कहाँ नहीं मनौती मानी गयी।अंगरेजी डाक्टर, बैद हकीम, गंडा ताबीज क्या क्या न किया गया॥आखिर शादी के बारहवें बरस में भाग बना और देवकी बाबू के घर चिराग जला था...सरोज के विकल ममत्व को स्नेह अवलंबन मिला....नन्हा सोनू दोनों के जीवन का सार था.दोनों पति पत्नी की आँखे आठों पहर उसी पर लगी रहती थी..
और लड़का था भी ऐसा कि देखने वालों की आँखें बाँध लेता था...ऐसा कोई दिन न होता जब सरोज उसकी दीठ न उतारती हो।उसका बस चलता तो उसे आँचल तले ही छुपाये रखती. पर हाथ पैर वाले बच्चे को आँचल तले कितने दिन रखा जा सकता था,बच्चा भाग दौड़ में लग जाता और आशंकित सरोज कभी भी निश्चिंत होकर उसके बाल क्रियाओं का मन भर सुख न ले पाती......
चार साल तक तो सरोज ने उसे घर खलिहान और आँगन तक में सीमित रखा,पर आखिर ऐसे ही सारी उम्र घर में घुसाए तो न रखा जा सकता था॥शिक्षा की बात आई तो सरोज ने जिद ठान दी कि सोनू स्कूल नहीं जायेगा,बल्कि उसके शिक्षा की व्यवस्था घर पर ही कर दी जाय। बड़ी मशक्कत से देवकी बाबू ने सरोज को समझा बुझाकर बच्चे का दाखिला स्कूल में करवाया.
देवकी बाबू नहीं चाहते थे कि उनका बच्चा भी उनकी तरह जमींदारी की इस डूबती नैया के भरोसे अनपढ़ बैठा रहे॥अपने लाल के लिए उनकी आँखों में बहुत बड़े बड़े सपने थे..उन्होंने सोच रखा था कि किसी भी तरह हाई स्कूल की शिक्षा के लिए वे उसे शहर के सबसे बड़े स्कूल में डाल देंगे और अपना पूरा सामर्थ्य इस बच्चे के उज्जवल भविष्य निर्माण में लगा देंगे..
ज्यों ज्यों दिन बीतते गए उनका सोनू अपनी प्रतिभा से उनके सपने को और भी पुख्ता करता गया।उसके प्रतिभा से स्कूल से मास्टर भी अचंभित रहा करते थे. छठी कक्षा तक पहुँचते पहुँचते सोनू स्कूल की शान बन गया था.
लेकिन विधाता भी कैसे खेल खेला करता है, कि कभी कभी उससे निष्ठुर संसार में कोई नहीं लगता। स्कूल के आहते में ही आम का एक विशाल पेड़ था. उस साल वह फल से लद सा गया था.नीचे के सभी फल तो बच्चों ने चढ़कर या डंडे पत्थर मारकर बतिया में ही झाड़ लिए थे,पर ऊपर की टहनियों पर जो कुछ फल बच गए थे,बच्चों को हमेशा चुनौती दे चिढाया करते थे.... रोज ही बच्चों में दावं लगाया जाता कि जो भी बच्चा ऊपर वाली टहनियों से बीस फल तोड़ लाएगा वही स्कूल का लीडर ,सबसे बहादुर माना जाएगा.
फिर क्या था,इसी होड़ में एक दिन सोनू चढ़ गया ऊपर वाली टहनियों पर॥नीचे से सारे बच्चे ललकार रहे थे और सोनू फुनगियों की तरफ बढा चला जा रहा था।हरेक आम के साथ उसका उत्साह बढा ही चला जा रहा था.पंद्रह आम तोड़ लिए थे उसने .लेकिन जैसे ही सोलहवें की ओर बढा, एक कमजोर टहनी ऐसे टूटी कि वह सोनू के लिए यमराज बन गयी.सर में इतनी भारी चोट आई कि जमीन पर गिरने के बाद उसके मुंह से आवाज तक नहीं फूटी....एक पल में देवकी बाबू और सरोज का वह सुन्दर संसार लुट गया.
देवकी बाबू के घर में पूरा गाँव उमड़ आया था।देवकी बाबू के कुछेक गोतिया लोगों को छोड़ शायद ही कोई ऐसा था जिसकी आँखें नहीं बह रही थी.सरोज की नजर जैसे ही अपने बच्चे के लहूलुहान शरीर पर पडी बदहवास भागती उसे गोद में झपट लिया...लेकिन उसके ठंढे पड़े शरीर ने जैसे ही उसे यथार्थ बोध कराया तो वह अपने होशो हवाश खो बैठी.उसके बाद तो किसी तरह जैसे ही उसे होश में लाया जाता,एक चित्कार के साथ फिर से वह अपने होश गवां बैठती.देवकी बाबू बेहोश भले न हुए थे,पर बेटे के मृत शरीर के आगे जो पत्थर होकर बैठे,तो लग ही नहीं रहा था कि उनके काठ बने शरीर में प्राण बचा हुआ है.
दोपहर को घटना घटी थी और सूरज डूबने को आया था...सबके समझाने बुझाने पर किसी तरह अंतिम संस्कार की तैयारी शुरू हुई।देवकी बाबू का माथा तो सुन्न पड़ा था,गोतिया दियाद तथा ग्रामीणों ने ही मिलकर सारी तैयारियां कीं.अंतिम विदाई के ह्रदय विदारक दृश्य ने सबके कलेजे दहला दिए थे॥
दाह संस्कार के अगले दिन सभी सम्बन्धियों पुरोहितों तथा गणमान्य ग्रामीणों की देवकी बाबू के घर बैठकी हुई। आगे के कार्यक्रम की रूपरेखा पर विचार शुरू हुआ. कुछ भलेमानसों ने जैसे ही राय दी कि दुःख की इस घड़ी में क्रिया कर्म में कोई ताम झाम न किया जाय,बाकियों ने उन्हें इतना दुरदुराया कि उन्होंने चुप रहने में ही भलाई समझी.लोगों का तर्क था कि अब चूँकि सोनू का जनेऊ हो चुका था, इसलिए उसका सारा कर्म एक वयस्क सा ही होना चाहिए. इन विरोधी स्वरों में देवकी बाबू के अलग हो चुके भाइयों का स्वर सबसे मुखर था.
यह तो उनके लिए एक सुनहरा अवसर था,जिसके द्वारा वे अपना सारा गुप्त वैर निकाल मन ठंढा कर सकते थे।एकसाथ मानसिक और आर्थिक आघात दे वे अपना अगला पिछला सब हिसाब चुकता कर सकते थे,जो जमीन विभाजन के समय से उनके मन में पल रहे थे॥इस सुनहरे अवसर को वे भला क्योंकर गवांते.
क्रिया कर्म दान इत्यादि की लम्बी फेरहिस्त बनी।लगभग दो घंटे तक इस बात पर विचार या कहें वाद विवाद चलता रहा कि चार दिनों के भोज में किस दिन कौन सा व्यंजन रखा जायेगा, कितने किस्म की कौन कौन सी मिठाई का प्रावधान रखा उचित होगा॥ पूरी परिचर्चा ऐसे हो रही थी जैसे वह सोनू के विवाहोत्सव का अवसर हो.मिठाइयों के स्वाद ने सबकी बुद्धि और जीभ को ऐसे मोहित किया कि उनका हर्ष परिचर्चा में परिहास ले आया.हंसी ठठा से पूरा माहौल गमगमा गया.
उसी समय देवकी बाबू की आँखों के आगे दृश्य घूम गया कि उनका सोनू पेड़ से गिर रहा है और जबतक वे उसे अपने हाथों में थामते कि वह जमीन पर गिरकर लहूलुहान हो गया है। देवकी बाबू चिंघाड़ मारकर बिलख पड़े और संज्ञाशून्य हो कर जमीन पर गिर पड़े.माहौल अचानक ही बदल गया.पानी के छींटे और हवा कर किसी तरह उन्हें होश में लाया गया. लोगों ने दबी जुबान से एक दुसरे को परिचर्चा को विराम देने को खबरदार किया॥अभी इसे आगे बढ़ाने का उचित माहौल नहीं रह गया था.. अगले दिन बैठक के निर्धारण के साथ उस दिन की सभा बीच में ही स्थगित हो गयी..
दो पुस्त पहले तक बड़ी भारी जमींदारी थी उनकी। जहाँ तक नजर दौडाओ उनके ही खेत नजर आते थे...खलिहान में फसल के अम्बार लगे रहते थे...कमला नदी का आर्शीवाद था.साल में तीन फसल हुआ करते थे.उनके ज्यादातर जमीन कमला जी के किनारे ही थे॥लेकिन समय के साथ सब तहस नहस होता चला गया.नालायक निकम्मी पीढी ने केस मुक़दमे तथा अय्यासी में सारा धन कमला जी के सतत प्रवाहित धार सा पानी कर बहा दिया...
आज बस सब ऊपरी दिखावा भर रह गया था॥अन्दर से सभी खोखले थे। यह भी जो आज बचा था देवकी बाबू के पिताजी रामनारायण बाबू सूझ बूझ के कारण ही बचा था.उन्होंने अपनी जिन्दगी में ही अपने बेटियों को निपटाकर सातों बेटों को फरिया दिया था.. पर बाँट बखरा के बाद सातों भाइयों के हिस्से जो जमीन आई थी,वह इतनी न थी कि उसके भरोसे ठीक से पहना ओढा या शान बघारा जा सकता था.
जब हैसियत थी तब इन्होने मरनी जीनी शादी ब्याह सबमे बेहिसाब पैसे लुटाये थे, कुत्ते बिल्लियों के भी धूम धाम से ब्याह रचाए थे॥पर आज वह सब करना नामुमकिन था।आज हैसियत के हिसाब से काम क्रिया का मतलब था,कम से कम छः सात लाख की चोट.देवकी बाबू अपने हिस्से की लगभग सारी जमीन बेच देते तो ही इतनी रकम का इंतजाम हो सकता था.
लेकिन जमीन बेचना भी क्या इतना आसान था।लोग इसी ताक में तो रहते थे.सख्त जरूरत के ऐसे मौकों पर खरीदार के हजार नखरे होते थे.मजबूरी में औने पौने दाम पर लोगों को जमीन बेचना पड़ता था या फिर सूदखोरों के पास चक्रवृद्धि ब्याज पर जमीन गिरवी रखना पड़ता था,जिसके मूल और सूद चुकाने में पीढियों के तेल निकल जाते थे.
एक तो बेटे के मौत का गम ऊपर से इतना बड़ा खर्चा....देवकी बाबू विक्षिप्त से हुए जा रहे थे।अपने मुंह से अपने आर्थिक स्थिति की पोल तो खोल नहीं सकते थे...सो उन्होंने सोचा कि मानसिक स्थिति का हवाला देकर किसी तरह पंचों को मानाने का प्रयत्न करेंगे॥
अगले दिन की बैठक में उन्होंने पंचों के सामने जैसे ही अपना अनुनय रखा कि वर्तमान मानसिक अवस्था में उनका मन जरा भी गवाही नहीं दे रहा इस आयोजन को वृहत रूप में करने का॥कि सारे लोग इस बात पर उखड गए।पीढियों से चली आ रही परंपरा, रीत रिवाज के ये ही तो रक्षक थे.माना कि दुःख बहुत बड़ा था,लेकिन इसका यह तो मतलब नहीं था कि लोकाचार से मुंह मोड़ लिया जाय..एक से एक किस्से निकलने लगे कि कैसे फलाने ने अपने फलाने के आकस्मिक निधन पर क्रिया कर्म में कितने शान से खर्च किया ,फलाने ने नहीं किया तो उसके खानदान पर कितनी विपदा आई.आखिर इस आसमयिक मौत से आत्मा अतृप्त होकर जो भटकेगी,उसके शांति का रास्ता इन्ही कर्मो से होकर तो निकलेगा.जितने अच्छे ढंग से कर्म होगा आत्मा उतनी ही तृप्त होगी.
आखिर इनके तर्क और क्षोभ के सामने देवकी बाबू ने अपने हथियार डाल दिए और अंततः उन्हें कूबूलना ही पड़ा कि अभी इस समय इस रूप में यह सब करने में वे आर्थिक रूप से पूर्णतः अक्षम हैं। अब अगर पञ्च सहारा दें,इस विषम समय में हाथ पकडें,तभी वे यह सब संपन्न कर सकते हैं.
बस क्या था,सांत्वना और सहानुभूति का दौर सा चल निकला॥वाणी में मधु घोलते हुए सबने समवेत स्वर में अपने विशाल ह्रदय और अपनापन का भरोसा दिया..देवकी बाबू को लताड़ भी लगायी कि उनके रहते वे अपने आप को ऐसा असहाय कैसे समझ सकते हैं...
पुराहितों और पंचों ने पूरी सहृदयता से आयोजन की विस्तृत रूपरेखा बनाई ।खर्च का हिसाब लगाया गया और सबने अपना अपना भाग तय कर दिया॥कुछ ही पलों में पूरे पैसों का इंतजाम हो गया था..सबकी राय थी कि कहीं किसी बात की कोई कमी उनके रहते न रखी जाय..
सब कुछ तय कर तृप्त ह्रदय से चाय नाश्ते के साथ सभा संपन्न हुई.एक एक कर लोग उठ उठ कर जाने लगे.जाते समय व्यक्तिगत आश्वासन देने के बहाने सब एकांत में देवकी बाबू से मिलते गए और फुसफुसाते हुए उनके कान में अपने पसंदीदा जमीन के कागजात निश्चित रूप से लेकर आने की ताकीद करते गए...
...................... ........................
29.5.09
20.5.09
दृष्टिकोण ...........
कभी कहीं पढ़ी हुई ,सुनी हुई एक सामान्य प्रसंग ,एक साधारण वाक्य या घटना भी कभी कभी मर्म को स्पर्श कर मन एवं चिंतन को ऐसे आंदोलित कर दिया करती है कि सोच की दिशा बदल जीवन धारा ही बदल जाया करती है....
आज अपनी एक नितांत ही व्यक्तिगत और गोपनीय अनुभूति यह सोचकर सार्वजानिक कर रही हूँ कि क्या पता जैसे प्रसंग ने मेरे सोच को परिवर्तित कर मुझे अनिर्वचनीय सुख लाभ का सुअवसर दिया,संभव है किसी और के सोच की दिशा को भी प्रभावित करे और उसके सुख का निमित्त बने...
भीड़ भाड़ सदैव ही मुझे आतंकित भयग्रस्त किया करती रही है और इससे बचने में मैं अपना पूरा सामर्थ्य लगा दिया करती हूँ...बाकी भीड़ से तो बच भी जाती थी पर अपने धर्मभीरू माता पिता संग मंदिरों के भीड़ का सामना छुटपन से ही करना पड़ा. धार्मिक स्थलों की अपार अव्यवस्थित भीड़,गन्दगी,पंडों की लूट खसोट,चारों और फ़ैली अव्यवस्था मन में इतनी वितृष्णा भरती थी कि मेरे समझ में नहीं आता था,इन सब के मध्य लोग अपनी श्रद्धा भक्ति का निष्पादन और भक्ति भाव का संवरण कैसे कर पाते हैं.इसके साथ ही तथाकथित भक्तों का क्षद्म रूप भी मुझे बड़ा ही आहत किया करता था और एक तरह से मंदिरों, कर्मकांडों के प्रति मेरी अरुचि दृढ से दृढ़तर होती गयी...मेरे अभिभावक मुझसे बड़े ही क्षुब्ध रहा करते थे. उनकी दृष्टि में मैं घोर नास्तिक थी....
मेरे विवाह के पहले तक हमारे अभिभावक वर्ष में एक बार देवघर (वैद्यनाथ धाम) अवश्य जाते थे. वहां के विहंगम दृश्य के क्या कहने......लोटे का जल शायद ही शिवशम्भू के मस्तक तक पहुँच पाता था.....समस्त पुष्प पत्र जल इत्यादि भक्तों पर ही गिरते थे..गर्भ गृह की यह अवस्था होती थी कि अधिकांशतः भोलेनाथ ही भक्तों के चरण रज प्राप्त करते थे.. यदि कोई उनके स्पर्श का सुअवसर पा जाता तो लगता यदि भोलेनाथ धरती को इतने जकड़ कर न पकडे होते तो कबके भक्त उन्हें समूल उठा अपने जेब में रख चलते बनते...
इस धक्का मुक्की में भक्ति भाव कितना बचा रहता था पता नहीं,हर व्यक्ति दुसरे को अपने स्थान का अपहर्ता घोर शत्रु सम लगता था और वश चलता तो सामने वाले को खदेड़ कर वहां से भगा देता. इस भीड़ में चोरों,जेबकतरों और ठगों की चांदी कटती थी....
उत्तर भारत के प्रायः सभी धर्मस्थलों की कमोबेश यही स्थिति आज भी है .हाँ दक्षिण भारत के जितने भी धर्मस्थलों पर आज तक भ्रमण किया ,अपार भीड़ के बावजूद मंदिर प्रशासन तथा स्थानीय प्रशासन के हस्तक्षेप से क्रमबद्ध कतारों के कारण बहुत अधिक धक्का मुक्की की स्थिति कहीं नहीं देखी...
बचपन में तो अभिभावकों के साथ जब कभी भी इस भीड़ भाड़ में जाने की बाध्यता बनी,मेरा प्रयास होता था ,शीघ्रता से उस भीड़ से निपटकर मंदिर प्रांगन में कोई ऐसा स्थान खोजना और वहां शांति से समय गुजरना जहाँ कि पर्याप्त नीरवता हो.बाद में जब स्वयं निर्णायक बनी तब बहुधा यही प्रयास रहा कि देवस्थानों पर ऐसे समय में जाया जाय जब भीड़ की संभावना न्यूनतम हो.
वर्षो तक देवस्थानों की इस भीड़ और अव्यवस्था ने मन को बड़ा ही तिक्त और खिन्न किया ...परन्तु सुसंयोग से करीब सत्रह अठारह वर्ष पहले एक बार चैतन्य महाप्रभु की जीवनी पढ़ने का अवसर मिला. संभवतः हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की लिखी हुई थी वह.. सम्पूर्ण कथानक इतने हृदयस्पर्शी ढंग से उल्लिखित था कि उसने मन प्राणों को बाँध लिया .....उसी कथानक में विवरण था कि जब चैतन्य महाप्रभु यात्रा क्रम में पुरी के जगन्नाथ मंदिर पहुंचे तो मुख्यद्वार पर पहुँचते ही प्रिय के सानिध्य स्मरण ने उन्हें भावविभोर कर दिया,उनके शरीर में रोमांच भर आया, नयनो से अविरल अश्रुधार प्रवाहित होने लगी, भक्ति और प्रेम के आवेग में वे मूर्छित हो गए.....
जब मैंने यह अंश पढ़ा तो न जाने इस प्रसंग ने ह्रदय के किस तंतु को झकझोरा .... मेरे मन ने मुझे बड़ा दुत्कारा ...मुझे लगा जिस पुरी मंदिर में जाने पर मुझे आजतक भीड़ अव्यवस्था,पण्डे , गन्दगी इत्यादि ही दिखे थे,उसी मंदिर में तो चैतन्य महाप्रभु को श्याम सलोने के दर्शन हुए .....यह तो मेरा ही दृष्टिदोष है जो आज तक मेरी दृष्टि इन अवयवों पर ही केन्द्रित रही थी . मेरा ध्यान जिन वस्तुओं पर था,मुझे वही दिखाई दिया...चैतन्य महाप्रभु के दृष्टि वलय में जो था, उन्हें वह दिखाई दिया...
इस विचार ने मुझे इतने गहरे प्रभावित किया कि ,इसने मेरा दृष्टिकोण ही बदल दिया...और उस दिन के बाद जब भी किसी देवस्थान पर गयी हूँ और मन ध्यान से वहां की सकारात्मक उर्जा से जुड़ने का प्रयत्न किया है,शायद ही कभी असफलता मिली है और उसके उपरांत तो कोई भी कारण ध्यान क्रम को बाधित नहीं कर पाया है..प्रेम और भक्ति रस में आकंठ निमग्न होने पर तन मन की जो स्थिति होती है,जो परमानंद प्राप्त होता है उसके सम्मुख संसार की कोई भी वस्तु कोई भी असुविधा अर्थहीन लगती है.....
जो हम अपनी इस स्थूल शरीर की सीमित सामर्थ्यवान नयनो से दृष्टिगत नहीं कर पाते , उसका आस्तित्व ही नहीं है ,ऐसी धारणा नितांत ही भ्रामक और मूर्खता पूर्ण है. जो ईश्वरीय सत्ता को अस्वीकृत करते हैं ,उनके साथ मैं बहस में नहीं पड़ना चाहती. उन्हें यदि यह सोच शांति और सुख देता है तो,यह बहुत ही अच्छी बात है,वे ऐसे ही सुखी रहें......मैं उनके उन्मुख हूँ जो ईश्वरीय सत्ता को तो मानते हैं ,परन्तु बाह्य अवयवों में फंस उस अपरिमित सुख प्राप्ति से वंचित रह जाते हैं..उन्हें एक बार इस दृष्टिकोण के प्रति सजग करना मुझे अपना कर्तब्य लगा....
धर्म में दिखावे और आडम्बर युक्त कोरे कर्मकांडों की धुर विरोधी मैं भी हूँ..कर्म कांडों की उपयोगिता और आवश्यकता मैं इतने भर के लिए मानती हूँ कि कहीं न कहीं ये मुझे वैज्ञानिक तथा भक्ति प्रेम के उद्दीपक लगते हैं. जैसे अपने किसी प्रिय श्रेष्ठ का सानिध्य हमें सुखद लगता है,उसके सम्मान और प्रेम प्रदर्शन हेतु हम भांति भांति की चेष्टाएँ करते हैं और अंततोगत्वा अपार सुख प्राप्त करते हैं,वैसे ही उस सर्वेश्वर के प्रति स्नेह प्रदर्शन सेवा सम्मान भी भक्ति उद्दीपक तथा सुख के साधन ही हैं.
धार्मिक अनुष्ठानों या कर्मकांडों को सिरे से नकारना भी पूर्णतः उचित नहीं है क्योंकि इसके रूप को विकृत मनुष्यों और पण्डे पुजारियों ने ही किया है नहीं तो इनमे निहित वैज्ञानिक दृष्टिकोण पूर्ण रूपेण जीवनोपयोगी हैं.यह सत्य है की मानवमात्र का धर्म बह्याडम्बरों की अपेक्षा ईश्वर को मन कर्म व्यवहार में धारण करना है,परन्तु जो भी उपाय ईश्वर के प्रति श्रद्धा निष्ठां भक्ति और प्रेम को सुदृढ़ करने में सहायक हों,जीवन को सकारात्मक दिशा प्रदान करता हो,मेरी दृष्टि में वह ग्रहणीय एवं वन्दनीय है.
यह पूर्ण और अकाट्य सत्य है कि ईश्वर का वास मन आत्मा में होता है,हमारी भावनाओं में होता है,सकारात्मक सोच और कर्म में होता है.परन्तु ईश्वर का वास उस पत्थर और स्थान में भी होता है जो अनंत काल से असंख्य श्रद्धालुओं के आस्था का केंद्र है.. यह निश्चित जानिए कि यदि हमारी अनुभूति क्षमता प्रखर है तो हम भी उसी प्रकार पत्थर की मूरत में श्याम को देख सकते हैं जैसे मीरा और सूर ने देखा था..रामकृष्ण ने माँ काली को देखा था....और ऐसे उदाहरणों की कोई कमी नहीं......तो क्यों न एक बार हम भी प्रयास कर देखें. उस अनिर्वचनीय सुख और आनंदलाभ का प्रयास करें....अधिक कहाँ कुछ करना है,एक दृष्टिकोण भर तो बदलना है इसके लिए.....
.....................................................................................................
आज अपनी एक नितांत ही व्यक्तिगत और गोपनीय अनुभूति यह सोचकर सार्वजानिक कर रही हूँ कि क्या पता जैसे प्रसंग ने मेरे सोच को परिवर्तित कर मुझे अनिर्वचनीय सुख लाभ का सुअवसर दिया,संभव है किसी और के सोच की दिशा को भी प्रभावित करे और उसके सुख का निमित्त बने...
भीड़ भाड़ सदैव ही मुझे आतंकित भयग्रस्त किया करती रही है और इससे बचने में मैं अपना पूरा सामर्थ्य लगा दिया करती हूँ...बाकी भीड़ से तो बच भी जाती थी पर अपने धर्मभीरू माता पिता संग मंदिरों के भीड़ का सामना छुटपन से ही करना पड़ा. धार्मिक स्थलों की अपार अव्यवस्थित भीड़,गन्दगी,पंडों की लूट खसोट,चारों और फ़ैली अव्यवस्था मन में इतनी वितृष्णा भरती थी कि मेरे समझ में नहीं आता था,इन सब के मध्य लोग अपनी श्रद्धा भक्ति का निष्पादन और भक्ति भाव का संवरण कैसे कर पाते हैं.इसके साथ ही तथाकथित भक्तों का क्षद्म रूप भी मुझे बड़ा ही आहत किया करता था और एक तरह से मंदिरों, कर्मकांडों के प्रति मेरी अरुचि दृढ से दृढ़तर होती गयी...मेरे अभिभावक मुझसे बड़े ही क्षुब्ध रहा करते थे. उनकी दृष्टि में मैं घोर नास्तिक थी....
मेरे विवाह के पहले तक हमारे अभिभावक वर्ष में एक बार देवघर (वैद्यनाथ धाम) अवश्य जाते थे. वहां के विहंगम दृश्य के क्या कहने......लोटे का जल शायद ही शिवशम्भू के मस्तक तक पहुँच पाता था.....समस्त पुष्प पत्र जल इत्यादि भक्तों पर ही गिरते थे..गर्भ गृह की यह अवस्था होती थी कि अधिकांशतः भोलेनाथ ही भक्तों के चरण रज प्राप्त करते थे.. यदि कोई उनके स्पर्श का सुअवसर पा जाता तो लगता यदि भोलेनाथ धरती को इतने जकड़ कर न पकडे होते तो कबके भक्त उन्हें समूल उठा अपने जेब में रख चलते बनते...
इस धक्का मुक्की में भक्ति भाव कितना बचा रहता था पता नहीं,हर व्यक्ति दुसरे को अपने स्थान का अपहर्ता घोर शत्रु सम लगता था और वश चलता तो सामने वाले को खदेड़ कर वहां से भगा देता. इस भीड़ में चोरों,जेबकतरों और ठगों की चांदी कटती थी....
उत्तर भारत के प्रायः सभी धर्मस्थलों की कमोबेश यही स्थिति आज भी है .हाँ दक्षिण भारत के जितने भी धर्मस्थलों पर आज तक भ्रमण किया ,अपार भीड़ के बावजूद मंदिर प्रशासन तथा स्थानीय प्रशासन के हस्तक्षेप से क्रमबद्ध कतारों के कारण बहुत अधिक धक्का मुक्की की स्थिति कहीं नहीं देखी...
बचपन में तो अभिभावकों के साथ जब कभी भी इस भीड़ भाड़ में जाने की बाध्यता बनी,मेरा प्रयास होता था ,शीघ्रता से उस भीड़ से निपटकर मंदिर प्रांगन में कोई ऐसा स्थान खोजना और वहां शांति से समय गुजरना जहाँ कि पर्याप्त नीरवता हो.बाद में जब स्वयं निर्णायक बनी तब बहुधा यही प्रयास रहा कि देवस्थानों पर ऐसे समय में जाया जाय जब भीड़ की संभावना न्यूनतम हो.
वर्षो तक देवस्थानों की इस भीड़ और अव्यवस्था ने मन को बड़ा ही तिक्त और खिन्न किया ...परन्तु सुसंयोग से करीब सत्रह अठारह वर्ष पहले एक बार चैतन्य महाप्रभु की जीवनी पढ़ने का अवसर मिला. संभवतः हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की लिखी हुई थी वह.. सम्पूर्ण कथानक इतने हृदयस्पर्शी ढंग से उल्लिखित था कि उसने मन प्राणों को बाँध लिया .....उसी कथानक में विवरण था कि जब चैतन्य महाप्रभु यात्रा क्रम में पुरी के जगन्नाथ मंदिर पहुंचे तो मुख्यद्वार पर पहुँचते ही प्रिय के सानिध्य स्मरण ने उन्हें भावविभोर कर दिया,उनके शरीर में रोमांच भर आया, नयनो से अविरल अश्रुधार प्रवाहित होने लगी, भक्ति और प्रेम के आवेग में वे मूर्छित हो गए.....
जब मैंने यह अंश पढ़ा तो न जाने इस प्रसंग ने ह्रदय के किस तंतु को झकझोरा .... मेरे मन ने मुझे बड़ा दुत्कारा ...मुझे लगा जिस पुरी मंदिर में जाने पर मुझे आजतक भीड़ अव्यवस्था,पण्डे , गन्दगी इत्यादि ही दिखे थे,उसी मंदिर में तो चैतन्य महाप्रभु को श्याम सलोने के दर्शन हुए .....यह तो मेरा ही दृष्टिदोष है जो आज तक मेरी दृष्टि इन अवयवों पर ही केन्द्रित रही थी . मेरा ध्यान जिन वस्तुओं पर था,मुझे वही दिखाई दिया...चैतन्य महाप्रभु के दृष्टि वलय में जो था, उन्हें वह दिखाई दिया...
इस विचार ने मुझे इतने गहरे प्रभावित किया कि ,इसने मेरा दृष्टिकोण ही बदल दिया...और उस दिन के बाद जब भी किसी देवस्थान पर गयी हूँ और मन ध्यान से वहां की सकारात्मक उर्जा से जुड़ने का प्रयत्न किया है,शायद ही कभी असफलता मिली है और उसके उपरांत तो कोई भी कारण ध्यान क्रम को बाधित नहीं कर पाया है..प्रेम और भक्ति रस में आकंठ निमग्न होने पर तन मन की जो स्थिति होती है,जो परमानंद प्राप्त होता है उसके सम्मुख संसार की कोई भी वस्तु कोई भी असुविधा अर्थहीन लगती है.....
जो हम अपनी इस स्थूल शरीर की सीमित सामर्थ्यवान नयनो से दृष्टिगत नहीं कर पाते , उसका आस्तित्व ही नहीं है ,ऐसी धारणा नितांत ही भ्रामक और मूर्खता पूर्ण है. जो ईश्वरीय सत्ता को अस्वीकृत करते हैं ,उनके साथ मैं बहस में नहीं पड़ना चाहती. उन्हें यदि यह सोच शांति और सुख देता है तो,यह बहुत ही अच्छी बात है,वे ऐसे ही सुखी रहें......मैं उनके उन्मुख हूँ जो ईश्वरीय सत्ता को तो मानते हैं ,परन्तु बाह्य अवयवों में फंस उस अपरिमित सुख प्राप्ति से वंचित रह जाते हैं..उन्हें एक बार इस दृष्टिकोण के प्रति सजग करना मुझे अपना कर्तब्य लगा....
धर्म में दिखावे और आडम्बर युक्त कोरे कर्मकांडों की धुर विरोधी मैं भी हूँ..कर्म कांडों की उपयोगिता और आवश्यकता मैं इतने भर के लिए मानती हूँ कि कहीं न कहीं ये मुझे वैज्ञानिक तथा भक्ति प्रेम के उद्दीपक लगते हैं. जैसे अपने किसी प्रिय श्रेष्ठ का सानिध्य हमें सुखद लगता है,उसके सम्मान और प्रेम प्रदर्शन हेतु हम भांति भांति की चेष्टाएँ करते हैं और अंततोगत्वा अपार सुख प्राप्त करते हैं,वैसे ही उस सर्वेश्वर के प्रति स्नेह प्रदर्शन सेवा सम्मान भी भक्ति उद्दीपक तथा सुख के साधन ही हैं.
धार्मिक अनुष्ठानों या कर्मकांडों को सिरे से नकारना भी पूर्णतः उचित नहीं है क्योंकि इसके रूप को विकृत मनुष्यों और पण्डे पुजारियों ने ही किया है नहीं तो इनमे निहित वैज्ञानिक दृष्टिकोण पूर्ण रूपेण जीवनोपयोगी हैं.यह सत्य है की मानवमात्र का धर्म बह्याडम्बरों की अपेक्षा ईश्वर को मन कर्म व्यवहार में धारण करना है,परन्तु जो भी उपाय ईश्वर के प्रति श्रद्धा निष्ठां भक्ति और प्रेम को सुदृढ़ करने में सहायक हों,जीवन को सकारात्मक दिशा प्रदान करता हो,मेरी दृष्टि में वह ग्रहणीय एवं वन्दनीय है.
यह पूर्ण और अकाट्य सत्य है कि ईश्वर का वास मन आत्मा में होता है,हमारी भावनाओं में होता है,सकारात्मक सोच और कर्म में होता है.परन्तु ईश्वर का वास उस पत्थर और स्थान में भी होता है जो अनंत काल से असंख्य श्रद्धालुओं के आस्था का केंद्र है.. यह निश्चित जानिए कि यदि हमारी अनुभूति क्षमता प्रखर है तो हम भी उसी प्रकार पत्थर की मूरत में श्याम को देख सकते हैं जैसे मीरा और सूर ने देखा था..रामकृष्ण ने माँ काली को देखा था....और ऐसे उदाहरणों की कोई कमी नहीं......तो क्यों न एक बार हम भी प्रयास कर देखें. उस अनिर्वचनीय सुख और आनंदलाभ का प्रयास करें....अधिक कहाँ कुछ करना है,एक दृष्टिकोण भर तो बदलना है इसके लिए.....
.....................................................................................................
14.5.09
सुख का मार्ग !!!
समाचार पत्र के साथ भी बड़ी विचित्र विडंबना है...सुबह के पहली किरण के साथ जितनी उत्सुकता और स्नेह से इसका स्वागत होता है,पाठोपरांत उतनी ही निर्ममता से इसका तिरस्कार भी होता है..परन्तु इन समाचार पत्रों में बहुत कुछ कभी न पुराने पड़ने तथा सहेजने योग्य सामग्री होती हैं,जो चाहे कितनी भी तिथियाँ बदल जायं अपनी उपयोगिता और प्रासंगिकता नहीं खोती...
ऐसे ही सफाई के क्रम रद्दी में पड़े पुराने समाचार पत्र के एक आलेख ने मन और आँखों को बाँध लिया..
समाचार था - तीन विवाहित पुत्रियों और नाती नतिनियों वाली सड़सठ वर्षीय नंदिता विश्वास ने बी.ए. आनर्स की परीक्षा दी.नंदिता पश्चिमी मेदिनीपुर जिले के खड़गपुर शहर के वार्ड नंबर अठारह के मलिंचा में रहती हैं.माध्यमिक व जूनियर बेसिक की ट्रेनिंग के बाद नंदिता ने एक सरकारी विद्यालय में अध्यापन कार्य आरम्भ किया.१९८३ से २००३ तक उन्होंने अध्यापन कार्य किया और सेवानिवृति उपरांत उच्च शिक्षा प्राप्त करने के अपने उस अधूरे स्वप्न को जो कि पारिवारिक एवं शैक्षणिक दायित्वों के व्यस्तता क्रम में अपूर्ण रह गया था,उसे पूर्णता प्रदान करने का संकल्प लिया...
पहले तो जिसने भी सुना, सबने उनका उपहास उड़ाया और पर्याप्त हतोत्साहित किया.परन्तु उनके दृढ संकल्प को देखकर परिवार वालों ने इन्हें सहयोग दिया .बाईस फरवरी २००९ से नेताजी ओपन यूनिवर्सिटी द्वारा आयोजित परीक्षा में उन्होंने बी ए आनर्स में समाज शास्त्र विषय से परीक्षा दी.नंदिता न केवल अपने सफलता के प्रति आश्वस्त हैं बल्कि उतीर्ण होकर आगे भी पढाई जारी रखने को दृढ संकल्प भी हैं...
हो सकता है बहुत लोगों को यह मूर्खता पूर्ण और व्यर्थ लगे,क्योंकि अधिकांशतः शिक्षा को लोग आत्मकल्याण आत्मोत्थान का नहीं धनार्जन का ही साधन मानते हैं.परन्तु नंदिता जैसे लोग परिवार समाज को प्रेरणा देते हैं,नयी राह दिखाते हैं और सही मायने में ऐसे ही लोग जीवन को सच्चा आदर देकर उसे सार्थकता देते हैं.
जीवन जीने और उसमे भी सुखपूर्वक जीने के लिए जितना महत्वपूर्ण स्वस्थ शरीर और धन की आवश्यकता है, आत्मसंतोष और अपने होने की सार्थकता अनुभूत करना,उससे भी अधि़क आवश्यक है.. यूँ तो किसी भी उम्र में जीवन को सुखद आत्मसंतोष ही बनाता है, परन्तु जीवन के उतरार्ध में जिजीविषा के लिए सार्थक सकारात्मक लक्ष्य निर्धारण एवं आत्मसंतुष्टि परम आवश्यक है..
दो ढाई वर्ष की अवस्था में ही शिक्षण में संलिप्त हुआ बालपन समय के साथ उत्तरोत्तर व्यस्त से व्यस्ततम होता चला जाता है.वय के साथ उत्तरदायित्व बढ़ता ही जाता है और कहीं न कहीं उसीमे व्यक्ति अपने होने की सार्थकता ढूंढ लेता है.गृहस्थी के प्रारंभ से लेकर अगली पीढी के तैयार होने और उनकी गृहस्थी बसने तक स्त्री पुरुष परिवार के केंद्र में होते हैं.समस्त परिवार घटनाक्रम और हित अनहित के निर्णय व्यक्ति की मुठ्ठी में होते हैं और एक तरह से परिवार रुपी साम्राज्य के वे स्वामी/स्वामिनी हुआ करते हैं...
परन्तु अगली पीढी के परिवार विस्तार के साथ ही जैसे जैसे इनका उत्तरदायित्व संक्षिप्त होने लगता है, इनके पास रिक्त समय की बहुलता रहने लगती है और अगली पीढी द्वारा स्वविवेक से लिए जाने वाले निर्णय के क्रम में ये स्वयं को निर्णायक भूमिका में नहीं पाते, घोर उपेक्षित अनुपयोगी अनुभूत करने लगते हैं. अनजाने ही इनके मनोभाव कुछ इस प्रकार होने लगते हैं जैसे, इनके इर्द गिर्द दूसरे राज्य पनपने लेगे हैं,जिनपर इनका कोई वश नहीं.अबतक परिवार पर एकक्षत्र शासन का अभ्यास क्रम जैसे ही बाधित होता है,व्यक्ति सहजता से स्वयं को सम्हाल नहीं पाता और विचलित होता हुआ अवसादग्रस्त हो जाता है.भाग दौड़ में फंसे युवा वर्ग के पास न तो इनके मन की सुनने जानने का समय होता है न धैर्य. व्यक्ति अपने ही परिवार के बीच स्वयं को अवांछित अनुपयोगी पाता है,तो तिलमिला जाता है.यदि पहले से इसके लिए मानसिक रूप से तैयार न हो और जबरन सत्तासीन होने का प्रयत्न करने लगता है तो घर की शांति पूर्णतया बाधित होती है.
स्त्रियों की तो इस मामले में और भी दयनीय स्थिति होती है.क्योंकि आम तौर पर पुरुष अपनी संलिप्तता घर के बाहर भी ढूंढ लेते हैं,परन्तु स्त्रियाँ घर संसार के बाहर स्वयं को निकाल ढाल नहीं पातीं.लक्ष्यहीनता और संसारिकता का मोह इन्हें पुराने अभ्यास को बदलने का न तो नया कारण ढूँढने देता है और न ही अपने अवसाद और उग्रता पर इनका वश होता है.फलतः बहुधा ही नयी पीढी के काम में मीन मेख निकाल उन्हें नीचा दिखा ये स्वयं को श्रेष्ठ साबित कर आत्मसंतोष पाने में जुट जाती हैं.
सहज ही अनुमानित किया जा सकता है कि स्वयं को उपेक्षित अनुभूत करते व्यक्ति के पास लक्ष्य रूप में जब मृत्यु की प्रतीक्षा ही रह जाय तो मनोस्थिति कितनी त्रासद होगी।आज पारिवारिक सामाजिक ढांचा जिस प्रकार बदलता जा रहा है, पूरे विश्व में यह त्रासद स्थिति और भी चिंताजनक होती जा रही है. वय का अवसादग्रस्त चौथपन जीवन को भार सा बना देता है और फिर अवसादग्रस्त व्यक्ति आत्मकेंद्रित हो अपने ही सहेजे संजोये उस परिवार की सुख शांति को भी छिन्न भिन्न करने लगता है.
व्यक्ति ,परिवार और समाज को सुव्यवस्थित रखने हेतु इन्ही कारणों से प्रबुद्ध मनीषियों ने वय के उत्तरार्ध के लिए संन्यास तथा वानप्रस्थ आश्रम की व्यवस्था की थी।अपने अगली पीढी को उतरदायित्व सौंपने के बाद संन्यास ले लिया जाता था.परन्तु संन्यास का तात्पर्य यह नहीं था कि गृह त्याग कर दिया जाय.संन्यास का तात्पर्य था उत्तरदायित्व सौंपने के उपरांत गृहस्थी में ही रहकर संसारिकता के प्रति निर्लिप्त भाव रखना.उत्तराधिकारियों को उनके अग्रहनुसार अपेक्षित मार्गदर्शन देना और अपने आत्मोत्थान के मार्ग पर जीवन को अग्रसर करना.वानप्रस्थ का तात्पर्य था,परिवार से आगे बढ़ समाज तथा अन्य जीव जंतुओं के संरक्षण ,उनकी सेवा में प्रवृत्त होना॥
मन और मष्तिष्क का वय शरीर से बंधा नहीं होता.इसी कारण शरीर की अवस्था से यह किंचित भी अक्षम या बाधित नहीं होता.परन्तु मन मष्तिष्क को यदि निश्चेष्ट रखने का प्रयास किया जायेगा,बलपूर्वक उसे निर्लिप्त रखने का प्रयास किया जायेगा तो वह विद्रोह करेगा ही.इसलिए आवश्यक है कि उसे सकारात्मक कारणों में संलिप्तता दी जाय.एक बार जब उत्तरदायित्व पूर्ण हो गया तो फिर अपने पुराने अधूरे पड़े संकल्पों रुचियों जिसमे आत्मिक आनंद मिलता हो,उसमे संलिप्त हुआ जाय..संगीत ,साहित्य,बागबानी,भ्रमण,सीना पिरोना,पाक कला,इत्यादि इत्यादि न जाने कितने ही कार्य हैं जिसमे व्यक्ति स्वयं को संलिप्त कर सकता है तथा जिन्हें साध व्यक्ति आत्मसंतोष भी पा सकता है और दूसरों को भी ज्ञान और प्रेरणा दे सकते हैं..परोपकार के कार्यों में अपना समय लगा परम संतोष पा सकता है.. ऐसे उपाय .जिजीविषा को कभी क्षीण नहीं पड़ने देते.
मनुष्य चाहे तो अंतिम सांस तक अपने आस पास को बहुत कुछ दे सकता है...और कुछ नहीं तो दो मीठे बोल देकर किसी को भी सुख तो दे ही सकता है और बदले में अकूत संतोष रुपी धन अर्जित कर सकता है.लेकिन यह तभी संभव है जब व्यक्ति स्वयं प्रसन्न और संतुष्ट हो.स्वयं को सुखी करने का साधन कहीं बाहर नहीं हमारी अपनी मुट्ठी में ही है,बस खुले हाथों को बांधकर भींच लेना है..अपने अहम् को दरकिनार कर ,ह्रदय को थोडा बड़ा कर उसमे स्नेह का सागर भरना है,फिर चहुँ और स्नेह ही तो बिखेरेगा मनुष्य.
जिसने आज जन्म लिया उसे भी और जिसने चालीस पचास वर्ष पहले जन्म लिया उसे भी,जीवित बचा तो उसी मोड़ पर पहुंचना है और आगे जाना है,जिसे बुढापा कहते हैं..यदि उम्र के दूसरे तीसरे पड़ाव से ही चौथेपन की तैयारी कर ले , तो सहजता से व्यक्ति उस कष्टदायक अवांछित स्थिति से बच सकता है.
********************************
ऐसे ही सफाई के क्रम रद्दी में पड़े पुराने समाचार पत्र के एक आलेख ने मन और आँखों को बाँध लिया..
समाचार था - तीन विवाहित पुत्रियों और नाती नतिनियों वाली सड़सठ वर्षीय नंदिता विश्वास ने बी.ए. आनर्स की परीक्षा दी.नंदिता पश्चिमी मेदिनीपुर जिले के खड़गपुर शहर के वार्ड नंबर अठारह के मलिंचा में रहती हैं.माध्यमिक व जूनियर बेसिक की ट्रेनिंग के बाद नंदिता ने एक सरकारी विद्यालय में अध्यापन कार्य आरम्भ किया.१९८३ से २००३ तक उन्होंने अध्यापन कार्य किया और सेवानिवृति उपरांत उच्च शिक्षा प्राप्त करने के अपने उस अधूरे स्वप्न को जो कि पारिवारिक एवं शैक्षणिक दायित्वों के व्यस्तता क्रम में अपूर्ण रह गया था,उसे पूर्णता प्रदान करने का संकल्प लिया...
पहले तो जिसने भी सुना, सबने उनका उपहास उड़ाया और पर्याप्त हतोत्साहित किया.परन्तु उनके दृढ संकल्प को देखकर परिवार वालों ने इन्हें सहयोग दिया .बाईस फरवरी २००९ से नेताजी ओपन यूनिवर्सिटी द्वारा आयोजित परीक्षा में उन्होंने बी ए आनर्स में समाज शास्त्र विषय से परीक्षा दी.नंदिता न केवल अपने सफलता के प्रति आश्वस्त हैं बल्कि उतीर्ण होकर आगे भी पढाई जारी रखने को दृढ संकल्प भी हैं...
हो सकता है बहुत लोगों को यह मूर्खता पूर्ण और व्यर्थ लगे,क्योंकि अधिकांशतः शिक्षा को लोग आत्मकल्याण आत्मोत्थान का नहीं धनार्जन का ही साधन मानते हैं.परन्तु नंदिता जैसे लोग परिवार समाज को प्रेरणा देते हैं,नयी राह दिखाते हैं और सही मायने में ऐसे ही लोग जीवन को सच्चा आदर देकर उसे सार्थकता देते हैं.
जीवन जीने और उसमे भी सुखपूर्वक जीने के लिए जितना महत्वपूर्ण स्वस्थ शरीर और धन की आवश्यकता है, आत्मसंतोष और अपने होने की सार्थकता अनुभूत करना,उससे भी अधि़क आवश्यक है.. यूँ तो किसी भी उम्र में जीवन को सुखद आत्मसंतोष ही बनाता है, परन्तु जीवन के उतरार्ध में जिजीविषा के लिए सार्थक सकारात्मक लक्ष्य निर्धारण एवं आत्मसंतुष्टि परम आवश्यक है..
दो ढाई वर्ष की अवस्था में ही शिक्षण में संलिप्त हुआ बालपन समय के साथ उत्तरोत्तर व्यस्त से व्यस्ततम होता चला जाता है.वय के साथ उत्तरदायित्व बढ़ता ही जाता है और कहीं न कहीं उसीमे व्यक्ति अपने होने की सार्थकता ढूंढ लेता है.गृहस्थी के प्रारंभ से लेकर अगली पीढी के तैयार होने और उनकी गृहस्थी बसने तक स्त्री पुरुष परिवार के केंद्र में होते हैं.समस्त परिवार घटनाक्रम और हित अनहित के निर्णय व्यक्ति की मुठ्ठी में होते हैं और एक तरह से परिवार रुपी साम्राज्य के वे स्वामी/स्वामिनी हुआ करते हैं...
परन्तु अगली पीढी के परिवार विस्तार के साथ ही जैसे जैसे इनका उत्तरदायित्व संक्षिप्त होने लगता है, इनके पास रिक्त समय की बहुलता रहने लगती है और अगली पीढी द्वारा स्वविवेक से लिए जाने वाले निर्णय के क्रम में ये स्वयं को निर्णायक भूमिका में नहीं पाते, घोर उपेक्षित अनुपयोगी अनुभूत करने लगते हैं. अनजाने ही इनके मनोभाव कुछ इस प्रकार होने लगते हैं जैसे, इनके इर्द गिर्द दूसरे राज्य पनपने लेगे हैं,जिनपर इनका कोई वश नहीं.अबतक परिवार पर एकक्षत्र शासन का अभ्यास क्रम जैसे ही बाधित होता है,व्यक्ति सहजता से स्वयं को सम्हाल नहीं पाता और विचलित होता हुआ अवसादग्रस्त हो जाता है.भाग दौड़ में फंसे युवा वर्ग के पास न तो इनके मन की सुनने जानने का समय होता है न धैर्य. व्यक्ति अपने ही परिवार के बीच स्वयं को अवांछित अनुपयोगी पाता है,तो तिलमिला जाता है.यदि पहले से इसके लिए मानसिक रूप से तैयार न हो और जबरन सत्तासीन होने का प्रयत्न करने लगता है तो घर की शांति पूर्णतया बाधित होती है.
स्त्रियों की तो इस मामले में और भी दयनीय स्थिति होती है.क्योंकि आम तौर पर पुरुष अपनी संलिप्तता घर के बाहर भी ढूंढ लेते हैं,परन्तु स्त्रियाँ घर संसार के बाहर स्वयं को निकाल ढाल नहीं पातीं.लक्ष्यहीनता और संसारिकता का मोह इन्हें पुराने अभ्यास को बदलने का न तो नया कारण ढूँढने देता है और न ही अपने अवसाद और उग्रता पर इनका वश होता है.फलतः बहुधा ही नयी पीढी के काम में मीन मेख निकाल उन्हें नीचा दिखा ये स्वयं को श्रेष्ठ साबित कर आत्मसंतोष पाने में जुट जाती हैं.
सहज ही अनुमानित किया जा सकता है कि स्वयं को उपेक्षित अनुभूत करते व्यक्ति के पास लक्ष्य रूप में जब मृत्यु की प्रतीक्षा ही रह जाय तो मनोस्थिति कितनी त्रासद होगी।आज पारिवारिक सामाजिक ढांचा जिस प्रकार बदलता जा रहा है, पूरे विश्व में यह त्रासद स्थिति और भी चिंताजनक होती जा रही है. वय का अवसादग्रस्त चौथपन जीवन को भार सा बना देता है और फिर अवसादग्रस्त व्यक्ति आत्मकेंद्रित हो अपने ही सहेजे संजोये उस परिवार की सुख शांति को भी छिन्न भिन्न करने लगता है.
व्यक्ति ,परिवार और समाज को सुव्यवस्थित रखने हेतु इन्ही कारणों से प्रबुद्ध मनीषियों ने वय के उत्तरार्ध के लिए संन्यास तथा वानप्रस्थ आश्रम की व्यवस्था की थी।अपने अगली पीढी को उतरदायित्व सौंपने के बाद संन्यास ले लिया जाता था.परन्तु संन्यास का तात्पर्य यह नहीं था कि गृह त्याग कर दिया जाय.संन्यास का तात्पर्य था उत्तरदायित्व सौंपने के उपरांत गृहस्थी में ही रहकर संसारिकता के प्रति निर्लिप्त भाव रखना.उत्तराधिकारियों को उनके अग्रहनुसार अपेक्षित मार्गदर्शन देना और अपने आत्मोत्थान के मार्ग पर जीवन को अग्रसर करना.वानप्रस्थ का तात्पर्य था,परिवार से आगे बढ़ समाज तथा अन्य जीव जंतुओं के संरक्षण ,उनकी सेवा में प्रवृत्त होना॥
मन और मष्तिष्क का वय शरीर से बंधा नहीं होता.इसी कारण शरीर की अवस्था से यह किंचित भी अक्षम या बाधित नहीं होता.परन्तु मन मष्तिष्क को यदि निश्चेष्ट रखने का प्रयास किया जायेगा,बलपूर्वक उसे निर्लिप्त रखने का प्रयास किया जायेगा तो वह विद्रोह करेगा ही.इसलिए आवश्यक है कि उसे सकारात्मक कारणों में संलिप्तता दी जाय.एक बार जब उत्तरदायित्व पूर्ण हो गया तो फिर अपने पुराने अधूरे पड़े संकल्पों रुचियों जिसमे आत्मिक आनंद मिलता हो,उसमे संलिप्त हुआ जाय..संगीत ,साहित्य,बागबानी,भ्रमण,सीना पिरोना,पाक कला,इत्यादि इत्यादि न जाने कितने ही कार्य हैं जिसमे व्यक्ति स्वयं को संलिप्त कर सकता है तथा जिन्हें साध व्यक्ति आत्मसंतोष भी पा सकता है और दूसरों को भी ज्ञान और प्रेरणा दे सकते हैं..परोपकार के कार्यों में अपना समय लगा परम संतोष पा सकता है.. ऐसे उपाय .जिजीविषा को कभी क्षीण नहीं पड़ने देते.
मनुष्य चाहे तो अंतिम सांस तक अपने आस पास को बहुत कुछ दे सकता है...और कुछ नहीं तो दो मीठे बोल देकर किसी को भी सुख तो दे ही सकता है और बदले में अकूत संतोष रुपी धन अर्जित कर सकता है.लेकिन यह तभी संभव है जब व्यक्ति स्वयं प्रसन्न और संतुष्ट हो.स्वयं को सुखी करने का साधन कहीं बाहर नहीं हमारी अपनी मुट्ठी में ही है,बस खुले हाथों को बांधकर भींच लेना है..अपने अहम् को दरकिनार कर ,ह्रदय को थोडा बड़ा कर उसमे स्नेह का सागर भरना है,फिर चहुँ और स्नेह ही तो बिखेरेगा मनुष्य.
जिसने आज जन्म लिया उसे भी और जिसने चालीस पचास वर्ष पहले जन्म लिया उसे भी,जीवित बचा तो उसी मोड़ पर पहुंचना है और आगे जाना है,जिसे बुढापा कहते हैं..यदि उम्र के दूसरे तीसरे पड़ाव से ही चौथेपन की तैयारी कर ले , तो सहजता से व्यक्ति उस कष्टदायक अवांछित स्थिति से बच सकता है.
********************************
Subscribe to:
Posts (Atom)