कॉलेज में एक हमारे प्रोफ़ेसर थे.भारी विद्वान् .अपनी विद्वता के बल पर कई सारे गोल्ड मेडल जुटाए थे उन्होंने. उनके नाम के साथ सदा फलां फलां विषय में " एम् ए, पी एच डी, गोल्ड मेडलिस्ट " लिखा रहता था. हमने कभी पढ़ा तो नहीं पर सुन रखा था कि उन्होंने कई सारी किताबें लिख डाली हैं.. पर जब वे विद्वान् प्रोफ़ेसर साहब हमे पढ़ाने आते तो क्लास में बैठे उनकी ओर दीदे फाड़े हमें अपनी आँखों से नींद भागने के लिए ठीक उतनी ही मसक्कत करनी पड़ती थी, जितनी अमेरिका को बिन लादेन को ढूँढने में करनी पड़ रही है...हम भगवान् से एकदम कलपकर मनाते कि कभी उन्घाये दुपहरिया में उन महामहिम का क्लास न पड़े..हर क्लास के ख़तम होने पर हम जी भरकर उस अनजाने व्यक्ति को गरियाते, जिसने इन्हें गोल्ड मेडल पकडाया और जिसने प्रोफ़ेसर बनाया. अगर अटेंडेंस पूरा करने की बाध्यता न होती तो शायद ही कोई विद्यार्थी उनकी क्लास अटेंड करता.प्रोफ़ेसर साहब विद्वान् चाहे जितने रहे हों पर पढ़ाने की कला का 'क' भी उन्हें नहीं पता था. खुद विद्वान् होना और दूसरे को विद्वान् बना देने की कला में बड़ा भारी अंतर होता है.
आज जब अपने प्रधान मंत्री जी की स्थिति देखती हूँ तो बरबस मुझे वही प्रोफ़ेसर साहब याद आ जाते हैं.हमारे प्रोफ़ेसर साहब भी बड़े ही भले मानुस थे और पहुंचे हुए विद्वान् भी,पर अध्यापन के जिस कर्म में वे संलग्न थे,एक तरह से विद्यार्थियों का भविष्य ही न चौपट कर रहे थे. अपने वृहत ज्ञान को विद्यार्थीयों के मन में उतनी ही कुशलता पूर्वक यदि वे उतार पाते ,तभी तो उनके ज्ञान की सार्थकता होती. भला नहीं होता कि वे बैठकर किताबें ही लिखते और विद्यार्थियों को एक ऐसा शिक्षक मिलता जो उनकी समझ के हिसाब से उन्हें विषय समझाकर विद्वान् बना पाता..
लोकतंत्र का ऐसा विद्वान् मालिक/नायक /कर्णधार किस काम का, जिसे अपने लोक का ही पता न हो..मन अत्यंत खिन्न और क्षुब्ध हो जाता है इनकी प्रशासन क्षमता देखकर.आखिर ऐसी भी क्या विवशता है, कि न तो ये देश के भीतर देश को तोड़ रहे तत्वों से निपट पा रहे हैं और न ही बाहरी विध्वंसक शक्तियों को प्रभावी ढंग से हडका पा रहे हैं..इनके एन नाक के नीचे भ्रष्टाचार पराकाष्ठा को प्राप्त कर चुका है, कैसे विश्वास करें कि इन सबमे इनकी संलिप्तता सह्भागिका या सहमति नहीं है ?? कैसे मान लें, तमाम भ्रष्ट और बेईमानो के बीच ये दूध के धुले पाक साफ़ हैं ? माना कि ये बस रबर स्टाम्प ही हैं और दिखावे भर के लिए ही कुर्सी इन्हें मिली है, लेकिन क्या उस कुर्सी में कोई शक्ति नहीं ?? यह कुर्सी क्या महज किसी मैडम के ड्राइंग रूम की कुर्सी भर है,जिसपर मालिकाना हक ये नहीं जता सकते ?? अरे कुछ नहीं तो ये स्वामिभक्त इतना तो स्मरण रख सकते हैं न, कि इस कुर्सी में देश की सौ करोड़ जनता की शक्ति है और कागज पर इन्हें जो अपरिमित अधिकार मिले हैं,वह कागज यूँ ही हल्की फुल्की हवा में उड़ जाने वाला कागज नहीं बल्कि उसपर सौ करोड़ जनता के हस्ताक्षर ने उसे इतना कीमती और वजनदार बना दिया है कि यूँ ही फूंक मार कोई उसे उड़ा नहीं सकता.. जो सत्य न्याय के पथ पर दृढ़ता से चलेंगे, देश के हर छोटे बड़े हित के लिए कठोर निर्णय लेंगे, तो भले इनका सारा कुनबा इनके विरुद्ध खड़ा हो जाए,जनता इनके पक्ष में ही रहेगी..और चाहे सब कुछ छोड़ दिया जाए,तो व्यक्तिगत तौर पर इतना मान इस कुर्सी का तो रख ही लेना चाहिए न कि आज इसी के बदौलत इनका यह खान पान और मान है.माना कि सरलमना स्वभाव से ही स्वामिभक्त हैं, तो कुछ वफादारी/जवाबदेही इनका कुर्सी/देश की जनता के प्रति भी बनता है या नहीं ??
यह भारत का दुर्भाग्य ही है कि आज इसके पास कांग्रेस का एक भी मजबूत और साफ़ सुथरा दृढ नैतिकता वाला विकल्प मौजूद नहीं है,नहीं तो कितना समय लगता इनकी जड़ उखड जाने में... एक समय इनके इन्ही रवैयों से मजबूर होकर जनता ने वर्षों के लिए सत्ता इनके लिए सपना बना दिया था.इन्हें क्यों नहीं लगता कि इनके लुभावने विज्ञापन जनता की आँखों को अधिक समय तक चुन्धियाये नहीं रख सकते.इनका विकल्प कोई हो या न हो पर मंहगाई भ्रष्टाचार का जो नंगा नाच अपनी खुली आँखों से जनता रोज देख रही है और पिस रही है,इतनी सरलता से इसे बिसरा मटिया देगी ?? और जो अगली बार फिर से खंडित जनादेश हुआ तो ये और कमजोर ही होंगे न...
आश्चर्य लगता है, घोटालों के जिस सच्चाई को सारा देश जान चुका होता है,जब जमकर उसपर हंगामा होता है,तो शीर्ष सत्ता आहिस्ते से हिलते डुलते हुए मिमियाती सी आवाज़ में कहने के लिए उठती है कि "इसे बर्दाश्त नहीं किया जायेगा,जांच कराई जायेगी " और हल्ला अधिक बढा तो मांग लिया इस्तीफा और बिठा दिया सी बी आई जांच..हंसी आती है,कौन नहीं जानता सी बी आई की सच्चाई,कि यह किसके अधीन है.सी बी आई या एक्स वाय जेड आयोग जो दशकों दशकों में चार्ज फ़ाइल करेगी और दोषी तो तबतक दुनिया से भी आराम से खा पीकर उठ चुका होगा, ऐसी तो है अपने यहाँ दंड व्यवस्था. नाग नाथ को कुछ समय के लिए पुचकारकर पद से हटाया और सांपनाथ को बैठा दिया कुर्सी पर...हो गया न्याय !!! क्यों भला कोई डरेगा घोटाला करने से ?? ऐसी सुविधाजनक स्थिति तो इमानदार को भी बेईमान बना दे,फिर पहले से ही भ्रष्ट बेईमान की तो बात ही क्या..
क्या इतना भोला अंजान और लाचार है शीर्ष नेतृत्व ,कि इतने इतने पैसे निकल गए और इन्हें पता ही नहीं चला.कुछेक पदाधिकारी,इने गिने मंत्री ,बस इतनों की ही संलिप्तता है इन हजारों लाखों करोड़ों करोड़ के घोटालों में..बाकी सारे के सारे निरीह और भोले ?? हजारों करोड़ का घोटाला हो गया और धराये मधु कोड़ा..क्या अकेले मधु कोड़ा,ए राजा, रामालिंगम राजू,सुरेश कलमाडी आदि आदि ने ही गटक लिया सारा पैसा ?? इस पूरे क्रम में ये और इनके नीचे वालों की ही संलिप्तता थी ?? क्या हम विश्वास कर लें कि इन इकलौते जांबाजों का ही हाजमा इतना दुरुस्त है ??
मधु कोड़ा एक निर्दलीय, झारखण्ड के मुख्यमंत्री क्यों बनाये गए ?? क्योंकि उस पूरे समूह में वही एक सबसे फिट कैंडिडेट थे,जिसके मुंह में जुबान,मन में हिम्मत और माथा में तिड़कमी दिमाग नहीं था.यही आदमी रबर स्टाम्प की तरह काम कर सकता था,जिसे जब चाहा जुतिया दिया ,जब चाहा चुमिया दिया और जो चाहा करवा लिया.लालू जी को क्या राजद में कोई योग्य व्यक्ति नहीं मिला था जब वे जेल नशीन हुए थे ?? या कि राजद के सभी योग्य नेताओं को रबरी देवी ही सबसे कुशल,सबसे योग्य प्रशासक लगी थीं ?? कोड़ा से मनमोहन तक,इन अनेक उदाहरणो का क्यों कैसे का हिसाब आम जनता के लिए इतना भी अबूझ नहीं रह गया है अब...
बस यही लगता है, क्या कभी भारत की वह जनता जो अपने बच्चों को भरपेट रोटी भले न खिला पाए,तन न ढांक पाए,इलाज न करा पाए और अच्छी शिक्षा तो यूँ भी बड़ी मंहगी है,सो सवाल ही नहीं उठता... नमक खरीदने पर दिए टैक्स से लेकर प्रत्यक्ष परोक्ष कदम कदम पर टैक्स भरती है,कभी जान पायेगी कि उसके पैसों का क्या क्या हो रहा है या इसे अनैतिक ढंग से किस किस ने और कितना कितना खाया ?? यह जनता क्या यह आस संजो सकती है कि जो इने गिने मंत्री संतरी जगजाहिर हो पकडाए भी, उनसे वह अपार धन वसूला जाएगा और वह धन सरकारी खजाने में जमा कर जनता को टैक्स और मंहगाई से राहत मिल जायेगी ?? क्या आम जनता यह अपेक्षा कर सकती है कि कभी भी किसी सरकारी महकमे में छोटे से छोटे काम से लेकर बड़े काम तक करवाने में उसे रिश्वत नहीं देनी पड़ेगी ?? क्या आम जनता मन में यह विश्वास रख सकती है कि लोकतंत्र के तथाकथित रक्षक की आत्मा जग जायेगी और वह सचमुच ही उसके आर्थिक सामाजिक धार्मिक सांस्कृतिक हितों की निरपेक्ष भाव से रक्षा करेगी ??
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19.11.10
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45 comments:
रंजना जी बहुत ज्वलंत मुद्दे को आपने उठाया है .. खास तौर पर जैसे सरकार २जी मुद्दे और सी डब्लुए जी मुद्दे पर फंसी है और व्यापक रूप से भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सरकार पर आरोप ला रहे हैं.. देश में अभी भूख, गरीबी, स्वस्थ्य जैसे मुद्दे गौण हो गए हैं... सार्थक आलेख के लिए आपका बहुत बहुत आभार !
खुद विद्वान् होना और दूसरे को विद्वान् बना देने की कला में बड़ा भारी अंतर होता है
man ki baat kah di aapne
bade hee jwalant mudde par lekh hai aapka
bhrshtachar kee ye aag sabheeko jhulsa kar rakh degee . loulup ka kab jaakar ant hoga koun jane......
kursee aur rupaiya bada ye hee sab maane .....
रंजना जी,
आपका लेख लोकतंत्र के नाम पर जनता की सेवा करने वाले तथाकथित नेताओं की पोल खोलती एक विकृत सच्चाई है ! यह बड़े ही दुर्भाग्य की बात है की नेताओं की कमाई दिन दूनी रात चौगोनी बढ़ती जाती है जबकि देश का किसान क़र्ज़ से तंग आकर आत्महत्या कर लेता है ! कर्नाटक में एक परिवार के सारे ७ सदस्यों ने भूख से बेहाल होकर बस इस लिए आत्महत्या कर लिया की उन्हें भीख मांगना मंजूर नहीं था ! ऐसे ही न जाने कितने लोग विवशता की ज़िन्दगी जीने को मज़बूर हैं और ये नेता लोग अपने ही देश को दोनों हाथों से लूट रहे हैं !
स्विस बैंक में जमा पैसे इस बात के गवाह हैं कि भ्रष्टाचार का ये खेल नया नहीं है!
इतनी अच्छी पोस्ट के लिए जितनी भी बधाई दी जाय कम है !
धन्यवाद !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
Ranjana jee, gussana mat!! lekin sachchai ye hai ki aaj ki aam janta ko bas kosna aa gaya hai........jabardasti ki baat ke liye bas kuchh bhi kah lo.....maan ko shanti ho jati hai........aisa hi kuchh apko padh kar laga.......aur I feel jeetne bhi comments aayenge sayad aapko support hi karenge........!!
lekin sach kahun har koi apne giraban me jhank ke kah de, usko agar 1000 rs. agar sadak pe mil jaye, to kya wo usko police station me jama karayega........
soch ke kahna!!
aaaj bhi mujhe lagta hai jab bahut saare baimaan ho to jo kam baiman deekhe, usko hame leader banana chahiye, aur hamare desh ne aisa hi kiya hai...........aur jo kiya wo sahi hai........:)
मुझे राजनीति में तो दिलचस्पी जरा भी नहीं है लेकिन आपकी यह बात मुझे अच्छी लगी-
...खुद विद्वान होना और दूसरों को विद्वान बनाने की कला में बड़ा भारी अंतर होता है।
jahan tak post ki baat hai, usme mera kya kahna.........wo to sarvottam hai, aapne jitne pyare dhang se apne professor ka udhaharn diya wo jaandaar hai........:)
बहुत बढ़िया लिखा है आपने इस विषय पर ...राजनीति मेरी भी कोई रूचि नहीं है क्यों की इतना गड़बड़ घोटाला है यहाँ हर जगह की कहीं भी विश्वास नहीं रहा अब ...सच्चे झूठे सब एक से दिखाई देते हैं ...
बहुत सुन्दर आलेख है ! पर एक बात कहूँगा ... उस कठपुतली से क्या उम्मीद की जा सकती है जिसे कोई और चला रहा हो ...
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अब तो मनमोहन जी से भी इस्तीफे कि मांग हो रही है। जो भ्रष्टाचार को रोक न सके बल्कि उसको बढाने में सहयोगी बन जाए उसे राष्ट्र-संचालन का अधिकार नहीं मिलना चाहिए। एक बेहतरीन आलेख के लिए बधाई।
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`अपनी विद्वता के बल पर कई सारे गोल्ड मेडल जुटाए थे '
थ्री इडियट्स फिल्म के प्रो. सह्स्र्बुद्धे की तरह :)
आपका आलेख हमें सोचने पर मज़बूर करता है। और मन में यह पंक्तियां गूंजने लगीं
सारा जीवन अस्त-व्यस्त है
जिसको देखो वही त्रस्त है ।
जलती लू सी फिर उम्मीदें
मगर सियासी हवा मस्त है ।
AAPNE SAHI KAHA HAI ... KHUD IMAANDAAR HAIN TO APNI IMAANDAARI KAAYAM BI RAKHNI CHAAHIYE ... IS POST PAR BAITA HUVA YAKTI BHI AGAR MAJBOOR HAI AUR VO BHI IS UMR MEIN ... TO YE DESH KA DURBHAGY HI HAI ... PICHLE 63 VARSHON MEIN LAGBHAG 45-50 VARSH CONGRESS NE HI RAAJ KIYA HAI AUR YAKEENAN VO HI JIMMEWAAR HAIN IASE HAALAAT KE LIYE ...
7/10
दमदार विचारणीय पोस्ट.
ऊपर cmpershad जी की प्रतिक्रिया बढ़िया है.
इस देश की रगों में भ्रष्टाचार इस कदर प्रवेश कर चुका है कि आम आदमी जमूरा बनकर हक्का-बक्का सा देख भर रहा है.
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सत्ता की तो बेशुमार खामिया हैं ही लेकिन साथ ही अब असरदार विपक्ष भी नदारद है.
भ्रष्टाचार की गति उर्ध्व है ...
सिर्फ शासन को दोष देना ठीक नहीं है , मजबूत विपक्ष का ना होना , या आम जनता का नेताओं से विश्वास उठ जाना इस दोषपूर्ण शासन व्यवस्था का प्रमुख कारण है !
खुद को भी लानत भेजते हैं कि समन्दर के किनारे बैठकर उसकी गहराई की बात कर रहे हैं !
ज्वलंत प्रश्न है ..आज पक्ष का नेता हो या विपक्ष का सब एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं ...इसीलिए यह भ्रष्टाचारासुर पनप रहे हैं ...
वह भला व्यक्ति क्या करे, एक ओर राजनीति की रस्सियाँ, दूसरी ओर अपेक्षाओं के तिक्त तीर।
रंजू जी!! का कीजिएगा.. हमरे सास्त्र में लिखा है कि खड़ाऊँ गद्दी पर रकहकर भी चौदह साल तक सासन चलता रहा है... ऊ राम राज था... रोम राज में भी ओही एक्स्पेरिमेण्ट बुझाता है हो रहा है अपने देस में एक बार दोबारा... का कहें हम.. हे राम!!
राजनीति काजल की कोठरी है और भारत लोकतंत्र के नाम पर सबसे बड़ा मजाक!
ये विद्वान अध्यापक वाली बात बहुत जमी. ऐसे बहुत उदहारण हैं. बहुत बड़े नाम. खुद का भी अनुभव हैं जिनकी किताबें पढते लगता था कि कितना ही विद्वान इंसान होगा. पहली बार मिले तो इतने खुश... जब दो क्लास कर ली उनकी तो सब फुस्स.
बढ़िया पोस्ट.
itni sahajta se itni badee samasya ko likhna ... bahut sahi laga
आप कितने ही ईमानदार हो...पर यदि समर्थ होने के बावजूद जब किसी निर्णय की अपेक्षा आपसे जुडी हो .ओर आप लाभ हानि तौल के जानबूझ कर तटस्थता ओढ़ते है .....तो आप उस बेईमानी का हिस्सा बनते है
koi der nahi hui , rachna bhej dijiye
आज के संदर्भ में दमदार आलेख प्रस्तुत करने के लिए बधाई।
..मुझे लगता है कि हमारी सामाजिक, राजनैतिक दशा ऐसी हो गई है कि बड़े-बड़े विद्वान भी इसमें आकर मात्र कठपुतली बन कर रह जाते हैं। सबसे पहले राजनैतिक सुधार आवश्यक है।
..सभी में सभी गुण नहीं होते। विद्वान अच्छा शिक्षक हो जरूरी नहीं। मुझे मंच पक खड़ा कर दिया जाय तो अपनी बात भी ठीक से नहीं रख सकूंगा। मेरे सामने महामूर्ख अच्छा भाषण देकर ताली बजवा लेते हैं..मैं सोचता ही रह जाता हूँ।..व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि जो जिस क्षेत्र में कुशल हो उसे ही वो काम मिले।
बहुत सही उदाहरण दिया है आपने। स्वर्णजटित लंका में सब बावन गज के, राक्षसराज हों चाहे प्रकांड पण्डित।
बेहतरीन...... सटीक और प्रासंगिक आलेख ..... यह एक ज्वलंत सवाल है.... जिसपर वैचारिक बहस बहुत आवश्यक है.... आपने ज़िक्र किया आभार
बहुत अच्छा आलेख है। सही मे जनता के पास कोई विकल्प नही है सिवा कि अन्धों मे काना राजा चुनने के। शुभकामनायें।
सारगर्भित पोस्ट सोचने को मजबूर करती हम कहाँ है
आज किससे अपेक्षा करें....... देश की हालत क्या है ?.. इस बारे में किसी को कुछ सोचना नहीं ..सब को अपनी - अपनी पड़ी है...यह देखकर अब भारतमाता रो पड़ी है ...शुक्रिया ..विचारणीय पोस्ट के लिए
चलते -चलते पर आपका स्वागत है
दीदे फाडे आंखेंा से नींद भगाने वैसी मसक्कत जो अमेरिका को करनी पड रही है बहंुत बढिया उपमा । सही भी है महामहिम से क्या कहना देखना तो उसे है जिन्हौने गोल्डमैडल दिया । एक बहुत ही सारगर्भित बात कि खुद विव्दान होने और दूसरों को विव्दान बनाने में बहुत अन्तर है। दूसरे पद का व्यंग्य तो लाजवाब है जनाब मौनीबाबा के बारे में । तीसरे पद में तो आपने अच्छी लताड ही लगादी है । मेरे क्षेत्र की भाषा में अगर कहूं तो आपने राजनैतिज्ञों की धज्जियां बिखेरदी है
Khud janana aur doosaron ko jankari dena do alg baten hain. Aapne jo bat kahee wo ekdam sahee hai par fir bhee Manmohan jee to jabardsti ke Pradhan mantri hain asal kam to Madam ke sir hilane ya na hilane se hee hota hai.
Very nice post Ranjanaji ब्लाग पर उत्साहवर्धक कमेन्ट्स के लिए आभार
brhatreen...sochniya post...!!
bahoot hi jwalant lekh. sahi mudde aapne uthaya hai......
सामयिक, यथार्थपरक एवं विचारोत्तेजक आलेख के लिए आभार.
सादर
डोरोथी.
kash! is sawal ka jawab dene ki zehmat is desh ke karndhar bhi uthate.
bahut achchhe dhang se prastut vishay!
रंजना जी
कौन कहता है ? महिलाये देश के मुद्दों को नहीं उठाती?ज्वलंत मुद्दे पर सशक्त आलेख |बधाई |
रंजना जी,
नमस्ते!
सार्थक आलेख.
आशीष
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नौकरी इज़ नौकरी!
सार्थक एवं सारगर्भित, साधुवाद स्वीकारें..
ज्वलंत मुद्दा .. सामयिक और सार्थक
आपके प्रोफ़ेसर साहब बहुत पसंद आये ईश्वर से प्रार्थना कर रहा हूँ कि वे फिर आपकी क्लास लें और हम आपके अनुभव जाने !:-))
बाकी कहानी में कुछ भी नयापन नहीं है ...:-(
आपके प्रोफ़ेसर अब कहाँ हैं ??
उन्हें आपका स्नेह बताऊंगा !
हार्दिक शुभकामनायें !
ekdam sahi likha hai ranjana ji...puri tarah sahmat...
धारदार और सार्थक लेखन !
इसी सन्दर्भ में मुझे हितोपदेश का एक श्लोक याद आता है : "मणिना भूषित सर्पः किमसो न भयंकरः ?"
माना की मनमोहन, चिदंबरम और बड़े नेता वेदेशी-देशी डिग्री/पदक के बल पर विद्वान् कहलाते हैं पर इनकी विद्वता तो सर्प के सामान ही अपने भारत देश को ही डस रही है.
ऐसी विद्वता किस काम की जो अपने ही देश की सेवा ना कर एक व्यक्ति/परिवार विशेष के चरण पूजन में लगी हो?
आपका आज का मीठा माने---तथा यह प्रो .से शुरू पी.एम्.सा ;वाला खरा -सच्चा आलेख पढ़ कर लगता है कि,"सुदेशी और सुराज" आन्दोलन चलाया जाना अवशायाम्भावी हो गया है.लेकिन अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता .स्वामी विवेकानन्द ने कहा है-यदि मुट्ठी भर लोग मनसा ,वाचा ,कर्मणा संगठित हो जाएँ तो सारे संसार को उखाड़ फेंक सकते हैं.मैं खुद अपने ब्लाग के माध्यम से वर्तमान प्रचलित कुव्यवस्था को हटाने हेतु ढोंग व पाखंड का विरोध कर रहा हूँ.
लेख बहुत ही सारगर्भित है।बहुत अच्छा है। विचारणीय है।
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