अतिविनाम्रतापूर्वक मैं स्पष्ट कर देना चाहती हूँ कि मैं कोई योग विशेषज्ञ नहीं और न ही मुद्रा चिकित्सा में मैंने कोई विशेषज्ञता प्राप्त की है..ईश्वर की असीम अनुकम्पा से बाल्यावस्था से ही अपने परिवेश तथा अन्यान्य श्रोतों से शरीर तथा मन को सात्विकता से जोड़कर जीवन में सच्चे सुख प्राप्ति के साधनों के विषय में जानने का महत सुअवसर मिला..
मेरे पिताजी योग से जुड़े थे और उनके पास योग की अनेक पुस्तकें थीं. उन्हें क्रियायें / मुद्राएँ करते देखा करती तथा उन पुस्तकों को भी यदा कदा उल्टा-पुल्टा करती थी..परवर्ती वर्षों में अध्यात्म के साथ साथ "रेकी ", "आर्ट ऑफ़ लिविंग" इत्यादि के प्रशिक्षण क्रम में भी मुद्रा चिकित्सा के विषय में बहुत कुछ जानने-सुनने तथा सीखने का सुअवसर मिला...
इसके विस्मयकारी सकारात्मक प्रभाव को प्रत्यक्ष ही अपने जीवन में मैंने अनुभव किया है..और आज इसे उत्सुक परन्तु अनभिज्ञ लोगों के कल्याणार्थ प्रेषित कर रही हूँ. मनुष्य अपने जीवन में प्रत्येक उपक्रम सुख प्राप्ति हेतु ही तो करता है,पर चूँकि उसकी समस्त चेष्टाएँ सदा ही सकारात्मक दिशा में नहीं रहतीं, फलस्वरूप सुख के स्थान पर दुःख उसके हाथ आता है.
इस विधा पर सचित्र विस्तृत विवरण किसी भी मुद्रा चिकित्सा या योग मुद्रा की पुस्तक में जिज्ञासु सहज ही पा सकते हैं...
हमें तो प्रशिक्षण क्रम में यही निर्देशित किया गया था कि किसी भी मुद्रा को अपरिहार्य लाभ हेतु न्यूनतम चालीस मिनट करना चाहिए,परन्तु मैंने अनुभूत किया है कि कभी कभार व्यस्तता वश यह समय सीमा यदि संकुचित भी हो जाती है तो अल्पकाल में भी लाभ मिलता ही है.समयाभाव के बहाने इसे पूर्णतः टालना उचित नहीं रहता..
2. अपान मुद्रा :- अंगूठे से दूसरी अंगुली (मध्यमा) तथा तीसरी अंगुली (अनामिका) के पोरों को मोड़कर अंगूठे के पोर से स्पर्श करने से जो मुद्रा बनती है,उसे अपान मुद्रा कहते हैं..
लाभ - यदि मल मूत्र निष्कासन में समस्या आ रही हो,पसीना नहीं आ रहा हो,तो इस मुद्रा के चालीस मिनट के प्रयोग से इस अवधि के मध्य ही शरीर से प्रदूषित विजातीय द्रव्य निष्काषित हो जाते हैं.देखा गया है कि जब औषधि तक का प्रयोग निष्फल रहता है, इस मुद्रा का प्रयोग त्वरित लाभ देता है..
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3. शून्य मुद्रा :- अंगूठे से दूसरी अंगुली (मध्यमा,सबसे लम्बी वाली अंगुली) को मोड़कर अंगूठे के मूल भाग (जड़ में) स्पर्श करें और अंगूठे को मोड़कर मध्यमा के ऊपर से ऐसे दबायें कि मध्यमा उंगली का निरंतर स्पर्श अंगूठे के मूल भाग से बना रहे..बाकी की तीनो अँगुलियों को अपनी सीध में रखें.इस तरह से जो मुद्रा बनती है उसे शून्य मुद्रा कहते हैं..
लाभ - इस मुद्रा के निरंतर अभ्यास से कान बहना, बहरापन, कान में दर्द इत्यादि कान के विभिन्न रोगों से मुक्ति संभव है.यदि कान में दर्द उठे और इस मुद्रा को प्रयुक्त किया जाय तो पांच सात मिनट के मध्य ही लाभ अनुभूत होने लगता है.इसके निरंतर अभ्यास से कान के पुराने रोग भी पूर्णतः ठीक हो जाते हैं..
इसकी अनुपूरक मुद्रा आकाश मुद्रा है.इस मुद्रा के साथ साथ यदि आकाश मुद्रा का प्रयोग भी किया जाय तो व्यापक लाभ मिलता है.
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4. सूर्य मुद्रा :- अंगूठे से तीसरी अंगुली अनामिका (रिंग फिंगर) को मोड़कर उसके ऊपरी नाखून वाले भाग को अंगूठे के जड़ (गद्देदार भाग) पर दवाब(हल्का) डालें और अंगूठा मोड़कर अनामिका पर निरंतर दवाब(हल्का) बनाये रखें तथा शेष अँगुलियों को अपने सीध में सीधा रखें.....इस तरह जिस मुद्रा का निर्माण होगा उसे सूर्य मुद्रा कहते हैं...
लाभ - यह मुद्रा शारीरिक स्थूलता (मोटापा) घटाने में अत्यंत सहायक होता है...जो लोग मोटापे से परेशान हैं,इस मुद्रा का प्रयोग कर फलित होते देख सकते हैं..
( अनामिका को महत्त्व लगभग सभी धर्म सम्प्रदाय में दिया गया है.इसे बड़ा ही शुभ और मंगलकारी माना गया है.हिन्दुओं में पूजा पाठ उत्सव आदि पर मस्तक पर जो तिलक लगाया जाता है,वह इसलिए कि ललाट में जिस स्थान पर तिलक लगाया जाता है योग के अनुसार मस्तक के उस भाग में द्विदल कमल होता है और अनामिका द्वारा उस स्थान के स्पर्श से मस्तिष्क की अदृश्य शक्ति जागृत हो जाती हैं,व्यक्तित्व तेजोमय हो जाता है)
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5. वायु मुद्रा :- अंगूठे के बाद वाली पहली अंगुली - तर्जनी को मोड़कर उसके नाखभाग का दवाब (हल्का) अंगूठे के मूल भाग (जड़) में किया जाय और अंगूठे से तर्जनी पर दवाब बनाया जाय ,शेष तीनो अँगुलियों को अपने सीध में सीधा रखा जाय...इससे जो मुद्रा बनती है,उसे वायु मुद्रा कहते हैं.
लाभ - वायु संबन्धी समस्त रोग यथा - गठिया,जोडों का दर्द, वात, पक्षाघात, हाथ पैर या शरीर में कम्पन , लकवा, हिस्टीरिया, वायु शूल, गैस, इत्यादि अनेक असाध्य रोग इस मुद्रा से ठीक हो जाते हैं. इस मुद्रा के साथ कभी कभी प्राण मुद्रा भी करते रहना चाहिए...
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6. प्राण मुद्रा :- अंगूठे से तीसरी अनामिका तथा चौथी कनिष्ठिका अँगुलियों के पोरों को एकसाथ अंगूठे के पोर के साथ मिलाकर शेष दोनों अँगुलियों को अपने सीध में खडा रखने से जो मुद्रा बनती है उसे प्राण मुद्रा कहते हैं..
लाभ - ह्रदय रोग में रामबाण तथा नेत्रज्योति बढाने में यह मुद्रा परम सहायक है.साथ ही यह प्राण शक्ति बढ़ाने वाला भी होता है.प्राण शक्ति प्रबल होने पर मनुष्य के लिए किसी भी प्रतिकूल परिस्थितियों में धैर्यवान रहना अत्यंत सहज हो जाता है.वस्तुतः दृढ प्राण शक्ति ही जीवन को सुखद बनाती है..
इस मुद्रा की विशेषता यह है कि इसके लिए अवधि की कोई बाध्यता नहीं..इसे कुछ मिनट भी किया जा सकता है.
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7. पृथ्वी मुद्रा :- अंगूठे से तीसरी अंगुली - अनामिका (रिंग फिंगर) के पोर को अंगूठे के पोर के साथ स्पर्श करने पर पृथ्वी मुद्रा बनती है.शेष तीनो अंगुलियाँ अपनी सीध में खड़ी होनी चाहिए..
लाभ - जैसे पृथ्वी सदैव पोषण करती है,इस मुद्रा से भी शरीर का पोषण होता है.शारीरिक दुर्बलता दूर कर स्फूर्ति और ताजगी देने वाला, बल वृद्धिकारक यह मुद्रा अति उपयोगी है.जो व्यक्ति अपने क्षीण काया (दुबलेपन) से चिंतित व्यथित हैं,वे यदि इस मुद्रा का निरंतर अभ्यास करें तो निश्चित ही कष्ट से मुक्ति पा सकते हैं. यह मुद्रा रोगमुक्त ही नहीं बल्कि तनाव मुक्त भी करती है..यह व्यक्ति में सहिष्णुता का विकाश करती है.
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8. वरुण मुद्रा :- कनिष्ठिका (सबसे छोटी अंगुली) तथा अंगूठे के पोर को मिलाकर शेष अँगुलियों को यदि अपनी सीध में राखी जाय तो वरुण मुद्रा बनती है..
लाभ - यह मुद्रा रक्त संचार संतुलित करने,चर्मरोग से मुक्ति दिलाने, रक्त की न्यूनता (एनीमिया) दूर करने में परम सहायक है.वरुण मुद्रा के नियमित अभ्यास से शरीर में जल तत्व की कमी से होने वाले अनेक विकार समाप्त हो जाते हैं.वस्तुतः जल की कमी से ही शरीर में रक्त विकार होते हैं.यह मुद्रा त्वचा को स्निग्ध तथा सुन्दर बनता है.
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9. अंगुष्ठ मुद्रा :- बाएँ हाथ का अंगूठा सीधा खडा कर दाहिने हाथ से बाएं हाथ कि अँगुलियों में परस्पर फँसाते हुए दोनों पंजों को ऐसे जोडें कि दाहिना अंगूठा बाएं अंगूठे को बहार से आवृत्त कर ले ,इस प्रकार जो मुद्रा बनेगी उसे अंगुष्ठ मुद्रा कहेंगे.
लाभ - अंगूठे में अग्नि तत्व होता है.इस मुद्रा के अभ्यास से शरीर में उष्मता बढ़ने लगती है.शरीर में जमा कफ तत्व सूखकर नष्ट हो जाता है.सर्दी जुकाम,खांसी इत्यादि रोगों में यह बड़ा लाभदायी होता है.कभी यदि शीत प्रकोप में आ जाएँ और शरीर में ठण्ड से कंपकंपाहट होने लगे तो इस मुद्रा का प्रयोग त्वरित लाभ देता है.
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मेरे अनुज, (शिवकुमार मिश्र) ने आलेख आलेख के प्रथम भाग का शीर्षक पढ़ कहा था कि उसने सोचा वर्तमान चिकित्सा में मुद्रा की आवश्यकता पर मैंने कोई व्यंग्य लिखा है...
व्यंगात्मक तो नहीं विवेचनात्मक प्रयास अवश्य है मेरा इस आलेख के माध्यम से कि चिकित्सा में मुद्रा की अपरिहार्यता को हम अपने इन मुद्राओं द्वारा नगण्य ठहरा सकते हैं.जब इतनी शक्ति हमारे अपने ही इन अँगुलियों में है,तो क्यों न इन मुद्राओं के प्रयोग द्वारा उस मुद्रा (पैसे) की बचत कर लें...
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