29.8.08

व्यंगकार शिव कुमार मिश्रा का एक और रूप.कृपया अवश्य देखें.

ब्लोगिंग की दुनिया में " शिव कुमार मिश्रा " एक परिचित ही नही प्रसिद्द नाम है और ये किसी परिचय के मुहताज नही.सो इनके परिचय में बहुत कुछ कहना बेमानी है.अपनी तीखी व्यंग्य शैली से गंभीर मुद्दों को सदा ही पाठक के मन मस्तिष्क पर अंकित करने में सफल रहे हैं.हंसा हंसा कर ऐसे चिकोटी काटते हैं कि आँखें भर आती हैं..मुझे उम्मीद है कि इसी तरह लिखते रहे तो कुछ ही समय में शीर्ष के व्यंगकारों में अपना स्थायी स्थान बना लेंगे.अभी कुछ समय पहले कुश जी की " कॉफी चर्चा " तथा "बाकलम ख़ुद " के माद्यम से उनके विषय में बहुत कुछ जानने को मिला पर शिव ने अपनी व्यंगकार की जो छवि बना रखी है,उस से बहार निकलने में बहुत बुरी तरह झिझकने लगे हैं. जबकि मैं लगभग ४-५ महीनो से इस प्रयास में लगी हुई हूँ कि अपने अन्य गंभीर लेखन को भी वे प्रकाशित (ब्लॉग पोस्ट में)किया करें. उनके गंभीर लेखन के पाठक बहुत ही कम लोग हैं और उसमे से एक खुशकिस्मत मैं भी हूँ.दूसरों की शैली में जब वे इतनी अच्छी कवितायें लिख लेते हैं तो अपनी स्वयं की शैली में कैसा लिख पाते होंगे इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है.पर जब भी उन्हें इन सामग्रियों के प्रकाशन हेतु कहती हूँ तो उनका कहना होता है कि यदि यह सब पोस्ट करूँगा तो लोग हंसने लगेंगे और कहेंगे कि शिव की तबियत तो ख़राब नही हो गई.अब मेरे कहने से तो सुन नही रहे ,सो मेरा सभी माननीय ब्लागरों से अनुरोध है कि शिव से इस हेतु आग्रह करें.कल मुझे उन्होंने अपनी एक पाँच मिंटी कविता एस एम् एस से भेजी थी,बिना उसकी अनुमति के मैं वह यहाँ प्रकाशित कर रही हूँ.आप गुनीजन ही देखकर बताएं कि मेरा उस से यह अनुरोध ग़लत है या सही ?


तंज हैं विचारों में,
हाथ के इशारों में,
तंज मुंह की बोली में,
तंज हर ठिठोली में....

तंज है अदाओं में,
तंज आपदाओं में,
तंज दिखे सपनो में,
तंज सारे अपनों में....

तंज पूरी दुनिया में,
तंज नन्ही मुनिया में,
तंज झलके भाषा में,
नज़र भरी आशा में....

तंज सब आवाजों में,
तंज है परवाजों में,
तंज पर ही रीते हैं,
तंज लिए जीते हैं....

तंज है उड़ानों में,
तंज आसमानों में,
तंज भरा रंगों में,
थिरक रहे अंगों में....

तंज बहुत तंग करे,
जीवन से रंग हरे,
तंज छोड़ कभी-कभी,
हम उसको दंग करें....

एक दुआ दिल से है,
तंज हमें छोड़ जाए,
जो बिखरे दिखते हैं,
प्यार उन्हें जोड़ जाए.....


यदि आपको यह अच्छा लेगे तो मेरा आग्रह है कि शिवजी को अवश्य प्रोत्साहित करें.

27.8.08

“ माँ आप मेरी आयडल थीं.”

“माँ आप मेरी आयडल थीं,पर जिस दिन मैंने आपको ऑफिस में झूठ बोलते देखा सुना("आप ऑफिस में मौजूद थीं पर जब आपके लिए फ़ोन आया तो आपने स्टाफ को कह दिया कि कह दो मैं ऑफिस में नही हूँ") ,माँ मुझे इतना बड़ा धक्का लगा कि बता नही सकता.आपने हमेशा हमलोगों को सच बोलने और अच्छा इंसान बनने,सच्चाई इमानदारी के रस्ते पर चलने की सीख दी.इस से पहले आपको कभी इस तरह झूठ बोलते सुना भी नही था और यही वजह था कि आपकी कही हर बात हमें सही लगती थी,लेकिन जब आपको ही झूठ में लिप्त होते देखा तो इतना बड़ा झटका लगा, समझ नही आया कि अबतक जो आपको देखता आ रहा था आपका वह रूप सही था या उस समय जो देखा वह सही था....मुझे लगा जब आप झूठ बोल सकती हैं तो सच्चाई की कीमत क्या है.मैं बहुत रोया था माँ.आपकी जो छवि मेरे मन में थी वह जैसे टूटने लगी थी.इसलिए उसके बाद से जब भी आप बड़ी बड़ी बातें करती हैं तो वो मुझे झूठी और छलावा लगती हैं.लगता है आपने दो चेहरे लगा रखे हैं एक दूसरों के सामने और एक हमारे सामने."

यह बात मेरे 13 वर्षीया पुत्र ने जिस दिन मुझे कहा,बहुत दिनों तक तो एक सन्न की अवस्था में रही और आज भी ये वाक्य मेरे अन्तःकरण को झकझोर कर ऐसे क्षुब्ध अवस्था में पहुँचा देते हैं कि मन एकदम अशांत हो जाता है.उस दिन कुछ भी न कह पाई थी,अपने बच्चे को.न ही अपनी सफाई में और न ही उसे सांत्वना में और न ही यह समझ में आया कि अपने को क्या सज़ा दूँ...

मुझे याद आया ,ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी बचपन में घटित हुआ था,जब मैं करीब ७-८ वर्ष की थी.माता पिता या पुस्तक सत्य के मार्ग पर चलने को प्रतिपल प्रेरित करते थे.पर व्यावहारिक रूप में अपने अभिभावकों को जब छोटी छोटी बातों के लिए दूसरो से झूठ बोलते सुनती थी तो बड़ी भ्रामक स्थिति हो जाया करती थी और अक्सर ही अपने इन अभिभावकों या शिक्षकों से वितृष्णा सी होने लगती थी.एक बार ऐसा हुआ कि मेरे पिताजी के एक मित्र ने पिताजी से फोटोग्राफी के लिए कैमरा माँगा.पिताजी ने मुझे निर्देश दिया कि उक्त अंकल के आने पर उन्हें वह कैमरा दे दूँ,पर रोल न दूँ.जब वो सज्जन (पिताजी के अनुपस्थिति में)आए और मैंने उन्हें कैमरा दे दिया तो उन्होंने मुझसे पुचकारकर पुछा कि रोल है क्या? मैंने हामी भर दी.उन्होंने झट मुझसे उसकी मांग कर डाली और मैंने सरलता से उन्हें कह दिया कि पिताजी ने देने को मना किया है.पर वो भी पूरे ढीठ थे. उन्होंने मुझसे कहा कि पिताजी ने ही उन्हें वो दे देने को कहा है.मुझे लगा ये झूठ थोड़े न कह रहे होंगे,सो मैंने उन्हें वह लाकर दे दिया.और मजे की बात यह हुई कि पिताजी को उन्होंने जाकर यह कह दिया कि मैंने उन्हें जबरदस्ती दौडा कर वह रोल दिया है और कहा है कि पिताजी ने रोल लेने को कहा है.जब पिताजी घर आए और माताजी को सारी कहानी सुनाकर मुझे जबरदस्त झाड़ के साथ साथ कनैठी दी तो मेरी अजीब सी स्थिति हो रही थी.जितना दुःख मुझे डांट सुनने और कान मडोडे जाने का नही हुआ उस से सौ गुना अधिक इस बात का हुआ कि सारे के सारे झूठे और प्रपंची हैं.मुझे इस बात में कोई शंशय नही था कि झूठ बोलना ग़लत और अधर्म है.

समय के साथ साथ ये भाव गहरे ही बैठते गए और मन ही मन यह प्रण दृढ़ करती गई कि व्यावहारिकता और दुनियादारी के नाम पर जो बहुत सारे ग़लत को लोग करते चले जाते हैं और कहते हैं कि क्या करें इसके बिना काम थोड़े ही न चल सकता है,इस धारा के विरुद्ध चलकर इसे एक चुनौती के तरह निभाउंगी.कभी हारूंगी थकुंगी नही ,कभी इस सत्य पथ से विचलित नही होउंगी. अपने पूरे विद्यार्थी जीवन में अपने सिद्धांतों आदर्शों नैतिकता को पालित पोषित कर जीवित रखा और आंखों में बड़े बड़े सपने बुनती बसाती रही, विलक्षण कार्य और सकारात्मक परिवर्तन के.पर पता भी नही चल पाया व्यावहारिक जीवन पथ पर चलते हुए अधिकाँश प्रण कहाँ चुक गए. आज कमोबेश वही स्थिति है,जिसमे कभी अपने अभिभावकों को देखा था और जिस से कभी इतनी वितृष्णा रहा करती थी.इसे क्या कहूँ....आत्मा की आवाज को नकारना या अपनी कायरता या फ़िर अपनी कातरता ? क्यों इतने विवश हैं हम ?एक आदर्श व्यक्तित्व,माँ,नागरिक बने रहने के संकल्प की कसौटी पर स्वयं को परख पाने भर की हिम्मत भी कहाँ बची है?आज कितनी सारी बातों के लिए कितने आराम से हम यूँ ही माफ़ कर दिया करते हैं अपने आप को, यह कहते हुए कि क्या करते और कोई रास्ता भी तो नही बचा है. अपने सुविधानुसार जब चाहे तब सही ग़लत के बीच की विभाजन रेखा को परिभाषित कर लिया करते हैं हम और जब कभी आत्मा कि चीत्कार उठी भी तो उसे ठोक कर फुसलाकर सुलाने के उपक्रम करने लगते हैं. लेकिन समस्या यह है कि अपने बच्चों या वो सारे लोग जो हमें अपना अनुकरणीय मानते हैं, जिनकी श्रद्धा और विश्वास की दीवार की नींव हमपर टिकी होती है,अपना जो करते हैं वो तो करते ही हैं,उन्हें दिग्भ्रमित करने के पाप के भागी भी हमही बनते हैं.जो बच्चा धरती पर आता है,एक साफ़ सुथरे स्लेट की तरह उसका मन मस्तिष्क होता है पर उसपर हमारे कथन से अधिक हमारे कार्य व्यवहार अंकित होते हैं.सदैव से प्रत्येक माता पिता अपने संतान को विलक्षण गुण संपन्न देखना पाना चाहते हैं .परन्तु इसके लिए अपेक्षित कार्यकलाप और व्यवहार को सुगठित और नियंत्रित नही रख पाते. जिस बालक और बालिका को अपने घर में अपना प्रेरक माता पिता के रूप में नही मिल पाता उसका सहज ही दिग्भ्रमित होना स्वाभाविक है.

मुझमे हिम्मत नही कि मैं अपने बच्चे से पूछ पाऊं कि उसकी मेरे बारे में क्या राय है.पर ईश्वर से प्रार्थना है कि उसे एक आयडल ऐसा मिले जो उसके सत्य पथ पर चलने को सदैव प्रेरित करता रहे अपने जीवन मार्ग पर दृढ़ता से 'सही' के साथ चले और उसके समस्त सदगुण सुरक्षित रहें. ऐसा नही है की मेरा बेटा मुझसे प्रेम नही करता,पर मुझे असह्य कष्ट है कि मैं एक अच्छी माँ और अपने बच्चे कि पथप्रदर्शिका न बन पाई. यदि एक भी अभिभावक मेरे इस प्रसंग से सचेत हो सके तो लगेगा थोड़ा सा प्रयाश्चित मैंने कर लिया.

22.8.08

भ्रम

दर्पण के सम्मुख जो आई,
अपनी ही छवि से भरमाई.

मतिभ्रम ने जो जाल बिछाया,
जान न पाई मैं वह माया.

अपर मान उसे संगी माना,
दुःख सुख का सहगामी जाना.

मुग्ध हुई मैं उसको पाकर,
आपा खोया नेह जोड़ कर.

छवि ने भी तो साथ निभाया,
साथ हंसा वह साथ ही रोया.

मन ने जब जो भाव रचाया,
दर्पण ने भी वही दिखाया.

जान न पायी इस छल को मैं,
हास मेरे थे रुदन में थी मैं.

छवि को चाहा गले लगालूं,
नेह बंध को और बढ़ा लूँ.

दौडी जो शीशे से टकराई ,
छिन्न हो गई तंद्रा सारी.

पोर पोर में शीशे चुभ गए,
घायल अन्तःस्थल को कर गए.

चुभते शीशे मन पर जम गए,
पीड़ा प्रतिपल स्थायी कर गए.

मोह का बंधन टूट तो गया,
उर में पर वह रुदन भर गया.

दर्पण को अब क्योंकर कोसूं,
दोष मेरा, क्या उसमे खोजूं.

निज भ्रम ने ही मुझको लूटा,
नेह का बंधन निकला झूठा.

नेह मरीचिका बड़ी प्रबल है,
अपनी ही छवि करती छल है..........

12.8.08

लेखन : एक प्रभावी उपचार

सर्वविदित है कि पठन- पाठन,मनन-चिंतन व्यक्ति को बौद्धिक स्तर पर समृद्ध बनाता है.पुस्तकें या ज्ञान चाहे धर्म अर्थ से सम्बंधित हो या किसी भी विषय विशेष से सम्बंधित,व्यक्ति को जहाँ एक ओर आनंदानुभूति कराते हैं, वहीँ ज्ञानवर्धन भी करते हैं. यूँ खेल कूद,बागवानी,भ्रमण,कला के विभिन्न मध्यम से जुड़ना, इत्यादि भी व्यक्ति के आनंद का श्रोत बन उसे संतोष और मानसिक शान्ति प्रदान करने,विषाद मुक्त रखने में बहुत प्रभावी होते हैं, पर इसमे ज्ञानवर्धन का तत्त्व उतनी मात्रा में नही होता जो पठन पाठन में होता है.

आनंद के इन अजश्र श्रोतों से जुड़ा एक संतुष्ट और परसन्नमना व्यक्ति अपने आस पास अपने से जुड़े लोगों में भी निरंतर उत्साह उर्जा और प्रसन्नता ही संचारित करता है,पर समय की बात है,मनुष्य का कोमल मन कितना भी धैर्य क्यों न पकड़े रहे, कभी न कभी ऐसे दुर्घटनाओं तथा प्रसंगों से गुजरता ही है जहाँ विषाद से घिरे बिना नही रह पाता और मानसिक कष्ट के क्षणों में वे सारे अवयव जो सामान्य अवस्था में आनन्द के श्रोत हुआ करते थे व्यक्ति के लिए अपने मायने खो चुके होते हैं या फ़िर यदि मन बहलाव के लिए जबरन अपने को खींच कर उनसे जुड़ शान्ति पाने का प्रयास किया भी जाए तो यह मन को पूरी तरह बाँध नही पाता.यदि इनमे लिप्त कर भी लिया जाए किसी तरह अपने आप को तो अधिकांशतः यह एक दैहिक क्रिया बनकर रह जाती है.कष्टों से गुजर रहा व्यक्ति यदि दीर्घ काल तक उस मानसिक अवसाद की स्थिति में रहता है तो पीड़ा घनी भूत हो मानसिक विकृति,पागलपन या आत्महत्या तक ले जाती है.मानसिक कष्ट की यह अवस्था व्यक्तिगत कष्ट के कारण या संवेदनशील मनुष्यों द्वारा अन्य के कष्ट के कारण भी हो सकती है.पर सामान्यतया जब दुख या सुख के अतिरेक को या भावनाओं के अतिरेक को अभिव्यक्ति नही मिलती तो मन मस्तिष्क पर आच्छादित मनोभाव घनीभूत हो कष्ट का कारण बन जाते हैं.

कहते हैं न कि दुःख बांटने पर सौ गुना घटते और सुख बांटने पर सौ गुना बढ़ते हैं.यह वस्तुतः मनोभावों को अभिव्यक्ति मिल जाने के कारण ही होता है.यूँ तो रोना भी स्वस्थ्य के लिए बड़ा ही उपयोगी माना गया है,क्योंकि रो लेने पर कुछ समय के लिए लगभग वैसी ही स्थिति होती है जैसे घनीभूत हो चुके बादलों के बरस जाने पर आसमान साफ़ हो जाता है.पर रोना मन को हल्का करने का कोई स्थायी उपाय नही है.कई कष्ट ऐसे होते हैं,जिनका न तो कोई समाधान होता है या जिन्हें व्यक्ति सहज ही सबके सामने अभिव्यक्त कर मन हल्का कर सकता है.सिर्फ़ कष्ट ही नही कई बार ऐसे विचार चिंतन भी मन मंथन का कारण बन जाते हैं और लंबे समय तक यदि इन्हे अभिव्यक्ति न मिले तो मन को बोझिल कर देते हैं.अब अभिव्यक्ति के लिए व्यक्ति रूप में मनोनुरूप पात्र का मिलना भी एक समस्या है.बहुत कम लोगों को यह सौभाग्य मिलता है कि मित्र रूप में उसके जीवन में कोई ऐसा उपलब्ध हो जो उसकी बातों भावनाओ को पूर्ण रूपेण समझे और जब वह चाहे व्यक्ति के आवश्यकतानुरूप समय से उपलब्ध भी हो.

ऐसे समय में लेखन अभिव्यक्ति का वह माध्यम है जिसमे निश्चित रूप से व्यक्ति को समाधान न सही पर शान्ति अवश्य ही मिल जाती है.गद्य ,पद्य,लेख ,संस्मरण,डायरी इत्यादि किसी भी विधा में संवेदनाओं को अभिव्यक्त कर व्यक्ति दुखों को घटा और सुख संतोष पा सकता है.आवश्यक नही कि ये सब प्रकाशन हेतु ही हो या जब तक किसी लेखन शैली या विधा में पारंगतता न हो लेखन कार्य न किया जाए.वस्तुतः जब व्यक्ति लेखन कार्य में संलग्न होता है,विषय वस्तु में इस प्रकार निमग्न हो उसमे स्थित हो एकाग्रचित्त जाता है और भाव में डूबने के साथ साथ शब्द चयन तथा वाक्य विन्यास के प्रति सजग हो इस तरह पूरे कार्य में तल्लीन हो जाता है कि यह अवस्था " ध्यान"(मेडिटेशन) की अवस्था होती है.देखा जाए तो किसी मंत्र का जाप या इष्ट का ध्यान,पूजा पाठ जो मन को एकाग्रचित्त कर ध्यान की अवस्था द्वारा चित्त वृत्ति को सुदृढ़ स्वस्थ करने की प्रक्रिया मानी जाती है, कई बार मन स्थिर रख पाने में उतनी कारगर नही होती पर लेखन चूँकि समग्र रूप से एक प्रयास है व्यक्ति को एक केन्द्र में अवस्थित रखने में सहायक होता है, तो यह ध्यान के बाकी अन्य उपायों की तुलना में अधिक कारगर ठहरता है..और यह तो सर्व विदित है की ध्यान किस प्रकार मानसिक स्वस्थ्य प्रदान करने में सहायक है.

इतना ही नही,लेखन के विभिन्न माध्यमो से कथ्य में काल्पनिक रंगों का समावेश कर मन मस्तिष्क को आघात पहुँचा रही उन स्मृति दंशो से जिन्हें कि प्रकट कर पाना कठिन होता है किन्ही अपरिहार्य कारणों से,नए कलेवर में ढाल व्यक्ति सहजता से प्रकट कर उनसे मुक्ति पा सकता है.

कई लोग डायरी को अपना आत्मीय और मित्र बना,उसके साथ अपने अनुभूतियों और घटनाओं को बाँट लेते हैं.मन भी हल्का हो जाता है और इसके साथ ही जब चाहें तब उन संगृहीत पन्नो में जाकर बीत चुके घटनाओं और मनोभावों की गलियों में विचर आनंदानुभूति कर आते हैं.कुछ लोगों में यह वृत्ति होती है कि जहाँ कहीं कोई अच्छी पंक्ति उधृत देखी,झट उसे संगृहीत कर रख लिया.देखते देखते कुछ समय में विचारों का एक विशाल संग्रह बन जाता है और जब चाहे व्यक्ति उनके बीच ऐसे घूम फ़िर आ सकता है जैसे भूले बिसरे किसी मित्र से मिल आए हों.

मनोचिकित्सकों द्वारा भी लेखन को कारगर उपाय रूप में चिकित्सा हेतु अपनाया जाता है.रोगी को हिप्नोटायिज कर अर्ध चेतना की अवस्था में ले जाकर मन में गहरे गुंथे पड़े पीडादायक क्षणों से गुजारकर रोग के तह तक पहुँचने का प्रयास किया जाता है.इसके साथ ही रोगी द्वारा लेखन कार्य भी कराया जाता है और रोगी को अपने सभी प्रकार के मनोभावों को लिख कर अभिव्यक्त करने को प्रोत्साहित किया जाता है.इससे एक साथ दोनों कार्य हो जाते हैं,एक तो अनजाने ही रोगी लेखन क्रम में ध्यानावस्था को पाकर मानसिक स्वास्थलाभ करता है,और दूसरे चिकित्सक को भी रोग के जड़ तक पहुँच उसके अनुरूप चिकित्सा विधि तय करने में सहूलियत मिलती है.

जो लेखन कला में प्रवीण हैं,उनके लिए निरंतर लेखन अति आवश्यक है।क्योंकि लेखन कार्य में संलिप्तता लगभग वैसा ही कार्य करती है जैसे जमे हुए पानी को यदि बहाव दे दिया जाए तो पानी सड़ता ख़राब नही होता है.निरंतन चिंतन और अभिव्यक्ति विचारों को सदैव नूतनता प्रदान कर व्यक्ति को समृद्धि बनाती है.इसके साथ ही यह वह संतोष और उर्जा देती है जो जिजीविषा को पालित पोषित रखते हुए व्यक्ति को सदैव रचनात्मकता प्रदान करती है,जिसके सहारे वह अपना ही नही कईयों का भला कर सकता है॥ कहते हैं न कि जो काम तलवार नही कर सकती वह कलम कर सकती है........

7.8.08

युवाओं में विवाह के प्रति बढ़ती अनास्था

धर्म में मनुष्य को जिन चार आश्रमों में रहने का प्रावधान बताया गया है ,उसमे जीवन के लिए विवाह को अति आवश्यक माना गया है.समाज को सुगठित और सुव्यवस्थित रहने के लिए तथा इसके द्वारा धर्म अर्थ काम का उपभोग अपने सहचर के साथ कर अंत में मोक्ष प्राप्ति का मार्ग भी इसी के माध्यम से गुजरकर ही माना गया है.क्योंकि जबतक व्यक्ति के तन मन और धन की बुभुक्षा शांत नही हो जाती निष्काम नही हो पाता और न ही धर्म कर्म में प्रवृत्त हो संसारिकता से विरत रह भगवत भक्ति में रत कर पाता है स्वयं को..

जबतक समाज सुगठित नही हुआ था,नियम निर्धारित न हुए थे,जर,जमीन,जोरू ही हिंसा द्वेष और मार काट के कारण हुआ करते थे.क्योंकि मन तो तब भी था,प्रेम तब भी हुआ करते थे और व्यक्ति इन तीनो से तब भी बंधा होता था मनुष्य . हाँ,व्यवस्था नही थी,जो कोई सीमा निर्धारित करती और लोगों को कर्तब्य बंधन में बांधती ,सो सबकुछ अस्त व्यस्त अराजक स्थिति में था ..

कालांतर में कई व्यवस्थाएं आयीं.कुछ सही भी कुछ ग़लत भी.पर एक बात जो शाश्वत थी और रहेगी कि विवाह जीवन और समाज के लिए सभ्यता के साथ ही आवश्यक थे और सभ्यता के अंत तक इसकी अपरिहार्यता निर्विवाद रहेगी,भले स्वरुप कितना भी बदले.

गृहस्थ आश्रम में अपने सहचर या सहचरी के साथ तन मन धन और धर्म इन चारों के उपभोग के साथ साथ पति पत्नी के लिए कुछ अधिकारों और कर्तब्यों की भी अवधारणा की गई है.परन्तु आज जैसे जैसे व्यक्ति(स्त्री पुरूष दोनों) वैयक्तिकता की दौड़ और होड़ में फंसे अपने अहम् को सर्वोपरि रख कर्तब्य से अधिक अपने अधिकारों के प्रति सजग रहने लगे हैं,प्रेम को भी लेन देन की तराजू में तौलने लगे हैं और तन मन धन और धर्म अब एक साथ नही, व्यक्तिगत रूप में व्यक्तिगत इच्छा के अनुरूप इसे जीवन में स्थान देने और मानने में लगें हैं तो विवाह रूपी इस संस्था पर से लोगों का विशवास टूटना दरकना लाजिमी है.

पहले पुरूष के लिए...............

आज की काफी हद तक स्वेक्षचारी जीवन शैली ने पुरूष के लिए संभावनाओं के अपरिमित द्वार खोल दिए हैं.सब नही, पर बहुत से युवा युवावस्था की दहलीज पर कदम रखते तक में तन मन के सुख का एक गृहस्थ की भांति उपभोग कर चुके होते हैं.धन कमाना उनका परम ध्येय होता है और धर्म की चिंता करना समय व्यर्थ करना लगता है.अपने हर आज को बखूबी कैसे एन्जॉय करना है इसके हर नुस्खे आजमाने तो तत्पर रहते हैं और सुगमता से इन्हे सब उपलब्ध भी रहता है.महानगरों में तो इसकी असीम संभावनाएं हैं,जो सरलता से जब चाहे उपलब्ध है..बल्कि ऐसी सेवाएं उपलब्ध कराने वाली एजेंसियां भी उपलब्ध हैं जो ''मित्र बनाओ'' से लेकर अकेलेपन को दूर कराने और हर प्रकार की सुविधाएँ उपलब्ध कराने के लिए २४ घंटे की सेवा खुलेआम इश्तेहार देकर प्रदान करते हैं.जब विवाह को तन के सुख के साथ बांधकर माना जाने लगे और जिंदगी की हर सुविधा और सुख टू मिनट मैगी या रेडी टू ईट स्टाइल में मिल रहा हो तो कौन फ़िर विवाह के बंधन में बाँध कर्तब्यों की बेडी में जकड़ना चाहेगा ख़ुद को. कर्तब्य निष्पादन में भी सुख है,कोई आपका नितांत अपना हर सुख दुःख में बिना किसी सेवा शुल्क के आपके लिए हर पल उपलब्ध है,जिसके साथ कर्तब्य निभाने में किसी को सुखी करने,खुशी देने में भी सुख है,और यह बोझ बंधन कतई नही है,जो पुरूष इसमे आस्था रखते हैं,वे तो सहज विवाह को मान्यता और सम्मान दे देते हैं पर इस से विमुख पुरूष जब प्रौढावस्था में होश में आता है और इसे मानने को प्रस्तुत होता है तबतक बहुत देर हो चुकी होती है और ये अपना बहुत कुछ खो चुके होते हैं.लाख पश्चिम का अनुकरण कर लें युवावस्था में, पर उम्र ढलने के बाद एक न एक दिन मानना ही पड़ता है कि हमारी भारतीय संस्कृति में जो भी प्रावधान हैं,अंततः सच्चा सुख उसी रास्ते चल मिल सकता है.

अब स्त्रियों की बात.........

कमोबेश जो मानसिकता पुरुषों की है पुरुषों की बराबरी में उतरी आज की तथाकथित माडर्न नारियां भी उसी बीमारी में स्वयं को स्वेक्षा से जकडे लिए जा रही हैं.आर्थिक आत्मनिर्भरता को स्त्रियों ने पति के विकल्प के रूप में मानना आरम्भ कर दिया है और घर गृहस्थी के कर्तब्य निष्पादन को मानसिक गुलामी मान, धन को ही पति परिवार सबका विकल्प मानना आरम्भ कर दिया है..धनाढ्य महिलाओं के लिए भी वो सारी सुविधाएँ उपलब्ध हैं जो एक पुरूष को तथाकथित सुख के लिए प्राप्य होते हैं.हालाँकि यह स्थिति पुरुषों में जितनी मात्रा में है उतनी स्त्रियों में नही आ पाई है.पर जब राह पर चल निकली हों तो चिंताजनक तो अवश्य ही है.

स्वेक्षाचारिता, वैयक्तिकता,भौतिकवादिता और कुछ हद तक पाश्चात्य संस्कृति के अन्धानुकरण ने आज के युवाओं चाहे स्त्री हो या पुरूष ,के मन में विवाह के प्रति वितृष्णा भरना शुरू कर दिया है.अब विवाह को बोझ और बंधन मानने की प्रवृत्ति बहुत तेजी से बढ़ने लगी है.वर्तमान के भौतिक युग में आज का युवा भौतिक वस्तुओं की खरीद फरोख्त की तरह विवाह को भी नफा नुक्सान की तराजू पर तौलकर देखने लगा है और सिर्फ़ आज में जीने वाला युवा पहले मोल तोल कर ठोंक बजा कर देख लेना चाहता है कि किस चीज के लिए क्या कीमत चुका रहा है.किसी समय विवाह नाम की इस संस्था को जो सामाजिक मान्यता तथा साम्मानित स्थान समाज को सुव्यवस्थित सुगठित रखने के लिए समाज द्वारा दिया गया था,अब वह बहुत तेजी से तिरस्कृत होने लगा है.

समस्या के मूल में जाएँ तो सबसे बड़ा कारण वैयक्तिकता ही है.व्यक्ति इतना अधिक आत्मकेंद्रित होता जा रहा है संवेदनाएं इस तरह सुप्त होती जा रही हैं कि अपने से बहार निकल और आगे बढ़ व्यवहार में दूसरों के दुःख सुख के प्रति बहुत अधिक उदासीन होने लगा है.कितने लोग(स्त्री या पुरूष)हैं जो देश दुनिया समाज के दुःख सुख को अपने व्यक्तिगत सुख दुःख से अधिक महत्व दे पाते हैं?स्वयं को छोड़ हर व्यक्ति दूसरा हो गया है,चाहे वह पति पत्नी बच्चे माता पिता ही क्यों न हों.और यही वैयक्तिकता जब हमें दूसरों के प्रति निर्मम और असंवेदनशील बनाती हैं तब किसी भी संस्था,चाहे वह विवाह का ही क्यों न हो मूल्यहीन होना,अपनी महत्ता खोना स्वाभाविक ही है. आज जो लोग विवाह से बचना भागना चाहते हैं,उसके मूल में कहीं न कहीं वे ही कष्ट फोकस में होते हैं जो इस संस्था में बंधने के बाद स्वार्थवश और अहम् के टकराव की अवस्था में लोगों को भोगना पड़ता है.दो व्यक्तियों में एक यदि कर्तब्य पथ पर चलने वाला हो भी पर दूसरा यदि अधिकार को पकड़े दूसरे को प्रताडित करता रहे, तो भी सम्बन्ध का सुचारू रूप से चल पाना कठिन हो जाता है.अब जब तक स्त्रियाँ आर्थिक परतंत्रता की बेडियों में जकड़ी हुई थीं,तबतक तो रोते पीटते कष्ट सहते जीवन निकाल ही लेती थीं और विवाह नाम की इस संस्था की लाज बच जाती थी.पर जैसे जैसे स्त्रियाँ इस से निकलती जा रही हैं,विवाह के प्रति इस तरह अनास्था तथा विवाह का टूटना तेजी से बढ़ता जा रहा है.


सम्बन्ध विच्छेद या विवाह से वितृष्णा दोनों ही स्थिति,चिंताजनक है तथा किसी भी स्थिति में न तो यह कष्टों से बचने का उपाय है या समस्या का समाधान ही है.बात बस इतनी है कि यदि हम अपने इस ''मैं'' से ऊपर उठ जैसे ही ''हम'' में विशवास करने लगेंगे दांपत्य की गरिमा और मधुरता को भी पा लेंगे और तब ही जान पाएंगे कि सच्चा सुख कर्तब्य से बचने में नही बल्कि उसके निष्पादन में ही है.विवाह केवल आर्थिक सुरक्षा और संबल के ही लिए नही बल्कि मानसिक सुख और संबल के लिए भी आवश्यक है.दम्पति जब परस्पर एक दूसरे के लिए प्रेम,निष्ठा,सम्मान और समर्पण की भावना रखे ,अपने कर्तब्य तथा सहगामी के अधिकारों के प्रति सजग रहे तो सिर्फ़ अपने लिए ही स्वर्गिक सुख नही अर्जित करेगा बल्कि अपनी आगामी पीढी के सामने भी सुसंस्कारों का आदर्श प्रस्तुत करेगा और अगली पीढी अपनी पिछली पीढी के सुख को देख विवाह बंधन को दुःख का बंधन नही बल्कि सुख का द्वार समझ पवित्र बंधन में बंधने को न केवल तत्पर होंगे,बल्कि पूरे मन से इसका सम्मान भी करेंगे.............

1.8.08

जो स्वप्न सिखा गया... !

अनंत काल के अनथक साधना और अन्वेशनोपरांत प्रबुद्ध ऋषियों मनीषियों से लेकर साधारण जनों तक ने सुखमय जीवन के जो सूत्र प्रतिपादित किए हैं,लाख जानने सहमत होने के बाद भी सर्वदा या विपत्ति काल में पूर्णतः वे कहाँ याद रह पाते हैं। मन बुद्धि कष्ट के क्षणों में भी स्थिर रहे,विचलित न हो यह नही हो पाता।जन्म लिया है तो एक न एक दिन मृत्यु को प्राप्त होना ही होगा और जाते समय कुछ भी साथ न जाएगा,सब जानते हैं.अपनी आंखों के सामने असमय मृत्यु को प्राप्त होते देखते हैं और जीवन की क्षणभंगुरता से परिचित भी होते हैं,पर सच माने तो व्यवहार में हम अपने लिए मृत्यु को मान,इस सत्य को आत्मसात और निरंतर स्मरण में नही रख पाते.मृत शरीर के साथ श्मशान तक भी जाते हैं तो भी यह नही मान पाते कि क्या पाता किस अगले क्षण में मेरी बारी हो.

वर्ष १९९७ की बात है.एक साधारण सी परेशानी हुई जिसे महीने भर तक बीमारी नही माना.परेशानी थी दाहिने पैर में कमर और घुटने के बीच दर्द रहने लगा,जो कि क्रमशः तीव्र से तीव्रतर ही होता गया.कभी सोचती अधिक चलने के कारण हुआ होगा कभी कमजोरी के कारण तो कभी कुछ.बस एक ऐंठन भर से ज्यादा नही माना.पर जब स्थिति में दवाइयाँ लेने के बाद भी कोई बदलाव नही आया,बल्कि दर्द के मारे रातों की नीद चैन समाप्त हो गया तथा धीरे धीरे जमीन पर पूरी तरह पैर रखना भी दूभर होने लगा तो फ़िर अस्पतालों का चक्कर शुरू हुआ जो अगले दस महीने तक चला.इन दस महीनो में एलोपैथ,होमियोपैथ,नेचुरोपैथ,झाड़ फूंक से लेकर कोई भी चिकित्सकीय पद्धति ऐसी न बची जिसे आजमाया न हो या जहाँ की ख़ाक न छानी हो. बिस्तर ही नही पकड़ाया इस पैर के दर्द ने बल्कि और भी कई सारे ऐसे ऐसे रोगों ने घेर लिया कि एक की ख़बर लो तबतक एक और सामने आकर खड़ा हो जाता था. शरीर केवल हड्डियों का ढांचा भर रह गया था और अपने हाथों एक गिलास पानी लेकर पीना भी दूभर हो गया था.ग्यारहवें महीने में जब रोग का पता चला तबतक वह काफ़ी एडवांस स्टेज में पहुँच चुका था.खैर इलाज़ आरम्भ हुआ.पर किस्मत का खेल था कि दवा की जो कोई भी कोम्बिनेसन दी जाती वह रिएक्सन कर जाता और चिकित्सकों को वह दवा बंद करनी पड़ती.घर परिवार वालों से लेकर चिकित्सकों तक को यह भरोसा न रहा था कि मैं बच पाउंगी.

उन्ही दिनों जब अस्पताल में पड़ी थी एक दिन एक स्वप्न देखा. देखा कि मैं मर चुकी हूँ और मेरे आस पास सभी रिश्ते नाते,संगी साथी मुझे घेरे रोये जा रहे हैं.मुझे लग रहा है कि इन सब लोगों को यह ग़लत फहमी कैसे हो गई कि मैं मर चुकी हूँ,जबकि मैं तो जीवित हूँ.मैं कभी अपने पति को तो कभी अपनी माँ को जा जा कर झकझोर कर कह रही हूँ कि मैं जीवित हूँ.लेकिन यह मैं भी देख रही हूँ कि मेरा शरीर जमीन पर रखा हुआ है और मैं शरीर से बाहर सबलोगों के पास अपने एक और शरीर के साथ जाकर बात कर रही हूँ जिसे कोई देख नही पा रहा.अपना पूरा जोर लगा मैं चिल्लाकर सबसे अपनी बात कह रही हूँ पर कोई उसे नही सुन पा रहा है और एक एक कर मेरे दाह संस्कार पूर्व के सारे रस्म निभाए जा रहे हैं.फ़िर मेरे शरीर को एक गाड़ी में लेकर बहुत सारे लोगों के साथ मेरे पति श्मशान की ओर लिए जा रहे हैं.मैं बिलख रही हूँ कि मैं मरी नही हूँ,मुझे अपने से अलग न करो पर किसी के कानो तक मेरी आवाज़ नही पहुँचती.जब श्मशान पहुँचती हूँ तो वहां पहले से ही और भी बहुत सारे शव रखे हुए हैं और मुझे देख सब हंस रहे हैं और खुशियाँ मना रहे हैं.इतने सारे शव बन चुके अजनबियों को देख और अपने लिए चिता सजाते देख भय और दुःख से विह्वल हो विलाप करने लगती हूँ और साथ ही बार बार जाकर पति को झकझोरती हूँ कि बाकी भले सारे मुझे मृत मान लें और मेरी आवाज़ न सुन पायें पर आप कैसे नही मुझे सुन देख महसूस कर पा रहे? पर मेरे रुदन यूँ ही अनंत में लीन हो जा रहे हैं,बिना किसी के कानो को छुए,किसी ह्रदय को प्रभावित किए.....सहसा शवगृह का स्वामी आकर उद्घोषणा करता है कि आज लकड़ी तथा बिजली न होने के कारण शवों का दाह संस्कार नही हो पायेगा,इन्हे कल तक के लिए वही छोड़ दिया जाए.सारी व्यवस्था कल तक दुरुस्त हो जायेगी और कल दाह संस्कार किया जाएगा.मेरे माता पिता,बच्चे,पति सब मुझे उन अनजान शवों के बीच जो कि मुझे नोच कर खा जाने के लिए बस मेरे परिवार जनों के वहां से हटने की प्रतीक्षा कर रहे है,खुश हो तालियाँ बजा रहे हैं,छोड़ कर घर की ओर चले जा रहे हैं और मैं भय से थरथराती,सबको पुकारती विलाप करती वहीँ पड़ी हूँ.............. और फ़िर मेरी नींद टूट गई.

स्वप्न का वह सत्य मुझे क्या अनुभूति दे गया और क्या क्या सिखा गया उसे शब्द दे पाना मेरे लिए असंभव है.मृत्यु के बाद के जीवन की बताने वाला या निश्चित रूप से इसके बारे में कुछ कह पाने वाला कोई नही है.पर यदि धर्म पुराणों की माने तो मृत्यु के बाद शरीर भले प्राण वायु से वंचित हो जाता है पर चेतना तुंरत नही मरती.जिसे हम ''मैं'' कहते हैं,वह यही चेतना तो है.संभवतः जो कुछ मैंने स्वप्न में देखा वह एक सत्य ही हो.किसी अपने के मृत्यु को बुद्धि द्वारा सत्य मानते हुए भी जब हम घटित और सत्य को सत्य मानने में तत्क्षण प्रस्तुत नही होते तो यह 'मैं' जिस शरीर में रहता है अनायास शरीर के नष्ट होने पर मृत्यु को सहजता से कैसे स्वीकार सकता है.

इस स्वप्न ने ज्ञानी मनीषियों द्वारा कहे गए वचनों को सद्यस्मृत रखने को पूर्णतः तैयार कर दिया कि.....
- मृत्यु जब चिरंतन सत्य है तो प्रतिपल इसके लिए मानसिक रूप से तैयार रखना है स्वयं को.
- जितना कुछ लेकर आए थे इस संसार में उतना ही कुछ साथ जाएगा और साथ केवल किए हुए कर्म ही जायेंगे.सो यदि संचित करना हो तो सत्कर्म कर संतोष अर्जित कर झोली भर लो.

- ईश्वर प्रदत्त इस शरीर के साथ साथ प्रतिक्षण का सदुपयोग और सम्मान करो.
- सुख या दुःख जो मिला उसे हर्ष से स्वीकार करो और धैर्य को पकड़े रहने को सतत प्रयत्नशील रहो.

प्रभु से प्रार्थना है कि प्रयाण काल में रोग ,शोक, मोह , भय, तृष्णा, असंतोष और पश्चात्ताप न सताए।बस मन में संतोष के साथ प्रभु का स्मरण हो और प्रसन्न मन से उसे कह पाऊं.....'' तुमने जो जीवन और अवसर दिया,उसमे इस छोटी बुद्धि और सामर्थ्य के सहारे जो कुछ कर सकी किया,अब यह शरीर माँ धरित्री को समर्पित है........... "