21.12.09

स्मृति कोष से...

विशेषकर उस वय तक जबतक कि संतान पलटकर अपने अभिभावक को जवाब न देने लगे,उनकी अवहेलना न करने लगे,विरले ही कोई माता पिता अपने संतान के विलक्षणता के प्रति अनाश्वस्त होते हैं ..संसार के प्रत्येक अभिभावक जितना ही अपनी संतान में विलक्षणता के लिए लालायित रहते हैं,उतना ही सबके सम्मुख उसे सिद्ध और प्रस्तुत करने को उत्सुक और तत्पर भी रहा करते हैं.



ऐसे ही अपनी संतान की योग्यता के प्रति अति आश्वस्त आत्मविश्वास से भरे पिता ने अपनी चार वर्ष की पिद्दी सी बच्ची को संगीत कला प्रदर्शन हेतु मंच पर आसीन कर दिया..घबरायी बालिका ने सामने देखा - अपार भीड़..अपने दायें बाएं पीछे देखा...वयस्क वादक वृन्दों के सिर्फ घुटने ही घुटने .....घबराये निकटस्थ वादक के पतलून पकड़ उन्हें नीचे झुक अपनी बात सुनने का आग्रह किया और रुंधे कंठ से उनके कान में फुसफुसाई - अंकल मैं कौन सा गाना गाऊं, मुझे तो कोई भी एक पूरा गाना नहीं आता ..उन्होंने बालिका को उत्साहित करते हुए कहा..इसमें घबराने का क्या है बेटा, जो आता है जितना आता है उतना ही गा दो.. बालिका ने दिमाग पर पूरा जोर लगाया ,सुबह रेडियों पर सुनी कव्वाली का स्मरण उसे हो आया जो कि उसे बहुत पसंद भी था..कंठ में गोले से अटके आंसुओं के छल्ले को घोंट लगभग तुतलाती सी आवाज में उसने गा दिया..."झूम बराबर झूम शराबी,झूब बराबर झूम..मुखड़ा तीन बार दुहरा अंतरे का एक पद सुनाने के बाद बस, आगे सब साफ़...वादक महोदय ने आगे सुनाने का इशारा किया और बालिका ने सिर हिलाकर प्रत्युत्तर दिया,बस इतना ही आता है...


यह था मंच का मेरा पहला अनुभव, जिसे मैं इसलिए नहीं विस्मृत कर पाई हूँ कि एक पूरा गीत न जान और गा पाने के अपने अक्षमता के कारण मुझे जो ग्लानि हुई थी ,वह सहज ही विष्मरणीय नहीं और मेरे माता पिता इसलिए नहीं विस्मृत कर पाए हैं कि उनकी बेटी ने चार वर्ष के अल्पवय में मंच पर निर्भीकता से कला प्रदर्शित कर उनका नाम और मान बढ़ाते हुए प्रथम पुरस्कार जीता था.यूँ मैं आज तक निर्णित न कर पाई हूँ कि मुझे वह प्रथम पुरस्कार क्यों मिला था...


* औरों ने बहुत बुरा गाया था इसलिए,

* अन्य सभी प्रतियोगियों के चौथाई अवस्था की होने कारण मैं सहानुभूति की पात्र थी इसलिए,

* मेरे पिताजी जो अच्छे गायक के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त सबके चहेते थे इस कारण ,

* या फिर मेरे गीत चयन ने जो सबको हंसा हंसा कर लोट पोट करा दिया था उस कारण..


साहित्य और संगीत में अभिरुचि मेरे पिताजी को विरासत रूप में कहाँ से मिली यह तो पाता नहीं, पर मुझमे यह अभिरुचि पिताजी से ही संस्कार रूप में आई, इसके प्रति मैं अस्वस्त हूँ.विज्ञान के विद्यार्थी होते हुए भी मेरे पिताजी जितना लाजवाब गीत लिखा करते थे,उतने ही सुमधुर स्वर में गाया भी करते थे. जहाँ भी वे रहे उनके बिना वहां का कोई भी सांस्कृतिक कार्यक्रम पूर्णता न पाती थी..


स्वाभाविक ही पिताजी मुझे संगीत कला में पारंगत देखना चाहते थे,परन्तु दैव योग से हम जिन स्थानों में रहा करते थे अधिकाँश स्थानों पर संगीत प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था ही न थी..परन्तु जब मैं लगभग नौ वर्ष की थी स्थानांतरित होकर हम जिस जगह गए थे जहाँ कि हम लगभग तीन वर्ष रहे , वहां के बांगला स्कूल के एक संगीत प्रशिक्षक के विषय में जानकारी मिलते ही पिताजी ने उन्हें जा पकड़ा..वे विद्यालय तथा अपने आवास के अतिरिक्त कहीं और जाकर सिखाते नहीं थे..पर पिताजी भी मुझे मेरे घर आ प्रशिक्षण देने के लिए ऐसे हाथ धोकर उनके पीछे पड़े कि बेचारे गुरूजी को भागने का रास्ता ही नहीं दिया.. गुरूजी ने पिताजी को बहुत समझाया कि वे रविन्द्र तथा बांग्ला गीत ही सिखाते हैं, मेरे लिए हिन्दी में सब कुछ करने के लिए उन्हें बहुत कठिनाई होगी,उसपर से मेरे घर आकर समय देने का अतिरिक्त श्रम अलग था,परन्तु पिताजी कहाँ मानने वाले थे.उन्होंने उन्हें मना ही लिया..


मेरी संगीत शिक्षा आरम्भ हुई सप्ताह में तीन दिन गुरु जी आने लगे.मेरी वयस्कों की तरह एक पूरा गीत गा पाने की वह साध अब पूर्णता पाने वाली थी.पर यह क्या,गुरु जी जो सरगम पर अटके तो आगे बढ़ने का नाम ही नहीं लेते थे.सुर और संगीत से भले मुझे लाख स्नेह था,पर उन दिनों सरगम पर ही अटके रहना मुझे नितांत ही अरुचिकर लगा करता था..ऊपर से पिताजी भी अजीब थे, अपने मित्र मंडली के समक्ष सगर्व मेरे संगीत कला की विरुदावली गाने लगते और उनके वाह कहते कि मुझे उनके समक्ष अपने संगीत ज्ञान प्रदर्शन का आदेश जारी कर देते..यह दुसह्य आदेश मेरे लिए प्राण दंड से किंचित भी कमतर न हुआ करता था ..क्योंकि ऐसे समय में जब मैं सरगम दुहरा रही होती,पिताजी तो अपना सीना चौड़ा कर रहे होते पर उनके मित्र उबासी लेने लगते..गीत न जानने की टीस उस समय मुझे असह्य पीड़ा दिया करती..


जब करीब पांच मास इसी तरह सरगम गाते बीत गए तो मेरा धैर्य चुकने लगा और एक दिन आशापूर्ण अश्रुसिक्त नयनों और रुंधे कंठ से गुरूजी के सम्मुख अपना निवेदन रखा कि अब तो सरगम पूरी तरह कंटस्थ हो गाया , मुझे गीत भी सिखाएं. संभवतः गुरु जी को मुझपर दया आ गयी और उन्होंने मेरे लिए हिन्दी गीतों की कसरत शुरू की..परन्तु इसमें भी मुझे विशेष उत्साहजनक कुछ न लगा. क्योंकि राग आधारित कोई भी गीत चार पंक्तियों से अधिक के न हुआ करते थे और मेरी अभिरुचि उन दिनों लम्बे लम्बे तानो में तनिक भी न थी. खैर अब जो था सो था.हाँ,बाद के दिनों में इसकी भरपाई मैंने चुपके से अकेले में फ़िल्मी गीतों की धुनों को हारमोनियम पर उतार कर करने के यत्न के साथ किया..


गुरूजी जो भी सिखाया करते थे,सारा मुंह्जबानी ही हुआ करता था. कहीं कुछ लिखित रूप में न था. बाकी तो सब ठीक था,परन्तु उनके सिखाये गीतों में से एक गीत,जिसे मैं लगभग डेढ़ वर्ष पूरे तान के साथ दुहराती गाती रही थी, लाख दिमाग लगा भी उसका अर्थ समझ पाने के मेरे सभी यत्न विफल रहे थे..गीत की प्रथम पंक्ति थी - "अमुवा की डार को ले गाया बोले" .यूँ व्यावहारिक ज्ञान में मैं बहुत बड़ी गोबर थी,फिर भी मुझे यह प्रथम पंक्ति खटका करती कि आखिर इसका अर्थ क्या हुआ..


इधर गुरूजी मेरे संगीत के प्रथम वर्ष की परीक्षा दिलवाने की तैयारी कर ही रहे थे और उधर पुनः मेरे पिताजी के स्थानांतरण का आदेस निर्गत हुआ..तबतक गुरूजी का मुझपर अपार स्नेह हो गया था. उन्होंने असाध्य श्रम से न जाने कहाँ कहाँ संधान करा , राग आधारित गीतों की एक पुस्तक मेरे लिए मंगवाई और उस स्थान से जाने से पहले मुझे वह उपहार स्वरुप दिया जिसमे अन्य गीतों के अतिरिक्त वे समस्त गीत भी संकलित थे,जो गुरूजी ने मुझे सिखाये थे...जब मैंने पुस्तक में उपर्युक्त गीत को देखा,तो मुझे लगा कि मेरी शंका निर्मूल नहीं थी..वर्षों पूरे तान के साथ लगभग प्रतिदिन जिस "अमुवा की डार को ले गाया बोले " को मैंने न जाने कितने सौ बार दुहराया था ,वह गीत वस्तुतः -" अमुवा की डार पर कोयलिया बोले " था......


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2.12.09

स्त्री विमर्श ......

एक स्त्री हूँ, आज तक उन समस्त विषम परिस्थितियों से गुजरी हूँ जिससे एक आम भारतीय स्त्री को गुजरना पड़ता है.अपने  आस पास असंख्य स्त्रियों को भी उन त्रासदियों से गुजरते उनसे जूझते देखा सुना है... परन्तु फिर भी बात जब समग्र रूप में स्त्री पुरुष की होती है तो पता नहीं क्यों लाख चाहकर भी इस विषय को मैं स्त्री पुरुष के हिसाब से नहीं देख पाती..मैं यह नहीं मान पाती कि एक पूरा स्त्री समाज ही पीडिता है और पुरुष समाज प्रताड़क..आज तक के अपने अनुभव में जितनी स्त्रियों को पुरुषों द्वारा प्रताड़ित देखा है उससे कम पुरुषों को स्त्रियों द्वारा प्रताड़ित नहीं देखा,चाहे वे किसी भी जाति धर्म भाषा या आय वर्ग से सम्बद्ध हों.या फिर एक नर में जो नारी की अपेक्षा श्रेष्ठता का दंभ होता है उसे पोषित और परिपुष्ट करते प्रमुख रूप से नारी को ही देखा है.


सृष्टि के प्रारंभ से ही मनाव समाज में अच्छे बुरे लोग रहें हैं और आगे भी रहेंगे...सदियों से समाज में न ही कुल समाज उद्धारक स्त्रियों की कमी रही है और न ही कुलनाशक विपत्ति श्रिजनी स्त्रियों की. एक ओर ऐसी स्त्रियाँ हैं , जो घर परिवार और समाज को अच्छाई और सच्चाई का मार्ग दिखाते हुए स्त्री गरिमा को परिपुष्ट करती हैं..स्त्री जाति को पूज्या और अनुकरणीय बना देती हैं तो दूसरी ओर दुष्टता के उच्चतम प्रतिमान स्थापित करती स्त्रियों की भी कोई कमी नहीं..बल्कि सहज ही देखा जा सकता है,स्त्रियों को जितनी प्रताड़ना एक स्त्री से मिलती है एक पुरुष से नहीं...एक स्त्री दूसरी स्त्री के लिए जितना कठोर हो सकती है,उस स्तर तक पुरुष कभी नहीं हो सकता..भय, इर्ष्या इत्यादि को स्त्रैण गुण यूँ ही नहीं माना गया है.कोई आवश्यक नहीं कि यह परिस्थितिजन्य ही हो..अधिकांशतः तो ये परिकलिप्त ही हुआ करते हैं.मैंने तो यही देखा है कि स्त्रियाँ जाने अनजाने स्वयं ही अपने मानसिक दौर्बल्य की परिपोषक होती हैं..


एक बड़ी साधारण सी घटना है,पर मैं इसे सहज ही विस्मृत नहीं कर पाती..एक बार एक मॉल में वहां के लेडीज टायलेट गयी...दरवाजे से अन्दर गयी तो वहां की स्थिति ने अचंभित कर दिया...करीब सात आठ महिलाएं एक कोने में दुबकी खड़ी थीं,एक बच्ची अपनी पैंटी पकडे खड़ी रोते हुए अपनी माँ से कह रही थी कि अगर जल्द से जल्द उसे टायलेट में न बैठाया गया तो पैंटी में ही उसकी शू शू निकल जायेगी. मामला यह था कि वहां तीन टायलेट में से एक का फ्लश खराब था,सो वह इस्तेमाल के लायक न था और बाकी बचे दो में से एक में कोई गयी थी और बाकी एक जो खाली था , उसमे ऊपर दीवार पर एक छिपकिली और जमीन पर कोने में एक तिलचट्टा अपनी मूंछे हिलाते दुबका हुआ था...बच्ची का डरना और चिल्लाना फिर भी समझा जा सकता था , पर उनकी माताजी तथा अन्य स्त्रियों को भयग्रस्त देख मेरा मन क्षुब्ध हो गया...छिपकिली और तिलचट्टे को भागकर मैंने उस बच्ची को समझाने की कोशिश की कि बेटा ये ऐसे जंतु नहीं कि मनुष्य का कुछ बिगाड़ सके,बल्कि ये तो स्वयं ही मनुष्यों से बहुत ही डरते हैं,इनसे डरना कैसा.....पर मैं आश्वस्त हूँ कि मेरे इस समझाने से किसी के भी सोच में कोई अंतर नहीं पड़ने वाला...पश्चिमी परिधान पहने और पुरुषों के दुर्गुणों को अंगीकार करने को उत्सुक , पुरुषों से बराबरी का दंभ भरने वाली स्त्री पीढी जब इतने निराधार तुच्छ भय को पोषित किये रहेंगी तो हम क्या खाकर इनके उत्थान का दंभ भर पाएंगी...


वस्तुतः स्त्री पुरुष का अबला सबला और प्रताड़क प्रताड़ित वाला यह विषय और द्वन्द स्त्री पुरुष का है ही नहीं. मनुष्य से लेकर पशु जगत तक में एक ही एक सिद्धांत अनंत काल से चलता आ रहा है और सदा चला करेगा..और वह है......" जिसकी लाठी उसकी भैंस "..पर मनुष्यों के मध्य यह "लाठी " शारीरिक बल वाली नहीं बल्कि बौद्धिक क्षमता वाली है..यहाँ बौद्धिक क्षमता से मेरा तात्पर्य विधिवत शिक्षा से उपार्जित बौधिकता से नहीं बल्कि सामान्य सोच समझ से है..स्त्री पुरुष दोनों में से जिसमे भी सूझ बूझ अधिक होगी,अपनी बात मनवाने की कला में भी वह अपेक्षाकृत अधिक कुशल होगा..अपने आस पास ही देखिये न,कई घरों में एक अनपढ़ स्त्री भी माँ बहन पत्नी या बेटी किसी भी रूप में यदि मानसिक रूप से अधिक सबल या समझदार होती है तो घर में उसीका सिक्का चलता है.अपने से कई गुना बली या पढ़े लिखे पर वह अति स्वाभाविक रूप से शासन करती है..यह सर्वसिद्ध है कि स्त्री हो या पुरुष ,व्यक्ति नियोजन में जो जितना कुशल/चतुर होगा, चाहे परिवार में हो या समाज में, अपना स्थान और स्थिति सुदृढ़ करने में वह उतना ही सक्षम होगा. बाकी रही चुनौतियों की बात तो,यदि नारी अपने जीवन में कंटकाकीर्ण पथ पर चलने को बाध्य है तो पुरुषों के जीवन में भी कम चुनौतियां नहीं हैं..


जहाँ तक क्षमताओं की बात करें,निश्चित रूप से प्रकृति/ईश्वर ने स्त्रियों को मानसिक रूप से पुरुषों की तुलना में अधिक सबल और सामर्थ्यवान बनाया है.श्रृष्टि रचना का श्रोत पुरुष अवश्य है परन्तु श्रृष्टि की क्षमता स्त्रियों को ही है..संभवतः इसी कारण ईश्वर ने स्त्रियों को शारीरिक बल में पुरुषों से कुछ पीछे कर दिया,क्योंकि यदि दोनों एक साथ स्त्रियों को ही मिल जाता तो इसकी प्रबल सम्भावना थी कि संसार में पुरुषों की स्थिति अत्यंत दयनीय होती..


हाँ यह अवश्य कहा जा सकता है कि स्त्री की इसी अपरिमित क्षमताओं से भयभीत होकर उसके समग्र विकास की प्रत्येक सम्भावना को बाधित और कुंठित करने का यथासंभव प्रयास पिछले कई शतकों से लेकर पिछले कुछ दशक तक पुरुष समाज द्वारा किया गया, जिसमे उसे स्त्रियों का भी यथेष्ट सहयोग मिला...परन्तु पिछले कुछ दशकों में स्त्री उत्थान की दिशा में जो भी महत प्रयास किये गए ये कम उत्साहजनक नहीं .ये समस्त सकारात्मक प्रयास उसे वस्तु और भोग्या से बाहर निकाल एक मनुष्य समझने और बनाने की ओर हो रहे हैं...वस्तुतः यही वह अनुकूल अवसर है जब स्त्रियाँ अपनी दुर्बलताओं को भली भांति चिन्हित कर उससे बाहर आ सच्चे अर्थों में सबलता प्राप्त करे...उसे यह कदापि नहीं विस्मृत करना चाहिए कि उसके शरीर और सुख दे पाने की क्षमता के कारण ही वर्षों तक पुरुषों द्वारा उसे वस्तु और भोग्या बनाकर रखने का यत्न किया गया. अपने उसी अपरिमित सामर्थ्य अपने शरीर अपने देय क्षमता को उसे सतत जागरूक होकर संरक्षित और मर्यादित रखना है..भोगवादी प्रवृत्ति पुरुषों में भी यदि है तो वह उनका मानसिक दौर्बल्य ही है,उसे यदि स्त्री भी बराबरी का अधिकार मानते हुए अंगीकार करेगी तो फिर तो परिवार समाज और संस्कृति का अस्तित्व ही नहीं बचेगा...


आवश्यकता है कि स्त्री हो या पुरुष अपने चारित्रिक दुर्बलताओं का शमन करना अपना परम लक्ष्य बना ले, अपना नैतिक विकास करे और करुणा ,क्षमा,स्नेह , सद्भावना ,सौहाद्र के भाव का विकाश करे.ह्रदय विशाल होगा और पर पीड़ा से जैसे ही व्यक्ति व्यथित होने लगेगा फिर संसार में कोई प्रताड़क और प्रताड़ित न बचेगा.ईश्वर ने श्रृष्टि के विस्तार के निमित्त ही भिन्न योग्यताओं से युक्त स्त्री और पुरुष की रचना की है. दोनों का योग ही संसार को पूर्ण बनाता है..एक अकेला अपने आप में कुछ भी नहीं.दोनों एक दूसरे के प्रति आदर का भाव रखें इसी में श्रृष्टि का सौंदर्य और संतुलन संरक्षित अक्षुण रहेगा.


मुझे लगता है यदि मैं परिवार समाज में आदर की अपेक्षा करती हूँ, अधिकार और बराबरी की अपेक्षा करती हूँ,तो इसके लिए सबसे पहले मुझे अपने आप को ही स्त्री पुरुष के इन विभेदों से ऊपर उठाना पडेगा,स्वयं को मनुष्य समझना पड़ेगा..तभी किसी और से मैं अपेक्षा कर सकती हूँ कि वह मेरे विषय में इन सबसे ऊपर उठकर सोचे..मुझे स्त्री पुरुष के भेद से न देखे.. और इसके बाद इस स्त्री शरीर के साथ एक स्त्री के प्रकृतिजन्य जो भी स्वाभाविक गुण और कर्तब्य (जैसे कि लज्जा ,शील ,करुणा, कोमलता,ममत्व आदि आदि जैसे स्त्रियोचित गुण और सेवा, आदर सम्मान आदि जैसे कर्तब्य) हैं, उनके प्रति सतत सजग रहूँ...मुझे लगता है संस्कार संस्कृति जो कि एक समाज को सुसंगठित रखती है,उसके रक्षा का प्रथम दायित्व स्त्री का ही है,क्योंकि इनका संरक्षण शारीरिक बल से नहीं बल्कि मानसिक बल से ही संभव है और यह मनोबल संपन्न स्त्री ही कर सकती है.स्त्री यदि एक नया शरीर उत्पन्न कर सकती है तो श्रृष्टि का संरक्षण भी कर सकती है...


एक स्त्री होकर यदि हम सचमुच स्त्री उत्थान का सोचती हैं तो सबसे पहले तो अपने जीवन में जितना हो सके अपने आस पास स्त्रियों को शिक्षित करें, स्वयं किसी स्त्री को मानसिक प्रताड़ना न दें और दूसरों को भी इसके लिए प्रोत्साहित करें.अपने आचरण में दृढ़ता लायें,स्वयं को दोषमुक्त करें तो नारी उत्थान के मार्ग को कोई अवरुद्ध न कर पायेगा....