यह संभवतः प्रत्येक पीढी के साथ होता है कि ३५ - ४० या ४५ की वय पार कर जाने के बाद, लोग मानसिक रूप से अतीत में जीने में सुखानुभूती करते हैं. ईश्वर ने मानव मस्तिष्क में ऐसी व्यवस्था कर दी है कि समय के साथ स्वतः ही दुखद स्मृतिया धुंधली पड़ क्षीण हो जाती हैं.पूर्णत समाप्त न भी हों तो व्यथा की तीव्रता अवश्य क्षीण कर जाती है.परन्तु व्यवस्था की अलौकिकता है कि एक ओर जहाँ दुखद स्मृतियाँ समय के मस्तिष्क पटल से मिटने लगती हैं प्रभावहीन होती जाती हैं वहीँ सुखद स्मृतियाँ समय के साथ और भी प्रखर होती जाती हैं और सच पूछिए तो यही मनुष्य को उर्जा भी प्रदान करती है.उसमे भी बालपन के संस्मरण संभवतः सर्वाधिक सुखद हुआ करती हैं.आज एक संस्मरण आपलोगों के साथ भी बांटती हूँ..
बाल्यकाल से युवावस्था तक अपने भोंदुपने में हमने ऐसे ऐसे कारनामे किये कि आज भी उक्त घटनाये मेरे संग संग उनके साक्षी रहे लोगों के मनोरंजन के साधन हैं.
संयोग ऐसा रहा कि बाल्यकाल और विवाहोपरांत भी मेरे जीवन के २७ वर्ष तक ऐसे स्थानों पर हमारा वास रहा जहाँ नागरी सभ्यता संस्कृति की पहुँच न थी. .उन स्थानों को हम न देहात कह सकते हैं न ही शहर.मेरे पिताजी माइनिंग इंजीनियर थे और हम सदा ही पहाडों जंगलों के बीच कम्पनी द्वारा बसाये छोटे से कालोनियों में रहे ,जहाँ जंगलों पहाडों के बीच विशुद्ध प्राकृतिक परिवेश में वर्षों तक हमारी सरलता संरक्षित रही.
बात उन दिनों की है जब मैं बी.ए. प्रथम वर्ष में थी. घर से दूर शहर में एक महाविद्यालय में कुछ दिन पूर्व ही दाखिला हुआ था सो किसी के साथ घनिष्टता नही हुई थी.यूँ भी मैं बहुत अधिक अंतर्मुखी स्वभाव की थी.बहुत अधिक मेल जोल मेरा किसी से न था.मित्र के नाम पर अब तक पुस्तकें और मेरे दो छोटे भाई ही मेरे मित्र थे जिनकी संगति में स्वाभाविक ही मेरा सामान्य ज्ञान निम्नतम स्तर पर था.
पता नही कैसे मेरे सीने (ब्रेस्ट) में एक घाव हो गया,जो प्रत्येक दिन के साथ बढ़ता हुआ असह्य कष्टकारक होता गया.पन्द्रह सोहल दिन होते होते यह स्थिति हो गई कि उस असह्य पीडा ने मुझे कलम तक पकड़ने में अक्षम कर दिया...मुझे कराहते छटपटाते देख कुछ सहपाठियों ने जोर देकर मुझसे कारण जान लिया और फ़िर बात छात्रावास की अधीक्षिका तक पहुँचा दी गयी.
पता नहीं क्या सोचकर हमारे महिला क्षात्रावास के लिए पुरुष चिकित्सक नियुक्त किया गया था.आज सा दिमाग रहता तो इसीके लिए एक आन्दोलन कर बैठती..पर उस समय यह सब सोचना नहीं आता था.खैर,अधीक्षिका ने उक्त बुजुर्ग पुरुष चिकित्सक को बुलवा लिया और उनके आने पर मुझे बुलाया गया.
चिकित्सक और अधीक्षिका ने लाख पुचकारा पर मैंने उन्हें वह घाव का स्थान नहीं दिखाया..अब महिला चिकित्सक होती तो कोई और बात होती. हारकर बुजुर्ग चिकित्सक महोदय ने अंदाजे से अपने अनुभव के आधार पर कुछ औषधियां लिख दीं. पर उनकी विद्वता और अनुभव पूर्णतः विफल रहा और उन दवाइयों के सेवन ने मेरी रही सही गति भी निकाल दी.
जहाँ हम रहते थे, माइंस के छोटे अस्पताल में भले और कोई सुविधा न हो पर एक पुरूष और एक महिला चिकित्सक अवश्य होते थे..यह अलग बात थी कि तब तक सिलाई बुनाई में दक्ष उन महिला चिकित्सकों से मैंने कभी अपनी कोई बीमारी नही दिखाई थी.आज तक जरूरत जो न पड़ी थी.
अगले दिन दुखद सन्देश के साथ छोटा भाई क्षात्रावास मुझे लिवाने आया कि अविलम्ब चलना है,माताजी का सड़क दुर्घटना में पैर टूट गया है जिन्हें जमशेदपुर के अस्पताल में रखा गया है. कुछ समय के लिए तो अपनी पीड़ा बिसरा गई मैं और ट्रेन पकड़ भागती हुई माताजी के पास पहुँची. तबतक तो प्लास्टर और ट्रैकसन वगैरह लग चुका था और वे कुछ व्यवस्थित भी हो चुकी थीं ,पर हम दोनों माँ बेटी खूब रोई.
माताजी तो रोकर चुप हो गयीं पर चिकित्सक महोदय के उन पीडाहारी औषधि ने मेरी जो स्थिति की थी कि मारे पीडा के मेरे आंसू थमने का नाम नही ले रहे थे.जब तीसरे दिन भी माताजी ने मुझे रोते देखा तो अबतक जो मुझे सांत्वना दिए जा रहीं थीं,कुछ झुंझला सी पड़ीं. उनका झुंझलाना था कि मैं बुरी तरह रो पड़ी और उन्हें अपने घाव के बारे में बताया.
माताजी ने पिताजी को बताया और अविलम्ब मुझे किसी महिला चिकित्सक(लेडी डाक्टर) से दिखवाने को कहा.जिस अस्पताल में हम थे वह काफी बड़ा था और यहाँ हरेक बीमारी के लिए अलग अलग विभाग थे.पिताजी पूरे अस्पताल का एक पूरा चक्कर लगा आए और वापस आकर उन्होंने माताजी से मंत्रणा की.देर तक मंत्रणा हुई और फ़िर पिताजी ने मुझे अपने साथ चलने को कहा.
उन दिनों हमारे स्वभाव में ही नहीं हुआ करता था कि अभिभावकों से अधिक प्रश्न पूछते या जब उनके पीछे चलना हो तो अपना दिमाग लगाते कि कहाँ जा रहे हैं, जरा देख जान लें. पिताजी ने एक विभाग में मेरा नंबर लगा दिया था और टोकन लाकर मेरे हाथ पकड़ा दिया ,चूंकि वहां पुरुषों का प्रवेश वर्जित था सो उन्होंने मुझे अपना नंबर आने पर दिखाकर और दवा लेकर माताजी के पास चले जाने की हिदायत दी और स्वयं वहां से चले गए.
उन दिनों शहरों या बड़े भीड़ भाड़ वाले स्थानों में हमारी स्थिति वैसी ही होती थी जैसा कि किसी जंगल में निवास करने वाले सीधे साधे वन्य पशु की शहर के भीड़ भाड़ वाले सड़क पर आने पर होती है. जहाँ मैं बैठी थी पचास के ऊपर केवल महिलाएं ही थीं.परन्तु फिर भी मैं उस अपरिचित भीड़ में बड़ी असहजता का अनुभव कर रही थी.पर वहां से भागने का कोई चारा न था सो मन मार कर बैठी रही. मेरा क्रमांक संभतः बत्तीसवां था.अपनी पारी की प्रतीक्षा में बैठी थी.
मुझे तो यूँ भी आस पास किसी से मतलब नही रहा करता था पर मेरा दुर्भाग्य था कि वहां अधिकाँश को मुझमे बड़ी दिलचस्पी थी और प्रत्येक दो तीन मिनट के अन्तराल पर महिलाएं मुझसे प्रश्न करने लगी.मुझे लगा आस पास की सभी महिलाओं में मैं शायद सबसे छोटी हूँ इसलिए मुझसे सहनुभूतिवस प्रश्न कर रही हैं.पर अधिकांशतः उनके प्रश्नों का आशय मैं समझ नही पा रही थी और मैं जो उत्तर उन्हें दे रही थी वह संभवतः उन्हें संतुष्ट नहीं कर पा रहा था..
उनका प्रश्न होता -
"शादी हो गई ??"मैं - जी नही." कौन सा महिना चल रहा है ?"" जी फरवरी " ........ उसके बाद वे एक दूसरे का मुंह देखने लगती थीं और फ़िर प्रश्न करती " तुम्हारा कौन सा महीना है ??? "
मैं निरुत्तर उनके मुंह देखने लगती और वे अगल बगल वालियों से फुसफुसाने लगतीं. मैं हैरान कि ये क्या पूछ रही हैं और ऐसे मुझे क्यों घूर रही हैं...
लम्बी प्रतीक्षा के बाद मेरी पारी आई.चिकित्सिका के कक्ष में एक साथ तीन मरीजों को भेजा जा रहा था.मैं दूसरे नंबर पर थी.जैसे ही मुझसे पहले वाली उस मुस्लिम महिला ने अपने कागज दिखाए वह अधेड़ खडूस सी चिकित्सिका उसके ऊपर उबल पड़ी.
फ़िर से आ गई ........मैं तुम्हे नही देखूंगी........जाओ अपने आदमी (पति) को बुलाकर लाओ.तुम्हे पिछली बार ही कहा था न कि अब और बच्चे पैदा नही करो.........ये तुम्हारा दसवां है न.........क्यों नही बंद करवाती???????
महिला ...... " जी हमारे मजहब में यह हराम है जी....हमें सब धरम से बहार निकाल देंगे.........मैंने अपने आदमी से कहा था पर उसने मुझे बहुत गलियां दी और छोड़ देने की धमकी भी..........मैं क्या करूँ......वह दूसरी शादी कर लेगा.........."
काफी देर तक दोनों उलझी रहीं और झुंझलाते हुए चिकित्सिका ने उसे डांटते डांटते ही मुझे आदेश दिया....
" खड़ी क्या हो, लेट जाओ........."
मैं चुपचाप जाकर बेड पर लेट गई.जब वो मुड़कर मेरी ओर आई और मुझे चुपचाप सावधान की मुद्रा में लेटे देखा तो फ़िर से उबल पड़ी........
लाख बार कहा तुमलोगों से कि साड़ी पहनकर आया करो और अगर सलवार पहनकर आना ही है तो पहले से खोल कर रखा करो........पर नही ..........केवल टाइम वेस्ट करना है मेरा.....
भयभीत मैं सुन रही थी,पर मेरी समझ में नही आ रहा था कि मैं सलवार क्यों खोलूं भला.
मैंने डरते डरते इंगित करते हुए कहा....
" जी, लेकिन मुझे तो तकलीफ यहाँ ऊपर है........."
अब चौंकने की बारी उसकी थी.
"ऊपर मतलब??"
"....मुझे घाव हो गया है."
चिकित्सिका - कहाँ घाव हुआ है????
मैंने हाथ से ईशारा किया........." यहाँ "
चिकित्सिका - " घाव हुआ तो यहाँ क्यों आई, मालूम नही यह गाइनिक डिपार्टमेंट है और आज के दिन केवल प्रेग्नेंट लेडी का चेकअप होता है..........किसने भेजा तुम्हे यहाँ.......... जाओ मेडिसीन या सर्जरी में दिखाओ.."
मैं उस से क्या कहती कि लेडी डाक्टर से दिखाने के लिए पिताजी ने मुझे यहाँ भेजा था.
अब बेचारे पिताजी भी क्या करते, मेडिसीन या सर्जरी डिपार्टमेंट में कोई महिला चिकित्सक न थीं और हमारे लिए तो डाक्टर मतलब डाक्टर होता था. तो क्या हुआ यदि वे प्रसूती विभाग में थीं.
आज लगता है ,बहुत ही अच्छा हुआ जो हमारा एक्सपोजर बहुत सारे सन्दर्भों, विशेषकर सेक्स संबन्धी परिपेक्ष्यों में नगण्य रहा. ऐसा नही है कि सिर्फ़ मैं ही ऐसी थी,उस समय सामाजिक परिवेश कुछ ऐसा था कि किशोर और युवा वय की बहुसंख्यक लड़कियां ऐसी ही होती थी.पर आज के परिपेक्ष्य में जब देखती हूँ तो एक धक्का सा जरूर लगता है.
स्कूल कालेजों में जो प्रयास यौन शिक्षा ( सेक्स एजुकेसन ) के लिए किया जा रहा है उसमे ज्ञान वर्धन कितना हो रहा है पता नहीं, पर ये बहुत हद तक " कामुद्दीपन" में सहायक या प्रयुक्त होते हैं. वैसे भी आज सेक्स शिक्षा कितनी प्रासंगिक रह गई है जबकि सिनेमा, इश्तेहार, पुस्तकें, इंटरनेट या अन्यान्य मध्यमो से, चारों ओर से ही उस अल्पवय मस्तिष्क पर इस प्रकार के दृश्य श्रव्य अवयवों की वर्षा सी हो रही है.अल्पवय में गुप्त ज्ञान का व्यापक ज्ञान कभी उपयोगी या श्रेयकर नहीं होता...हमें मिलकर इससे बचने का कोई उपाय अवश्य सोचना होगा,नहीं तो इसके परिणाम निश्चित ही घातक होंगे...
खैर ,कभी कभी जब निर्णय के लिए बैठती हूँ तो निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाती कि वह नादानी भली थी या आज की यह समझदारी... ।
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पोस्ट के प्रकाशन के उपरांत जब रंजू दी (रंजना भाटिया) की यह टिपण्णी देखी - (रंजना तुम्हारा यह संस्मरण बहुत से सवाल छोड़ गया ।वह वक़्त मासूम बहुत था ॥अपने शारीरिक बदलाव के बारे में भी पूछना ,बताना बहुत हिम्मत का काम होता था जो अक्सर हम कर ही नहीं पाते थे पर जिस तरह की तकलीफ तुमने भोगी वह भी विचारणीय है ॥आज के बच्चे बहुत सी बाते हमसे भी अधिक जानते हैं ..किसी भी शिक्षा का उद्देश्य सही दिशा में हो तो वह लाभकारी है ...पर यह भी उतना ही कड़वा सच है कि आज का खुला माहौल एक उन्मुक्त भयवाह वातावरण बना रहा है ..सेक्स शिक्षा के साथ साथ सही शारीरिक शिक्षा अपने स्वस्थ के प्रति सचेत रहना आज की जरुरत बनती जा रही है)
जिसने कि मुझे बहुत ही प्रभावित किया. तो लगा कि बात लम्बी अवश्य हो जायेगी पर इसे थोडा और विस्तार अवश्य दिया जाय...
रंजू दी की बात से मैं बहुत अधिक सहमत हूँ.संभवतः इस आलेख के माध्यम से मैं अपना आशय अभी तक स्पष्ट नहीं कर पाई थी.वस्तुतः जो उन्होंने कहा,वही मैं भी कहना चाह रही थी...अपने शरीर के प्रति अल्पज्ञता किस भांति हमें कष्ट में डाल देती थीं,इसके अनुभवों के भण्डार हैं हमारे पास.
शरीर का ज्ञान होना और उसके प्रति सजगता अत्यंत आवश्यक है,किन्तु शरीर का समय से पूर्व जग जाना...यह समाज को अस्वस्थ कर देता है...
जैसे प्राण रक्षक औसधि की भी नियत से अधिक मात्रा का सेवन प्राणघातक होता है,वैसे ही ज्ञान की मात्रा भी अवश्य ही वयानुसार नियत होनी चाहिए...
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24.3.09
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31 comments:
तीर कमान से निकल चुका है, अब कुछ नहीं हो सकता है! इसमें सिर्फ़ शिक्षा नहीं और भी बातें शामिल हैं। उन्हे यहाँ कहना उचित नहीं समझता!
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चाँद, बादल और शाम
गुलाबी कोंपलें
भोलापन ही भला था, व्यर्थ 'सलिल' चतुराई.
रंज रंजना ना करो, उल्टी नदी बहाई.
बच्चों को हमने दिया, बड़े बड़ों सा ज्ञान.
बचपन पल में खो गया, बाकी है नादान.
'सलिल' काश फिर फिर मिल सके, वह बचपन, वे मीत.
नफरत दूरी ख़त्म हो, शेष निकटता प्रीत.
बढ़िया संस्मरण लगे.
रंजना तुम्हारा यह संस्मरण बहुत से सवाल छोड़ गया .वह वक़्त मासूम बहुत था ..अपने शारीरिक बदलाव के बारे में भी पूछना ,बताना बहुत हिम्मत का काम होता था जो अक्सर हम कर ही नहीं पाते थे पर जिस तरह की तकलीफ तुमने भोगी वह भी विचारणीय है ..आज के बच्चे बहुत सी बाते हमसे भी अधिक जानते हैं ..किसी भी शिक्षा का उद्देश्य सही दिशा में हो तो वह लाभकारी है ...पर यह भी उतना ही कड़वा सच है कि आज का खुला माहौल एक उन्मुक्त भयवाह वातावरण बना रहा है ..सेक्स शिक्षा के साथ साथ सही शारीरिक शिक्षा अपने स्वस्थ के प्रति सचेत रहना आज की जरुरत बनती जा रही है
आप का संस्मरण कुछ ज्वलंत प्रश्न खडा करता है,........
मुझे नहीं लगता हो आज का दोर भी ठीक है, इन बातों को लेकर, खुले पन का मतलब आज फूहड़ पन हो गया है जो किसी भी तरह से उचित नहीं.
लड़की के इस कोण से सोचा ही नहीं। और कोई इंस्टेण्ट राय भी मन में बन नहीं पा रही।
शुक्रिया रंजना ......बाते बहुत सी विचारणीय है .चाहे हम जितना चाहे हर वक़्त बच्चो पर निगरानी नहीं रख सकते हैं ... उस से अधिक उपयुक्त यही है कि बड़े होते बच्चो से खुल कर हर विषय में बात की जाए ...बिना किसी झिझक के उन्हें हर तरह से शिक्षित किया जाए ,ताकि हर बात को वह खुले रूप से समझ सकें .उसकी अति से बच सके ....बाकी ज्ञान बांटने वाली चीजे तो आज के समाज में टीवी ,इन्टरनेट आदि बहुत आसानी से कर रहे हैं ..सही दिशा ,सही ज्ञान ही उनको इस अति से अपना भला बुरा समझा सकता है ...
बहुत ही बेहतर संस्मरण लिखा जो अपने आप सवाल भी खडॆ कर गया. और ऐसा नही है कि इनके जवाब नही हैं?
जवाब मुझे तो साफ़ यह लगता है कि वो पीढी एक सहज और प्राकृतिक रुप से बडी हुई है जिसमे सब पािवारीक सामाजिक संसकार समाये हुये थे और आज की पीढी एक ढकोसले मे बडी हुई पीढी है जिसके बारे क्या बात करना? सभी जानते हैं.
या सीधे शब्दों मे कहें ये पीढी इन मामलों मे भी समय पुर्व समझदार है.
रामराम.
रंजना जी, आपने प्रश्न तो खड़े किये हैं लेकिन इनके उत्तर भी सीधे-सीधे मिल जाने चाहिए। आपकी बातों से यहाँ तक तो सहमत हूँ कि ज्ञान प्राप्त करने की उम्र और समय के साथ सीमा तय होनी चाहिए, लेकिन आज तो हम से छोटे बच्चे ही हमें सिखाने लग जाते हैं, ऐसी परिस्थिति में हम क्या करें टीवी चैनलों के प्रति अपना विरोध दर्ज़ करें, युवाओं को हिन्दी फिल्में देखने से रोकें, युवतियों को अश्लील इश्तिहार में अपनी अवांछित तस्वीरें छापने को न कहें, या फिर मल्लिका शेहरावत और राखी सावंत जैसी आईटम गर्ल पर प्रतिबंध लगा दें। मेरी छोटी बहन हिन्दी में एम ए कर रही थी उसे अपने आखिरी समैस्टर में एक लड़का पसंद आ गया और मैं उससे रोज़ बाते करता था कि पहल पढ़ाई करो फिर नौकरी या अपना कोई काम स्थापित करो और फिर लड़के दो दौड़े-दौड़े आएंगे,मेरी बहन मुझे यह जवाब देकर चली गई कि उसे ज़िन्दगी में भला बुरा जानने की समझ है उसे समझाने की कोशिश न की जाए। ऐसे में क्या किया जाए ज्ञान पर प्रतिबंध कैसे लगाया जाए (मेरा ज्ञान से आशय उसे संदर्भ में जिस संदर्भ में आपने लिखा है)। उत्तर मिले तो मुझे अवगत कराएं मैं भी चिंतित हूँ।
रंजना जी, आपने प्रश्न तो खड़े किये हैं लेकिन इनके उत्तर भी सीधे-सीधे मिल जाने चाहिए। आपकी बातों से यहाँ तक तो सहमत हूँ कि ज्ञान प्राप्त करने की उम्र और समय के साथ सीमा तय होनी चाहिए, लेकिन आज तो हम से छोटे बच्चे ही हमें सिखाने लग जाते हैं, ऐसी परिस्थिति में हम क्या करें टीवी चैनलों के प्रति अपना विरोध दर्ज़ करें, युवाओं को हिन्दी फिल्में देखने से रोकें, युवतियों को अश्लील इश्तिहार में अपनी अवांछित तस्वीरें छापने को न कहें, या फिर मल्लिका शेहरावत और राखी सावंत जैसी आईटम गर्ल पर प्रतिबंध लगा दें। मेरी छोटी बहन हिन्दी में एम ए कर रही थी उसे अपने आखिरी समैस्टर में एक लड़का पसंद आ गया और मैं उससे रोज़ बाते करता था कि पहल पढ़ाई करो फिर नौकरी या अपना कोई काम स्थापित करो और फिर लड़के दो दौड़े-दौड़े आएंगे,मेरी बहन मुझे यह जवाब देकर चली गई कि उसे ज़िन्दगी में भला बुरा जानने की समझ है उसे समझाने की कोशिश न की जाए। ऐसे में क्या किया जाए ज्ञान पर प्रतिबंध कैसे लगाया जाए (मेरा ज्ञान से आशय उसे संदर्भ में जिस संदर्भ में आपने लिखा है)। उत्तर मिले तो मुझे अवगत कराएं मैं भी चिंतित हूँ।
बाते बहुत ही विचारणीय है इस बारे मे आपने अपनी पुरानी यादो के माध्यम से अपने विचार रखे । अच्छा लगा ।
सुंदर संस्मरण ... कल और आज में बहुत फर्क आया है ... हर प्रकार का ज्ञान अच्छा होता है ... पर आपने सही कहा कि .अल्पवय में गुप्त ज्ञान का व्यापक ज्ञान कभी उपयोगी या श्रेयकर नहीं होता...हमें मिलकर इससे बचने का कोई उपाय अवश्य सोचना होगा,नहीं तो इसके परिणाम निश्चित ही घातक होंगे...
bahut achha laga yaadon ko jan lena,aaj waqt badala hai,magar kuch nafa kuch nuksaan ke saath.
जैसा कि किसी जंगल में निवास करने वाले सीधे साधे वन्य पशु की शहर के भीड़ भाड़ वाले सड़क पर आने पर होती है.वाह रंजना जी मेरा भी यही हाल होता है आज भी, जब मै आज के झुठे सामाज के साथ होता हुं तो मेरा भी दम गुटने लगता है, आप का लेख बहुत सी यादे याद दिला गया.
वो जमाना मेरे पास आज भी है हम पहले वाले ३० साल अपने साथ यहां लाये थे, जो आज तक सहेज कर रखे है, ओर बिलकुल नही बदले वही संस्कार, मेरे मे हमारी बीबी मै, ओर बच्चो मे भी है, आज के भारतीया शायद हमे गवांर समझे, लेकिन हमे यही प्यारे है.... ओर जब आज भारत मै इन सब बातो के लिये बहस देखते है, उलटे सीधे भाषाण वाजी देखते है तो बस हंस पडते है , वो जमाना बहुत भला था, आज के इस जमाने से तब दिखाबा नही था, कर्ज को अभिशाप समझते थे, ओर आज दिखावा ही दिखावा है कर्ज को सम्मान समझते है लोग, नगे पन को फ़ेशन, बेशर्मी को आजादी, पहले मोहल्ले की लडकी बहन होती थी..... पता नही किस ओर जा रहे है हम????
धन्यवाद इस बहुत ही सुंदर लेख के लिये
संस्मरण प्रेरणाप्रद और रोचक भी है।
इसी प्रकार के और भी संस्मरण प्रकाशित करें। शुभकामनाओं सहित।
सच कहूँ आपने आज हिंदी ब्लॉग जगत की एक सीमा रेखा को पुरजोर तरीके से तोडा है ओर अभिव्यक्ति के सही अर्थ को मायने दिए है .हिंदी ब्लॉग जगत की यही चीज थी जिसे मै अक्सर मिस करता था ...शायद लोग अपने शब्दों को कण्ट्रोल करके विम्बो की सहायता से बात करते थे .
.आपने अपने संस्मरण के बहाने जो प्रश्न खड़े किये है वे आज भी अनुउत्तर है .ओर एक चिकित्सक होने के नाते गाहे बगाहे .मै आज भी उन परिस्थितियों से गुजरता हूँ जिनका आपने जिक्र किया है .बहुत ज्यादा तो नहीं पर अक्सर.....आपके संस्मरण के बहाने कई मुद्दों पर विस्तार से चर्चा की आवश्यकता है .
वाकई रंजना जी.......बहुत साहस भरे विचारों को रखा है,जो प्रशंसनिए है....
bahut khoob!
मेरा आपसे एक ही अनुरोध है कि कृपया साइंस ब्लॉग पर आज २६-३-०९ को मेरे द्वारा किया गया निवेदन पढने की कृपा करें
संस्मरण प्रेरणाप्रद है,आपने सही कहा कि अल्पवय में गुप्त ज्ञान कभी उपयोगी या श्रेयकर नहीं होता...
शुभकामनाओं सहित।
रंजना जी आप ने यह संस्मरण बहुत ही अच्छी तरह से प्रस्तुत किया है.अब बच्चे और अभिभावकों के बीच वह दूरी नहीं है जो पहले हुआ करती थी.अब बच्चे अपनी जिज्ञासा बताते हैं लेकिन फिर भी यह देखना जरुरी है की उन्हें जो भी सेक्स या शारीरिक ज्ञान यहाँ वहां से मिल रहा है वह अधकचरा न हो.
अपने शरीर के बारे में जानना सभी के लिए जरुरी है.उस में होने वाले परिवर्तनों के बारे में भी जानना जरुरी है.आज कल ११-१२ साल की लड़कियों को स्कूलों में माहवारी के बारे में विशषज्ञों द्वारा जानकारी दी जाती है जो बहुत अच्छी बात है.सही जानकारी होने से उनमें आत्मविश्वास आता है .शारीरिक growth और development की सही जानकारी ,सही समय mein बच्चों को जरुर देनी चाहिये.
हम इस अहम् पोस्ट को मिस कर गए थे. बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दे को सहजता से आपने प्रस्तुत किया है. आभार.
मैं पहले देख नही पाया था.. कल रात अनुराग जी ने कहा पढ़ो.. फिर सुबह आपका एस एम एस देखते ही नोट कर लिया पढ़ना है और देखिए फिर भूल गया.. अब पढ़ा है.. और यकीन मानिए जो मुझे इस संस्मरण को पढ़कर लगा है उसे मैं बता नही सकता.. आपने अपने संस्मरण के माध्यम से इतने सारे सवाल खड़े किए है जो आज भी अनुतरित है..
सेक्स एजुकेशन ज़रूरी भी है.. पर अति हर चीज़ की ग़लत है.. हालाँकि कोई एजुकेशन दे या नही.. संचार माध्यमो के बढ़ते कदम सबकुछ सीखा ही देते है..
बहुत सारी बाते है जो उथल पुथल मचा रही है दिमाग़ में.. पर अभी समय नही है लिख पाने का.. शायद किसी और तरह से इसे समेटने का प्रयास करू कभी..
no comments.
Ek sarthak post ke liye sadhuvad !!
नव संवत्सर २०६६ विक्रमी और नवरात्र पर्व की हार्दिक शुभकामनायें
समय की बात है रंजना जी । कभी-कभी मै भी सोचता हू कि आज की युवा पीढ़ी कितनी तेज औऱ चालाक हो गयी है जिसे हर चीज की जानकारी हमलोगो से ज्यादा है । अपने उम्र से ज्यादा उसकी उम्र हो चली है अपने अगली पीढ़ी से ज्यादा उसे सेक्स और अन्य विषय की जानकारी है । लेकिन यह जानकारी उसे किस मुकाम पर ले जा रही है मुझे मालूम नही है इस पीढी़ ने अपने को किस कदर ढाल रखा है शायद उसे अभी पता न हो लेकिन पता चल जाएगा । आज के युवा-युवतिया सेक्स का मायने क्या समझती है इसकी मिशाल शहरो में देखने को खूब मिलती है । आपका ये पोस्ट मुझे बहुत अच्छा लगा शुक्रिया
रंजना जी आप ने एक बेहद जरुरी मुद्दे पर सवाल उठाया है. हम शरीर को शरीर क्यों नहीं समझते यहाँ मर्द और औरत की बात कब आती है. आप का संस्मरण ने कई मायने में लाजवाब है
बेहतरीन संस्मरण... एकदम प्रासंगिक सा.. वाह..
आज भी कस्बों और गावों में महिलाएं संकोच ,अज्ञान और स्वास्थ्य सुविधाओं के आभाव के कारण gambhirस्त्री रोगों से जूझ रहीं है .
बेहतरीन संस्मरण
apke sansmaran pe kuch kahna to muskil hai..kyuki alpgyani huN par
is sansmaran ke madhaym se aapko jaanne ka avsar jaroor mila .
रंजना जी,मैंने अभी अभी आपका संस्मरण पढा।जो हाल उस समय था कमोवेश लड़कियों के सन्दर्भ में आज भी वैसा है।आज भी ये हिचक है कि अविवाहित लड़की किसी पुरुष डाक्तर से अपना चैक अप कराना नहीं चाहती।और अस्पतालों मेंभी यदि कोइ लड-की अपने अभिवावकों के साथ स्त्री रोग विशेषग्य के पास जाती है तो उसे भी उन्हीं तिप्पणियों का स्वागत करना पढता है,जिनका आपने किया।
दर असल इस सबके पीछे यह धारणा काम करती है कि लड़्कियां केवल प्रसब सम्बन्धी समस्याओं के लिये ही वहां जाती है। खैर मेरे भी अनुभव आपके समान है।हमें इसी व्यवस्था के बीच अपना रास्ता खोजना है और मैं कम से कम इस तरह की वाहियात तिप्पणियों को अपने जीवन में कोइ स्थान नहीं देती।यह शरीर हमारा है और इसकी पूरी - पूरी रक्षा करना हमारा दायित्व है।
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