(भाग -२)
श्रुति और स्मृति में संरक्षित हिन्दू धर्म ग्रंथों के उपलब्ध लिखित अंशों को सुनियोजित ढंग से प्रक्षेपांशों द्वारा विवादित बना छोड़ने और हिन्दुओं को दिग्भ्रमित करने में अन्य धर्मावलम्बियों ने शताब्दियों में अपार श्रम और साधन व्यय किया है. आस्था जिस आधार पर स्थिर और संपुष्ट होती है, उसको खंडित किये बिना समूह को दुर्बल और पराजित करना संभव भी तो नहीं... और देखा जाए तो एक सीमा तक यह प्रयास सफल भी रहा है.. अन्य धर्मावलम्बियों की तो छोड़ ही दें हिन्दुओं में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं जो कृष्ण को नचैया विलासी ठहरा उसका मखौल उड़ाते हैं और जो कृष्ण में आस्था रखने वाले हैं भी वे स्वयं को भक्त मान तो लेते हैं पर निश्चित और निश्चिन्त हो दृढ़ता पूर्वक इन आक्षेपों का तर्कपूर्ण खंडन नहीं कर पाते. कृष्ण को भगवान् ठहरा पूजा भजन भक्ति भाव में रमे वे अपने आराध्य के दोषों पर दृष्टिपात करना या सुनना घोर पाप ठहरा उसपर चर्चा किये बिना ही निकल जाते हैं.
काव्य कोई समाचार या इतिहास निरूपण नहीं होता,जिसमे ज्यों का त्यों घटनाओं को अंकित कर दिया जाय. काव्य में रस साधना प्रतिस्थापना के लिए अतिरंजना स्वाभाविक है,परन्तु सकारात्मक या नकारात्मक मत और आस्था स्थिर करते समय तर्कपूर्ण और निरपेक्ष ढंग से तथ्यों को देख परख लिया जाय तो भ्रम और शंशय का स्थान न बचेगा.. कृष्ण के सम्पूर्ण जीवन वृत्तांतों और कृतित्वों पर एक लघु आलेख में चर्चा तो संभव नहीं,यहाँ हम उन आक्षेपों पर संक्षेप में विचार करेंगे जो बहुधा ही उनके चरित्र पर लगाये जाते हैं..
बहुप्रचलित प्रसंग है कि गोपियाँ जब यमुना जी में स्नान करती थीं तो कान्हा उनके वस्त्र लेकर निकट कदम्ब के पेड़ पर चढ़ जाते थे और निर्वसना गोपियों को जल से बाहर आ वस्त्र लेने को बाध्य करते थे.. एक बार एक कृष्ण भक्त साधु से मैंने इस विषय में पूछा, तो उनका तर्क था कि कृष्ण गोपियों को देह भाव से ऊपर उठा माया से बचाना चाहते थे..तर्क मेरे गले नहीं उतर पाया..लगा कहीं न कहीं मानते वे भी हैं कि यह कृत्य उचित नहीं और अपने आराध्य को बचाने के लिए वे माया का तर्क गढ़ रहे हैं..अंततः बात तो वहीँ ठहरी है कि कृष्ण की अभिरुचि गोपियों को निर्वस्त्र देखने में थी.
तनिक विचारा जाए, गोपियाँ यमुना जी में जहाँ स्नान करतीं थीं , वह एक सार्वजानिक स्थान था. भले परंपरा में आज भी यह है कि नदी तालाब के जिस घाट पर स्त्रियाँ स्नान करती हैं, वहां पुरुष नहीं जाते ..परन्तु एक सार्वजानिक स्थान पर स्त्री समूह का निर्वस्त्र जल में स्नान करना, न तब उचित था, न आज उचित है... कृष्ण भी सदैव इसके लिए गोपियों को बरजा करते थे और जब उन्होंने इनकी न सुनी तो उन्होंने उन्हें दण्डित करने का यह उपक्रम किया और विलास संधान में उत्सुक सहृदयों द्वारा प्रसंग को कहाँ से कहाँ पहुंचा दिया गया. एक महत कल्याणकारी उद्देश्य को विलास सिद्ध कर छोड़ दिया गया..
यही भ्रम कृष्ण के बहुपत्नीत्व को लेकर भी है..राजनितिक, औद्योगिक घरानों में प्रयास आज भी होते हैं कि विवाह द्वारा प्रतिष्ठा तथा प्रभाव विस्तार हो..प्राचीन काल में तो अधिकाँश विवाह ही राज्य/ प्रभुत्व विस्तार या जय पराजय उपरान्त संधि आदि राजनितिक कारणों से हुआ करते थे. कृष्ण के विवाह भी इसके अपवाद नहीं.एक रुक्मिणी भर से इनका विवाह प्रेम सम्बन्ध के कारण था, बाकी सत्यभामा और जाम्बवंती से इनका विवाह विशुद्ध राजनितिक कारणों से था..रही बात सोलह हजार रानियों की, तो आज के विलासी पुरुष जो बात बात में कृष्ण की सोलह हजार पत्नियों का उदहारण देते हैं,क्या कृष्ण का अनुकरण कर सकते हैं ??
भौमासुर वध के उपरान्त जब उसके द्वारा अपहृत सोलह हजार स्त्रियों को कृष्ण ने मुक्त कराया, तो उनमे से कोई इस स्थिति में नहीं थी कि वापस अपने पिता या पति के पास जातीं और उनके द्वारा स्वीकार ली जातीं..देखें न, आज भी समाज अपहृताओं को नहीं स्वीकारता ,सम्मान देना तो दूर की बात है,तो उस समय की परिस्थितियां क्या रही होंगी....अब ऐसे में आत्महत्या के अतिरिक्त इन स्त्रियों के पास और क्या मार्ग बचा था..कृष्ण ने इनकी स्थिति को देखते हुए सामूहिक रूप से इनसे विवाह कर इन्हें सम्मान से जीने का अधिकार दिया. इनके भरण पोषण का महत उत्तरदायित्व लिया और यह स्थापित किया कि अपहृत या बलत्कृत स्त्रियाँ दोषमुक्त होती हैं,समाज को सहर्ष इन्हें अपनाना चाहिए,सम्मान देना चाहिए...बहु विवाह या बहु प्रेयसी के इच्छुक कितने पुरुष आज ऐसा साहस कर सकते हैं ??? चाहे राधा हों, गोपियाँ हों, या यशोदा, कुंती, द्रौपदी, उत्तरा आदि असंख्य स्त्रियाँ ,स्त्रियों को जो मान सम्मान कृष्ण ने दिया, पुरुष समाज के लिए सतत अनुकरणीय है... जिसे लोग विलासी ठहराते हैं,उसके पदचिन्हों पर पुरुष समाज चल पड़े तो समाज में स्त्रियों के अनादर और उपेक्षा की कोई स्थिति ही नहीं बचेगी .
सबसे महत्वपूर्ण बात, राधा कृष्ण तथा गोपी कृष्ण के रसमय लीलाओं की श्रृंगार रचना में पन्ने रंगने वाले यह नहीं स्मरण रख पाते कि तेरह वर्ष की अवस्था तक ही कृष्ण गोकुल में रहे थे, मथुरा गमन और कंश के विनाश के उपरान्त वे गुरु संदीपन के पास शिक्षा ग्रहण को गुरुकुल चले गए थे और जो वहां से लौटे तो उत्तरदायित्वों ने ऐसे घेरा कि जीवन पर्यंत कभी फिरकर गोकुल नहीं जा पाए . तो तेरह वर्ष की अवस्था तक में कोई बालक ( किशोर कह लें) कितने रास रच सकता है?? हाँ, सत्य है कि कृष्ण गोपियों के प्राण थे,पर यह तो स्वाभाविक ही था.. वर्षों से दमित समूह जिसे पाकर अपने को समर्थ पाने लगता है,उसपर अपने प्राण न्योछावर क्योंकर न करेगा..उनका वह नायक समस्त दुर्जेय शक्तियों को पल में ध्वस्त कर उनकी रक्षा करता है और फिर भी उनके बीच का होकर उनके जैसा रह उनसे अथाह प्रेम करने वाला है, तो कौन सा ह्रदय ऐसा होगा जो अपने इस दुलारे पर न्योछावर न होगा .. और केवल गोपियाँ ही क्यों गोप भी अपने इस नायक पर प्राणोत्सर्ग को तत्पर रहते थे..कंस के पराभव में यही गोप तो कृष्ण की शक्ति बने थे..अब प्रेमाख्यान रचयिताओं को कृष्ण के अनुयायियों भक्तों के प्रेमाख्यान क्यों न रुचे ,यह तो विचारणीय है.
एक बालक जिसके जन्म के पूर्व ही उसकी मृत्यु सुनिश्चित कर दी गई हो, जीवन भर हँसते मुस्कुराते संघर्षरत धर्म स्थापना में रत रहा..रोकर रिरियाकर उसने दिन नहीं काटे, बल्कि उपलब्ध साधनों संसाधनों का ही उपयोग कर समूह को संगठित नियोजित किया और एक से बढ़कर एक दुर्जेय बाधाओं को ध्वस्त करता हुआ एक दिन यदि विश्व राजनीति की ऐसी धुरी बन गया कि सबकुछ उसी के इर्द गिर्द घूमने लगा, कैसी विलक्षण प्रतिभा का धनी रहा होगा वह.. इस तेजस्वी बालक ने एक दमित भयभीत समूह को गीत संगीत का सहारा दे, कला से जोड़ मानसिक परिपुष्टता दी. गौ की सेवा कर दूध दही के सेवन से शरीर से हृष्ट पुष्ट कर अन्याय का प्रतिकार करने को प्रेरित किया..प्रकृति जिससे हम सदा लेते ही लेते रहते हैं,उनका आदर करना संरक्षण करना सिखाया .माँ माटी और गौ से ही जीवन है और इसकी सेवा से ही सर्वसिद्धि मिल सकती है,बालक ने प्रतिस्थापित किया..
न्याय अन्याय के मध्य अंतर समझाने को उसने व्यापक जनचेतना जगाई और लोगों को समझाया कि राजा यदि पालक होता है तो रक्षक भी होता है और जो रक्षक यह न स्मरण रख पाए कि उसकी प्रजा भूखी बीमार और त्रस्त है,उसे कर लेने का भी अधिकार नहीं है.अपने सखा समूह संग माखन मलाई लूट लेना खा लेना और चोरी छुपे दही मक्खन छाछ लेकर मथुरा पहुँचाने जाती गोपियों की मटकी फोड़ देना ,विद्रोह और सीख का ही तो अंग था..
अपने जन की रक्षा क्रम में न उसे रणछोर कहलाने में लज्जा आई न षड्यंत्रकारियों के षड्यंत्रों का प्रति उत्तर छल से देने में... कृष्ण के सम्पूर्ण जीवन और कृत्यों में श्रृंगार संधान के स्थान पर यदि उनकी समूह संगठन कला, राज्य प्रबंधन कला और उनके जीवन दृष्टिकोण को विवेचित किया जाय और उनके द्वारा स्थापित मूल्यों को अंगीकार किया जाय तो मनुष्यमात्र अपना उद्धार कर सकता है. इस महानायक के जन्म से लेकर प्रयाण पर्यंत जो भी चमत्कारिक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं, तर्क की कसौटी पर कसकर देखें कुछ भी अतिशयोक्ति न लगेगी..
वर्तमान परिपेक्ष्य में आहत व्यथित मन एक ऐसे ही विद्वान् जननायक, महानायक की आकांक्षा करता है..लगता है एक ऐसा ही व्यक्तित्व हमारे मध्य अवतरित हो जो धूमिल पड़ती धर्म और मनुष्यता की परिभाषा को पुनर्स्थापित करे. भ्रष्टाचार का पर्याय बन चुकी राजनीति को निर्मल शुद्ध करे,इसे लोकहितकारी बनाये.नैतिक मूल्यों को जन जन के मन में बसा दे और मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनने को उत्प्रेरित करे..
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(कृष्ण जीवन से सम्बंधित जितनी पुस्तकें आजतक मैंने पढ़ीं हैं,उनमे आचार्य रामचंद्र शुक्ल और श्री नरेन्द्र कोहली जी की प्रतिस्थापनाओं ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया है.मन इनके प्रति बड़ा आभारनत है..विषय के जिज्ञासुओं को इनकी कृतियाँ बड़ा आनंदित करेंगी,पढ़कर देखें )
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श्रुति और स्मृति में संरक्षित हिन्दू धर्म ग्रंथों के उपलब्ध लिखित अंशों को सुनियोजित ढंग से प्रक्षेपांशों द्वारा विवादित बना छोड़ने और हिन्दुओं को दिग्भ्रमित करने में अन्य धर्मावलम्बियों ने शताब्दियों में अपार श्रम और साधन व्यय किया है. आस्था जिस आधार पर स्थिर और संपुष्ट होती है, उसको खंडित किये बिना समूह को दुर्बल और पराजित करना संभव भी तो नहीं... और देखा जाए तो एक सीमा तक यह प्रयास सफल भी रहा है.. अन्य धर्मावलम्बियों की तो छोड़ ही दें हिन्दुओं में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं जो कृष्ण को नचैया विलासी ठहरा उसका मखौल उड़ाते हैं और जो कृष्ण में आस्था रखने वाले हैं भी वे स्वयं को भक्त मान तो लेते हैं पर निश्चित और निश्चिन्त हो दृढ़ता पूर्वक इन आक्षेपों का तर्कपूर्ण खंडन नहीं कर पाते. कृष्ण को भगवान् ठहरा पूजा भजन भक्ति भाव में रमे वे अपने आराध्य के दोषों पर दृष्टिपात करना या सुनना घोर पाप ठहरा उसपर चर्चा किये बिना ही निकल जाते हैं.
काव्य कोई समाचार या इतिहास निरूपण नहीं होता,जिसमे ज्यों का त्यों घटनाओं को अंकित कर दिया जाय. काव्य में रस साधना प्रतिस्थापना के लिए अतिरंजना स्वाभाविक है,परन्तु सकारात्मक या नकारात्मक मत और आस्था स्थिर करते समय तर्कपूर्ण और निरपेक्ष ढंग से तथ्यों को देख परख लिया जाय तो भ्रम और शंशय का स्थान न बचेगा.. कृष्ण के सम्पूर्ण जीवन वृत्तांतों और कृतित्वों पर एक लघु आलेख में चर्चा तो संभव नहीं,यहाँ हम उन आक्षेपों पर संक्षेप में विचार करेंगे जो बहुधा ही उनके चरित्र पर लगाये जाते हैं..
बहुप्रचलित प्रसंग है कि गोपियाँ जब यमुना जी में स्नान करती थीं तो कान्हा उनके वस्त्र लेकर निकट कदम्ब के पेड़ पर चढ़ जाते थे और निर्वसना गोपियों को जल से बाहर आ वस्त्र लेने को बाध्य करते थे.. एक बार एक कृष्ण भक्त साधु से मैंने इस विषय में पूछा, तो उनका तर्क था कि कृष्ण गोपियों को देह भाव से ऊपर उठा माया से बचाना चाहते थे..तर्क मेरे गले नहीं उतर पाया..लगा कहीं न कहीं मानते वे भी हैं कि यह कृत्य उचित नहीं और अपने आराध्य को बचाने के लिए वे माया का तर्क गढ़ रहे हैं..अंततः बात तो वहीँ ठहरी है कि कृष्ण की अभिरुचि गोपियों को निर्वस्त्र देखने में थी.
तनिक विचारा जाए, गोपियाँ यमुना जी में जहाँ स्नान करतीं थीं , वह एक सार्वजानिक स्थान था. भले परंपरा में आज भी यह है कि नदी तालाब के जिस घाट पर स्त्रियाँ स्नान करती हैं, वहां पुरुष नहीं जाते ..परन्तु एक सार्वजानिक स्थान पर स्त्री समूह का निर्वस्त्र जल में स्नान करना, न तब उचित था, न आज उचित है... कृष्ण भी सदैव इसके लिए गोपियों को बरजा करते थे और जब उन्होंने इनकी न सुनी तो उन्होंने उन्हें दण्डित करने का यह उपक्रम किया और विलास संधान में उत्सुक सहृदयों द्वारा प्रसंग को कहाँ से कहाँ पहुंचा दिया गया. एक महत कल्याणकारी उद्देश्य को विलास सिद्ध कर छोड़ दिया गया..
यही भ्रम कृष्ण के बहुपत्नीत्व को लेकर भी है..राजनितिक, औद्योगिक घरानों में प्रयास आज भी होते हैं कि विवाह द्वारा प्रतिष्ठा तथा प्रभाव विस्तार हो..प्राचीन काल में तो अधिकाँश विवाह ही राज्य/ प्रभुत्व विस्तार या जय पराजय उपरान्त संधि आदि राजनितिक कारणों से हुआ करते थे. कृष्ण के विवाह भी इसके अपवाद नहीं.एक रुक्मिणी भर से इनका विवाह प्रेम सम्बन्ध के कारण था, बाकी सत्यभामा और जाम्बवंती से इनका विवाह विशुद्ध राजनितिक कारणों से था..रही बात सोलह हजार रानियों की, तो आज के विलासी पुरुष जो बात बात में कृष्ण की सोलह हजार पत्नियों का उदहारण देते हैं,क्या कृष्ण का अनुकरण कर सकते हैं ??
भौमासुर वध के उपरान्त जब उसके द्वारा अपहृत सोलह हजार स्त्रियों को कृष्ण ने मुक्त कराया, तो उनमे से कोई इस स्थिति में नहीं थी कि वापस अपने पिता या पति के पास जातीं और उनके द्वारा स्वीकार ली जातीं..देखें न, आज भी समाज अपहृताओं को नहीं स्वीकारता ,सम्मान देना तो दूर की बात है,तो उस समय की परिस्थितियां क्या रही होंगी....अब ऐसे में आत्महत्या के अतिरिक्त इन स्त्रियों के पास और क्या मार्ग बचा था..कृष्ण ने इनकी स्थिति को देखते हुए सामूहिक रूप से इनसे विवाह कर इन्हें सम्मान से जीने का अधिकार दिया. इनके भरण पोषण का महत उत्तरदायित्व लिया और यह स्थापित किया कि अपहृत या बलत्कृत स्त्रियाँ दोषमुक्त होती हैं,समाज को सहर्ष इन्हें अपनाना चाहिए,सम्मान देना चाहिए...बहु विवाह या बहु प्रेयसी के इच्छुक कितने पुरुष आज ऐसा साहस कर सकते हैं ??? चाहे राधा हों, गोपियाँ हों, या यशोदा, कुंती, द्रौपदी, उत्तरा आदि असंख्य स्त्रियाँ ,स्त्रियों को जो मान सम्मान कृष्ण ने दिया, पुरुष समाज के लिए सतत अनुकरणीय है... जिसे लोग विलासी ठहराते हैं,उसके पदचिन्हों पर पुरुष समाज चल पड़े तो समाज में स्त्रियों के अनादर और उपेक्षा की कोई स्थिति ही नहीं बचेगी .
सबसे महत्वपूर्ण बात, राधा कृष्ण तथा गोपी कृष्ण के रसमय लीलाओं की श्रृंगार रचना में पन्ने रंगने वाले यह नहीं स्मरण रख पाते कि तेरह वर्ष की अवस्था तक ही कृष्ण गोकुल में रहे थे, मथुरा गमन और कंश के विनाश के उपरान्त वे गुरु संदीपन के पास शिक्षा ग्रहण को गुरुकुल चले गए थे और जो वहां से लौटे तो उत्तरदायित्वों ने ऐसे घेरा कि जीवन पर्यंत कभी फिरकर गोकुल नहीं जा पाए . तो तेरह वर्ष की अवस्था तक में कोई बालक ( किशोर कह लें) कितने रास रच सकता है?? हाँ, सत्य है कि कृष्ण गोपियों के प्राण थे,पर यह तो स्वाभाविक ही था.. वर्षों से दमित समूह जिसे पाकर अपने को समर्थ पाने लगता है,उसपर अपने प्राण न्योछावर क्योंकर न करेगा..उनका वह नायक समस्त दुर्जेय शक्तियों को पल में ध्वस्त कर उनकी रक्षा करता है और फिर भी उनके बीच का होकर उनके जैसा रह उनसे अथाह प्रेम करने वाला है, तो कौन सा ह्रदय ऐसा होगा जो अपने इस दुलारे पर न्योछावर न होगा .. और केवल गोपियाँ ही क्यों गोप भी अपने इस नायक पर प्राणोत्सर्ग को तत्पर रहते थे..कंस के पराभव में यही गोप तो कृष्ण की शक्ति बने थे..अब प्रेमाख्यान रचयिताओं को कृष्ण के अनुयायियों भक्तों के प्रेमाख्यान क्यों न रुचे ,यह तो विचारणीय है.
एक बालक जिसके जन्म के पूर्व ही उसकी मृत्यु सुनिश्चित कर दी गई हो, जीवन भर हँसते मुस्कुराते संघर्षरत धर्म स्थापना में रत रहा..रोकर रिरियाकर उसने दिन नहीं काटे, बल्कि उपलब्ध साधनों संसाधनों का ही उपयोग कर समूह को संगठित नियोजित किया और एक से बढ़कर एक दुर्जेय बाधाओं को ध्वस्त करता हुआ एक दिन यदि विश्व राजनीति की ऐसी धुरी बन गया कि सबकुछ उसी के इर्द गिर्द घूमने लगा, कैसी विलक्षण प्रतिभा का धनी रहा होगा वह.. इस तेजस्वी बालक ने एक दमित भयभीत समूह को गीत संगीत का सहारा दे, कला से जोड़ मानसिक परिपुष्टता दी. गौ की सेवा कर दूध दही के सेवन से शरीर से हृष्ट पुष्ट कर अन्याय का प्रतिकार करने को प्रेरित किया..प्रकृति जिससे हम सदा लेते ही लेते रहते हैं,उनका आदर करना संरक्षण करना सिखाया .माँ माटी और गौ से ही जीवन है और इसकी सेवा से ही सर्वसिद्धि मिल सकती है,बालक ने प्रतिस्थापित किया..
न्याय अन्याय के मध्य अंतर समझाने को उसने व्यापक जनचेतना जगाई और लोगों को समझाया कि राजा यदि पालक होता है तो रक्षक भी होता है और जो रक्षक यह न स्मरण रख पाए कि उसकी प्रजा भूखी बीमार और त्रस्त है,उसे कर लेने का भी अधिकार नहीं है.अपने सखा समूह संग माखन मलाई लूट लेना खा लेना और चोरी छुपे दही मक्खन छाछ लेकर मथुरा पहुँचाने जाती गोपियों की मटकी फोड़ देना ,विद्रोह और सीख का ही तो अंग था..
अपने जन की रक्षा क्रम में न उसे रणछोर कहलाने में लज्जा आई न षड्यंत्रकारियों के षड्यंत्रों का प्रति उत्तर छल से देने में... कृष्ण के सम्पूर्ण जीवन और कृत्यों में श्रृंगार संधान के स्थान पर यदि उनकी समूह संगठन कला, राज्य प्रबंधन कला और उनके जीवन दृष्टिकोण को विवेचित किया जाय और उनके द्वारा स्थापित मूल्यों को अंगीकार किया जाय तो मनुष्यमात्र अपना उद्धार कर सकता है. इस महानायक के जन्म से लेकर प्रयाण पर्यंत जो भी चमत्कारिक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं, तर्क की कसौटी पर कसकर देखें कुछ भी अतिशयोक्ति न लगेगी..
वर्तमान परिपेक्ष्य में आहत व्यथित मन एक ऐसे ही विद्वान् जननायक, महानायक की आकांक्षा करता है..लगता है एक ऐसा ही व्यक्तित्व हमारे मध्य अवतरित हो जो धूमिल पड़ती धर्म और मनुष्यता की परिभाषा को पुनर्स्थापित करे. भ्रष्टाचार का पर्याय बन चुकी राजनीति को निर्मल शुद्ध करे,इसे लोकहितकारी बनाये.नैतिक मूल्यों को जन जन के मन में बसा दे और मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनने को उत्प्रेरित करे..
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(कृष्ण जीवन से सम्बंधित जितनी पुस्तकें आजतक मैंने पढ़ीं हैं,उनमे आचार्य रामचंद्र शुक्ल और श्री नरेन्द्र कोहली जी की प्रतिस्थापनाओं ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया है.मन इनके प्रति बड़ा आभारनत है..विषय के जिज्ञासुओं को इनकी कृतियाँ बड़ा आनंदित करेंगी,पढ़कर देखें )
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49 comments:
सार्थक और सत्य आधारित निरूपण किया आपने श्री कृष्ण का!!
यह स्थापन सत्य के निकट है। न्याय मिलता है महापुरूषो के जीवन को!
काव्यो कथाओ की अतिरंजना मनोरंजन के लिये थी। पर धीरे धीरे उनके जीवन के विरोधाभास रूप रूढ हो गई।
महानायक निस्संदेह. इस यादगार पोस्ट के लिए आपका बहुत धन्यवाद.
श्रीकृष्ण वास्तव में युगपुरुष -महानायक हैं |
'महाजनों एन गता स पन्थाः 'पर तो सभी
चलते हैं किन्तु श्रीकृष्ण ने अपना मार्ग स्वयं
बनाया |
आपका लेख भ्रन्तिनाशक और ज्ञानवर्धक है
श्रीकृष्ण के वृहत चरित्र के सही और निर्माणात्मक
पक्ष का बहुत ही सूक्ष्मता से विश्लेषण करते हुए आपने
यथार्थ की सार्थक प्रस्तुति दी है |
कृष्ण के जीवन को संदर्भों के इतर देखने और दिखाने के प्रयास में मरोड़ित इतिहास लिखा जा रहा है।
वसुदेवसुतम् देवम् कंस्चाणूरमर्दनम्
देवकी परमानन्दम् कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्।
इस यादगार पोस्ट के लिए आपका बहुत धन्यवाद|
pehlaa bhaag bhi khoobsurat tha aur dvitiya bhaag bhi khoobsurat hai!!
बहुत सुंदर। इस आलेख की भाषा, शैली ने बहुत प्रभावित किया। श्री कृष्ण से संबंधित कई धारणाओं का जो तर्कपूर्ण व्याख्या आपने की है वह आपकी सूक्ष्म दृष्टि, विशाल अध्ययन और गहन चिंतन का परिणाम है।
आशा है इस तरह के और आलेख आपके द्वारा हमें पढने को मिलेंगे।
यादगार पोस्ट के लिए आपका बहुत धन्यवाद....
सबसे पहले आभार एक सहेजने योग्य पोस्ट के लिए....... केशव के जीवन का निरूपण इस दृष्टिकोण से बहुत सुंदर ....पूरा पूरा न्याय किया है आपने....
मेहनत से लिखा गया लेख. सुंदर लिखा है आपने.
बहुत सुंदर बात लिखी आप ने भगवान कृष्णा जी के बारे, मैने अभी तक गीता या कोई अन्य हिन्दू ग्रथ तो नही पढा, लेकिन मां बाप से ओर आप सब से सुनने के बाद, मै भगवान कृष्ण को आम लोगो की सोच के मुताबिक नही सोचता, मेरे ख्याल मे हमारे फ़ुलहड भजनो ने गीतो ने, ओर पोंगा पडितो ने भगवान कृष्ण का रुप एक प्लेय वाय जेसा बना दिया हे, असल मे हमे उन से बहुत शिक्षा मिलती हे गोपियो के स्नान के समय का विवरण आप ने दिया मे इस से भी सहमत हू, ओर हमे उन फ़ुल्हड भजनो ओर गीतो का बिरोध करना चाहिये( मै करत हुं हमेशा) जो आज घर घर मे कीर्तन के समय या फ़िर मंदिरो मे कीत्रन के समय गाये जाते हे, या उन पोंगा पडितो ओर साधूयो का बिरोध करना चाहिये जो कृष्ण भगवान के बारे फ़ुलहड बाते फ़ेलाये, फ़ुलहड कथा कहे रस ले ले कर.
धन्यवाद इस सुंदर लेख के बारे
कृष्ण पर बहुत ही अच्छी और विचारणीय प्रस्तुति.
.
बुलंद हौसले का दूसरा नाम : आभा खेत्रपाल
अहा, यह आख्यान तो कृष्ण के व्यक्तित्व की प्रचलित छवि को बेदाग और सर्वस्वीकार्य बनाने वाला है। जो छिद्रान्वेषी इस महानायक लीलापुरुषोत्तम के कृतित्व में खोट निकालने का काम करते हैं उन्हें यह आलेख पढ़कर दुबारा सोचना होगा। निश्चित ही उनका मत बदल जाएगा।
इस सुविचारित तार्किक पोस्ट का हार्दिक धन्यवाद।
आपका यह आलेख न केवल रोचक अपितु ज्ञान वृद्धि कराने वाला और अपने इष्ट के समर्थन में सबको पढ़वाने वाला बन पड़ा है।
...आनंद आ गया।
ज्ञानवर्धक लेख के लिए साधुवाद.
रंजना जी,
आपका आलेख उन भ्रमित, मंदबुद्धि लोगों की आँखे खोलने के लिए अवश्य उपयोगी होगा जिन्हें भगवान श्री कृष्ण पर ऐसा आरोप लगाते हुए यह भी नहीं दिखता कि श्री कृष्ण ने ही इस दुनियाँ के सामने पवित्र प्रेम का ऐसा मिसाल प्रस्तुत किया जिसे पाने के लिए समय युगों युगों तक तरसता रहेगा ! यह उस पवित्र प्रेम के अलौकिक रूप का ही चमत्कार है कि आज दुनियाँ राधे-कृष्ण की पूजा कर के धन्य हो रही है !
रंजना जी, आपने जिस सूक्ष्मता से अपने तर्कपूर्ण विचारों को आलेख में प्रतिपादित किया है उसके लिए मेरी बधाई स्वीकार करें
इस दुसरे भाग में महानायक श्री कृष्ण का जीवन दर्शन स्पष्ट हो जाता है.
कृष्ण की आलोचना ज्यादातर वे करते हैं जो उनके जगतहित में अपनाए गए न्याय मार्ग पर चलने का साहस नहीं रखते.
यह पोस्ट और इसके पहले वाली पोस्ट, दोनों अद्भुत लेख हैं. इतने तर्कपूर्ण ढंग से और उच्चकोटि की भाषा में ब्लॉग पोस्ट लिखा जाना बहुत ही शुभ है. तुम्हारे सबसे अच्छे लेखों में से हैं ये दोनों लेख.
रंजू! एतना गहन बिसय पर पढने के बाद त हमको अपना अज्ञानता का बोध हो रहा है!! लेकिन बहुत ही सुन्दर बिबेचना है!अब जब इसको हम पिछलका पोस्ट के साथ जोड़कर देखते हैं तो एगो अलगे अर्थ सामने आता है!! बहुत सुंदर आलेख और बहुते मूल्यबान बिचार!!
धन्यवाद!!
Gantantr diwas kee haardik badhayee!
आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी को तो नहीं पढ़ा लेकिन श्री नरेन्द्र कोहली जी की तीन-चार किताबें पढ़ी हैं. उनको पढ़कर हमेशा ही मन्त्र-मुग्ध हो गए.
आपने जिस तरह कृष्ण के व्यक्तित्व को रेखांकित किया है उसकी जितनी भी प्रशंसा करूँ कम होगी. यहाँ आना सफल हो गया.
बहुत ही सुन्दर लिखती हैं आप
हार्दिक बधाई
आभार
बहुत, बहुत, बहुत ही अच्छा. किताबों के नाम बताइये.
बहुत ही रुचिकर और सार्थक... जैसा कि आप हमेशा लिखती हैं. बहुत आनंद !!
Ek anoothaa lekh ! Padhaa to saree
shankaaon kaa niwaaran ho gyaa hai . Aese saargarbhit lekh kabhee,
kabhee padhne ko milte hain .
बहुत ही ज्ञानवर्धक आलेख. इतने गहन विषय पर बहुत ही सुरुचिपूर्ण और रोचक शैली में लिखा है. बहुत ही आनंद आया पढ़कर.
कृष्ण का राजनीतिक,सामजिक ,,,आध्यात्मिक विश्लेषण आपका यथार्थ पर आधारित है.वस्तुतः श्री कृष्ण तो योगीराज थे.जब रुकमनी ने उन्हें संतान की याद दिलाई तब दोनों ने जहाँ आज बद्रीनाथ मंदिर है वहां १२ वर्ष मात्र बेर खा-खा कर उपवास करते हुए उस सम्बन्ध में विचार किया था.अतः उन्हें चरित्र-भ्रष्ट सिद्ध करते प्रयास विदेशियों द्वारा प्रचारित हैं उनका विरोध करके आपने बहुत अच्छा किया है.
बहुत ही ज्ञानवर्धक आलेख, रोचक शैली, हार्दिक बधाई
भगवान श्री कृष्ण की लीला के कुछ महत्वपूर्ण प्रसंगों की आपने सुंदर तार्किक व्याख्या की है।
इस आलेख में आपका गहन अध्ययन और चिंतन स्पष्ट झलक रहा है।
विद्वतापूर्ण आलेख के लिए बधाई।
यह सही लिखा है
वर्तमान परिपेक्ष्य में आहत व्यथित मन एक ऐसे ही विद्वान् जननायक, महानायक की आकांक्षा करता है..लगता है एक ऐसा ही व्यक्तित्व हमारे मध्य अवतरित हो जो धूमिल पड़ती धर्म और मनुष्यता की परिभाषा को पुनर्स्थापित करे. भ्रष्टाचार का पर्याय बन चुकी राजनीति को निर्मल शुद्ध करे,इसे लोकहितकारी बनाये.नैतिक मूल्यों को जन जन के मन में बसा दे और मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनने को उत्प्रेरित करे..
आज ऐसे ही जननायक की आवश्यकता है
विचारणीय आलेख......
गहन चिंतन एवं अध्ययन के बाद लिखा गया एक बेहतरीन आलेख.
बहुत सुंदर लिखा है ... नरेंद्र कोहली और अन्य बहुत से लेखकों को मैने पढ़ा है कृष्ण और महाभारत के अनेक चरित्रों को लेकर ... बहुत प्रभावी तरीके से उन्होने और आपने भी अपनी बात को रखा है ... कृष्ण का किया हर कार्य अपने आप में मेनेजमेंट की कक्षाओं में पढ़ने वाला है ... ताथ्यातम है ... वैगयानिक है .... बीते समय में कृष्ण चरित्र के साथ न्याय नही हुवा है ... जो अभी तक जारी है ...
गहन अध्यन और रोचक शैली ..एक बार फिर आउंगी इत्मीनान से पढ़ने.
आपकी लेखनी ने हमारे महानायक कृष्ण की जीवन लीला की बहुत सी धारणाओ पर स्पष्ट और और सुभाषित व्याख्या दी पढ़ते जाने का मन कर रहा था लेकिन ख़त्म हो गया . आभार ऐसे विद्वता पूर्ण आलेख के लिए .
shree krishna ko vilas ka paryaya man ne wale ko is tarah ke aine ki nihayat jaroorat hai..........
bahut-bahut achhi tathyatmak prastooti......
ho sake to chittha-charcha tak pahunchayi jai........
pranam di.
श्रीकृष्ण के चरित्र की सही विवेचना आपने की है। इस प्रकार की पुनर्विवेचना की आवश्यकता भी है।
आपको साधुवाद!
बात केवल यहां तक सीमित न थी कि स्त्रियों को किसी सार्वजनिक स्थान पर निर्वस्त्र स्नान करना चाहिए या नहीं। वस्तुतः,नदियां जीवन का स्त्रोत रही हैं। सदियों तक हमारे ऋषियों-मुनियों ने उसके किनारे तप में अपने जीवन का अधिकांश गुजारा है। इस जीवनदायिनी धारा की मर्यादा इसमें है कि उसे मैल छुड़ाकर कलुषित न किया जाए। विद्यापति ने तो अपने एक पद्य में इस बात के लिए भी गंगा से क्षमायाचना की है कि उन्होंने गंगा में अपने पैर रखे। आदरपूर्वक उसमें डुबकी लगाकर कृतार्थ महसूस करने का भाव होना चाहिए। गोपियों को अपनी यौवनगत उच्छृंखलता में इसका भान न रहा। वस्त्रहरण का उपक्रम इसलिए।
कृष्ण विश्व इतिहास के पहले व्यक्ति हैं जिन्हें वास्तविक अर्थों में "पूर्ण" कहा जा सकता है। ज़ाहिर है,अधिकांश सुख-दुख उनके जीवन में प्रचुरता में रहे।
धार्मिक या पौराणिक ग्रंथों मे कथा के द्वारा जो सन्दर्भ दिये जाते है , समाज सापेक्ष उनका सामयिक महत्व तो होता है ।
अश्र्द्धालुओं द्वारा अन्यों की श्रद्धा का अपमान कोई नयी बात नहीं है ! कृष्ण चरित्र का बहुत बढ़िया वर्णन करने के लिए आभार !
VERY GOOD VIEW AND POINTS. DHANYABAD MADAM JI.
Bahut hi Sundar tarah se aapane Hamare Gyan me Iajafa kiya dhanayawad.
विचारोत्तेजक !
कृष्णस्तु भगवान्स्वयम!कहते हैं की कृष्ण के धरती पर अवतरण से बैकुंठ का पद खाली हो गया था क्योकि विष्णु अपने सभी सोलह कलाओं के साथ कृष्ण के रूप में अवतार लिए थे ..जबकि राम केवल आठ कलाओं के साथ ही मृत्युलोक में आये थे...
मजे की बात है कि लोकजीवन कृष्ण की सभी लीलाओं के लिए उन्हें माफ़ कर देता है या उन्हें महिमंडित करता है मगर राम की एकाध भूल को माफ़ नहीं कर पाता-
भला ऐसा क्यों ? मैं भी कोई बुद्धिसम्मत निष्कर्ष नहीं निकाल पाता !
vichrniya lekh.....Badhai sweekar karen
http://amrendra-shukla.blogspot.com/
कृष्ण का चित्र अलग प्रकाश में दिखाता एक उच्चस्तरीय आलेख, इन दोनों प्रविष्टियों को पढ़ अत्यंत आह्लाद हुआ है।
रंजना जी ! कृष्ण के बारे में आपका चिंतन ही सही है ....मैं भी यही तर्क देता हूँ ....शास्त्रानुसार भी जल में नग्न स्नान वर्ज्य है...उन्हें दण्डित करने के उद्देश्य से ही कृष्ण ने वस्त्र हरण का प्लान किया होगा. १६ हजार रानियों के बारे में भी मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूँ ....वाकई ..कृष्ण ने १६ हज़ार त्यक्ता और अपमानित महिलाओं को सम्मान से जीने का हक़ दिया ...वह भी अपने सम्मान को दांव पर लगाकर .....
इन बातों को लेकर जहाँ तक आलोचना की बात है ...लोग अपने कृत्य को नीतिपूर्ण सिद्ध करने के लिए तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर अपने अनुसार व्याख्या कर लेते हैं ...पर कृष्ण के सम्पूर्ण जीवन का एक नैनो अंश भी हम उनकी दृष्टि से कहाँ अपना पाते हैं अपने जीवन में ?
तार्किक आलेख
रंजना जी श्री कृष्ण के विषय में आपका विश्लेषण अच्छा लगा । वस्त्र-हरण के विषय में ,जैसा कि आपने माना ही है कि कृष्ण गोकुल में 13 वर्ष तक ही रहे थे ,हिन्दी के एक विद्वान ने जो बताया मैं यहाँ बताना चाहती हूँ कि वह केवल बाल-सुलभ चपलता थी ,माखन-चोरी और दूसरी तमाम शरारतों जैसी ही । न कोई वयस्क भाव था न ही कोई शिक्षा । कृष्ण के राधा व अन्य गोपियों से वयस्क प्रेम की कल्पना भी जयदेव, विद्यापति और उन्ही के अनुशरण पर सर्वाधिक रूप से सूरदास जी की देन है । ऐसा ही कुछ मैंने भी हिन्दी साहित्य के इतिहास में पढा जो मुझे सही भी लगा ।
यह कहना भी गलत नही कि कवि-लेखक अपने परिवेश व दृष्टिकोण से काफी कुछ फेर-बदल कर देते हैं ।
आपका आलेख बहुत बढिया लगा ।
मेरे मन कि प्रसन्नता का वर्णन करना संभव नहीं है...
अभी सोने जाने के पहले यह लेख पढ़ कर मन में कृष्ण जी के प्रति और भी श्रद्धा और भक्ति उत्पन्न हों गयी है.
इतना तार्किक और प्रबल लेख पढ़ कर अति आनंद आया. काश कि यह बात और लोग समझ पाते.
आपके दिए तर्कों से बहुत हद तक परिचित था, किन्तु बहुत कुछ नया भी मिला..
बहुत बहुत बधाई..... एक महान कार्य किया आपने.
जयन्त
प्रिय रंजना जी,
ब्लॉगजगत से अमूमन नावाकिफ हूँ और केवल ई-कविता पे कवितायें लिखती हूँ सो आपके ब्लॉग पे कभी नहीं आई (my loss!) ...पर अगर गलत नहीं हूँ तो आपको गुरुजी (राकेश खंडेलवालजी) के ब्लॉग पे देखा है. जानती हैं आज क्या हुआ, अपनी एक बहुत ही प्रतिभासंपन्न मित्र (आदरणीया प्रतिभा सक्सेनाजी ) की कविता पढ़ रही थी उनके ब्लॉग पे, श्री कृष्ण के बारे में...कुछ पढ़ा तो चौंकी और गूगल देव की शरण में आई तो सीधा आपके ब्लॉग पे आ गई...और जब आपका ये आलेख देखा तो आदि से अंत तक एक झटके में पढ़ गई. फ़िर मन हुआ कि आपको प्रणाम करती चलूँ, आंशिक रूप से उऋण हो लूँ :)... सो हृदय से सराहना स्वीकार कीजिए ...और आभार इस सुन्दर समुचित दृष्टिकोण के लिए.
सादर शार्दुला
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