(भाग -१)
ढेर दिन तक लिखाई पढ़ाई से किनारे रहो तो दिमागी हालत एकदम से भोथराये गंदलाये काई कोचर आ जलकुम्भी से युक्त उस पोखरिया सी हो जाती है जो ढेर दिन तक बिना पानी के आवक जावक,आमद खर्चा के सीमित परिधि में कैद रहे.. विचार प्रवाह भी ढेरे दिन तक कुंद बाधित रहे तो दिमाग का हालत कुछ ऐसा ही बन के रह जाता है..और दीर्घ अंतराल उपरांत इससे उबरने का कोशिस करो भी तो बुझैबे नहीं करता कि शुरुआत कहाँ से किया जाय...का पढ़ा जाय, का लिखा जाय....भारी भारी कन्फ्यूजन !!! पर जो हो, निकलना तो पड़ेगा ही इससे..तो करते ऐसा हैं कि इससे उबरने को ऊ नुस्खा आजमाते हैं,जो माइंड रिफ्रेश करने ,अनमनाहट भागने के लिए हम बचपन में किया करते थे. छुटपन में जब कभी मन ऐसे ठंढाता सुस्ताता था, इसका उंगली पकड़, इसको खिस्सा कहानी का स्वप्निल संसार में ले जा के घुमा आते थे, आ बस एक बार उधर से हो के ई आया नहीं कि कई कई दिन तक एकदम चकचकाया रहता था.. अब ऐसा है कि ई काम हम अकेले अपने आप में भी कर सकते हैं..पर का है कि चित्त को जबतक उत्तरदायित्व का रस्सा से कस न दीजिये, इसका सुस्ती और फरारीपना ख़तम नहीं होता... इसलिए इसको ई समझाए हैं कि खिस्सा आपको अपने लिए मने मन नहीं दोहराना है,बल्कि स्रोता समाज को सुनना है,आ कथावाचक का कर्तब्य तब समाप्त होता है जब खिस्सा समाप्त हो जाय..
त चलिए अब फालतू का बात बंद, आ सीधे खिस्सा शुरू :-
तनिक पुराने ई उ ज़माने का खिस्सा है जब जल्मुक्त धरती पर जितने बड़े भूभाग में बस्ती बसा रहता था, उससे बीस तीस गुना बड़े भाग में जंगल पहार पसरा रहता था..आमजन बस्तियों में और समाज को दिशा देने वाले, आत्मा परमात्मा आ सत्य संधान में लगे रहने वाले साधु संतजन जंगलों में रहा करते थे..त ऐसे ही किसी बस्ती के बाहर दूर तक पसरे जंगल में छोटा सा पर फल फूलों से लदकद गाछ वृच्छों से घिरे अतिमनोरम, अतिपावन आश्रम में बाबा रामसुख दास जी का बसेरा था.. बाबा पहुंचे हुए संत थे..उनका पुन्य प्रताप आ सात्विकता ऐसा था कि आस पास का पूरा क्षेत्र पावन पुन्य तीर्थ बन गया था..वहां पहुँच मनुष्य तो क्या हिंसक पशु भी हिंसा भाव भूल परम शांति पाते थे.. माया के मारे लोग यदा कदा बाबा के आश्रम में पहुँच उनसे आशीर्वाद आ मार्गदर्शन ले जीवन सुखी सुगम बनाते रहते थे...
लेकिन जमाना कोई भी हो,अच्छे बुरे लोग हर समय संसार में हुआ करते हैं आ सात्विक धार्मिक लोग अपने आस पास घटित होते गलत को देख सदा ही दुखी उदास खिन्न ह्रदय समय को कोसते समय काटते रहते हैं.. ऐसे ही असंतुष्टों में माता लक्ष्मी के कृपापात्र सेठ धनिकराम भी थे ...घोर धार्मिक प्रवृत्ति के सेठ जी पर पता नहीं कितने जन्मों का वांछित संचित था कि उनको पत्नी, पुत्र सभी घोर धर्मभ्रष्ट मिले. असल में हुआ ई कि अधवयसु में बियाह किये थे और बियाह से पाहिले छानबीन किये नहीं कि चित्त प्रवृत्ति से स्त्री है कैसी. बस गरीब घर की कन्या की सुन्दरता देखी और उसे गुदड़ी का नगीना मान शीश पर सजा लिया. उनकी धारणा थी कि अभाव और दरिद्रता स्वाभाविक ही चरित्र को उदात्त बना देती है,ह्रदय को विशालता देती है.. पर विपरीत हुआ. स्त्री निकली घोर तामसिक प्रवृत्ति की.. उसको जो सबसे पहले खटका वह पति का धार्मिक सुभाव ही था. पति को अपने अनुरूप बनाने की उसने यथेष्ट चेष्टा की पर जब विफलता उसके हाथ लगी तो उग्र विद्रोहिणी ने अपने साथ साथ अपने संतानों को भी घोर पथभ्रष्ट बना लिया...पुत्रों के बड़े होने तक तो सेठ जी ने किसी तरह सब निबाहा पर उमर के साथ साथ माता के संरक्षण में उनकी उद्दंडता ऐसी बढ़ी कि धनिकराम जी अपने जीवन से ही ऊब गए..एक दिन जब अति हो गया तो उन्होंने घर त्याग दिया और जीवन त्याग देने के विचार से घर से निकल पड़े. घर से निकलते समय अपनी तरफ से तो उन्होंने सर्वस्व त्याग दिया था, पर विगत बीस वर्षों से छाया की भांति उनका साथ निभाने वाले उनके विश्वासपात्र सेवक सेवकराम ने उनका साथ ठीक इसी तरह न छोड़ा जैसे जीवन की अंतिम बेला तक धर्म मनुष्य का साथ नहीं छोड़ता..
बस्ती बस्ती , जंगल जंगल भटकते भटकते दोनों बाबा रामसुखदास के आश्रम में पहुंचे.. धनिकराम आश्रम क्या पहुंचे, कि जैसे उनका पाप का कोटा ओभर आ पुन्न का कोटा ऑन हो गया...ऊ तो एकदम्मे जैसे नया जनम पा लिए. बाबा का सात्विक सानिध्य उनके लिए अलौकिक था....अध्ययन मनन, धर्म चर्चा, पेड़ पौधे तथा पशुओं की सेवा, आगंतुकों की सेवा आदि में स्वर्गिक आनंद पाते हुए उन्होंने अपना बचा समय अत्यंत सुखपूर्वक बिताया और फिर अपने प्रिय सेवक को बाबा को सौंप एक दिन स्वेच्छा से अपना जीर्ण शरीर त्याग गोलोकगमन किया..
सेवकराम जन्मजात घोषित अभागा था..जन्मते ही माता जहान छोड़ चली थी और जो छः बरस का हुआ तो पिता भी माँ का साथ निभाने ऊ लोक को निकल पड़े.. जाते जाते अच्छा बस इ किये कि नन्हे सेवक को सेठ धनिकराम को सौंप गए ...पुश्तों से सेवक राम का परिवार धनिकराम परिवार का सेवक रहा था.. नमकहलाली उनके रगों में था.. नन्हे सेवक ने भी जनमघूंटी में ही यह पिया था कि इस धरती पर साक्षात दिखने वाले भगवान् के प्रतिनिधि, मालिक ही होते हैं.. भगवान् दुनिया के पालनहार और मालिक इनके पालनहार.. इसलिए इनके डाइरेक्ट भगवान् मालिक हैं.. मालिक का कहा हर वाक्य उसके लिए भगवान् का वाक्य था, उपेक्षा या संदेह का तो कोई प्रश्न ही न था..
माता के जाने का तो उसको ज्ञान न था, पिता गए तो खूब रोया था, क्योंकि लोग बाग़ रो रहे थे और उसे समझा रहे थे कि पिता जिस दुनिया में गए हैं, वहां से कभी लौटकर नहीं आयेंगे..लेकिन धनिकराम का जाना वह सह नहीं पा रहा था..धनिकराम एक साथ ही उसके माता पिता और मालिक सभी थे..हालाँकि मालिक ने उसकी निष्ठा बाबा को ट्रांसफर कर दी थी, इसलिए टहल बजाने में वह कोई कोताही नहीं बरतता था, पर दिल का घाव तो घाव ही था, ऐसे कैसे तुरंत मिट जाता...
पर भाग का बलवान था सेवक ..धनिकराम चले भी गए तो जो वास उसे दे गए थे, वह बड़े बड़े दुखों के पहाड़ को पल में ढाह देने वाला था..ऊपर से बाबा का स्नेहिल व्यवहार..जल्दी ही सेवक के हृदयासन पर वे विराजित हो गए और पूरे प्राणपन से वह आश्रम तथा बाबा की सेवा टहल में लग गया.. उसके आसरे बाबा एकदम निश्चिन्त से होते चले गए. ठाकुर जी की पूजा और भोग आदि लगाने के कार्य के अतिरिक्त सभी उत्तरदायित्व सेवक ने अपने पर ले लिया..ऐसा भक्त चेला पा बाबा भी अपने भाग्य को सराहने लगे..
क्रमशः :-
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40 comments:
छुटपन में जब कभी मन ऐसे ठंढाता सुस्ताता था, इसका उंगली पकड़, इसको खिस्सा कहानी का स्वप्निल संसार में ले जा के घुमा आते थे, आ बस एक बार उधर से हो के ई आया नहीं कि कई कई दिन तक एकदम चकचकाया रहता था
आपका ए खिस्सा भी शानदार रोचक है बार बार पढ़ने को मन कर रिया है.मन चकचका गया है आगे का खिस्सा पढ़ने को बेताब है.
मेरे ब्लॉग पर भी आयें आपका हार्दिक स्वागत है.
आपका मन चक चकाया नहीं तो झक झकायेगा तो जरूर.
kahaani rochak lagi ranju ji....aage ki kadi ka intezaar rahega...
maine bhi nayi post lagaayee hai...waqt mile to aayiega!!
इ कहानी फ्यूजन लेंग्वेज में है इसकी दिशा का आभास नहीं होरहा है मगर हमका रोचक लगी | देखते है आगे क्या होता है
कनफुजन से निकले औरी मैंड रिफ्रेश करे खातिर खिस्सा कहानी सुनना बहुते बढ़िया रहा . फरारीपना लम्बा रहा आपका . सेवकराम की सेवा का क्या मेवा मिलता है ये जानने के लिए हम अगली कड़ी का इंतजार करेंगे . आभार .
धीरे धीरे रसप्रद होती जा रही है।
अगली कडी का इन्तजार!!
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सुज्ञ: ईश्वर हमारे काम नहीं करता…
निरामिष: अहिंसा का शुभारंभ आहार से, अहिंसक आहार शाकाहार से
इस तरह बीच में रोकना अच्छी आदत नहीं है :)
अच्छा हुआ....उस उहा-पोह से निकल आयीं...
कहानी अच्छी चल रही है...अगली कड़ी का इंतज़ार
अभी कुछ बोलना उचित नहीं लग रहा है, सिर्फ़ एतना कि ज़बर्दश्त शैली में लिखी गई यह कहानी शुरु से आखिर तक बांधे रखती है।
अगला अंक का इंतज़ार है।
कहानी बड़ी अलग सी है..... रोचक भी और प्रस्तुति का अंदाज़ तो क्या कहें....... बहुत बढ़िया
बहुत सुंदर ओर रोचक लगी यह कहानी.. अगली कडी का इंतजार... धन्यवाद
`जमाना कोई भी हो,अच्छे बुरे लोग हर समय संसार में हुआ करते हैं;
उसी तरह जैसे कहानियां अच्छी या बुरी हुआ करती थी.. पर यह तो बड़ी अच्छी कहानी है जी, बधाई:)
अरे !इतना सुस्ताना ठीक नहीं जल्दी से आगे की कथा कहिये वरना कन्फ्यूजन बढ़ता ही जायगा हमारा भी आपके साथ साथ |
वैसे ही इतने भगवान विदा ले रहे है आजकल ?
जय हो! सन्योग ही कहूंगा कि हम बाबा के पडोस के ही थे फिर भी जीवन के इतने वर्ष गुज़रने तक उनका नाम नहीं सुना और अब पिछले कुछ दिनों से हर ओर से उनके बारे में ही कुछ न कुछ सुनने, पढने को मिल रहा है।
लम्बे अंतराल बाद भी लेखन में प्रवाह भरपूर है ...रोचक कथा की अगली कड़ी का इन्तजार रहेगा !
कहानी बहुत रोचक और प्रवाहपूर्ण है...
अगली कड़ी की प्रतीक्षा है....
आपको हार्दिक शुभकामनाएं....
Aapke kahne kaa andaaz hamesha hee
alag hota hai - rochak aur sparshniy . Jitna padha hai , bahut
hee achchha lagaa hai . Aglee
kadee ke intezaar mein .
इसीलिये नियमित पठन पाठन आवश्यक है/जब कुछ लिखना हो और मूड न बन रहा हो तो पुरानी यादें करना ही चाािहये/संतों के प्रभाव से क्षेत्र मे सात्विकता आ ही जाती है/बच्चे यदि मां के साथ मिल कर पिता की अवहेलना करे तो सिवाय घर छोडने के और क्या रास्ता रह जाता है जीवन साथी की तुलना में नौकर श्रेष्ठ निकलते हैं/बाबा के यहां कितनी शान्ति मिली होगी/ नौकर अभागा था लेकिन सेवा धर्म ने जन्मजात घोषित अभागे को भाग्यवान बनादिया । सेवक धर्म सवसे ज्यादा कठिन है। शिक्षाप्रद आलेख
दुत्तेरी.. कहानी इस्पीड धरबे किया था कि दन्न दे क्रमशः का इस्पीड ब्रेकर आ गया.. रंजू बहिन, अब हम पूरा मन का बात पोरा कहानी सुनले पर लिखेंगे.. अभी हाजिरी लगा देते हैं..
रोचक...प्रतीक्षा....सुखान्त?
आदरणीया रंजना जी
अभिवादन स्वीकारें
कहानी की भाषा शैली बहुत ही मनमोहक लगी | मन को बाँधे रखने में सफल कहानी का अंत भी मनोरंजक और प्रेरणाप्रद होगा ................इंतज़ार है |
कहानी की भाषा शैली बहुत ही मनमोहक लगी |
मेरे ब्लॉग पर भी आयें आपका हार्दिक स्वागत है7
कहानी की भाषा शैली बहुत ही मनमोहक लगी |
मेरे ब्लॉग पर भी आयें आपका हार्दिक स्वागत है7
कहानी की भाषा शैली बहुत ही मनमोहक लगी |
मेरे ब्लॉग पर भी आयें आपका हार्दिक स्वागत है7
Beautifully written . Enjoyed reading.Thanks.
कहानी रोचक लगी।अगले पोस्ट का इंतजार रहेगा।मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है।
जारी रखें ..'स्रोता' समाज सुन रहा है ...:)रोचक कथा है..आगे के भाग का इंतज़ार रहेगा..
[भाषा भी कुछ हट कर लगी...]
कथा तो बढ़िये है, बाकिर उ का है कि कहीं-कहीं सात्विक शबद आ-आकरके प्रवाह का सात्विकता को भरस्ट कर दिए हैं।
उक्त टिप्पणी को मजाक में लीजिएगा। आप कहानी लेखन में सिद्धहस्त हैं। आभार।
कथा तो बढ़िये है, बाकिर उ का है कि कहीं-कहीं सात्विक शबद आ-आकरके प्रवाह का सात्विकता को भरस्ट कर दिए हैं।
उक्त टिप्पणी को मजाक में लीजिएगा। आप कहानी लेखन में सिद्धहस्त हैं। आभार।
आप बहुत दीनो बाद कन्फूशन से फ्रेश हो कर आई हैं ... और बहुत ही रोचक कहानी के साथ .... धीरे धीरे कथा टर्न ले रही थी आपने क्रमश: का चिन्ह लगा दिया ... अबकी बार लंबी प्रतीक्षा न करआईएगा ...
बहुत सुंदर ओर रोचक लगी यह कहानी|धन्यवाद|
Welcome back ! Agle hisse mein bhakt ki bhakti kaun sa rang lati hai iski prateeksha rahegi...
बहुत प्रितक्षा करनी पड़ी आपके आने की ..इस बार उमीद है ऐसा नहीं होगा
नि:संदेह आपका लिखना मन को शांति देता है
कहानी में भाषा शैली की नवीनता अच्छी लगी। कथ्य भी रोचक है। अगली कड़ी पढ़ने के लिए आतुर हैं।
आदरणीया रंजना जी ,
कृपया मेरे ब्लाग पर दुबारा आने का कष्ट करें क्योंकि एक ही रचना दो बार पोस्ट हो गयी थी,जिसमे एक अधूरी थी | अब उसे सुधार दिया है |
बहुत बढिया लिखा है आपने।
एक साहित्य का विद्यार्थी होकर इस ब्लोग से अपरिचित काहे था मैं, देर आयद !
फालो कर लिया, तोष है कि श्रेष्ठ ‘संवेदना-संसार’ से रू-ब-रू होता रहूँगा। सादर!
बहुत अच्छा लिखा है आपने...
"अभाव और दरिद्रता स्वाभाविक ही चरित्र को उदात्त बना देती है,ह्रदय को विशालता देती है."
आह सत्पुरुषों पर यह कैसा कटाक्ष है डॉ. रंजना? :)
विचार प्रवाह भी ढेरे दिन तक कुंद बाधित रहे तो दिमाग का हालत कुछ ऐसा ही बन के रह जाता है.. बिलकुल सत्य कहा है !
कथा सुन्दर प्रवाह लिए है..
जब भी तुम फ्यूजन भाषा में लिखती है तो कमल की पोस्ट बनती है. अद्भुत भाषा से हम तुरंत खुद को जोड़ पाते हैं. बड़ी रोचक कहानी चल रही है. आगे जाकर पढ़ते हैं कि क्या हुआ.
धार्मिक कर्मकाण्ड और निश्छल प्रेम में बहुत अन्तर है। पेम ते प्रकट होहि मै जाना । दूसरा भाग नहीं पढ पाया था । आज पढा । ईश्वर के प्रति सच्चा स्नेह भी हो , जेहि के जेहि पर सत्य सनेहू । इन कथाओं को काल्पनिक कहानी न माने तो ही आनन्द प्राप्त हो सकता है मगर इतनी तर्क शक्ति भरी है आदमी के दिमाग में कि वह हर बात पर शंका जाहिर करता है साथ में तर्क भी। पहला भाग तो पढ चुका था। दौनों भाग अच्छे लगे ।
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