सांस सांस कर चुकती जाती, साँसों की यह पूंजी,
जीवन क्यों,जगत है क्या, है अभी तलक अनबूझी..
कभी लगे यह विषम पहेली, अनुपम कभी सहेली,
संगसाथ चलने का भ्रम दे, कर दे निपट अकेली.
कभी लगे है क्या कुछ ऐसा, जो मैं न कर पाऊं,
काल तरेरे भौं जब भी तो , दंभ पे अपनी लजाऊँ.
कभी लगे है बचा हुआ क्या, जो न अबतक देखा,
तभी रचयिता विहंस के पूछे, क्या है अबतक देखा.
कूड़ा कचड़ा ही तो समेटा, जन्म कर दिया जाया,
महत ज्ञानसागर का अबतक, बूँद भी कहाँ पाया.
सोचा था पावन जीवन को, सार्थक कर है जाना,
अर्थ ढूंढते समय चुका , वश है क्या गुजरा पाना.
जाने किस पल न्योता आये, क्षण में उठ जाए डेरा,
माया में भरमाया चित, किस विध समझे यह फेरा..
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जीवन क्यों,जगत है क्या, है अभी तलक अनबूझी..
कभी लगे यह विषम पहेली, अनुपम कभी सहेली,
संगसाथ चलने का भ्रम दे, कर दे निपट अकेली.
कभी लगे है क्या कुछ ऐसा, जो मैं न कर पाऊं,
काल तरेरे भौं जब भी तो , दंभ पे अपनी लजाऊँ.
कभी लगे है बचा हुआ क्या, जो न अबतक देखा,
तभी रचयिता विहंस के पूछे, क्या है अबतक देखा.
कूड़ा कचड़ा ही तो समेटा, जन्म कर दिया जाया,
महत ज्ञानसागर का अबतक, बूँद भी कहाँ पाया.
सोचा था पावन जीवन को, सार्थक कर है जाना,
अर्थ ढूंढते समय चुका , वश है क्या गुजरा पाना.
जाने किस पल न्योता आये, क्षण में उठ जाए डेरा,
माया में भरमाया चित, किस विध समझे यह फेरा..
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36 comments:
जाने किस पल न्योता आये, क्षण में उठ जाए डेरा,
माया में भरमाया चित, किस विध समझे यह फेरा..
यही शाश्वत सत्य है।
सोचा था पावन जीवन को, सार्थक कर है जाना,
अर्थ ढूंढते समय चुका , वश है क्या गुजरा पाना.
bahut sahi kaha aapne ..behtreen
हर पल जीना, जीते रहना, यह जीवन का सार दिखा,
जितनी चाह चढ़ाकर देखी पथ उसके अनुसार दिखा।
जीवन की नैया खेना सरल नहीं.... सुंदर रचना।
कभी लगे है बचा हुआ क्या, जो न अबतक देखा,
तभी रचयिता विहंस के पूछे, क्या है अबतक देखा.
सचमुच जीवन को समझना बहुत ही मुश्किल है !
मैंने एक ग़ज़ल में लिखा है :
ये जीवन भी तो एक रेखा गणित है ,
कभी गोल है तो कही है तिकोना !
रंजना जी,आपने जीवन की शाश्वत सच्चाई को बहुत ही प्रभावपूर्ण तरीके से शब्दों के कैनवास पर गहन भावों के अनगिनत रंगों को भरकर उकेरा है !
आभार !
कभी लगे है बचा हुआ क्या, जो न अबतक देखा,
तभी रचयिता विहंस के पूछे, क्या है अबतक देखा.
सार्थक सवाल जो हम सब कभी न कभी खुद से ही पूछते हैं.
बहुत अच्छी कविता है..और कविता में पूछा गया प्रश्न तो सचमुच अबूझ है!!जिसने यह जान लिया उसे परम समाधि उपलब्ध हो गयी!! एक यात्रा है बाहर से नादर की और, इस सवाल का जवाब!!
बहुत अच्छी कविता..बहुत अच्छे विचार। वाह! आज तो आपने मन प्रसन्न कर दिया। ..बहुत बधाई।
सुंदर कविता।अद्भुत जीवन दर्शन उकेरा है।बधाई।
यह रचना हमें नवचेतना प्रदान करती है और नकारात्मक सोच से दूर सकारात्मक सोच के क़रीब ले जाती है।
कभी लगे है क्या कुछ ऐसा, जो मैं न कर पाऊं,
काल दिखाए रूप उग्र जब, दंभ पे अपनी लजाऊँ.
कविता सार्वकालिक होती है...... अगर रचना सार्थक हो तो देश काल परिस्थितयां इसे बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं करतीं. रचना अच्छी है..... आभार !
सार्वभौमिक प्रश्न और चिंतन! बहुत सुन्दर कविता।
बहुत ही सुन्दर आध्यात्म से ओत-प्रोत ये पोस्ट बहुत पसंद आई..........हैट्स ऑफ इसके लिए|
सोचा था पावन जीवन को, सार्थक कर है जाना,
अर्थ ढूंढते समय चुका , वश है क्या गुजरा पाना.
वाह ...बहुत खूब।
SAANS-SAANS KAR CHUKTEE JAATEE
SAANSON KEE YAH POONJEE
JEEWAN KYON , JAGAT HAI KYA
ABHEE TALAK ANBOOJHEE
BAHUT KHOOB , RANJANA JI ! SABHEE
PANKTIYAN MAN KO CHHOOTEE HAIN .
AAPKO PADHNE SE SUKHADANUBHOOTI
HOTEE HAI . SHUBH KAMNAAYEN .
एक सुंदर रचना.
रंजना जी,..अच्छे विचारों की बहुत खूबशूरत रचना,
आपके पोस्ट में पहली बार आया आना सार्थक रहा,
रचना से प्रभावित होकर आपका समर्थक बन रहा हूँ
आप भी बने तो मुझे बहुत खुशी होगी,...
"काव्यान्जलि"--नई पोस्ट--"बेटी और पेड़"--
कभी लगे यह विषम पहेली, अनुपम कभी सहेली,
संगसाथ चलने का भ्रम दे, कर दे निपट अकेली.
जि़ंदगी साथ है, फिर भी हम अकेले हैं।
जीवन दर्शन की व्याख्या करती सुंदर रचना।
कभी लगे यह विषम पहेली, अनुपम कभी सहेली,
संगसाथ चलने का भ्रम दे, कर दे निपट अकेली.
जि़ंदगी साथ है, फिर भी हम अकेले हैं।
जीवन दर्शन की व्याख्या करती सुंदर रचना।
कभी लगे यह विषम पहेली, अनुपम कभी सहेली,
संगसाथ चलने का भ्रम दे, कर दे निपट अकेली...
जीवन की इस पहेली को शब्दों में बाँधने का लाजवाब प्रयास है ... बहुत ही मधुर और भाव प्रधान रचना है ...
माया में भरमाया चित, किस विध समझे यह फेरा.
ओह, फिकर नॉट
जब जागे तभी सवेरा!
जीवन का अर्थ तलाशती यात्रा सें किसी न किसी रूप में सत्य के दर्शन हो ही जाते हैं.सुंदर विश्लेषणात्मक रचना.
बहुत ही सुंदर भावों का प्रस्फुटन देखने को मिला है । मेरे नए पोस्ट उपेंद्र नाथ अश्क पर आपकी सादर उपस्थिति की जरूरत है । धन्यवाद ।
कभी लगे यह विषम पहेली, अनुपम कभी सहेली,
संगसाथ चलने का भ्रम दे, कर दे निपट अकेली.
कभी लगे है बचा हुआ क्या, जो न अबतक देखा,
तभी रचयिता विहंस के पूछे, क्या है अबतक देखा
ye panktiyan kuch jyada hi sarthak or sundar lagii ..aatma ko chooti hai
कितना भी चल लें मंजिल दूरी ही लगती है...इसलिए असली आनंद तो सफ़र का है जिसे इस कविता के संदर्भ में आप कुछ जान पाने की खोज कह सकती हैं।
कभी लगे यह विषम पहेली, अनुपम कभी सहेली,
संगसाथ चलने का भ्रम दे, कर दे निपट अकेली.
कभी लगे है बचा हुआ क्या, जो न अबतक देखा,
तभी रचयिता विहंस के पूछे, क्या है अबतक देखा.
वाह .. मधुर और भाव प्रधान
मै तो यही कहूँगा
अनजानी यह डगर बड़ी है,फिर भी चलना पड़ता .
दुख-सुख की सायें में रहकर,जीवन जीना पड़ता .
v7: स्वप्न से अनुराग कैसा........
जीवन के शाश्वत सत्य को आपने आत्मीयता से अभिव्यक्त किया है ।
अद्भुत विसंगतियों का संगम है जीवन !
chirantan satya ko prastut karti kavita.
जाने किस पल न्योता आये, क्षण में उठ जाए डेरा,
माया में भरमाया चित, किस विध समझे यह फेरा.
...maya moh maha thagni ...
janambhar isi pher mein padkar bhi kaham samjhta hai aadmi...
akhir pal kab aa jaay is baat ko samjh jay insand to phir rona kis baat ka..
bahut badiya prastuti..
प्रस्तुति अच्छी लगी । मेरे नए पोस्ट पर आप आमंत्रित हैं । नव वर्ष -2012 के लिए हार्दिक शुभकामनाएं । धन्यवाद ।
बहुत अच्छी लगी कविता
saty vachan....ati sundar
नव वर्ष मंगलमय हो ..
बहुत बहुत हार्दिक शुभकामनायें
आप की नई रचना का इंतज़ार है,रंजना जी
vikram7: महाशून्य से व्याह रचायें......
सुंदर अर्थपूर्ण पंक्तियाँ , विचारणीय है सभी बातें
सुन्दर. फ़ूड फॉर थोट.
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