जन्मगत हों या स्वनिर्मित, ह्रदय से गहरे जुड़े सम्बन्ध, हमें जितना मानसिक संबल और स्नेह देने में समर्थ होते हैं,जितना हमें जोड़ते हैं, कभी वे जाने अनजाने ह्रदय को तीव्रतम आघात पहुंचा कर हमें तोड़ने में भी उतने ही प्रभावी तथा सक्षम हुआ करते हैं. स्वाभाविक है कि जो ह्रदय के जितना सन्निकट होगा, प्रतिघात में भी सर्वाधिक सक्षम होगा. कई बार तो अपनों के ये प्रहार इतने तीव्र हुआ करते हैं कि उसका व्यापक प्रभाव जीवन की दशा दिशा ही बदल दिया करते हैं, सम्पूर्ण व्यक्तित्व ही कुंठाग्रस्त हो जाया करता है. जीवन भर के लिए व्यक्ति इस दंश से मुक्त नहीं हो पाता और फिर न स्वयं सुखी रह पाता है न ही अपने से जुड़े लोगों को सुख दे पाता है.
हमारी एक परिचिता हैं, वे एक नितांत ही खडूस महिला के रूप में विख्यात या कहें कुख्यात हैं.सभी उनकी प्रतिभा का लोहा मानते हैं,परन्तु उनसे घनिष्टता बढ़ाने को कोई भी उत्सुक नहीं होता..लगभग पचपन वर्ष की अविवाहिता हैं,उच्च पद पर आसीन हैं,धन की कमी नहीं..फिर भी न जाने किस अवसाद में घुलती रहती हैं. पूरा संसार ही उन्हें संत्रसक तथा अपना शत्रु लगता है. अपने अधिकार के प्रति अनावश्यक रूप सजग रह कर्तब्यों के प्रति सतत उदासीन रहती हैं.बोझिल माहौल उन्हें बड़ा रुचता है जबकि अपने आस पास किसी को हंसते चहकते देखना कष्टकर लगता है..
परिचय के उपरांत पहले पहल तो मुझे भी उनसे बड़ी चिढ होती थी,पर बाद में जब उनसे निकटता का अवसर मिला तो शनै शनै मेरे सम्मुख उनके व्यक्तित्व की परतें खुलने लगी.उनसे बढ़ती हुई घनिष्ठता के साथ मुझे आभास हुआ कि उनके व्यवहार में जितनी कठोरता और कटुता है,उतनी कठोर और कलुषित हृदया वो हैं नहीं..मैं उनके मन का वह कोना ढूँढने लगी जिसमे संवेदनाएं और बहुत से वे कटु अनुभव संरक्षित थे, जिसने उनके व्यक्तित्व और व्यवहार में यह विकृति दी थी..
अंतत मेरा स्नेह काम कर गया और ज्ञात हुआ कि अति प्रतिभाशाली इस महिला ने बाल्यावस्था से ही बड़े दुःख उठाये हैं..उनके रुढिवादी माता पिता ने छः पुत्रियों और एक पुत्र के बीच पुत्रियों की सदा ही उपेक्षा की.बाकी बहनों ने तो इसे अपनी नियति मान स्वीकार लिया,परन्तु अपने अधिकार के प्रति सजग, विद्रोही स्वभाव की इस महिला ने सदा ही इसका प्रतिवाद किया और फलस्वरूप सर्वाधिक प्रताड़ना भी इन्होने ही पायी..अपने अभिभावकों को अपनी इस उपेक्षा और अनादर के लिए इन्होने कभी क्षमा नहीं किया..इतना ही नहीं दुर्भाग्यवस बालपन में अपने परिचितों तथा रिश्ते के कुछेक पुरुषों द्वारा अवांछनीय व्यवहार ने इनके मन में पुरुषों के प्रति घोर घृणा का भाव भी भर दिया,जिसके फलस्वरूप इन्होने विवाह नहीं किया....इन्होने अपने प्रतिभा का लोहा मनवाने तथा स्वयं को स्थापित करने के लिए पारिवारिक तथा आर्थिक मोर्चे पर कठोर संघर्ष किया और दुर्लभ धन पद सबकुछ पाया,परन्तु अपने जीवन की कटु स्मृतियों की भंवर से वे कभी मुक्त न हो पायीं..
ऐसा नहीं कि इन परिस्थितियों से गुजरी हुई ये एकमात्र महिला हैं...आज भी अधिकांश भारतीय महिलाओं को न्यूनाधिक इन्ही परिस्थितियों से गुजरना होता है. पर इन्होने जैसे इसे दिल से लगाया, इनके व्यक्तित्व में नकारात्मकता ही अधिक परिपुष्ट हुआ.सफलता पाकर भी इनका मन सदा उदिग्न ही रहा..ये यदि अपने मन से कटुता रुपी इस नकारात्मकता को निकाल पातीं तो परिवार समाज के सम्मुख एक बहुत बड़ा अनुकरणीय उदाहरण उपस्थित कर सकती थीं..स्वयं पाए उपेक्षा अनादर को कइयों में स्नेह और उदारता बाँट स्वयं भी सुखी हो सकती थीं और दूसरों को भी सुखी कर सकती थीं.ये स्थापित कर सकती थीं कि एक उपेक्षिता नारी इस समाज को क्या कुछ नहीं दे सकती है..
जब तक अपने अपनों के प्रति क्षोभ को हम अपनी स्मृतियों में, मन में जीवित पालित पोषित रखेंगे वह हमारे ह्रदय को दग्ध करती ही रहेगी और यदि प्रतिकार की अग्नि ह्रदय में जल रही हो तो सुख और शांति कैसे पाया जा सकता है..
व्यक्ति अपने जीवन में समस्त उपक्रम सुख प्राप्ति के निमित्त ही तो करता है,परन्तु चूँकि साधन को ही साध्य बना लिया करता है तो सुख सुधा से ह्रदय आप्लावित नहीं हो पाता. कितनी भी बहुमूल्य भौतिक वस्तु अपने पास हो, या पद मान प्रतिष्ठा मिल जाए, यदि मन शांत न हो, मन कर्म और वचन से दूसरों को सुख न दे पायें तो मन कभी सच्चे सुख का उपभोग न कर पायेगा....
जीवन है तो उसके साथ घात प्रतिघात दुर्घटनाएं तो लगी ही रहेंगी...लेकिन इसीके के मध्य हमें उन युक्तियों को भी अपनाना पड़ेगा जो हमारे अंतस के नकारात्मक उर्जा का क्षय कर हममे सकारात्मकता को परिपुष्ट करे, ताकि हम अपने सामर्थ्य का सर्वोत्तम निष्पादित कर पायें...दुर्घटनाओं को हम भले न रोक पायें पर दुःख और कष्ट से निकलने के मार्ग पर हम अवश्य ही चल सकते हैं..और सच मानिये तो ऐसे मार्गों की कमी नहीं...
ईश्वर की अपार अनुकम्पा से मेरी स्वाभाविक ही रूचि रही है कि सोच को सकारात्मक बनाने में सहायक जो भी युक्तियाँ जानने में आयें उन्हें जानू, समझूं और इसी क्रम में एक बार जब रेकी का प्रशिक्षण ले रही थी,हमारी गुरु ने हमें एक महिला की तस्वीर दिखाई और उनके विषय में बताया कि उक्त महिला बाल्यावस्था से ही गंभीर रूप से मस्तिष्क पीडा से व्यथित थीं..इसके साथ ही बहुधा ही वे अवचेतनावास्था में अत्यंत उग्र हो किसी को जान से मारने की बात कहा करती थीं..उनके अभिभावकों ने उनका बहुत इलाज कराया पर कोई भी चिकित्सक उनके रोग का न तो कारण बता पाया और न ही उसका प्रभावी निदान हो पाया..
विवाहोपरांत उनके पति ने भी अपने भर कोई कोर कसर न छोडी उनकी चिकित्सा करवाने में, पर सदा ढ़ाक के तीन पात ही निकले..अंततः उन्होंने कहीं रेकी के विषय में सुना और इसके शरण में आये..कुछ महीनो के चिकित्सा के उपरांत ही बड़े सकारात्मक प्रभाव दृष्टिगत होने लगे. तब अतिउत्साहित हो इन्होने स्वयं भी रेकी का प्रशिक्षण लेना आरम्भ किया. आगे बढ़कर एक यौगिक क्रिया के अर्न्तगत जब इन्होने पूर्वजन्म पर्यवेक्षण कर अपने रोग के कारणों तक पहुँचने का प्रयास किया तो इन्हें ज्ञात हुआ कि कई जन्म पूर्व इनके पति ने किसी अन्य महिला के प्रेम में पड़ इनके संग विश्वासघात किया और धोखे से इनके प्राण लेने को इन्हें बहुमंजिली भवन के नीचे धकेल दिया..अप्रत्याशित इस आघात से इनका ह्रदय विह्वल हो गया और इनके मन में प्रतिशोध की प्रबल अग्नि दहक उठी..मृत्युपूर्व कुछ क्षण में ही इन्होने जो प्रण किया था कि विश्वासघाती अपने पति से वे अवश्य ही प्रतिशोध लेंगी और उसे भी मृत्यु दंड देंगी, वह उनके अवचेतन मष्तिष्क में ऐसे संरक्षित हो गया कि कई जन्मो तक विस्मृत न हो पाया..और ऊंचाई से गिरने पर सिर में चोट लगने से इन्हें जो असह्य पीडा हुई ,वह भी जन्म जन्मान्तर तक इनके साथ बनी रही....
क्रिया क्रम में गुरु ने इन्हें आदेश दिया कि जिस व्यक्ति ने इनके साथ विश्वासघात किया ,उसे ये अपने पूरे मन से क्षमादान दे स्वयं भी मुक्त हो जाएँ और उसे भी मुक्त कर दें..सहज रूप से तो इसके लिए वे तैयार न हुयीं ,पर गुरु द्वारा समझाने पर उन्होंने तदनुरूप ही किया..और आर्श्चय कि इस दिन के बाद फिर कभी उन्हें मस्तिष्क पीडा न हुई और न ही मन में कभी वह उद्वेग ही आया...आगे जाकर उक्त महिला ने रेकी में ग्रैंड मास्टर तक का प्रशिक्षण लिया और असंख्य लोगों का उपचार करते हुए अपने जीवन को समाजसेवा में पूर्णतः समर्पित कर दिया...
सुनने में यह एक कथा सी लग रही होगी,परन्तु यह कपोल कल्पित नहीं..मैंने स्वयं ही अपने जीवन में इसे सत्य होते देखा है.कुछेक दंश जो सदा ही मुझे पीडा दिया करते थे,मैंने इस क्रिया के द्वारा पीडक को क्षमादान देते हुए मन स्मृति से तिरोहित करने का प्रयास किया और उस स्मृति दंश से मुक्त हो गयी..इसके बाद से तो मैंने इसे जीवन का मूल मंत्र ही बना लिया है...अब बिना यौगिक क्रिया के ही सच्चे मन से ईश्वर को साक्षी मान कष्ट देने वाले को क्षमा दान दे दिया करती हूँ और निश्चित रूप से कटु स्मृतियों, पीडा से अत्यंत प्रभावशाली रूप से मुक्ति पा जाया करती हूँ..
मेरा मानना है कि सामने वाले को सुख और खुशी देने के लिए हमें स्वयं अपने ह्रदय को सुख शांति से परिपूर्ण रखना होगा.अब परिवार समाज से भागकर तो कहीं जाया नहीं जा सकता..तो इसके बीच रह ही हमें सुखद स्मृतियों को जो कि हमें उर्जा प्रदान करती हों,संजोना पड़ेगा और दुखद स्मृतियाँ जो हमें कमजोर करे हममे नकारात्मकता प्रगाढ़ करे,उससे बचना पड़ेगा..सकारात्मक रह ही हम अपनी क्षमताओं का अधिकाधिक सदुपयोग कर सकते हैं..
क्षमादान से वस्तुतः दूसरों का नहीं सबसे अधिक भला अपना ही होता है.जब तक दुखद स्मृतियाँ अपने अंतस में संरक्षित रहती हैं,वे हमारे सकारात्मक सोच को बाधित करती है,हमें सुखी नहीं होने देती..सच्चे सुख की अभिलाषा हो तो उन सभी साधनों को अंगीकार करना चाहिए,जो हमारी नकारात्मकता न नाश करती हो.व्यक्ति में अपरिमित प्रतिभा क्षमता होती है,जिसका यदि सकारात्मक उपयोग किया जाय तो अपने साथ साथ अपने से जुड़े असंख्य लोगों के हित हम बहुत कुछ कर सकते हैं.ऐसे जीवन का क्या लाभ यदि इसकी पूरी अवधि में हम किसी को सुख और खुशियाँ न दे पायें..
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27.10.09
6.10.09
नक्सलवाद का वाद (???)
स्वयं को बहुत पहले से ही मैंने चेता रखा था कि, अपनी तथा अपने संवेदनशीलता की रक्षा के लिए कभी भी कुछ खाते पीते समय समाचार पठन या दर्शन न किया करूँ...परन्तु दुर्भाग्यवश आज उसे विस्मृत कर दोपहर के भोजन काल में टी वी पर समाचार देखने बैठ गयी ..सामने कल तक जीवित परन्तु आज मृत सी आई डी के पदाधिकारी फ्रांसिस हेम्ब्रम का वह चेहरा आया जिसे नक्सलियों ने अपने तीन शीर्ष नेताओं कोबर्ट गांधी ,छत्रधर महतो और भूषन को पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिए जाने के बाद ,उन्हें मुक्त कराने हेतु अपहरण के बाद धमकी स्वरुप अपनी गंभीरता तथा प्रतिबद्धता दिखाते हुए मार डाला था...
मन अत्यंत खिन्न और विचलित हो गया और सच कहूँ तो लगा कि अभी जाकर पुलिस की गिरफ्त में उन तथाकथित महान नेताओं की हत्या कर इन्हें भी सबक सिखाऊँ. यह हमारे देश की कैसी न्याय प्रणाली है,जिसमे दुर्दांत अपराधियों के मानवाधिकारों के लिए भी इतनी चिंता की जाती है कि न्यायिक प्रक्रिया में उसमे और सामान्य अपराधी में कोई भेद नहीं किया जाता और दूसरी ओर कमजोर मासूम आदमी की रक्षा के लिए कोई व्यवस्था नहीं....
सामर्थ्यवान द्वारा शक्तिहीन को शोषित पीड़ित होते देख सुन कर किसी भी संवेदनशील व्यक्ति का ह्रदय प्रतिकार को उत्कंठित हो उठता है और आक्रोश की यह मात्रा ज्यों ज्यों बढ़ती जाती है,एक सामान्य शक्तिहीन मनुष्य में भी शोषक को समाप्त करने की प्रतिबद्धता प्रगढ़तम होती जाती है.. और फिर प्रतिकार का सबसे पहला मार्ग जो उसे दीखता है वह उग्रता और हिंसा का ही हुआ करता है...आवेग व्यक्ति में उस सीमा तक धैर्य का स्थान नहीं छोड़ती, कि व्यक्ति सत्याग्रह एवं अहिंसक मार्ग अपना सके और उसपर अडिग रह सके.रक्षक को ही भक्षक बने देख स्वाभाविक ही किसी भी संवेदनशील का खून खौलना और आवेश में उसके द्वारा अस्त्र उठा लेना,एक सामान्य बात है...
विश्व इतिहास साक्षी है ऐसे अनेकानेक विद्रोहों विप्लवों का जब अन्याय के प्रतिकार में व्यक्ति या समूह ने अस्त्र उठाये,आत्मबलिदान दिया और शोषकों के प्राण हरे.हत्या चाहे शोषक करे या शोषित,हत्या तो हत्या ही होती है,लेकिन अपने उद्देश्य के कारण एक पाप है तो दूसरा पुण्य.एक ही कार्य उद्देश्य भिन्न होने पर विपरीत अर्थ और परिणामदाई हो जाते है.परन्तु दोनों के मध्य अदृश्य अतिशूक्ष्म वह अंतर है जो पता ही नहीं चलने देता कि कब शोषित शोषक बन गया....
साठ की दशक में नक्सल आन्दोलन की नींव जिस विचारभूमि पर पड़ी थी, अन्याय और शोषण के विरुद्ध सशश्त्र प्रतिकार को उपस्थित हुआ वह समूह एक तरह से निंदनीय नहीं, वन्दनीय ही था.मुझे लगता है तब यदि मैं वयस्क रही होती तो मैं भी इसकी प्रबल समर्थक और प्रमुख कार्यकर्त्ता रही होती. इसके महत उद्देश्य ने ही देश के युवा वर्ग को सम्मोहित कर एकजुट किया था. देश को चलाने वाले बहुत छोटे से पदाधिकारी से लेकर शीर्षस्थ पदाधिकारी तक,राजनेता ,पूंजीपति आदि आदि यदि पथभ्रष्ट हो जायं और पोषक के बदले शोषक बन आमजन का जीवन दुरूह कर दें,न्याय पालिका तक अपनी प्रासंगिकता खो चुकी हो , तो उनके विरुद्ध आवाज़ बुलंद करना, उन्हें चेताना और दण्डित करना किसी भी लिहाज से अनैतिक नहीं.बल्कि मैं तो कहूँगी आज भी ऐसे ही समूह और शक्ति की आवश्यकता है जो पथविमुख को सही मार्ग पर रखने के लिए सदैव ही प्राणोत्सर्ग को तत्पर रहे...
परन्तु यही रक्षक शक्तियां जनकल्याण मार्ग से विमुख हो यदि शोषक और हिंसक बन जाय तो इन्हें कुचलना भी उतना ही आवश्यक है.कैसी विडंबना है,सरकार द्वारा विकास न किये जाने,पूंजीपतियों द्वारा शोषित होने और समस्त सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के त्रासद स्थिति पर , जिस जनांदोलन की नींव रखी गयी ,आज महज तीन चार दशकों में ही इसका रूप विद्रूप हो आन्दोलन ठीक इसके विपरीत मार्ग पर चल अधोगामी हो चुका है . विकास का मार्ग पूर्ण रूपेण अवरुद्ध कर,उन्ही देशी विदेशी पूंजीपतियों ,विध्वंसक शक्तियों से सांठ गाँठ कर उनके आर्थिक मदद से तथा व्यापारी वर्ग को आतंकित कर उनसे धन उगाह अपना और भ्रष्ट राजनेताओं का स्वार्थ साधना , जब उस उग्रवादी समूह का सिद्धांत और स्वभाव बन जाय तो ऐसे समूह को डाकुओं हत्यारों का एक सुसंगठित गिरोह ही कहना होगा न ,जिसका उद्देश्य ही आतंक के सहारे धन लूटना, आतंक का धंधा चलाना और अपने ही देश को कमजोर करना है .
कहा जाता है कि दलित शोषित गरीब लोग हथियार उठा नक्सली बन रहे हैं.यदि यह समूह दलित शोषित उन गरीब लोगों का है,जिनके पास अन्न,वस्त्र,छत,जमीन और रोजी रोजगार नहीं हैं, तो भला इनके पास बेशकीमती अत्याधुनिक हथियार कहाँ से आ जाते हैं ?? यह सोचने और हंसने वाली बात है..यह किसी से छुपा नहीं अब कि, इस समूह के आय के श्रोत क्या हैं और इनके उद्देश्य क्या हैं...
समूह तो पथभ्रष्ट हो ही चुका है,पर सबसे दुखद यह है कि हमारे देश के कर्ताधर्ताओं को अभी भी यह कोई बड़ी समस्या नहीं लगती.हमारे यहाँ एक विचित्र व्यवस्था है,व्यक्ति का अपराध ही दंड प्रक्रिया से गुजरता है,समूह का अपराध जघन्य नहीं माना जाता और उसमे भी जितना बड़ा समूह, वह उतना ही उच्छश्रृंखल उतना ही मुक्त होता है... जानकार जानते हैं कि अपने ही देश में कई समूहों ने इसे अपना रोजगार बना लिया है..कहीं उल्फा ,कहीं नक्सल कहीं किसी और नाम से एक समूह संगठित होता है और ये सरकार को शांति और सुव्यवस्था बनाये रखने देने में सहयोग के नाम पर लेवी वसूल करते हैं.और इस तरह चलता है इनका पूरा व्यापार..
सरकार और ये आतंकी संगठन दोनों के ही उद्देश्य लोगों को अशिक्षित रख,उन्हें दुनिया और विकास से पूरी तरह काट भली भांति पूरे होते हैं.कौन नहीं जानता कि इनके ही इशारे पर मतदान भी हुआ करते हैं.इन आतंकवादियों से प्रभावित इलाकों में पूर्ण रूपेण इनका ही साम्राज्य चलता है और ये ही फौरी तौर पर राजनेताओं तथा राजनीति की दिशा दशा निर्धारित करते हैं....
इसके विकल्प रूप में तो यही दीखता है कि जब प्रशासन आँख कान मुंह ढांपे पड़ा है तो क्यों न लोहा से लोहे को काटने की तर्ज पर एक ऐसा ही सशश्त्र समूह संगठित किया जाय और इन आततायी शक्तियों को सबक सिखाई जाय...पर फिर यही लगता है कि इसकी क्या गारंटी है कि यह नया समूह भी कभी स्वार्थी नेताओं के नेतृत्व में स्वार्थी तथा विघटनकारी न बनेगा..
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मन अत्यंत खिन्न और विचलित हो गया और सच कहूँ तो लगा कि अभी जाकर पुलिस की गिरफ्त में उन तथाकथित महान नेताओं की हत्या कर इन्हें भी सबक सिखाऊँ. यह हमारे देश की कैसी न्याय प्रणाली है,जिसमे दुर्दांत अपराधियों के मानवाधिकारों के लिए भी इतनी चिंता की जाती है कि न्यायिक प्रक्रिया में उसमे और सामान्य अपराधी में कोई भेद नहीं किया जाता और दूसरी ओर कमजोर मासूम आदमी की रक्षा के लिए कोई व्यवस्था नहीं....
सामर्थ्यवान द्वारा शक्तिहीन को शोषित पीड़ित होते देख सुन कर किसी भी संवेदनशील व्यक्ति का ह्रदय प्रतिकार को उत्कंठित हो उठता है और आक्रोश की यह मात्रा ज्यों ज्यों बढ़ती जाती है,एक सामान्य शक्तिहीन मनुष्य में भी शोषक को समाप्त करने की प्रतिबद्धता प्रगढ़तम होती जाती है.. और फिर प्रतिकार का सबसे पहला मार्ग जो उसे दीखता है वह उग्रता और हिंसा का ही हुआ करता है...आवेग व्यक्ति में उस सीमा तक धैर्य का स्थान नहीं छोड़ती, कि व्यक्ति सत्याग्रह एवं अहिंसक मार्ग अपना सके और उसपर अडिग रह सके.रक्षक को ही भक्षक बने देख स्वाभाविक ही किसी भी संवेदनशील का खून खौलना और आवेश में उसके द्वारा अस्त्र उठा लेना,एक सामान्य बात है...
विश्व इतिहास साक्षी है ऐसे अनेकानेक विद्रोहों विप्लवों का जब अन्याय के प्रतिकार में व्यक्ति या समूह ने अस्त्र उठाये,आत्मबलिदान दिया और शोषकों के प्राण हरे.हत्या चाहे शोषक करे या शोषित,हत्या तो हत्या ही होती है,लेकिन अपने उद्देश्य के कारण एक पाप है तो दूसरा पुण्य.एक ही कार्य उद्देश्य भिन्न होने पर विपरीत अर्थ और परिणामदाई हो जाते है.परन्तु दोनों के मध्य अदृश्य अतिशूक्ष्म वह अंतर है जो पता ही नहीं चलने देता कि कब शोषित शोषक बन गया....
साठ की दशक में नक्सल आन्दोलन की नींव जिस विचारभूमि पर पड़ी थी, अन्याय और शोषण के विरुद्ध सशश्त्र प्रतिकार को उपस्थित हुआ वह समूह एक तरह से निंदनीय नहीं, वन्दनीय ही था.मुझे लगता है तब यदि मैं वयस्क रही होती तो मैं भी इसकी प्रबल समर्थक और प्रमुख कार्यकर्त्ता रही होती. इसके महत उद्देश्य ने ही देश के युवा वर्ग को सम्मोहित कर एकजुट किया था. देश को चलाने वाले बहुत छोटे से पदाधिकारी से लेकर शीर्षस्थ पदाधिकारी तक,राजनेता ,पूंजीपति आदि आदि यदि पथभ्रष्ट हो जायं और पोषक के बदले शोषक बन आमजन का जीवन दुरूह कर दें,न्याय पालिका तक अपनी प्रासंगिकता खो चुकी हो , तो उनके विरुद्ध आवाज़ बुलंद करना, उन्हें चेताना और दण्डित करना किसी भी लिहाज से अनैतिक नहीं.बल्कि मैं तो कहूँगी आज भी ऐसे ही समूह और शक्ति की आवश्यकता है जो पथविमुख को सही मार्ग पर रखने के लिए सदैव ही प्राणोत्सर्ग को तत्पर रहे...
परन्तु यही रक्षक शक्तियां जनकल्याण मार्ग से विमुख हो यदि शोषक और हिंसक बन जाय तो इन्हें कुचलना भी उतना ही आवश्यक है.कैसी विडंबना है,सरकार द्वारा विकास न किये जाने,पूंजीपतियों द्वारा शोषित होने और समस्त सरकारी तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के त्रासद स्थिति पर , जिस जनांदोलन की नींव रखी गयी ,आज महज तीन चार दशकों में ही इसका रूप विद्रूप हो आन्दोलन ठीक इसके विपरीत मार्ग पर चल अधोगामी हो चुका है . विकास का मार्ग पूर्ण रूपेण अवरुद्ध कर,उन्ही देशी विदेशी पूंजीपतियों ,विध्वंसक शक्तियों से सांठ गाँठ कर उनके आर्थिक मदद से तथा व्यापारी वर्ग को आतंकित कर उनसे धन उगाह अपना और भ्रष्ट राजनेताओं का स्वार्थ साधना , जब उस उग्रवादी समूह का सिद्धांत और स्वभाव बन जाय तो ऐसे समूह को डाकुओं हत्यारों का एक सुसंगठित गिरोह ही कहना होगा न ,जिसका उद्देश्य ही आतंक के सहारे धन लूटना, आतंक का धंधा चलाना और अपने ही देश को कमजोर करना है .
कहा जाता है कि दलित शोषित गरीब लोग हथियार उठा नक्सली बन रहे हैं.यदि यह समूह दलित शोषित उन गरीब लोगों का है,जिनके पास अन्न,वस्त्र,छत,जमीन और रोजी रोजगार नहीं हैं, तो भला इनके पास बेशकीमती अत्याधुनिक हथियार कहाँ से आ जाते हैं ?? यह सोचने और हंसने वाली बात है..यह किसी से छुपा नहीं अब कि, इस समूह के आय के श्रोत क्या हैं और इनके उद्देश्य क्या हैं...
समूह तो पथभ्रष्ट हो ही चुका है,पर सबसे दुखद यह है कि हमारे देश के कर्ताधर्ताओं को अभी भी यह कोई बड़ी समस्या नहीं लगती.हमारे यहाँ एक विचित्र व्यवस्था है,व्यक्ति का अपराध ही दंड प्रक्रिया से गुजरता है,समूह का अपराध जघन्य नहीं माना जाता और उसमे भी जितना बड़ा समूह, वह उतना ही उच्छश्रृंखल उतना ही मुक्त होता है... जानकार जानते हैं कि अपने ही देश में कई समूहों ने इसे अपना रोजगार बना लिया है..कहीं उल्फा ,कहीं नक्सल कहीं किसी और नाम से एक समूह संगठित होता है और ये सरकार को शांति और सुव्यवस्था बनाये रखने देने में सहयोग के नाम पर लेवी वसूल करते हैं.और इस तरह चलता है इनका पूरा व्यापार..
सरकार और ये आतंकी संगठन दोनों के ही उद्देश्य लोगों को अशिक्षित रख,उन्हें दुनिया और विकास से पूरी तरह काट भली भांति पूरे होते हैं.कौन नहीं जानता कि इनके ही इशारे पर मतदान भी हुआ करते हैं.इन आतंकवादियों से प्रभावित इलाकों में पूर्ण रूपेण इनका ही साम्राज्य चलता है और ये ही फौरी तौर पर राजनेताओं तथा राजनीति की दिशा दशा निर्धारित करते हैं....
इसके विकल्प रूप में तो यही दीखता है कि जब प्रशासन आँख कान मुंह ढांपे पड़ा है तो क्यों न लोहा से लोहे को काटने की तर्ज पर एक ऐसा ही सशश्त्र समूह संगठित किया जाय और इन आततायी शक्तियों को सबक सिखाई जाय...पर फिर यही लगता है कि इसकी क्या गारंटी है कि यह नया समूह भी कभी स्वार्थी नेताओं के नेतृत्व में स्वार्थी तथा विघटनकारी न बनेगा..
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