2.2.10

लोकधर्म (अंतिम भाग )

आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी की अनुपम कृति "गोस्वामी तुलसीदास" से साभार :-



भक्त कहलानेवाले एक विशेष समुदाय के भीतर जिस समय यह उन्माद कुछ बढ़ रहा था , उस समय भक्तिमार्ग के भीतर ही एक ऐसी सात्त्विक ज्योति का उदय हुआ जिसके प्रकाश में लोकधर्म के छिन्नभिन्न होते हुए अंग भक्ति सूत्र के द्वारा ही फिर से जुड़े | चैतन्य महाप्रभु के भाव के प्रभाव के द्वारा बंगदेश ,अष्टछाप के कवियों के संगीत श्रोत के द्वारा उत्तर भारत में प्रेम की जो धारा बही ,उसने पंथवालो की परुष बचनावाली से सुखते हुए हृदयों को आर्द्र तो किया , पर वह आर्य शास्त्रानुमोदित लोकधर्म के माधुर्य की ओर आकर्षित न कर सकी | यह काम गोस्वामी तुलसीदास जी ने किया | हिन्दू समाज में फैलाया हुआ विष उनके प्रभाव से चढ़ने न पाया | हिन्दू जनता अपने गौरवपूर्ण इतिहास को भुलाने , कई सहस्त्र वर्षो के संचित ज्ञानभंडार से वंचित रहने , अपने प्रातःस्मरणीय आदर्श पुरुषों के आलोक से दूर पड़ने से बच गयी | उसमें यह संस्कार न जमने पाया कि श्रद्धा और भक्ति के पात्र केवल सांसारिक कर्तव्यों से विमुख ,कर्ममार्ग से च्युत कोरे उपदेश देनेवाले ही हैं | उसके सामने यह फिर से अच्छी तरह झलका दिया गया कि संसार में चलते व्यापारों में मग्न ,अन्याय के दमन के अर्थ रणक्षेत्रों में अद्भुत पराक्रम दिखानेवाले , अत्याचार पर क्रोध से तिलमिलानेवाले , प्रभूत शक्तिसंपन्न होकर भी क्षमा करनेवाले अपने रूप ,गुण और शील से लोक का अनुरंजन करनेवाले ,मैत्री का निर्वाह करनेवाले , प्रजा का पुत्रवत पालन करनेवाले ,बड़ों की आज्ञा का आदर करनेवाले ,संपत्ति में नम्र रहनेवाले ,विपत्ति में धैर्य रखनेवाले प्रिय या अच्छे ही लगते हैं , यह बात नहीं है | वे भक्ति और श्रद्धा के प्रकृत आलंबन हैं , धर्म के दृढ प्रतीक हैं |

सूरदास आदि अष्टछाप के कवियों ने श्रीकृष्ण के श्रृंगारिक रूप के प्रत्यक्षीकरण द्वारा ' टेढ़ी सीधी निर्गुण वाणी ' की खिन्नता और शुष्कता को हटाकर जीवन की प्रफुल्लता का आभास तो दिया , भागवान के लोक -संग्रहकारी रूप का प्रकाश करके धर्म के सौंदर्य का साक्षात्कार नहीं कराया | कृष्णोपासक भक्तों के सामने राधाकृष्ण की प्रेमलीला ही रखी गयी , भगवान की लोकधर्म स्थापना का मनोहर चित्रण नहीं किया गया अधर्म और अन्याय से संलग्न वैभव और समृद्धि का जो विच्छेद उन्होंने कौरवों के विनाश द्वारा कराया , लोकधर्म से च्युत होते हुए अर्जुन को जिस प्रकार उन्होंने सँभाला ,शिशुपाल के प्रसंग में क्षमा और दंड की जो मर्यादा उन्होंने दिखाई , किसी प्रकार ध्वस्त न होनेवाले प्रबल अत्याचारी निराकरण की जिस नीति के अवलंबन की व्यवस्था उन्होंने जरासंध वध द्वारा की , उसका सौन्दर्य जनता के ह्रदय में अंकित नहीं किया गया | इससे असंस्कृत हृदयों में जाकर कृष्ण की श्रृंगारिक भावना ने विलासप्रियता का रूप धारण किया और समाज केवल नाच-कूद कर जी बहलाने के योग्य हुआ |

जहाँ लोकधर्म और व्यक्तिधर्म का विरोध हो वहाँ कर्ममार्गी गृहस्थी के लिए लोकधर्म का ही अवलंबन श्रेष्ठ है | यदि किसी अत्याचारी का दमन सीधे न्यायसंगत उपायों से नहीं हो सकता तो कुटिल नीति का अवलंबन लोकधर्म की दृष्टि से उचित है | किसी अत्याचारी द्वारा समाज को जो हानि पहुँच रही है ,उसके सामने वह हानि कुछ नहीं है जो किसी एक व्यक्ति के बुरे दृष्टान्त से होगी | लक्ष्य यदि व्यापक और श्रेष्ट है तो साधन का अनिवार्य अनौचित्य उतना खल नहीं सकता | भारतीय जनसमाज में लोकधर्म का यह आदर्श यदि पूर्ण रूप से प्रतिष्टित रहने पाता तो विदेशियों के आक्रमण को व्यर्थ करने में देश अधिक समर्थ होता |

रामचरित के सौन्दर्य द्वारा तुलसीदासजी ने जनता को लोकधर्म की ओर जो फिर से आकर्षित किया ,वह निष्फल नहीं हुआ | वैरागियों का सुधार चाहे उससे उतना न हुआ हो ,पर परोक्ष रूप में साधारण गृहस्थ जनता की प्रवृति का बहुत कुछ संस्कार हुआ | दक्षिण में रामदास स्वामी ने इसी लोकधर्माश्रित भक्ति का संचार करके महाराष्ट्र शक्ति का अभ्युदय किया | पीछे से सिखों ने भी लोकधर्म का आश्रय लिया ओर सिख शक्ति का प्रादुर्भाव हुआ | हिन्दू जनता शिवाजी और गुरु गोविन्दसिंह को राम - कृष्ण के रूप में और औरंगजेब को रावण और कंस के रूप में देखने लगी | जहाँ लोक ने किसी को रावण और कंस के रूप में देखा कि भगवान के अवतार की संभावना हुई |

गोस्वामीजी ने यधपि भक्ति के साहचर्य से ज्ञान ,वैराग्य का भी निरूपण किया है और पूर्ण रूप से किया है , पर उनका सबसे अधिक उपकार गृहस्थों के उपर है जो अपनी प्रत्येक स्थिति में उन्हें पुकारकर कुछ कहते हुए पाते हैं और वह ' कुछ ' भी लोकव्यवहार के अंतर्गत है ,उसके बाहर नहीं | मान-अपमान से परे रहनेवाले संतों के लिए तो वे ' खल के वचन संत सह जैसे ' कहते हैं पर साधारण गृहस्थों के लिए सहिष्णुता के मर्यादा बाँधते हुए कहते हैं कि ' कतहूँ सुधाइहु तें बड़ दोषू ' | साधक और संसारी दोनों के भागों की ओर वे संकेत करते हैं | व्यक्तिगत सफलता के लिए जिसे 'नीति ' कहते हैं , सामाजिक आदर्श की सफलता का साधक होकर वह ' धर्म ' हो जाता है |

सारांश यह कि गोस्वामीजी से पूर्व तीन प्रकार के साधु समाज के बीच रमते दिखाई देते थे |एक तो प्राचीन परंपरा के भक्त जो प्रेम में मग्न होकर संसार को भूल रहे थे ,दुसरे वे जो अनधिकार ज्ञानगोष्टी द्वारा समाज के प्रतिष्ठित आदर्शों के प्रति तिरस्कार बुद्धि उत्पन्न कर रहे थे , और तीसरे वे जो हठयोग , रसायन आदि द्वारा अलौकिक सिद्धियों की व्यर्थ आशा का प्रचार कर रहे थे | इन तीनों वर्गों के द्वारा साधारण जनता के लोकधर्म पर आरूढ़ होने की संभावना कितनी दूर थी , यह कहने की आवश्यकता नहीं | आज जो हम फिर झोपड़ों में बैठे किसानों को भरत के 'भायप भाव ' पर , लक्ष्मन के त्याग पर ,राम की पितृभक्ति पर पुलकित होते हुए पाते है , वह गोस्वामीजी के ही प्रसाद से | धन्य है ग्राहस्थ्य जीवन में धर्मालोकस्वरुप रामचरित और धन्य हैं उस आलोक को घर घर पहुँचनेवाले तुलसीदास ! व्यावहारिक जीवन धर्म की ज्योति से एक बार फिर जगमगा उठा - उसमें नई शक्ति का संचार हुआ | जो कुछ भी नहीं जनता , वह भी यह जनता है कि -

जे न मित्र दुःख होहिं दुखारी | तिनहिं बिलोकत पातक भारी | |

स्त्रियाँ और कोई धर्म जानें , या न जानें , पर वे वह धर्म जानती हैं जिससे संसार चलता है | उन्हें इस बात का विश्वास रहता है कि -

वृद्ध ,रोग बस ,जड़ ,धनहीना | अंध बधिर क्रोधी अति दीना ||
ऐसेहु पति कर किए अपमाना | नारि पाव जमपुर दुःख नाना ||

जिसमें बाहुबल है उसे यह समझ भी पैदा हो गयी है कि दुष्ट और अत्याचारी 'पृथ्वी के भार' हैं ; उस भार को उतारनेवाले भगवान के सच्चे सेवक हैं | प्रत्येक देहाती लठैत 'बजरंगबली ' की जयजयकार मानता है - कुम्भकर्ण की नहीं | गोस्वामीजी ने ' रामचरित - चिंतामणि ' को छोटे -बड़े सबके बीच बाँट दिया जिसके प्रभाव से हिन्दू समाज यदि चाहे -सच्चे जी से चाहे - तो सब कुछ प्राप्त कर सकता है|

भक्ति और प्रेम के पुटपाक द्वारा धर्म को रागात्मिका वृत्ति के साथ सम्मिश्रित करके बाबाजी ने एक ऐसा रसायन तैयार किया जिसके सेवन से धर्म मार्ग में कष्ट और श्रांति न जान पड़े ,आनन्द और उत्साह के साथ लोग आप से आप उसकी ओर प्रवृत हों , धरपकड़ और जबरदस्ती से नहीं | जिस धर्ममार्ग में कोरे उपदेशों से कष्ट ही कष्ट दिखाई पड़ता है , वह चरित्र - सौंदर्य के साक्षात्कार से आन्नदमय हो जाता है | मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति और निवृत्ति की दिशा को लिए हुए धर्म की जो लीक निकलती है , लोंगों के चलते - चलते चौड़ी होकर वह सीधा राजमार्ग हो सकती है ; जिसके सम्बन्ध में गोस्वामीजी कहते है -

' गुरु कह्यो राम भजन नीको मोहि लगत राजडगरो सो |'

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20 comments:

डॉ .अनुराग said...

अद्भुत है.......आप की हिंदी से ईष्या हो सकती है ......

स्वप्न मञ्जूषा said...

कितना सुन्दर लिखती हो रंजना !!
अगर इसी तरह तुम्हें पढ़ती रही तो सचमुच मीरा, कबीर, रहीम, तुलसी, शबरी न जाने क्या क्या बन जाऊँगी..
बहुत ही सारगर्भित आलेख..
स्पष्ट दर्शाता है...तुम्हारा उच्च संस्कार...
ऐसे विषयों का चयन ही दुरूह होता है...हर किसी के वश की बात कहाँ...
सचमुच नमन करती हूँ तुम्हारे माता-पिता को जिन्होंने ऐसी पुत्री दिया संसार को...
जब भी यहाँ आती हूँ ख़ुद पर गर्व किये बिना नहीं जाती....कि तुम मुझे दीदी कहती हो..
खुश रहो..

मनोज कुमार said...

बेहतरीन। लाजवाब।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

उपयोगी रहा यह संकलन!
अद्भुद है!

सुशीला पुरी said...

सुन्दर आलेख ..........

Udan Tashtari said...

आनन्द आ गया. बहुत बढ़िया आलेख.

सुरेन्द्र "मुल्हिद" said...

aanand aa gaya padh kar...

aabhaar!

Shiv said...

तुम्हारी लेखनी को शत-शत नमन. हिंदी गद्य विधा पर महारत हासिल कर लिया है तुमने. ऐसे उच्च विचार, विषय का चयन, भाषा का प्रवाह, यह सब घर के वातावरण की देन है. बहुत कठिन है इसे हासिल करना. ऐसा लेखन आचाय रामचंद्र शुक्ल या हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे साहित्यकार कर सकते हैं.

मुझे गर्व है कि तुम मेरी दीदी हो.

दिगम्बर नासवा said...

अध्बुध .......... बहुत ही सारगर्भीत और नयी दृष्टि देता हुवा आलेख .......... लोक धर्म और व्यक्ति दर्म् के सूक्ष्म अंतर को बौट बारीकी से उठाया है आपने अपने इस जादुई लेखन से .......... बहुत बहुत आभार ...........

Prem Farukhabadi said...

बेहतरीन. लाजवाब।बहुत बढ़िया आलेख.आनन्द आ गया

KK Mishra of Manhan said...

सुन्दर व संजीदा लेखन। अवधी के विषय में आप के विचारों के लिये धन्यवाद।

के सी said...

सच है कि आपकी कोई पोस्ट बिना सिखाये नहीं जाती, मैं बहुत से शब्दों और उनके उपयोग के सलीके को अपने साथ संजो कर ले जाता हूँ.

Akanksha Yadav said...

Bahut khub..kamal ki lekhni.

Parul kanani said...

ranjna ji ..aapki bhasha shaili to badi kathin hai mere liye....mujhe to aapse sikhne ko milega..

निर्मला कपिला said...

रन्जना जी बस एक ही शब्द--- निशब्द \ कमाल है सर्गर्भित पोस्ट के लिये बधाई |

girish pankaj said...

bhavpoorn lekhani. badhai ...

Asha Joglekar said...

सुंदर लेख ।

Smart Indian said...

बहुत अच्छा.

Rakesh Singh - राकेश सिंह said...

इन्टरनेट पे हिंदी, भारतीय संस्कृति, भक्ति का रसपान जिसे करना हो वो आपके ब्लॉग पे आये | मैं हमेशा ही यहाँ आकर तृप्त हुआ हूँ | जब तक आचार्य जी की पुस्तक नहीं मिल जाती तब तक आपके इस संकलन को सहेजकर रख लेता हूँ | ये सब कालजयी आलेख हैं जिसका स्वाद विरले ही मिल पाता है |

Alpana Verma said...

बेहद ही प्रभावशाली,सारगर्भित पोस्ट है.
[आप के लेखों में हिंदी पढने का आनंद ही और है,सच!]