23.12.08

कर्मफल

बहुधा ही सहज रूप में एक प्रश्न मन में आया करता है.....कि जब परमात्मा इस सम्पूर्ण श्रृष्टि में कण कण में व्याप्त है, उसके कृपा के बिना पत्ता भी नही हिलता तो फ़िर इसी जगत में इतना कुछ विभत्स/अनाचार/ग़लत कैसे घटित हो रहा है ? नास्तिकों की छोडें ,बहुधा घोर आस्तिकों के मन को भी यह सोच ऊहापोह और शंशय में डाल व्यथित और विचलित किया करता है.


आस्था मानती है कि ईश्वर तो प्रेम और करुणा के स्वरुप हैं,उस करूणानिधि के अखंड साम्राज्य में विभत्सता का स्थान कैसे हो सकता है.........परन्तु फ़िर भी हम देखते आ रहे हैं कि युगों से संसार दुष्ट शक्तियों द्वारा आक्रांत रहा है.ऐसे में सहज ही मन पूछ बैठता है कि जब सम्पूर्ण जगत ही उनसे संचालित है और जब उसके सहमति के बिना एक पत्ता भी नही हिलता ,तो फ़िर क्या इस ग़लत घटित होने में भी उनकी सहमति है??? यदि इस ग़लत पर उनका नियंत्रण नही तो फ़िर वे कैसे सर्वसमर्थ हैं ?


..पर जब भी सच्चे ह्रदय से उस परमपिता से कोई जिज्ञासा की जाती है,वह सहज ही किसी न किसी मध्यम से हमारे उन जिज्ञासाओं का समाधान दे दिया करते हैं..तनिक गहनता से अनुभूत करेंके तो बड़ा ही स्पष्ट अनुभूत होगा कि ईश्वर प्रतिपल किसी न किसी माद्यम से हमसे बात करते रहते हैं और जब भी मन व्यग्र हो शंकाओं का निवारण चाहता हो तो तो उनके समाधान भी भेज दिया करते हैं.वही परम पिता जीवन में सुख के रूप में आनादोप्भोग के अवसर देते हैं तो दुख के रूप में अनमोल शिक्षा प्रदान किया करते हैं....


......... श्रृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ने जलचर ,नभचर,स्थलचर, कोटि कोटि भिन्न भिन्न प्रजातियों की रचना की.परन्तु इतना कुछ बना चुकने के बाद भी उन्हें संतोष न हुआ और तब उन्होंने अपरिमित सामर्थ्य संपन्न जीव 'मनुष्य' की सर्जना की. अन्य जीवों की भांति समस्त अंग प्रत्यंग देने के साथ साथ बुद्धि रूप में मनुष्य को सामर्थ्य की वह पूंजी सौंपी जिससे मनुष्य केवल आहार विहार और संतानोत्पत्ति ही नही वरन उस ईश्वर की श्रृष्टि में बहुत कुछ फेर बदल सकने का सामर्थ्य भी रखता था.अपने इस रचना पर वे स्वयं ही इतने अभिभूत और मुग्ध हुए कि उसके ह्रदय में अपना निवास बनाने का निश्चय किया और वहां विवेक रूप में अवस्थित हो गए.अपरिमित सामर्थ्य और विवेकरूपी अपना अंश समाहित कर उस महत कृति मनुष्य को पृथ्वी पर उनमुक्त भाव से कर्म करने और उनके रचे समस्त प्रकृति के आनंदोप्भोग के लिए छोड़ दिया.


हमारे सामने समस्त उद्धरण हैं...जिस मनुष्य ने आत्मा/विवेक/ईश्वर को अनुभूत करते हुए सन्मार्ग पर चल सत्कर्म किए,वे देवतुल्य पूज्य हुए और जिस मनुष्य ने अपने अंतरात्मा की आवाज को अनसुना कर कुमार्ग पर अपनी गति रखी वह उतनी ही दुर्गति को प्राप्त हुआ.सामर्थ्य और विवेक देने के बाद ईश्वर प्रत्यक्ष रूप में कर्म करने के क्रम में किसी का हाथ पकड़कर रोकने नही आते.यह तो व्यक्ति विशेष पर निर्भर करता है कि ईश्वर ने विवेकरूप में जब उसे कुमार्ग गमन पर चेताया तो उसने अपने आत्मा की आवाज सुनी या नही. वैसे जो समग्र रूप में अपने कर्मो को उस परमपिता को समर्पित कर सच्चे ह्रदय से उससे सन्मार्ग पर चलने की शक्ति की याचना करता है,ईश्वर सचमुच किसी न किसी माध्यम से हाथ पकड़कर उसे ग़लत करने से रोकने चले आते हैं,इसके उदाहरणों की कमी नही है.व्यावहारिक रूप में हम भी इसे आजमा कर देख सकते हैं..


बहुत से लोग ईश्वर की प्रमाणिकता पर ही प्रश्न उठा बैठते हैं.तो यही कहा जा सकता है कि अनुभूतियों को केवल अनुभूत ही किया जा सकता है प्रकट रूप में उसे प्रमाणित या ठोस अवयव रूप में दृष्टिगत कराना कठिन है.हम देख सकते हैं कि कोसों दूर रहकर भी यदि हम अपने प्रियजनों के सुख दुःख, मनोभावों को बिना किसी सूचना के भी अनुभूत कर लेते हैं तो निश्चय ही एक कोई ऐसी परम शक्ति है ,जो प्रकट रूप में न भी दिखे तो भी इतने प्रखर रूप में अनुभूत होता है कि उसकी उपस्थिति अस्वीकृत नही की जा सकती.


अब बात रही कि कई बार यह देखा जाता है कि कोई अत्याचारी,व्यभिचारी,कुमार्गगामी भी बड़ा ही सुखी है और चाहे जितने भी पाप कर्म करे उन्मुक्त विचरण करता है और धन के बल पर दण्डित होने से बचा रहता है.ऐसे अवसरों पर पीडित होने पर बड़े बड़े आस्तिकों की आस्था डोल जाती है और ईश्वर के न्याय पर ही संदेह करने लगता है.परन्तु भौतिकी का यह सिद्धांत है कि ......... " हर क्रिया के बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होती है....." यह शाश्वत और अकाट्य सत्य है . इस श्रृष्टि में कोई भी क्रिया निष्क्रिय या नष्ट नही होती.हम चलते बोलते खाते पीते यहाँ तक कि सोचते हुए जो कुछ भी क्रिया कर्म संपादित करते हैं, वह अदृश्य तरंग रूप में इस ब्रह्माण्ड में सुरक्षित रहता है और उस क्रिया की प्रतिक्रिया होती ही है.


जैसे ही मनुष्य जन्म लेता है उसके कर्मो का एक व्यक्तिगत खाता खुल जाता है और उसके द्वारा प्रतिपादित प्रत्येक कर्म का लेखा जोखा जमा होने लगता है.हमारे शाश्त्रों में इसकी बड़ी सुंदर व्याख्या की गई है.कर्मफल को '' प्रारब्ध, संचित और क्रियमाण " इन तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है.कर्म प्रतिपादन का माध्यम भले यह शरीर हो ,परन्तु समस्त कर्म संचालित मन और चेतना द्वारा ही होते हैं,जो कि कभी नष्ट नही होती ,केवल माध्यम (शरीर) ही निश्चित अवधि के बाद नष्ट होती है. तो इस चेतना/आत्मा को कई जन्मो तक संचित सुकर्म अथवा दुष्कर्म का फल भोगना पड़ता है.हमारे द्वारा मन वचन और कर्म द्वारा सुकर्म या दुष्कर्म जो प्रतिपादित होते हैं,वह हमारे लिए संचित हो जाता है और इसी के परिणामस्वरूप कोई पापी भी अपने संचित पुण्य भाग को भोगता हुआ पापकर्मों में लिप्त रहते हुए भी निष्कंटक विचरता है और कोई पुनीत कार्य कर भी कष्टों को भोगता है.परन्तु दोनों ही स्थितियां स्थायी नही हैं. जैसे ही कुकर्म अथवा सुकर्म के संचित फलों का भण्डार चुक जाता है,परिस्थितियां बदल जाती हैं.कर्मानुसार फलभोग निश्चित है,चाहे इसके लिए कई जन्म क्यों न लेना पड़े..


अतः यह कहना कि वह सर्वसमर्थ ईश्वर पापाचार अनाचार क्यों नही रोकता, मूढ़ता है। ईश्वर के दिए सामर्थ्य का यदि कोई दुरूपयोग करे और दोष ईश्वर को दे,यह कहाँ तक न्यायसंगत है.यह सब तो अपने हाथ ही है, इस सामर्थ्य का सदुपयोग कर मानव भी ईश्वर तुल्य पूज्य हो जाता है और इसी का दुरूपयोग कर महान विध्वंसक भी होता है. परन्तु किसी भी अवस्था में पूज्य धर्म के मार्ग पर चलने वाला ही होता है ,भले अल्पकाल के लिए दुराचारी अपने विध्वंशक शक्ति के बल पर लोगों को भयभीत कर दे.

44 comments:

संगीता पुरी said...

बडी अच्‍छी बातें की ....आध्‍यात्मिक ज्ञान हर समय अंधविश्‍वास ही नही होता है...इसका सही स्‍वरूप के प्रचार प्रसार करने के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएं।

Unknown said...

शत प्रतिशत आपने सही कहा....बहुत ही अच्छी बातें आपने लिखी....ज्ञान वर्धन के लिए शुक्रिया

रंजू भाटिया said...

अच्छा लिखा है आपने .कर्म के अनुसार ही फल मिलेगा ..

कुश said...

मेरे मन में चलने वाली कितनी ही उलझनो का उत्तर दिया है आपने इस पोस्ट में.. बुक मार्क करके रखी जाने वाली पोस्ट है ये तो.. इस बारे में और भी कुछ पढ़वाए..

vijay kumar sappatti said...

poora lekh main ek saans mein pad liya , aajkal adhyatam par bahut kam acha padhne ko milta hai ..

aapne itna jyada saar itni chote lekh mein de diya ki aur kisi ko kuch padhne ki jarurat hi nahi ..

naman aapko ..kyonki is bhaagdaud waali zindagi mein aap ka ye lekha bahut hi relaxing hai .

bahut badhai

aaj maine bhi kuch naya likha hai , aapko shayad acha lage.

dhanywad

vijay
poemsofvijay.blogspot.com

Shiv said...

अद्भुत चिंतन है. बढ़िया विषय पर बहुत बढ़िया लिखा है.
और जैसा कि कुश ने कहा, सहेज कर रखने लायक पोस्ट है.

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत धन्यवाद इस लेखन के लिये ! इसको पढकर अनेक जि्ज्ञासाओ का शमन होता है ! आगे भी इस विषय पर लिखें तो और अनेक बातो की जानकारी मिलेगी !

रामराम !

Gyan Dutt Pandey said...

कर्म सिद्धान्त पर आस्था है, पर अब कई बार उद्वेलन होता है और यह आस्था डगमगाने लगती है।
कभी कभी लगता है कि उंगली छोड़ देते हैं ईश्वर। पर वह कुछ समय को होता है। फिर आपकी पोस्ट जैसी सोच आ जाती है मन में।
सदा की तरह बहुत सुन्दर लिखा।

"अर्श" said...

bahot hi umda aur sanjida lekha bahot khub dhero badhai aapko ranjana ji...


arsh

naresh singh said...

कुछ लोग जो नास्तीकता का गलत अर्थ लगाते है, आस्तिकों को अन्धविश्वासी कहते है,इस प्रकार के लोगों कि आंखे खोलने के लिये यह लेख पढाना पङेगा

P.N. Subramanian said...

सब प्रभु की माया है. आपने बड़े सुंदर तरीके से ईश्वर के पक्ष में दलीलें दीं. हम सब आस्था बनाए रखें, इसी में कल्यण है. आभार.

गगन शर्मा, कुछ अलग सा said...

धर्म या आध्यात्म पर वाद-विवाद अंतहीन होता है। इतने लेकिन, परन्तु उठते हैं कि वार्ता सुरसा की तरह हो जाती है। जिसने संतुष्ट होना है उसके लिये दो लाईनें ही काफी हैं और जिसने नहीं होना उसके लिये पूरा पोथा भी बेकार होता है।

डॉ .अनुराग said...

अद्भुत चिंतन है.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

गँभीर विषय पर सुलझे हुए विचार लिये ये पोस्ट बहुत पसँद आई
- लावण्या

RADHIKA said...

बहुत ही बढ़िया पोस्ट लिखी हैं रंजना जी ,मैं आपकी लेखनी की कायल हूँ,आप हर विषय को बहुत सहजता से और उतनी ही गंभीरता से पोस्ट में प्रस्तुत करती हैं .मैं चाहे समय की कमी के चलते टिप्पणी हर बार नही दे पाती पर आपकी सभी पोस्ट मुझे दिल से पसंद आती हैं .आभार

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर ढंग से आप ने आस्था ओर ईश्वर से सम्बंधित बातो को समझाया है,
धन्यवाद

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

रंजना जी
सृष्टि की रचना ही मानव को सांसािरक सुख भोगने के िलए की गई है लेिकन दुख की अनुभूति के बिना सुख की भी अनुभूति संभव नहीं है । सुख दुख दोनों की प्राप्ति मनुष्य को कमॆफल के अनुसार ही होती है । कोई मनुष्य अगर अपराध भी करता है तो अपराध करने से पहले कोई पल जरूर एेसा आता है जब िववेक जागृत हो जाता है । यही वह पल होता है जब मनुष्य को सही या गलत का फैसला करना होता है । यही फैसला ही उसके कमॆ की प्रकर्ति का िनणाॆयक होता है ।

बहुत अच्छा िलखा है आपने । बधाई ।

http://www.ashokvichar.blogspot.com

Smart Indian said...

एक गंभीर और क्लिष्ट विषय को सरल शब्दों में समझाने का यह प्रयास सराहनीय है. कर्म-फल और पुनर्जन्म के सिद्धांत में भी बहुत से अपवाद हो सकते हैं मगर शायद उनकी वजह यह हो की हम मनुष्य सिर्फ़ एक छोटे से अन्तराल को देख पाते हैं जबकि जैसा की आपने कहा की हमारे कर्म जन्म-जन्मान्तर के बाद भी फलित होते हैं. मेरे मन में अक्सर यह छोटा सा प्रश्न उठता है कि कर्म-फल की लम्बी श्रंखला बनाने के बजाय भगवान् कर्म होने से पहले ही सद्बुद्धि क्यों नहीं दे देते हैं ताकि सिर्फ़ सत्कर्म ही हों. उदाहरण के लिए - बहेलिये ने चिड़िया मारी, शेर ने बहेलिये को खाया, ज़मींदार ने शेर को मारा, विद्रोहियों ने ज़मींदार को मार दिया, डाकुओं ने विद्रोहियों को मार डाला आदि... इसकी जगह, बहेलिये को चिड़िया पर दया आई और किस्सा वहीं पर ख़त्म. मेरा उदाहरण थोडा बचकाना हो सकता है मगर बुद्धिमान को इशारा काफी.

neelima garg said...

vert thoughtful.....

दिगम्बर नासवा said...

इश्वर अपने होने का एहसास अक्सर करवाता रहता है, ज़रूरत उसको स्वीकार करने की होती है.
इसी तरह कर्म फल के सिद्धांत को हम माने या न मानें, नियति अपने आप उसको स्वीकार करवा लेती है.
और जो भी इस कर्म फल मैं विश्वास रखता है, जीवन की विषम परिस्थितियों को वो आसानी से पार पा लेता है, मन उद्वेलित नही होता कुछ होने या कुछ खोने पर.

अच्छे विषय को आपने सुंदर और सरल तरीके से लिखा है.
धन्यवाद

रश्मि प्रभा... said...

बहुत से लोग ईश्वर की प्रमाणिकता पर ही प्रश्न उठा बैठते हैं.तो यही कहा जा सकता है कि अनुभूतियों को केवल अनुभूत ही किया जा सकता है प्रकट रूप में उसे प्रमाणित या ठोस अवयव रूप में दृष्टिगत कराना कठिन है........
aapki yah rachna se main poori tarah sahmat hun,bahut hi saargarbhit lekh hai

BrijmohanShrivastava said...

कल इसमे एक टिप्पणी मैंने लिखी थी पता ही नही किस के ब्लॉग में मेरी गलती से पोस्ट हो गई

महेन्द्र मिश्र said...

कहा गया कि मनसे वचन से जो कर्म किए जाते है तदनुसार वैसा ही फल प्राप्त होता है . बढ़िया प्रस्तुति के लिए धन्यवाद.

Dr. Chandra Kumar Jain said...

अच्छा लिखा है आपने,
दृष्टि और दर्शन से समृद्ध प्रस्तुति.
===========================
बधाई
डॉ.चन्द्रकुमार जैन

पुरुषोत्तम कुमार said...

आपका यह पूरा आलेख आपके ही सवाल का बहुत ही सरल उत्तर है। लेकिन आपका सवाल इतनी सरलता की मांग नहीं करता। यह जवाब दरअसल पहले से ही स्थापित है। शायद आप अपने सवाल के जवाब के लिए इससे इतर जाना ही नहीं चाहती थीं। इससे कई स्थापित मान्यताएं खंडित होतीं, कई अनचाही बातें सामने आतीं। ..और आप ऐसा क्यों करतीं, क्यों होने देतीं। आलेख बेहतर है, पर जवाब संतोषजनक नहीं।

निर्झर'नीर said...

aapka ye lekh padhkar man ko jo shanti mili usko anuboot kiya ja sakta hasabdo mein bayan nahii.

aisa laga jaise kisi ne mere hi manobhaavo ko shabd diye hai.

aapka yash charo dishaon ein faile.

kumar Dheeraj said...

बात तो आपने पते की है रंजना जी । आपने जो लिखा है आध्यात्म को जोरकर लिखा है । कि अगर सृष्टि को भगवान ने बनाया है तो फिर मनुष्य इतना दुखी क्यो है । यही बाते मै भगत सिंह की पुस्तक मै नास्तिक क्यों में पढ़ा था । और उसने यह दिखाया था कि मै ईश्वरीय सत्ता में विश्वास नही करता हू । शायद उसने उस किताब के माध्यम से सच साबित कर भी दिया है ।आपने बहुत अच्छा लिखा है ।मेरा नया पोस्ट पढ़े ।धन्यवाद

राजीव करूणानिधि said...

ईश्वर की सत्ता सबसे शक्तिशाली है. सब्र कीजिये न्याय मिलेगा. अच्छी लेखनी के लिये आभार.

Amit Kumar Yadav said...

काफी संजीदगी से आप अपने ब्लॉग पर विचारों को रखते हैं.यहाँ पर आकर अच्छा लगा. कभी मेरे ब्लॉग पर भी आयें. ''युवा'' ब्लॉग युवाओं से जुड़े मुद्दों पर अभिव्यक्तियों को सार्थक रूप देने के लिए है. यह ब्लॉग सभी के लिए खुला है. यदि आप भी इस ब्लॉग पर अपनी युवा-अभिव्यक्तियों को प्रकाशित करना चाहते हैं, तो amitky86@rediffmail.com पर ई-मेल कर सकते हैं. आपकी अभिव्यक्तियाँ कविता, कहानी, लेख, लघुकथा, वैचारिकी, चित्र इत्यादि किसी भी रूप में हो सकती हैं......नव-वर्ष-२००९ की शुभकामनाओं सहित !!!!

कडुवासच said...

... अत्यंत प्रसंशनीय व प्रेरणादायक प्रभावशाली अभिव्यक्ति है।

ilesh said...

khubsurat abhivyakti...nice thoughts...regards

makrand said...

bahut khub lika aapne

महेन्द्र मिश्र said...

नववर्ष की ढेरो शुभकामनाये और बधाइयाँ स्वीकार करे . आपके परिवार में सुख सम्रद्धि आये और आपका जीवन वैभवपूर्ण रहे . मंगल कामनाओ के साथ .धन्यवाद.

Dev said...

First of All Wish U Very Happy New Year....

Nice thought...Sundar rachana

Regards

Vinay said...

नववर्ष की शुभकामनाएँ

hem pandey said...

'बहुत से लोग ईश्वर की प्रमाणिकता पर ही प्रश्न उठा बैठते हैं.तो यही कहा जा सकता है कि अनुभूतियों को केवल अनुभूत ही किया जा सकता है प्रकट रूप में उसे प्रमाणित या ठोस अवयव रूप में दृष्टिगत कराना कठिन है.'
वाल्टेयर ने कहा है :
भगवान का विश्वास सामाजिक व्यवस्था की रक्षा के लिए आवश्यक है.यदि भगवान नहीं है तो हमें एक भगवान गढ़ लेना चाहिए, क्योंकि उसका भय समाज को व्यवस्था में रखने के लिए सबसे उपयोगी शक्ति है. .

विचारपरक लेख है .साधुवाद.

Smart Indian said...

रंजना जी,
आपको, आपके परिजनों और आपके मित्रों और परिचितों को भी नव वर्ष की शुभकामनाएं. ईश्वर आपको सुख-समृद्धि दे!

अनुराग शर्मा

Prakash Badal said...

रंजना जी आपकी सोच समझ और कलम इसी तरह शिखर मर रहे और जो हाल ही में आपको पारिवारिक संकट झेलना पड़ा है उससे आपको तुरंत लाभ मिले और आपका आगामी समय निरोग, खुशगवार और रचना धर्मिता से परिपूरण रहे ऐसी मेरी कामना है।

श्रद्धा जैन said...

ek gambheer aur chintan sheel vishay haman ki anek chintao aur kunthao ko shant karne wala

अजित वडनेरकर said...

समय की कमी से यह पोस्ट पढ़ते पढते अधूरी छूट गई थी। फिर छूट ही गई...अभी राधिका के ब्लाग से होकर यहां लौटा हूं तो याद आया...
बहुत सुंदर पोस्ट है। सभी ने जो कहा...
आस्तिक हूं और सब बातों में सहमत भी हूं।
नए साल की शुभकामनाएं....

sukhdeo sahitya said...

कर्मफल पर आपकी विवेचना सारगर्भित है। कई कोणों से आपने इसे सिद्ध किया है कि सर्वोपरि कर्मफल ही होता है।

http://sukhdeosahitya.blogspot.com/

Divya Narmada said...

आचार्य संजीव 'सलिल'

रंजना कर रंज ना, गर गलत होता दिख रहा.
जो न दीखता वह कहीं तो कोई तुझको लिख रहा.

जमा जो खाता-उडाता, वह न करता काम है.
जो जमा करता न उस पर उडाने को दाम है.

बैंक में जा खाली हाथों कोई रुपया ला रहा.
कोई रुपया ले गया पर खाली हाथों आ रहा.

सोच सकता कोई बच्चा हाय क्या अन्याय है.
किंतु हम सब जानते हैं यह न्याय का पर्याय है.

प्रश्न कर उत्तर बताना तरीका यह ठीक है.
तर्क भाषा बिम्ब शैली सत्य सुंदर लीक है.

salil.sanjiv@gmail.com

sanjivsalil.blog.co.in

sanjivsalil.blogspot.com

Reetesh Gupta said...

बहुत अच्छा आपका यह सुंदर आलेख पढ़कर ...लगता है पहली बार आया हूँ यहाँ ....लेकिन अब आना लगा रहेगा ...बधाई

योगेन्द्र मौदगिल said...

रंजना जी सार्थक एवं प्रासंगिक रचना के लिये साधुवाद स्वीकारें..