14.5.09

सुख का मार्ग !!!

समाचार पत्र के साथ भी बड़ी विचित्र विडंबना है...सुबह के पहली किरण के साथ जितनी उत्सुकता और स्नेह से इसका स्वागत होता है,पाठोपरांत उतनी ही निर्ममता से इसका तिरस्कार भी होता है..परन्तु इन समाचार पत्रों में बहुत कुछ कभी न पुराने पड़ने तथा सहेजने योग्य सामग्री होती हैं,जो चाहे कितनी भी तिथियाँ बदल जायं अपनी उपयोगिता और प्रासंगिकता नहीं खोती...


ऐसे ही सफाई के क्रम रद्दी में पड़े पुराने समाचार पत्र के एक आलेख ने मन और आँखों को बाँध लिया..


समाचार था - तीन विवाहित पुत्रियों और नाती नतिनियों वाली सड़सठ वर्षीय नंदिता विश्वास ने बी.ए. आनर्स की परीक्षा दी.नंदिता पश्चिमी मेदिनीपुर जिले के खड़गपुर शहर के वार्ड नंबर अठारह के मलिंचा में रहती हैं.माध्यमिक व जूनियर बेसिक की ट्रेनिंग के बाद नंदिता ने एक सरकारी विद्यालय में अध्यापन कार्य आरम्भ किया.१९८३ से २००३ तक उन्होंने अध्यापन कार्य किया और सेवानिवृति उपरांत उच्च शिक्षा प्राप्त करने के अपने उस अधूरे स्वप्न को जो कि पारिवारिक एवं शैक्षणिक दायित्वों के व्यस्तता क्रम में अपूर्ण रह गया था,उसे पूर्णता प्रदान करने का संकल्प लिया...


पहले तो जिसने भी सुना, सबने उनका उपहास उड़ाया और पर्याप्त हतोत्साहित किया.परन्तु उनके दृढ संकल्प को देखकर परिवार वालों ने इन्हें सहयोग दिया .बाईस फरवरी २००९ से नेताजी ओपन यूनिवर्सिटी द्वारा आयोजित परीक्षा में उन्होंने बी ए आनर्स में समाज शास्त्र विषय से परीक्षा दी.नंदिता न केवल अपने सफलता के प्रति आश्वस्त हैं बल्कि उतीर्ण होकर आगे भी पढाई जारी रखने को दृढ संकल्प भी हैं...


हो सकता है बहुत लोगों को यह मूर्खता पूर्ण और व्यर्थ लगे,क्योंकि अधिकांशतः शिक्षा को लोग आत्मकल्याण आत्मोत्थान का नहीं धनार्जन का ही साधन मानते हैं.परन्तु नंदिता जैसे लोग परिवार समाज को प्रेरणा देते हैं,नयी राह दिखाते हैं और सही मायने में ऐसे ही लोग जीवन को सच्चा आदर देकर उसे सार्थकता देते हैं.


जीवन जीने और उसमे भी सुखपूर्वक जीने के लिए जितना महत्वपूर्ण स्वस्थ शरीर और धन की आवश्यकता है, आत्मसंतोष और अपने होने की सार्थकता अनुभूत करना,उससे भी अधि़क आवश्यक है.. यूँ तो किसी भी उम्र में जीवन को सुखद आत्मसंतोष ही बनाता है, परन्तु जीवन के उतरार्ध में जिजीविषा के लिए सार्थक सकारात्मक लक्ष्य निर्धारण एवं आत्मसंतुष्टि परम आवश्यक है..


दो ढाई वर्ष की अवस्था में ही शिक्षण में संलिप्त हुआ बालपन समय के साथ उत्तरोत्तर व्यस्त से व्यस्ततम होता चला जाता है.वय के साथ उत्तरदायित्व बढ़ता ही जाता है और कहीं न कहीं उसीमे व्यक्ति अपने होने की सार्थकता ढूंढ लेता है.गृहस्थी के प्रारंभ से लेकर अगली पीढी के तैयार होने और उनकी गृहस्थी बसने तक स्त्री पुरुष परिवार के केंद्र में होते हैं.समस्त परिवार घटनाक्रम और हित अनहित के निर्णय व्यक्ति की मुठ्ठी में होते हैं और एक तरह से परिवार रुपी साम्राज्य के वे स्वामी/स्वामिनी हुआ करते हैं...


परन्तु अगली पीढी के परिवार विस्तार के साथ ही जैसे जैसे इनका उत्तरदायित्व संक्षिप्त होने लगता है, इनके पास रिक्त समय की बहुलता रहने लगती है और अगली पीढी द्वारा स्वविवेक से लिए जाने वाले निर्णय के क्रम में ये स्वयं को निर्णायक भूमिका में नहीं पाते, घोर उपेक्षित अनुपयोगी अनुभूत करने लगते हैं. अनजाने ही इनके मनोभाव कुछ इस प्रकार होने लगते हैं जैसे, इनके इर्द गिर्द दूसरे राज्य पनपने लेगे हैं,जिनपर इनका कोई वश नहीं.अबतक परिवार पर एकक्षत्र शासन का अभ्यास क्रम जैसे ही बाधित होता है,व्यक्ति सहजता से स्वयं को सम्हाल नहीं पाता और विचलित होता हुआ अवसादग्रस्त हो जाता है.भाग दौड़ में फंसे युवा वर्ग के पास न तो इनके मन की सुनने जानने का समय होता है न धैर्य. व्यक्ति अपने ही परिवार के बीच स्वयं को अवांछित अनुपयोगी पाता है,तो तिलमिला जाता है.यदि पहले से इसके लिए मानसिक रूप से तैयार न हो और जबरन सत्तासीन होने का प्रयत्न करने लगता है तो घर की शांति पूर्णतया बाधित होती है.


स्त्रियों की तो इस मामले में और भी दयनीय स्थिति होती है.क्योंकि आम तौर पर पुरुष अपनी संलिप्तता घर के बाहर भी ढूंढ लेते हैं,परन्तु स्त्रियाँ घर संसार के बाहर स्वयं को निकाल ढाल नहीं पातीं.लक्ष्यहीनता और संसारिकता का मोह इन्हें पुराने अभ्यास को बदलने का न तो नया कारण ढूँढने देता है और न ही अपने अवसाद और उग्रता पर इनका वश होता है.फलतः बहुधा ही नयी पीढी के काम में मीन मेख निकाल उन्हें नीचा दिखा ये स्वयं को श्रेष्ठ साबित कर आत्मसंतोष पाने में जुट जाती हैं.


सहज ही अनुमानित किया जा सकता है कि स्वयं को उपेक्षित अनुभूत करते व्यक्ति के पास लक्ष्य रूप में जब मृत्यु की प्रतीक्षा ही रह जाय तो मनोस्थिति कितनी त्रासद होगी।आज पारिवारिक सामाजिक ढांचा जिस प्रकार बदलता जा रहा है, पूरे विश्व में यह त्रासद स्थिति और भी चिंताजनक होती जा रही है. वय का अवसादग्रस्त चौथपन जीवन को भार सा बना देता है और फिर अवसादग्रस्त व्यक्ति आत्मकेंद्रित हो अपने ही सहेजे संजोये उस परिवार की सुख शांति को भी छिन्न भिन्न करने लगता है.

व्यक्ति ,परिवार और समाज को सुव्यवस्थित रखने हेतु इन्ही कारणों से प्रबुद्ध मनीषियों ने वय के उत्तरार्ध के लिए संन्यास तथा वानप्रस्थ आश्रम की व्यवस्था की थी।अपने अगली पीढी को उतरदायित्व सौंपने के बाद संन्यास ले लिया जाता था.परन्तु संन्यास का तात्पर्य यह नहीं था कि गृह त्याग कर दिया जाय.संन्यास का तात्पर्य था उत्तरदायित्व सौंपने के उपरांत गृहस्थी में ही रहकर संसारिकता के प्रति निर्लिप्त भाव रखना.उत्तराधिकारियों को उनके अग्रहनुसार अपेक्षित मार्गदर्शन देना और अपने आत्मोत्थान के मार्ग पर जीवन को अग्रसर करना.वानप्रस्थ का तात्पर्य था,परिवार से आगे बढ़ समाज तथा अन्य जीव जंतुओं के संरक्षण ,उनकी सेवा में प्रवृत्त होना॥

मन और मष्तिष्क का वय शरीर से बंधा नहीं होता.इसी कारण शरीर की अवस्था से यह किंचित भी अक्षम या बाधित नहीं होता.परन्तु मन मष्तिष्क को यदि निश्चेष्ट रखने का प्रयास किया जायेगा,बलपूर्वक उसे निर्लिप्त रखने का प्रयास किया जायेगा तो वह विद्रोह करेगा ही.इसलिए आवश्यक है कि उसे सकारात्मक कारणों में संलिप्तता दी जाय.एक बार जब उत्तरदायित्व पूर्ण हो गया तो फिर अपने पुराने अधूरे पड़े संकल्पों रुचियों जिसमे आत्मिक आनंद मिलता हो,उसमे संलिप्त हुआ जाय..संगीत ,साहित्य,बागबानी,भ्रमण,सीना पिरोना,पाक कला,इत्यादि इत्यादि न जाने कितने ही कार्य हैं जिसमे व्यक्ति स्वयं को संलिप्त कर सकता है तथा जिन्हें साध व्यक्ति आत्मसंतोष भी पा सकता है और दूसरों को भी ज्ञान और प्रेरणा दे सकते हैं..परोपकार के कार्यों में अपना समय लगा परम संतोष पा सकता है.. ऐसे उपाय .जिजीविषा को कभी क्षीण नहीं पड़ने देते.


मनुष्य चाहे तो अंतिम सांस तक अपने आस पास को बहुत कुछ दे सकता है...और कुछ नहीं तो दो मीठे बोल देकर किसी को भी सुख तो दे ही सकता है और बदले में अकूत संतोष रुपी धन अर्जित कर सकता है.लेकिन यह तभी संभव है जब व्यक्ति स्वयं प्रसन्न और संतुष्ट हो.स्वयं को सुखी करने का साधन कहीं बाहर नहीं हमारी अपनी मुट्ठी में ही है,बस खुले हाथों को बांधकर भींच लेना है..अपने अहम् को दरकिनार कर ,ह्रदय को थोडा बड़ा कर उसमे स्नेह का सागर भरना है,फिर चहुँ और स्नेह ही तो बिखेरेगा मनुष्य.


जिसने आज जन्म लिया उसे भी और जिसने चालीस पचास वर्ष पहले जन्म लिया उसे भी,जीवित बचा तो उसी मोड़ पर पहुंचना है और आगे जाना है,जिसे बुढापा कहते हैं..यदि उम्र के दूसरे तीसरे पड़ाव से ही चौथेपन की तैयारी कर ले , तो सहजता से व्यक्ति उस कष्टदायक अवांछित स्थिति से बच सकता है.

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36 comments:

कुश said...

मेरी तो कोशिश यही रहती है कि तमाम व्यस्तताओ के बाद भी अपनी रूचि के कार्य निपटाता जाऊ. पता नहीं मेरे उत्तरदायित्व कब ख़त्म होंगे :)

वैसे अखबार के लिए जो आपने लिखा है वो चकित करता है.. मैंने कभी इस तरह से क्यों नहीं सोचा..?

आप बहुत दिनों से नज़र नहीं आ रही है.. क्या बात है ?

Alpana Verma said...

नंदिता जी जैसी महिलाएं समाज में दूसरो के लिए भी प्रेरणा बन जाती है.शुरू में ऐसे लोगों का उपहास जरुर उदय जाता होगा मगर फिर उन्हीं का अनुसरण करने वाले आगे आ कर नयी मिसाल बनाते हैं.
अपने अधूरे खवाबों को जब मौका मिले पूरा करते रहने का प्रयास करते रहना चाहिये.
आप ने यह बहुत सही लिखा है--'और कुछ नहीं तो दो मीठे बोल देकर किसी को भी सुख तो दे ही सकता है और बदले में अकूत संतोष रुपी धन अर्जित कर सकता है.'

दिगम्बर नासवा said...

रंजना जी
बहुत समय बाद आपका लेख पढने को मिला..........मैं पूरी तरह से सहमत हूँ आपकी इस बात से की आज के दौर में विशेष कर भारत में ५०-५५ के बाद स्त्रियाँ और कुछ हद तक पुरुष भी ये मान बैठते हैं की अब उनका समय निकल गया...........कुछ करने को, कुछ सीखने की वो जरूरत नहीं समझते........लगता है जैसे सब कुछ ख़त्म...........आमने आप को अनुपयोगी मानने लगते हैं......... केवल बुढापे को कोसते या उसकी प्रतीक्षा करते...........
समाज में बदलाव लाने की जरूरत है...........जो केवल ऐसे ही लोग ला सकते हैं जो इस दौर में हैं..........क्यूंकि शायद वो ही अनुभव में भी सबसे आगे हैं अपनी उम्र की वजह से

Dr. Ravi Srivastava said...

आज मुझे आप का ब्लॉग देखने का सुअवसर मिला। वाकई आपने बहुत अच्छा लिखा है। आप की रचनाएँ, स्टाइल अन्य सबसे थोड़ा हट के है...ज्यादा क्या लिखूं...दिगंबर जी से मै भी सहमत हूँ. बधाई स्वीकारें।

आप मेरे ब्लॉग पर आए और एक उत्साहवर्द्धक कमेन्ट दिया, शुक्रिया.

आप के अमूल्य सुझावों और टिप्पणियों का 'मेरी पत्रिका' में स्वागत है...

Link : www.meripatrika.co.cc

…Ravi Srivastava

निर्झर'नीर said...

अधिकांशतः शिक्षा को लोग आत्मकल्याण आत्मोत्थान का नहीं धनार्जन का ही साधन मानते हैं.

katu satya
ek lambe arse ke baad aapka lekh padhne ko mila ..har baar ki tarah samaj ko disha deti hui lekhni.

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

रंजना जी।
आपने वास्तव में बढ़िया कथानक प्रस्तुत किया है।
बधाई स्वीकार करें।

Udan Tashtari said...

मनुष्य चाहे तो अंतिम सांस तक अपने आस पास को बहुत कुछ दे सकता है...बिल्कुल सही कहा..सीखने और सिखाने की कोई उम्र नहीं होती. बहुत से कोर्स ऐसे मेरी लिस्ट में आज दर्ज हैं जिन्हें मैं रिटायरमेन्ट के बाद समय निकाल कर करना चाहूँगा.

बहुत सार्थक आलेख, बधाई.

अभिषेक मिश्र said...

Vakai siksha ka mahatwa sirf dhanarjan tak simit nahin hona chahiye.

Anonymous said...

Ranjana ji,
Dridh ichha shakti ka pratyaksh udaharan ukera hai apne.

निर्मला कपिला said...

rachnaji apne bahut hi badiya prerak prasng likha hai apka alekh bahut hi sashakt aur sab ko rah dikhane vala hai apne sach kaha hai mujhe aaj lagta hai ki agar retire hone ke bad mai ye likhna shuru na karti to shayad akele me soch soch kar bimar hi rehti fir seekhne ki koi umar nahi hoti jindadili antim saans tak bani rahe tabhi admi jindagi ka litf ythha sakta hai bahut badiya likhti hain aap badhai

महेन्द्र मिश्र said...

"मनुष्य चाहे तो अंतिम सांस तक अपने आस पास को बहुत कुछ दे सकता है...और कुछ नहीं तो दो मीठे बोल देकर किसी को भी सुख तो दे ही सकता है और बदले में अकूत संतोष रुपी धन अर्जित कर सकता है.लेकिन यह तभी संभव है जब व्यक्ति स्वयं प्रसन्न और संतुष्ट हो"

सुखी वही है जो अपना सुख दूसरो को भी बांटे और दूसरो के दुःख में सहभागी हो . बहुत सुन्दर विचारणीय पोस्ट.

Anonymous said...

मेरी भी कुछ रुचियाँ, जो किसी वजह से छूट गयी थीं... इस आलेख को पढने के बाद सोचता हूँ शुरू कर लूं.

आभार आपका .

रंजू भाटिया said...

करने की ,जीने की ,और जो सोचा है उस इच्छा को पाने की ... इच्छा हो तो उम्र बाधा नहीं बन सकती ..कुछ समय पहले एक बाप बेटे का भी एक साथ दसवीं कक्षा के पेपर एक साथ देने की बात पढ़ी थी ...और इस बात को कौन नकार सकता है की ख़ुशी का एक पल देने से ख़ुशी और बढती है .. बहुत अच्छा लगा आपका यह लेख

Prakash Badal said...

रंजना जी आपकी रजनाएँ एक संदेश तो देती ही हैं, मुझे तो भीतर भीतर खंगालती हैं ऐसा लगता है मानो मेरी ही तफ्तीश कर रही हों

ताऊ रामपुरिया said...

और कुछ नहीं तो दो मीठे बोल देकर किसी को भी सुख तो दे ही सकता है और बदले में अकूत संतोष रुपी धन अर्जित कर सकता है.'

बहुत सही कहा आपने. और जीवन तो चलते रहने का ही नाम है. तो फ़िर उम्र कहां बाधक है?

रामराम.

विजय तिवारी " किसलय " said...

सुन्दर , ज्ञान वर्धक, और प्रभावी प्रस्तुति है, रंजना जी.
- विजय

संगीता पुरी said...

सांसारिक सफलता के लिए कई जगहों पर हमें समझौता भी करना पडता है .. पर अपनी रूचि के अनुसार काम करना सचमुच सुख और आनंद का मार्ग है .. हमें इसके लिए अवश्‍य समय निकालना चाहिए।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

अकूत संतोष रुपी धन -
कितना बडी बात कही आपने
रँजना जी -
आपका लिखा हमेशा पसँद आता है
बहुत स्नेह के साथ,
- लावण्या

kumar Dheeraj said...

कदम चूम लेगी खुद बढ़ के मंजिल
मुसाफिर अगर अपनी हिम्मत ना हारे
कहने को यह शेर बहुत कुछ कहती है । लेकिन लोग समझने लगते है कि उनका समय अब खत्म हो गया है । सच यह है कि अपनी जिन्दगी में लोग कभी भी शुरूआत कर सकता है । खासकर पढ़ने की तो कोई उम्र ही नही होती है फिर इसमें आश्चर्य किस बात की । बहुत दिनों के बाद अच्छा लेख पढ़ने को मिला शुक्रिया

Neeraj Kumar said...

रंजना जी,
एक विचारशील रचना है. अख़बारों की महत्ता एवं हमार व्यव्हार पर तो लिखा ही साथ ही एक समाचार को इतनी खोब्सुरती से स्मरणीय बना दिया... धन्यवाद

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

मन में अगर कुछ करने या सीखने का जज्बा हो तो उम्र आडे आ ही नहीं सकती......

एक अच्छे विषय पर बहुत ही बढिया तरीके से लिखा आपने......आभार

रश्मि प्रभा... said...

बहुत ही अलग हटकर लिखा है आपने......

रचना त्रिपाठी said...

बहुत सुन्दर आलेख है आपका। इसे पढ़ने के बाद मन का उत्साह बढ़ गया है।

शोभना चौरे said...

bhut hi sarthak lekh prerna dayk alekh jeevan ko jeevan dene vala lekh .
badhai

शोभना चौरे said...

bhut hi sarthak lekh prerna dayk alekh jeevan ko jeevan dene vala lekh .
badhai

डॉ .अनुराग said...

हम तो एक ही बात कहेंगे रंजना जी .जिंदगी जीने की कोई उम्र नहीं होती.....

समयचक्र said...

बहुत बढ़िया . आपकी चिठ्ठे की चर्चा समयचक्र में

Neha said...

aapke blog ke dwara bahut hi sandesh mila.aasha hai ki aage bhi is tarah ke lekh padhne ko milte rahenge.mere blog main aane ke liye dhanyawaad.aapko'yugandhar' padhne ke liye yahaan se mil sakti hai:

Neha said...

aap google main yugandhar shiwaji sawant se serch karke book manga sakti hain.sorry,main yahaan link nahi daal pa rahi hoon.

"MIRACLE" said...

bhut achcha lekh padhne ko mila uske liye dhanyawaad.kabhi hamre blog par bhi dastak de.

योगेन्द्र मौदगिल said...

Wah....बेहतरीन

Gyan Dutt Pandey said...

नन्दिता विश्वास जी का चरित्र तो बहुत प्रेरक है। सच में कुछ करने के लिये उम्र की बाधा तो सिर्फ मन की सोच है।
जो करना हो, कर लेना चाहिये!

Science Bloggers Association said...

Sahi salaah di aapne. par log is baat ko bhool hi jate hain.

-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

Prem Farukhabadi said...

रंजना जी,
बधाई !बधाई !!बधाई !!!

अनुपम अग्रवाल said...

बहुत अच्छा सन्देश देती रचना ...

एक अलग तरह की ..

हिमांशु{''हरीश ''} बिष्ट दिल्ली (उत्तराखंड) said...

Bahut hi sunder soch hai aapki!
Kya me bhi tumhare tarah ban sakta ho aunti.?