बच्चे से कुल औ गाँव के आँख के तारे रहे हैं हमरे पवन भैया.बड़े परतिभा शाली.दसवीं में बिहार बोर्ड में टॉप किये रहे और उनका बम्पर नंबर उनको सीधे सीधे इंजीनियरिंग कालेज के गेट्वा के अन्दर ले गया..गणित विज्ञान इतना तगड़ा रहा उनका कि उहाँ भी टॉप किये और उनका रिजल्ट पर न जाने कितने कम्पनी वाले लहालोट हुए. अंततः एक बड़का नामी कम्पनी उनको लूट अपने इहाँ ले जाने में सफल हुआ.उर्जा से ओत प्रोत भैया को शायद ही कभी किसीने थकते या परिश्रम से उबते देखा बरसों बरसों में.घर घर में गार्जियन लोग अपने बच्चों को उनके नाम पर कनैठी दिया करते थे..
एक दिन संझा काल में उनसे मिलने गए तो देखते का हैं कि भाई जी दफ्तर से आकर निढाल भुइयें पर पसर गए हैं.हमको बड़ा अजीब लगा, लाड़ से हम पूछे ,का बात है भाई जी, तबियत उबियत ठीक तो है न ?? का हुआ,चेहरवा ऐसे कुम्हलाया काहे है ?? लाइए, हम गोड़ दबा देते हैं,पांच मिनट में एकदम चकाचक फ्रेस हो जाइएगा..त भैया थके थके सुर में बोले,अरे नहीं रे छुटकी ,रहने दे, गोड़ नहीं मुडी दुखा रहा है..हम कहे, काहे...मुडिया में का हो गया ???? त भैया कहे, भारी कसरत कर के आ रहे हैं रे ...हम कहे....कसरत...दफ्तर में ??? और कसरत किये भी त, उमे मूडी कैसे दुखा गया ??? त बताये कि छः घंटा भाषण दे के आय रहे हैं..दिक्कत भाषण में त नहीं था, पर तिहरा ट्रांसलेशन कर कर के मथवा पिरा गया है..
बात त सहिये है..अब भाय, हम सबको सदा से आदत है अपना बात अपना मातृभाषा में ही सोचने का, त पाहिले त मातृभाषा में सब बात /सोच को सजाओ ,फिर उको ट्रांसलेट करो राष्ट्र भाषा हिन्दी में और फिर सबको अंगरेजी में रूपांतरित करते हुए जिभिया घुमाय घुमाय के , शब्दन को चबाय चबाय के सबके सामने परोसो और ऊ भी किनके सामने, जो ज्ञान लेने को नहीं बल्कि भरब एडभरब और टेंस का गलती पकड़ने को हाथ मुंह खोलकर सामने बैठे हुए हों.. सबसे ज्यादा कोफ़्त तो ई सोचकर होता है कि स्रोता समाज में एको आदमी ऐसा नहीं जो हिन्दी नहीं जानता समझता है,लेकिन विडंबना देखिये कि अपने ही लोगों के सामने ज्ञान बघारने और भारी बने रहने के लिए हमको अंगरेजी चुभलाना पड़ता है..मन भारी नहीं होगा ई परिस्थिति में त और का होगा..
बड़ा दिक्कत है भाई, हमरे ज़माने में बाकी विषय तो छोडिये अन्ग्रेजियो हिंदिये में पढाया जाता था. तीसरा चौथा किलास में जाके गुरूजी शुरू होते थे...बोलो बच्चों - ए से एप्पल, एप्पल माने सेब !!! बी से बैट, बैट माने बल्ला !!! सी से कैट,कैट माने बिल्ली....!!! लय ताल में इसे गवा दिया जाता था और हम भी रस लेके इसे घोंट जाते थे..ई लयकारी दिमाग का भित्ती पर ऐसे जाकर चुभुक के चिपट जाता था कि फिर मरते घड़ी तक दिमाग से ए से एप्पल और बी से बैट नहीं निकलता था.एही लयकारी का बदौलत दू एकम दू और दू दूनी चार का पहाडा कम स कम पच्चीस तक आज भी ऐसे दिमाग में संरक्षित है कि एक बार ऊ लय में पहाडा पटरी पर डाले नहीं कि सब ध्यान के सामने नाच उठता है..
खैर,समय बदल गया है.अब लयकारी वाले रटंत विद्या का जमाना नहीं रहा.पहाडा पढके हिसाब करने का श्रम और समय कौन लगाये.यन्त्र उपलब्ध है,बटन दबाओ और दन से बड़का बड़का नंबर का हिसाब राफ साफ़.. लाख ज्ञान होते हुए भी हमरे ज़माने के लोगों को जो आज भी कसरत करनी पड़ती है समय के साथ कदम ताल कर टाई वाला बनाने में. जीभ निकाल कर जिन्दगी के ई फास्ट चूहे दौड़ में हाँफते पिछुआये भागते चले जा रहे हैं,पर रास्ता पार नहीं पड़ रहा.पर अब बहुत हुआ, हमारे अगले जेनरेशन को ई सबसे निजात मिलना ही चाहिए. भला हो सरकार का जो हमलोगों की समस्या को भली परकार समझी है,इसीलिए तो अंगरेजी अब ओप्सनल विषय नहीं मुख्य विषय बना दिया गया है इस्कूली शिक्षा में..खाली एक विषय क्या ,बल्कि अब तो सारे ही विषय अंगरेजी में ही पढने पढ़ाने की सुगम व्यवस्था है अपने देश में.पांच हजार मासिक कमाने वाला अभिभावक भी आज अपने बच्चों को अंगरेजी माध्यम इस्कूल में ही पढ़ाता है.
देश के ई छोर से ऊ छोर तक गली गली चप्पे चप्पे पर सरकारी, गैर सरकारी ,सहकारी,बेकारी (बेरोजगार युवकों द्वारा चलाई जाने वाली) अंगरेजी इस्कूलों का जाल बिछ गया है और जोर शोर से पूरा परबंध कर दिया गया है कि देश में एक भी बच्चा ऐसा न बचे जिसे इस तिहरे ट्रांसलेशन के बोझ तले दबे कुचले रहना पड़े. गैर सरकारी बड़का इस्कूल सब में तो अंगरेजी ज्ञान के प्रति इतनी सजगता है कि एक तरह से अंगरेजी का रोड रोलर ही चला दिया जाता है बच्चों पर. इस्कूल प्रांगन में रहते कोई बच्चा अगर अपने संगी साथी या शिक्षक से अपनी मातृभाषा या हिन्दी में बतिया ले तो इससे कठोर दंडनीय अपराध और दूसरा कुछ भी नहीं होता..
जरूरी है भाई,एतना सख्त नियम न रहे तो बच्चा सीखेगा कैसे. खुद गम खाए माँ बाप भी आज जबरदस्त सजग हो गए हैं.बच्चा शब्द बोलने भर हुआ कि नहीं उसको नाक आँख कान नहीं नोज आईज और इयर ही सिखाते हैं. और जो वाक्य बोलने भर हुआ तो बा बा बलैक शीप आ ट्विंकल ट्विंकल लिटिल इस्टार तुतलाते आवाज पर रोप देते हैं. इका माने का हुआ,अब यह नहीं बताया जाता. अंगरेजी का हिन्दी माने बताना अब बड़ा ही हेय दृष्टि से देखा जाता है.माना जाता है कि बच्चा बोलते बोलते और सुनते सुनते सब समझने लगेगा.बित्तन बित्तन भर के बच्चों को टीचर अंग्रेजी में हांक देते हैं और बच्चे भंगिमा देखकर अंदाजा लगा लेते हैं कि उन्हें क्या बोला जा रहा होगा. सहिये है , जबतक सोच के स्तर तक अंगरेजी न बिछे आदमी को इस ट्रांसलेशन रोग से निजात कैसे मिलेगा..भाई, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर झंडे गाड़ना है,हिन्दुस्तान को बुलंदी पर पहुँचाना है तो उसके लिए बहुत जरूरी है कि मातृभाषा और राष्ट्रभाषा के मोह से आदमी किनारा करे और खाए पिए सोचे समझे सब खालिस अंगरेजी में...
लेकिन ई पुनीत अभियान में फिल्म विज्ञापन तथा दृश्य संचार माध्यम तंत्र बड़ा रोड़ा अटका रहा है.. अब बताइए कि एक तरफ तो आदमी परेशान है देसी भदेसी भाषा से पीछा छुडाने में और बाजार को इसी सब भाषा पर भरोसा है. उसको लगता है कि एही भाषा का घाघरा पहिन उसका प्रोडक्ट घर घर में घुस पायेगा. कहीं बीडी जलाइले गाना सिनेमा में ठूंसकर सिनेमा हिट कराने का लोग जुगत भिड़ाते हैं तो कहीं चुलबुल पाण्डेय के बिहारी इस्टाइल दिखाकर लोगों को लुभाते हैं. हम पहुँच गए बिना 'माने' कहे ए फॉर एप्पल और बी फॉर बाल पर...और अमिताभ बच्चन साहब कह रहे हैं- मीठा माने ??? अरे समझे सर,मीठा माने केड्बरीज चाकलेट ..पर सर ऐसे माने माने कहके सिस्टम न बिगाडिये.केतना मोसकिल से तो ई माने से पीछा छूटा है.
असल में आपलोग डेराते बहुत हैं.आपको लगता है देसी भदेसी भासा का पंख पर अपना प्रोडक्ट बैठा दीजियेगा तो यह सफल उड़ान उड़ लेगा.लेकिन ऐसा नहीं है आप चाहे देसी हिन्दी में परचारिये या अंगरेजी में, अंगरेजी खान पान रहन सहन को अपनाने घर से निकल चुकी जनता को केवल ई जानकारी भर मिल जाए कि ई है अंगरेजी इस्टाइल ,बस जनता उसे सर माथे लगा अपने दिल में जगह दे देगी.
का कहे विस्वास नहीं हो रहा....
अरे !!!
देख नहीं रहे ,आज की हमारी पीढी भात दाल को नहीं पिज्जा बर्गर और मैगी को ही खाद्य पदार्थ समझती है. आइसक्रीम और चाकलेट स्वतः ही उसके द्वारा मिष्टान्न रूप में स्वीकार्य हो चुकी है.रोजाना एक गिलास बियर पीना उसे स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक लगने लगा है. हाय सेक्सी...!!! आज हमारी बालाओं को गाली नहीं काम्प्लीमेंट लगती है.किशोर वय यदि बिना ब्वाय गर्ल फ्रेंड और डेटिंग के निकल जाय तो इन्हें जीवन और जवानी धिक्कारने लायक लगती है.पैर छूकर परनाम नहीं किया जाता आज, जानना मर्दाना एक दुसरे से मिलते हैं तो गाल से गाल सटाकर हवा में चुम्बन फायर किया जाता है...इतना सब तो हो गया है और क्या चाहिए. अरे अंगरेजी रंग में जितना आज हम भारतीय रंगे हैं, उतना तो किसी पश्चिमी देश का मजाल नहीं कि रंग जाय..तो फिर और माने काहे को समझा रहे हैं. निश्चिन्त रहिये ...आप अन्ग्रेजिये में सब परचारिये न...बिक्री बट्टा होगा ही होगा..बल्कि हम तो कह रहे हैं कि अभी जेतना हो रहा है उससे बहुत जेयादा होगा.काहेकि अंगरेजी भाषा और प्रोडक्ट भारतीय को बिना कोई प्रमाण के ही अपार विश्वसनीय लगता है..
..................
14.12.10
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56 comments:
बज्र देहात में रहते हैं का जी ? एकदम डूब के काढ़े हैं यहाँ... हमको रेणु याद आ गए जो बैलगाड़ी में जुते बैल के गले की घंटी की टुनटुन भी लिख मारते थे..
बेजोड़... मौलिकता से साह आंचलिक भाषा को समृध्ध करता लेखन ... बाह... बाह... चब्बास!
आपका यह आलेख ऐसा लग रहा है कि मैं स्वयं लिख रहा हूँ... अपने लिए.. पहले तो मैथिलि में सोचता हूँ.. फिर हिंदी करता हूँ उसको.. और फिर आर पी सिंह के इंग्लिश ट्रांस्लेसन किताब के फार्मूले पर ढाल कर अंग्रेजी लिखता हूँ... बहुत सही कह रही हैं आप... अच्छा लगा अंदाज़...
अमिताभ बच्चन साहब कह रहे हैं- मीठा माने ??? अरे समझे सर,मीठा माने केड्बरीज चाकलेट ..पर सर ऐसे माने माने कहके सिस्टम न बिगाडिये
ये माने बहुत ज़बरदस्त लिखा है ...व्यंग के साथ विचारणीय पोस्ट
akarshak avam sunder lekh..
praktikaran bahut umda..
nice.
आधुनिकता का अन्धानुकरण पतन की तरफ ले जा रहा है।
बेहतरीन व्यंग !
बड़ी नगद लिखें हैं आप. पढि के मन परसन्न हो आया.
इसके लिए आप बहुत जोर से साधुबाद और परनाम डिजर्भ करते हैं.
परनाम विथ साधुवाद!!!
वाह सही चित्रं किये हो जाने कहाँ जाएगा यह घोर कलजुग :) बेहतरीन अभिव्यक्ति
सहजता से किया गया तीखा व्यंग्य।
..ढेरों बधाई।
क्या कहूँ.....आपके भीतर एक गजब का सेन्स ऑफ़ ह्यूमर है .....ओर उसे कागजो में उतारने का हुनर भी.....सच कहूँ...आपके ऐसे लेख आप पर बहुत सूट करते है .बिंदास होकर लिखिए ....हम जैसे बहुतेरो का भला होगा......
रंजू बहिन!
बुझाता है हमारा दोकान में "सब कोई चल गया, बुढवा लटक गया" वाला तलवा लगाइए के मानियेगा... मगर कुच्छो हो जाए, हमहूँ गोड मूडी एक कर देंगे, मैदान से डोलने वाले नहीं हैं..
खैर मजाक बहुत हो गया...
मिजाज हरियर हो गया पढकर... हमको तो अन्गरेजियो मद्रासी में बोलना पड़ता है... बॉस को समझाने के लिए.
मजा अ गया!
आपने इस व्यंग्यात्मक आलेख के माध्यम से बहुत खरा -खरा सच कहा है.आज़ाद भारत में अंगरेजी ज्यादा ही फ़ैली है.अपने स्व को भुलाया जा रहा है.आज "सुदेशी और सुराज " आन्दोलन चलाये जाने की महती आवश्यकता है.
bhai bahut hi badhiya likho ho .kabhi mahre blog par bhi aaiyo ''''http://vicharonkachabootra.blogspot.com.''''
अंगरेजी रंग में जितना आज हम भारतीय रंगे हैं, उतना तो किसी पश्चिमी देश का मजाल नहीं कि रंग जाय
सही है .. बहुत सुंदर व्यंग्य !!
बहुत शानदार आलेख बन पड़ा है। यह भोजपुरी नहीं है, बल्कि भोजपुरी माध्यम की हिंदी है। लगता है इस आलेख को लिखने में आपको दुहरा ट्रांसलेशन भी नहीं करना पड़ा होगा।
बिंदास शैली में बहुत गम्भीर समस्या की ओर ध्यान दिलाया है आपने। पढ़कर ज्ञान अर्जित करने के बजाय हमारा बहुत सा समय तो पढ़ने के लिए उपयुक्त भाषा सीखने में जाया हो जाता है। जबतक हम स्थानीय भाषा से शुद्ध हिंदी और फिर अंग्रेजी का सहारा लेना सिकते हैं तबतक बहुत समय निकल चुका होता है।
हमारा दायित्व है कि हिंदी में सभी प्रकार के विषयों से सम्बंधित ज्ञान का भंडार विकसित किया जाय। जबतक हिंदी हमें रोजगार दिलाने वाली भाषा नहीं बनेगी तबतक इसका कदम बहुत दूर तक जाता नहीं दिखायी देता है।
आधुनिक बनने की एक अंधी दौड़ चल पड़ी है..... इसमें जो अपना है... सही है.... उसे छोड़ पराया अपनाने की रेस चल रही है.... बहुत अच्छा और सार्थक लेख ......
आप ने लेख के संग संग उन अंधी दोड दोडने वालो की भी अच्छी खबर ली जो आधुनिकता के नाम पर पता नही क्या बेकार की बाते करते फ़िरते हे, यह सब किस ओर जा रहे हे इन्हे खुद नही पता, धन्यवाद
हम तो अपने भारत ऑफिस के लोगों से हिंदी में ही बतिया लेते हैं . ठेठ :) ऐसे: 'अबे वो देख लेना इस पोर्टफोलियो में २००७ के हिसाब से कितना घाटा होगा और रेट २५ बिप्स बढ़ा के एक सिनारियो बनाओ मैं तुम्हें आधे घंटे में कॉल करता हूँ'... अब अपने ही दोस्त हैं उनसे अंग्रेजी तो नहीं बोल रहा मैं... जिसे दिक्कत हो रही हो होए.
आपकी पोस्ट की रचनात्मक सौम्यता को देखते हुए इसे आज के चर्चा मंमच पर सजाया गया है!
http://charchamanch.uchcharan.com/2010/12/369.html
आधुनिकता और अंग्रेजी से परहेज नहीं मगर ये तो सोचना चाहिए कि हम अपनी अंग्रेजियत दिखा किसे रहे हैं ...हिन्दुस्तानियों को दिखाकर फायदा क्या है ...अंग्रेज तो इस पर हँसेंगे ही ...जापानी , रुसी , चीनी तो अंग्रेजी को भाव ही नहीं देते हैं ...मगर अंग्रेजी सबसे जरुरी हमारे हमारे अपने देश में ही हो गयी है !
अभी त सुरुए किए रहे कि ऊ कनैठी बीच में आ गया, बहुते कनैठी ऐसन केतना भैया केनाम पर पड़ा है, अउर आपकी ये रचना पढ के उसका दरद कान के बगल में महसूस होने लगा।
@ हम भी रस लेके इसे घोंट जाते थे..ई लयकारी दिमाग का भित्ती पर ऐसे जाकर चुभुक के चिपट जाता था कि फिर मरते घड़ी तक दिमाग से ए से एप्पल और बी से बैट नहीं निकलता था.एही लयकारी का बदौलत दू एकम दू और दू दूनी चार का पहाडा कम स कम पच्चीस तक आज भी ऐसे दिमाग में संरक्षित है कि एक बार ऊ लय में पहाडा पटरी पर डाले नहीं कि सब ध्यान के सामने नाच उठता है..
का बात कहे हैं, एकदम्मे अपना जमाना का पढाई का सिसटम मन पर गया।
@ अंगरेजी अब ओप्सनल विषय नहीं मुख्य विषय बना दिया गया है इस्कूली शिक्षा में..खाली एक विषय क्या ,बल्कि अब तो सारे ही विषय अंगरेजी में ही पढने पढ़ाने की सुगम व्यवस्था है
छुटकी!
याद है हमरे जमाने में एगो डिभिजन होता था ‘पास बिदाउट इंगलिस’!!!!!
@ अपने देश में.पांच हजार मासिक कमाने वाला अभिभावक भी आज अपने बच्चों को अंगरेजी माध्यम इस्कूल में ही पढ़ाता है.
हम त सुरुए से अंगरेजी इसकुल के खिलफ़ रहे। अपने त बिहार के मिडिल इसकुल अउर ज़िला इसकुल में पढे अउर बचबा सब को भी केन्द्रीय बिदयालय अउर बंगा्ल के बंगला माध्यम के इसकुल कलेज में पढाए। देखे जिनगी में कुछ बनता है कि नहीं, आपके आसीस से पोस्ट ग्रेजुएसन त करिए रहा है।
@ इस्कूल प्रांगन में रहते कोई बच्चा अगर अपने संगी साथी या शिक्षक से अपनी मातृभाषा या हिन्दी में बतिया ले तो इससे कठोर दंडनीय अपराध और दूसरा कुछ भी नहीं होता..
एगो हमलोग का जमाना था कि कोई अगर हिन्दी में बतिया ले त इसकुल क छौरा सब कहता था कि बदा अंगरे जी छांट रहा है ... हाहाहा...
बाऊ .... नहीं बूझे ... अरे अंगरेजी में का कहते हैम ... WOW!
अब बुझाया न त अब त हम अपना भी मारकेट भैलू बढाने के लिए अंगरेजिए में अपना बात कहेंगे
एकदम्म फ़स किलास फ़स्स राइटिन्ग! (पास बिदाउट इंगलिस बाला) ...! भेरी गुड्ड टाइप! मूड हैप्पी! थैन्कू!
जबरिया अंग्रेजी में बात करने का जोर डालकर बच्चों की अभिव्यक्ति को सीमित करने का प्रयास चल रहा है। भविष्य में इसके प्रभाव अवश्य देखने को मिलेंगे।
मीठा माने तो एक पोस्ट पर 100 कमेन्ट की हकदार हैं आप। आपका ये देसी रंग मैने पहली बार देखा।बहुत बढिया। जोर का झटका धीरे से [मीठे से} बधाई।
kuch meetha ho jaaye...
khoobsurat lekha ranju ji!
रंजू जी,
आपका पोस्ट परध के हिरदय गदगद हो गया..... अब का बताएं... हम भी आपही के इस्कुलवा के आखिरी खेप हैं........ ! और आपके आलेख के भैय्या की वेदना हम से बेसी कौन महसूस कर सकता है... ? हम तो बिहारी (मैथिली+मगही+भोजपुरी+अंगिका+बज्जिका) हिंदी और अंग्रेजी के खिचरी पकाने के लिए परफेसनली कमिटेड हैं. का बताएं दीदी........... मूडी का दरद तो हमरो बड़ा पछारे रहता है. बांकी ई आलेख के अन्दर जो व्यंग्य है उ सुधी भारतीय समझ जाएँ तब तो लाइफ झिंगालाला............. ! ई लेख पर हमरे तरफ से धनवाद, इलाहबाद, हैदराबाद..... सब लीजिये. खाली जहानाबाद नहीं. सुने हैं उधर भारी खतरा है.
आज चुनी गई थी मेरी एक रचना चर्चामंच पर /
वही से देखा आपको /बड़ा ही अच्छा लग रहा है जुड़ कर
पहले तो इस सार्थक और पुरकशिश लेख के लिए बंधी स्वीकारें
जब पढना सुरु किया तो ऐसा लगा की पता नहीं इस बार क्या लिखा है कुछ समझ नहीं आ रहा था फिर जब पढ़ते हुए आपके लेखन के भाव सागर में उतरे तो ऐसा लगा जैसे आपने हमारे ही मन के भावो का शशक्त प्रस्तुति की है ...दुनी तीस ,ती पैतालीस ...सही कहा आपने क्या rythem था पहाड़ो का भी .बचपन याद आ गया
कुछ जुदा अंदाज..पसंद आया जी..बधाई.
'सप्तरंगी प्रेम' के लिए आपकी प्रेम आधारित रचनाओं का स्वागत है.
hindi.literature@yahoo.com पर मेल कर सकती हैं.
बहुत ही लच्छेदार भाषा में लिखा आपका लेख हास्य, व्यंग और बहुत कुछ सोचने को मजबूर करता है ... आज क माहोल देख कर सच में लगता है की भारत में आने वाले १०-१५ वर्षों में एक ऐसी पोध तैयार हो जायेगी जो दुबारा से विदेशों के इशारे पर नाचने लगेगी ... वैसे आज भि है ऐसी परिस्थिति पर आगे आगे दुर्दशा बढती जायगी .... आधुनिकता की इस रफ़्तार को रोकना अब आसान्नाही है ... अभी से प्रयास करने पर भि अगले ५-१० साल लग जायेंगे पर अभी तो सब दौड़ रहे हैं ....
रंजना जी बहुतै बढ़िया प्रस्तुति आप कैयेनी ... ई देश तै आँख बंद कइके अंग्रेजियत के पीछे दौर लगा रहल बाये..... आंचलिक भाषा में इस पोस्ट ने मन मोह लिया.. सुंदर प्रस्तुति....
( www.srijanshikhar.blogspot.com ) )
सुन्दर प्रस्तुति, आपके द्वारा दिए गए मार्गदर्शन का सदैव स्वागत रहेगा, सुझाव के लिए आत्मीय साधुवाद.
काहेकि अंगरेजी भाषा और प्रोडक्ट भारतीय को बिना कोई प्रमाण के ही अपार विश्वसनीय लगता है..
Dilchasp aur maanikhez. Mazaa aayaa.
आज तो पूरे फार्म में हैं आप. बेहतरीन आलेख !
utsahvardhan ke liye aabhar behtareen aalekh jo aanchlikata ki mithhas liye hai man ko bha gaya badhai
पूरे लेख के दौरान एक मुस्कान बिछी रही होंटों पर :)जबर्दस्त्त व्यंग लिखा है.
बेहतरीन..बाँध के रखने वाली ख़ुशी है इस व्यंग में... पर विषय कि गंभीरता को कहीं से कमजोर नहीं होने देता..
आभार!
bahut achcha laga.ekdam sahi baat likhin hain.
हम भी सोचते हैं कि अरहर और टमाटर की जगह सीधे पिज्जा और नूडल्स के पौधे न लगने लगें। :)
आधुनिकता और अंग्रेजियत पर करारा प्रहार किया है आपने।
आपके इस व्यंग्य आलेख ने मेरे मन पर गहरा प्रभाव छोड़ा है।
आपकी लेखनी की धार पूरे शबाब पर है। बधाई।
---------
छुई-मुई सी नाज़ुक...
कुँवर बच्चों के बचपन को बचालो।
आज की हमारी पीढी भात दाल को नहीं पिज्जा बर्गर और मैगी को ही खाद्य पदार्थ समझती है
इसीलिए तो बदहजमी हो रही है ! बहुत सुन्दर लेख !
अति सुन्दर भावाभिव्यक्ति......।
सद्भावी-डॉ० डंडा लखनवी
अरे वाह रंजना जी पसंद आया ये रंग । पसंद क्या आया बिल्कुल बचपन उछलता कूदता सामने चला आया । माने, तो मानो हमारा चना चबैना था । कैट माने बिल्ली रैट माने चूहा लेकिन दिल दिमाग तो अब अंग्रेजी के कब्जे मे है । आज की अंग्रेजी सभ्यता की अंधी नकल पर क्या तडातड लगाये हैं । उनकी अच्छी चीजें जैसे समय से काम करना, अपना काम बेहतरीन करना, ईमानदारी ये सब तो हमें दिखती नही, दिखती है बस, फैशन के नाम पर नंगई, बच्चों को जबरन अंग्रेज बनाने की होड उद्दंडता जितना कहें उतना थोडा । बहुत बढिया लेख ।
रंजना जी,
आज अंग्रेजी भाषा जिस तरह हमारे ऊपर हावी होती जा रही है, आपके व्यंग्य ने उसपर करारा चोट किया है ! पश्चिमी सभ्यता ने हमारी संस्कृति और सभ्यता को तहस नहस कर डाला है ! स्थिति बड़ी गंभीर है ,हम क्या कुछ बचा पाएंगे ? आपके लेख ने सोचने पर विवस कर दिया !
प्रभावी एवं चिंतनीय आलेख के लिए धन्यवाद !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
बहुत सही लिखा है आप ने..और बड़े ही मीठे मीठे अंदाज़ में मीठी मीठी भाषा में ...मीठा माने....:)...!
bara nimann likhte hain....aap to....
'desil baina' par jate rahiye......
aapko gor lagta hoon.
ओह दीदी ...कहाँ हैं आज कल आप?
काफी दिनों पर आपकी टिप्पणी देख कर खुशी हुई...इस तरह भूल गयी अपने भाई को?
पंकज झा.
बड़ा दिक्कत है भाई, हमरे ज़माने में बाकी विषय तो छोडिये अन्ग्रेजियो हिंदिये में पढाया जाता था. तीसरा चौथा किलास में जाके गुरूजी शुरू होते थे...बोलो बच्चों - ए से एप्पल, एप्पल माने सेब !!! बी से बैट, बैट माने बल्ला !!! सी से कैट,कैट माने बिल्ली....!!! लय ताल में इसे गवा दिया जाता था और हम भी रस लेके इसे घोंट जाते थे
shaandaar aalekh hai ye
नमस्कार जी
बहुत खूबसूरती से लिखा है. आपने
मन मोह लिया...
बहुत ही सुन्दर लिखा है आपने ...बधाई इस मीठे के लिये ....।
आपकी बहुमुखी प्रतिभा को सादर नमन !!!
विचारों का सुलझापन ......भाषा पर अपनापन .....लिखने में दनादन ...भई वाह ! गद्य से पद्य ....हिन्दी से भोजपुरी तक ...कमाल है ........अब ज्य़ादा नहीं कहूंगा नहीं त आप कहियेगा ई इतना मक्खनबाजी काहें कर रहे हैं मिसिर जी
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