भक्त प्रहलाद जब प्रभु प्रेम सरिता में आकंठ निमग्न हो तन मन की सुधि बिसरा तन्मय हो प्रभु वंदन में लीन हो जाते और झूमकर गायन और नृत्य में मग्न हो जाते थे तो उस अद्भुत दृश्य को देखने के लिए देवता भी विभोर हो इस विहंगम दृश्य का अवलोकन करने और इस दुर्लभ रस का पान करने लगते थे. .
लेकिन कहते हैं न अंहकार व्यक्ति को इतना अँधा कर देता है कि उसे मोह माया ममता हित अनहित किसी का भान नही रहता,सो मदांध हिरण्यकश्यप जो कि अपने बल के अंहकार में विवेकरहित हो चुका था, उसके लिए पुत्र पुत्र नही बल्कि एक प्रतिद्वंदी, एक चुनौती था, जो उसके ही घर में रह उसके शत्रु में आस्था रखता था,आठों प्रहार उसका का गुण गान किया करता था. अंहकार ने उसके ह्रदय से वात्सल्य भाव पूर्ण रूपेण तिरोहित कर उसके स्थान पर प्रतिद्वंदिता और शत्रुता का भाव प्रतिष्टित कर दिया था. अपने ही संतान और उत्तराधिकारी को नष्ट करने ,उसका वध करने को प्रतिपल सचेष्ट रहता और भांति भांति के कुचक्र रचा करता था.
बड़ी विचित्र स्थिति थी, एक ही कारक जो प्रहलाद के लिए सुख का श्रोत थी,हिरण्यकश्यप के लिए अपार कष्टदाई थी. घृणा और विद्वेष में निमग्न हिरण्यकश्यप नारायण के लिए जैसे ही विष वमन(दुर्वचन) करने लगता,पुत्र की भावनाओं को आहत करने को उद्धत होता ,नारायण नाम के श्रवण मात्र से प्रहलाद ऐसे आह्लादित और विभोर हो जाते कि वे भक्ति रस में निमग्न हो सुध बुध बिसरा उन्मत्त हो नृत्य करने लगते.एक ही कारण एक के लिए अपार सुख और दूसरे के लिए असह्य कष्ट का निमित्त थी.
एक दिन ऐसे ही भरी सभा में जैसे ही हिरण्यकश्यप ने प्रहलाद के आराध्य के लिए दुर्वचन बोलना आरम्भ किया कि प्रहलाद की फ़िर से वही दशा हो गई. हिरण्यकश्यप के लिए यह सब असह्य था.उसने सैनिकों को आदेश दिया कि अविलम्ब प्रहलाद को पकड़ कर कारागार में डाल दिया जाय और जितनी बार वह नारायण का नाम ले प्रति नाम दस कोड़े मारा जाय. आज्ञानुसार सैनिक प्रहलाद को पकड़ने आगे बढे,पर यह क्या..... जैसे ही उन्होंने प्रहलाद का स्पर्श किया, वे भी वैसे ही उन्मत्त हो प्रहलाद के साथ झूम झूम कर नृत्य में मग्न हो गए.. यह दृश्य हिरण्यकश्यप की क्रोधाग्नि को और भी भड़का गया..उसने तुंरत कुछ और सैनिकों को इन लोगों को पकड़कर कालकोठरी पहुँचाने का आदेश दिया.परन्तु जैसे ही सैनिकों की यह टुकडी वहां पहुँच इन्हे पकड़ने को उद्धत हुई कि पिछली बार की भांति ये भी वैसे ही मग्न हो गए.इसके बाद तो बस पूरा परिदृश्य ही यही हो गया.जितने लोग जाते सभी उसी रंग में रंग जाते.पूरी सभा ही भक्तिमय हो गई थी.
हिरण्यकश्यप क्रोध से बावला हो गया.यूँ भी उसे प्रजा की अभिरुचि का आभास था.वह जानता था कि भयाक्रांत हो प्रजा भले उसका मुखर विरोध नही कर रही,परन्तु प्रजा के हृदयशीर्ष पर उसकी शत्रु का उपासक उसका पुत्र ही विराजता है.उसकी सत्ता और ईश्वरत्व को चुनौती उसका अपना ही पुत्र दे रहा है....इसलिए वह इसके मूल को ही समाप्त कर जनमानस के सम्मुख दृष्टांत रखना चाहता था कि उसके विरोधी के लिए तीनो लोकों में कहीं स्थान नही है.और आज तो उसके सामने भरी सभा में यह समुदाय उसके दर्प को सरेआम चुनौती दे रहा था. आहत, क्रोध से काँपता वह स्वयं ही उन्मत्त समूह को तितर बितर करने निकल पड़ा.कितनो को उसने मौत के घाट उतार दिया,कितनो को घायल कर दिया पर उस अवस्था में भी लोग पूर्ववत वैसे ही झूमते गाते रहे....
देवताओं का वह समूह,जो स्तब्ध हो यह सब वृत्तांत देख रहा था,उनके मन में तीव्र कौतूहल जगा . उन्होंने निकट खड़े नारदजी से प्रश्न किया कि आज जो कौतुक उन्होंने सभा मंडप में देखा ,आज तक उन्होंने जो सुन जान रखा था कि भक्ति में इतनी शक्ति होती है कि भक्त के प्रभामंडल के संपर्क भर से व्यक्ति के समस्त कलुष नष्ट हो जाते हैं और उसके ह्रदय में भी इसकी अजश्र धारा प्रवाहमान हो जाती है, यह दृश्य उसका साक्षात् प्रमाण है. जड़ संस्कार और क्रूर कर्म में लिप्त इतने बड़े समूह की जिस प्रहलाद के स्पर्शमात्र से यह गति हुई , परन्तु पिता होते हुए भी हिरण्यकश्यप पर प्रहलाद के सुसंस्कारों ,शीर्ष भक्ति का रंचमात्र भी प्रभाव क्यों नही पड़ा.....
तब नारदजी ने उनके शंकाओं का समाधान करते हुए कहा कि जैसे विद्युत् तरंग प्रवाहित होने के लिए वस्तु में रंचमात्र भी धातु तत्त्व की उपस्थिति आवश्यक है, वैसे ही सत्संगति में सकारात्मक भाव का ह्रदय में संचार तभी सम्भव है जब कि व्यक्ति के ह्रदय में सुप्त अवस्था में ही सही सुसंस्कार स्थित हो. ये जितने व्यक्ति प्रहलाद को पकड़ने गए,भले क्रूर कर्म में लिप्त होने के कारण इनके संस्कार शिथिल पड़ गए थे और निरपराध प्रहलाद को प्रताडित करने को ये सचेष्ट हुए थे,परन्तु भक्ति रस में निमग्न पूर्ण जागृत सुसंस्कारी बालक के स्पर्श ने विद्युत् धारा सा प्रवाहित होकर सैनिकों के सुसंस्कारों को भी पूर्ण रूपेण जागृत कर दिया और चूँकि हिरण्यकश्यप में उस संस्कार तत्त्व का पूर्णतः अभाव था, इस कारण उसके मनोमस्तिष्क पर इस तीव्र प्रेम तरंग, सुसंस्कारों का कोई प्रभाव नही पड़ा.....
विज्ञान कहता है कि व्यक्ति में गुण अधिकांशतः अनुवान्शकीय होते हैं, गुणसूत्रों द्वारा पीढियों से विरासत में मिलते हैं.धर्म कहता है, व्यक्ति जन्म और संस्कार अपने संचित कर्म और भाग्यानुसार पाता है. इसलिए घोर अधम व्यक्ति की संतान भी महान संस्कारी होते देखे गए हैं और महान धर्मात्मा की संतान भी दुराचारी कुसंस्कारी पाई गई है..संस्कार का जन्म वस्तुतः जन्म के साथ ही हो जाता है.यह अलग बात है कि यदि परिवेश या परवरिश सही न मिले तो सुसंस्कार सुप्तावस्था में पड़े रहते हैं.परन्तु जैसे ही इन्हे अनुकूल वातावरण उपलब्ध होता है,ये मनोभूमि पर प्रकट हो जाते हैं.वाल्मीकि वर्षों तक चौर कर्म में लिप्त रहे परन्तु जैसे ही उनके सुसंस्कार उदित हुए उन्होंने चिरंतन साहित्य का सृजन कर डाला.ऐसा नही था कि यह संस्कार परवर्ती समय में उनके ह्रदय पर आरोपित हुआ था,यह तो उस समय भी उनके ह्रदय में उपस्थित था जब वे अकरणीय में लिप्त थे.यदि सुंदर सकारात्मक बातों का किसी पर कोई प्रभाव नही पड़ रहा हो तो मान लेना चाहिए कि उसके ह्रदय में उन्हें धारण करने का सामर्थ्य ही नही है.
जिस तरह हजारों मील दूर से छोड़े गए रेडियो तरंगों को उपकरण/माध्यम पकड़ लेता है,ऐसे ही ह्रदय में सुसंस्कार या कुसंस्कार जो भी बीज रूप में उपस्थित होते हैं अपने अनुकूल परिवेश से तरंग(अभिरुचि के साधन) पकड़ लेते हैं......कोई पब/डिस्को में जाकर सुरा और शोर में मगन होने पर झूम पाता है ,तो कोई भक्ति रस में डूबकर ही झूम लेता है.
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29 comments:
ज्ञान और विज्ञान को आपस में जोड़कर प्रह्लाद की कथा से अच्छी शिक्षा दी है
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गुलाबी कोंपलें
बहुत बढ़िया. बहुत प्रासंगिक.
लेखन शैली, शब्दों का चुनाव, भाषा के प्रवाह के बारे क्या कहें? जितना कहेंगे, कम ही होगा.
रंजना जी, बहुत सुंदर प्रस्तुति. प्रहलाद की कथा अनेकों बार पहले भी पढी-सुनी है मगर आज कई नए पहलू समझ में आए.
अति उत्तम रंजना जी. जारी रहिए.
bahut hi badhiyaa......
जिस तरह आपने धर्म व विज्ञान संगम से चरित्र निर्माण का तर्क रखा है, अति प्रशंसनीय है। वस्तुतः चरित्र निर्माण में आतंरिक व बाह्य दोनों तत्व भूमिका निभाते हैं, जब दोनों सकारात्मक हों तो एक महापुरुष का जन्म होता है।
वाह रंजना जी.... निरन्तरता बनाए रखें..
शिक्षाप्रद...सुंदर पोस्ट
आप बहुत लगन और श्रम पूर्वक लिखती हैं.
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बधाई
डॉ.चन्द्रकुमार जैन
बहुत अच्छे तरीके से लिखा है आपने.
झूम बराबर झूम के माध्यम से हमने भी भगवान् की कथा का वाचन किया और आनंद भी लिया. होली आने को है, इस समय आलेख की महत्ता और बढ़ गई है.
- विजय
इस कथा को अनेको बार पढा सुना है. आज आपके नजरिये से पढ कर बहुत बढिया लगा और एक आनन्द दायक अनुभव रहा.
रामराम.
वाह रंजना जी , बहुत सुंदर ढंग से अप ने इस कहानी को लिखा, बहुत ही सुंदर लगा. धन्यवाद
aap jis andaj se baat ko kahti ho vo kala har insan ke paas nahi hoti ya yuN kaho ki ye prabhu ki den hai..uspar aapka shabd gyan vakai ..kabil-e-tariif.
ek chintak or vicharak ek accha updeshak hota hai , ye hi aapke bhi gun hai.
accha lagta hai aapko padhna
सर्वप्रथम आपको मेरे ब्लॉग पर आने व अपनी टिप्पणी से उसकी शोभा बढ़ाने हेतु हार्दिक धन्यवाद.
बिल्कुल सही बात कि "कोई पब/डिस्को में जाकर सुरा और शोर में मगन होने पर झूम पाता है ,तो कोई भक्ति रस में डूबकर ही झूम लेता है."
अपने पोस्ट के माध्यम से सांस्कृतिक गाथा का पुनर्स्मरण कराने हेतु पुनः धन्यवाद.
आपकी शुभाशंसाएं समय-समय पर मिलती रहेंगी,
इसी आशापुष्प के साथ,
मणि दिवाकर.
यह सही है की हर मनुष्य मैं सुसुप्त अवस्था मैं सुसंस्कार होते हैं . अतः जब भी इन्हे उत्प्रेरक के रूप मैं कोई कारक मिलता है तब ये सक्रिय हो जाते हैं . अतः जरूरी है की हर मनुष्य को सही सुसंसकारित परिवेश और मार्गदर्शन मिले तो सुसंस्कार स्वयम ही प्रस्फुटित और पल्लवित होंगे . बहुत ही सारगर्भित अभिव्यक्ति है . सुंदर अभिव्यक्ति के लिए साधुवाद .
मिस्र के राजा फिराओं का भी हश्र यही हुआ था, वो ख़ुद को ईश्वर घोषित कर चुका था | लोग उसके डर से उसे ईश्वर मानने लगे थे | लेकिन ईश्वर ने अपने संदेष्टा हज़रत मूसा (ईश्वर की उन पर अनुकम्पा हो) को मिस्र की जनता को एक सच्चे ईश्वर/अल्लाह को मानने और सही राह पर चलने के लिए भेजा | हज़रत मूसा (अलैहिस्सलाम) उसी फ़िरऔन के घर पले बढे और अंत में वहां की जनता को ईश्वर का संदेश पहुँचाया और फ़िरऔन को ऐसी मौत दी कि प्रलय के दिन तक उसकी मौत एक आंखों देखी मिसाल बन गई | जब फ़िरऔन ईश्वर के संदेष्टा हज़रत मूसा (ईश्वर की उन पर अनुकम्पा हो) और उनके फालोवर्स को ख़त्म करने के इरादे से समुन्द्र के मुहाने पर घेर लिया तो हज़रत मूसा (ईश्वर की उन पर अनुकम्पा हो) ने ईश्वर/अल्लाह से दुआ कि और समुन्द्र के बीच में से रास्ता बन गया और ईश्वर के मानने वाले समुन्द्र के उस पार पहुँच गए | मगर जब उसी रास्ते पर फ़िरऔन और उसकी सेना पहुँची तो ईश्वर ने उस रास्ते को बंद कर दिया फ़िरऔन सेना सहित उसमें समा गया |
लेकिन समुन्द्र में भी फ़िरऔन की लाश यूँ ही रही, कुछ भी नहीं हुआ और बाद में उसकी लाश बाहर निकाली गई और आज भी संग्रहालय में रखी गई है | फ़िरऔन की लाश में एक ख़ास बात है जैसे अन्य ममी में लेप लगा होता है, फ़िरऔन की लाश पर ना कोई लेप है ना ही कोई केमिकल |
इस घटना को लगभग तीन हज़ार साल से ऊपर हो गया है, लेकिन फ़िरऔन की लाश पर कोई प्रभाव नही पड़ रहा है | दुनियाँ में ईश्वर की तरफ़ से ये संदेश भी जा रहा है कि देखो बुराई का हश्र |
बुरे का अंत बुरा ही होता है | ईश्वर/अल्लाह की लानत हो उन पर जो आज भी बुराई में मुब्तिला हैं जबकि उनके लिए एक नहीं, दो नही सैकडों ऐसे उदहारण है ईश्वर के बताये रस्ते पर चलो नही तो अंत बहुत बुरा होगा |
- सलीम खान, स्वच्छ संदेश, लखनऊ, उत्तर प्रदेश
एक नए अंदाज से आपकी लिखी बात को पढ़ा ..बहुत बेहतरीन लिखा है आपने रंजना
रंजना जी. ब्लॉग पर अध्यात्मिक लेख कम ही दीखते हैं.बहुत सुंदर अभिव्यक्ति है.यह अपनी दृष्टि है जो माया के वशीभूत होकर सुखदायी और दुखदाई आचरण का चयन कराती है. तुलसी दास ने सही लिखा है कि " भाव सहित खोजै जे प्रानी . पाव भगति मनि सब सुख खानी.. "
सलीके से आपने बहुत कुछ कह दिया। अच्छी लगी आपकी पोस्ट।
अच्छी लगी आपकी पोस्ट
समयचक्र: चिठ्ठी चर्चा : वेलेंटाइन, पिंक चडडी, खतरनाक एनीमिया, गीत, गजल, व्यंग्य ,लंगोटान्दोलन आदि का भरपूर समावेश
प्रेम में जब समर्पण आ जाए तो वोह भक्ति हो जाता है ! भक्ति भाव से बड़ा कोई भाव नही है ! हाँ , भगवान् का भोजन मनुष्य का अंहकार होता है !
प्रकृति ने हमें केवल प्रेम के लिए यहाँ भेजा है. इसे किसी दायरे में नहीं बाधा जा सकता है. बस इसे सही तरीके से परिभाषित करने की आवश्यकता है. ***वैलेंटाइन डे की आप सभी को बहुत-बहुत बधाइयाँ***
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'युवा' ब्लॉग पर आपकी अनुपम अभिव्यक्तियों का स्वागत है !!!
बहुत ही गहरी बात उठाई है आपने.
प्रहलाद के बहाने सुसंस्कारों और कुसंस्कारों की व्याख्या करने के लिए साधुवाद.
सुन्दर और शिछा प्रद लेख । इतिहासिकता से लेकर आधुनिकता की बातों को आपने समेट लिया है । सारी बाते समाहित है । धन्यवाद
रंजना जी
विज्ञान और ज्ञान के सांजस्य को सुंदर तरीके से बांधा है आपने, दरअसल हमारी संस्कृतिकी ये विशेषता है की हम तार्किक ज्ञान में विशवास करते है और भक्ति और मुक्ति का मार्ग भी तर्क से खोजते हैं. आपने सही लिखा है, मनुष्य के अन्दर अच्छी भावः सही जमीन मिलने पर फूलने लगते हैं
आपने जो संदेश प्रहलाद की कथा के द्वारा देना चाहा है वो बिल्कुल सीधा-सीधा पाठक की और जा रह है। बहुत दिनो बाद आया हूँ पिछले दिनों काफी व्यस्त रहा इसलिए आपके ब्लॉग पर न आने के लिए क्षमा। अबकि बार तो आपकी तस्वीर भी बदल कर लगी है लगता है कि खूब सेहत बना कर आईं हैं।
kya baat hai didi....hamesha se aapke blog par aakar bahut kuchh seekhne ko milta hai....magar es baar aapne dharm,darshanshastra aur vigyan ko milakar jis tarah se yah lekh prastut kiya hai wo kaabil-e-taarif hai....magar mere taarif karne se aapki shakhsiyat ko nahi pahchana ja sakta...mera exam hone wala hai jis karan se mai abhi aapki rachnaao ko nirantar nahi padh pa raha hun....magar jab bhi padhta hu to aisa lagta hai ki maine apne wakt ka sadupyog kiya hai. aur aap kaisi hai didi.....aap is tasweer e achhi lag rahi hai.
बहुत सुन्दर,सत्संग जैसा आनन्द आ गया !
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