अपार उर्जा उत्साह उस्तुकता आशाओं आकांक्षाओं और स्वर्णिम भविष्य के संजोये स्वपनों से भरा किशोर वय जब पहली बार उस देहरी को लांघता है जिसके बाद उसकी वयस्कता को सामाजिक मान्यता मिलती है,उसे समझदार और समर्थ माना जाने लगता है,बात बात पर बच्चा ठहराने के स्थान पर अचानक हर कोई उसे, अब तुम बच्चे हो क्या ?? कहने लगते हैं, तो वह नव तरुण हर उस विषय को जान लेने को उत्कंठित हो उठता है, जिसतक आजतक उसकी पहुँच नहीं थी...यह रोमांचक देहरी होती है महाविद्यालय की देहरी..
बुद्धि चाहे जितनी विकसित हुई हो तब तक, पर एक तो बचपने के तमगे से मुक्ति की छटपटाहट और दूसरे बारम्बार अपने लिए बच्चे नहीं रह जाने की उद्घोषणा उस वय को स्वयं को परिपक्व युवा साबित करने को प्रतिबद्ध कर देती है. और फिर इस क्रम में जो प्रथम प्रयास होता है,वह होता है प्रेम व्रेम, स्त्री पुरुष सम्बन्ध आदि उन विषयों का अधिकाधिक ज्ञान प्राप्ति का प्रयास जो आज तक नितांत वर्ज्य प्रतिबंधित घोषित कर रखा गया था इनके लिए... पर विडंबना देखिये, उक्त तथाकथित बड़े से बड़ा और समझदार होने की अपेक्षा तो सब करते हैं, पर उसके आस पास के सभी बड़े इस चेष्टा में अपनी समस्त उर्जा झोंके रहते हैं कि इस गोपनीय विषय तक उनके बच्चों की पहुँच किसी भांति न हो पाए . यह अनभिज्ञता उनके गृहस्थ जीवन तक इसी प्रकार बनी रहे, इसके लिए उससे हर बड़े ,हर प्रयत्न और प्रबंध किये रहते हैं...
समय के साथ जैसे जैसे समाज में खुलापन आता गया है, टी वी सिनेमा इंटरनेट आदि माध्यमों ने इस प्रकार से सबकुछ सबके लिए सुलभ कराया है, कि जो और जितना ज्ञान हमारे ज़माने के बच्चों को बीस बाइस या पच्चीस में प्राप्त होता था, बारह ग्यारह दस नौ करते अब तो सात आठ वर्ष के बच्चों को सहज ही उतना प्राप्त हो जाता है..आज मनोरंजन के ये असंख्य साधन बच्चों को जल्द से जल्द वयस्क बन जाने और अपनी वयस्कता सिद्ध करने को प्रतिपल उत्प्रेरित प्रतिबद्ध करते रहते हैं..
खैर, बात हमारे ज़माने की..एकल परिवार के बच्चे हम सिनेमा और कुछेक कथा कहानी उपन्यासों को छोड़ प्रणय सम्बन्ध और प्रेम पत्र ,रोमांटिसिज्म प्रत्यक्षतः देख सीख जान पाने के अवसर कहीं पाते न थे. घर में जबतक रहे, जिम्मेदारियों के समय " इतने बड़े हो गए, इतना भी नहीं बुझाता " और इन वयस्क विषयों के समय निरे बच्चे ठहरा दिए जाते थे..सिनेमा काफी छानबीन के बाद दिखाया जाता था,जिसमे ऐसे वैसे किसी दृश्य की कोई संभावना नहीं बचती थी और विवाह से ढेढ़ साल पहले जब घर में टी वी आया भी तो दूरदर्शन पर दिखाए जा रहे किसी सिनेमा में जैसे ही किसी ऐसे वैसे दृश्य की संभावना बनती , हमें पानी लाने या किसी अन्य काम के बहाने वहां से भगा दिया जाता था..जानने को उत्सुक हमारा मन, बस कसमसाकर रह जाता था..
उधर जब बी ए में छात्रावास गए भी तो वह तिहाड़ जेल को भी फेल करने वाला था..बड़े बड़े पेड़ों से घिरे जंगलों के विशाल आहाते में एक चौथाई में छात्रावास था और बाकी में कॉलेज. चारों ओर की बाउंड्री बीस पच्चीस फीट ऊँची, जिसपर कांच कीले लगी हुईं. छात्रावास और कॉलेज कम्पाउंड के बीच ऊंचा कंटीले झाड़ों वाला दुर्गम दीवार और कॉलेज कैम्पस में खुलने वाला एक बड़ा सा गेट जो कॉलेज आवर ख़त्म होते ही बंद हो जाता था..ग्रिल पर जब शाम को हम लटकते तो लगता कि किसी जघन्य अपराध की सजा काटने आये हम जेल में बंद अपराधी हैं..जबतक हमसे दो सीनियर बैच परीक्षा दे वहां से निकले नहीं और हम सिनियरत्व को प्राप्त न हुए यह जेल वाली फिलिंग कुछ कम होती बरकरार ही रही..लेकिन हाँ,यह था कि समय के साथ जैसे जैसे सहपाठियों संग आत्मीयता बढ़ती गई, ढहती औपचारिकता की दीवार के बीच से इस विषय पर भी खुलकर बातें होने लगीं और अधकचरी ही सही,पर ठीक ठाक ज्ञानवर्धन हुआ हमारा...
अब संस्कार का बंधन कहिये या अपने सम्मान के प्रति अतिशय जागरूकता, कि विषय ज्ञानवर्धन की अभिलाषा के अतिरिक्त व्यवहारिक रूप में यह सब आजमा कर देखने की उत्सुकता हमारे ग्रुप में किसी को नहीं थी..बल्कि पढ़ाई लिखाई को थोडा सा साइड कर मेरी अगुआई में हमारा एक छोटा सा ग्रुप तो इस अभियान में अधिक रहता था कि हमारे सहपाठियों से लेकर जूनियर मोस्ट बैचों तक में इस तरह के किसी लफड़े में फंस किसी ने कुछ ऐसा तो न किया जिससे हमारे छात्रावास तथा उन विद्यार्थियों के अभिभावकों का नाम खराब होने की सम्भावना बनती हो ..आज के बजरंग दल, शिव सैनिक या इसी तरह के संस्कृति रक्षक संगठन वेलेंटाइन डे पर प्रेमियों के खिलाफ जैसे अभियान चलाते हैं, उससे कुछ ही कमतर हमारे हुआ करते थे..यही कारण था कि छात्रावास प्रबंधन के हम मुंहलगे और प्रिय थे.
तो एक दिन इसी मुंहलगेपन का फायदा उठाते हुए हमने कमरा शिफ्ट करती,करवाती परेशान हाल अपनी छात्रावास संरक्षिका से पेशकश की कि हम उनकी मदद कर के ही रहेंगे..बाकी कर्मचारी इस काम में लगे हुए थे, हमारी कोई आवश्यकता इसमें थी नहीं, पर फिर भी हम जी जान से लग गयीं कि यह अवसर हमें मिले और अंततः मैं और मेरी रूम मेट सविता ने उन्हें इसके लिए मना ही लिया... असल में हमारे छात्रावास से जाने और आने वाले दोनों ही डाक (चिट्ठियां) पहले छात्रावास की मुख्य तथा उप संरक्षिका द्वारा पढ़ी जातीं थीं, उसके बाद ही पोस्ट होती थी या छात्रों में वितरित होती थी. यहाँ से जाने वाले डाक में तो कोई बात नहीं थी..कौन जानबूझकर ऐसी सामग्रियां उनके पढने को मुहैया करवाता,पर आने वाले डाकों पर इन कारगुजारियों में लिप्त लड़कियां पूर्ण नियंत्रण नहीं रख पातीं थीं..छात्रावास का पता इतना सरल था कि यदि कोई विद्यार्थी का नाम और पढ़ाई का वर्ष जान लेता तो आँख मूंदकर चिट्ठी भेज सकता था..और जो ऐसी चिट्ठी आ जाती,तो जो सीन बनता था..बस क्या कहा जाय..यूँ सीन बनकर भी ये चिट्ठियां कभी उन्हें मिलती न थी जिसके लिए होती थी,बल्कि ये सब प्रबंधिका के गिरफ्त में ऑन रिकोर्ड रहती थीं...
इस सहायता बनाम खोजी अभियान में जुटे छोटे मोटे सामान इधर से उधर पहुँचाने के क्रम में हमने वह भण्डार खोज ही लिया..शाल के अन्दर छुपा जितना हम वहां से उड़ा सकते थे, उड़ा लाये. और फिर तो क्या था, प्रेम पत्रों का वह भण्डार कई महीनों तक हमारे मनोरंजन का अन्यतम साधन बना रहा था.प्रत्यक्ष रूप में मैंने पहली बार प्रेम पत्र पढ़े.वो भी इतने सारे एक से बढ़कर एक..
एक पत्र का कुछ हिस्सा तो आज भी ध्यान में है...
" मेरी प्यारी स्वीट स्वीट कमला,
(इसके बाद लाल स्याही से एक बड़ा सा दिल बना हुआ था,जिसमे जबरदस्त ढंग से तीर घुसा हुआ था..खून के छींटे इधर उधर बिखरे पड़े थे और हर बूँद में कमला कमला लिखा हुआ था)
ढेर सारा किस "यहाँ ".."यहाँ".. "यहाँ"..." यहाँ "....
(उफ़ !!! अब क्या बताएं कि कहाँ कहाँ )
......
तुम क्यों मुझसे इतना गुस्सा हो..दो बार से आ रही हो, न मिलती हो, न बात करती ही,ऐसे ही चली जाती हो..अपने दूकान में बैठा दिन रात मैं तुम्हारे घर की तरफ टकटकी लगाये रहता हूँ कि अब तुम कुछ इशारा करोगी,अब करोगी..पर तुमने इधर देखना भी छोड़ दिया है..क्या हुआ हमारे प्यार के कसमे वादे को? तुम इतनी निष्ठुर कैसे हो गयी कमला..?
( काफी लंबा चौड़ा पत्र था.. अभी पूरा तो याद नहीं, पर कुछ लाजवाब लाइने जो आज भी नहीं झरीं हैं दिमाग से वे हैं -)
देखो तुम इतना तेज सायकिल मत चलाया करो..पिछला बार जब इतना फास्ट सायकिल चलाते मेरे दूकान के सामने से निकली ,घबराहट में दो किलो वाला बटखरा मेरे हाथ से छूट गया और सीधे बगल में बैठे पिताजी के पैर पर गिरा..पैर थुराया सो थुराया..तुम्हे पता है सबके सामने मेरी कितनी कुटाई हुई..सब गाहक हंस रहा था..मेरा बहुत बुरा बेइजत्ती हो गया...लेकिन कोई गम नहीं ...जानेमन तुम्हारे लिए मैं कुछ भी सह सकता हूँ...
और तुम आम गाछ पर इतना ऊपर काहे चढ़ जाती हो....उसदिन तुम इतना ऊंचा चढ़ गयी थी, तुम्हारी चिंता में डूबे मैंने गाहक के दस के नोट को सौ का समझकर सौदा और अस्सी रुपये दे दिया ..वह हरामी भी माल पैसा लेकर तुरंत चम्पत हो गया..लेकिन तुम सोच नहीं सकती पिताजी ने मेरा क्या किया...प्लीज तुम ऐसा मत किया करो..
बसंत अच्छा लड़का नहीं है.कई लड़कियों के साथ उसका सेटिंग है...तुम्हारे बारे में भी वह गन्दा गन्दा बात करता है, तुम मिलो तो तुमको सब बात बताएँगे...तुमको पहले भी तो मैं बताया हूँ फिर भी तुम उससे मिलती हो,हंस हंस के बात करती हो..क्यों करती हो तुम ऐसा...वह तुम्हे पैसा दे सकता है,बहुत है उसके पास..पर प्यार मैं तुम्हे दूंगा..
...... .......... ............
यह कमला कौन थी और उसकी निष्ठुरता का कारण क्या था,यह जानने की उत्सुकता हमारी वर्षों बरकरार रही...
* * *
देह दशा में हमसे बस बीस ही थी श्यामा ( हमारा किया नामकरण ) ,पर उसकी शारीरिक क्षमता हमसे चौगुनी थी..जब कभी हम बाज़ार जाते और सामान का वजन ऐसा हो जाता कि लगता अब इज्जत का विचार त्याग उसे सर पर उठा ही लेना पड़ेगा, श्यामा संकट मोचन महाबलशाली हनुमान बन हमारा सारा भार और संकट हर लेती..या फिर जब महीने दो महीने में कभी छात्रावास का पम्प खराब हो जाने की वजह से पहले माले तक के हमारे बाथरूम में समय पर पानी न पहुँच पाता और कम्पाउंड के चापाकल से पानी भर बाथरूम तक पानी ले जाने की नौबत बनती ,जहाँ मैं और सविता मिल एक बाल्टी पानी में से आधा छलकाते और पंद्रह बार रखते उठाते कूँख कांखकर आधे घंटे में पानी ऊपर ले जाते थे,श्यामा हमारे जम्बोजेट बाल्टियों में पूरा पानी भर दोनों हाथों में दो बाल्टी थाम, एक सांस में ऊपर पहुंचा देती थी.चाहे शारीरिक बल का काम हो या उन्घाये दोपहर में क्लास अटेंड कर हमारे फेक अटेंडेंस बना हमारे लिए भी सब नोट कर ले आने की बात , सरल सीधी हमारी वह प्यारी सहेली हमेशा मुस्कुराते हुए प्रस्तुत रहती थी..असीमित अहसान थे उसके हमपर..हम हमेशा सोचा करते कि कोई तो मौका मिले जो उसके अहसानों का कुछ अंश हम उतार पायें...
ईश्वर की कृपा कि अंततः एक दिन हमें मौका मिल ही गया..कुछ ही महीने रह गए थे फायनल को, फिर भी दोपहर की क्लास बंक कर हम होस्टल में सो रहे थे और सदा कि भांति श्यामा पिछली बैंच पर बैठ हमारा अटेंडेस देने और नोट्स लाने को जा चुकी थी..गहरी नींद में पहुंचे अभी कुछ ही देर हुआ था कि हमें जोर जोर से झकझोरा गया..घबरा कर अचकचाए क्या हुआ क्या हुआ कह धड़कते दिल से हम उठ बैठे..देखा श्यामा पसीने से तर बतर उखड़ी साँसों से बैठी हुई है.. पानी वानी पीकर जब वह थोड़ी सामान्य हुई तो पता चला कि आज बस भगवान् ने खड़ा होकर उसकी और हमारे पूरे ग्रुप की इज्जत बचाई है..
हुआ यूँ कि जब वह क्लास करने जा रही थी, गेट से निकली ही थी कि छात्रावास की डाक लेकर आ रहा डाकिया पता नहीं कैसे उससे कुछ दूरी पर गिर गया और उसका झोला पलट गया..श्यामा उसकी मदद करने गयी और बिखरी हुई चिट्ठियां बटोर ही रही थी कि उसकी नजर एक सबसे अलग ,सबसे सुन्दर लिफ़ाफ़े पर पडी जिसपर कि उसीका नाम लिखा हुआ था..डाकिये को किसी तरह चकमा दे उसने अपना वह पत्र पार किया था और जो बाद में खोला तो देखा उसके नाम प्रेम पत्र था.
उसकी बात सुन पल भर को थरथरा तो हम भी गए..पर फिर उसे ढ़ाढस बंधा हमने इसकी तफ्शीस शुरू की..पता चला कि यह युवक श्यामा से कुछ महीने पहले किसी रिश्तेदार की शादी में मिला था और उससे इतना अधिक प्रभावित हुआ था कि उसने श्यामा के घर विवाह का प्रस्ताव भेजा था..श्यामा के समाज में रिश्ते लड़कीवाले नहीं लड़केवाले मांगने आते थे और जैसे नखरे हमारे समाज में लड़केवालों के हुआ करते हैं,वैसे इनके यहाँ लड़कीवालों के हुआ करते थे.. चूँकि इनके समाज में उन दिनों पढी लिखी लड़कियों की बहुलता थी नहीं, तो श्यामा जैसी लड़कियों का भारी डिमांड था. थे तो वे एक ही बिरादरी के और लड़का काफी पढ़ा लिखा और अच्छे ओहदे पर था, पर शायद कुछ पारिवारिक कारण रहे होंगे जो श्यामा के परिवार को यह रिश्ता स्वीकार्य नहीं था..
खैर, हम तो हिस्ट्री ज्योग्राफी जान जुट गए प्रेम पत्र पढने में..लेकिन जो पढना शुरू किया तो दिमाग खराब हो गया..छः सात लाइन पढ़ते पढ़ते खीझ उठे हम..
" ई साला शेक्सपीयर का औलाद, कैसा हार्ड हार्ड अंगरेजी लिखा है रे...चल रे, सबितिया जरा डिक्सनरी निकाल,ऐसे नहीं बुझाएगा सब ..." और डिक्सनरी में अर्थ ढूंढ ढूंढ कर पत्र को पढ़ा गया..एक से एक फ्रेज और कोटेशन से भरा लाजवाब साहित्यिक प्रेम पत्र था... पत्र समाप्त हुआ तबतक हम तीनो जबरदस्त ढंग से युवक के सोच और व्यक्तित्व से प्रभावित हो चुके थे..
गंभीर विमर्श के बाद हमने श्यामा को सुझाव दिया कि पढ़े लिखे सेटल्ड सुलझे हुए विचारों वाले ऐसे लड़के और रिश्ते को ऐसे ही नहीं नकार देना चाहिए...न ही जल्दीबाजी में हां करना चाहिए न ही न.. कुछ दिन चिट्ठियों का सिलसिला चला, उसके सोच विचार के परतों को उघाड़ कर देख लेना चाहिए और तब निर्णय लेना चाहिए.ठीक लगे तो माँ बाप को समझाने का प्रयास करना चाहिए.और जो वे न माने तो प्रेम विवाह यूँ भी उनके समाज में सामान्य बात है.. नौबत आई तो यहाँ तक बढा जा सकता है..
तो निर्णय हुआ कि इस पत्र का जवाब दिया ही जाय..लेकिन समस्या थी, कि जैसा पत्र आया था,उसके स्तर का जवाब, जिससे श्यामा की भी धाक जम जाए, लिखे तो लिखे कौन..श्यामा तो साफ़ थी, क्या अंगरेजी और क्या साहित्यिक रूमानियत.. सविता की अंगरेजी अच्छी थी, तो हम पिल पड़े उसपर ...खीझ पड़ी वह-
" अबे, अंगरेजी आने से क्या होता है, लिखूं क्या, हिस्ट्री पोलिटिकल साइंस " ...
बात तो थी...सब पहलुओं पर विचार कर यह ठहरा कि साहित्यिक स्तर का प्रेम पत्र अगर कोई लिख सकता है तो वह मैं ही हूँ..पर मेरी शर्त थी कि मैं लिखूंगी तो हिन्दी में लिखूंगी..तो बात ठहरी पत्र हिन्दी में मैं लिखूंगी, सविता उसका इंग्लिश ट्रांसलेशन करेगी और फिर श्यामा उसे अपने अक्षर में फायनल पेपर पर उतारेगी.. इसके बाद अभियान चला लेटर पैड मंगवाने का , क्योंकि अनुमानित किया गया था कि जिस पेपर और लिफ़ाफ़े में पत्र आया है एक कम से कम बीस पच्चीस रुपये का तो होगा ही होगा ,तो जवाब में कम से कम दस का तो जाना ही चाहिए..
और जीवन में पहली बार (आगे भी कुछ और) मैंने जो प्रेम पत्र लिखा, अपनी उस सहेली के लिए लिखा, जबकि उस समय तक मेरा कट्टर विश्वास था कि मुझे कभी किसी से प्रेम हो ही नहीं सकता,यदि मेरा वश चले तो जीवन भर किसी पुरुष को अपने जीवन और भावक्षेत्र में फटकने न दूं, क्योंकि पुरुष, पिता भाई चाचा मामा इत्यादि इत्यादि रिश्तों में रहते ही ठीक रहते हैं, स्त्री का सम्मान करते हैं,एक बार पति बने नहीं कि स्त्री स्वाभिमान को रौंदकर ही अपना होना सार्थक संतोषप्रद मानते हैं...
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(स्मृति कोष से- )
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44 comments:
हॉस्टल की यादें और सहेली के लिए लिखे प्रेम पत्र ... बढ़िया रहा संस्मरण ..
पुरुष, पिता भाई चाचा मामा इत्यादि इत्यादि रिश्तों में रहते ही ठीक रहते हैं, स्त्री का सम्मान करते हैं,एक बार पति बने नहीं कि स्त्री स्वाभिमान को रौंदकर ही अपना होना सार्थक संतोषप्रद मानते हैं...
:) :) कहूँगी कुछ नहीं ... अब सच के आगे कहा भी क्या जाए ..
स्मृति कोष से आपने बहुत सुन्दर ढंग से संस्मरणों को प्रस्तुत किया है.प्रेम पत्र भी क्या अटपटा सा है.
आप भी काफी चुलबुली रहीं होंगीं अपने कालिज के समय में.
मेरे ब्लॉग पर आईये.
अब तो उत्सुकता बढा दी है…………आगे क्या हुआ?
कमला के बारे में तो क्या पूछें, मगर श्यामा का का हुआ अल्टीमेटली!
दस रुपये का इंवेस्टमेण्ट कैसा रहा?!
ये सरंक्षिका तो ISI ट्रैंड लगती है :)
बेहद रोचक...आखिर होस्टल ,कॉलेज मित्र इनकी यादें मस्त ही हुआ करती हैं.
मजा आ रहा है पढ़ने में.
रोचक संस्मरण को शेयर करने लिए धन्यवाद!
हमें अपना हॉस्टल याद आ गया...ऐसा ही जेल हुआ करता था...अब सोच कर लगता है ,कैसे हम महीनो उस चारदीवारी में कैद रहा करते थे...पर तब महसूस भी नहीं होता था..
पर हाय.....हमारी मेट्रन ने कभी रूम क्यूँ नहीं बदला....उनके फेवरेट तो हम भी थे..शायद मदद के बहाने आप जैसा कोई ज़खीरा हाथ लग जाता...हमारे होस्टल में भी पत्र सेंसर होकर ही मिलते थे..:(
बहुत ही रोचक संमरण
रोचक संस्मरण को शेयर करने लिए धन्यवाद|
वायवीय प्रेम के उस दौर को "स्मृति कोष "ने साकार कर दिया .शब्दों ने जैसे पैरहन पहन लिए हों .अच्छे बिम्ब अच्छी भाषा ,अच्छे व्यक्ति चित्र बिलकुल हाडमांस के बने उकेरे स्मृति कोष ने .
ताज़ा रचना प्रतीक्षित है .
एक अति सुन्दर प्रस्तुति!!! मजे दार ओर रोचक
हा हा. गजब संस्मरण है, इतना अच्छा कि लगा बहुत छोटा है. थोडा और होना चाहिए था.
पैर थुराने वाला तो बेस्ट लव-लेटर का अवार्ड जीतने के काबिल है.
गज़ब की याददाश्त पाई है जी आपने. मैं तो अपने स्कूल और कॉलेज के जमाने के बहुत से सहपाठियों के नाम, यहाँ तक कि चेहरे भी भूल चुका हूँ!
यह याद करना लेकिन बहुत मजेदार है की किशोरावस्था की देहलीज पर यार-दोस्त बहुत कुरेदकर पूछते थे कि मैं... मैं... किसे लाइन मारता हूँ. वे इतना पूछते थे कि कुछ नहीं होने पर भी पिंड छुडाने के लिए मनगढ़ंत कहानी बनाई पड़ती थी. इसके कुछ रोचक दुष्परिणाम भी क्या मजेदार हुए! कभी किसी ने मिन्नतें की, किसी ने धमकी दी, किसी ने सावधान भी किया. कुल मिलकर... अब क्या कहूं! हाय! वो गुज़रा ज़माना फिर कभी नहीं आएगा!
आपके स्मृति कोष से निकला यह संस्मरण यादों के साथ ही जीवन में संस्कारों में आये बदलावों को भी लिए है...... अच्छा लगा पढ़कर.....
हॉस्टल में हम भी रहे पूर्ण स्वतन्त्रता के साथ पर वयस्क तब लगने लगे जब पिता जी ने हमें स्वयं अपने निर्णय लेने का अधिकार दे दिया।
खूबसूरत संस्मरण.... आपका पहला प्रेम पत्र पढ़कर अच्छा लगा... हर पुरुष स्त्रियों के आत्मसम्मान को नहीं रौंदते.... इतना सरलीकरण नहीं करना चाहिए...
प्रिय रंजू!
हमरे लिए त हमरा ब्लैक एंड वाईट ज़माना का सिनेमा जैसा सब कोलेज का दिन रील का जैसा दनादन पार होने लगा. होस्टल में त नहिये रहे मगर कोलेज का एडवेंचर अइसने रहा था.
प्रेम पत्र लिखने के महारत पर त हमहूँ आँख बंद करके भरोसा कर सकते हैं, काहे से कि तुमरा जऊन इस्टाईल है ना लिखने का, जिसका बियाह काटने भी जा रहा हो त तय हो जाएगा..
एकदम फुल इस्पीड वाला पोस्ट है ई तुमरा इस्मृति कोस से.. सब पढाने वाला लोंग को अपना ज़माना इयाद आ गया होगा!
बाकी सब तो शानदार पर आपने जो पत्र लिखा उसे स्मृति कोष से कब बाहर लाएँगी?
रोचक शैली, मज़ा आ गया। कमला वाले तो साहित्यकार राजनीतिज्ञ बने होंगे और श्यामा वाले साहित्यकार अधिकारी।
beautiful...
आपकी पुरानी यादें बीते वक्त की बातें सुनना बहुत अच्छा लगा ... कभी कभी अंतरंग बातें जानना और भी मज़ा देता है ...
वैसे आपकी लिखाई में लिखे पत्र से कहीं कोई ग़लत मतलब निकाल लेता तो ... या वो खत आपकी मम्मी के हाथ लग जाता तो .... हा हा ...
अंत में क्रमशः (...) लिखना भूल गयीं ?
बहुत बहुत रोचक संस्मरण कितनी यादे यूँ ही दबी रहती है जहन में ..कुछ ऐसी ही खुराफाते याद आ गयी पढ़ते पढ़ते :)
इ आपका रोचक संस्मरण पढ़ के भूलल बिसरल दिन याद आइल.गोड़ थुराने वाला बात से पेट में हंसके मरोड़ हो रहा है .बहुत रोचक संस्मरण ,
सुभान अलाह....वैसे जानती है हरिशंकर परसाई जी ने एक मोहल्ले की एक लड़की ओर उसके चार प्रेमियों पर बड़ी जबरदस्त कहानी लिखी थी ...प्रेमपत्र के अंश पढ़कर वो याद आ गयी .....हिंदी ब्लॉग जगत में लोग लम्बा लिखने से घबराते है ...पाठको के टोटे का डर रहता है ..पर यकीन मानिये तसल्ली से पढने वाला तसल्ली से पढता है ...शुरूआती अंश पढ़कर समझ आता है आप सरसरी तौर पर नहीं लिखती है ...जैसे छात्रावास का वर्णन...
स्मृति कोष से आपने बहुत सुन्दर संस्मरण पेश किया. सुंदर.
पहली बार इस तरह का संस्मरण पढ़ा।
रोचक...।
वाह रंजना जी !
आपका ललित संस्मरण पढना शुरू किया तो अंत तक बिना पढ़े रुक ही नहीं पाया |
कितने सरल-सहज ढंग से उकेरा है आपने शब्द चित्र .....
प्रेमपत्रों का क्या कहना .....बीते दिन याद आ गए....
सोचता हूँ कितना बदलाव आ गया है आज ....
तब जवानी पकड़ते-पकड़ते बांध दिए जाते थे गठबंधन में ....और आज कम उम्र में ही जवानी खुद ही पकड़ लेती है |
बहुत बढ़िया लिखा है आपने!
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
बेहद रोचक संस्मरण ! होस्टल की यादें ताज़ा हो गयीं !
बच्चों का अपने को युवा सावित करने का विचार मनोवैज्ञानिक रुप से भी सच है। दूसरा पैरा बहुत सी सामाजिक मान्यताओं, मर्यादाओं ,शिष्टाचार के चलते अभीतक तो मर्यादित ही रहा है चाहे भविष्य के घातक ही क्यों न हो। तीसरे पैरा के कुछ दुष्परिणाम भी सामने आरहे है। पद चार स्वाभाविक भी था उन दिनों हम भी बच्चों के साथ नहीं देखते कुछ फिल्में।होस्टल सिखाते भी है और मनोबल में बृध्दि भी करते है। अगला पैरा घर से प्राप्त अच्छे संस्कार से सम्बंधित है।शेष दो पद ""होता है ऐसा ही होता है"" पिछली बातें पढी। अच्छा लगा लेख ।
वाह!
गज़ब!
और यदि फिर से कुछ कहना होगा तब भी यही कहना होगा, गज़ब।
शानदार शैली है आपकी, इस पर बार बार क्या कहूँ लेकिन सचमुच प्रेमपत्र जो आप स्मृति कोष से निकाल के लायीं हैं, वो शानदार है।
बहुत ही रोचक अंदाज़ में लिखा है । बहुत अच्छा लगा।
हॉस्टल की यादें और सहेली के लिए लिखे प्रेम पत्र ... दिलचस्प...रोचक....
स्मृतियों को साझा करने के लिए आभार.
जिस के पास इतने रोचक सस्मरण हों वो भाग्यशाली होता है। उत्सुकता बन गयी है आगे क्या हुया? जल्दी बताईयेगा।
अच्छा लगा संस्मरण .....
रोचक संस्मरण।
दुर्लभ प्रेम पत्रों के जन्म की रोमांचक कथा।
balak bhi chupam-chupai kar padh hi liya............
pranam.
रंजना जी आपकी गद्य-शैली देख कर चकित हूँ । ब्लाग पर इतने लम्बे संस्मरण को बिना साँस लिये पढ जाना कोई छोटी बात नही है । इस प्रस्तुति के लिये आपका अभिनन्दन ।
अतीत में झांकना बड़ा सुखदायी होता है. सुन्दर प्रस्तुति.
रोचक संस्मरण...
--दस का नोट समझ कर अस्सी रूपये...वाली बात बड़ी ही मासूमियत भरी लगी..उम्र के उस पड़ाव पर खुद को शायद बड़ा साबित करने का यह भी एक तरीका ही था ...कि प्रेम में 'पड़ा' जाये..
nice ................
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supriyo
खूबसूरत संस्मरण....इस प्रस्तुति के लिये आपका अभिनन्दन
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