(भाग - २)
सबकुछ बड़ा बढ़िया चल रहा था कि एक दिन बाबा के गुरुभाई ने अपने शिष्य के हाथों बाबा को खबर भिजवाई की जीवन की अंतिम घड़ी में वे उनका सानिध्य सुख चाहते हैं.उनकी अस्वस्थता ऐसी है की किसी भी घड़ी साँसों को समेटना पड़ सकता है.. अपने आत्मीय की रुग्णता की खबर ने बाबा को व्याकुल कर दिया और तत्क्षण वे चलने को उद्धत हो उठे , पर अचानक उनके उठे पैर ठिठक गए..उन्हें ख़याल आया की आश्रम तो सेवक सम्हाल लेगा,पर ठाकुर जी की पूजा सेवा कौन करेगा..इस सम्पूर्ण प्रक्रिया से तो वह पूर्णतः अनभिज्ञ है ...और ऐसा कि यह इतनी लम्बी चौड़ी प्रक्रिया कोई दो घड़ी में तो सिखाई नहीं जा सकती थी..बाबा अत्यंच चिंतित.. परेशान... कि क्या करें, क्या न करें..पर सेवक अपने मालिक को चिंतित रहने देता ? उसने आश्वस्त किया कि कौनो चिंता न करें,बस क्या करना है ई बता दें, सब हो जायेगा..बाबा दिमाग लगाये कि इतना कम टाइम में मंतर उंतर रटाने और विधि कंठस्थ कराना तो संभव है नहीं , सो इसको इसकी समझ के हिसाब से ऐसे सब समझाते हैं कि रटाया हुआ बात बराबर इसके ध्यान में रहे और ठाकुर जी का पूजा सेवा ठीक ठाक होता रहे..तो बाबा सेवक को समझाने लगे...देखो बचवा, ई जो ठाकुर जी हैं न, हमरे मालिक,हमरे प्राण ही नहीं हमरे बच्चे जैसे भी हैं, जितना और जैसा सेवा तुम हमरा करते हो, उससे भी दस गुना आगे बढ़कर इनका करना ..इनका खूब खूब खूब ख़याल रखना... टोटल में ई समझ लो कि पहले जैसे धनिकराम जी की और अब मेरी सेवा तुम करते हो उससे दस गुना आगे बढ़कर तुम इनकी करना और अब आज से इन्हें ही अपना मालिक समझना...फिर शार्ट कट में उन्होंने सेवक को समझा दिया कि ठाकुर जी को ऐसे सुबह में उठाना है, नहलाना धुलाना, चन्दन टीका लगाना है, फूल माला इत्यादि से श्रिंगार कर चारों पहर खूब प्रेम से उन्हें भोजन कराना है.. और जो वो भोजन कर लें, तभी स्वयं प्रसाद खाना..सब समझा बुझा के बाबा ने भण्डार की चाभी ,जिसमे कि साल भर से अधिक का राशन संरक्षित था, सेवक को पकडाया और निकल पड़े गंतब्य की ओर..
ठाकुर जी को दुपहरिया तक का भोजन पानी तो बाबा ने करा दिया था,सेवक का ड्यूटी उसके बाद से शुरू हुआ. आजतक सेवक ठाकुर जी के मंदिर गया न था,उसका ड्यूटी बाहरे बाहरे रहता था, इसलिए उधर के हाल चाल का उसे कोई अंदाजा न था..लेकिन बाबा ने जितना भरोसा उसपर किया था और जो जिम्मेदारी उसको दिया था तो हर हालत में सेवक ने उसपर खरा उतरना ही था..तो उसने अपने अगले कर्तब्य की ओर ध्यान लगाया और सोचा कि अभी तो ठाकुर जी भोजन कर विश्राम कर रहे होंगे,तो चलो चलकर उनका गोड़ दबा देते हैं, उन्हें बड़ा सुख मिलेगा.. यह सोच हौले से किवाड़ खोल वह अन्दर गया...पर यह क्या, अन्दर पहुँच देखता क्या है कि ठाकुर जी का बिछौना एक तरफ आ ठाकुर जी दूसरे तरफ..होंठों पर बंसिया धरे आ टांग में टांग फंसाए मुस्कुराते हुए खड़े हैं..
सेवक को लगा, हो सकता है अभी इनका सोने का मूड न हो, बंसिया ही बजाना चाहते हों..तो कल जोड़ कर उनके सामने बैठ गया और पुचकारते हुए बोला..ठीक है मालिक, चलिए बंसिया ही बजाइए, हम सुन रहे हैं..और टकटकी लगाकर उनके तरफ देखने लगा..बड़ी देर हो गई इन्तजार करते..सेवक हर थोड़ी देर पर बोलता....हूँ ... तो मालिक सुरु किया जाय, हम सुन रहे हैं..पर पोजीशन वही का वही..सेवक परेशान, कि ई का बात हो गई भला, ठाकुर जी सुरु काहे नहीं कर रहे..इतना बोल रहे हैं ,पर न हूँ कर रहे हैं न हाँ..आ बजाने का तो सवाल ही नहीं...
फिर सेवक ने दिमाग लगाया..आज पहला बार हमको देखे हैं न..हो सकता है इसीलिए हमरे सामने झिझक रहे हैं.. चलो,यहाँ से निकल के किवाड़ उन्ग्ठा देते हैं, अकेले में सायद गा बजा लें..ई सायद सेवक का ही गलती है..काहेकि बाबा जी भी खिला पिलाकर ठाकुर जी को एकांत में छोड़ देते थे..जबतक उनका मन होता होगा बजाते होंगे और जब मन करता होगा सो जाते होंगे..कान पकड़ कर माफी मांग सेवक बाहर निकल आया और बाग़ बगीचे की सफाई कर शाम का खाना बनाने में जुट गया..
संध्या हुई और सेवक दिया बत्ती करने मंदिर में पहुंचा..किवाड़ खोलता है तो देखता क्या है कि अभीतक ठाकुर जी उसी पोज में खड़े हैं..सेवक परेशान !!! ई क्या बात हुई है..न हिल रहे हैं, न डोल रहे हैं न बंसिया बजा रहे हैं क्या हो गया इन्हें..आ इतने देर से ऐसे खड़े खड़े जो हाथ पैर मोड़े हुए हैं, सब तो अकड़ उकड़ गया होगा..सेवक उनसे हाल चाल , समस्या पूछने में डट गया कि मालिक कहें तो उनके हिसाब से सेवा करे..पर मालिक तो मौन के मौन..थक गया सेवक पूछते पूछते पर मालिक ने तो जैसे मौन व्रत धर लिया था. चिंता से व्याकुल सेवक, कि ऐसी क्या भूल हो गई उससे कि मालिक अनबोला व्रत ले लिए...उसे याद आया कि कभी कभी जब धनिकराम उससे खिसिया जाते थे तो ऐसे ही चुप्पी साध लेते थे और कुछ करके भी न बोलते थे..ऐसे समय में उनके आगे पीछे डोल कितनी मिन्नतें करनी पड़ती थी, कितना सेबना पड़ता था .. तभी उसे ख़याल पड़ा कि इ सब चक्कर में तो रात ही हो गया और ठाकुर जी को खाना ही नहीं दिया उसने..घबराकर कान पकड़ माफी मांगते और मन में अनुमान लगाते कि हो सकता है इसके वजह से मालिक औरो खिसिया गए होंगे, वह खाना लाने भागा..
खूब बढ़िया से परोसकर और उनके सामने चौका लगाकर भोजन लेकर वह बैठ गया और मिन्नतें करने लगा कि अब गुस्सा छोडो और दो कौर खा लो प्रभु..पर प्रभुजी, न टस न मस..अनुनय विनय करके जब थक गया सेवक तो ख़याल आया शायद इसी लिए बाबा बोले थे कि ई खाली हमरे मालिक नहीं संतान सामान हैं..अब देखने में भी तो इतने छौने से ही हैं आ बाबा भी तो लगता है दुलार उलार करके इनको तनिक जादा ही सनका दिए हैं, इसलिए तो ऊ ऐसे हठी बने हुए हैं...अब कैसे समझाएं इन्हें..ई जो दुनू हाथ से बंसुरिया धरे हैं,पाहिले उसको छोड़ें तभी न भोजन ओजन करेंगे..बस आगे बढ़ सेवक ने मुरलिया छीन कर धर दी एक तरफ और लगा हाथ को सीधा करने...गजब का चमत्कार हुआ ,ठोस पत्थर के उस मूरत का हाथ बिना टूटे सीधा हो गया और मुरलिया सेवक के हाथ...
सेवक को पहली जीत मिली..और उसे समझ आ गया कि अधिक दुलारने से यहाँ बात नहीं बनेगी..छोटे से छौने से ही तो हैं ठाकुर जी, ठीक हैं कि मालिक यही हैं, पर इन्हें तनिक अनुशासन में रखना पड़ेगा..चलो यह तो हो गया..अब जरा इन्हें खिला देना है और फिर जम के इनका तेल पानी कर देना है, ताकि इनका अकडा हाथ पैर तनिक सीधा हो जाए..पर पुचकारते पुचकारते भोर हो गया और ठाकुर जी भोजन करने चौके पर जीमे ही नहीं..सेवक को लगा कि हो सकता है बाबा जी का विछोह ठाकुर जी से नहीं सहा जा रहा होगा, इसीलिए भोजन भात त्यागे हुए हैं..सो तनिक मन वन बहलाना पड़ेगा इनका ताकि इनका ध्यान बँट जाए आ ई खाने को राजी हो जाएँ...
फिर क्या था, जितने स्वांग सेवक भर सकता था, उसने ठाकुर जी के सामने भर लिए..नाचा, गाया, ढोल मृदंग बजाई,तरह तरह के मुंह बनाकर ,चुटकुले सुनाकर उनका मन मोहने की कोशिश की, पर सब बेकार गया..अगला दिन भी पूरा दिन ऐसे ही बीत गाया. तीसरा दिन भी ऐसे ही निकला..सेवक कभी बुकार फाड़ के रोये ,कभी गाये ,कभी पुचकारे,पर किसी बात का कोई असर उनपर हो ही नहीं रहा था..इस बीच ठाकुर जी को बिछौने पर सुला और तेल पानी लगाकर सेवक ने उनके पैर भी सीधे कर दिए थे..अब उसे कोई उपाय न सूझ रहा था,जो कर वह काम बना पाता..तब आया सेवक को गुस्सा..उसने सोचा ,जो बाबा जी लौटकर आयेंगे और देखेंगे कि इसने खाना पीना त्याग अपना हाल बेहाल कर लिया है, तो कितना दुखी होंगे..तो चलो जो प्यार से बात नहीं बन रही है तो रार से ही सही...बस बाहर जा एक मोटा सोंटा ले सेवक लौटा और ठाकुर जी पर चिन्घारा..ढेर हुआ प्यार दुलार..जदि दो पल के अन्दर उठकर अच्छे बच्चे की तरह खाना नहीं खाया न..तो आज ठीक ठाक मरम्मत करूँगा आपकी, फिर चाहे बाबाजी मेरी जान ले लें..
और चमत्कार हुआ..जैसे ही सेवक ने सोंटा घुमाया, मुरलीधर अच्छे बच्च की तरह आकर चुपचाप बैठकर खाने लगे..सेवक के हाथ का सोंटा जहाँ का तहां स्थिर रह गया और सारा गुस्सा झरकर आँखों से बहने लगा..जो मन गुस्से से जल रहा था ,उतनी ही तीव्रता से ग्लानि की आग में दहकने लगा..कि आजतक किसी भी मालिक के आगे जो आँखें सीधी न उठी थीं, वो आज इनके सामने न केवल उठीं बल्कि इन्हें मारने को भी चल निकला था वह..धडाम से सेवक गिर पड़ा स्वामी के चरणों में.. ठाकुर जी ठठाकर हंस पड़े..और सेवक को उठाते हुए बोले..अरे मैं तो चुहल कर रहा था..तुम्हे पता नहीं मुझे स्वांग भरने, खेलने में कितना आनंद आता है..अब चुप भी करो,मुझे खाने दोगे कि नहीं, तीन दिन से भूखा हूँ..चलो जाओ, भागकर जरा चटनी और ले तो आओ ,कितनी स्वादिष्ट बनी है..
मन भर आया सेवक का,गला रुंध गाया..भागा वह चटनी लेने..खूब प्रेम से परोस परोस आग्रह कर कर के उसने भोजन कराया ठाकुर जी को..भोजन कर चुके तो ठाकुर जी ने भी पुचकार पुचकार कर सेवक को खाना खिलाया..और फिर आग्रह कर उसे अपने कक्ष में ही ठहरा लिया..अब, आगे का का बताएं भैया ...फिर तो लीला ही लीला,,लीला ही लीला..
क्रमशः :-
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27 comments:
तभी तो कहते हैं की भोलों के भगवान् होते हैं :)
फिर क्या हुआ !
भक्ति का शिखर छूती कथा
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सुज्ञ: ईश्वर सबके अपने अपने रहने दो
प्रेम भक्ति की पराकाष्ठा है रंजना जी !
भगवान् भाव के ,प्रेम के भूखे हैं ..
अति सुन्दर
सच भोलो के ही भगवान होते है |
करमा बाई का खिचडा याद आ गया
थाली भरकर लाई खीचड़ो ,
ऊपर घी की वाटकि (कटोरी )
जिमो म्हारा श्याम धणी जी
जिमावे छोरी जाट की .......
बहुत ही रोचक कथा और उतना ही रोचक लिखने का अंदाज |
धन्य भाग!
आखिर भगत की भक्ति रंग लाई । महाराष्ट्र में संत नामदेव जी के नाम से ऐसी ही कथा प्रचलित है ।
bada aanand aaya.kramashah pasand nahee aaya
आगे ?
Shraddha ki bat to main nahin karoonga. parantu ismen jo roopak hai vah bada prabhavi aur prasangik hai.
मंत्र-मुग्ध कर देने वाली रचना । वाह...
क्या हिन्दी चिट्ठाकार अंग्रेजी में स्वयं को ज्यादा सहज महसूस कर रहे हैं ?
बहुत ही रोचक रचना, सेवक का अपने स्वामी पर अधिकार पूर्ण होता है।
क्रमशः :- लिख कर हमे ब्रेक मारने पढते हे,बहुत सुंदर कहानी, धन्यवाद
हाँ भक्ति के भाव फलते ही हैं....
अद्भुत ....!!
मानों तो मैं गंगा माँ हूँ ...
न मानों तो बहता पानी .....
बहुत ही सुंदर पोस्ट रंजना जी बहुत बहुत बधाई |
बहुत ही सुंदर पोस्ट रंजना जी बहुत बहुत बधाई |
निश्छल भक्ति क्या न करा दे
मूरत को भगवान् बना दे!
भगवन को नादान!
अनुभूतियों को शब्द दिए है. सुंदर पोस्ट रंजना जी बहुत बहुत बधाई.
भक्त और भगवान के बीच में केवल प्रेम और विश्वास ही फल फूल सकता है . कहानी पढ़कर सुबह सुबह भक्ति रस में गोते लगा लिए . आगे की कड़ी का इंतजार . आभार .
वाह रे प्रभु तेरी लीला ..और आपकी कलम की लीला भी कुछ कम नहीं खूब मन को उद्दव्लित करती है
पिछले दो दिन से पढ़ रहा था. मेरा मतलब इस अद्भूत और सुन्दर कथा को सुन रहा था.
प्रथम भाग में रोचकता और हास्य का मिश्रण भी अच्छा लगा.
आप बस जारी रहें.
पहला भाग इसलिए रोक लिया था पढने से कि क्रमशः नहीं झेला जाता, लेकिन यहाँ दूसरी बार भी...
लेकिन अभी लोभ संवरण नहीं हुआ, मन मोह लेने वाला लेखन है ये।
आगे क्या हुआ जानने की उत्सुकता है, जरा जल्दी लिखेंगी इसकी अपेक्षा भी।
आभार।
दोस्तों क्या आप जानते हें 4 जून को डेल्ही में बाबा रामदेव इस भ्रस्ताचार के खिलाफ एक आन्दोलन करने जारहे हे अधिक जानने के लिए ये लिंक देखें
http://www.bharatyogi.net/2011/04/4-2011.html
जय हो सेवक राम की...
भक्ति रस में डूबी कथा मन को भाव-विभोर कर गई। पहला भाग पहले पढ़ा था आज फिर पढा़..आनंद आ गया ।
वाह .. इस कथा ने हमें भी (थोड़ी देर के लिए ही सही) भक्ति रस में डुबो दिया ...
भक्ति में ही शक्ति होती है...... अच्छी कथा.
अद्भुत कहानी है. निश्छल प्रेम की अद्भुत कहानी. आगे जाकर पढता हूँ कि क्या होता है.
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