धूम मची है, नायिका ने किरदार को जीवंत कर दिया है. इसे कहते हैं कला, और कला के प्रति समर्पण..यत्र तत्र सर्वत्र सेलेब्रेशन हो रहे हैं.मंच शुशोभित गुंजायमान हैं..मंच पर नायिका के अश्लील इशारों,कामुक अदाओं और उघडे देह पर लोग तालियाँ सीटियाँ लुटा हाँफते, बेहोश से हुए जा रहे हैं.कला कई कई सीढियाँ एक साथ फांदता हुआ नयी ऊँचाइयाँ जो पा रहा है..सत्य यह स्थापित और रूढ़ होता जा रहा कि कला का वास नग्नता में है, इसलिए होड़ मची है कि कला को कौन कितना उत्कर्ष दे सकता है और दर्शकों के मुंह से ऊह!! आह!! आउच!! संग ऊ-- ला-- ला!! कौन कितना निकलवा सकता है..
एक फिल्म बनी-"डर्टी पिक्चर" , यह कह कि त्रासदी देखो !!!..पर चकाचौंध में नेपथ्य में जा लुप्त हो गया सन्देश, कि इस मार्ग पर चल, धन भले मिल जाए पर अंततः हताशा निराशा एकाकीपन और असह्य मानसिक संताप के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलता ..
महेश बाबू कहते हैं "मुझे पसंद हैं वो लोग जो जिन्दगी अपनी शर्तों पर जीते हैं" . यानि कि अश्लीलता के कीर्तीमान स्थापित करते समय परिवार समाज, आत्मा परमात्मा पर थूकने में जो जितना बड़ा वीर (निर्लज्ज) , वही महान .."बोल्ड एंड ब्यूटीफुल" वही जो जितना बड़ा निर्लज्ज और जो जितना बड़ा निर्लज्ज, वह धन, मान, प्रसिद्धि ,प्रतिष्ठा सबसे उतना ही सफल और बड़ा..
मनोरंजन को जबतक रेडियो उपलब्ध था,लोग दृश्यों की कल्पना करते और सोचते कि काश यह सब दृश्यगत भी होता..यह हुआ और दूरदर्शन ने एक ही मंच पर ज्ञान विज्ञान खेल कूद और समाचार से लेकर मनोरंजन तक सब कुछ उपलब्ध कराया. पर मनोरंजन का यह सिमित कोटा विस्तार पाए,लोग इसके लिए लालायित थे..हमारी सरकार ने जनभावनाओं को समझा, पर उसे आदर देने हेतु दूरदर्शन का विस्तार नहीं किया, अपितु अपने ह्रदय द्वार खोल दिए असंख्य बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए, कि आओ और मनोरंजन परोसो..इन कंपनियों की सहूलियत के लिए दूरदर्शन को इतना इतना उबाऊ बना दिया कि लोग इसे कूड़ा समझ इससे पूर्णतः किनारा कर लें.
और फिर अचानक ही हमारे देश की सुंदरियाँ विश्व स्तर पर सौन्दर्य प्रतियोगिताएं जीतने लगीं.देश का गौरव ,महान उपलब्धि ठहराया गया इसे.लोग गर्व से गदगद उभचुभ...आश्चर्य यह कि उन दो तीन वर्षों से पहले या बाद भारत में तथाकथित "ब्यूटी विथ ब्रेन" का पूर्ण अकाल पड़ गया..क्यों ?? प्रश्न -ग्लोबलाइजेशन, बाजारवाद का यह रहस्य सात पर्दों में कैद रह गया.
बहुत बड़ा बाज़ार है हमारा देश, जहाँ सौन्दर्य तथा मनोरंजन क्षेत्र एक विस्तृत हरा भरा चारागाह है..लेकिन समस्या यह है कि आत्मोन्नति, सादा जीवन उच्च विचार,भौतिकता से दूरी आदि भारतीय संस्कार विचार बाज़ार का सबसे बड़ा शत्रु है..संस्कारहीन किये बिना व्यक्ति को विलासी, भौतिकवादी नहीं बनाया जा सकता...और जबतक व्यक्ति भौतिकवादी नहीं होगा पूरे बाज़ार को समेट अपने घर में बसा लेने के रोग से ग्रसित कैसे होगा...
पहलेसिनेमा से लेकर बुद्धू बक्से(टी वी)द्वारा महलनुमा घर, बहुमूल्य कपडे व साजो सामान की चकाचौंध में व्यक्ति की बुद्धि को चुंधिया उसे भोग के उन वस्तुओं लिए लालायित करना और फिर लुभावने विज्ञापन द्वारा उपभोक्ता का प्रोडक्ट के प्रति ज्ञानवर्धन कर उसे पा लेने को प्रतिबद्ध करना आठो याम अबाध जारी रहता है.दर्शक/उपभोक्ता इन सब से निर्लिप्त रहे भी तो कैसे..
इस विराट बाज़ार में अन्य समस्त भौतिक वस्तुओं के साथ स्त्री भी एक वस्तु है "पारस" सी अनमोल. एक ऐसी वस्तु, जिसे किसी भी वस्तु के साथ खड़ा कर दो, उस वस्तु को चमका दे, उसे मूल्यवान बना दे.. कार से सेविंग ब्लेड तक और दियासलाई से हवाई यात्रा तक, फ्रंट में सुंदरियों को चिपकाया नहीं कि ग्राहक हँसते हँसते अक्ल और जेब लुटा देता है ...और अब तो हसीनाएं दिखा, पुरुष ग्राहकों को पटाने की प्रथा अपार विस्तार पा, "हैंडसम" दिखा, महिला ग्राहकों को लुभाने का भी आ गया है..
सुन्दर सुगठित मोहक शरीर और अदाओं वाले युवक युवतियों की मार्केट में भारी डिमांड है..पहले जो यह विभेद था कि ए ग्रेड की हसीनाएं इतना ही उघड़ेंगी, बी ग्रेड वाली इससे अधिक और सी ग्रेड वाली इससे काफी आगे बढ़कर, बाज़ार यह फर्क मिटा देने पर आमदा है..उसे कोई सीमा नहीं चाहिए,सब असीम चाहिए... तो, इसमें स्पेशल ग्रेड(पोर्न स्टार) को उतरा गया..अब इस स्पेशल ग्रेड को इतना अधिक महिमामंडित किया जाएगा, इसपर धन प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा की ऐसी वर्षा की जायेगी, कि ए- बी- सी में होड़ मच जायेगी इस ग्रेड में शामिल होने के लिए.."बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा" विश्वास अपार सुदृढ़ता पा सिद्ध अकाट्य हो जायेगा..
संचार के समस्त दृश्य श्रव्य माध्यमो द्वारा व्यक्ति के मन में अहर्निश अश्लीलता, कुसंस्कार, भौतिकवादिता के प्रति प्रेम उतार मनुष्य को केवल और केवल एक उपभोक्ता बनाने का अभियान चल रहा है.. एक वह समाज जिसे पीढ़ियों से यह सिखा पोषित किया गया है कि भोग तुच्छ और अधोगामी है , उन मूल्यों से विलग कर विलासप्रिय भोगवादी बनाये बिना बाज़ार का प्रयोजन कैसे सिद्ध होगा..व्यक्ति जबतक यह न माने कि जीवन और शरीर इन्द्रिय भोग के लिए ही मिला है,भोग की और उन्मुख कैसे होगा..? और सांसारिक समस्त भोगों के साधनों को जुटाने का एकमात्र साधन तो "धन" ही है, तो व्यक्ति को आत्मकेंद्रित कर, निकृष्ट प्रतिस्पर्धा(जिसमे कोई किसी का संगी नहीं,प्रतियोगी है जिसके हाथ से अवसर लूट अपने कब्जे में करना ही सक्सेसफुल मैनेजर होने की शर्त है) में लगा ,उप्भोग्तावादी संस्कृति को मजबूती देता बाज़ार फलता फूलता जा रहा है,
क्या विडंबना है, एक समय था जब शिक्षा , समाजिक सरोकारों से पूर्णतः काट स्त्री को संपत्ति और केवल उपभोग की वस्तु बना छोड़ा गया था..पिता भाई पति या पुत्र के अधीन जीवन भर उसे हाड मांस के एक पुतले सा चलना पड़ता था..किसीके भी सही गलत का प्रतिवाद करना, उनके सम्मुख ऊंची आवाज में बात करना,बिना उनकी आज्ञा या परामर्श के निर्णय लेना, स्त्री की स्वेच्छाचारिता मानी जाती थी.परिवार के पुरुष सदस्यों से अधिक महिला सदस्य इसके लिए सजग रहती थी कि किसी भी भांति किसी भी स्त्री में स्वविवेक व स्वनिर्णय का विध्वंसक गुण न आ जाये.इसके लिए जो कुछ भी किया जा सकता था, किया गया. शिक्षा से दूर रख उनके व्यक्तित्व को इतना कुंठित किया गया कि दब्बूपना उनके स्वभाव में स्थायी रूप से स्थिर हो गया और सबसे मजे की बात कि इस दब्बूपना को शील, लज्जा,संस्कार,सच्चरित्रता कह पर्याप्त महिमामंडित किया गया. अज्ञान के अंध कूप में पड़ी स्त्रियों ने हथियार डाल दिए और स्वयं को असहाय निर्बल मानते हुए पिता भाई पति तक को ही नहीं पुत्र को भी अपना स्वामी मान लिया..कभी गर्वोन्नत हो यह माना कि वह अमूल्य संपत्ति है जिसकी रक्षा पुरुष सदस्यों(सबल) द्वारा होनी आवश्यक है, तो कभी मान लिया कि वह तो सचमुच एक उपयोग उपभोग की वस्तु मात्र है..
पर समय ने समाज को जब यह सिखाया कि उसका निर्बल पड़ा पूरा आधा भाग परिवार समाज के विकास में सहभागिता नहीं निभा पा रहा, तो जागृति फ़ैली और इस वर्ग सबल करने पर पूरा ध्यान दिया जाने लगा..और आज जब शारीरिक,मानसिक व बौद्धिक विकास का अवसर नारी पुरुष को सामान रूप प्राप्त है, स्त्रियों ने दिखा दिया है कि शारीरिक बल में भले वे पुरुषों से कभी कभार उन्नीस पड़ जाती हों पर मानसिक और बौद्धिक बल में वे सरलता से उन्हें पछाड़ सकती हैं..लेकिन यह अपार सामर्थ्य संपन्न नवजागृत समूह जिस प्रकार दिग्भ्रमित हो रहा है, असह्य दुखदायी है यह..इतने लम्बे संघर्ष के उपरांत प्राप्त अवसर को एक बार पुनः स्वयं को उत्पाद और वस्तु रूप में स्थापित कर स्त्री कैसे नष्ट कर रही है.. इस पेंच को वह नहीं समझ पा रही कि बोल्डनेस कह जिस नग्नता को महिमामंडित किया जा रहा है,वह पूरा उपक्रम उसे मनुष्य से पुनः उपभोग की एक सुन्दर वस्तु बना छोड़ने की है.. व्यभिचार को आचार ठहरा उसका मानसिक विकास का आधार नहीं तैयार हो रहा बल्कि उसके शारीरिक शोषण का बाज़ार तैयार हो रहा है...
आवश्यकता साक्षर भर होने की नहीं बल्कि सही मायने में शिक्षित होने की है, विवेक को जगाने और आत्मोत्थान की है.स्त्री स्वयं जबतक अपने आप को केवल शरीर.. और शरीर को, धनार्जन का साधन नहीं मानेगी , मजाल नहीं कि कोई पुरुष उसे इसके लिए बाध्य कर सकेगा..
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36 comments:
जहाँ तक किरदार की बात है वहाँ तक सही है ..पर लोग सन्देश नहीं कुछ और ही सीख लेते हैं .. विचारणीय पोस्ट
बेहतरीन लेख
.
झूठ अगर बार-बार बोला जाय तो वह सच हो जाता है. यहाँ तो हर विधा यही साबित करने पर तुली हुई है. अब हम भारतीय या तो वोटर हैं या फिर उपभोक्ता. जनसंख्या की बात अब नहीं होती क्योंकि बाज़ार नहीं चाहता. सबकुछ बाज़ार है.
शक्ति सामंत ने शर्मीला टैगोर को ले कुछ महिला प्रधान फिल्म बनाये थे इस उम्मीद में कि वोमेन एम्पावरमेंट हो जाएगा... लेकिन हमारे लिए गर्व करने लायक बात इतनी ही है कि यू पी. तामिलनाड, कोंग्रेस अध्यक्ष, राष्ट्रपति और ग्राम पंचायत में ५० % महिला आरक्षण (जिसका इस्तेमाल वो अपना घर भरने के लिए करती हैं)
१९५९ में जब दूरदर्शन आया और स्टार वालों ने जब पहला निवेश मारा तभी से टी.वी. यूथ ओरिएंटेड हो गया. सारी गलती सरकार की है. इसके पास प्रतिस्पर्धा नाम की चीज़ नहीं, लोगों के नब्ज़ पकड़ने की कोशिश नहीं करती. प्रसार भारती को अपना ही रेडिओ बना कर रखा है इसने.
आलेख सुन्दर है... काफी अच्छी बहस कि गुंजाइश है इस पर...
सही कह रही हैं आप ...आज हम जिस बात के लिए लड़ते हैं..अप्रत्यक्ष रूप से उसी को बढ़ावा दे रहे हैं.
आवश्यकता साक्षर भर होने की नहीं बल्कि सही मायने में शिक्षित होने की है, विवेक को जगाने और आत्मोत्थान की है.स्त्री स्वयं जबतक अपने को केवल शरीर और शरीर को धनार्जन का साधन न समझे तो मजाल नहीं कि कोई पुरुष उसे इसके लिए बाध्य कर सके..
आपका चिंतन अति गहन और विचारोत्तेजक है.
स्त्री पुरुष दोनों को ही जागरूक होने की आवश्यकता है.जिस देश में पत्नी के अतिरिक्त
परस्त्री को माँ,बहिन ,पुत्री के रूप में देखा जाता रहा उसकी आज यह हालत देख कर हृदय में क्षोभ होता है.
आपकी अनुपम विचारणीय प्रस्तुति के लिए आभार
रंजना जी.
मेरे ब्लॉग पर आईयेगा.
'हनुमान लीला-भाग ३'आपका इंतजार कार रही है.
यह डर्टीनेस की भावना ही मन में गिनगिनाहट भर देती है।
पर यह भी समय का फेज़ है। गुजर जायेगा! :(
बेहतरीन पोस्ट!
बाज़ार में कुछ भी बिक सकता है. वैसे भी हम भारतीय या तो वोटर हैं या फिर उपभोक्ता. जनसँख्या अब इसलिए समस्या नहीं रही क्योंकि बाज़ार ने इसे समस्या मानने से इन्कार कर दिया है. किसी भी चीज को बेंचा जा सकता है. यहाँ तक कि बेवकूफी और चिरकुटई को भी.
स्त्री स्वयं जबतक अपने को केवल शरीर और शरीर को धनार्जन का साधन न समझे तो मजाल नहीं कि कोई पुरुष उसे इसके लिए बाध्य कर सके..bilkul sahi bat khi aapne ranjana jee.
अब तो उच्च कोटि के कलाकार भी इस मोहजाल में फ़ंस रहे हैम:)
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के जन्मदिवस पर उन्हें शत्-शत् नमन!
आपका चिंतन गहन और विचारोत्तेजक है।बात सस्कृति के उत्थान और पतन की है, आज यही है हमारी संस्कृति विदेशों से आयातित.
सार्थक चिंतन. बधाई.
रंजना जी आपकी पीडा हर विचारशील व्यक्ति की पीडा है । टी.वी. ,सिनेमा,अखबार और अधिकांश पत्र-पत्रिकाओं में भी ,जो प्रचार-प्रसार का माध्यम हैं और जीवन शैली के निर्धारक भी ,ऐसे लोगों का बाहुल्य है जो चर्चित होने में विश्वास रखते हैं चाहे मूल्य बेच कर ही सही । यही महेश जी कभी सारांश या डैडी बनाया करते थे अब मर्डर पर उतर आए हैं । बहुत ही व्यापक और विचारणीय विषय है । इस असन्तोष की अभिव्यक्ति एक सार्थक पहल है । जो होती रहनी चाहिये ।
किसी भी फिल्म कलात्मक और अश्लील पक्ष मात्र देखने वाले की निगाह पर निर्भर करता है; मेरे ख्याल से; पर जहाँ तक इस फिल्म की बात है - तो नायिका के जीवन का खालीपन - फिल्म के अश्श्लील पक्ष पर ज्यादा भारी रहा है.
"बोल्डनेस कह जिस नग्नता को महिमामंडित किया जा रहा है,वह पूरा उपक्रम उसे मनुष्य से पुनः उपभोग की एक सुन्दर वस्तु बनाने का षड़यंत्र है.. व्यभिचार को आचार ठहरा उसका मानसिक विकास का आधार नहीं तैयार हो रहा बल्कि उसके शारीरिक शोषण का बाज़ार तैयार हो रहा"
बिलकुल सही ,मै आपके द्वारा व्यक्त विचारों से पूर्णता सहमत हूँ. विचारणीय सार्थक प्रस्तुति
फिल्म नहीं देखा अब तक, आपके विचारों से सहमत हूँ. लेकिन मुझे लोग अक्सर पिछली पीढ़ी की सोच का भी कहते हैं :)
जिस क्षेत्र से संबंधित उत्पाद बेचने की आवश्यकता पड़ने लगती है, उसका महिमामंडन प्रारम्भ हो जाता है। पता नहीं देश को सिल्क स्मिता के जीवन में कौन से आदर्शों का पुलिंदा मिल गया, जिस जीवन से वह स्वयं क्षुब्ध हो उसका महिमामंडन।
धनलोलुपता और भौतिकतावाद हमारी संस्कृति को तार-तार कर रहे हैं।
जागरूकता का संदेश देता प्रेरक आलेख।
"बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा"
स्त्री स्वयं जबतक अपने को केवल शरीर और शरीर को धनार्जन का साधन न समझे तो मजाल नहीं कि कोई पुरुष उसे इसके लिए बाध्य कर सके..
कहते है जहाँ तक हमारी समझ जाती है बस वहीँ तक जिंदगी जाती है ..काश इनकी समझ कुछ और आगे गयी होती ...आप तो पथप्रदर्शक है इस समाज के लिए बस इस रौशनी को यूँ ही जलाये रखें ..
जागरूकता का संदेश देता प्रेरक आलेख। धन्यवाद।
आपके विचारों से सहमत हूँ ... असली जागरूकता सही शिक्षा से आनी है ... आज के भौतिक युग ने नारी की व्यंजन बना के पेश किया है और नारी खुद भी इसका शिकार हो रही है अनजाने ही ...
सिल्क स्मिता तो बस एक बहाना था बाज़ार के लिए ... कोई विशेष चरित्र नहीं था जिस पे फिल्म बनाई जा सके हाँ जिस्म दिखाने के काबिल चरित्र जरूर था जिसका उपयोग किया गया ...
बहुत अच्छा विषय उठाया है आपने. आपके लेख की मूल भावना और उसके इस निचोड़ से अक्षरशः सहमत हूँ
"आवश्यकता साक्षर भर होने की नहीं बल्कि सही मायने में शिक्षित होने की है, विवेक को जगाने और आत्मोत्थान की है.स्त्री स्वयं जबतक अपने को केवल शरीर और शरीर को धनार्जन का साधन न समझे तो मजाल नहीं कि कोई पुरुष उसे इसके लिए बाध्य कर सके.."
जहाँ तक उस फिल्म का सवाल है तो वो मैंने नहीं देखी पर अभिनेत्री विद्या बालन की अन्य फिल्मों को देखते हुए उनके बारे में इतना जरूर कह सकता हूँ कि उन्होंने वो किरदार पूरी ईमानदारी से निभाया होगा क्यूँकि उनकी छवि देह प्रदर्शन की रैट रेस में शामिल तारिकाओं से अलग है।
.लेकिन यह अपार सामर्थ्य संपन्न नवजागृत समूह जिस प्रकार दिग्भ्रमित हो रहा है, असह्य दुखदायी है यह..इतने लम्बे संघर्ष के उपरांत प्राप्त अवसर को एक बार पुनः स्वयं को उत्पाद और वस्तु रूप में स्थापित कर स्त्री क्या कर रही है ?? इस पेंच को वह क्यों नहीं समझ पा रही कि बोल्डनेस कह जिस नग्नता को महिमामंडित किया जा रहा है,वह पूरा उपक्रम उसे मनुष्य से पुनः उपभोग की एक सुन्दर वस्तु बनाने का षड़यंत्र है.. व्यभिचार को आचार ठहरा उसका मानसिक विकास का आधार नहीं तैयार हो रहा बल्कि उसके शारीरिक शोषण का बाज़ार तैयार हो रहा..
सटीक एकदम सटीक रंजनाजी ......... सधे शब्दों कड़वे सच को उतार दिया ....... शब्दशः सहमति आपसे
मैं शुरु से इस बात का विरोध करता रहा, और विरोध झेलता रहा तो मुझे लगा कि हो सकता है मेरे विचार दकियानुसी हों। आज एक महिला द्वारा इस विषय पर लिखा गया तो पढ़कर आंतरिक खुशी हुई।
मैं तो इतना ही कह सकता हूं कि इस विषय को कलात्मक ढ़ंग से भी दिखाया जा सकता था, इसके लिए इतनी फुहड़ता और भौंडा प्रदर्शन से बचा जा सकता था।
पर अंत में जब पैसा कमाना उद्देश्य हो तो सब चलता है ही जवाब मिलेगा। अब तो मंच पर भी सरे आम इस तरह का प्रदर्शन कर तालियां और वाह वाही बटोरी जा रही है, ईनाम भी।
पूर्णत सहमत हूँ आपकी बात से।
बाजारवाद के जाल में फंसकर स्त्री अपनी भूमिका और शक्ति भूल गई है। आज उसे महज सेक्स सिंबल बना दिया गया है। यही कारण है कि हर जगह उसे परोसा जा रहा है। पता नहीं वह किस भ्रम में फंसी है अपनी ही इज्जत अपने ही हाथों से लुटा रही है। चलो शुक्र है स्त्रियों की ओर से ही स्त्री स्वतंत्रता के नाम पर हो रहे कुछ तो भी काले-पीले पर बहस शुरू तो हुई है। मेरी अगली पोस्ट का विषय भी यही है।
Ranjna ji
bahut gahra vishleshan kar gayee hain aap.
बहुत ही बेहतरीन लेख... सुन्दर प्रस्तुति.
पुरवईया : आपन देश के बयार
लम्बे चिंतन से उपजी यह पोस्ट बहुत अच्छी लगी क्योंकि जिन मूल्यों के साथ हम बड़े हुए उनका इस कदर कत्ले आम होना देख आत्मा रो रही है. हमने तो देखना ही बंद का दिया है. आपके ब्लॉग पर कई दिनों से नहीं आ सका क्योंकि लिंक उपलब्ध नहीं हो रही थी. क्षमा.
कहाँ है आप रंजना जी.
आपके कुशल मंगल की कामना करता हूँ.
काफी दिनों से आपको मिस कर रहा हूँ.
समय मिलने पर मेरे ब्लॉग पर आईएगा.
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आदरणीया रंजना जी,
सादर नमन !
बहुत सुंदर काव्य रचना आपने पिछली पोस्ट में दी थी … आभार !
यह आलेख भी मननयोग्य सार्थक और उपयोगी है । साधुवाद !
होली के लिए मेरी ओर से भी मंगलकामनाएं स्वीकार करें
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♥ होली ऐसी खेलिए, प्रेम पाए विस्तार ! ♥
♥ मरुथल मन में बह उठे… मृदु शीतल जल-धार !! ♥
आपको सपरिवार
होली की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
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… और हां, 'महिला दिवस' की भी शुभकामनाएं स्वीकार करें …
आवश्यकता साक्षर भर होने की नहीं बल्कि सही मायने में शिक्षित होने की है
सही है
स्त्री स्वयं जबतक अपने आप को केवल शरीर.. और शरीर को, धनार्जन का साधन नहीं मानेगी , मजाल नहीं कि कोई पुरुष उसे इसके लिए बाध्य कर सकेगा..
ekdam sahi kahna hai aapka.....
स्त्री के देह को बेच कर धन कमाना है बाजार को, उसके लिये कहानी की मांग, भावनात्मक छल कुछ भी जायज है ।
आश्चर्य है कि स्त्री यह समझ कर भी नही समझती ।
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