23.6.09

यादों की खूंटी पर टंगा पजामा !!!

सहज स्वाभाविक रूप से दुनिया के प्रत्येक अभिभावक के तरह मेरे माता पिता की भी मुझसे बहुत सी अपेक्षाएं थीं, बहुत से सपने उन्होंने देख रखे थे मेरे लिए... पर समस्या यह थी कि माताजी और पिताजी दोनों के सपने विपरीत दिशाओं में फ़ैली दो ऐसी टहनियों सी थी जिनका मूल एक मुझ कमजोर से जुड़ा था पर दोनों डालों को सम्हालने के लिए मुझे अपने सामर्थ्य से बहुत अधिक विस्तार करना पड़ता...


पिताजी जहाँ मुझे गायन, वादन, नृत्य, संगीत, चित्रकला इत्यादि में प्रवीण देखने के साथ साथ डाक्टर इंजिनियर या उच्च प्राशासनिक पद पर प्रतिष्ठित देखना चाहते थे, वहीँ मेरी माताजी मुझे सिलाई बुनाई कढाई पाक कला तथा गृहकार्य में दक्ष एक अत्यंत कुशल, शुशील ,संकोची, छुई मुई गृहणी जो ससुराल जाकर उनका नाम ऊंचा करे , न कि नाक कटवाए.. के रूप में देखना चाहती थीं..

मुझे दक्ष करने के लिए पिताजी ने संगीत ,नृत्य, चित्रकारी तथा एक पढाई के शिक्षक की व्यवस्था घर पर ही कर दी थी।संगीत, चित्रकला तथा पढाई तक तो ठीक था पर नृत्य वाले गुरूजी मुझसे बड़े परेशान रहते थे...मैं इतनी संकोची और अंतर्मुखी थी कि मुझसे हाथ पैर हिलवाना किसी के लिए भी सहज न था.


दो सप्ताह के अथक परिश्रम के बाद मुझसे किसी तरह हल्का फुल्का हाथ पैर तो हिलवा लिए गुरूजी ने पर जैसे ही आँखों तथा गर्दन की मुद्राओं की बारी आई ,उनके झटके देख मेरी ऐसी हंसी छूटती कि उन्हें दुहराने के हाल में ही मैं नहीं बचती थी.. गुरूजी बेचारे माथा पीटकर रह जाते थे... यूँ भी गुरूजी की लड़कियों की तरह लचकती चाल और उनके बात करने का ढंग मेरी हंसी की बांध तोड़ दिया करते थे...जब हर प्रकार से गुरूजी अस्वस्त हो गए कि मैं किसी जनम में नृत्य नहीं सीख सकती तो उन्होंने पिताजी से अपनी व्यस्तता का बहाना बना किनारा कर लिया.... और तब जाकर मेरी जान छूटी थी....

जहाँ तक प्रश्न माताजी के अपेक्षाओं का था,माँ जितना ही अधिक मुझमे स्त्रियोचित गुण देखना चाहती थी,मुझे उससे उतनी ही वितृष्णा होती थी.पता नहीं कैसे मेरे दिमाग में यह बात घर कर गयी कि बुनाई कढाई कला नहीं बल्कि परनिंदा के माध्यम हैं...औरतें फालतू के समय में इक्कठे बैठ हाथ में सलाइयाँ ले सबके घरों के चारित्रिक फंदे बुनने उघाड़ने में लग जातीं हैं. मुझे यह बड़ा ही निकृष्ट कार्य लगता था और "औरतों के काम मैं नहीं करती" कहकर मैं भाग लिया करती थी..मेरे लक्षण देखकर माताजी दिन रात कुढा करतीं थीं..


डांट डपट या झापड़ खाकर जब कभी रोती बिसूरती मैं बुनाई के लिए बैठती भी थी, तो चार छः लाइन बुनकर मेरा धैर्य चुक जाता था. जब देखती कि इतनी देर से आँखें गोडे एक एक घर गिरा उठा रही हूँ और इतने अथक परिश्रम के बाद भी स्वेटर की लम्बाई दो उंगली भी नहीं बढ़ी तो मुझे बड़ी कोफ्त होती थी... वस्तुतः मुझे वही काम करना भाता था जो एक बैठकी में संपन्न हो जाये और तैयार परिणाम सामने हो और स्वेटर या क्रोशिये में ऐसी कोई बात तो थी नहीं..

नया कुछ सिलने की उत्सुकता बहुत होती थी पर पुराने की मरम्मती मुझे सर्वाधिक नीरस लगा करती थी.मेरी माँ मुझे कोसते गलियां देते ,ससुराल में उन्हें कौन कौन सी गालियाँ सुन्वाउंगी इसके विवरण सुनाते हुए हमारे फटे कपडों की मरम्मती किया करती, पर मेरे कानो पर किंचित भी जूं न रेंगती..

संभवतः मैं साथ आठ साल की रही होउंगी तभी से मेरे दहेज़ का सामान जोड़ा जाने लगा था..इसी क्रम में मेरे विवाह से करीब दो वर्ष पहले एक सिलाई मशीन ख़रीदी गयी. जब वह मशीन खरीदी गयी,उन दिनों मैं छात्रावास में थी और मेरी अनुपस्थिति में मेरे मझले भाई ने मशीन चलाने से लेकर उसके छोटे मोटे तकनीकी खामियों तक से निपटने की पूरी जानकारी ली.

जब मैं छुट्टियों में आई तो यह नया उपकरण मुझे अत्यंत उत्साहित कर गया. मैं अपने पर लगे निकम्मेपन के कालिख को इस महत उपकरण की सहायता से धो डालने को कटिबद्ध हो गयी. मझले भाई के आगे पीछे घूमकर बड़ी चिरौरी करके किसी तरह उससे मशीन चलाना तो सीख लिया, पर उसपर सिला क्या जाय यह बड़ा सवाल था.

मेरे सौभाग्य से उन दिनों हमारे घर आकर ठहरे साधू महराज ने मेरे छोटे भाई को विश्वास दिला दिया कि किशोर वय से ही पुरुष को लंगोट का मजबूत होना चाहिए और उन्हें आधुनिक अंडरवियर नहीं लंगोट पहनना चाहिए,इससे बल वीर्य की वृद्धि होती है.....आखिर इसी लंगोट की वजह से तो हनुमान जी इतने बलशाली हुए हैं...हनुमान जी की तरह बलशाली बनने की चाह रखने वाला मेरा भाई उनके तर्कों से इतना प्रभावित हुआ कि उसने तुंरत चड्डी को लंगोट से स्थानांतरित करने की ठान ली.

अब हम भाई बहन चल निकले लंगोट अभियान में..माताजी के बक्से से उनके एक पेटीकोट का कपडा हमने उड़ा लिया, साधू महराज के धूप में तार पर सूखते लंगोट का पर्यवेक्षण किया गया और हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे की पतंग के ऊपर के आधे भाग को काटकर यदि उसकी लम्बी पूंछ और दो बड़ी डोरियाँ बना दी जाय ..तो बस लंगोट बन जायेगा...अब बचपन से इतने तो पतंग बना चुके हैं हम..तो यह लंगोट सिलना कौन सी बड़ी बात है.

फटाफट कपडे को काटा गया और सिलकर आधे घंटे के अन्दर खूबसूरत लंगोट तैयार कर लिया गया...मेरे जीवन की यह सबसे बड़ी सफलता थी..कई दिनों तक मैं छोटे भाई को गर्व से वह लंगोट खुद ही बांधा करती थी और भाई भी मेरी कलाकारी की दाद दिए नहीं थकता था...उसका बस चलता तो आस पड़ोस मोहल्ले को वह सगर्व मेरी उत्कृष्ट कलाकारी और इस नूतन अनोखे परिधान का दिग्दर्शन करवा आता.


मेरा उत्साह अपनी चरम पर था..हाथ हमेशा कुछ न कुछ सिलने को कुलबुलाया करते थे.....एक दिन देखा छोटा भाई माताजी के आदेश पर कपडा लिए दरजी से पजामा सिलवाने चला जा रहा है...यह मेरा सरासर अपमान था...भागकर मैं उससे कपडा छीन कर लायी..


मेरी एक सहेली ने बताया था कि जो भी कपडा सिलना हो नाप के लिए अपने पुराने कपडे को नए कपडे पर बिछाकर उसके नाप से नया कपडा काट लेना..मुझे लगा अब भला पजामा सिलने में कौन सी कलाकारी है,दो पैर ही तो बनाने हैं और नाडा डालने के लिए एक पट्टी डाल देनी है बस..


भाई कुछ डरा हुआ था कि अगर मैंने कपडा बिगाड़ दिया तो माँ से बहुत बुरी झाड़ पड़ेगी..मैंने उसे याद दिलाया कि जीवन में पहली बार बिना किसी पूर्व प्रशिक्षण के मैंने मशीन पकडा और इतना सुन्दर लंगोट सिला फिर भी वह मेरी कला पर शक करता है...वह कुछ आश्वस्त तो हुआ पर बार बार मुझे चेताता रहा कि अगर पजामा गड़बडाया तो माता क्या गत बनायेंगी.....


पूर्ण आश्वस्त और अपार उत्साहित ह्रदय से कपडा नीचे बिछा उसपर उसके पुराने पजामे को सोंटकर नाप के लिए फैला दिया मैंने. जैसे ही काटने के लिए कैंची उठाई कि भाई ने फरमाइश की......दीदी परसों वाली फिल्म में जैसे अमिताभ बच्चन ने चुस्त वाला चूडीदार पायजामा पहना था ,वैसा ही बना देगी ???...मैंने पूरे लाड से उसे पुचकारा...क्यों नहीं भाई...जरूर बना दूंगी...इसमें कौन सी बड़ी बात है.

बिछे हुए कपडे के बीच का कपडा काट कर मैंने दो पैरों की शक्ल दे दी और बड़े ही मनोयोग से उसे सिलना शुरू किया..भाई अपनी आँखों में अमिताभ बच्चन के पजामे का सपना संजोये और खुद को अमिताभ सा स्मार्ट देखने की ललक लिए पूरे समय मेरे साथ बना रहा..

लगभग चालीस मिनट लगा और दो पैरों और नाडे के साथ पायजामा तैयार हो गया.माताजी पड़ोस में गयीं हुईं थीं और हम दोनों भाई बहनों ने तय किया कि जब वो घर आयें तो भाई पजामा पहनकर उन्हें चौंकाने को तैयार रहेगा..

लेकिन यह क्या....चुस्त करने के चक्कर में पजामा बहुत ही तंग बन गया था,आधे पैर के ऊपर चढ़ ही नहीं पा रहा था... ...लेकिन हम कहाँ हार मानने वाले थे, ठूंस ठांस कर पजामे में भाई को फिट कर दिया...बेचारे भाई ने पजामा पहन तो लिया पर पता नहीं उसमे गडबडी क्या हुई थी कि वह हिल डुल या चल ही नहीं पा रहा था..


भाई ठुनकने लगा...दीदी तूने पजामा खराब कर दिया न....देख तो मैं चल नहीं पा रहा...पैर एकदम जाम हो गया...मेरी बनी बनाई इज्जत धूल में मिलने जा रही थी.....मैंने उसे उत्साहित किया ... ऐसे कैसे चला नहीं जा रहा है,तू पैर तो आगे बढा...और फिर....जैसे ही उसने पैर जबरदस्ती आगे बढाया कि ठीक बीचोबीच पजामा दो भागों में बटकर फट गया..

इस दौरान मझला भाई भी वहां आ गया था और छुटके की हालत देख हम हंसते हंसते पहले तो लोट पोट हो गए...फिर याद आया कि माँ किसी भी क्षण वापस आ जायेंगी....और हमारा जोरदार बैंड बजेगा....सो फटाफट मझले और मैंने मिलकर अपनी पूरी ताकत लगा पजामा खींच उसमे से भाई को किसी तरह निकला....खूब पुचकारकर और हलवा बनाकर खिलाने के आश्वासन के बाद दोनों भाई राजी हो गए कि वे माताजी को कुछ नहीं बताएँगे...मैंने उन्हें आश्वाशन दिया कि कोई न कोई जुगाड़ लगाकर मैं पजामा ठीक कर दूंगी....


मेरे समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर गडबडी हुई कैसे...सिला तो मैंने ठीक ठाक ही था...चुपके से दरजी के पास वह पजामा लेकर हम भाई बहन पहुंचे...दरजी ने जब पजामा देखा तो पहले तो लोट लोट कर हंसा और फिर उसने पूछा कि यह नायाब सिलाई की किसने...मेरे मूरख भाई ने जैसे ही मेरा नाम लेने के लिए अपना मुंह खोला कि मैंने उसे इतने जोर की चींटी काटी कि उसकी चीख निकल गयी..मेरे डर से उसने नाम तो नहीं लिया पर दरजी था एक नंबर का धूर्त उसने सब समझ लिया...उसके बाद तो उसने ऐसी खिल्ली उडानी शुरू की कि मैं दांत पीसकर रह गयी...


जान बूझकर उसने कहा कि अब इसका कुछ नहीं हो सकता.. तो सारे गुस्से को पी उसके आगे रिरियाने के सिवाय दूसरा कोई विकल्प न था मेरे पास...खूब हाथ पैर जोड़े,अंकल अंकल कहा ...तो उसने कहा कि अलग से कपडे लगाकर वह पजामे को ठीक करने की कोशिश करेगा...


जब लौटकर अपने क्षात्रावास पहुँची और सिलाई जानने वाली सहेलियों से पूछा तो पता चला कि भले पजामा क्यों न हो ,उसकी कटाई विशेष प्रकार से होती है और दोनों पैरों के बीच कली लगायी जाती है..

जो भी हो... वह पजामा आज भे हमारी यादों की खूंटी पर वैसे ही लटका पड़ा है,जिसे देख हम भाई बहन आज भी उतना ही हंसा करते हैं...



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12.6.09

गुनाहगार

भगवान् ने अपनी पसंद से माँ बाप संतान या रिश्तेदार चुनने का हक किसी को नहीं दिया है,यदि दिया होता तो ऐसे असंख्य लोग होते जिन्होंने अपने से जुड़े लोग बदल लिए होते....

अपनी मेहनत और काबिलियत के बल पर गुरबत में भी इंजीनियरिंग और एम् बी ए की डिग्रियां हासिल कर गुप्ता अंकल ने ऊंचा ओहदा हासिल किया और इसी ऊंचे ओहदे के बल पर आंटी जैसी स्मार्ट मेधावी लड़की पत्नी रूप में पाया यहाँ तक तो सब उनके बस में था पर आगे की जिन्दगी में बहुत कुछ ऐसा घटा जिनपर उनका कोई वश नहीं चला॥

गुप्ता आंटी अपने समय में बड़ी ही मेधावी और महत्वकांक्षी थीं लेकिन हाथ आये इतने अच्छे रिश्ते को उनके अभिभावक छोड़ना नहीं चाहते थे,सो उन्होंने आंटी के आगे पढने और बढ़ने के सारे सपनो को विराम दे उनके हाथों बड़े साहब की पत्नी बनने का सौभाग्य और मिसेज गुप्ता नाम की डिग्री पकडा दी।

गुप्ता आंटी भी कम जीवट न थी। जबतक गुप्ता अंकल कलकत्ते में रहे, शादी और बेटे राजीव के जन्म के बाद भी आंटी ने हार नही मानी और बेटे को स्कूल भेजने के बाद उन्होंने अपनी पढाई का सिलसिला जो कि इन्टरमीडियेट के बाद रुक गया था फिर से चलाया और एक बच्चे को लेकर भी उन्होंने ग्रेजुएसन और ला की पढाई पूरी की.एक अच्छे फार्म में उन्होंने प्रैक्टिस भी शुरू कर दी थी.लेकिन इसी बीच अंकल को एक नए आ रहे फैक्टरी में बहुत ही ऊंचे पोस्ट का आफर मिला और अपने भविष्य को उज्जवल बनाने के लिए उन्होंने उस कम्पनी को ज्वाइन कर लिया॥

यह नयी फैक्टरी ऐसे उजाड़ बियावान में बसाया जा रहा था जिसके सबसे नजदीक के शहर से दूरी डेढ़ सौ किलोमीटर थी...अंकल के सितारे तो बुलंद हो गए पर आंटी का अपने पैरों पर खड़े होने,अपनी पहचान बनाने के सपनों पर फिर से धूल पड़ गया। राजीव को होस्टल में डाल दिया गया था. आंटी के पास अब कोई इंगेजमेंट नहीं बचा था॥वे बुरी तरह डिप्रेस रहने लगीं.अंकल को और कोई उपाय न सूझा तो उन्होंने आंटी को फिर से मातृत्व रूपी इंगेजमेंट दे दिया...

यहीं रागिनी का जन्म हुआ था।अंकल और हमलोग पडोसी थे.उनके बड़े से बंगले के बगल में हमारा छोटा बंगला.मेरे पापा अंकल से दो पोस्ट नीचे थे.इस अंतर को ऑफिस से लेकर घर तक पूरी तरह मेंटेन किया जाता था.न ही हम दोनों परिवार में बहुत अधिक घनिष्टता थी और न ही दूरी.

रागिनी मुझसे तीन साल छोटी और मेरी छोटी बहन बबली से साल भर बड़ी थी।दूध सी गोरी चिट्टी बड़ी बड़ी आँखों वाली रागिनी किसी की भी आँखें बांध लेती थी पर उम्र के साथ साथ स्पष्ट अनुभव किया जाने लगा कि उसका मेंटल और फिजिकल ग्रोथ एक सामान नहीं हो रहा था. उनके सामने हमारी बबली थी जो इतनी तेज थी कि जैसे लगता था मानसिक परिपक्वता में वह रागिनी से न जाने कितने साल बड़ी है॥

आंटी ने न कभी अपना हारना बर्दाश्त किया था और न ही वो अपने बच्चों का किसी भी बात में किसी से भी कम होना बर्दाश्त कर सकती थीं।रागिनी की कमजोरी भी वह बिलकुल बर्दाश्त नहीं कर पाती थीं॥जब उन्होंने डाक्टरों को दिखाना शुरू किया और उन्होंने भी इस बात से सहमति जताई कि रागिनी पूर्णतः मंदबुद्धि तो नहीं पर उसका दिमागी विकास सामान्य बच्चों से कुछ धीमा जरूर है..तो भी आंटी यह मानने को तैयार न थी कि उनकी बेटी में इस तरह की कोई कमी हो सकती थी.

वो बहुत ही फ़्रसटेटेड रहने लगीं।उनका सारा गुस्सा अंकल और रागिनी पर निकलता था.जैसे जैसे रागिनी बड़ी हो रही थी अंकल आंटी की बढती चिंताओं के साथ डाक्टरों के पास उनका भाग दौड़ भी बढ़ रहा था.पर कोई बहुत अधिक सुधार होता नहीं दिख रहा था॥दस बारह वर्ष की उम्र में भी उसकी बुद्धि पांच छः वर्ष के बच्चे से अधिक न थी.बहुत ही सरल और भोली थी वह.बल्कि कहा जाय कि न ही यह दुनिया इस सरल भोली लडकी के लायक थी और न ही इस समझदारों की दुनिया में इसकी सच्ची क़द्र थी..

भोलेपन में की गयी उसकी हरकतें बड़ी अजीब हुआ करती थीं। वह करीब ग्यारह साल की थी.एक दिन वह मेरे साथ कहीं जा रही थी. उसने मुझसे कहानी सुनाने की जिद की तो मैं उसे एक कहानी सुनाने लगी.आंटी के यहाँ एक बड़ा सा कुत्ता था जो कि रागिनी का बेस्ट फ्रेंड था॥रागिनी को कुत्ते बहुत पसंद थे सो मैं उसे कुत्तों की ही कहानी सुनाने लगी......अचानक उसे क्या हुआ कि उसने मुझे कहा...दी, पता है डॉगी कैसे शूशू करता है और जबतक मैं उसे पकड़ती सम्हालती,सड़क किनारे पैंटी खोलकर लैंप पोस्ट के ऊपर पैर उठाकर उसने शू शू कर दिया..आते जाते लोग हंसते हुए खड़े हो गए.मैंने झपटकर उसे पकडा और लगभग घसीटते हुए घर ले कर आई और घर पहुंचकर उसे एक चांटा लगाया.बेचारी गाल सहलाती रह गयी कि इसमें बुरा क्या किया उसने....

दुनियादारी से पूरी तरह अनजान ,इतनी भोली और मासूम थी वह कि बहुत सी सामान्य बातें वह समझ ही नहीं पाती थी।पढाई की बातें भी उसे समझ नहीं आती थी.अब चूँकि कंपनी का ही स्कूल था तो हरेक क्लास में किसी में साल भर किसी में दो साल तक फेल होने पर अंकल का लिहाज कर उसे प्रोमोशन दे दिया जाता था.पर अंकल आंटी बहुत ही चिंतित थे रागिनी के भविष्य को लेकर...

संयोग से एक बार कंपनी ने अपने कर्मचारियों के मेंटल फिटनेस के लिए सात दिवसीय योग साधना शिविर आयोजित कराया..आयोजन इतना सफल रहा कि अगले महीने इसे कर्मचारियों के परिवार वालों के लिए भी आयोजित कराया गया.माँ पापा के कहने रागिनी को भी आंटी शिविर में ले गयीं...
आश्चर्यजनक परिणाम मिले...आजतक वर्षों से खिलाई जा रही सारी दवाईयां जो न कर सकी इस सात दिन के शिविर ने वह चमत्कार कर दिखाया॥

योग गुरु ने दावा किया कि अधिकतम साल डेढ़ साल में वे रागिनी को पूरी तरह ठीक कर देंगे...अंकल आंटी के खुशी का पारावार न रहा था।लेकिन समस्या यह थी कि तो अस्थायी शिविर था.योग आश्रम में अकेले रागिनी को लम्बे समय तक छोड़ना भी मुश्किल था॥

अंकल ने हाइयर मैनेजमेंट से बात कर यह व्यवस्था करवा दी कि योग आश्रम का एक योग प्रशिक्षक वहीँ कम्पनी के पे रोल पर बहाल कर दिया जायेगा जो रेगुलर बेसिस पर स्कूल में योगा क्लासेस लिया करेगा और कम्पनी के कर्मचारियों तथा उनके परिवारवालों के लिए भी नियमित कार्यशालाएं आयोजित करवाया करेगा।

जब से रागिनी इस योग क्लास को रेगुलर अटेंड करने लगी थी,उसमे अप्रत्यासित सुधार होने लगा था।पढाई में भी अब उसे बहुत दिक्कत नहीं रही थी॥योगा टीचर तो अंकल आंटी के लिए भगवान् बन गए थे.अंकल आंटी उन्हें अपने सर माथे पर बिठाते थे.वे जब चाहें उनके घर आ जा सकते थे..एक तरह से रागिनी के गार्जियन वही हो गए थे. बीच बीच में रागिनी को उनके साथ विशेष प्रशिक्षण के लिए आश्रम भी भेज दिया जाता था.

रागिनी का ऐसा काया पलट हो रहा था की उसका एक नया ही रूप सब देख रहे थे। दो साल पहले मैं तो शहर के कालेज होस्टल में रहने लगी थी पर बबली से रागिनी के बारे में बहुत कुछ सुनती रहती थी.बबली की खूब बनती थी उसके साथ.

उन्ही दिनों जब मैं होस्टल में थी,एक दिन अप्रत्यासित रूप से माँ ने फोन पर ऐसी खबर दी कि मैं अन्दर तक हिल गयी।

रागिनी ने आत्महत्या कर ली थी।अपने कानो पर मुझे बिलकुल भी भरोसा न हुआ॥माँ ने बताया कि सुबह करीब दस बजे गुप्ता आंटी ने फोन कर बबली को बताया कि रागिनी उसे बुला रही है॥बबली जब उनके घर पहुँची तो आंटी ने कहा कि रागिनी नहाने गयी है और उसे इन्तजार करने को कहा है..आधे घंटे इन्तजार करने के बाद भी जब रागिनी बाहर नहीं आई तो आंटी ने बबली से कहा कि जाओ उसे आवाज दो..बबली ने बाथरूम के दरवाजे के बाहर से उसे तीन चार आवाजें लगायी पर अन्दर केवल पानी गिरने की आवाज आती रही रागिनी ने कोई जवाब नहीं दिया...

बबली चिढ़कर आंटी के पास जाकर बोली कि आंटी वह पता नहीं और कितने देर नहायेगी,मैं जा रही हूँ निकलने पर उसे कह दीजियेगा वही मेरे पास आ जाय।आंटी ने बबली को साथ लेकर यह कहते हुए कि चलो उसे डांटती हूँ बाथरूम तक ले गयी और कई आवाजें लगायी.जब अन्दर से कोई आवाज नहीं आई तो उन्होंने दरवाजा ठेला और अन्दर देखा कि रागिनी के गले में चुन्नी बंधी हुई थी जिसका छोर वेंटिलेटर में बंधा हुआ था.

केस पुलिस तक पहुँची। कालोनी क्या आस पास के पूरे इलाके में खबर तूफ़ान सा फ़ैल गया॥केस के गवाह में बबली का नाम भी फंसा और उसके दोस्तों के फेरहिस्त में मेरा नाम भी आया था.पूरी सम्भावना थी कि पुलिस मुझसे भी पूछताछ करती.माँ ने इसी वजह से मुझे फोन किया था कि अगर पुलिस आकर मुझसे होस्टल में या घर आने पर पूछती है तो उन्हें बस इतना ही बताना था कि रागिनी अपने पढाई में पिछड़ने को लेकर बहुत ही हतास और फ़्रसटेटेड रहा करती थी और हमेशा सुसाईट की बातें किया करती थी,हो सकता है इसी वजह से उसने ऐसा किया हो....

यह सरासर गलत था ...मैं जितना जानती थी रागिनी को कभी उसे हतास परेशान नहीं देखा था या ऐसा कोई भी कारण नहीं महसूस किया था जो उसे आत्महत्या करने को मजबूर करता...फोन पर माँ से बहुत पूछा कि इस अनहोनी की वजह क्या हो सकती है,पर माँ ने कुछ नहीं बताया।

मेरे दिमाग में सवालों ने भूचाल मचा दिया था।किसी तरह विश्वास नहीं हो रहा था कि जिस रागिनी को बात बात पर इतना डर लगता था,जो पिछले कुछ सालों से अपने सफलता से इतनी खुश रहने लगी थी, जिसे आंटी के फ्रस्टेशन और गुस्से को सहने की आदत पड़ी हुई थी और ये कभी भी उसे विचलित नहीं करते थे... वह आत्महत्या जैसा कदम कैसे उठा सकती थी......

जिस वेंटिलेटर से लटकने की बात हो रही थी,वह वेंटिलेटर तो पांच ही फिट ऊपर था,उसपर कैसे लटका जा सकता था....माँ ने कहा फंदा गले में लगा था और वह बाथरूम में बैठी हुई थी...ऐसे मरना कैसे संभव था...मेरा सर फटा जा रहा था इन सवालों के जवाब पाने को....

भागी हुई मैं घर पहुँची थी।बबली इस हादसे से इतनी डर गयी थी कि उसे कम्पोज का इंजेक्सन देकर कई दिन तक सुलाए रखा गया था।माँ पापा तथा डाक्टरों की सख्त हिदायत थी कि बबली के सामने उस हादसे का कोई जिक्र न किया जाय. मैं तो अपने सवालों के जवाब पाने के लिए बस छटपटा कर रह गयी थी, उससे कुछ पूछने का रास्ता ही बंद हो गया था....

केस को तो किसी तरह पुलिस के साथ गंठजोड़ कर निपटा दिया गया था...पर जो सवाल उठे थे उन्हें कैसे खामोश किया जा सकता था।सालों तक वह हवाओं में तैरता रहा॥

घटना के सात महीने बाद गुप्ता अंकल ने यह कंपनी छोड़ एक विदेशी कम्पनी ज्वाइन कर लिया और सपरिवार भारत को अलविदा कह वहीँ जा बसे।

कई महीनो बाद एक दिन अचानक माँ पापा और राजन अंकल जो कि गुप्ता अंकल के सहयोगी थे और जिन्होंने गुप्ता अंकल के केस के निपटारे में बड़ा ही महत्वपूर्ण रोल निभाया था,उनकी फुसफुसाती आवाजें मेरे कानो में पड़ गयी और उन कुछ वाक्यों ने मेरे सारे सवालों के जवाब मुझे दे दिए...

पोस्ट मार्टम में खुलासा हुआ था कि रागिनी तीन महीने की गर्भवती थी और उसकी शरीर की कई हड्डियाँ टूटी हुई थी।शरीर पर गहरे घावों के निशान पाए गए थे.... पर जो पोस्ट मार्टम रिपोर्ट दर्ज हुई उसमे से ये सारी बातें लाखों रुपये के झाडू से साफ़ कर दिए गए थे॥फाइनल रिपोर्ट में इस केस को सिंपल आत्महत्या का केस करार दिया गया था...

एक मासूम जान चली गयी ..........असली गुनाहगार कौन था ........

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