तो क्या हुआ यदि पांचवीं में तीन साल फेल होने के बाद, फिर कभी फिरकर उसने विद्यालय का मुंह नहीं देखा था. व्यक्ति और परिस्थतियों को नियंत्रित करने की उसकी जो क्षमता थी,वह कोई शिक्षण संस्थान किसी को नहीं सिखाता... दुनियादारी के गुर किताबें सिखा भी कहाँ पाती हैं , बल्कि किताबों में जो होते हैं, उन निति सिद्धांतों पर आँख कान दिए सरपट चले आदमी, तो अपना बेडा ही गर्क न करा ले..
अपनी जन्मदायिनी अथाह लगाव था उसे. अन्धानुगामिनी थी वह उसकी. यहाँ तक कि उसके पिता अपनी पत्नी के जिन दुर्गुणों से त्रस्त और क्षुब्ध रहते थे, वे समस्त गुण उसे खासे जीवनोपयोगी लगते थे..पिता का क्षोभ उसे असह्य था..और फिर एक दिन जब विवेकहीना माता ने नितांत महत्वहीन बात पर क्रोधावेग में अपने शरीर को अग्नि में विसर्जित कर दिया , इस दुर्घटना का पूर्ण दोषी भी उसने अपने जनक को ही ठहराया. फांसी के फंदे तक उन्हें पहुंचा छोड़ने को वह प्रतिबद्ध हो उठी..वो तो नाते रिश्तेदारों ने मिलकर किसी प्रकार स्थिति को सम्हाला और माता के साथ साथ पिता से भी वंचित होने से उन चारों बहनों को बचाया था..
तात्कालिक क्षोभ का ज्वार जब उसका उतरा तो बारह वर्षीय उस बाला ने पूरे सूझ बूझ के साथ अपने घाटे भले का भली प्रकार अंकन किया और इस दुर्घटना में भी अपने लिए सुनहरा अवसर ही पाया..सुविधानुसार जीवन भर वह इसे भुनाती रही..उसने कभी भी अपने पिता को विस्मृत नहीं करने दिया कि वह एक पत्नी हन्ता पापी है..स्वयं को पीड़ित व्यथित और पिता को हीन ठहरा उसने अपने लिए हर किसी का ध्यान और अपार महत्त्व अर्जित किया..जब जो वह चाहती घर में सब उसीके अनुसार होता..
चलता तो यह जीवन भर रहता ,पर उसके मार्ग में पहाड़ सी अवरोधक बनी उसकी विमाता..अपने भर उसने पूरा प्रयत्न किया कि पिता के जीवन में सुख की क्षीण ऊष्मा न पहुंचे , परन्तु सम्पूर्ण यत्न कर भी इस विवाह को वह रोक न पायी..हालाँकि पिता भी सहज भाव से इस विवाह हेतु प्रस्तुत न हुए थे, पर परिवार समाज वालों का दवाब और चार चार नन्ही बच्चियों के लालन पालन और भविष्य की चिंता ने उनके लिए दूसरा कोई मार्ग नहीं छोड़ा था..
अपने पिता के द्वितीय विवाह को उसने अपने पराजय और चुनौती रूप में स्वीकारा था. इस पीड़ा को सदा उसने ह्रदय में जगाये रखा और प्रतिशोधस्वरूप जीवन भर अपने पिता को न तो अपनी दूसरी पत्नी के गुणों को देखने परखने का अवसर दिया और न ही उन्हें इस अपराध बोध से मुक्त होने दिया कि विमाता ला, उन्होंने अपनी पुत्रियों पर कितना बड़ा अत्याचार किया है..अपने चतुर युक्तियों से घटनाओं को संचालित करती शांति प्रेम सद्भाव को कभी उसने अपने घर की चौखट लांघ अन्दर आने न दिया..मानसिक संताप और अशांति तले अहर्निश कुचले जाते पिता को असमय ही कालकलवित होते देख भी उसका ह्रदय न पसीजा था..
तीनो बहनों को भी वह इस प्रकार नियंत्रित करती थी कि जब कभी भी उनका मन अपनी विमाता के ममत्व पर पिघलने को होता था, पल में उस आवेग को अपने समझाइश की झाडू से बुहार वह उनके मन के घृणा के पौध को लहलहा देती थी.. चारों के मन से वितृष्णा निकालने के उपक्रम में विमाता ने क्या न किया. इनका घर बसाने को उन्होंने अपने देह के गहने चुन चुन कर हटा दिए, आधे से अधिक खेत बारी निपटा दिए ,पर फिर भी वह इनके मन में अपने लिए छोटा सा एक कोना नहीं निकाल पाई...
और एक दिन जैसे ही उसे पता चला कि जिस देश में वह रह रही है,वहां के संविधान ने उसे यह अधिकार दिया है कि वह पिता की संपत्ति के टुकड़े कर अपना हिस्सा उगाह सकती है, अपनी बहनों को समझा बुझा फुसला कर वह मायके लेती गयी और अब तक की बची खुची संपत्ति के पांच भाग करा, अपने हिस्से के घर घरारी और खेत बारी बेच, अपने उस सौतेले भाई को उस स्थिति में पहुंचा दिया जिसमे कि वह अपने जनम को कोसता.. परिवार नातेदार और गाँव घर वाले सब उसके खिलाफ एकजुट होकर लड़े थे यह लड़ाई, पर विजय उसे ही मिली ,क्योंकि देश का कानून उसके साथ था.
दुहरी जीत हुई थी उसकी .एक तरफ जहाँ उसने अपने बाल बच्चों के सुखद भविष्य हेतु इतना सारा धन संचित कर लिया था ,वहीँ लगे हाथों विमाता को भी वह आघात दिया था जिससे उबर कर अपने प्राण बचा पाना उसके लिए संभव न था.. जिस विमाता को उसने जीवन भर समस्त समस्याओं का जड़ माना, बिना कोई अस्त्र शस्त्र चलाये उसके प्राण लेने में वह सफल हो गई थी.वर्षों संघर्ष के उपरांत उसके अवसान से उसके प्रतिशोध को पूर्णाहुति मिली थी..
पर कलपते हुए अंतिम हिचकी के साथ विमाता भी ईश्वर से एक विनती कर गयी थी-
"हे ईश्वर !!! इन बच्चियों का घर, बाल बच्चों और धन धान्य से सदा पूर्ण रखना और कभी न कभी इन्ही के द्वारा न्याय अवश्य करना .."
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अपनी जन्मदायिनी अथाह लगाव था उसे. अन्धानुगामिनी थी वह उसकी. यहाँ तक कि उसके पिता अपनी पत्नी के जिन दुर्गुणों से त्रस्त और क्षुब्ध रहते थे, वे समस्त गुण उसे खासे जीवनोपयोगी लगते थे..पिता का क्षोभ उसे असह्य था..और फिर एक दिन जब विवेकहीना माता ने नितांत महत्वहीन बात पर क्रोधावेग में अपने शरीर को अग्नि में विसर्जित कर दिया , इस दुर्घटना का पूर्ण दोषी भी उसने अपने जनक को ही ठहराया. फांसी के फंदे तक उन्हें पहुंचा छोड़ने को वह प्रतिबद्ध हो उठी..वो तो नाते रिश्तेदारों ने मिलकर किसी प्रकार स्थिति को सम्हाला और माता के साथ साथ पिता से भी वंचित होने से उन चारों बहनों को बचाया था..
तात्कालिक क्षोभ का ज्वार जब उसका उतरा तो बारह वर्षीय उस बाला ने पूरे सूझ बूझ के साथ अपने घाटे भले का भली प्रकार अंकन किया और इस दुर्घटना में भी अपने लिए सुनहरा अवसर ही पाया..सुविधानुसार जीवन भर वह इसे भुनाती रही..उसने कभी भी अपने पिता को विस्मृत नहीं करने दिया कि वह एक पत्नी हन्ता पापी है..स्वयं को पीड़ित व्यथित और पिता को हीन ठहरा उसने अपने लिए हर किसी का ध्यान और अपार महत्त्व अर्जित किया..जब जो वह चाहती घर में सब उसीके अनुसार होता..
चलता तो यह जीवन भर रहता ,पर उसके मार्ग में पहाड़ सी अवरोधक बनी उसकी विमाता..अपने भर उसने पूरा प्रयत्न किया कि पिता के जीवन में सुख की क्षीण ऊष्मा न पहुंचे , परन्तु सम्पूर्ण यत्न कर भी इस विवाह को वह रोक न पायी..हालाँकि पिता भी सहज भाव से इस विवाह हेतु प्रस्तुत न हुए थे, पर परिवार समाज वालों का दवाब और चार चार नन्ही बच्चियों के लालन पालन और भविष्य की चिंता ने उनके लिए दूसरा कोई मार्ग नहीं छोड़ा था..
अपने पिता के द्वितीय विवाह को उसने अपने पराजय और चुनौती रूप में स्वीकारा था. इस पीड़ा को सदा उसने ह्रदय में जगाये रखा और प्रतिशोधस्वरूप जीवन भर अपने पिता को न तो अपनी दूसरी पत्नी के गुणों को देखने परखने का अवसर दिया और न ही उन्हें इस अपराध बोध से मुक्त होने दिया कि विमाता ला, उन्होंने अपनी पुत्रियों पर कितना बड़ा अत्याचार किया है..अपने चतुर युक्तियों से घटनाओं को संचालित करती शांति प्रेम सद्भाव को कभी उसने अपने घर की चौखट लांघ अन्दर आने न दिया..मानसिक संताप और अशांति तले अहर्निश कुचले जाते पिता को असमय ही कालकलवित होते देख भी उसका ह्रदय न पसीजा था..
तीनो बहनों को भी वह इस प्रकार नियंत्रित करती थी कि जब कभी भी उनका मन अपनी विमाता के ममत्व पर पिघलने को होता था, पल में उस आवेग को अपने समझाइश की झाडू से बुहार वह उनके मन के घृणा के पौध को लहलहा देती थी.. चारों के मन से वितृष्णा निकालने के उपक्रम में विमाता ने क्या न किया. इनका घर बसाने को उन्होंने अपने देह के गहने चुन चुन कर हटा दिए, आधे से अधिक खेत बारी निपटा दिए ,पर फिर भी वह इनके मन में अपने लिए छोटा सा एक कोना नहीं निकाल पाई...
और एक दिन जैसे ही उसे पता चला कि जिस देश में वह रह रही है,वहां के संविधान ने उसे यह अधिकार दिया है कि वह पिता की संपत्ति के टुकड़े कर अपना हिस्सा उगाह सकती है, अपनी बहनों को समझा बुझा फुसला कर वह मायके लेती गयी और अब तक की बची खुची संपत्ति के पांच भाग करा, अपने हिस्से के घर घरारी और खेत बारी बेच, अपने उस सौतेले भाई को उस स्थिति में पहुंचा दिया जिसमे कि वह अपने जनम को कोसता.. परिवार नातेदार और गाँव घर वाले सब उसके खिलाफ एकजुट होकर लड़े थे यह लड़ाई, पर विजय उसे ही मिली ,क्योंकि देश का कानून उसके साथ था.
दुहरी जीत हुई थी उसकी .एक तरफ जहाँ उसने अपने बाल बच्चों के सुखद भविष्य हेतु इतना सारा धन संचित कर लिया था ,वहीँ लगे हाथों विमाता को भी वह आघात दिया था जिससे उबर कर अपने प्राण बचा पाना उसके लिए संभव न था.. जिस विमाता को उसने जीवन भर समस्त समस्याओं का जड़ माना, बिना कोई अस्त्र शस्त्र चलाये उसके प्राण लेने में वह सफल हो गई थी.वर्षों संघर्ष के उपरांत उसके अवसान से उसके प्रतिशोध को पूर्णाहुति मिली थी..
पर कलपते हुए अंतिम हिचकी के साथ विमाता भी ईश्वर से एक विनती कर गयी थी-
"हे ईश्वर !!! इन बच्चियों का घर, बाल बच्चों और धन धान्य से सदा पूर्ण रखना और कभी न कभी इन्ही के द्वारा न्याय अवश्य करना .."
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