21.9.11

माँ सी...

जब भी कभी हममे से कोई
जो दूर हुआ करते थे उससे
बात बेबात अक्सर
कैसे दलकती थी छाती
भरभराई रहती थी आँखें
माँ की...
पका देती भले वो हर रसोई
सब ही के रूचि की,
पर उस पल जो न वहां मौजूद होता
कहाँ वह चीज उसके
कंठ उतरा था
कभी भी...
हरेक आहट पर मन और कान पातें,
बेचैन फिरती
कि जब तक लौटकर हम
पास उसके आ न जाते.
हमारी गलतियों पर जो सदा
बनती थी चंडी
हमारे हित रही हर सांस
वह मन्नत मानती..
बिना मतलब की ठहरा कर
सदा उसके डरों को
थे कितना हम सभी
खिल्ली उड़ाते ..
जो पहरों कथा प्रवचनों में
रहती मन रमाये
सुना करती थी
दुःख के मूल कारण,
कहाँ थी क्षण को भी उस मोह से
वह मुक्ति पाती.

थी कच्ची बुद्धि मेरी और
किताबी समझ भी थी
तभी तो उसका जीवन
निरा विषादमय लगा था...
जहाँ बलिदान स्व का और
केवल दुःख ही दुःख था
जहाँ न लक्ष्य या
कोई दिशा थी..

लिया संकल्प न उस सा बनूंगी
जो कारण है दुखों का दुर्गति का
प्रबल माया से मैं निसदिन बचूंगी
सजग निर्लिप्त रह है कर्म करना
सिखाया ग्रंथों ने ज्यों यूँ जिउंगी..

पर क्षण में यह क्या हो गया.
वह जैसे ही मेरे वक्ष से लगा..
सोता जो फूटा वह अंतस
जाने कहाँ छुपा था अबतक
बहा अभीतक का सब संचित
सोच समझ सारा संकल्पित .
आलौकिक थी वह अनुभूति
हाथ लगे ज्यों सर्व विभूति.
उसने मुझको पूर्ण कर दिया
नव चिंतन युगबोध दे दिया..

उसकी सम्पूर्ण चेष्टाओं में
गुंथे प्राण ध्यान जग सिमटा
कहूँ क्या बाल चेष्टाओं की
मुझमे अलौकिक सुख जो भरा
उर जो उपजा भाव अनोखा
जड़ चेतन हित करुणा छलका .

मेरा जो भी ऋण है उसपर
तुच्छ बड़ा उसका जो मुझपर
ममता बरसी मेरी असंख्य पर
उसकी तो "माँ ", मैं थी केवल...

बुद्धि विवेक संकल्प या साहस
वह  अपार मुझसे वृहत्तर
शंका नहीं तनिक भी यह कि
हारेगा वह जीवन पथ पर
मगर विलग जब भी होता है
मन क्यों ऐसे बिसुरा करता है ?
कलप कलप कर जी क्यों पूछे -
मेरा लाल,  कुशल से तो है..?
खाया है न ठीक ठाक से ?
चिंता कोई तुझे तो न है ?
जब भी ध्यान चढ़े वह क्षण कि
कैसे वह है गोद दुबकता
जब भी रोग कोई है ग्रसता
दिए सहारा एक दूजे को
सदा ही काटा कठिन घड़ी को
आये ऐसा कोई क्षण जो
हम कैसे काटेंगे विलग हो .
लाख मनालूं ,लाख सम्हालूं
तर्कों से मन को बहलाऊं
फिर भी भर भर आयें आँखें ..
जैसे माँ की भर आती थी..
.............................

7.9.11

गोस्वामी जी का युगबोध ...



कहते हैं एक बार अकबर ने सूरदास जी से पूछा कि वे और गोस्वामी जी दोनों ही तो एक ही विष्णु के भिन्न अवतारों को मानते हुए कविता रचते हैं, तो अपने मत से बताएं कि दोनों में से किसकी कविता अधिक सुन्दर और श्रेष्ठ है. सूरदास जी ने तपाके उत्तर दिया कि कविता की पूछें तो कविता तो मेरी ही श्रेष्ठ है..अकबर सूरदास जी से इस उत्तर अपेक्षा नहीं रखते थे,मन तिक्त हो गया उनका...मन ही मन सोचने लगे , कहने को तो ये इतने पहुंचे हुए संत हैं,पर आत्ममुग्धता के रोग ने इन्हें भी नहीं बख्शा..माना कि अपनी कृति या संतान सभी को संसार में सर्वाधिक प्रिय और उत्तम लगते हैं,पर संत की बड़ाई तो इसी में है कि वह सदा स्वयं को लघु और दूसरे को गुरु माने...

अकबर के मन में ये विचार घुमड़ ही रहे थे कि सूरदास जी ने आगे कहा..

महाशय आपने कविता की पूछी तो मैंने आपको कविता की बात बताई..मैंने जो लिखा है वह सचमुच उत्कृष्ट कविता है,पर गोस्वामी जी ने जो लिखा है,वह तो कविता नहीं साक्षात मंत्र हैं, उसे कविता कहने से बड़ा कोई और पाप हो ही नहीं सकता. समय के साथ जिस प्रकार देवभाषा (संस्कृत) का पराभव और लोप होता जा रहा है, वेद उपनिषद पुराणों आदि के निचोड़ को सरल एवं ग्रहणीय लोक भाषा में जन जन तक पहुँचाने के लिए स्वयं भगवान् शंकर ने गोस्वामी जी के हाथों यह लिखवाया है.

सचमुच यदि ध्यान से देखा जाय तो शायद ही कोई दोहा चौपाई ऐसी मिले जो कहीं न कहीं किसी श्लोक का लोकभाषा में सरलीकरण न हो...

गीता में कहा गया -

यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिः भवति भारत, अभ्युत्थानं अधर्मस्य....

रामचरित में देखिये-

जब जब होहिं धरम के हानी, बढ़हिं असुर अधम अभिमानी....

खैर ,मानने वाले यदि इस अलौकिकता के तर्क को न भी मानें ,तो भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि जो विराट जीवन दर्शन इस महत ग्रन्थ में समाहित है, प्राणिमात्र यदि उसका शतांश भी ग्रहण कर ले, आचरण में उतार ले तो जीवन को सच्चे अर्थों में सुखी और सार्थक कर सकता है..केवल हिन्दुओं के लिए नहीं, जीवन और जगत को समझने, इसे सुखद सुन्दर बनाने की अभिलाषा रखने वाले किसी भी देश, भाषा और धर्म पंथ के अनुयायी को यहाँ से वह सबकुछ मिलेगा ,जिसका व्यवहारिक उपयोग वह जीवन के किसी भी क्षेत्र में कर सकता है..

केवल एक कथा भर नहीं लिखी है गोस्वामी जी ने, जिस प्रकार से वे प्रकृति से, समाज से, मानव चरित्र और व्यवहार से छोटी छोटी बातों को लेकर चित्र और दृष्टान्त गढ़ते हैं, मन मुग्ध और विस्मित होकर रह जाता है उनकी इस विराट चेतना और विस्तृत युगबोध पर..

किष्किन्धा में पर्वत शिखर पर गुह्य कन्दरा में बैठे राम लक्ष्मण के मध्य संवाद द्वारा गोस्वामी जी ने क्या विहंगम चित्र खींचा है देखिये-



घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा।।

दामिनि दमक रही घन माहीं। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं।।

बरषहिं जलद भूमि निअराएँ। जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ।।

बूँद अघात सहहिं गिरि कैंसें । खल के बचन संत सह जैसें।।

छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई।।

भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहि माया लपटानी।।

समिटि समिटि जल भरहिं तलावा। जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा।।

सरिता जल जलनिधि महुँ जाई। होई अचल जिमि जिव हरि पाई।।

दो0-

हरित भूमि तृन संकुल समुझि परहिं नहिं पंथ।

जिमि पाखंड बाद तें गुप्त होहिं सदग्रंथ।।14।।

–*–*–

दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई।।

नव पल्लव भए बिटप अनेका। साधक मन जस मिलें बिबेका।।

अर्क जबास पात बिनु भयऊ। जस सुराज खल उद्यम गयऊ।।

खोजत कतहुँ मिलइ नहिं धूरी। करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी।।

ससि संपन्न सोह महि कैसी। उपकारी कै संपति जैसी।।

निसि तम घन खद्योत बिराजा। जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा।।

महाबृष्टि चलि फूटि किआरीं । जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारीं।।

कृषी निरावहिं चतुर किसाना। जिमि बुध तजहिं मोह मद माना।।

देखिअत चक्रबाक खग नाहीं। कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं।।

ऊषर बरषइ तृन नहिं जामा। जिमि हरिजन हियँ उपज न कामा।।

बिबिध जंतु संकुल महि भ्राजा। प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा।।

जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना। जिमि इंद्रिय गन उपजें ग्याना।।

दो0-

कबहुँ प्रबल बह मारुत जहँ तहँ मेघ बिलाहिं।

जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं।।15(क)।।

कबहुँ दिवस महँ निबिड़ तम कबहुँक प्रगट पतंग।

बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग।।15(ख

इन प्राकृतिक बिम्बों के माध्यम से मनुष्य चरित्र के जिन लक्षणों को वे रेखांकित करते हैं, सुख और सद्गति के लिए जो दर्शन देते हैं,प्रकृति से सीखने का जिस प्रकार आह्वान करते हैं , क्या मनुष्यमात्र के लिए अनुकरणीय नहीं है? क्या विडंबना है, लोग सुखी तो होना चाहते हैं, पर इसके सिद्ध ,स्थायी सात्विक स्रोतों से जुड़ना नहीं चाहते.

बहुधा  लोगों को  कहते सुना है -

* तुलसीदास जी ने स्त्री और शूद्र के प्रति सम्मान का भाव नहीं रखा,इसलिए हम उनका विरोध करते हैं.फलतः ग्रन्थ पढने का प्रश्न ही कहाँ उठता है...?

*बड़े पक्षपाती थे तुलसीदास जी. केवल राम और सीता का गुणगान ही करते रह गए..या फिर जो कोई राम के टहल टिकोरे में थे उन्हें महानता का सर्टिफिकेट दिया ..लक्षमण और भरत की पत्नी जिसने चौदह वर्ष महल में रह कर भी वनवास काटा, उनके लिए खर्चने को तुलसीदास के पास एक शब्द नहीं था...

*क्या पढ़ें रामायण, बात बात पर तो देवताओं से फूल बरसवाने लगते हैं तुलसीदास..अझेल हो जाता है..

* नया क्या है कहानी में...सब तो जाना सुना है...इतने मोटे किताब में सर खपाने कौन जाए...

बिना किसी पूर्वाग्रह के मुक्त ह्रदय से आदि से अंत तक एक बार पढ़कर देखा जाय तो आशंकाओं जिज्ञासाओं के लिए कोई स्थान ही नहीं बचेगा..किसी अलौकिक ब्रह्म की कथा सुनने नहीं, अपने ही आस पास को तनिक और स्पष्टता से जानने, दिनों दिन भौतिक साधनों अविष्कारों की रेल पेल के बाद भी निस दिन दुरूह होते जीवन में शांति और सुख के मार्ग संधान के लिए, जीवन दर्शन को समझने के लिए, जीते जी एक बार अवश्य पढने का प्रयास कर लेना चाहिए..


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