मनुष्य शरीर में व्यापने वाले असंख्य व्याधियों में ऐसी कोई व्याधि नहीं जो कष्टकर न हो...परन्तु " खुजली " एक ऐसी व्याधि है जो भले त्वचा को लाख घात पहुंचाए, पर खुजाने के सुख आनंद और तृप्ति का वह भली प्रकार कह सकता है जो कभी भी इस व्याधि के चपेट में आ चुका हो और खुजाने का सुख पा चुका हो....सोचिये न ,कहीं किसी ऐसे स्थान और स्थिति में जहाँ चहुँ ओर से हम वरिष्ठ जनों से घिरे हुए हों और उसी पल शरीर के नितांत वर्ज्य प्रदेश में जोर की खजुआहट मचे.. शिष्टाचार का तकाजा, हम खुलकर खजुआ ही नहीं सकते...कैसी कष्टप्रद स्थिति बनती है, कितनी कसमसाहट होती है...घोर खुजलीकारक उस क्षण में यदि मन भर खुजलाने का सुअवसर मिल जाए तो वह सुख बड़े बड़े सुखो को नगण्य ठहराने लायक हो जाती है.
खुजली एक ऐसा रोग है, जितना खुजाओ, त्वचा जितनी ही छिले जले , आनंद उतना ही बढ़ता चला जाता है...खुजाते समय इस बात का किंचित भी भान कहाँ रहता है कि चमड़ी की क्या गत बन रही है..परन्तु क्या खुजली का निराकरण खुजलाना है ???
नहीं !!!
बल्कि समय रहते यदि इसका उपचार न कराया गया तो कभी कभी त्वचा पर पड़ा दाग जीवन भर के लिए अमिट बनकर रह जाता है या फिर कई अन्य असाध्य रोग का कारण भी बन जाता है.....
अब आगे,
क्या खुजली केवल एक बाह्य शारीरिक रोग है,जो शरीर के त्वचा में ही हुआ करती है????
नहीं !!!
खुजली का प्रभावक्षेत्र केवल शरीर नहीं...मन भी है. शारीरिक खुजली के विषय में तो हम सभी जानते हैं,चलिए आज हम मानसिक खुजली को जाने,जो कि त्वचा के रोग से कई लाख गुना अधिक गंभीर और अहितकारी है.. शारीरिक खुजली तो कतिपय औषधियों द्वारा मिटाई भी जा सकती है, परन्तु मानसिक खुजली के निराकरण हेतु तो बाह्य रूप में खा सकने वाली कोई गोली या सिरप अभी तक बनी ही नहीं है..
अब यह मानसिक खुजली है क्या ??
"जीवन में घटित दुखद कष्टदायक घटनाओं की स्मृति को वर्षों तक स्मृति पटल पर संरक्षित और पोषित रखना ही मानसिक खुजली है".
जिस प्रकार शारीरिक खुजली त्वचा को घात पहुंचाते हुए भी सुखकारी लगती है,ठीक वैसे ही यह मानसिक खुजली भी मन मस्तिष्क को क्षत विक्षत करते संतोषकारी लगती है...
सचेत रहें ,देखते रहें , जब भी हमारी प्रवृत्ति इस प्रकार की बनने लगे कि हम अपने जीवन में घटित दुर्घटनाओं को, दुखद स्मृतियों को बारम्बार दुहराने लगे हैं, नित्यप्रति उनका स्मरण करने और दुखी होने को सामान्य दिनचर्या का अंग बनाते जा रहे हैं, तो निश्चित मानिए कि हम उस गंभीर असाध्य रोग से ग्रसित हो रहे हैं..यह रोग आगे बढ़ते हुए दीमक की भांति मनुष्य के अंतस को खोखला करता जीवन दृष्टिकोण ही नकारात्मक करने लगता है और इसके चपेट में आया मनुष्य इसका आभास भी नहीं कर पाता..
इस व्याधि संग हमें दुखी रहने का व्यसन लग जाता है.. हम दुखी रहने में ही सुख पाने लगते हैं.. अवस्था यहाँ तक पहुँच जाती है कि यदि कभी कोई दिन ऐसा बीता कि दुखद स्मृतियों को दुहराया नहीं,तो और दुखी हो जाते हैं और फिर यह जीवन जगत सब निस्सार अर्थ हीन लगने लगता है..हमारे सम्मुख लाख सुख आकर क्यों न बिछ जाँय हम हर्षित नहीं हो पाते और यही नहीं हमारे आस पास हमारा नितांत ही आत्मीय भी यदि प्रसन्न हो तो हम यथासंभव प्रयास करेंगे कि वह हमारे दुःख के कुएं में आ उसमे डूब जाय और ऐसा न हुआ तो अपने उस आत्मीय की प्रसन्नता से ही चिढ होने लगेगी...
मन और मष्तिष्क यदि निरंतर ही दुखद ( नकारात्मक ) स्थिति में पड़ा रहे, तो न केवल हमारे संरचनात्मक सामर्थ्य का ह्रास होता है अपितु यह तीव्रता से शरीर को भी रोग ग्रस्त कर देता है..स्वाभाविक ही तो है,शरीर का नियंत्रक मन मष्तिष्क ही जब स्वस्थ न रहे,तो हम कैसे अपेक्षा कर सकते हैं कि मनन चिंतन सोच कार्य व्यवहार सब स्वस्थ और सकारात्मक हो ....
अब विचार रोग के स्रोतों पर :-
अन्न जल के रूप में जो भोज्य पदार्थ हम ग्रहण करते हैं वह शारीरिक सञ्चालन हेतु भले यथेष्ट हो ,पर मनुष्य को इतना ही तो नहीं चाहिए, उसे मानसिक आहार भी चाहिए.यद्यपि ग्रहण की गयी अन्न जल वायु रूपी आहार भी मनोवस्था पर प्रभाव डालती है,पर इसके अतिरिक्त विभिन्न दृश्य श्रव्य माध्यमो से तथा मनन चिंतन द्वारा नित्यप्रति जो हम ग्रहण करते हैं,वह आहार मुख्य रूप से हमारे मानसिक स्वस्थ्य को प्रभावित और नियंत्रित करता है.. और जैसे दूषित भोजन शारीरिक अस्वस्थता का कारण होता है,वैसे ही विभिन्न दृश्य श्रव्य माध्यमों से ग्रहण की गयी दूषित/नकारात्मक सोच विचार हमारे मानसिक अस्वस्थता का हेतु बनती है...
विडंबना है कि दिनानुदिन जटिल होते जीवन चक्र के मध्य जितनी मात्रा में हमारे मानसिक सामर्थ्य का ह्रास/खपत हो रहा है, उतनी मात्रा में न तो पौष्टिक शारीरिक आहार जुटा पाने में हम सक्षम हो पा रहे हैं और न ही स्वस्थ मानसिक आहार..आज तनाव ग्रस्त मष्तिष्क जब मनोरंजन के माध्यम से विश्राम चाहता है, तो मनोरंजन के साधन रूप में उसे सबसे सुगम साधन टी वी के रूप में ही मिलता है. और देखिये न, मन मष्तिस्क और नयनों को चुंधियाते इस चमकीले माध्यम ने ,जो अहर्निश नकारात्मक पात्र कथाएं परोस परोस कर, षड़यंत्र ,अश्लीलता और सनसनी दिखा दिखाकर लोगों को क्या खुराक दे रहा है..बड़े आराम से यह मानव मन मस्तिष्क का प्रेम पूर्वक भक्षण कर रहा है. यद्यपि ऐसा नहीं है कि इससे नियमित जुड़े रहने वाले भी यह सब देख खीझते नहीं हैं,पर इनमे स्थित रहस्य रोमांच इन्हें इनसे दूर नहीं होने देता और फलतः सब जानते समझते भी इस से जुड़े रहते हैं..अपनी हानि देख सह भी उसी से जुड़े रहना, यह मानसिक खुजली नहीं तो और क्या है ??
पठन पाठन, बागवानी,समाज सेवा ,विभिन्न कला माध्यम, इत्यादि अनेक रचनात्मक कार्य जो व्यक्ति में असीमित सकारात्मक उर्जा भर सकते हैं...पर आज कितने लोग रह गए हैं जो इन श्रोतों के साथ जुड़े हुए सुख संतोष पाने को प्रयासरत हैं ?? भौतिक सुख सुविधायों के साधनों की आज कैसी बाढ़ सी आई हुई है,पर जितनी तीव्रता से इनकी भरमार हो रही है, उससे दुगुनी तीव्रता से मानवमात्र में मानसिक अवसाद भी बढ़ रहा है,मनोरोग बढ़ रहें हैं, आत्महत्याएं बढ़ रही हैं, सम्बन्ध आत्मीयता सहनशीलता धैर्य सब ध्वस्त हुए जा रहे हैं,परिवार ,समाज और देश टूट रहा है..यह सब टूट इसलिए रहा है क्योंकि इसकी प्रथम इकाई मनुष्य रोज स्वस्थ मानसिक आहार के आभाव में अन्दर से टूट रहा है..
इस त्रासद अवस्था में गंभीर रूप से आत्मावलोकन तथा शारीरिक मानसिक स्वस्थ्य के प्रति यथेष्ट सचेष्ट रहने की आवश्यकता है.नहीं तो हमारा सुखी रहने का ध्येय कभी पूर्णता न पायेगा.. व्यापक रूप में हमें अपने जीवन दृष्टिकोण को भी निश्चित रूप से बदलना पड़ेगा...हमारा वश अपने भाग्य पर, अपने जीवन में घटित घटनाओं पर भले न हो ,पर हमारा वश इसपर अवश्य है कि हम उन घटनाओं को किस रूप में देखें..इस संसार का एक भी मनुष्य यह दावा नहीं कर सकता कि उसके जीवन में सुखद कुछ भी न घटा है...तो हमें करना यही होगा कि दुखद स्मृतियाँ जो घट चुकी हैं,बीत चुकी हैं,उन्हें बीत जाने दें,मुट्ठी में भींच कर ,ह्रदय से लगाकर सदा उन्हें जीवित पोषित न रखें और इसके विपरीत सुखद स्मृतियों को सदा ही जिलाएँ रखें,नित्यप्रति उसे दुहराते रहें...जब हम अपने सुखद स्मृतियों की तालिका को दुहराते रहने की प्रवृत्ति बना लेंगे, न केवल दुखद परिस्थितियों के धैर्यपूर्वक सामना करने की अपरिमित क्षमता पाएंगे बल्कि हमारी प्रसन्न और प्रत्येक परिस्थिति में सहज, धैर्यवान रहने की जीवन दृष्टियुक्त सकारात्मक सोच, कईयों के जीवन में सुख और सकारात्मकता बिखेरने का निमित्त बनेगी...
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खुजली एक ऐसा रोग है, जितना खुजाओ, त्वचा जितनी ही छिले जले , आनंद उतना ही बढ़ता चला जाता है...खुजाते समय इस बात का किंचित भी भान कहाँ रहता है कि चमड़ी की क्या गत बन रही है..परन्तु क्या खुजली का निराकरण खुजलाना है ???
नहीं !!!
बल्कि समय रहते यदि इसका उपचार न कराया गया तो कभी कभी त्वचा पर पड़ा दाग जीवन भर के लिए अमिट बनकर रह जाता है या फिर कई अन्य असाध्य रोग का कारण भी बन जाता है.....
अब आगे,
क्या खुजली केवल एक बाह्य शारीरिक रोग है,जो शरीर के त्वचा में ही हुआ करती है????
नहीं !!!
खुजली का प्रभावक्षेत्र केवल शरीर नहीं...मन भी है. शारीरिक खुजली के विषय में तो हम सभी जानते हैं,चलिए आज हम मानसिक खुजली को जाने,जो कि त्वचा के रोग से कई लाख गुना अधिक गंभीर और अहितकारी है.. शारीरिक खुजली तो कतिपय औषधियों द्वारा मिटाई भी जा सकती है, परन्तु मानसिक खुजली के निराकरण हेतु तो बाह्य रूप में खा सकने वाली कोई गोली या सिरप अभी तक बनी ही नहीं है..
अब यह मानसिक खुजली है क्या ??
"जीवन में घटित दुखद कष्टदायक घटनाओं की स्मृति को वर्षों तक स्मृति पटल पर संरक्षित और पोषित रखना ही मानसिक खुजली है".
जिस प्रकार शारीरिक खुजली त्वचा को घात पहुंचाते हुए भी सुखकारी लगती है,ठीक वैसे ही यह मानसिक खुजली भी मन मस्तिष्क को क्षत विक्षत करते संतोषकारी लगती है...
सचेत रहें ,देखते रहें , जब भी हमारी प्रवृत्ति इस प्रकार की बनने लगे कि हम अपने जीवन में घटित दुर्घटनाओं को, दुखद स्मृतियों को बारम्बार दुहराने लगे हैं, नित्यप्रति उनका स्मरण करने और दुखी होने को सामान्य दिनचर्या का अंग बनाते जा रहे हैं, तो निश्चित मानिए कि हम उस गंभीर असाध्य रोग से ग्रसित हो रहे हैं..यह रोग आगे बढ़ते हुए दीमक की भांति मनुष्य के अंतस को खोखला करता जीवन दृष्टिकोण ही नकारात्मक करने लगता है और इसके चपेट में आया मनुष्य इसका आभास भी नहीं कर पाता..
इस व्याधि संग हमें दुखी रहने का व्यसन लग जाता है.. हम दुखी रहने में ही सुख पाने लगते हैं.. अवस्था यहाँ तक पहुँच जाती है कि यदि कभी कोई दिन ऐसा बीता कि दुखद स्मृतियों को दुहराया नहीं,तो और दुखी हो जाते हैं और फिर यह जीवन जगत सब निस्सार अर्थ हीन लगने लगता है..हमारे सम्मुख लाख सुख आकर क्यों न बिछ जाँय हम हर्षित नहीं हो पाते और यही नहीं हमारे आस पास हमारा नितांत ही आत्मीय भी यदि प्रसन्न हो तो हम यथासंभव प्रयास करेंगे कि वह हमारे दुःख के कुएं में आ उसमे डूब जाय और ऐसा न हुआ तो अपने उस आत्मीय की प्रसन्नता से ही चिढ होने लगेगी...
मन और मष्तिष्क यदि निरंतर ही दुखद ( नकारात्मक ) स्थिति में पड़ा रहे, तो न केवल हमारे संरचनात्मक सामर्थ्य का ह्रास होता है अपितु यह तीव्रता से शरीर को भी रोग ग्रस्त कर देता है..स्वाभाविक ही तो है,शरीर का नियंत्रक मन मष्तिष्क ही जब स्वस्थ न रहे,तो हम कैसे अपेक्षा कर सकते हैं कि मनन चिंतन सोच कार्य व्यवहार सब स्वस्थ और सकारात्मक हो ....
अब विचार रोग के स्रोतों पर :-
अन्न जल के रूप में जो भोज्य पदार्थ हम ग्रहण करते हैं वह शारीरिक सञ्चालन हेतु भले यथेष्ट हो ,पर मनुष्य को इतना ही तो नहीं चाहिए, उसे मानसिक आहार भी चाहिए.यद्यपि ग्रहण की गयी अन्न जल वायु रूपी आहार भी मनोवस्था पर प्रभाव डालती है,पर इसके अतिरिक्त विभिन्न दृश्य श्रव्य माध्यमो से तथा मनन चिंतन द्वारा नित्यप्रति जो हम ग्रहण करते हैं,वह आहार मुख्य रूप से हमारे मानसिक स्वस्थ्य को प्रभावित और नियंत्रित करता है.. और जैसे दूषित भोजन शारीरिक अस्वस्थता का कारण होता है,वैसे ही विभिन्न दृश्य श्रव्य माध्यमों से ग्रहण की गयी दूषित/नकारात्मक सोच विचार हमारे मानसिक अस्वस्थता का हेतु बनती है...
विडंबना है कि दिनानुदिन जटिल होते जीवन चक्र के मध्य जितनी मात्रा में हमारे मानसिक सामर्थ्य का ह्रास/खपत हो रहा है, उतनी मात्रा में न तो पौष्टिक शारीरिक आहार जुटा पाने में हम सक्षम हो पा रहे हैं और न ही स्वस्थ मानसिक आहार..आज तनाव ग्रस्त मष्तिष्क जब मनोरंजन के माध्यम से विश्राम चाहता है, तो मनोरंजन के साधन रूप में उसे सबसे सुगम साधन टी वी के रूप में ही मिलता है. और देखिये न, मन मष्तिस्क और नयनों को चुंधियाते इस चमकीले माध्यम ने ,जो अहर्निश नकारात्मक पात्र कथाएं परोस परोस कर, षड़यंत्र ,अश्लीलता और सनसनी दिखा दिखाकर लोगों को क्या खुराक दे रहा है..बड़े आराम से यह मानव मन मस्तिष्क का प्रेम पूर्वक भक्षण कर रहा है. यद्यपि ऐसा नहीं है कि इससे नियमित जुड़े रहने वाले भी यह सब देख खीझते नहीं हैं,पर इनमे स्थित रहस्य रोमांच इन्हें इनसे दूर नहीं होने देता और फलतः सब जानते समझते भी इस से जुड़े रहते हैं..अपनी हानि देख सह भी उसी से जुड़े रहना, यह मानसिक खुजली नहीं तो और क्या है ??
पठन पाठन, बागवानी,समाज सेवा ,विभिन्न कला माध्यम, इत्यादि अनेक रचनात्मक कार्य जो व्यक्ति में असीमित सकारात्मक उर्जा भर सकते हैं...पर आज कितने लोग रह गए हैं जो इन श्रोतों के साथ जुड़े हुए सुख संतोष पाने को प्रयासरत हैं ?? भौतिक सुख सुविधायों के साधनों की आज कैसी बाढ़ सी आई हुई है,पर जितनी तीव्रता से इनकी भरमार हो रही है, उससे दुगुनी तीव्रता से मानवमात्र में मानसिक अवसाद भी बढ़ रहा है,मनोरोग बढ़ रहें हैं, आत्महत्याएं बढ़ रही हैं, सम्बन्ध आत्मीयता सहनशीलता धैर्य सब ध्वस्त हुए जा रहे हैं,परिवार ,समाज और देश टूट रहा है..यह सब टूट इसलिए रहा है क्योंकि इसकी प्रथम इकाई मनुष्य रोज स्वस्थ मानसिक आहार के आभाव में अन्दर से टूट रहा है..
इस त्रासद अवस्था में गंभीर रूप से आत्मावलोकन तथा शारीरिक मानसिक स्वस्थ्य के प्रति यथेष्ट सचेष्ट रहने की आवश्यकता है.नहीं तो हमारा सुखी रहने का ध्येय कभी पूर्णता न पायेगा.. व्यापक रूप में हमें अपने जीवन दृष्टिकोण को भी निश्चित रूप से बदलना पड़ेगा...हमारा वश अपने भाग्य पर, अपने जीवन में घटित घटनाओं पर भले न हो ,पर हमारा वश इसपर अवश्य है कि हम उन घटनाओं को किस रूप में देखें..इस संसार का एक भी मनुष्य यह दावा नहीं कर सकता कि उसके जीवन में सुखद कुछ भी न घटा है...तो हमें करना यही होगा कि दुखद स्मृतियाँ जो घट चुकी हैं,बीत चुकी हैं,उन्हें बीत जाने दें,मुट्ठी में भींच कर ,ह्रदय से लगाकर सदा उन्हें जीवित पोषित न रखें और इसके विपरीत सुखद स्मृतियों को सदा ही जिलाएँ रखें,नित्यप्रति उसे दुहराते रहें...जब हम अपने सुखद स्मृतियों की तालिका को दुहराते रहने की प्रवृत्ति बना लेंगे, न केवल दुखद परिस्थितियों के धैर्यपूर्वक सामना करने की अपरिमित क्षमता पाएंगे बल्कि हमारी प्रसन्न और प्रत्येक परिस्थिति में सहज, धैर्यवान रहने की जीवन दृष्टियुक्त सकारात्मक सोच, कईयों के जीवन में सुख और सकारात्मकता बिखेरने का निमित्त बनेगी...
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48 comments:
खुजली(नोचनी) के बारे में,मैथिली के प्रख्यात कवि मायानन्द मिश्र की कविता देखिएः
"गे नोचनी तोहर गुण कतेक हम गाउ
जखन तोरा हम कुरियाबै छी
स्वर्गक सुख हम पाबै छी।"
हालांकि एक नगण्य मुद्दा है मगर बहुत बेहतरीन ढंग से खींच दिया आपने लेख में !
कहाँ से शुरू और कहाँ पर खतम :)
छा गयी आप...
वाह ! दीदी हर बार की तरह आज भी आपकी पोस्ट मेरा दिल ले गयी .सही हैं दीदी आपकी बात .कई बार हम अपनी सुखद स्मृतियों की फेरहिस्त ही बनाना नहीं जानते और दुःख भरी बातों को याद करते रहते हैं .धन्यवाद आपकी पोस्ट मन को बहुत सुखकर लगी .और बहुत कुछ समझा भी गयी .
खुजली महात्म्य पर एक ललित आलेख
निसंदेह शुरुआत जिस मूड से की ...अंत में आते आते विषय एक गंभीर विस्तृत विवेचना की मांग कर गया.....तभी तो कहते है असली साधू इन्द्रियों पर विजय पाने वाला होता है ...न की घर परिवार ....
हमारा वश इसपर अवश्य है कि हम उन घटनाओं को किस रूप में देखें.
यह दर्शन जीवन में उतारना कितना जरुरी है. आभार इस आलेख का. बात की शुरुवात इस तरह अंत ले तो कोई बात बनें. बहुत बढ़िया.
खुजली पर शानदार पोस्ट।
badhiya aalekh
आपका पूरा लेख सकारात्मक सोंच बनाए रखने पर बल देता है .. और मानसिक रूप से स्वस्थ बने रहने के लिए सचमुच यही उचित भी है !!
अच्छा लिखा है रंजना जी। सकरात्मक उर्जा से भरपूर मनुष्य निश्चय ही स्वस्थ रहता है। हाँ पर मैंने ये भी अनुभव किया है कि जब हम किसी दुख से अत्यंत विचलित हो जाते हैं तो उस अवस्था में हमारी सृजनशीलता बढ़ जाती है।
पद क्रमांक पांच वाली बात -ऐसे कई लोगों को अवसाद (depression ) में जाते देख चुका हूँ ,लेकिन उनकी भी एक विवशता है कुछ घटनाएं ज़िन्दगी भर भुलाई नहीं जा सकती इसके लिये मनोबल की जरूरत होती है और वह आम व्यक्ति मे बहुत कम होता है । पद क्रमाक छ: वह ऐसे माहोल से ही बचना चाहता है जहा कोइ हंसी खुशी की बात हो रही हो ,अपने गम के आगे दूसरे के बड़े से बड़े दुःख को छोटा समझता है |यह बात भी नितांत सत्य है की जैसा खाओ अन्न वैसा होवे मन -इसी प्रकार २४ घंटे नकारात्मक सोच में डूबे रहने वाले को भी मानसिक खुराक कहाँ मिल पाती है | रचनात्मक कार्य में भी तभी तो मन लगेगा जब को वह थोड़ा बीमारी से छुटकारा पाए ।अंतिम पद से पूर्ण रूपेण सहमत मगर इस प्रकार की शिक्षा उस पर बे असर हो जाती है जो निराशा में चला जता है या तो शिक्षक इस प्रकार का हो या कुछ दिन मानसिक उपचार कराया जावे |विडंबना है की मानसिक चिकित्सक के पास या तो जाने में लोग हिचकिचाते है या चोरी से जाते है जब की यह तो एक बीमारी है जस्ट लाइक जुकाम । एक निवेदन और कभी कभी आदमी आने वाली परिस्थियों से चिंताग्रत होकर अवसाद में चला जाता है |अर्जुन भी तो अवसाद में ही चले गए थे ,किसी मनो चिकित्सक को अर्जुन के लक्षण बताओ वह कहेगा यह डिपरेशन के लक्षण है ""सीदन्ति मम गात्राणि मुखम च परिशुष्यति वेप्थुष्य शरीरे मे......."" तथा धनुष गिर रहा है ,त्वचा जल रही है ,मन भ्रमित सा हो रहा है और मै खडा रहने मे भी असमर्थ हू। तो निवेदन यह कि या तो ऐसे शिक्षक या मानसिक चिकित्सक से जरूर मिलना चाहिये ।आज का आपका आलेख बहुत अच्छा लगा
विवेचनापूर्ण।
खुजली महाकाव्य.....वाह क्या बात है...जहां न जाय रवि, वहाँ जाए कवि....बहुत बढ़िया.
शुरुआत में तो व्यंग लगा लेकिन पढ़ते-पढ़ते खुजली सीरियस होती गयी :)
पठन पाठन, बागवानी,समाज सेवा ,विभिन्न कला माध्यम, इत्यादि अनेक रचनात्मक कार्य जो व्यक्ति में असीमित सकारात्मक उर्जा भर सकती है,
...और सत्संग भी. हर बात में कमी बताकर लोगों का असंतोष भड़काते रहने वाले विघ्न्कर्ताओं से दूर होकर अच्छे लोग, अच्छे विचार का साथ.
निःसंदेह बहुत बढ़िया आलेख ...
खोदा घोंसला और यहाँ तो पहाड़ निकला ...
जीवन भर दुखद स्मृतियों से गुजरते हुए लोग वर्तमान के सुखों को भूल जाते हैं और अपने साथ दूसरों की जिंदगी भी नरक बनाते हैं ...जीवन को सकारात्मक रूप में लेने को प्रोत्साहित करती बहुत ही अच्छी और प्रेरणास्पद रचना ...!!
bilkul sahi baat kahi aapne.....ye to hamare oopar hai ki ham zindgi ko kis roop mein jeena chaahte hain!
वेहद सार्थक खुजली विमर्श
हाथ खुजलाने लगे हैं।न न रुपया नही मिलने वाला,न ही किसी को पीटने की ईच्छा है।जी इस पोस्ट को पढ कर शब्दों मे तारीफ़ करने की बजाये तालियां बज़ाने का मन हो रहा है।शानदार पोस्ट,बधाइ आपको।
बहुत बढ़िया पोस्ट. जीवन में सकारात्मक सोच का महत्व में बना रहेगा. ढेर सारी बातें इंसान के साथ होती ही हैं, जिन्हें भुलाने की कोशिश करनी ही चाहिए.
बहुत ही सकारात्मक पोस्ट...बात व्यंग से आकर कहाँ आ पहुंची...बहुत बढ़िया लेखन
puri post hi khajuwate-khajuwate padh liya....ha.ha.ha........
.यह सब टूट इसलिए रहा है क्योंकि इसकी प्रथम इकाई मनुष्य रोज स्वस्थ मानसिक आहार के आभाव में अन्दर से टूट रहा है..
aapka ye lekh kisi davaa se kam nahi hai ...
बहुत अच्छे ढंग से आपने अपनी बात रखी ..बात वाकई सोचने लायक लगी और जहन में खुजली मचा गयी शुक्रिया
बहुत बढ़िया व उपयोगी लेख, काश लोग ध्यान से पढ़ें और समझें ! कुछ अलग सा लिखती हैं आप रंजना जी ! शुभकामनायें !
खुजली पुराण ... मज़ा आ गया पढ़ कर ... खुजली के भी इतने आयाम हैं सोचा नही जा सकता ......
मानसिक खुजली के लिय बी-टेक्स लोशन बनाने वाला तो नबल प्राइज पा जाये!
@ ज्ञानदत्त जी
बहुत से उपलब्ध हैं , खुजली कौन सी है उसपे आधारित है .
आज दिनांक 13 अप्रैल 2010 के दैनिक जनसत्ता में आपकी यह पोस्ट संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में सुख का निमित्त शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई।
ranjana ji
deri se aane ke liye maafi chahunga ...
shuru me to lekh kuch aur kahta laga , aur phir dheere dheere aapne jis tarsh se lef ki philosphy ke baare me varnan kiya ...main to bas padhta hi chala gaya ..
aap bahut accha likhati hai ji ... meri badhayi sweekar kijiye ...
aabhar
vijay
- pls read my new poem at my blog -www.poemsofvijay.blogspot.com
जनसत्ता में प्रकाशन के लिये बधाई
Vanee ji poorntaya sahmat hun!
आप का यह लेख फिर से एक बार सोचने पर मजबूर करता है कैसे तकीनीकी विकास से मानव ने अपनी सहजता खो दी है.
मानसिक स्वास्थ्य की देखभाल की उतनी ही ज़रूरत है जितनी शारीरिक स्वास्थ्य की.
भौतिक सुख के साधनों ने मानसिक वृद्धि पर लगाम लगा दी है आलस्य और हर काम को इंस्टेंट कर लेने कि ख्वाहिश..
आशा है इन साधनों का सही उपयोग लोग सीखे.प्रसन्न रहना सीखें.
शरीर के साथ साथ मानसिक विकास और स्वास्थ्य के लिए सुखद स्मृतियों की तालिका को दुहराते रहने की प्रवृत्ति बना लें.
कुरेद कुरेद कर पुरानी बातों से दुखी होना खुद को सजा देने सा ही है.
खुजा खुजा के घाव कर लिया " यह कहावत यूँही नहीं बनी होगी । इसे आप मानसिक खुजली के सन्दर्भ मे भी देख सकते हैं ।
खुजा खुजा के घाव कर लिया " यह कहावत यूँही नहीं बनी होगी । इसे आप मानसिक खुजली के सन्दर्भ मे भी देख सकते हैं ।
nice
पहली पंक्तियाँ पढ़ते हुए सोचा और मुस्कुराया लेकिन आप जाने कहाँ ले गयी हैं बात कि अब मौन हूँ. इतना सार्थक चिंतन. आप ने बहुत उचित बातें कही हैं और वे मन में बनी रहेंगी.
खुजली पुराण भा गया. आभार.
सब के बाद आई पर लेख बहुत भाया । जनसत्ता में प्रकाशन पर बधाई । शारिरिक खुजली से शुरू कर के मानसिक खुजली तक । मैं ऐसे बहुतसे लोगों को जानती हूं जो इससे पीडित हैं और इससे निकलना भी नही चाहते । परंतु आपकी बात सही है सकारात्मक सोच ही इससे उबरने का साधन है ।
खुजली के माध्यम से एक सार्थक लेख पढ़ा. ब्लॉग लेखन भी मानसिक खुजली का समाधान ही है.
जीवन को सुखी रखने का सही उपाय सुझाती है आप ....... धन्यवाद
जीवन की सकारात्मकता इसीमें है कि ' जो बीत गई सो बात गई'
bahut bhadhia.. sakaratmak soch ko prerna dene wala lekh..
नयी पोस्ट कब??
bada hi rochak vishay laga.. :)
आपने एक ऐसा विषय लेखन हेतु चुना जों एकदम अनूठा था .कोई और तो सोचता क्या लिखूं पर आपने जिस बुलंदी से सब्जेक्ट को उछाला कबीले दाद (खुझली वाला नहीं )है.मैं सोच रहा हूँ क्या कमेन्ट लिखूं आपने खुजली ,कारण ,रूप , आनंद,मनोविज्ञान व निदान सभी का तो उल्लेख कर दिया शायद वर्जित होने के कारण नैम्फोमानिया ही बच पाया है आपकी तीखी कलाम और वर्हद ओब्सेर्वेशन से.बाकि तो एक मुश्किल सब्जेक्ट पर खूब रोचक औरमनोरंजक लिखा है .
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