- देख तेरे लिए तेरी पसंद की कचौड़ी जलेबी लाया हूँ ,एकदम गरमा गरम......चल फटा फट खा ले.......दो दिन से तूने कुछ नही खाया........देख तो कैसे मुंह सूख गया है........चल गुस्सा छोड़...खा ले जल्दी से.......फ़िर हम तुम मजे करेंगे............देख तो कितनी मस्त हवा चल रही है,कितना मस्त मौसम है........अच्छा चल ले, कान पकड़ता हूँ......अपनी कसम......माँ की कसम .......तेरे सर की कसम,अब कभी तेरे पर हाथ न उठाऊंगा.
-चलो हटो,कह दिया न भूल से भी छूना मत मुझे,नही चाहिए...जलेबी कचौडी.......भूखी मर जाउंगी, पर इसको हाथ न लगाउंगी ....याद है, आज तक कितनी बार क़समें खा चुके हो........बस एक बार पेट में बोतल उतारी नही कि सारी क़समें घास चरने चली जाती हैं........अब मैं तुम्हारी बातों में नही आने वाली.....अब किसी भरम में न रहूंगी.......
- अच्छा चल इस बार पक्का.....एकदम से पक्का......कह दिया न ...देख लेना.....तू भी तो बस, उस वक्त ताव दिला देती है जब मेरा दिमाग ठिकाने नही रहता........ देख तेरे बिना मैं जी सकता हूँ ???? तू तो मेरी जान है.....
- अच्छा.... मैं जान हूँ???? तो वो सब कौन हैं ???
- अरे बेवकूफ ,वो सब तो पत्तलें हैं,खाकर बाहर फेंक आता हूँ.........और तू तो थाली है,वो भी सोने वाली,सहेजकर हिफाजत से घर में रखने वाली.....
- अच्छा......सोने की ही सही,मैं भी तो सामान ही हुई न तुम्हारे लिए ???
- अरे, ऐसे बुरा न मान........तू तो जानती है, मैं तुझसे कितना प्यार करता हूँ........
- अच्छा, एक बात बताओ....आख़िर मुझमे क्या कमी है,जिसके लिए तुम्हे बाहर पत्तलों के पीछे जाना पड़ता है ????
- तुझमे कोई कमी नही रे.........देख..... तूने देखा है न,अपने सारे देवता कई कई बीबियाँ रखे हुए हैं,तो भी कोई उनकी शिकायत करता है ? पूजा ही करता है न ... अपने कृष्ण भगवान् को ही ले ले ....सोलह हजार रानियाँ रखे हुए थे......कोई उनकी शिकायत करता है ?.... तू भी तो उनकी पूजा ही करती है,सुबह शाम दिया दिखiती है....अरे यह तो रिवाज है.......मर्दानगी की निशानी है.....अपने यहाँ का शान है......राजा महराजा भी तो इतनी बीबियाँ रखते थे......इनकी तो छोड़........अच्छे करम कर जब लोग स्वर्ग जाते हैं, वहां क्या मिलता है ???? एक से बढ़कर एक दारू और एक से बढ़कर एक अप्सरा .........तो जब धरती से लेकर स्वर्ग तक यह जायज है तो ,तुझे क्यों इतना ऐतराज है ??..........अब मैं कहीं भी जाऊं ......वहां कुछ छोड़ कर आता हूँ ???? एकदम साबुत तेरे पास ही तो लौटता हूँ......तेरे प्यार में, तेरा ख़याल रखने में, कोई कमी रखता हूँ??? चल तू ही बता..........
- अच्छा एक बात पूछूं ???????
- हाँ पूछ न.........जो पूछेगी सब का जवाब दूँगा.........
- एक बात बताओ........अच्छे करम करने से स्वर्ग मिलता है ???? हैं न ??
- हाँ ,बिल्कुल.........
- और स्वर्ग में ,दारू और अप्सराएँ मिलती है ????
- हाँ बिल्कुल..बिल्कुल .........
- तो मान लो, आज से मैं तुमसे कोई शिकायत न करूँ, तुम्हारी हर बात मानू, केवल अच्छे काम करूँ .......तो मुझे पुण्य मिलेगा न ???
- हाँ ,हाँ ....क्यों नही........
- अच्छा ,जो मुझे पुण्य मिलेगा तो स्वर्ग भी मिलेगा ????
- हाँ रे....
- अच्छा ,तो तुम्हारे लिए तो दारू अप्सराएँ होंगी स्वर्ग में ,मेरे लिए क्या होगा ??
- ???????????
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23.1.09
19.1.09
सबब (कहानी)
सबब
घर पहुंचकर निढाल सी बिस्तर पर गिर पड़ी सबिया.नादिरा को सम्हालते हुए अबतक ठीक से रो भी न पाई थी वह. सीने में घुमड़ता बवंडर जिगर फाड़े जा रहा था..अब वह आराम से जी हल्का कर सकती थी,सो खूब बुक्का फाड़ कर रोई.पर क्या इस रोने में अकेले नादिरा का ही दुःख था ? नही, इस दुःख के साथ उसके अपने भोगे हुए दुःख भी थे,जो इस समय आंसुओं की सैलाब के साथ बहार निकल रहे थे..
क्या कुछ नही भोगा था उसने इन सालों में.. लेकिन आज भी जबकि रूमानियत और प्यार जैसा कोई अहसास उसके दिल में नहीं बचा था परवेज़ के लिए, उम्र के इस ढलान पर भी बेवा होने का खौफ उसे हिला जाती है , तो पच्चीस साल की वह जवान लडकी, बेवा होने का गम कैसे सम्हालेगी. क्या करे वह ...अपने बेटे जुनैद से कहे कि वह नादिरा का हाथ पकड़ ले,उससे निकाह कर ले....लेकिन जुनैद मानेगा ?? शायद नही...दो बच्चियों की माँ से वह निकाह करेगा???? फ़िर नादिरा उसके बराबरी की भी नही .वह वेस्टर्न कल्चर में पढ़ा लिखा ,पला बढ़ा है, नादिरा उसकी नज़र में देहातन से ज्यादा नही...फ़िर मौसेरी बहन को अपनी बहन ठहराकर ,इस निकाह को नापाक करार दे देगा, भले उसके मजहब में यह नाजायज नही....बेचारी फूल सी बच्ची,कैसे काटेगी इतनी लम्बी जिंदगी...घर बाहर उसपर बुरी नजर डालने वाले, हमेशा उसका फायदा उठाने की ताक में रहने वाले तो सभी होंगे,पर उसका हाथ पकड़ सहारा देने वाला कोई नही होगा....पढ़ी लिखी भी इतनी नही कि अपने दम पर अपना और बच्चों का खर्चा वह उठा सके,सुकून से जी सके...उसने देखा नही...गम से बेजार अपने देह और कपडों की सुध बुध खोये वह बच्ची जब जार जार रो रही थी तो इस मुसीबत के आलम में भी उसके जेठ की नज़र नादिरा के जिस्म पर कैसे गस्त कर रही थी....चारों ओर दरिन्दे ही दरिन्दे तो घूम रहे हैं....कोई भाई नही,चाचा मामा नही...उसके जिस्म का रखवाला न रहा,अब वह सबके लिए एक जिस्म होगी....परदे के नाम पर बाहरी दुनिया से उसका नाता रिश्ता तोड़ देंगे और सारा कुछ उस पर घर पर ही गुजरेगा.....कभी पैसा दिखा,तो कभी जोर जबरदस्ती, उसकी मजबूरी का फायदा उठाने को सब उतावले रहेंगे........
दुनिया उसने देखी है,एक अकेली औरत की जिंदगी कितनी काँटों भरी हो सकती है ,इसका पूरा इल्म है उसे....तभी तो वह आजतक हिम्मत न जुटा पाई थी अपने लिए भी....अभी क्या उसे तो छुटपन से ही इसका अहसास था,तभी तो तालीम हासिल कर अपनी ऐसी हैसियत बना लेना चाहती थी कि उसे कभी किसी का मुहताज न रहना पड़े.पर कहाँ कर पाई थी वह अपने मन की.अपने भाई बहनों में सबसे अक्लमंद होने और पढ़ाई में अव्वल रहने के बावजूद एक अब्बू को छोड़ हरेक नातेदार को उसके तालीम पर गुरेज था..अम्मी तो कुछ ज्यादा ही कुफ्त रहती थी..
अब्बू ख़ुद भले प्राइमरी के मास्टर भर थे,जिनकी तनख्वाह से सात भाई बहनों के साथ नौ लोगों के इस परिवार का गुजारा एक वक्त के फाके के साथ होता था .पर फ़िर भी वे अपने हर बच्चे को बेहतर तालीम देना चाहते थे. उसमे भी सबिया की अक्लमंदी पर उन्हें ख़ास नाज़ था और उसे वे हमेशा अपना बड़ा बेटा मानते थे.सबिया की तरक्की उन्हें बड़ा ही सुकून देती थी.और इसलिए सारे रिश्ते नाते वालों से लड़कर उन्होंने सबिया का बी ऐ में दाखिला करवा दिया था.लेकिन छः ही महीने बाद परवेज़ का रिश्ता आया. आया क्या ,अम्मी ने ही जुगत भिडाकर यह सब किया था.अब्बू को उन्होंने ऐसा समझाया कि उन्हें भी अपनी बेटी का पढ़ लिखकर भविष्य बनने से ज्यादा बेहतर सउदी में रह रहे अरबपति परवेज़ के साथ निकाह कर घर बसाना ही लगा.
सत्रह साल की सबिया चालीस साल के परवेज़ के साथ ब्याह दी गई. परवेज़ की उम्र से लेकर उसके ऐय्यासी तक की सारी बातें छिपाई गई थी. परवेज़ के पैसे ने सबकी आंखों पर ऐसे पट्टी बांधी कि किसी ने भी किसी तरह की तहकीकात की कोई जरूरत न समझी. निकाह के समय दूल्हे को देख अब्बू जरूर मायूस हुए थे और जब उन्हें पता चला कि परवेज़ पहले ही दो बीबियों को तलाक दे चुका था, माथा पकड़कर बैठ गए. पर उस वक़्त किया क्या जा सकता था ,निकाह तो हो चुका था...कलेजे पर पत्थर रखकर उन्होंने अपनी बेटी को रुखसत किया.लेकिन ताउम्र यह फांस सा उनके सीने में चुभा, कलेजा काटता रहा...
सबिया को जब यह पता चला तो उसका जितना मोहभंग अपने परिवार से हुआ,जिन्होंने कि ऊंची मेहर के लिए एक तरह से उसे बेचा था,ताकि उसकी बाकी की चार बहनों की शादी की जा सके ,उतना ही अपने शौहर से भी हुआ था,जो उसके सपनो का शहजादा नही,उसका खरीदार था,जिसने ऊंची बोली लगाकर हसीन कमसिन सबिया को खरीदा था.बेशकीमती कपड़ो जेवरों से लदी फदी सबिया अपने महलनुमा पिंजडे में कैद होने जा रही थी..
कुछ दिनों तक तो निहायत ही शराफत और मुहब्बत से पेश आए थे परवेज. वे उसके हुस्न पर फ़िदा थे.उसपर पैसा और प्यार लुटाने लगे.यूँ पैसे की कोई अहमियत नही थी सबिया के लिए,पर हाँ प्यार ने बाँध लिया था सबिया को और जल्दी ही उसने इसे अपना नसीब मानते हुए तहे दिल से परवेज़ को अपना लिया,उसपर कुर्बान रहने लगी और एक नेकदिल बीबी का फ़र्ज़ बखूबी अंजाम देने लगी.परवेज़ के हसरत और ख्वाब ही उसके आंखों में सजने लगे.उन्हें मुक्कम्मल करना ही उसने अपना फ़र्ज़ और बंदगी माना था.लेकिन काश यह हमेशा रहता.....
पहले बच्चे के जन्म के साथ ही परवेज़ ने उससे किनारा करना शुरू कर दिया था और दूसरे बच्चे के बाद तो सारा नज़ारा ही बदल गया था. सबिया के हुस्न का तिलिस्म टूट चुका था. घर के बाहर जाकर औरतों से मिलने का सिलसिला बढ़ते बढ़ते घर की दहलीज़ लाँघ उसके बेडरूम तक आ पहुँचा था.अपने ही घर में उसका ठिकाना गेस्टरूम हो गया था.जब यह सिलसिला शुरू हुआ था तो पहले पहल तो कुछ दिनों तक सब नजरअंदाज किया, पर बाद में उसने इसकी पुरजोर खिलाफत शुरू की.वक्त के साथ जैसे जैसे उसका विरोध मुखर होता गया,परवेज़ की हरकतें और जुल्म भी बढ़ते गए..सबिया को तोड़ने और खुलकर ऐय्यासी के लिए परवेज ने छोटे दुधमुहें बच्चों को उससे अलग कर घर से दूर होस्टल भेज दिया.
उसके बाद से तो फ़िर महफिलें घर पर ही सजने लगी.उसके घर और शौहर पर बाहरवालियां राज करने लगीं. परवेज़ की प्यार की जगह अब उसके हिस्से शौहर से दिए जिस्मानी रूहानी जुल्म रह गए थे..परवेज़ ने उसके ऊपर तलाक की वह तलवार लटकाई,जो आठों पहर उसके रूह को काटती रहती थी. दिन बीतने के साथ साथ परवेज़ हरवक्त उसके छुटकारा पाने की ताक में लगे रहने लगे थे.उनके जुल्म बेतहाशा बढ़ गए थे.पर उसने तलाकशुदा लड़कियों की जिंदगियों को भी देखा था. तलाक का ठीकरा लडकी पर ही तो फोड़ा जाता था,उसे ही गुनाहगार ठहराया जाता था.कई बार उसने खुदकुशी की ठानी,पर अपने बच्चों की सोच, इसे अंजाम न दे पाई थी.....कई बार सोचा कि अपने घर हिन्दुस्तान चली जाए......पर वहां भी तो उसका ठौर नही था. जाती भी तो कैसे जाती...अब्बू रहे नहीं थे. एक भाई था जो ठीक से पढ़ लिख नही पाया,तो अब्बू ने अपनी सारी जमा पूँजी दे उसके लिए परचून की दूकान खोल दी थी,जिससे बड़ी मुश्किल से दो वक्त की रोटी जुटती थी.. दूर थी तो किसीको उसके तकलीफ का इल्म न हो पाता था.जब कभी वह मायके गई भी तो उसके कपडों गहनों की चकाचौंध के आगे उसके परिवार वालों की नजरें उसके मन तक न पहुँच पाई थी......सबकी नजरों में वह मलिका थी. इस भरम में भी उसका मान ही था....इसे वह तोड़ना नही चाहती थी.
अपनी आंखों के सामने अपने शौहर की सारी ऐय्यासियां बर्दाश्त करती,अपनी किस्मत और आत्मसम्मान को धिक्कारते उम्र के छियालीस साल तो उसने निकाल दिए थे,अब बाकी बची साँसों की कैद निकालनी थी. पर अब वह अपने रूह के सुकून के लिए कुछ करना चाहती थी.उसके शौहर को क्या चाहिए था,ऐय्यासी की आजादी ही न...वह उसने दिया है आजतक,पर आज वह उसकी कीमत मांगेगी...वह जानती है अगर वह मनमर्जी परवेज़ के पैसों को इस्तेमाल करना चाहे तो परवेज को कोई ऐतराज न होगा......नादिरा को वह शौहर नही दे सकती पर वह इतना तो कर सकती है कि , नादिरा और उसके बच्चियों की परवरिश और तालीम के लिए कुछ करे. हाँ....अब वह उनका का पूरा खर्चा उठायेगी.नादिरा और उसकी बच्चियों को माकूल तालीम दिलवाएगी और उन्हें एक महफूज माहौल देगी.नादिरा और उसके बच्चियों पर वह सब कुछ न गुजरने देगी जो उसका अपना देखा भोगा हुआ है.अब तो उनको बेखौफ मुक्कम्मल जीते देखना ही उसके सुकून का सबब बनेगा.....
और यह ख़याल फ़िर से उसे मुद्दतों बाद जिला गया था.......
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घर पहुंचकर निढाल सी बिस्तर पर गिर पड़ी सबिया.नादिरा को सम्हालते हुए अबतक ठीक से रो भी न पाई थी वह. सीने में घुमड़ता बवंडर जिगर फाड़े जा रहा था..अब वह आराम से जी हल्का कर सकती थी,सो खूब बुक्का फाड़ कर रोई.पर क्या इस रोने में अकेले नादिरा का ही दुःख था ? नही, इस दुःख के साथ उसके अपने भोगे हुए दुःख भी थे,जो इस समय आंसुओं की सैलाब के साथ बहार निकल रहे थे..
क्या कुछ नही भोगा था उसने इन सालों में.. लेकिन आज भी जबकि रूमानियत और प्यार जैसा कोई अहसास उसके दिल में नहीं बचा था परवेज़ के लिए, उम्र के इस ढलान पर भी बेवा होने का खौफ उसे हिला जाती है , तो पच्चीस साल की वह जवान लडकी, बेवा होने का गम कैसे सम्हालेगी. क्या करे वह ...अपने बेटे जुनैद से कहे कि वह नादिरा का हाथ पकड़ ले,उससे निकाह कर ले....लेकिन जुनैद मानेगा ?? शायद नही...दो बच्चियों की माँ से वह निकाह करेगा???? फ़िर नादिरा उसके बराबरी की भी नही .वह वेस्टर्न कल्चर में पढ़ा लिखा ,पला बढ़ा है, नादिरा उसकी नज़र में देहातन से ज्यादा नही...फ़िर मौसेरी बहन को अपनी बहन ठहराकर ,इस निकाह को नापाक करार दे देगा, भले उसके मजहब में यह नाजायज नही....बेचारी फूल सी बच्ची,कैसे काटेगी इतनी लम्बी जिंदगी...घर बाहर उसपर बुरी नजर डालने वाले, हमेशा उसका फायदा उठाने की ताक में रहने वाले तो सभी होंगे,पर उसका हाथ पकड़ सहारा देने वाला कोई नही होगा....पढ़ी लिखी भी इतनी नही कि अपने दम पर अपना और बच्चों का खर्चा वह उठा सके,सुकून से जी सके...उसने देखा नही...गम से बेजार अपने देह और कपडों की सुध बुध खोये वह बच्ची जब जार जार रो रही थी तो इस मुसीबत के आलम में भी उसके जेठ की नज़र नादिरा के जिस्म पर कैसे गस्त कर रही थी....चारों ओर दरिन्दे ही दरिन्दे तो घूम रहे हैं....कोई भाई नही,चाचा मामा नही...उसके जिस्म का रखवाला न रहा,अब वह सबके लिए एक जिस्म होगी....परदे के नाम पर बाहरी दुनिया से उसका नाता रिश्ता तोड़ देंगे और सारा कुछ उस पर घर पर ही गुजरेगा.....कभी पैसा दिखा,तो कभी जोर जबरदस्ती, उसकी मजबूरी का फायदा उठाने को सब उतावले रहेंगे........
दुनिया उसने देखी है,एक अकेली औरत की जिंदगी कितनी काँटों भरी हो सकती है ,इसका पूरा इल्म है उसे....तभी तो वह आजतक हिम्मत न जुटा पाई थी अपने लिए भी....अभी क्या उसे तो छुटपन से ही इसका अहसास था,तभी तो तालीम हासिल कर अपनी ऐसी हैसियत बना लेना चाहती थी कि उसे कभी किसी का मुहताज न रहना पड़े.पर कहाँ कर पाई थी वह अपने मन की.अपने भाई बहनों में सबसे अक्लमंद होने और पढ़ाई में अव्वल रहने के बावजूद एक अब्बू को छोड़ हरेक नातेदार को उसके तालीम पर गुरेज था..अम्मी तो कुछ ज्यादा ही कुफ्त रहती थी..
अब्बू ख़ुद भले प्राइमरी के मास्टर भर थे,जिनकी तनख्वाह से सात भाई बहनों के साथ नौ लोगों के इस परिवार का गुजारा एक वक्त के फाके के साथ होता था .पर फ़िर भी वे अपने हर बच्चे को बेहतर तालीम देना चाहते थे. उसमे भी सबिया की अक्लमंदी पर उन्हें ख़ास नाज़ था और उसे वे हमेशा अपना बड़ा बेटा मानते थे.सबिया की तरक्की उन्हें बड़ा ही सुकून देती थी.और इसलिए सारे रिश्ते नाते वालों से लड़कर उन्होंने सबिया का बी ऐ में दाखिला करवा दिया था.लेकिन छः ही महीने बाद परवेज़ का रिश्ता आया. आया क्या ,अम्मी ने ही जुगत भिडाकर यह सब किया था.अब्बू को उन्होंने ऐसा समझाया कि उन्हें भी अपनी बेटी का पढ़ लिखकर भविष्य बनने से ज्यादा बेहतर सउदी में रह रहे अरबपति परवेज़ के साथ निकाह कर घर बसाना ही लगा.
सत्रह साल की सबिया चालीस साल के परवेज़ के साथ ब्याह दी गई. परवेज़ की उम्र से लेकर उसके ऐय्यासी तक की सारी बातें छिपाई गई थी. परवेज़ के पैसे ने सबकी आंखों पर ऐसे पट्टी बांधी कि किसी ने भी किसी तरह की तहकीकात की कोई जरूरत न समझी. निकाह के समय दूल्हे को देख अब्बू जरूर मायूस हुए थे और जब उन्हें पता चला कि परवेज़ पहले ही दो बीबियों को तलाक दे चुका था, माथा पकड़कर बैठ गए. पर उस वक़्त किया क्या जा सकता था ,निकाह तो हो चुका था...कलेजे पर पत्थर रखकर उन्होंने अपनी बेटी को रुखसत किया.लेकिन ताउम्र यह फांस सा उनके सीने में चुभा, कलेजा काटता रहा...
सबिया को जब यह पता चला तो उसका जितना मोहभंग अपने परिवार से हुआ,जिन्होंने कि ऊंची मेहर के लिए एक तरह से उसे बेचा था,ताकि उसकी बाकी की चार बहनों की शादी की जा सके ,उतना ही अपने शौहर से भी हुआ था,जो उसके सपनो का शहजादा नही,उसका खरीदार था,जिसने ऊंची बोली लगाकर हसीन कमसिन सबिया को खरीदा था.बेशकीमती कपड़ो जेवरों से लदी फदी सबिया अपने महलनुमा पिंजडे में कैद होने जा रही थी..
कुछ दिनों तक तो निहायत ही शराफत और मुहब्बत से पेश आए थे परवेज. वे उसके हुस्न पर फ़िदा थे.उसपर पैसा और प्यार लुटाने लगे.यूँ पैसे की कोई अहमियत नही थी सबिया के लिए,पर हाँ प्यार ने बाँध लिया था सबिया को और जल्दी ही उसने इसे अपना नसीब मानते हुए तहे दिल से परवेज़ को अपना लिया,उसपर कुर्बान रहने लगी और एक नेकदिल बीबी का फ़र्ज़ बखूबी अंजाम देने लगी.परवेज़ के हसरत और ख्वाब ही उसके आंखों में सजने लगे.उन्हें मुक्कम्मल करना ही उसने अपना फ़र्ज़ और बंदगी माना था.लेकिन काश यह हमेशा रहता.....
पहले बच्चे के जन्म के साथ ही परवेज़ ने उससे किनारा करना शुरू कर दिया था और दूसरे बच्चे के बाद तो सारा नज़ारा ही बदल गया था. सबिया के हुस्न का तिलिस्म टूट चुका था. घर के बाहर जाकर औरतों से मिलने का सिलसिला बढ़ते बढ़ते घर की दहलीज़ लाँघ उसके बेडरूम तक आ पहुँचा था.अपने ही घर में उसका ठिकाना गेस्टरूम हो गया था.जब यह सिलसिला शुरू हुआ था तो पहले पहल तो कुछ दिनों तक सब नजरअंदाज किया, पर बाद में उसने इसकी पुरजोर खिलाफत शुरू की.वक्त के साथ जैसे जैसे उसका विरोध मुखर होता गया,परवेज़ की हरकतें और जुल्म भी बढ़ते गए..सबिया को तोड़ने और खुलकर ऐय्यासी के लिए परवेज ने छोटे दुधमुहें बच्चों को उससे अलग कर घर से दूर होस्टल भेज दिया.
उसके बाद से तो फ़िर महफिलें घर पर ही सजने लगी.उसके घर और शौहर पर बाहरवालियां राज करने लगीं. परवेज़ की प्यार की जगह अब उसके हिस्से शौहर से दिए जिस्मानी रूहानी जुल्म रह गए थे..परवेज़ ने उसके ऊपर तलाक की वह तलवार लटकाई,जो आठों पहर उसके रूह को काटती रहती थी. दिन बीतने के साथ साथ परवेज़ हरवक्त उसके छुटकारा पाने की ताक में लगे रहने लगे थे.उनके जुल्म बेतहाशा बढ़ गए थे.पर उसने तलाकशुदा लड़कियों की जिंदगियों को भी देखा था. तलाक का ठीकरा लडकी पर ही तो फोड़ा जाता था,उसे ही गुनाहगार ठहराया जाता था.कई बार उसने खुदकुशी की ठानी,पर अपने बच्चों की सोच, इसे अंजाम न दे पाई थी.....कई बार सोचा कि अपने घर हिन्दुस्तान चली जाए......पर वहां भी तो उसका ठौर नही था. जाती भी तो कैसे जाती...अब्बू रहे नहीं थे. एक भाई था जो ठीक से पढ़ लिख नही पाया,तो अब्बू ने अपनी सारी जमा पूँजी दे उसके लिए परचून की दूकान खोल दी थी,जिससे बड़ी मुश्किल से दो वक्त की रोटी जुटती थी.. दूर थी तो किसीको उसके तकलीफ का इल्म न हो पाता था.जब कभी वह मायके गई भी तो उसके कपडों गहनों की चकाचौंध के आगे उसके परिवार वालों की नजरें उसके मन तक न पहुँच पाई थी......सबकी नजरों में वह मलिका थी. इस भरम में भी उसका मान ही था....इसे वह तोड़ना नही चाहती थी.
अपनी आंखों के सामने अपने शौहर की सारी ऐय्यासियां बर्दाश्त करती,अपनी किस्मत और आत्मसम्मान को धिक्कारते उम्र के छियालीस साल तो उसने निकाल दिए थे,अब बाकी बची साँसों की कैद निकालनी थी. पर अब वह अपने रूह के सुकून के लिए कुछ करना चाहती थी.उसके शौहर को क्या चाहिए था,ऐय्यासी की आजादी ही न...वह उसने दिया है आजतक,पर आज वह उसकी कीमत मांगेगी...वह जानती है अगर वह मनमर्जी परवेज़ के पैसों को इस्तेमाल करना चाहे तो परवेज को कोई ऐतराज न होगा......नादिरा को वह शौहर नही दे सकती पर वह इतना तो कर सकती है कि , नादिरा और उसके बच्चियों की परवरिश और तालीम के लिए कुछ करे. हाँ....अब वह उनका का पूरा खर्चा उठायेगी.नादिरा और उसकी बच्चियों को माकूल तालीम दिलवाएगी और उन्हें एक महफूज माहौल देगी.नादिरा और उसके बच्चियों पर वह सब कुछ न गुजरने देगी जो उसका अपना देखा भोगा हुआ है.अब तो उनको बेखौफ मुक्कम्मल जीते देखना ही उसके सुकून का सबब बनेगा.....
और यह ख़याल फ़िर से उसे मुद्दतों बाद जिला गया था.......
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12.1.09
ग्रेजुएट भिखारी !
करीब सोलह सत्रह वर्ष पहले की बात है. छोटा भाई इंजीनियरिंग इंट्रेंस के लिए पटना में रहकर कोचिंग कर रहा था.एक आवश्यक कार्य के सिलसिले में तीन दिनों के लिए मेरा पटना जाना हुआ तो भाई के पास ही रह गई. भाई जिस फ्लैट में रहता था तीन और लड़के उसके साथ रहते थे. सुबह तडके ही भाई उठकर तैयार हो गया और अपने अन्य रूम मेटों के साथ घर से जाने लगा.पूछने पर उसने बताया कि शुशील (उसका रूम मेट) के लिए जगह छेकने कॉलेज जा रहे हैं. बात मेरी समझ में नही आई......मैंने उससे विस्तार में बताने को कहा तो वह यह कहकर चला गया कि ,अभी बहुत हड़बड़ी में हूँ तुझे शार्ट कट में समझा नही सकता, वापस आकर बताऊंगा.
करीब दो बजे जब वह वापस आया तो उसकी और उसके रूम मेटों की अस्त वयस्त हालत देखर मैं परेशान हो गई.लग रहा था जैसे कहीं से लड़ भिड कर आ रहे हैं.घबराकर पूछने लगी तो कहने लगा जरा खा तो लेने दे फ़िर बताता हूँ.उनके खाने भर का समय मुझ पर बड़ा भरी गुजरा.मारे उत्सुकता और आशंका के मेरा बुरा हाल था.
और फ़िर जब उन्होंने विवरण बताया तो मैं बस सन्न हो सुनती रह गई। मेरा यह पहला और अनोखा अनुभव था. भाई के साथ जो अन्य तीन और लड़के रहते थे वे तीनो भाई थे और शुशील उनका सबसे छोटा भाई था जो उस समय आई.एस. सी. की परीक्षा दे रहा था. कॉलेज ने परीक्षा व्यवस्था के नाम पर जो कुछ किया जाता था वह इतना भर था कि जितने विद्यार्थियों को एडमिट कार्ड बांटा जाता था उसके अनुरूप ही प्रश्नपत्र और उत्तर पुस्तिका की व्यवस्था की जाती थी. परीक्षा शुरू होने से घंटे भर पहले मेन गेट खुलता था और फ़िर हो जाती थी जगह की लूट पाट. सीटिंग अरेंजमेंट नाम की कोई व्यवस्था नही होती थी. प्रत्येक विद्यार्थी के साथ कम से कम चार से पाँच लोग साथ जाते थे जिनमे देह और बुद्धि दोनों से बलिष्ठ अलग अलग सहायक होते थे .देह से बलिष्ठ अपने कैंडिडेट के लिए जगह,प्रश्नपत्र तथा उत्तर पुस्तिका लूटने में लग जाते थे और दिमाग वाले प्रश्न पत्रों के उत्तर के इंतजाम में लगने वाले होते थे.
शर्ट, रूमाल,तौलिया,ईंट या पत्थर इत्यादि रखकर जगह छेका जाता था और धक्का मुक्की में घुसकर एडमिट कार्ड दिखाकर प्रश्न और उत्तर पुस्तिका लिया जाता था. भुसकोल (कमजोर) विद्यार्थी के लिए उनके बदले लिखने वाले सहायक भी साथ होते थे और बाकी लोग भाग दौड़ कर सवालों के जवाब उगाहते थे. क्योंकि मेन गेट बंद होने के कारण कैम्पस से बाहर जाकर सवालों को हल करा पाना मुश्किल होता था. आज की तरह उन दिनों मोबाईल या फोन की व्यवस्था तो थी नही,नही तो मुन्ना भाई स्टाइल में सब बैठे बैठे हो जाता. बंद गेट के बाहर से यह व्यवस्था दिखती थी कि पूर्ण व्यवस्थित और शांतिपूर्ण माहौल में परीक्षा संपन्न करायी जा रही है.
हाँ, इतना था कि महाविद्यालय द्वारा परीक्षा के नियत समय पर ही प्रश्न और उत्तरपुस्तिकाओं का वितरण होता था और नियत समय पर यदि प्रोफेसर साहब के पास जाकर उत्तरपुस्तिका जमा नही कर दी जाती थी तो बाद में किसी तरह का कंसीडेरेसन नही होता था.यह अलग बात थी कि आम बच्चो और अभिभावकों में इस बात का बड़ा क्षोभ और रोष था कि रसूख वाले,लग्गी (जुगाडू ) वाले, मंत्री या उच्चअधिकारियों के सगे सम्बन्धियों को महाविद्यालय जाकर इस धक्का मुक्की में नही फँसना पड़ता था.उन्हें एक दिन पहले घर पर ही प्रश्न और उत्तर पुस्तिका उपलब्ध हो जाती थी और वे अपनी सुविधानुसार लिखवाकर उसे महाविद्यालय के दफ्तर भिजवा देते थे.जबकि यह व्यवस्था सबके लिए होनी चाहिए.
यह सब लालू जी के पन्द्रह वर्षीय शुशासन में पूर्ण साक्षरता अभियान का व्यावहारिक रूप था.... उनका सपना था कि बिहार का भिखारी भी ग्रेजुएट हो.हालाँकि नितीश जी ने लालू जी के उस सपने पर झाडू फेर दिया है.पर पता नही लालू/राबड़ी के लंबे राज्यकाल में इस प्रकार की सुविधाओं का सुख भोग चुकी बिहार की जनता कहीं फ़िर से उन सुविधाओं के लिए लालायित हो नितीश जी का पत्ता न साफ कर दे.
वैसे लालू जी के संरक्षण में संरक्षित और संचालित झारखण्ड ने लालू जी के उस सपने को पूरा करने का पूरा मन बना लिया है. गुरु गुड़ रहा गया और चेला चीनी बन चहुँ ओर छा गया .जो हाल लालू जी ने पन्द्रह वर्षों में बिहार का किया वह तमाम झारखण्ड के लालों ने उसके तिहाई समय में वर्षों तक दंगा फसाद सेंदरा कर पुरूस्कार स्वरुप पाए इस झारखंड राज्य का कर दिया.
यूँ ऊपर से देखने पर सरकार की कल्याणकारी नीतियाँ मुग्ध और नतमस्तक कर देती हैं.पर मध्यान्ह भोजन, पुस्तक वितरण,कंप्यूटर प्रशिक्षण ,क्षात्रवृत्ति या साइकिल वितारण से लेकर कोई भी योजना ऐसी नही कि जिसमे सिर्फ़ घोटाले ही घोटाले न हों. कहीं कहीं तो ऐसी हास्यास्पद स्थिति होती है,बस सोचते रह जाना पड़ता है कि इस योजना का प्रयोजन क्या है.मध्यान्ह भोजन में भोजन की व्यवस्था तो है (खद्यान्न के स्तर और घोटाले को जाने दें) ,पर उस भोजन को पकायेगा, खिलायेगा कौन, इसकी कोई योजना/व्यवस्था नही.स्कूल के समय पर पढाने के बदले शिक्षक शिक्षिकाएं भोजन पकाने में व्यस्त रहते हैं और विद्यार्थी भी खेलते कूदते भोजन मिलने की प्रतीक्षा में रहते हैं. भोजन पकाया , खाया गया और हो गई छुट्टी..
और जहाँ तक बात रही परीक्षाओं की तो पहली कक्षा से ग्रेजुएट होने तक तो रेवड़ियों की तरह परीक्षा फल बाँट तन्त्र में यह दिखाना है कि राज्य ने पूर्ण साक्षरता अभियान के लक्ष्य को पा लिया है. भ्रष्टाचार में आकंठ निमग्न सरकार को तो सिर्फ़ इससे मतलब है कि जितनी सरकारी योजनायें होंगी उतने ही कमाई के अवसर होंगे........फ़िर कौन सोचता है कि आरक्षण के तहत यदि इन स्नातकों को रोजगार /नौकरी मिल भी गया तो ये क्या और कैसे करेंगे या अयोग्यता के कारण काम न मिला तो ये ग्रेजुएट (अनपढ़) सचमुच गेजुएट भिखारी बने रह जायेंगे.
करीब दो बजे जब वह वापस आया तो उसकी और उसके रूम मेटों की अस्त वयस्त हालत देखर मैं परेशान हो गई.लग रहा था जैसे कहीं से लड़ भिड कर आ रहे हैं.घबराकर पूछने लगी तो कहने लगा जरा खा तो लेने दे फ़िर बताता हूँ.उनके खाने भर का समय मुझ पर बड़ा भरी गुजरा.मारे उत्सुकता और आशंका के मेरा बुरा हाल था.
और फ़िर जब उन्होंने विवरण बताया तो मैं बस सन्न हो सुनती रह गई। मेरा यह पहला और अनोखा अनुभव था. भाई के साथ जो अन्य तीन और लड़के रहते थे वे तीनो भाई थे और शुशील उनका सबसे छोटा भाई था जो उस समय आई.एस. सी. की परीक्षा दे रहा था. कॉलेज ने परीक्षा व्यवस्था के नाम पर जो कुछ किया जाता था वह इतना भर था कि जितने विद्यार्थियों को एडमिट कार्ड बांटा जाता था उसके अनुरूप ही प्रश्नपत्र और उत्तर पुस्तिका की व्यवस्था की जाती थी. परीक्षा शुरू होने से घंटे भर पहले मेन गेट खुलता था और फ़िर हो जाती थी जगह की लूट पाट. सीटिंग अरेंजमेंट नाम की कोई व्यवस्था नही होती थी. प्रत्येक विद्यार्थी के साथ कम से कम चार से पाँच लोग साथ जाते थे जिनमे देह और बुद्धि दोनों से बलिष्ठ अलग अलग सहायक होते थे .देह से बलिष्ठ अपने कैंडिडेट के लिए जगह,प्रश्नपत्र तथा उत्तर पुस्तिका लूटने में लग जाते थे और दिमाग वाले प्रश्न पत्रों के उत्तर के इंतजाम में लगने वाले होते थे.
शर्ट, रूमाल,तौलिया,ईंट या पत्थर इत्यादि रखकर जगह छेका जाता था और धक्का मुक्की में घुसकर एडमिट कार्ड दिखाकर प्रश्न और उत्तर पुस्तिका लिया जाता था. भुसकोल (कमजोर) विद्यार्थी के लिए उनके बदले लिखने वाले सहायक भी साथ होते थे और बाकी लोग भाग दौड़ कर सवालों के जवाब उगाहते थे. क्योंकि मेन गेट बंद होने के कारण कैम्पस से बाहर जाकर सवालों को हल करा पाना मुश्किल होता था. आज की तरह उन दिनों मोबाईल या फोन की व्यवस्था तो थी नही,नही तो मुन्ना भाई स्टाइल में सब बैठे बैठे हो जाता. बंद गेट के बाहर से यह व्यवस्था दिखती थी कि पूर्ण व्यवस्थित और शांतिपूर्ण माहौल में परीक्षा संपन्न करायी जा रही है.
हाँ, इतना था कि महाविद्यालय द्वारा परीक्षा के नियत समय पर ही प्रश्न और उत्तरपुस्तिकाओं का वितरण होता था और नियत समय पर यदि प्रोफेसर साहब के पास जाकर उत्तरपुस्तिका जमा नही कर दी जाती थी तो बाद में किसी तरह का कंसीडेरेसन नही होता था.यह अलग बात थी कि आम बच्चो और अभिभावकों में इस बात का बड़ा क्षोभ और रोष था कि रसूख वाले,लग्गी (जुगाडू ) वाले, मंत्री या उच्चअधिकारियों के सगे सम्बन्धियों को महाविद्यालय जाकर इस धक्का मुक्की में नही फँसना पड़ता था.उन्हें एक दिन पहले घर पर ही प्रश्न और उत्तर पुस्तिका उपलब्ध हो जाती थी और वे अपनी सुविधानुसार लिखवाकर उसे महाविद्यालय के दफ्तर भिजवा देते थे.जबकि यह व्यवस्था सबके लिए होनी चाहिए.
यह सब लालू जी के पन्द्रह वर्षीय शुशासन में पूर्ण साक्षरता अभियान का व्यावहारिक रूप था.... उनका सपना था कि बिहार का भिखारी भी ग्रेजुएट हो.हालाँकि नितीश जी ने लालू जी के उस सपने पर झाडू फेर दिया है.पर पता नही लालू/राबड़ी के लंबे राज्यकाल में इस प्रकार की सुविधाओं का सुख भोग चुकी बिहार की जनता कहीं फ़िर से उन सुविधाओं के लिए लालायित हो नितीश जी का पत्ता न साफ कर दे.
वैसे लालू जी के संरक्षण में संरक्षित और संचालित झारखण्ड ने लालू जी के उस सपने को पूरा करने का पूरा मन बना लिया है. गुरु गुड़ रहा गया और चेला चीनी बन चहुँ ओर छा गया .जो हाल लालू जी ने पन्द्रह वर्षों में बिहार का किया वह तमाम झारखण्ड के लालों ने उसके तिहाई समय में वर्षों तक दंगा फसाद सेंदरा कर पुरूस्कार स्वरुप पाए इस झारखंड राज्य का कर दिया.
यूँ ऊपर से देखने पर सरकार की कल्याणकारी नीतियाँ मुग्ध और नतमस्तक कर देती हैं.पर मध्यान्ह भोजन, पुस्तक वितरण,कंप्यूटर प्रशिक्षण ,क्षात्रवृत्ति या साइकिल वितारण से लेकर कोई भी योजना ऐसी नही कि जिसमे सिर्फ़ घोटाले ही घोटाले न हों. कहीं कहीं तो ऐसी हास्यास्पद स्थिति होती है,बस सोचते रह जाना पड़ता है कि इस योजना का प्रयोजन क्या है.मध्यान्ह भोजन में भोजन की व्यवस्था तो है (खद्यान्न के स्तर और घोटाले को जाने दें) ,पर उस भोजन को पकायेगा, खिलायेगा कौन, इसकी कोई योजना/व्यवस्था नही.स्कूल के समय पर पढाने के बदले शिक्षक शिक्षिकाएं भोजन पकाने में व्यस्त रहते हैं और विद्यार्थी भी खेलते कूदते भोजन मिलने की प्रतीक्षा में रहते हैं. भोजन पकाया , खाया गया और हो गई छुट्टी..
और जहाँ तक बात रही परीक्षाओं की तो पहली कक्षा से ग्रेजुएट होने तक तो रेवड़ियों की तरह परीक्षा फल बाँट तन्त्र में यह दिखाना है कि राज्य ने पूर्ण साक्षरता अभियान के लक्ष्य को पा लिया है. भ्रष्टाचार में आकंठ निमग्न सरकार को तो सिर्फ़ इससे मतलब है कि जितनी सरकारी योजनायें होंगी उतने ही कमाई के अवसर होंगे........फ़िर कौन सोचता है कि आरक्षण के तहत यदि इन स्नातकों को रोजगार /नौकरी मिल भी गया तो ये क्या और कैसे करेंगे या अयोग्यता के कारण काम न मिला तो ये ग्रेजुएट (अनपढ़) सचमुच गेजुएट भिखारी बने रह जायेंगे.
5.1.09
शुभ की कामना !
शादी ब्याह ,पूजा पाठ ,पर्व त्यौहार इत्यादि पर भले लोग अपने अपने धर्म समुदाय में प्रचलित पंचांगों का अनुसरण करें,पर इस वैश्वीकरण के युग ने इतना तो किया है कि विश्व के विभिन्न मत मतान्तर के अनुयायियों द्वारा वर्षभर के बारहों महीनो में अलग अलग समय में नव वर्ष का प्रारम्भ मानने वाला विश्व समुदाय अंग्रेजी कैलेंडर के हिसाब से एक जनवरी को ही नए वर्ष के पहले दिन के आरंभिक दिन रूप में उत्सव सहित मानते हैं। सही ग़लत की बात छोड़ दें, तो इस बात पर उत्साहित हुआ ही जा सकता है और हर्ष मनाया जा सकता है कोई एक तो मौका और कारण ऐसा है जो विश्व समुदाय को एकजुट करता है. नही तो एक कैलेंडर बदलने से अधिक नए वर्ष के नाम पर और क्या बदलता है.भूख, गरीबी, हिंसा, विध्वंश, दुराचार ,अत्याचार ........सब अपनी जगह पर यथावत या कुछ और ही अधोमुख.
इतने सारे वर्ष निकल गए शुभकामनाओं के आदान प्रदान और शुभ की अपेक्षा में।पर चहुँओर घटित दुर्घटनाओ,विध्वंश, अधर्म और अनाचार के फैलते पसरते साम्राज्य को देख मन कभी कभी इतना हतोत्साहित हो जाता है कि लगता है इतने हृदयों से निकली शुभ की कामना क्यों विलुप्त हो जाती है.......क्यों नही यह फलित होती......और तब इच्छा ही नही होती औपचारिकताओं (शुभकामनाओ के आदान प्रदान) को निभाने की या शुभ के लिए बहुत अधिक आशान्वित रहने की.
शुभ की कामना अवश्य रखनी चाहिए । नए वर्ष या किसी अवसर विशेष पर ही क्यों , सदैव रखनी चाहिए.पर यह भी स्मरण रखना होगा कि वर्षों से शुभ की कामना मन में रखे और उद्गारों के आदान प्रदान के बाद भी यदि दिनानुदिन धार्मिक ,सामाजिक ,सांस्कृतिक , राजनितिक ,आर्थिक इत्यादि प्रत्येक क्षेत्र से धर्म बहिष्कृत होती जा रही है,धर्माचरण हास्यास्पद और मूर्खता का पर्याय ठहराया जाने लगा है, तो अब ऐसे में केवल शुभकामनाओं के आदान प्रदान और शुभ घटित होने की अपेक्षा रखने भर से काम न चलेगा.आवश्यकता है कि अपने आचरण में दृढ़ता से शुभ (सदाचार) को प्रश्रय देने की और अपने व्यग्तिगत स्वार्थ से उपार उठते हुए अपने सरोकारों को विस्तृत करते हुए समाज देश और विशव के सरोकारों से जुड़ने की. जहाँ कहीं भी अशुभ आचरण का अनुगमन हो रहा हो,उसके विरुद्ध मोर्चा खोले बिना किसी भी मोर्चे पर पतन को रोक पाना असंभव है॥
अपने अन्दर और बहार दोनों जगहों से अशुभ (अनाचार) को ध्वस्त कर ही हम शुभ की आशा रख सकते हैं और अपनी अगली पीढी को वह अवसर और परिवेश थाती में दे सकते हैं,जिसमे वह पूर्ण हर्षोल्लास के साथ उत्साहित हो शुभ की कामना करे और उसे फलित होता हुआ पाये...
कामना !!
पल पल छिन छिन चुकती जाए यह साँसों की पूंजी,
विधि ने जो है नियत किया वह अभी भी है अनबूझी.
बूँद बूँद कर रीती जाती घट जीवन जल वाली ,
संचित कर्म को गुनु तो पाऊं हाथ अभी भी खाली.
हे दाता दे हमको अपनी करुणा का अवलंबन,
सत्पथ पर चलने हेतु सद्बुद्धि धैर्य समर्पण.
काम क्रोध मद मोह लोभ से रक्षा करो हमारी,
भोग रोग न ग्रसित करे मति दृढ़ता भरो हमारी.
रोग शोक भय क्षोभ मुक्त हो प्रयाण की पावन बेला,
अंजुरी भर संतोष संग ले संपन्न हो जीवन लीला.
इतने सारे वर्ष निकल गए शुभकामनाओं के आदान प्रदान और शुभ की अपेक्षा में।पर चहुँओर घटित दुर्घटनाओ,विध्वंश, अधर्म और अनाचार के फैलते पसरते साम्राज्य को देख मन कभी कभी इतना हतोत्साहित हो जाता है कि लगता है इतने हृदयों से निकली शुभ की कामना क्यों विलुप्त हो जाती है.......क्यों नही यह फलित होती......और तब इच्छा ही नही होती औपचारिकताओं (शुभकामनाओ के आदान प्रदान) को निभाने की या शुभ के लिए बहुत अधिक आशान्वित रहने की.
शुभ की कामना अवश्य रखनी चाहिए । नए वर्ष या किसी अवसर विशेष पर ही क्यों , सदैव रखनी चाहिए.पर यह भी स्मरण रखना होगा कि वर्षों से शुभ की कामना मन में रखे और उद्गारों के आदान प्रदान के बाद भी यदि दिनानुदिन धार्मिक ,सामाजिक ,सांस्कृतिक , राजनितिक ,आर्थिक इत्यादि प्रत्येक क्षेत्र से धर्म बहिष्कृत होती जा रही है,धर्माचरण हास्यास्पद और मूर्खता का पर्याय ठहराया जाने लगा है, तो अब ऐसे में केवल शुभकामनाओं के आदान प्रदान और शुभ घटित होने की अपेक्षा रखने भर से काम न चलेगा.आवश्यकता है कि अपने आचरण में दृढ़ता से शुभ (सदाचार) को प्रश्रय देने की और अपने व्यग्तिगत स्वार्थ से उपार उठते हुए अपने सरोकारों को विस्तृत करते हुए समाज देश और विशव के सरोकारों से जुड़ने की. जहाँ कहीं भी अशुभ आचरण का अनुगमन हो रहा हो,उसके विरुद्ध मोर्चा खोले बिना किसी भी मोर्चे पर पतन को रोक पाना असंभव है॥
अपने अन्दर और बहार दोनों जगहों से अशुभ (अनाचार) को ध्वस्त कर ही हम शुभ की आशा रख सकते हैं और अपनी अगली पीढी को वह अवसर और परिवेश थाती में दे सकते हैं,जिसमे वह पूर्ण हर्षोल्लास के साथ उत्साहित हो शुभ की कामना करे और उसे फलित होता हुआ पाये...
कामना !!
पल पल छिन छिन चुकती जाए यह साँसों की पूंजी,
विधि ने जो है नियत किया वह अभी भी है अनबूझी.
बूँद बूँद कर रीती जाती घट जीवन जल वाली ,
संचित कर्म को गुनु तो पाऊं हाथ अभी भी खाली.
हे दाता दे हमको अपनी करुणा का अवलंबन,
सत्पथ पर चलने हेतु सद्बुद्धि धैर्य समर्पण.
काम क्रोध मद मोह लोभ से रक्षा करो हमारी,
भोग रोग न ग्रसित करे मति दृढ़ता भरो हमारी.
रोग शोक भय क्षोभ मुक्त हो प्रयाण की पावन बेला,
अंजुरी भर संतोष संग ले संपन्न हो जीवन लीला.
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