निपटकर मंदिर प्रांगन में कोई ऐसा स्थान खोजना और वहां शांति से समय गुजरना जहाँ कि पर्याप्त नीरवता हो.बाद में जब स्वयं निर्णायक बनी तब बहुधा यही प्रयास रहा कि देवस्थानों पर ऐसे समय में जाया जाय जब भीड़ की संभावना न्यूनतम हो.
वर्षो तक देवस्थानों की इस भीड़ और अव्यवस्था ने मन को बड़ा ही तिक्त और खिन्न किया ...परन्तु सुसंयोग से करीब सत्रह अठारह वर्ष पहले एक बार चैतन्य महाप्रभु की जीवनी पढ़ने का अवसर मिला. संभवतः हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की लिखी हुई थी वह.. सम्पूर्ण कथानक इतने हृदयस्पर्शी ढंग से उल्लिखित था कि उसने मन प्राणों को बाँध लिया .....उसी कथानक में विवरण था कि जब चैतन्य महाप्रभु यात्रा क्रम में पुरी के जगन्नाथ मंदिर पहुंचे तो मुख्यद्वार पर पहुँचते ही प्रिय के सानिध्य स्मरण ने उन्हें भावविभोर कर दिया,उनके शरीर में रोमांच भर आया, नयनो से अविरल अश्रुधार प्रवाहित होने लगी, भक्ति और प्रेम के आवेग में वे मूर्छित हो गए.....
जब मैंने यह अंश पढ़ा तो न जाने इस प्रसंग ने ह्रदय के किस तंतु को झकझोरा .... मेरे मन ने मुझे बड़ा दुत्कारा ...मुझे लगा जिस पुरी मंदिर में जाने पर मुझे आजतक भीड़ अव्यवस्था,पण्डे , गन्दगी इत्यादि ही दिखे थे,उसी मंदिर में तो चैतन्य महाप्रभु को श्याम सलोने के दर्शन हुए .....यह तो मेरा ही दृष्टिदोष है जो आज तक मेरी दृष्टि इन अवयवों पर ही केन्द्रित रही थी . मेरा ध्यान जिन वस्तुओं पर था,मुझे वही दिखाई दिया...चैतन्य महाप्रभु के दृष्टि वलय में जो था, उन्हें वह दिखाई दिया...
इस विचार ने मुझे इतने गहरे प्रभावित किया कि ,इसने मेरा दृष्टिकोण ही बदल दिया...और उस दिन के बाद जब भी किसी देवस्थान पर गयी हूँ और मन ध्यान से वहां की सकारात्मक उर्जा से जुड़ने का प्रयत्न किया है,शायद ही कभी असफलता मिली है और उसके उपरांत तो कोई भी कारण ध्यान क्रम को बाधित नहीं कर पाया है..प्रेम और भक्ति रस में आकंठ निमग्न होने पर तन मन की जो स्थिति होती है,जो परमानंद प्राप्त होता है उसके सम्मुख संसार की कोई भी वस्तु कोई भी असुविधा अर्थहीन लगती है.....
जो हम अपनी इस स्थूल शरीर की सीमित सामर्थ्यवान नयनो से दृष्टिगत नहीं कर पाते , उसका आस्तित्व ही नहीं है ,ऐसी धारणा नितांत ही भ्रामक और मूर्खता पूर्ण है. जो ईश्वरीय सत्ता को अस्वीकृत करते हैं ,उनके साथ मैं बहस में नहीं पड़ना चाहती. उन्हें यदि यह सोच शांति और सुख देता है तो,यह बहुत ही अच्छी बात है,वे ऐसे ही सुखी रहें......मैं उनके उन्मुख हूँ जो ईश्वरीय सत्ता को तो मानते हैं ,परन्तु बाह्य अवयवों में फंस उस अपरिमित सुख प्राप्ति से वंचित रह जाते हैं..उन्हें एक बार इस दृष्टिकोण के प्रति सजग करना मुझे अपना कर्तब्य लगा....
धर्म में दिखावे और आडम्बर युक्त कोरे कर्मकांडों की धुर विरोधी मैं भी हूँ..कर्म कांडों की उपयोगिता और आवश्यकता मैं इतने भर के लिए मानती हूँ कि कहीं न कहीं ये मुझे वैज्ञानिक तथा भक्ति प्रेम के उद्दीपक लगते हैं. जैसे अपने किसी प्रिय श्रेष्ठ का सानिध्य हमें सुखद लगता है,उसके सम्मान और प्रेम प्रदर्शन हेतु हम भांति भांति की चेष्टाएँ करते हैं और अंततोगत्वा अपार सुख प्राप्त करते हैं,वैसे ही उस सर्वेश्वर के प्रति स्नेह प्रदर्शन सेवा सम्मान भी भक्ति उद्दीपक तथा सुख के साधन ही हैं.
धार्मिक अनुष्ठानों या कर्मकांडों को सिरे से नकारना भी पूर्णतः उचित नहीं है क्योंकि इसके रूप को विकृत मनुष्यों और पण्डे पुजारियों ने ही किया है नहीं तो इनमे निहित वैज्ञानिक दृष्टिकोण पूर्ण रूपेण जीवनोपयोगी हैं.यह सत्य है की मानवमात्र का धर्म बह्याडम्बरों की अपेक्षा ईश्वर को मन कर्म व्यवहार में धारण करना है,परन्तु जो भी उपाय ईश्वर के प्रति श्रद्धा निष्ठां भक्ति और प्रेम को सुदृढ़ करने में सहायक हों,जीवन को सकारात्मक दिशा प्रदान करता हो,मेरी दृष्टि में वह ग्रहणीय एवं वन्दनीय है.
यह पूर्ण और अकाट्य सत्य है कि ईश्वर का वास मन आत्मा में होता है,हमारी भावनाओं में होता है,सकारात्मक सोच और कर्म में होता है.परन्तु ईश्वर का वास उस पत्थर और स्थान में भी होता है जो अनंत काल से असंख्य श्रद्धालुओं के आस्था का केंद्र है.. यह निश्चित जानिए कि यदि हमारी अनुभूति क्षमता प्रखर है तो हम भी उसी प्रकार पत्थर की मूरत में श्याम को देख सकते हैं जैसे मीरा और सूर ने देखा था..रामकृष्ण ने माँ काली को देखा था....और ऐसे उदाहरणों की कोई कमी नहीं......तो क्यों न एक बार हम भी प्रयास कर देखें. उस अनिर्वचनीय सुख और आनंदलाभ का प्रयास करें....अधिक कहाँ कुछ करना है,एक दृष्टिकोण भर तो बदलना है इसके लिए.....
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42 comments:
रंजना जी
आपका लेख इस बात की पुष्टि करता है की इंसान जो भी देखना चाहता है.......उसकी आँखें वही दिखाती हैं.........सत्य को केवल भौतिक आँखों से ही नहीं देखा जा सकता वो भी आध्यात्मिक सत्य......उसको तो देखने के लिए........मोह, माया, ज्ञान, तर्क, वितर्क और बुद्धि से परे विशुद्ध प्रेम की आँखों से ही देखना संभव है.............तभी तो कहते हैं............देवस्थानों पर हजारो लोग जाते हैं ............पर प्रभू के दर्शन.......कुछ लोगों को ही संभव हो पाते हैं.........
bahut prerak alekh hai vese to aur tabhi satya ko dekh samajh pata hai abhar aadmi ko man ki ankhe khuli rakhni chahiye use vo sab dikh jata hai jo vah janta hai par dekh nahi sakta prabhu kirpa jab hoti hai man ki ankhen bhi tabhi khulti hain
सत्य को केवल भौतिक आँखों से ही नहीं देखा जा सकता वो भी आध्यात्मिक सत्य...दिगम्बर नासवा ji कि बात से सहमत हू जी। आभार
आपकी बातो से एक सच्चे इन्सान की पहचान मिलती है .पर अफ़सोस इस देश में धर्म एक दूकान है....जिसका जब मन चाहे उसे इस्तेमाल करता है...
कस्तुरी कुंडली बसै " को जानते -मानते हुए भी मै आपकी बात से इत्तफ़ाक रखती हूँ कि देवस्थानों पर कुछ अनिर्वचनीय अनुभव तो अवश्य होते है .
bahut sunder ....aapne lekh likha hai ranjana..ji....uske liye badhai...apko...
याद है एक बार मैने कहा था..
इस दुनिया को देखने के कितने ढंग है..
सबके चश्मों के अलग अलग रंग हैं...
-बहुत उम्दा आलेख मेरी बात को सिद्ध करता कि मसला दृष्टिकोण का है.
समीरजी की बात से सहमत हूं.
रामराम.
baat wahi KYA DEKHNA HAI?
GILAAS AADHA BHARAA YA AADHA KHALI?
सकारात्मक सोच लिये एक रचना.
मेरे एक दोस्त कहते हैं:
एक गमले में फूल है और पास में गोबर पड़ा है .
अब जिसे फूल देखना है ,वह फूल देखेगा और खुश रहेगा.
लेकिन जिसे गोबर देखना है ,उसे भी कौन रोक सकता है?
Hum puri tarah sahmat hain aapse.hum jo dekhna chahte hain wahi dikhta hain....
देवघर से जुड़ी कितनी ही यादें एकदम से ताजा हो आयीं....
आपकी लेखनी का कायल हो गया हूँ
मेरे विचार इस बारे में अभी भी वैसे हैं जैसे कि १८ साल पहले आपके थे। इसलिए आज भी मुझे बौद्ध स्तूपों, बहाई मंदिर और बनारस के विश्वनाथ मंदिर में जाकर जो सुकून मिला है वो बाकी पुरी काली बाड़ी जैसी जगहों पर कभी नहीं हुआ है। मेरे समझ से पुजा स्थल वो जगहें होनी चाहिए जहाँ मन की भावनाएँ स्वतः निर्मल हो जाएँ।
पुजा की जगह पूजा पढ़ें।
बहुत बढिया लिखा है .. सकारात्मक दृष्टिकोण आवश्यक है हर जगह .. अन्यथा हम हीरे को भी पत्थर कहकर चलते बनते हैं।
अच्छा, सुन्दर मन से लिखा लेख!
क्या आपको ज्ञात है कि आपकी लिखने की शैली बंगला साहित्यकारों जैसे शरत चंद्र आदि (अगर कभी उनके अनुवादित साहित्य को पढ़ें) से प्रेरणा प्राप्त लगती है। आप कहानी लिखने का प्रयास करें, सफ़ल होंगी।
सुंदर लेखन।
हमारे अनुष्ठानो-कर्मकाण्डों में ९८% कचरा है और २% सोना। वह दो परसेण्ट छोड़ा नहीं जा सकता।
जो आप दिल की आँखों से देखना चाहे वही दिखेगा ...बात सिर्फ अपने दिल की बात मानने की है अच्छा लिखा आपने इस विषय को
कंकर में शंकर हैं तो पुष्प, पिंडी और पैर सभी एक ही तो हैं. भेद तो भक्त उपजाता है. पत्थर को लड्डू दिखाकर खुद खा जाता है और...निरपेक्ष-निष्पक्ष परमात्मा को करुणासागर कहा कर समझता है कि काम बन गया.
अच्छा लेख..इतना अन्तराल क्यों?
अच्छा लेख...
ak achha lekhjisne mujhe bhi anivrchneey sukh smarn krva diye .jo ki mujhe badrinath aur kedarnath ke doran hue the .apki shaili bahut bhut 'dhani' hai ,
यह तो मेरा ही दृष्टिदोष है जो आज तक मेरी दृष्टि इन अवयवों पर ही केन्द्रित रही थी . मेरा ध्यान जिन वस्तुओं पर था,मुझे वही दिखाई दिया...चैतन्य महाप्रभु के दृष्टि वलय में जो था, उन्हें वह दिखाई दिया...यह सोच दुर्लभ है और नसीब वालों को ही मिलती है.
सच लगी आपकी बात ..मंदिर में जाने मात्र से कुछ नही होता..!थोडा धयान लगा के देखिये हम भी उसी भावना में खो जाते है..!माउन्ट आबू यात्रा के दौरान जैन मंदिरों में मैंने कई बार अद्भुत जुडाव का अनुभव किया..बात तो मन लगाने की है...!मूड सही होने पर ही संगीत सुकून देता है वरना वही संगीत शोर लगता है...
ise kahte hain sakaaraatmak soch.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
सुंदर लेखन।बहुत बढिया लिखा है |आपकी लेखनी का कायल हूँ....
संगीता जी,
सच है..
जैसे मेरे पिता जी कहते हैं... हम लोग उन कर्म कांडों के पीछे के अर्थ और कारण से अनजान हैं.
इसका बहुत बड़ा कारण मुसलमान शासकों के द्वारा किया दमन (पंडितों और धार्मिक किताबों का) भी है.
तो कुछ पंडितों के अज्ञान और ज्ञान ना बाटने का भी है..
किन्तु इसका यह अर्थ नहीं की सब बकवास हैं और हमें उन्हें त्याग देना चाहिए!!!
बहुत विचारणीय लेख.
बधाई..
~जयंत
बहुत ही सही लिखा है रंजना जी आप ने-:
'ईश्वर का वास मन आत्मा में होता है,हमारी भावनाओं में होता है,सकारात्मक सोच और कर्म में होता है.परन्तु ईश्वर का वास उस पत्थर और स्थान में भी होता है जो अनंत काल से असंख्य श्रद्धालुओं के आस्था का केंद्र है.'
-विचारपरक लेख है.
-कर्मकांड कितने अर्थपूर्ण हैं कह नहीं सकती --
-हाँ ,मंदिरों में सुचारू रूप से दर्शन करने की व्यवस्था होनी चाहिये.भीड़ से तो हर कोई बचना चाहता है.
मै भी अल्पना जी की बात से सहमत हूँ
आपका हर लेख यथार्थ समेटे हुए है..
यथार्थ चिन्तन . समर्पित प्रस्तुति . इस विषय पर तिप्पणियों मे सार्थक संवाद . मैं सहमत हूं .वक्त आ गया है कि परिवेश को सुढारा जाये .
ईमान्दारी से कहूं ,आप जमशेदपुर से हैं, आपकी प्रोफ़ाईल मे पढा , तो पढने आ गया . ये शहर मेरे दिल के बहुत ही करीब है .अपनी ज़िन्दगी के सब से अच्छे दिन यहीं गुजारे .NIT मे पढते (/?) .तब RIT नाम था.
खर्काई,कदमा,सोनारी,दिमना,बिस्तुपुर,जुग्सलाई,साक्ची,तेल्को,....................खडन्झा झाड !
बहर्हाल सुखद deviation !
आपकी रचनाओं मे सम्यक ,बेबाक बयानी पायी . बनाये रखिये . बहुत बडी ताकत होती है .
स्नेह .
भले ही देर से आया पर सार्थक रचना पढ़ने को मिली।
भाव हृदय में हो प्रबल मिल जायें भगवान।
ढ़ंग खोजने का अलग जिसका जैसा ज्ञान।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
आप शब्द चित्र बहुत अच्छे खींचती हैं कहानी के क्षेत्र में कार्य करें तो साहित्य को एक अच्छा कहानीकार मिल सकता है । आपके लेख में रोचकता पूरे समय बनी रहती है ।
सरल सहज एवं रोचक शैली में लिखा गया आलेख। अच्छा लगा पढ़कर। लिखते रहें।
अच्छा लिखा आपने.सार्थक रचना.बधाई!!!
देवघर में तो पली बढ़ी हूँ और बाबा मंदिर वहां जिंदगी की हर छोटी बड़ी चीज़ से जुड़ा रहा है, इस भीड़ से हमेशा डरती थी...पर जैसे ही मंदिर में अन्दर जाती थी, सब डर जैसे छू हो जाता था. शिवलिंग देखने के बाद कभी और कुछ नहीं महसूस हुआ, अजीब शांति मिलती थी.
जो कुछ हमारे दिल में होता है, वही हमें चारों ओर नजर आता है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
सुन्दर प्रेरणादायी लेख
AAPKAA SAARGARBHIT LEKH PADH GAYAA.
PAHLEE BAAR MAIN AAPKE BLOG PAR
AAYAA HOON AUR PAHLEE BAAR HEE
AAPKE LEKH NE ITNAA ZIADA PRABHAVIT
KIYAA HAI KI AAP AUR AAPKE SASHAKT LEKHAN
KE LIYE MERE MUN SE DHER SAAREE
SHUBH KAMNAYEN NIKAL RAHEE HAN.
आपके विचारों से शत प्रतिशत सहमत। यूं कहें कि मेरी सोच को आपने शब्दों में बांधा है। सुलझी-सच्ची बातें। कर्मकांड को अक्सर आस्था और भक्ति समझा जाता है। मन जहां स्थिर हो, वहीं तो आस्था है न!!
विचित्रता यह कि मन की स्थिरता के लिए ही जीव भौतिक रूप से गतिमान रहता है, डेरे डेरे, जंगल जंगल, मंदिर-मस्जिद डोलता है। आस्था कभी अस्थिर नहीं होती, पर मन तो उसे इस ठाकुरद्वारे से उस देवघर तक दौड़ाता है।
मैं तो इससे थकता हूं, ऊब चुका हूं। हर दृष्टिकोण से मुझे किसी भी धाम में प्रतिमा नहीं, बल्कि परिवेश सुहाता है। दिखावे के लिए ही सिर नवाता हूं, पर चैन धाम को दूर से निहारने में ही मिलता है। मेरा मन यूं स्थिर होता है:)
आपका ब्लाग देखा। बड़ी संजीदगी से अपने संस्मरणों को शब्दों में बांधा है। दृष्टिकोण को साथ कहानी भी अच्छी रचनाओं में शुमार किए जाने लायक है।
कब से सोच रहा था इस लेख पर आपको वाहवाही देने की, परन्तु दफ़्तर से ब्लोग्स्पोट पर कमेन्ट नही कर सकता. खैर कहना यह चाहता था कि आपने मेरे अनुभवों और विचारों को शब्द दे दिये. आभार.
इधर कुछ दिनों से आप नियमित मेरा प्रोत्साहन कर रही हैं, उसके लिये भी धन्यवाद.
वाकई दिल से निकलकर आई अनुभूति व्यक्त हुई ।
श्याम सखा
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