Showing posts with label मंदी. Show all posts
Showing posts with label मंदी. Show all posts

5.2.09

आमदनी चौअन्नी ,खर्चा अढईया !

बहुत पुरानी नही, बस ढाई तीन दशक पहले तक परम्परा और प्रवृत्ति थी कि कर्ज लेने वाला मुंह छिपाकर चलता था,क्योंकि कर्ज का अर्थ होता था उसकी लाचारी, जिसका उजागर होना लोग प्रतिष्ठा हनन मानते थे ।जबतक कर्ज चुक न जाए,जवान कुंवारी बेटी सा ह्रदय पर पहाड़ बन वह पड़ा रहता था ,रातों की नीद और दिन का चैन मुहाल रहता था....पर कितने कम अन्तराल में पूरा परिदृश्य ही बदल गया... परम्परा और प्रवृति ने सीधे यू टर्न ले लिया...........

वैश्वीकरण क्या हुआ आमजन के चारों और बाज़ार ही बाज़ार फ़ैल गया....बाज़ार के इस दलदल में आम आदमी आकंठ निमग्न हो गया..... क़र्ज़ बोझ और ग्लानि नही,सुविधा और गर्व का विषय बन गया॥बैंकों और बाज़ार ने सहृदयता के नए प्रतिमान स्थापित किए...... उन्होंने अपने हृदयपट ऐसे खोले कि जिसमे प्रवेश करने से शायद ही कोई बच पाया.......बाज़ार दौडा दौडा कर उपभोक्ताओं को अपने उत्पाद पकड़ाने लगे.......बैंक पकड़ पकड़ कर लोगों के जेब में पैसे ठूंस उनके सपने साकार करने लगे.......घर चाहिए,गाडी चाहिए,टी वी,फ्रिज.....क्या चाहिए ????पैसे नही हैं,अरे चिंता काहे का...5 से 10% डाउन पेमेंट और 0% ब्याज (??) पर दुनिया में जहांतक नजर जाती है,किसी भी भौतिक वस्तु का नाम लीजिये,आपके सामने हाजिर है। और परिणाम, निम्न मध्यम आयवर्ग से लेकर ऊपर तक शायद ही कोई घर बचा जो कर्जमुक्त (लोनविहीन) हो.

इस बाज़ार को सरकार का भी वरदहस्त प्राप्त है। घर जमीन इत्यादि के लिए कर्ज लेने पर आमदनी पर कर राहत का प्रावधान है....तीस वर्ष पहले तक आमजनों की जीवन शैली में प्राथमिकतायें भिन्न हुआ करती थीं, विशेषकर वेतनभोगियों में प्रवृत्ति थी कि पहले बच्चों को पढाना लिखना शादी ब्याह कर के निश्चिंत हुआ जाय तब सबसे बड़े व्यय जमीन घर की व्यवस्था की जाय.आज नौकरी के दो से दस वर्ष के अन्दर सबसे पहले भविष्य के अनुमानित आय के आधार पर घर खरीदा जाता है,जिसकी मासिक किस्त उसके मासिक आय की लगभग तिहाई होती है॥

एक समय था,जब बचत के पैसों से ,जमा पूँजी से व्यक्ति वस्तु विनिमय करता था,व्यय तय करता था...आज बचत के पैसों से नही, भविष्य के अनुमानित/संभावित आय के आधार पर संभावित व्यय तय किए जाते हैं......सिर्फ़ अपनी आय ही नही बल्कि आज की सजग सतर्क दूरदर्शी युवा पीढी व्यय योजना अपनी भावी पत्नी (फलां काम करने वाली कन्या जिसकी मासिक आय लगभग इतनी होगी) के अनुमानित आय तक पर तय कर लेती है .......

और इस पूरे आय व्यय का आधार रह जाता है........"नौकरी" ! तय मासिक किस्त भरने को तय मासिक आय। हाँ, यह अलग बात है कि छोटे मोटे व्यापार में लिप्त लोगों पर लोन दाताओं की उतनी कृपादृष्टि नही रहती. पर सामान्यतः जनमानस में मासिक आय से बचत के धन से व्यय की प्रवृत्ति लगभग नही बची है.....और आज जब मंदी की मार में नौकरी पर वज्रपात हुआ...... तो भयावह परिणाम सबके सामने है.अपनी शान बघारने के लिए बेशकीमती गाडी, घर से लेकर घरेलु उपकरणों तक विभिन्न लोनों की किस्त जिस एक नौकरी के बैसाखी पट टिकी है,बैसाखी हटते ही औंधे मुंह गिरती है.यह गिरना केवल आर्थिक स्थिति का ही नही,जीवन की पूरी गाड़ी ही बेपटरी हो हिचकोले खाने लगती है.

मासिक किस्तों के मकड़जाल में फंसी , नौकरी गँवा चुकी तीस से पचास वर्ष तक के,भारत से लेकर विदेशों तक में बसे भारतीय नौकरीपेशाओं की आर्थिक और मानसिक स्थिति आज क्या है, बहुत जल्दी इसका भयावह रूप प्रकाश में आने लगेगा, जब समाचार पत्र जालसाजी,,हत्या, डकैती या आत्महत्या जैसे समाचारों से पटी रहने लगेगी...अभी तो फ़िर भी थोडी आस है कि यह बहुत लंबा न खिंचेगा......पर ईश्वर न करे यह लंबा खिंच गया, तो क्या होगा, यह भयभीत कर देता है.....

अपनी जमीन से कटकर, नौकरी को सुरक्षित भविष्य की गारंटी मानते हुए , पिछले चार दशकों में हमारे देश में पूरी जनसँख्या जिस तरह लघु कुटीर उद्योग और कृषि कर्म को नकारकर अंधी दौड़ में दौडी है, आज उसका करूप स्वरुप सबके सामने नग्न होकर खड़ा है.


विगत तीन चार दशकों में नौकरी को जिस तरह महिमामंडित(ग्लेमेराइज) किया गया है,कि पढ़े लिखे होने का अर्थ या कहें पढ़ाई की सार्थकता ही नौकरी में माने जाने लगी है...जबतक अम्बानी,बजाज या राजू जैसे उद्योगपति नही बनते,लघु कुटीर उद्योग में संलग्न उद्योगपतियों को नौकरी वालों की अपेक्षा समाज में दोयम दर्जा ही प्राप्त है और कृषि कार्य जिसे कभी सबसे उत्तम माना गया था,(उत्तम खेती, मध्यम बान, अधम चाकरी, भीख निदान)आज पूर्णतः उपेक्षित है......मनुष्य मात्र को अन्न उपलब्ध कराने का दायित्व अब भी उन कन्धों पर है,जो अनपढ़ और साधनहीन हैं....साक्षर या उच्च शिक्षा प्राप्त युवा पीढी खेती करना अपमानजनक और निषिद्ध मानती है.समय रहते न चेते तो, जिस तरह रिटेल चेन बनाकर बड़े औद्योगिक घरानों ने उपभोक्ता बाज़ार पर कब्जा जमाना आरभ किया है,जिस दिन वह उन्ही किसानो से जो आज अपनी जमीन बेच बच्चों को नौकरी करने लायक बनाते हैं,उनकी उसी धरती से सोना उगाने लगेगी तो यही भीड़ अपने ही जमीन पर नौकर बन नौकरी करने जायेगी.पूरी व्यवस्था फ़िर से एक बार पूंजीपतियों और गुलामो वाली होने जा रही है,पर बदहवाश भाग रही भीड़ को इसपर सोचने का अवकाश कहाँ?


आज की पढी लिखी पीढी यदि कृषि कार्य या लघु उद्योग में जुटेगी और मौजूदा सरकारी योजनाओं के साथ साथ आगे भी सुविधाएं मुहैय्या कराने के लिए सरकार को घेरेगी तो निश्चित ही सुखद परिणाम पायेगी।इस क्षेत्र का विकास संभावनाओं के नए द्वार खोलेगा और तभी सच्चे अर्थों में हम अपनी आजादी पाएंगे,आत्मनिर्भर बनेंगे.अब तो समय आ गया है कि वर्तमान की विभीषिका को देखकर लोग चेतें और नौकरी रुपी इस मृग मरीचिका से बाहर निकलने का प्रयास करें॥


इसके साथ ही इस बात का भी पूरा ध्यान रखना होगा कि उपभोक्ता बाज़ार पर हावी हो ,न कि बाज़ार उपभोक्ता पर .मितव्ययिता को हमें अपने स्वभाव का अभिन्न अंग बनाना पड़ेगा.छोटे दूकान के दो सौ पचास रुपये की सूती सर्ट के लिए बड़े ब्रांड को डेढ़ से ढाई हजार तक देना चाहिए कि नही,यह हमें ही तय करना होगा.......एक या दो व्यक्ति की सवारी के लिए प्रतिलीटर साठ सत्तर किलोमीटर चलने वाले वहां का उपयोग करना है या,प्रतिलीटर बारह पन्दरह किलोमीटर चलने वाले चार पहिये वाहन का उपयोग करना है,एक बार तो ठहरकर सोच ही लेना चाहिए.......यदि समय का अभाव या और कोई परेशानी न हो तो हवाई यात्रा न कर रेल यात्रा किया जाना चाहिए या नही,यह भी हमें ही तय करना है....किसी भी साधन का उपयोग या उपभोग आवश्यकता आधारित हो तो उचित है,वैभव प्रदर्शन हेतु हो, तो सर्वथा अनुचित है....


जिस दिन हम अपनी प्रवृत्ति में चौअन्नी कमाई में से पाँच पैसे बचत का लक्ष्य तय करेंगे और अपने बचत के पैसों के आधार पर ही व्यय की योजना बनायेंगे....बहुत सारी समस्याएं समूल नष्ट हो जाएँगी।


_______________________