20.1.10

लोकधर्म (भाग -२)

आचार्यवर श्री रामचंद्र शुक्ल की पुस्तक "गोस्वामी तुलसीदास" से साभार
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इसाई ,बौद्ध ,जैन इत्यादि वैराग्यप्रधान मतों में साधना के जो धर्मोपदेश दिए गये , उनका पालन अलग अलग कुछ व्यक्तियों ने चाहे किया हो, पर सारे समाज ने नहीं किया | किसी इसाई साम्राज्य ने अन्यायपूर्वक अग्रसर होने वाले दूसरे साम्राज्य में मार खाकर अपना दूसरा गाल नहीं फेरा | वहां भी समिष्टरूप में जनता के बीच लोकधर्म ही चलता रहा | अतः व्यक्तिगत साधना के कोरे उपदेशों की तड़क भड़क दिखाकर लोकधर्म के प्रति उपेक्षा प्रकट करना पाषंड ही नहीं हैं ,उस समाज के प्रति घोर कृतध्नता भी है जिसके बीच काया पली है |

लोकमर्यादा का उल्लंघन ,समाज की व्यवस्था का तिरस्कार ,अनाधिकार चर्चा ,भक्ति और साधुता का मिथ्या दम्भ ,मूर्खता छिपाने के लिए वेद शास्त्र की निंदा , ये सब बातें येसी थीं जिनसे गोस्वामीजी की अंतरात्मा बहुत व्यथित हुई | इस दल का लोकविरोधी स्वरुप गोस्वामीजी ने खूब पहचाना | समाजशास्त्र के आधुनिक विवेचकों ने भी लोकसंग्रह और लोकविरोध की दृष्टि से जनता का विभाग किया है | गिडिंग के चार विभाग ये है- लोकसंग्रही ,लोकबाह्य ,अलोकोपयोगी और लोकविरोधी |लोकसंग्रही वे हैं, जो समाज की व्यवथा और मर्यादा की रक्षा में तत्पर रहते हैं और भिन्न -भिन्न वर्गों के परस्पर सम्बन्ध को सुखावह और कल्याणप्रद करने की चेष्टा से रहते हैं | लोकबब्राह्य वे हैं , जो केवल अपने जीवन -निर्वाह से काम रखते हैं और लोक के हिताहित से उदासीन रहते हैं | अलोकोपयोगी वे हैं, जो समाज में मिले तो दिखाई देते हैं, पर उसके किसी अर्थ के नहीं होते ; जैसे आलसी और निकम्मे जिन्हें पेट भरना ही कठिन रहता है | लोकविरोधी वे हैं जिन्हें लोक से द्वेष होता है और जो उसके विधान और व्यवस्था को देखकर जला करते हैं | गिडिंग ने इस चतुर्थ वर्ग के भीतर पुराने पापियों और अपराधियों को लिया है| पर अपराध की अवस्था तक न पहुँचे हुए लोग भी उसके भीतर आते हैं जो अपने ईर्ष्या द्वेष का उदगार उतने उग्र रूप में नहीं निकलते , कुछ मृदुल रूप में प्रकट करते हैं |अशिष्ट सम्प्रदायों का औद्धत्य गोस्वामी जी नहीं देख सकते थे | इसी औद्धत्य के कारण विद्वान और कर्मनिष्ट भी भक्तों को उपेक्षा की दृष्टि से देखने लगे थे, जैसा की गोस्वामीजी के इन वाक्यों से प्रकट होता है -

कर्मठ कठमलिया कहैं ज्ञानी ज्ञान बिहीन ||

धर्म व्यवस्था के बीच ऐसी विषमता उत्पन्न करनेवाले नए - नए पंथों के प्रति इसी से उन्होंने अपनी चिढ़ कई जगह प्रकट की है ; जैसे-

श्रुति सम्मत हरिभक्ति पथ ,संजुत बिरती बिबेक ||

तेहि परिहरहिं बिमोह बस कल्पहिं पंथ अनेक | |
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साखी , सबदी , दोहरा , कहि किहनी उपखान |

भगत निरूपहिं भगति कलि , निंदहि वेद पुरान ||

उत्तरकांड में कलि के व्यवहारों का वर्णन करते हुए वे इस प्रसंग में कहते हैं -

बादहिं शूद्र द्विजन सन हम तुमतें कछु घाटि |

जानहि ब्रह्म सो बिप्रवर आँखि दिखावहिं डांटि ||

जो बातें ज्ञानियों के चिन्तन के लिए थीं , उन्हें अपरिपक्व रूप में अनधिकारियों के आगे रखने से लोकधर्म का तिरस्कार अनिवार्य था | 'शूद्र' शब्द से जाति की नीचता मात्र से अभिप्राय नहीं है ; विद्या ,शील , शिष्टता ,सभ्यता सबकी हीनता से है |समाज में मूर्खता का प्रचार ,बल और पौरुष का ह्रास , अशिष्टता की वृद्धि , प्रतिष्टित आदर्शों की उपेक्षा कोई विचारवान नहीं सहन कर सकता | गोस्वामीजी सच्चे भक्त थे | भक्ति मार्ग की यह दुर्दशा वे कब देख सकते थे ? लोकविहित आदर्शों की प्रतिष्टा फिर से करने के लिए , भक्ति के सच्चे सामाजिक आधार फिर से खड़ें करने के लिए ,उन्होंने रामचरित का आश्रय लिया जिसके बल से लोगों ने फिर धर्म के जीवनव्यापी स्वरुप का साक्षात्कार किया और उस पर मुग्ध हुए | ' कलिकलुष विभंजिनी ' राम कथा घर घर धूमधाम से फैली | हिन्दू धर्म में नई भक्ति का संचार हुआ | स्रुति सम्मत हरि भक्ति की ओर जनता फिर से आकर्षित हुई |

रामचरितमानस के प्रसाद से उत्तर भारत में साम्प्रदायिकता का वह उछश्रृंखल रूप अधिक न ठहरने पाया जिसने गुजरात आदि में वर्ग के वर्ग को वैदिक संस्कारों से एकदम विमुख कर दिया था, दक्षिण में शैवों और वैष्णवों का घोर द्वन्द खड़ा किया था.यहाँ की किसी प्राचीन पूरी में शिव कांची और विष्णु कांची के सामान दो अलग अलग बस्तियां होने की नौबत नहीं आई | यहाँ शैवों और वैष्णवों में मार पीट कभी नहीं होती | यह सब किसके प्रसाद से ? भक्त शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी के प्रसाद से | उनकी शांति प्रदायिनी मनोहर वाणी के प्रभाव से जो सामंजस्य बुद्धि जनता में आई वह अब तक बनी है और जब तक रामचरित मानस का पठन पाठन रहेगा, तबतक बनी रहेगी |

शैवों और वैष्णवों के विरोध के परिहार का प्रयत्न राम चरित मानस में स्थान - स्थान पर लक्षित होता है | ब्रह्म वैवर्त्त पुराण के गणेश खंड में शिव हरिमंत्र के जापक कहे गए हैं | उसके अनुसार उन्होंने शिव को राम का सबसे अधिकारी भक्त बनाया,पर साथ ही राम को शिव का उपासक बनाकर गोस्वामी जी ने दोनों का महत्त्व प्रतिपादित किया | राम के
मुखारविंद से उन्होंने स्पष्ट कहला दिया कि -

शिव द्रोही मम दास कहावै | सो नर सपनेहु मोहि न भावै ||

वे कहते हैं कि ' शंकर प्रिय, मम द्रोही,शिव द्रोही,मम दास 'मुझे पसंद नहीं |
इस प्रकार गोस्वामी जी ने उपासना या भक्ति का केवल कर्म और ज्ञान के साथ ही सामंजस्य स्थापित नहीं किया,बल्कि भिन्न भिन्न उपास्य देवों के कारण जो भेद दिखाई पड़ते थे,उनका भी एक में पर्यवसान किया | इसी एक बात से यह अनुमान हो सकता है कि उनका प्रभाव हिन्दू समाज की रक्षा के लिए - उसके स्वरुप को रखने के लिए- कितने महत्त्व का था |


तुलसीदास जी यद्यपि राम के अनन्य भक्त थे,पर लोकरीति के अनुसार अपने ग्रंथों में गणेश वंदना पहले करके तब वे आगे चले हैं | सूरदास जी ने ' हरि हरि हरि सुमिरन करो ' से ही ग्रन्थ का आरम्भ किया है | तुलसीदास जी की अनन्यता सूरदास जी से कम नहीं थी, पर लोक मर्यादा की रक्षा का भाव लिए हुए थी | सूरदास जी की भक्ति में लोकसंग्रह का भाव न था | पर हमारे गोस्वामी जी का भाव अत्यंत व्यापक था- वह मानस जीवन के सब व्यापारों तक पहुँचने वाला था | राम की लीला के भीतर वे जगत के सारे व्यवहार और जगत के सारे व्यवहारों के भीतर राम की लीला देखते थे | पारमार्थिक दृष्टि से तो सारा जगत राममय है,पर व्यवहारिक दृष्टि से उसके राम और रावण दो पक्ष हैं |अपने स्वरुप के प्रकाश के लिए मानो राम ने रावण का असत रूप खड़ा किया | 'मानस ' के आरम्भ में सिद्धांत कथन के समय तो वे ' सियाराम मय सब जग जानी ' फिर सबको ' सप्रेम प्रणाम ' करते हैं,पर आगे व्यवहार क्षेत्र में चलकर वे रावण के प्रति 'शठ' आदि बुरे शब्दों का प्रयोग करते हैं |


क्रमशः :-

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17 comments:

राज भाटिय़ा said...

आप का लेख आज के हालात को दर्शाता है, आज सच मै यही सब तो हो रहा है, इस्सुंदर लेख के लिये आप का धन्यवाद

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

i agree to raj...
very nice composition...

Arvind Mishra said...

बहुत सुन्दर ,.मंत्रमुग्ध हूँ ! हाँ तुलसीदास ने वन्दे वाणी विनायकौ कहा है ..मतलब पहले सरस्वती फिर स्थापित परम्परा के अनुसार गणेश जी !

Arvind Mishra said...

@धन्य हो प्रभु ,छान पगहा तुड़ा के आ गए ...
मेल भेजिए, यह ज्ञान इतना आसानी से नहीं मिलने वाला !

Udan Tashtari said...

बहुत आभार इस उम्दा आलेख के लिए.

Crazy Codes said...

umda aur aaj ke haalat ko darshata aalekh... kuchh samay nikal kar is par bhi gaur karein...
http://ab8oct.blogspot.com/2010/01/blog-post_20.html

achha lage to humein follow karne ka kast karein...

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

आभार।
वसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएँ।
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औरतों के दाढ़ी-मूछें उग आएं तो..?
ज्योतिष के सच को तार-तार करता एक ज्योतिषाचार्य।

Shiv said...

अब मैंने पूरा लेख पढ़ा है तो यह नहीं लिख सकता कि; "आपकी लेखनी बहुत सशक्त है" या फिर "आज के हालात को दर्शाता आलेख. बधाई"

जैसा कि तुम्हारी पहली प्रस्तुति पर लिखा था, ज्ञान भी कालजयी होता है. यह पोस्ट को पढ़कर एक बार फिर से वही अनुभूति हो रही है. कोर्स की किताबों में आचार्य शुक्ल के दो-चार लेख पढ़े थे. हाँ, अब लग रहा है कि बहुत ज़रूरी है कि उनके लेखन से परिचित हों.

देवेन्द्र पाण्डेय said...

आभार.

निशांत मिश्र - Nishant Mishra said...

बहुत अच्छा लिखा है आपने. ऐसा कुछ अब बहुत कम पढ़ने को मिलता है.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

इस ज्ञानवर्धक लेख को प्रकासित करने के लिए धन्यवाद!

BrijmohanShrivastava said...

इतनी जल्दी दूसरे भाग की उम्मीद नही थी ।आचार्य जी के लिखे पर कुछ भी कहना उचित नही होगा ।शुक्ल जी के प्रति परम श्रद्धा रखते हुए इतना ही कहना चाहूंगा जहां जैसा प्रसंग आया है उसी अनुसार गोस्वामी जी ने शब्दों का प्रयोग किया है ,शठ यदि रावण के लिये प्रयुक्त हुआ है तो रावण के द्वारा हनूमान को खल कहा,अधम कहा , सीता ने रावण को शठ सूने हर आनेसि मोही कहा, अंगद ने रावण को खल कहा तो रावण ने अंगद को अधम कहा ।सिया राम मय सब जग जानी यह तुलसीदास जी ने अपने लिये कहा था, परन्तु सीता, रावण, अंगद ,हनुमान ने तो नही कहा कि सियाराम मय सब जग जानी तो उन्होने एक दूसरे को परिस्थिति अनुसार कथन किये ।यह बात तो सही है कि पहले शैव ,शाक्त,बैष्णव आपस मे झगडते थे ऐसी स्थिति मे शिव द्वारा राम को प्रणाम करना और राम द्वारा शिव स्थापना कराना ,ने वाकई बहुत महत्व पूर्ण कार्य किया है ।शुक्ल जी का लिखा ,आपके ब्लोग के माध्यम से पढ पाया इस हेतु आभारी हूं ।

Smart Indian said...
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Smart Indian said...

आचार्य जी को कोर्स के बाहर पढ़ा हो याद ही नहीं पड़ता. आलेख अच्छा लगा.

भक्ति काल बड़ी दीनता का काल था. भारतीय सभ्यता और समाज का जो हाल हुआ था उससे उस क्षण में रहे लोगों का यह मान लेना आसान था कि महान सभ्यताओं को भी आसुरी बल से धुल चटाई जा सकती है. ऐसे नाज़ुक समय में भक्ति कवियों की उपस्थिति ने समाज को बड़ा सहारा दिया.

ब्रज मोहन श्रीवास्तव जी की टिप्पणी काबिले गौर है खासकर इसलिए कि बहुत से पात्रों के संवादों को आज के मौकापरस्त लोग गोस्वामी तुलसीदास के वचन और राय जैसा दिखाकर प्रस्तुत करते हैं.

Abhishek Ojha said...

शैव और वैष्णव विरोध पर इस दृष्टि का तनिक भी ज्ञान नहीं था. घर फोन करके अपना ज्ञान बघारता हूँ :).

Rakesh Singh - राकेश सिंह said...

आचार्य शुक्ल जी को पढने का मौक़ा नहीं मिला पर आपके आलेख पढ़कर लगता है अब आचार्य जी को पढ़ना ही पडेगा |

दिगम्बर नासवा said...

बहुत सारगर्भीत लिखा है और बृजमोहन जी की टिप्पणी भी बहुत सारगर्भीत है .......... आचार्य और आपकी दृष्टि से गोस्वामी तुलसीदास को देखना बहुत ही सुखद और नवीन है .......