कहाँ नहीं मनौती मानी गयी।अंगरेजी डाक्टर, बैद हकीम, गंडा ताबीज क्या क्या न किया गया॥आखिर शादी के बारहवें बरस में भाग बना और देवकी बाबू के घर चिराग जला था...सरोज के विकल ममत्व को स्नेह अवलंबन मिला....नन्हा सोनू दोनों के जीवन का सार था.दोनों पति पत्नी की आँखे आठों पहर उसी पर लगी रहती थी..
और लड़का था भी ऐसा कि देखने वालों की आँखें बाँध लेता था...ऐसा कोई दिन न होता जब सरोज उसकी दीठ न उतारती हो।उसका बस चलता तो उसे आँचल तले ही छुपाये रखती. पर हाथ पैर वाले बच्चे को आँचल तले कितने दिन रखा जा सकता था,बच्चा भाग दौड़ में लग जाता और आशंकित सरोज कभी भी निश्चिंत होकर उसके बाल क्रियाओं का मन भर सुख न ले पाती......
चार साल तक तो सरोज ने उसे घर खलिहान और आँगन तक में सीमित रखा,पर आखिर ऐसे ही सारी उम्र घर में घुसाए तो न रखा जा सकता था॥शिक्षा की बात आई तो सरोज ने जिद ठान दी कि सोनू स्कूल नहीं जायेगा,बल्कि उसके शिक्षा की व्यवस्था घर पर ही कर दी जाय। बड़ी मशक्कत से देवकी बाबू ने सरोज को समझा बुझाकर बच्चे का दाखिला स्कूल में करवाया.
देवकी बाबू नहीं चाहते थे कि उनका बच्चा भी उनकी तरह जमींदारी की इस डूबती नैया के भरोसे अनपढ़ बैठा रहे॥अपने लाल के लिए उनकी आँखों में बहुत बड़े बड़े सपने थे..उन्होंने सोच रखा था कि किसी भी तरह हाई स्कूल की शिक्षा के लिए वे उसे शहर के सबसे बड़े स्कूल में डाल देंगे और अपना पूरा सामर्थ्य इस बच्चे के उज्जवल भविष्य निर्माण में लगा देंगे..
ज्यों ज्यों दिन बीतते गए उनका सोनू अपनी प्रतिभा से उनके सपने को और भी पुख्ता करता गया।उसके प्रतिभा से स्कूल से मास्टर भी अचंभित रहा करते थे. छठी कक्षा तक पहुँचते पहुँचते सोनू स्कूल की शान बन गया था.
लेकिन विधाता भी कैसे खेल खेला करता है, कि कभी कभी उससे निष्ठुर संसार में कोई नहीं लगता। स्कूल के आहते में ही आम का एक विशाल पेड़ था. उस साल वह फल से लद सा गया था.नीचे के सभी फल तो बच्चों ने चढ़कर या डंडे पत्थर मारकर बतिया में ही झाड़ लिए थे,पर ऊपर की टहनियों पर जो कुछ फल बच गए थे,बच्चों को हमेशा चुनौती दे चिढाया करते थे.... रोज ही बच्चों में दावं लगाया जाता कि जो भी बच्चा ऊपर वाली टहनियों से बीस फल तोड़ लाएगा वही स्कूल का लीडर ,सबसे बहादुर माना जाएगा.
फिर क्या था,इसी होड़ में एक दिन सोनू चढ़ गया ऊपर वाली टहनियों पर॥नीचे से सारे बच्चे ललकार रहे थे और सोनू फुनगियों की तरफ बढा चला जा रहा था।हरेक आम के साथ उसका उत्साह बढा ही चला जा रहा था.पंद्रह आम तोड़ लिए थे उसने .लेकिन जैसे ही सोलहवें की ओर बढा, एक कमजोर टहनी ऐसे टूटी कि वह सोनू के लिए यमराज बन गयी.सर में इतनी भारी चोट आई कि जमीन पर गिरने के बाद उसके मुंह से आवाज तक नहीं फूटी....एक पल में देवकी बाबू और सरोज का वह सुन्दर संसार लुट गया.
देवकी बाबू के घर में पूरा गाँव उमड़ आया था।देवकी बाबू के कुछेक गोतिया लोगों को छोड़ शायद ही कोई ऐसा था जिसकी आँखें नहीं बह रही थी.सरोज की नजर जैसे ही अपने बच्चे के लहूलुहान शरीर पर पडी बदहवास भागती उसे गोद में झपट लिया...लेकिन उसके ठंढे पड़े शरीर ने जैसे ही उसे यथार्थ बोध कराया तो वह अपने होशो हवाश खो बैठी.उसके बाद तो किसी तरह जैसे ही उसे होश में लाया जाता,एक चित्कार के साथ फिर से वह अपने होश गवां बैठती.देवकी बाबू बेहोश भले न हुए थे,पर बेटे के मृत शरीर के आगे जो पत्थर होकर बैठे,तो लग ही नहीं रहा था कि उनके काठ बने शरीर में प्राण बचा हुआ है.
दोपहर को घटना घटी थी और सूरज डूबने को आया था...सबके समझाने बुझाने पर किसी तरह अंतिम संस्कार की तैयारी शुरू हुई।देवकी बाबू का माथा तो सुन्न पड़ा था,गोतिया दियाद तथा ग्रामीणों ने ही मिलकर सारी तैयारियां कीं.अंतिम विदाई के ह्रदय विदारक दृश्य ने सबके कलेजे दहला दिए थे॥
दाह संस्कार के अगले दिन सभी सम्बन्धियों पुरोहितों तथा गणमान्य ग्रामीणों की देवकी बाबू के घर बैठकी हुई। आगे के कार्यक्रम की रूपरेखा पर विचार शुरू हुआ. कुछ भलेमानसों ने जैसे ही राय दी कि दुःख की इस घड़ी में क्रिया कर्म में कोई ताम झाम न किया जाय,बाकियों ने उन्हें इतना दुरदुराया कि उन्होंने चुप रहने में ही भलाई समझी.लोगों का तर्क था कि अब चूँकि सोनू का जनेऊ हो चुका था, इसलिए उसका सारा कर्म एक वयस्क सा ही होना चाहिए. इन विरोधी स्वरों में देवकी बाबू के अलग हो चुके भाइयों का स्वर सबसे मुखर था.
यह तो उनके लिए एक सुनहरा अवसर था,जिसके द्वारा वे अपना सारा गुप्त वैर निकाल मन ठंढा कर सकते थे।एकसाथ मानसिक और आर्थिक आघात दे वे अपना अगला पिछला सब हिसाब चुकता कर सकते थे,जो जमीन विभाजन के समय से उनके मन में पल रहे थे॥इस सुनहरे अवसर को वे भला क्योंकर गवांते.
क्रिया कर्म दान इत्यादि की लम्बी फेरहिस्त बनी।लगभग दो घंटे तक इस बात पर विचार या कहें वाद विवाद चलता रहा कि चार दिनों के भोज में किस दिन कौन सा व्यंजन रखा जायेगा, कितने किस्म की कौन कौन सी मिठाई का प्रावधान रखा उचित होगा॥ पूरी परिचर्चा ऐसे हो रही थी जैसे वह सोनू के विवाहोत्सव का अवसर हो.मिठाइयों के स्वाद ने सबकी बुद्धि और जीभ को ऐसे मोहित किया कि उनका हर्ष परिचर्चा में परिहास ले आया.हंसी ठठा से पूरा माहौल गमगमा गया.
उसी समय देवकी बाबू की आँखों के आगे दृश्य घूम गया कि उनका सोनू पेड़ से गिर रहा है और जबतक वे उसे अपने हाथों में थामते कि वह जमीन पर गिरकर लहूलुहान हो गया है। देवकी बाबू चिंघाड़ मारकर बिलख पड़े और संज्ञाशून्य हो कर जमीन पर गिर पड़े.माहौल अचानक ही बदल गया.पानी के छींटे और हवा कर किसी तरह उन्हें होश में लाया गया. लोगों ने दबी जुबान से एक दुसरे को परिचर्चा को विराम देने को खबरदार किया॥अभी इसे आगे बढ़ाने का उचित माहौल नहीं रह गया था.. अगले दिन बैठक के निर्धारण के साथ उस दिन की सभा बीच में ही स्थगित हो गयी..
दो पुस्त पहले तक बड़ी भारी जमींदारी थी उनकी। जहाँ तक नजर दौडाओ उनके ही खेत नजर आते थे...खलिहान में फसल के अम्बार लगे रहते थे...कमला नदी का आर्शीवाद था.साल में तीन फसल हुआ करते थे.उनके ज्यादातर जमीन कमला जी के किनारे ही थे॥लेकिन समय के साथ सब तहस नहस होता चला गया.नालायक निकम्मी पीढी ने केस मुक़दमे तथा अय्यासी में सारा धन कमला जी के सतत प्रवाहित धार सा पानी कर बहा दिया...
आज बस सब ऊपरी दिखावा भर रह गया था॥अन्दर से सभी खोखले थे। यह भी जो आज बचा था देवकी बाबू के पिताजी रामनारायण बाबू सूझ बूझ के कारण ही बचा था.उन्होंने अपनी जिन्दगी में ही अपने बेटियों को निपटाकर सातों बेटों को फरिया दिया था.. पर बाँट बखरा के बाद सातों भाइयों के हिस्से जो जमीन आई थी,वह इतनी न थी कि उसके भरोसे ठीक से पहना ओढा या शान बघारा जा सकता था.
जब हैसियत थी तब इन्होने मरनी जीनी शादी ब्याह सबमे बेहिसाब पैसे लुटाये थे, कुत्ते बिल्लियों के भी धूम धाम से ब्याह रचाए थे॥पर आज वह सब करना नामुमकिन था।आज हैसियत के हिसाब से काम क्रिया का मतलब था,कम से कम छः सात लाख की चोट.देवकी बाबू अपने हिस्से की लगभग सारी जमीन बेच देते तो ही इतनी रकम का इंतजाम हो सकता था.
लेकिन जमीन बेचना भी क्या इतना आसान था।लोग इसी ताक में तो रहते थे.सख्त जरूरत के ऐसे मौकों पर खरीदार के हजार नखरे होते थे.मजबूरी में औने पौने दाम पर लोगों को जमीन बेचना पड़ता था या फिर सूदखोरों के पास चक्रवृद्धि ब्याज पर जमीन गिरवी रखना पड़ता था,जिसके मूल और सूद चुकाने में पीढियों के तेल निकल जाते थे.
एक तो बेटे के मौत का गम ऊपर से इतना बड़ा खर्चा....देवकी बाबू विक्षिप्त से हुए जा रहे थे।अपने मुंह से अपने आर्थिक स्थिति की पोल तो खोल नहीं सकते थे...सो उन्होंने सोचा कि मानसिक स्थिति का हवाला देकर किसी तरह पंचों को मानाने का प्रयत्न करेंगे॥
अगले दिन की बैठक में उन्होंने पंचों के सामने जैसे ही अपना अनुनय रखा कि वर्तमान मानसिक अवस्था में उनका मन जरा भी गवाही नहीं दे रहा इस आयोजन को वृहत रूप में करने का॥कि सारे लोग इस बात पर उखड गए।पीढियों से चली आ रही परंपरा, रीत रिवाज के ये ही तो रक्षक थे.माना कि दुःख बहुत बड़ा था,लेकिन इसका यह तो मतलब नहीं था कि लोकाचार से मुंह मोड़ लिया जाय..एक से एक किस्से निकलने लगे कि कैसे फलाने ने अपने फलाने के आकस्मिक निधन पर क्रिया कर्म में कितने शान से खर्च किया ,फलाने ने नहीं किया तो उसके खानदान पर कितनी विपदा आई.आखिर इस आसमयिक मौत से आत्मा अतृप्त होकर जो भटकेगी,उसके शांति का रास्ता इन्ही कर्मो से होकर तो निकलेगा.जितने अच्छे ढंग से कर्म होगा आत्मा उतनी ही तृप्त होगी.
आखिर इनके तर्क और क्षोभ के सामने देवकी बाबू ने अपने हथियार डाल दिए और अंततः उन्हें कूबूलना ही पड़ा कि अभी इस समय इस रूप में यह सब करने में वे आर्थिक रूप से पूर्णतः अक्षम हैं। अब अगर पञ्च सहारा दें,इस विषम समय में हाथ पकडें,तभी वे यह सब संपन्न कर सकते हैं.
बस क्या था,सांत्वना और सहानुभूति का दौर सा चल निकला॥वाणी में मधु घोलते हुए सबने समवेत स्वर में अपने विशाल ह्रदय और अपनापन का भरोसा दिया..देवकी बाबू को लताड़ भी लगायी कि उनके रहते वे अपने आप को ऐसा असहाय कैसे समझ सकते हैं...
पुराहितों और पंचों ने पूरी सहृदयता से आयोजन की विस्तृत रूपरेखा बनाई ।खर्च का हिसाब लगाया गया और सबने अपना अपना भाग तय कर दिया॥कुछ ही पलों में पूरे पैसों का इंतजाम हो गया था..सबकी राय थी कि कहीं किसी बात की कोई कमी उनके रहते न रखी जाय..
सब कुछ तय कर तृप्त ह्रदय से चाय नाश्ते के साथ सभा संपन्न हुई.एक एक कर लोग उठ उठ कर जाने लगे.जाते समय व्यक्तिगत आश्वासन देने के बहाने सब एकांत में देवकी बाबू से मिलते गए और फुसफुसाते हुए उनके कान में अपने पसंदीदा जमीन के कागजात निश्चित रूप से लेकर आने की ताकीद करते गए...
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54 comments:
dil ko chho gayi ye kahaani
उफ! ये दुनिया ऐसी ही है। ज़ालिम। पहले तो ऊपरवाले ने देवकी बाबू को कहीं का नहीं छोड़ा, रही-सही कसर नीचेवालों ने निकाल दी।
bahut umda ranjana ji....kya kahani likhi hai ....aapne jo dil ko chu gayiiiiiiiiiiiiii
बहुत अच्छी कहानी. मनुष्य के चरित्र को दिखाती हुई.
वही दिनकर जी की पंक्तियाँ...
अपहरण, शोषण वही कुत्सित वही अभियान
खोजना चढ़ दूसरों के भस्म पर उत्थान
बहुत बेहतरीन और सत्य को बयान करती कहानी.
रामराम.
dukhad Stya ki Marmik katha..!
aapki kahani sachche arth de jati hai
पारम्परिक कुरीति की हकीकत बयां करती यह कहानी सम्वेदना को झकझोर गयी। सचमुच कभी कभी सामाजिक स्थितियां ऐसी बन जातीं है। अच्छी प्रस्तुति।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
गिद्ध विलुप्त हो रहे हैं और मानव समाज में पसर रहे हैं।
मार्मिक कहानी। एक सांस में पढ़ गया। मानव मन और सामाजिक ढांचे का जो चित्रण आपने किया है वो बेहद प्रभावी है।
मार्मिक पोस्ट जो एक सत्य का पर्दाफाश कर रही है . बहुत ही भावपूर्ण उम्दा आलेख. .
हृदयस्पर्शी…!!!
हम सब हर चीज़ जानते हैं और कह्मे हैं ये तो परंपरा है......
चलता आया है चलता रहेगा.........
लेकिन क्या यही सच्चाई है..........
खुद से भागते हैं अकेले कुछ करें तो कैसे.......
अकेले कोई क्रांति नहीं होती.........
बस यही सोच हिम्मत हार जाते हैं........
ऐसा ही होता है......
आपने बहुत अच्छे ढंग से प्रस्तुत किया है..........
अक्षय-मन
मर्म स्पर्शी पोस्ट
यही पीर हताश करती
है जीवन से
RANJANA JEE,
AAPKEE KAHANI KABHEE
JHAKJHORTEE HAI AUR KABHEE UDVELIT
KARTEE HAI.KAHANI BAYAAN KARNE MEIN
AAP DAKSH HAI.IS UMDAA KAHANI KE
LIYE MEREE BADHAAEE SWEEKAR KIJIYE.
ह्रदय स्पर्शी लिखा है आपने.........कितनी विडंबना है की आज भी ऐसी बातें हमारे समाज में कहीं न कहीं बिखरी हुयी मिल जाती हैं............. सोचने को मजबूर करती हुयी पोस्ट है आपकी
समाज के चेहरे से
आवरण हटा दिया आपने ..
यह कडुवा, कठोर सत्य
उजागर किया..
बखूबी किया -
- लावण्या
स्वार्थी समाज की कलई खोलती मार्मिक कहानी - बधाई!
aapki ye avivyakti sochne par majboor karti hai..... ek safal lekhni
रंजना जी मैने भी गाँव के जीवन को नज़दीक से देखा है अप्ने बहुत ही बडिया ढँग से गाँव के इस कुरूप चेहरे को दिखाया है आभार्
dil ko chhuu gaya aapka har lafzz!
एक से एक कहानी लिखती हो. बिल्कुल एक पूर्ण चरित्र का बखान..दिल के पास से गुजरती हुई. लेखन में हमेशा ही कुछ अपने शब्द आ जाते हैं जिनसे साबका छूटे अरसा बीता था. बहुत खूब!!
बहुत बधाई.
आपने जो द्रश्य दिखाया...
आखों में पानी भर आया..
सच, सच है काला साया...
दिखावा है काल जाया...
~जयंत
बहुत बेहतरीन कहानी......
सार्थक कथा-रचना वाह...
मर्मस्पर्शी कहानी...और लिखने का अंदाज़ तो बस तमाम तारिफ़ों से परे है।
बड़े दिनो बाद "दीठ उतारना" और " गोतिया लोगों " जैसे शब्दों का प्रयोग नजर आया है, तो अपने सहरसा की याद आ गयी।
बहुत ही मार्मिक कहानी है जो आज के हमारे समाज की पोल खोलती है...!दुखी को और दुखी करना आज की रीत बनती जा रही है...
रंजना जी,
कहानी अपने मक़सद में पूरी तरह सफल है कि वह पाठक को हिलने नही देती और अंत तक आते आते उसका दिल इन कुरीतियों के खिलाफ कर देती है।
प्रसंग का मार्मिक चित्रण है।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
मर्म स्पर्शी कथा..
समाज से ली हुई समस्याओं पर लिखी आप की रचनाएँ सोच को हिला जाती हैं..
परम्परा और जड़-विश्वास की आड़ में अपनी रोटी सेकने वाले तथाकथित समाज की नज़र नीची करती इस अन्यतम कहानी के लिये,रंजना जी आपको बहुत बधाई और शुभकामनायें।भाषा भी सहज और गंभीर है। -सुशील कुमार
एक अलग किस्म की सच्चाई को बयान करती हुई आपकी कहानी.......अच्छी रचना के लिये बधाई
सामंती मूल्यों और संस्कारों को बेनकाब करती एक बेहतर कहानी...
शुभकामनाएं..लेखन में उत्तरोत्तर विकास के लिए..
एक बेहतरीन सामाजिक कहानी .....!!
पर हमारे यहाँ बच्चों की मृत्यु पर मीठा नहीं परोसा जाता सिर्फ बुजुर्गों की मृत्यु पर ही परोसा जाता है जो अपनी उम्र भोग कर मरते हैं ...!!
रंजना जी -
आपने बहुते मर्म-स्पर्शी, सामायिक कहानी लिखीं है. हमारे इस समाज के इन कुरूतियों पर कलम लगाने की बहुत जरूरत है- और आपकी यह कहानी इस प्रसंग पर बहुत प्रभावी हैं.
मुझे बहुत अच्छा लगा
इस दुनिया का असली चेहरा आप की इस कहानी मै साफ़ दिख रहा है, बहुत ही भावुक कहानी है.
धन्यवाद
haqiqiat ko bayan karti hui kahani k lie badhai.bahut khubsurat likha hai aapne.jitni tareef ki jaye kam hai. kabhi mere blog par bhi aayen.
www.salaamzindadili.blogspot.com
wastvikta se sarabor likhate rahe shubha kamnaye
भाव और शिल्प की दृष्टि से अभिव्यक्ति बड़ी प्रखर है । सीधे सरल शब्दों का प्रयोग सहज ही प्रभावित करता है । वैचारिकता को प्रेरित करती आप रचना अच्छी लगी ।
मैने अपने ब्लाग पर एक लेख लिखा है-फेल होने पर खत्म नहीं हो जाती जिंदगी-समय हो पढें और कमेंट भी दें-
http://www.ashokvichar.blogspot.com
प्रेमचंद जी की याद आ गई आपकी कहानी पढ कर।
kafi achhi kahani hai. kabhi waqt mile to mere blog par bhi aaye.
कथ्य और शैली पर मजबूत पकड़...बेहद सुन्दर कहानी..बधाई .
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विश्व पर्यावरण दिवस(५ जून) पर "शब्द-सृजन की ओर" पर मेरी कविता "ई- पार्क" का आनंद उठायें और अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराएँ !!
अच्छी कहानी, काफी दर्दनाक और दिल को छूने वाली।
Ranjana ji
aap ek upanyas likhiye ..
yakinan samaj ke liye sarthak hoga .
Har gaon kee kahanee hai yah.
Bahut achhee rachna.
aapli kalam kaabile tareef. badhai.
ग्रामीण परिवेश और उसकी हकीकत को बयान करती कहानी। स्वार्थपरता ने मानवता को दरकिनार कर दिया है और ऐसे में विद्रुप स्थितियॉं ही पैदा हुई हैं जो अवसाद के साथ विक्षोभ भी पैदा करता है।
सामाजिक विद्रूपताओं पर करारा व्यंग्य है। बधाई।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
bahut achchi rachna hai.....
बहुत दिनो बाद बहुत अच्छी रचना से रूबरू हुआ. बहुत अच्छा लिखती हैं आप.
Nischit roop se sanvednapurn aur samajik yatharth ko abhivyakt karti kahani. Magar iski agli kadi ki sanbhavna bhi dikh rahi hai shayad.
mam...I am very thankful to u.... for ur nice and wonderful comment..... plz do follow my blog also...plz
regards
ek sundar kahaanee banaam sachchee ghatanaa ke liye dhanyabad|bahut sundar prastuti
aapki es kahan me dil me dastak di hai
हमारे यहां राजस्थान में आज भी यही सब होता है रंजना जी, देख देख कर चिढ़ भी आती है पर कुछ होता नहीं।
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