मादक मंद समीर बसंती,
छूकर तन, मन को सिहराए,
इस मोहक बेला में साथी, आये, बहुत याद तुम आये !!!
नींद पखेरू,पलकों को तज,
स्मृति गगन में चित भटकाए,
इस नीरव बेला में साथी,आये, बहुत याद तुम आये !!!
पूनम का चंदा ये चकमक,
छवि बन तेरा, नेह लुटाये,
इस मादक बेला में साथी, आये, बहुत याद तुम आये !!!
उर चातक के स्वाति प्यारे,
तुम बिन तृष्णा कौन बुझाये,
आकर साथी कंठ लगा ले, पाए हृदय मिलन-सुख पाए !!!
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22.2.10
9.2.10
भक्ति शक्ति युक्ति आगार...
किसी घनघोर मजबूरी में, घटाटोप भुच्च अनहरिया रात में, सुनसान सड़क पर एकदम अकेले, कहीं चले जाय रहे हों,सन्नाटे का साँय साँय कान सुन्न कर रहा हो, झींगुर और टिटही अपना तान राग छेडे ईस्पेसल इफ्फेक्ट दे रहा हो और ऐसे में अचानक से सामने एक ऐसा जीव परकट हो जाय ,जो न आज तलक कहीं देखे, न सुने...हाँ, भूत परेत का खिस्सा कहानी में ऐसा विराट वर्णन खूबे सुने रहै और जमकर ओका ठट्ठा भी उडाये रहै ...तब ऊ सिचुएसन मा सबसे पाहिले मुँह औ दिमाग पर का आएगा?? बड़का से बड़का तोप नास्तिक भी आपै आप बड़बडावे लगैगा ...
" भूत परेत निकट नहीं आवै ,महावीर जब नाम सुनावै "
उस समय जदि भुतवा कहे ... " का रे ससुर, तू तो ढेर विज्ञान बतियाता रहा,अब काहे को बजरंगबली को बुला रहा है बे...हिम्मत है तो चल, हमरे संग सवाल जवाब का हु तू तू खेल के दिखा...."
तब भैया, जरा कलेजा पर हाथ धर के ईमान से कहिये....लेंगे चैलेन्ज,कहेंगे उससे,न भूत वूत होता है,न हनुमान वनुमान ??
अच्छा चलिए, छोड़िये ये काल्पनिक सिचुएशन ,,, फरज कीजिये, हवाई जहजवा में बइठे, ऊपर दूर अकास में सुखी-सुखी औ खुसी-खुसी उड़े जा रहे हैं...आ ठीक बिच्चेइ असमान में डरैवर साहेब उदघोषणा कर दें..." परम आदरनीय भइया औ बहिनी लोग, हमको बहुतै खेद संग कहना पड़ रहा है कि, बिमनवा में आई तकनीकी खराबी का चलते, अब हम ईका आगे नहीं उड़ा ले जा सकते हैं....सो, भाई बंधू लोग,अब अपना लोटा डंडी समेटो औ छतरिया पहिन के कूद लो हमरे पिच्छे पिच्छे ..हमरी पूरी सुभकमना आप सभौं के साथ है.."
अब बताइए,पलेनवा में चढ़े वाला सब लोग असमान से कूदे का टिरेनिंग लेके तब जहजवा में तो बैठते नहीं न... बडका से बडका चुस्त कुदाक के हाथ भी छतरी धरा , जब एतना ऊपर से धकियाया जाएगा त छतरी धर हावा में लटकते अइसन भयंकर सिचुएसन में भाई बहिनी लोग किसको गुहारेंगे ?? जो हनुमान जी का नाम भर भी सुने होंगे, झट बुदबुदाये लगेंगे....
"संकट ते हनुमान छुड़ावै, मन क्रम वचन ध्यान जो लावे..."
"जन के काज विलम्ब न कीजै ,आतुर दौरि महासुख दीजै"
"बिलम्ब केहि कारन स्वामी, कृपा करहु उर अंतरयामी "
चलिए आज उन्हीं बजरंग बली जी की बिना किसी कारण या संकट के भी एक बार सरधा पूरवक याद करते उनके चरित की परिचर्चा उनका जयकारा लगाते करें...
" लाल देह लाली लसै ,अरु धर लाल लंगूर | बज्र देह दानव दलन,जय जय जय कपि सूर || "
अपने ईष्ट श्रीरामजी की ऐसी भक्ति किये बजरंगबली कि भक्त के शिरोमणि बन गए...उनके जइसा भक्त बहुतै कम हुए हैं ई धरती पर.....भगति की पराकाष्ठा देखिये, कि उ तो यहाँ तक प्रण ले लिए हैं कि, इस संसार में जा तलक एक ठो भी मनुस के मन ध्यान में श्री सीता राम जी बसेंगे , तब तक उ ओके रक्षा का वास्ते इहै संसार में डटे रहेंगे....बजरंगबली जी की एही एकनिष्ठ सरधा देखकर सीतामैया ने भी उनको वरदान दिया था ...
"अजर अमर गुननिधि सुत होहु, करहु सदा रघुनायक छोहू.."
ऐसे संकट मोचन हैं बजरंगी, कि अपने भगतों का ही नहीं बल्कि अपने परभू का भी संकट हरण करते हैं... जब भी प्रभु श्रीराम संकट में पड़े ऊ उपस्थित हो गए उनकी सेबा में...हर संकट में जदि कोई एक नाम प्रभु श्रीराम के मुख पर सबसे पाहिले आया तो उ था ...हनुमानजी का ही ...चाहे सीता मैया को सात समुद्दर लांघ के खोजने का काम हो या कदम कदम पर श्री राम लछमन या जानकी जी सहित धर्म की रच्छा करने का काम...और उनका शील और विनय तो देखिये कि कभी भी किसी भी काम का क्रेडिट अपने नहीं लिए,सब श्री राम की कृपा को दिए..... शक्ति , भक्ति और युक्ति के चरम का जहाँ कहीं भी जिकर होगा, सबसे पहिला नाम बजरंगबलि का ही आएगा...
वानर सेना जब सीता मैया को खोजते हुए समुद्र किनारे पहुँचे और विराट अथाह उस समुद्र को देख कपारे हाथ धरे सब हिम्मत हार बैठ गए, तो ऐसे समय में भी सर्व समर्थ हनुमान जी तबतक आगे बढ़के उद्धत नहीं हुए जबतक कि जाम्बवंत जी उनको आज्ञा और उत्साह नहीं दिए..शिष्टता यही है कि सेनापति या अग्रज जबतक आदेश न दे,ढेर नहीं कूदना चाहिए,समूह के अनुसासन का एही कायदा होता है..चूँकि सेना में वरिष्ट अग्रज जाम्बवंत जी मौजूद थे, सो हनुमान जी उनका मान रखते हुए तब तक चुप हो बैठे रहे जबतक कि जाम्बवंत जी खुदै आगे बढ़के उनको आदेश न दिए..जो सचमुच में सर्व समर्थ होता है,वह विनयशील अवश्ये होता है,यह हनुमान जी हर समय जताए बताये..
लालुआये पन्जुआये हनुमान जी एकै बार उठे औ हुंकार लेकर जब लंका का ओर छलांग लगाये त - " जेहि गिरी चरण देई हनुमंता,चलेहिगा सो पाताल तुरंता" ...उनका चाप से पहार रसातल में धंस गया...आज जदि किसी के पास एतना ताकत/सामर्थ्य रहे,तो दू मिनट में पूरा दुनिया को मचोड़ मचाड़ के सौस लगाके खा जाएगा.. सामर्थ्य बिना शील और संस्कार के विनाशकारी होता है,यह सास्वत सत्य है...
बजरंग बली खाली बलसालिये नहीं रहे,बडका विद्वान् और चतुर भी रहे..ई बात का परमान जगह जगह पर रामायण में मिलता है...जब लंका के रास्ते बीच सम्मुद्दर में सुरसा उनको खाने वास्ते छेकी, त कैसे उको चकमा देके बजरंगबली अपना चतुरता का परदरसन किये, सबे जानते हैं..जब गुप्त रहकर काम बनाना था,गुप्त रह कर बनाये और जब विसाल भूधराकार सरीर परगट कर काम बनाना था,तब वैसा ही किये..सीता मैया को चुप्पे चुप्पे खोज निकालना था,तो मच्छर एतना साइज बनाकर घूम लिए औ जब सतरुअन को प्रभु राम का परभाव देखाना था तो असोक वाटिका को उजार पूरा लंका को जलाकर राख कर दिए...
कल्पना कीजिये ..एकदम अनजान जगह,कोइयो जात जेवार का नहीं, बोली भासा वाला नहीं, चारों तरफ से बिसाल विकराल सर्वभक्षी निसाचर चारों पहर घूम रहे हैं,कब उठाकर मुंह में गड़प जाएँ औ डकारों न लें,कौनो भरोसा नहीं.....ऊपर से दस मुडिया वाला विकराल राच्छस घड़ी घड़ी कहे कि चलो हमसे बियाह करो नहीं तो तुम्हारा चटनी पीस के ई राच्छस लोग खा जायेगा,तुम्हरा पति खोजते रह जायेगा कि कहाँ बिला गयी..नैहर सासुर वाला बोलेगा राम के संग गयी रही जंगल में ,जंगल का दुःख नहीं सहाया होगा, तो भाग भूग गयी होगी कहीं, साथ में फुसफुसाते हुए कहेंगे " सुने हैं कि लंका का राजा, उसको बियाह करने को उठा ले गया, का जाने बियाह उआह करके ओकरे संग घर बसा ली होगी..." तुम तो बचोगी नहीं जवाब देवे का वास्ते ,जेकरे मुंह में जो आएगा उ कहेगा..हम तुमको उठा लाये,जात तो तुम्हरा ऐसे भी चला ही गया..ई से अच्छा है कि हमरे संग बियाह कर लो,हम तुमका सब रानियन का हेडरानी बना के रखेंगे...बतवा मान लो,परेम से समझा रहे हैं, कहीं दिमाग घूम घुमा गया तो फिर सोच लो,अब और हमरा सबर को न हिलाओ..."
मैया सीता ...बेचारी के हिरदय पर का बीतता रहा होगा ई सब सुन सुन कर ,पतिवरता राजरानी का जी केतना पिराता रहा होगा..तबै तो उ खिसिया कर बोली...
" सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा, कबहूँ कि नलिनी कराइ विकासा ||
अस मन समुझु कहती जानकी,खल सुधि नहीं रघुवीर बानकी ||
सठ सूने हरि आनेहि मोही,अधम निल्लज लाज नहीं तोही ||"
लेकिन सीता मैया को भीतरे भीतरे तो लगिए रहा होगा कि ई लम्पट मुंहझौंसा पतित का का ठिकाना, दूसरे की मेहरारू को छल से उठा लाने में एगो घड़ी लाज नहीं आया, का जाने आगे का करेगा...बेचारी बेकल हो गयीं होंगी, एतना दिन हो गया था कि ई संसय होना भी वजिबे था कि का जाने प्रभु राम इहाँ तक पहुँच पायेंगे कि नहीं,कहीं उनके आने से पाहिले रावनवा खा पका गया या जोर जबरदस्ती किया तो अबला अकेली उका सामना कैसे करेगी.....बेचारी कलपते हुए अपन ऊ काया का, जाके कारन सब झोर झमेला रहा,ओकरे अंत करने को कभी राच्छसी त्रिजटा से तो कभी वृच्छ असोक से अग्नी मांग रही हैं कि...उहेई समय धप्प से गाछ पर से कुदुक हनुमानजी परगट हो गए प्रभुराम के संदेस के साथ....
धरमहीनों का ऊ नगरी में मैया सीता को कोई पहली बार इतने दिन बाद सनमान सरधा के साथ 'माता' कहा होगा....कोई अंदाजा लगा सकता है,उस समय मैया सीता के हिरदय में हर्ष और ममता का कैसा अद्भुद हिलोर उछाह उठा होगा...उसमे भी जब पवनसुत अपना विसाल रूप परगट कर के माता को देखाए होंगे तो निरासा का समुद्दर में डूबे उनके कैसा सम्बल मिला होगा...माता का अपमान का बदला लेने का लिए जब कोई पुत्र उसका अपमान करने वाला का पूरा राज पाट महल अटारी जलाकर ख़ाक कर दे,तो उस हिरदय में गर्व संतोस और ममता का जो उफान उठा होगा और उस हिरदय से जो आशीर्वाद निकलेगा,ऊ कैसे खाली जा सकता है...अरे, माता का आशीर्वाद जब दुर्योधन जैसे पापी को भी बज्र जैसा बना सकता है तो ई तो परम पुन्यवान हनुमान जी थे...
माता ने अपने इस सुपुत्र को - " अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता,अस बर दीन जानकी माता"
" माता जानकी की किरपा से पवनसुत को जो वरदान मिला, उससे पवनसुत किसी को भी आठों सिद्धि और नवों निधि दे सकते हैं "
और ये आठों सिद्धि और नौ निधि हैं....
सिद्धि-
१) अणिमा - जिससे साधक किसी को दिखाई नहीं पड़ता और कठिन से कठिन पदार्थ में परवेस कर सकता है..
२) महिमा - जिसमे योगी अपने को कितना भी विशाल आकार का बना सकता है.
३) गरिमा - जिसमे साधक अपने को चाहे कितना भी भारी बना सकता है.
४) लघिमा - जिसमे साधक जितना चाहे उतना हल्का बन सकता है.
५) प्राप्ति - जिसमे इच्छित वस्तु की प्राप्ति संभव है.
६) प्रकामी - जिसमे इच्छा करने पर वह पृथ्वी में समा सकता है, आकाश में उड़ सकता है.
७) ईशित्व - जिससे सब पर शासन का सामर्थ्य पाता है.
८) वशित्व - जिससे दूसरों को वश में किया जा सकता है.
नौ निधि .....
पद्म , महापद्म, शंख, मकर, कछप, मुकुंद, कुंद, नील, बर्च्च ...
माता पिता या अग्रजों का सरधा और सम्मान पूरवक सच्चे हिरदय से सेवा करने से जो फल मिलता है,उसका इससे परतच्छ उदाहरण औ का हो सकता है...
हो सकता है हनुमान जी,राम जी,कृष्ण भगवान्, आदि आदि ई सब के सब कोरे काल्पनिक पात्र हों, इनका कोई आस्तित्व या वास्तविक आधार न हो...पर किसी ऐसे अवधारणा से ,ऐसे आधार से, जिससे घोरतम संकट में भी उबरने का आस विस्वास मिले, इनके चरित्र से अपने चरित्र को ऊपर उठाने संवारने का प्रेरणा मिले...तो इन चरित्रों को नकारना, उचित होगा क्या ???
सुख ही तो पाने के समस्त यत्न विज्ञान भी कर रहा है,पर इसके कतिपय पुरोधा संगे संग नारा दिए जा रहे हैं कि भूत परेत लछमी दुर्गा राम किसन ई सब अंधविश्वास है...तो अँधा ही सही,यह विश्वास बेहतर नहीं जो व्यक्ति को उद्दात्त चरित्र वाला बनने का प्रेरणा दे ???
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" भूत परेत निकट नहीं आवै ,महावीर जब नाम सुनावै "
उस समय जदि भुतवा कहे ... " का रे ससुर, तू तो ढेर विज्ञान बतियाता रहा,अब काहे को बजरंगबली को बुला रहा है बे...हिम्मत है तो चल, हमरे संग सवाल जवाब का हु तू तू खेल के दिखा...."
तब भैया, जरा कलेजा पर हाथ धर के ईमान से कहिये....लेंगे चैलेन्ज,कहेंगे उससे,न भूत वूत होता है,न हनुमान वनुमान ??
अच्छा चलिए, छोड़िये ये काल्पनिक सिचुएशन ,,, फरज कीजिये, हवाई जहजवा में बइठे, ऊपर दूर अकास में सुखी-सुखी औ खुसी-खुसी उड़े जा रहे हैं...आ ठीक बिच्चेइ असमान में डरैवर साहेब उदघोषणा कर दें..." परम आदरनीय भइया औ बहिनी लोग, हमको बहुतै खेद संग कहना पड़ रहा है कि, बिमनवा में आई तकनीकी खराबी का चलते, अब हम ईका आगे नहीं उड़ा ले जा सकते हैं....सो, भाई बंधू लोग,अब अपना लोटा डंडी समेटो औ छतरिया पहिन के कूद लो हमरे पिच्छे पिच्छे ..हमरी पूरी सुभकमना आप सभौं के साथ है.."
अब बताइए,पलेनवा में चढ़े वाला सब लोग असमान से कूदे का टिरेनिंग लेके तब जहजवा में तो बैठते नहीं न... बडका से बडका चुस्त कुदाक के हाथ भी छतरी धरा , जब एतना ऊपर से धकियाया जाएगा त छतरी धर हावा में लटकते अइसन भयंकर सिचुएसन में भाई बहिनी लोग किसको गुहारेंगे ?? जो हनुमान जी का नाम भर भी सुने होंगे, झट बुदबुदाये लगेंगे....
"संकट ते हनुमान छुड़ावै, मन क्रम वचन ध्यान जो लावे..."
"जन के काज विलम्ब न कीजै ,आतुर दौरि महासुख दीजै"
"बिलम्ब केहि कारन स्वामी, कृपा करहु उर अंतरयामी "
चलिए आज उन्हीं बजरंग बली जी की बिना किसी कारण या संकट के भी एक बार सरधा पूरवक याद करते उनके चरित की परिचर्चा उनका जयकारा लगाते करें...
" लाल देह लाली लसै ,अरु धर लाल लंगूर | बज्र देह दानव दलन,जय जय जय कपि सूर || "
अपने ईष्ट श्रीरामजी की ऐसी भक्ति किये बजरंगबली कि भक्त के शिरोमणि बन गए...उनके जइसा भक्त बहुतै कम हुए हैं ई धरती पर.....भगति की पराकाष्ठा देखिये, कि उ तो यहाँ तक प्रण ले लिए हैं कि, इस संसार में जा तलक एक ठो भी मनुस के मन ध्यान में श्री सीता राम जी बसेंगे , तब तक उ ओके रक्षा का वास्ते इहै संसार में डटे रहेंगे....बजरंगबली जी की एही एकनिष्ठ सरधा देखकर सीतामैया ने भी उनको वरदान दिया था ...
"अजर अमर गुननिधि सुत होहु, करहु सदा रघुनायक छोहू.."
ऐसे संकट मोचन हैं बजरंगी, कि अपने भगतों का ही नहीं बल्कि अपने परभू का भी संकट हरण करते हैं... जब भी प्रभु श्रीराम संकट में पड़े ऊ उपस्थित हो गए उनकी सेबा में...हर संकट में जदि कोई एक नाम प्रभु श्रीराम के मुख पर सबसे पाहिले आया तो उ था ...हनुमानजी का ही ...चाहे सीता मैया को सात समुद्दर लांघ के खोजने का काम हो या कदम कदम पर श्री राम लछमन या जानकी जी सहित धर्म की रच्छा करने का काम...और उनका शील और विनय तो देखिये कि कभी भी किसी भी काम का क्रेडिट अपने नहीं लिए,सब श्री राम की कृपा को दिए..... शक्ति , भक्ति और युक्ति के चरम का जहाँ कहीं भी जिकर होगा, सबसे पहिला नाम बजरंगबलि का ही आएगा...
वानर सेना जब सीता मैया को खोजते हुए समुद्र किनारे पहुँचे और विराट अथाह उस समुद्र को देख कपारे हाथ धरे सब हिम्मत हार बैठ गए, तो ऐसे समय में भी सर्व समर्थ हनुमान जी तबतक आगे बढ़के उद्धत नहीं हुए जबतक कि जाम्बवंत जी उनको आज्ञा और उत्साह नहीं दिए..शिष्टता यही है कि सेनापति या अग्रज जबतक आदेश न दे,ढेर नहीं कूदना चाहिए,समूह के अनुसासन का एही कायदा होता है..चूँकि सेना में वरिष्ट अग्रज जाम्बवंत जी मौजूद थे, सो हनुमान जी उनका मान रखते हुए तब तक चुप हो बैठे रहे जबतक कि जाम्बवंत जी खुदै आगे बढ़के उनको आदेश न दिए..जो सचमुच में सर्व समर्थ होता है,वह विनयशील अवश्ये होता है,यह हनुमान जी हर समय जताए बताये..
लालुआये पन्जुआये हनुमान जी एकै बार उठे औ हुंकार लेकर जब लंका का ओर छलांग लगाये त - " जेहि गिरी चरण देई हनुमंता,चलेहिगा सो पाताल तुरंता" ...उनका चाप से पहार रसातल में धंस गया...आज जदि किसी के पास एतना ताकत/सामर्थ्य रहे,तो दू मिनट में पूरा दुनिया को मचोड़ मचाड़ के सौस लगाके खा जाएगा.. सामर्थ्य बिना शील और संस्कार के विनाशकारी होता है,यह सास्वत सत्य है...
बजरंग बली खाली बलसालिये नहीं रहे,बडका विद्वान् और चतुर भी रहे..ई बात का परमान जगह जगह पर रामायण में मिलता है...जब लंका के रास्ते बीच सम्मुद्दर में सुरसा उनको खाने वास्ते छेकी, त कैसे उको चकमा देके बजरंगबली अपना चतुरता का परदरसन किये, सबे जानते हैं..जब गुप्त रहकर काम बनाना था,गुप्त रह कर बनाये और जब विसाल भूधराकार सरीर परगट कर काम बनाना था,तब वैसा ही किये..सीता मैया को चुप्पे चुप्पे खोज निकालना था,तो मच्छर एतना साइज बनाकर घूम लिए औ जब सतरुअन को प्रभु राम का परभाव देखाना था तो असोक वाटिका को उजार पूरा लंका को जलाकर राख कर दिए...
कल्पना कीजिये ..एकदम अनजान जगह,कोइयो जात जेवार का नहीं, बोली भासा वाला नहीं, चारों तरफ से बिसाल विकराल सर्वभक्षी निसाचर चारों पहर घूम रहे हैं,कब उठाकर मुंह में गड़प जाएँ औ डकारों न लें,कौनो भरोसा नहीं.....ऊपर से दस मुडिया वाला विकराल राच्छस घड़ी घड़ी कहे कि चलो हमसे बियाह करो नहीं तो तुम्हारा चटनी पीस के ई राच्छस लोग खा जायेगा,तुम्हरा पति खोजते रह जायेगा कि कहाँ बिला गयी..नैहर सासुर वाला बोलेगा राम के संग गयी रही जंगल में ,जंगल का दुःख नहीं सहाया होगा, तो भाग भूग गयी होगी कहीं, साथ में फुसफुसाते हुए कहेंगे " सुने हैं कि लंका का राजा, उसको बियाह करने को उठा ले गया, का जाने बियाह उआह करके ओकरे संग घर बसा ली होगी..." तुम तो बचोगी नहीं जवाब देवे का वास्ते ,जेकरे मुंह में जो आएगा उ कहेगा..हम तुमको उठा लाये,जात तो तुम्हरा ऐसे भी चला ही गया..ई से अच्छा है कि हमरे संग बियाह कर लो,हम तुमका सब रानियन का हेडरानी बना के रखेंगे...बतवा मान लो,परेम से समझा रहे हैं, कहीं दिमाग घूम घुमा गया तो फिर सोच लो,अब और हमरा सबर को न हिलाओ..."
मैया सीता ...बेचारी के हिरदय पर का बीतता रहा होगा ई सब सुन सुन कर ,पतिवरता राजरानी का जी केतना पिराता रहा होगा..तबै तो उ खिसिया कर बोली...
" सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा, कबहूँ कि नलिनी कराइ विकासा ||
अस मन समुझु कहती जानकी,खल सुधि नहीं रघुवीर बानकी ||
सठ सूने हरि आनेहि मोही,अधम निल्लज लाज नहीं तोही ||"
लेकिन सीता मैया को भीतरे भीतरे तो लगिए रहा होगा कि ई लम्पट मुंहझौंसा पतित का का ठिकाना, दूसरे की मेहरारू को छल से उठा लाने में एगो घड़ी लाज नहीं आया, का जाने आगे का करेगा...बेचारी बेकल हो गयीं होंगी, एतना दिन हो गया था कि ई संसय होना भी वजिबे था कि का जाने प्रभु राम इहाँ तक पहुँच पायेंगे कि नहीं,कहीं उनके आने से पाहिले रावनवा खा पका गया या जोर जबरदस्ती किया तो अबला अकेली उका सामना कैसे करेगी.....बेचारी कलपते हुए अपन ऊ काया का, जाके कारन सब झोर झमेला रहा,ओकरे अंत करने को कभी राच्छसी त्रिजटा से तो कभी वृच्छ असोक से अग्नी मांग रही हैं कि...उहेई समय धप्प से गाछ पर से कुदुक हनुमानजी परगट हो गए प्रभुराम के संदेस के साथ....
धरमहीनों का ऊ नगरी में मैया सीता को कोई पहली बार इतने दिन बाद सनमान सरधा के साथ 'माता' कहा होगा....कोई अंदाजा लगा सकता है,उस समय मैया सीता के हिरदय में हर्ष और ममता का कैसा अद्भुद हिलोर उछाह उठा होगा...उसमे भी जब पवनसुत अपना विसाल रूप परगट कर के माता को देखाए होंगे तो निरासा का समुद्दर में डूबे उनके कैसा सम्बल मिला होगा...माता का अपमान का बदला लेने का लिए जब कोई पुत्र उसका अपमान करने वाला का पूरा राज पाट महल अटारी जलाकर ख़ाक कर दे,तो उस हिरदय में गर्व संतोस और ममता का जो उफान उठा होगा और उस हिरदय से जो आशीर्वाद निकलेगा,ऊ कैसे खाली जा सकता है...अरे, माता का आशीर्वाद जब दुर्योधन जैसे पापी को भी बज्र जैसा बना सकता है तो ई तो परम पुन्यवान हनुमान जी थे...
माता ने अपने इस सुपुत्र को - " अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता,अस बर दीन जानकी माता"
" माता जानकी की किरपा से पवनसुत को जो वरदान मिला, उससे पवनसुत किसी को भी आठों सिद्धि और नवों निधि दे सकते हैं "
और ये आठों सिद्धि और नौ निधि हैं....
सिद्धि-
१) अणिमा - जिससे साधक किसी को दिखाई नहीं पड़ता और कठिन से कठिन पदार्थ में परवेस कर सकता है..
२) महिमा - जिसमे योगी अपने को कितना भी विशाल आकार का बना सकता है.
३) गरिमा - जिसमे साधक अपने को चाहे कितना भी भारी बना सकता है.
४) लघिमा - जिसमे साधक जितना चाहे उतना हल्का बन सकता है.
५) प्राप्ति - जिसमे इच्छित वस्तु की प्राप्ति संभव है.
६) प्रकामी - जिसमे इच्छा करने पर वह पृथ्वी में समा सकता है, आकाश में उड़ सकता है.
७) ईशित्व - जिससे सब पर शासन का सामर्थ्य पाता है.
८) वशित्व - जिससे दूसरों को वश में किया जा सकता है.
नौ निधि .....
पद्म , महापद्म, शंख, मकर, कछप, मुकुंद, कुंद, नील, बर्च्च ...
माता पिता या अग्रजों का सरधा और सम्मान पूरवक सच्चे हिरदय से सेवा करने से जो फल मिलता है,उसका इससे परतच्छ उदाहरण औ का हो सकता है...
हो सकता है हनुमान जी,राम जी,कृष्ण भगवान्, आदि आदि ई सब के सब कोरे काल्पनिक पात्र हों, इनका कोई आस्तित्व या वास्तविक आधार न हो...पर किसी ऐसे अवधारणा से ,ऐसे आधार से, जिससे घोरतम संकट में भी उबरने का आस विस्वास मिले, इनके चरित्र से अपने चरित्र को ऊपर उठाने संवारने का प्रेरणा मिले...तो इन चरित्रों को नकारना, उचित होगा क्या ???
सुख ही तो पाने के समस्त यत्न विज्ञान भी कर रहा है,पर इसके कतिपय पुरोधा संगे संग नारा दिए जा रहे हैं कि भूत परेत लछमी दुर्गा राम किसन ई सब अंधविश्वास है...तो अँधा ही सही,यह विश्वास बेहतर नहीं जो व्यक्ति को उद्दात्त चरित्र वाला बनने का प्रेरणा दे ???
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2.2.10
लोकधर्म (अंतिम भाग )
आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी की अनुपम कृति "गोस्वामी तुलसीदास" से साभार :-
भक्त कहलानेवाले एक विशेष समुदाय के भीतर जिस समय यह उन्माद कुछ बढ़ रहा था , उस समय भक्तिमार्ग के भीतर ही एक ऐसी सात्त्विक ज्योति का उदय हुआ जिसके प्रकाश में लोकधर्म के छिन्नभिन्न होते हुए अंग भक्ति सूत्र के द्वारा ही फिर से जुड़े | चैतन्य महाप्रभु के भाव के प्रभाव के द्वारा बंगदेश ,अष्टछाप के कवियों के संगीत श्रोत के द्वारा उत्तर भारत में प्रेम की जो धारा बही ,उसने पंथवालो की परुष बचनावाली से सुखते हुए हृदयों को आर्द्र तो किया , पर वह आर्य शास्त्रानुमोदित लोकधर्म के माधुर्य की ओर आकर्षित न कर सकी | यह काम गोस्वामी तुलसीदास जी ने किया | हिन्दू समाज में फैलाया हुआ विष उनके प्रभाव से चढ़ने न पाया | हिन्दू जनता अपने गौरवपूर्ण इतिहास को भुलाने , कई सहस्त्र वर्षो के संचित ज्ञानभंडार से वंचित रहने , अपने प्रातःस्मरणीय आदर्श पुरुषों के आलोक से दूर पड़ने से बच गयी | उसमें यह संस्कार न जमने पाया कि श्रद्धा और भक्ति के पात्र केवल सांसारिक कर्तव्यों से विमुख ,कर्ममार्ग से च्युत कोरे उपदेश देनेवाले ही हैं | उसके सामने यह फिर से अच्छी तरह झलका दिया गया कि संसार में चलते व्यापारों में मग्न ,अन्याय के दमन के अर्थ रणक्षेत्रों में अद्भुत पराक्रम दिखानेवाले , अत्याचार पर क्रोध से तिलमिलानेवाले , प्रभूत शक्तिसंपन्न होकर भी क्षमा करनेवाले अपने रूप ,गुण और शील से लोक का अनुरंजन करनेवाले ,मैत्री का निर्वाह करनेवाले , प्रजा का पुत्रवत पालन करनेवाले ,बड़ों की आज्ञा का आदर करनेवाले ,संपत्ति में नम्र रहनेवाले ,विपत्ति में धैर्य रखनेवाले प्रिय या अच्छे ही लगते हैं , यह बात नहीं है | वे भक्ति और श्रद्धा के प्रकृत आलंबन हैं , धर्म के दृढ प्रतीक हैं |
सूरदास आदि अष्टछाप के कवियों ने श्रीकृष्ण के श्रृंगारिक रूप के प्रत्यक्षीकरण द्वारा ' टेढ़ी सीधी निर्गुण वाणी ' की खिन्नता और शुष्कता को हटाकर जीवन की प्रफुल्लता का आभास तो दिया , भागवान के लोक -संग्रहकारी रूप का प्रकाश करके धर्म के सौंदर्य का साक्षात्कार नहीं कराया | कृष्णोपासक भक्तों के सामने राधाकृष्ण की प्रेमलीला ही रखी गयी , भगवान की लोकधर्म स्थापना का मनोहर चित्रण नहीं किया गया अधर्म और अन्याय से संलग्न वैभव और समृद्धि का जो विच्छेद उन्होंने कौरवों के विनाश द्वारा कराया , लोकधर्म से च्युत होते हुए अर्जुन को जिस प्रकार उन्होंने सँभाला ,शिशुपाल के प्रसंग में क्षमा और दंड की जो मर्यादा उन्होंने दिखाई , किसी प्रकार ध्वस्त न होनेवाले प्रबल अत्याचारी निराकरण की जिस नीति के अवलंबन की व्यवस्था उन्होंने जरासंध वध द्वारा की , उसका सौन्दर्य जनता के ह्रदय में अंकित नहीं किया गया | इससे असंस्कृत हृदयों में जाकर कृष्ण की श्रृंगारिक भावना ने विलासप्रियता का रूप धारण किया और समाज केवल नाच-कूद कर जी बहलाने के योग्य हुआ |
जहाँ लोकधर्म और व्यक्तिधर्म का विरोध हो वहाँ कर्ममार्गी गृहस्थी के लिए लोकधर्म का ही अवलंबन श्रेष्ठ है | यदि किसी अत्याचारी का दमन सीधे न्यायसंगत उपायों से नहीं हो सकता तो कुटिल नीति का अवलंबन लोकधर्म की दृष्टि से उचित है | किसी अत्याचारी द्वारा समाज को जो हानि पहुँच रही है ,उसके सामने वह हानि कुछ नहीं है जो किसी एक व्यक्ति के बुरे दृष्टान्त से होगी | लक्ष्य यदि व्यापक और श्रेष्ट है तो साधन का अनिवार्य अनौचित्य उतना खल नहीं सकता | भारतीय जनसमाज में लोकधर्म का यह आदर्श यदि पूर्ण रूप से प्रतिष्टित रहने पाता तो विदेशियों के आक्रमण को व्यर्थ करने में देश अधिक समर्थ होता |
रामचरित के सौन्दर्य द्वारा तुलसीदासजी ने जनता को लोकधर्म की ओर जो फिर से आकर्षित किया ,वह निष्फल नहीं हुआ | वैरागियों का सुधार चाहे उससे उतना न हुआ हो ,पर परोक्ष रूप में साधारण गृहस्थ जनता की प्रवृति का बहुत कुछ संस्कार हुआ | दक्षिण में रामदास स्वामी ने इसी लोकधर्माश्रित भक्ति का संचार करके महाराष्ट्र शक्ति का अभ्युदय किया | पीछे से सिखों ने भी लोकधर्म का आश्रय लिया ओर सिख शक्ति का प्रादुर्भाव हुआ | हिन्दू जनता शिवाजी और गुरु गोविन्दसिंह को राम - कृष्ण के रूप में और औरंगजेब को रावण और कंस के रूप में देखने लगी | जहाँ लोक ने किसी को रावण और कंस के रूप में देखा कि भगवान के अवतार की संभावना हुई |
गोस्वामीजी ने यधपि भक्ति के साहचर्य से ज्ञान ,वैराग्य का भी निरूपण किया है और पूर्ण रूप से किया है , पर उनका सबसे अधिक उपकार गृहस्थों के उपर है जो अपनी प्रत्येक स्थिति में उन्हें पुकारकर कुछ कहते हुए पाते हैं और वह ' कुछ ' भी लोकव्यवहार के अंतर्गत है ,उसके बाहर नहीं | मान-अपमान से परे रहनेवाले संतों के लिए तो वे ' खल के वचन संत सह जैसे ' कहते हैं पर साधारण गृहस्थों के लिए सहिष्णुता के मर्यादा बाँधते हुए कहते हैं कि ' कतहूँ सुधाइहु तें बड़ दोषू ' | साधक और संसारी दोनों के भागों की ओर वे संकेत करते हैं | व्यक्तिगत सफलता के लिए जिसे 'नीति ' कहते हैं , सामाजिक आदर्श की सफलता का साधक होकर वह ' धर्म ' हो जाता है |
सारांश यह कि गोस्वामीजी से पूर्व तीन प्रकार के साधु समाज के बीच रमते दिखाई देते थे |एक तो प्राचीन परंपरा के भक्त जो प्रेम में मग्न होकर संसार को भूल रहे थे ,दुसरे वे जो अनधिकार ज्ञानगोष्टी द्वारा समाज के प्रतिष्ठित आदर्शों के प्रति तिरस्कार बुद्धि उत्पन्न कर रहे थे , और तीसरे वे जो हठयोग , रसायन आदि द्वारा अलौकिक सिद्धियों की व्यर्थ आशा का प्रचार कर रहे थे | इन तीनों वर्गों के द्वारा साधारण जनता के लोकधर्म पर आरूढ़ होने की संभावना कितनी दूर थी , यह कहने की आवश्यकता नहीं | आज जो हम फिर झोपड़ों में बैठे किसानों को भरत के 'भायप भाव ' पर , लक्ष्मन के त्याग पर ,राम की पितृभक्ति पर पुलकित होते हुए पाते है , वह गोस्वामीजी के ही प्रसाद से | धन्य है ग्राहस्थ्य जीवन में धर्मालोकस्वरुप रामचरित और धन्य हैं उस आलोक को घर घर पहुँचनेवाले तुलसीदास ! व्यावहारिक जीवन धर्म की ज्योति से एक बार फिर जगमगा उठा - उसमें नई शक्ति का संचार हुआ | जो कुछ भी नहीं जनता , वह भी यह जनता है कि -
जे न मित्र दुःख होहिं दुखारी | तिनहिं बिलोकत पातक भारी | |
स्त्रियाँ और कोई धर्म जानें , या न जानें , पर वे वह धर्म जानती हैं जिससे संसार चलता है | उन्हें इस बात का विश्वास रहता है कि -
वृद्ध ,रोग बस ,जड़ ,धनहीना | अंध बधिर क्रोधी अति दीना ||
ऐसेहु पति कर किए अपमाना | नारि पाव जमपुर दुःख नाना ||
जिसमें बाहुबल है उसे यह समझ भी पैदा हो गयी है कि दुष्ट और अत्याचारी 'पृथ्वी के भार' हैं ; उस भार को उतारनेवाले भगवान के सच्चे सेवक हैं | प्रत्येक देहाती लठैत 'बजरंगबली ' की जयजयकार मानता है - कुम्भकर्ण की नहीं | गोस्वामीजी ने ' रामचरित - चिंतामणि ' को छोटे -बड़े सबके बीच बाँट दिया जिसके प्रभाव से हिन्दू समाज यदि चाहे -सच्चे जी से चाहे - तो सब कुछ प्राप्त कर सकता है|
भक्ति और प्रेम के पुटपाक द्वारा धर्म को रागात्मिका वृत्ति के साथ सम्मिश्रित करके बाबाजी ने एक ऐसा रसायन तैयार किया जिसके सेवन से धर्म मार्ग में कष्ट और श्रांति न जान पड़े ,आनन्द और उत्साह के साथ लोग आप से आप उसकी ओर प्रवृत हों , धरपकड़ और जबरदस्ती से नहीं | जिस धर्ममार्ग में कोरे उपदेशों से कष्ट ही कष्ट दिखाई पड़ता है , वह चरित्र - सौंदर्य के साक्षात्कार से आन्नदमय हो जाता है | मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति और निवृत्ति की दिशा को लिए हुए धर्म की जो लीक निकलती है , लोंगों के चलते - चलते चौड़ी होकर वह सीधा राजमार्ग हो सकती है ; जिसके सम्बन्ध में गोस्वामीजी कहते है -
' गुरु कह्यो राम भजन नीको मोहि लगत राजडगरो सो |'
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भक्त कहलानेवाले एक विशेष समुदाय के भीतर जिस समय यह उन्माद कुछ बढ़ रहा था , उस समय भक्तिमार्ग के भीतर ही एक ऐसी सात्त्विक ज्योति का उदय हुआ जिसके प्रकाश में लोकधर्म के छिन्नभिन्न होते हुए अंग भक्ति सूत्र के द्वारा ही फिर से जुड़े | चैतन्य महाप्रभु के भाव के प्रभाव के द्वारा बंगदेश ,अष्टछाप के कवियों के संगीत श्रोत के द्वारा उत्तर भारत में प्रेम की जो धारा बही ,उसने पंथवालो की परुष बचनावाली से सुखते हुए हृदयों को आर्द्र तो किया , पर वह आर्य शास्त्रानुमोदित लोकधर्म के माधुर्य की ओर आकर्षित न कर सकी | यह काम गोस्वामी तुलसीदास जी ने किया | हिन्दू समाज में फैलाया हुआ विष उनके प्रभाव से चढ़ने न पाया | हिन्दू जनता अपने गौरवपूर्ण इतिहास को भुलाने , कई सहस्त्र वर्षो के संचित ज्ञानभंडार से वंचित रहने , अपने प्रातःस्मरणीय आदर्श पुरुषों के आलोक से दूर पड़ने से बच गयी | उसमें यह संस्कार न जमने पाया कि श्रद्धा और भक्ति के पात्र केवल सांसारिक कर्तव्यों से विमुख ,कर्ममार्ग से च्युत कोरे उपदेश देनेवाले ही हैं | उसके सामने यह फिर से अच्छी तरह झलका दिया गया कि संसार में चलते व्यापारों में मग्न ,अन्याय के दमन के अर्थ रणक्षेत्रों में अद्भुत पराक्रम दिखानेवाले , अत्याचार पर क्रोध से तिलमिलानेवाले , प्रभूत शक्तिसंपन्न होकर भी क्षमा करनेवाले अपने रूप ,गुण और शील से लोक का अनुरंजन करनेवाले ,मैत्री का निर्वाह करनेवाले , प्रजा का पुत्रवत पालन करनेवाले ,बड़ों की आज्ञा का आदर करनेवाले ,संपत्ति में नम्र रहनेवाले ,विपत्ति में धैर्य रखनेवाले प्रिय या अच्छे ही लगते हैं , यह बात नहीं है | वे भक्ति और श्रद्धा के प्रकृत आलंबन हैं , धर्म के दृढ प्रतीक हैं |
सूरदास आदि अष्टछाप के कवियों ने श्रीकृष्ण के श्रृंगारिक रूप के प्रत्यक्षीकरण द्वारा ' टेढ़ी सीधी निर्गुण वाणी ' की खिन्नता और शुष्कता को हटाकर जीवन की प्रफुल्लता का आभास तो दिया , भागवान के लोक -संग्रहकारी रूप का प्रकाश करके धर्म के सौंदर्य का साक्षात्कार नहीं कराया | कृष्णोपासक भक्तों के सामने राधाकृष्ण की प्रेमलीला ही रखी गयी , भगवान की लोकधर्म स्थापना का मनोहर चित्रण नहीं किया गया अधर्म और अन्याय से संलग्न वैभव और समृद्धि का जो विच्छेद उन्होंने कौरवों के विनाश द्वारा कराया , लोकधर्म से च्युत होते हुए अर्जुन को जिस प्रकार उन्होंने सँभाला ,शिशुपाल के प्रसंग में क्षमा और दंड की जो मर्यादा उन्होंने दिखाई , किसी प्रकार ध्वस्त न होनेवाले प्रबल अत्याचारी निराकरण की जिस नीति के अवलंबन की व्यवस्था उन्होंने जरासंध वध द्वारा की , उसका सौन्दर्य जनता के ह्रदय में अंकित नहीं किया गया | इससे असंस्कृत हृदयों में जाकर कृष्ण की श्रृंगारिक भावना ने विलासप्रियता का रूप धारण किया और समाज केवल नाच-कूद कर जी बहलाने के योग्य हुआ |
जहाँ लोकधर्म और व्यक्तिधर्म का विरोध हो वहाँ कर्ममार्गी गृहस्थी के लिए लोकधर्म का ही अवलंबन श्रेष्ठ है | यदि किसी अत्याचारी का दमन सीधे न्यायसंगत उपायों से नहीं हो सकता तो कुटिल नीति का अवलंबन लोकधर्म की दृष्टि से उचित है | किसी अत्याचारी द्वारा समाज को जो हानि पहुँच रही है ,उसके सामने वह हानि कुछ नहीं है जो किसी एक व्यक्ति के बुरे दृष्टान्त से होगी | लक्ष्य यदि व्यापक और श्रेष्ट है तो साधन का अनिवार्य अनौचित्य उतना खल नहीं सकता | भारतीय जनसमाज में लोकधर्म का यह आदर्श यदि पूर्ण रूप से प्रतिष्टित रहने पाता तो विदेशियों के आक्रमण को व्यर्थ करने में देश अधिक समर्थ होता |
रामचरित के सौन्दर्य द्वारा तुलसीदासजी ने जनता को लोकधर्म की ओर जो फिर से आकर्षित किया ,वह निष्फल नहीं हुआ | वैरागियों का सुधार चाहे उससे उतना न हुआ हो ,पर परोक्ष रूप में साधारण गृहस्थ जनता की प्रवृति का बहुत कुछ संस्कार हुआ | दक्षिण में रामदास स्वामी ने इसी लोकधर्माश्रित भक्ति का संचार करके महाराष्ट्र शक्ति का अभ्युदय किया | पीछे से सिखों ने भी लोकधर्म का आश्रय लिया ओर सिख शक्ति का प्रादुर्भाव हुआ | हिन्दू जनता शिवाजी और गुरु गोविन्दसिंह को राम - कृष्ण के रूप में और औरंगजेब को रावण और कंस के रूप में देखने लगी | जहाँ लोक ने किसी को रावण और कंस के रूप में देखा कि भगवान के अवतार की संभावना हुई |
गोस्वामीजी ने यधपि भक्ति के साहचर्य से ज्ञान ,वैराग्य का भी निरूपण किया है और पूर्ण रूप से किया है , पर उनका सबसे अधिक उपकार गृहस्थों के उपर है जो अपनी प्रत्येक स्थिति में उन्हें पुकारकर कुछ कहते हुए पाते हैं और वह ' कुछ ' भी लोकव्यवहार के अंतर्गत है ,उसके बाहर नहीं | मान-अपमान से परे रहनेवाले संतों के लिए तो वे ' खल के वचन संत सह जैसे ' कहते हैं पर साधारण गृहस्थों के लिए सहिष्णुता के मर्यादा बाँधते हुए कहते हैं कि ' कतहूँ सुधाइहु तें बड़ दोषू ' | साधक और संसारी दोनों के भागों की ओर वे संकेत करते हैं | व्यक्तिगत सफलता के लिए जिसे 'नीति ' कहते हैं , सामाजिक आदर्श की सफलता का साधक होकर वह ' धर्म ' हो जाता है |
सारांश यह कि गोस्वामीजी से पूर्व तीन प्रकार के साधु समाज के बीच रमते दिखाई देते थे |एक तो प्राचीन परंपरा के भक्त जो प्रेम में मग्न होकर संसार को भूल रहे थे ,दुसरे वे जो अनधिकार ज्ञानगोष्टी द्वारा समाज के प्रतिष्ठित आदर्शों के प्रति तिरस्कार बुद्धि उत्पन्न कर रहे थे , और तीसरे वे जो हठयोग , रसायन आदि द्वारा अलौकिक सिद्धियों की व्यर्थ आशा का प्रचार कर रहे थे | इन तीनों वर्गों के द्वारा साधारण जनता के लोकधर्म पर आरूढ़ होने की संभावना कितनी दूर थी , यह कहने की आवश्यकता नहीं | आज जो हम फिर झोपड़ों में बैठे किसानों को भरत के 'भायप भाव ' पर , लक्ष्मन के त्याग पर ,राम की पितृभक्ति पर पुलकित होते हुए पाते है , वह गोस्वामीजी के ही प्रसाद से | धन्य है ग्राहस्थ्य जीवन में धर्मालोकस्वरुप रामचरित और धन्य हैं उस आलोक को घर घर पहुँचनेवाले तुलसीदास ! व्यावहारिक जीवन धर्म की ज्योति से एक बार फिर जगमगा उठा - उसमें नई शक्ति का संचार हुआ | जो कुछ भी नहीं जनता , वह भी यह जनता है कि -
जे न मित्र दुःख होहिं दुखारी | तिनहिं बिलोकत पातक भारी | |
स्त्रियाँ और कोई धर्म जानें , या न जानें , पर वे वह धर्म जानती हैं जिससे संसार चलता है | उन्हें इस बात का विश्वास रहता है कि -
वृद्ध ,रोग बस ,जड़ ,धनहीना | अंध बधिर क्रोधी अति दीना ||
ऐसेहु पति कर किए अपमाना | नारि पाव जमपुर दुःख नाना ||
जिसमें बाहुबल है उसे यह समझ भी पैदा हो गयी है कि दुष्ट और अत्याचारी 'पृथ्वी के भार' हैं ; उस भार को उतारनेवाले भगवान के सच्चे सेवक हैं | प्रत्येक देहाती लठैत 'बजरंगबली ' की जयजयकार मानता है - कुम्भकर्ण की नहीं | गोस्वामीजी ने ' रामचरित - चिंतामणि ' को छोटे -बड़े सबके बीच बाँट दिया जिसके प्रभाव से हिन्दू समाज यदि चाहे -सच्चे जी से चाहे - तो सब कुछ प्राप्त कर सकता है|
भक्ति और प्रेम के पुटपाक द्वारा धर्म को रागात्मिका वृत्ति के साथ सम्मिश्रित करके बाबाजी ने एक ऐसा रसायन तैयार किया जिसके सेवन से धर्म मार्ग में कष्ट और श्रांति न जान पड़े ,आनन्द और उत्साह के साथ लोग आप से आप उसकी ओर प्रवृत हों , धरपकड़ और जबरदस्ती से नहीं | जिस धर्ममार्ग में कोरे उपदेशों से कष्ट ही कष्ट दिखाई पड़ता है , वह चरित्र - सौंदर्य के साक्षात्कार से आन्नदमय हो जाता है | मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति और निवृत्ति की दिशा को लिए हुए धर्म की जो लीक निकलती है , लोंगों के चलते - चलते चौड़ी होकर वह सीधा राजमार्ग हो सकती है ; जिसके सम्बन्ध में गोस्वामीजी कहते है -
' गुरु कह्यो राम भजन नीको मोहि लगत राजडगरो सो |'
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