21.6.10

प्रेम से तुमने देखा जो प्रिय !!!

प्रेम से तुमने देखा जो प्रिय,
मन मयूर उन्मत्त हो गया.

विदित हुआ मुझ में अनुपम सा,
सब कुछ प्रकृति प्रदत्त हो गया.

मन-चातक यूँ तृप्त हुआ ज्यों,
स्वाति का वह नीर पा गया.

जेठ की तपती दोपहरी में ,
वसुधा ने बरसात पा लिया...

रख लो हे प्रिय उर में भरकर,
घुल सांसों संग बहूँ निरंतर.

चाहूँ भी तो ढूंढ न पाऊं,
स्वयं को खो दूँ तुममे रमकर.

न ही चाहना धन वैभव की,
न ही कामना स्वर्ग मोक्ष की.

हृदय तेरे बस ठौर मिले औ,
मुखाग्नि पाऊं तेरे कर...


=========================

9.6.10

शिक्षा और आत्मविकास

कथा कहानियों से मेरा लगाव संभवतः जन्मगत ही था ,जो स्वतः ही मुझे इसके विभिन्न श्रोतों से सदैव ही जोड़ता रहा..कथा संसार में तन्मयता से विचरण कर नित नवीन अनुभव प्राप्त करना और उसे जीवन सन्दर्भ में देखना गुनना मुझे अतिशय प्रिय था. बचपन में नयी कक्षा में जाने के बाद जैसे ही नयी पुस्तकें मुझे मिलती , कक्षा में पढाये जाने की प्रतीक्षा किये बिना मैं उन्हें चाटने बैठ जाया करती. सबसे पहले हिंदी की पुस्तक फिर इतिहास की और जब सब चाट चुकती तो भूगोल आदि की पुस्तकें मैं घोंट जाया करती..इनके साथ पाए रोमांचक अनुभव मुझे असीम तृप्ति दिया करते..

आगे कॉलेज शिक्षा क्रम में भी मैंने साहित्य, इतिहास,समाज शास्त्र तथा राजनीति शास्त्र ही मुख्य विषय रूप में लिया,जो अंतत स्नातकोत्तर में साहित्य के साथ संपन्न हुआ..परन्तु एक बड़ी भारी समस्या थी..इतिहास की पूरी पुस्तक कहानी या उपन्यास की तरह तो मुझे कंटस्थ रहती , पर घटनाक्रमों की तिथियाँ और उलटे पुल्टे नाम मेरे मस्तिष्क से कभी चिपक न पाते.. इसी तरह राजनीति शास्त्र में भी सिद्धान्तकारों की उक्तियों/सिद्धांतों को जो कि लगभग एक से ही हुआ करते थे, उन्हें रटना और शब्द प्रतिशब्द परीक्षा में लिख पाना मुझसे कभी न हो पाया...मुझे लगता, सबने लगभग एक ही बात तो कही,फिर क्या फर्क पड़ता है कि वाक्य में किस शब्द का प्रयोग किया गया...

जहाँ एक ओर सैद्धांतिक (किताबी) तथा व्यावहारिक राजनीति (व्यवहार में राजनीति जिस रूप में है) में मुझे कोई साम्य न दीखता और फलतः इसकी उपयोगिता संदिग्ध दीखती थी वहीँ इतिहास भी मुझे रटने नहीं सीखने की बात लगती थी..मुझे लगता था,हजारों हजारों वर्ष का इतिहास हमें सिर्फ यही तो सिखाता है कि हमें अपने आज को कैसे सुखद बनाना है,क्या करने से बचना है और क्या अवश्य ही करना है..घटनाक्रमों की तिथियों में मगजमारी कर उन्हें रटने से अधिक आवश्यक है दुर्घटनाओं से सीख ले आगे के लिए सतर्क सजग रह जीवन और जगत में खुशहाली के लिए सचेष्ट रहना .वस्तुतः व्यापक रूप में शिक्षा का उद्देश्य मुझे आत्मविकास के अतिरिक्त और कुछ नहीं लगता...

दिनानुदिन शिक्षा का संकुचित होता उद्देश्य मुझे बड़ा ही विछुब्ध करता रहा है और यही समस्त विसंगतियों का भी कारण लगता है. हम चाहे कोई भी विषय ,कितना भी पढ़ जाएँ और विषय पर लाख विशारद्ता हासिल कर लें, नए नए अविष्कार कर लें,एक से बढ़कर एक नवीन कीर्तिमान स्थापित कर लें ,जब तक हम अपना नैतिक विकास नहीं कर लेते,एक सच्चा और अच्छा मनुष्य नहीं बन जाते , क्या हम सुशिक्षित होने का दंभ भर सकते है और सच्चे अर्थों में जीवन में सुख पा सकते हैं ?? आज शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य धनोपार्जन रह गया है और ऐसे में हम कैसे अपेक्षा कर सकते हैं कि व्यक्ति परिवार समाज और देश सुसंस्कृत, सुगठित और शांत रहेगा..

देखिये न, रोज तो नए नए अविष्कार हुए जा रहे हैं, भौतिक सुख सुविधाओं के उपकरणों से घर और बाज़ार अटे पटे पड़े हैं, पर मनुष्य रोज थोडा और अशांत ,थोडा और अकेला, थोडा और भयभीत होता चला जा रहा है. अशांत छटपटाता दिग्भ्रमित मनुष्य कुछ और साधन जुटा उसमे सुख ढूँढने बैठ जाता है.उसे लगता है,फलां सामान यदि वह खरीद ले तो पूरा संतुष्ट हो जायेगा और फिर उस सामान को जुटाने के लिए धन कमाने की होड़ में जुट जाता है..

वय का एक हिस्सा डिग्रियां जुटाने में, दूसरा हिस्सा डिग्रियां भंजा उपकरण जुटाने में और तीसरा हिस्सा भौतिक विलासिता में डूब अबतक क्षरित रोगयुक्त काया को रोगमुक्त करने के प्रयासों में जुट मनुष्य संपन्न करता है ..जीवन जो इस उद्देश्य और महत्वाकांक्षा संग आरम्भ हुआ कि येन केन प्रकारेण अधिकाधिक धन जुटाना है,विलासिता के साधन जुटाना है अंततः अशांति और व्याकुलता ही पाता है. जिसके पास जितना धन वह उतना ही अधिक व्याकुल. संसार का एक मनुष्य नहीं जो यह कहे,नहीं बस इतना ही मुझे चाहिए,इससे अधिक अब एक पैसा नहीं...

ऐसा नहीं है कि आज निचली कक्षा से लेकर ऊपरी कक्षाओं के पाठ्यक्रमो तक में चरित्र निर्माण या नैतिक उत्थान के पाठ्य सामग्री नहीं हैं. सत्य बोलना,आचरण को शुद्ध व्यवस्थित अनुशाषित तथा उद्दात्त रखने वाले पाठ नहीं हैं, पर समस्या यह है कि उन अच्छी बातों को भी इस तरह पढाया जाता है,जिसे बच्चे केवल रटने और परीक्षा में अंक लाने भर की उपयोगिता योग्य समझते हैं.व्यावहारिक रूप में न ही परिवार में अभिभावक अपने बच्चों में यह बैठा पाते हैं कि वे उन्हें शिक्षा इसलिए दिलवा रहे हैं ताकि उनके संस्कार परिष्कृत हों, उनका आत्मोत्थान हो और न ही शैक्षणिक संस्थाओं द्वारा व्यावहारिक रूप से यह प्रयास किया जाता है. आज व्यक्तित्व निर्माण अर्थोपार्जन के सम्मुख पूर्णतः गौण हो चुका है.मुझे तो सदैव ही यही लगता है कि आज जो शिक्षा व्यवस्था है वह मनुष्य नहीं भेड़ों की भीड़ तैयार कर रही है,जिसमे प्राण तो हैं पर चिंतन योग्यता नहीं..

ऐसे समय में मुझे रामायण ,महाभारत भगवतगीता आदि की उपयोगिता, प्रासंगिकता जो कि तेजी से हमारे घरेलू परिवेश आचरण और विश्वास से त्यज्य हुए जा रहे हैं, कुछ अधिक ही लगती है. इन के कथाओं में उल्लिखित पात्र,उनके जीवन चरित्र और परिस्थितियां वस्तुतः कोरे सैद्धांतिक नहीं,बल्कि पूर्णतः व्यवहारिक हैं,जो कि मनुष्यमात्र के विवेक और संस्कार का परिष्करण पुष्टिकरण और मार्गदर्शन करने की क्षमता रखते हैं..जबतक परिवार समाज का आस्तित्व इस धरती पर है,किसी भी धर्म पंथ के अनुयायी समाज के लिए यह प्रासंगिक रहेगा. इनकी शिक्षाओं में आज भी वह शक्ति है जो समाज को दिशा दिखा मनुष्यमात्र का नैतिक उत्थान कर सकती है. यह अलग बात है कि पूर्वाग्रह ग्रस्त हमारी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष सरकार इन से सम्बंधित पुस्तकों को पूर्णतः एक धर्म विशेष की पूजा पाठ संबंधी पुस्तकें ठहरा इन्हें पाठ्यक्रम से बाहर रखना ही श्र्येकर मानती है...

इन परिस्थितियों में गंभीरता से हमें विचार करना होगा कि हमें अपने और अपने संतान के सुख के लिए आत्मोत्थान के इन माध्यमो से जुड़ना ही होगा ,जीवन दृष्टिकोण को वृह्हत्तर करना ही होगा. संतोष और शांति साधन में नही होता बल्कि यह तो मनुष्य के ह्रदय में ही अवस्थित होता है,बस शाश्वत चिंतन द्वारा इस शक्ति को जागृत कर पाया जा सकता है..



----------------------------------------------