27.2.09

द्वापर वहीँ ठहरा है........

जीवन में कई बार ऐसा होता है कि कोई स्थिति विशेष, प्रसंग, परिभाषाएं, शब्द, भाव वर्षों तक मन मष्तिष्क के सम्मुख उपस्थित रहते हुए भी अस्पष्ट औचित्यहीन होकर मनोभूमि पर विखण्डित से अवस्थित होते हैं और फिर किसी एक कालखंड में ऐसा कुछ घटित हो जाता है कि वे अपने दिव्य उद्दात्त रूप में नवीन अर्थ के साथ स्वयं को परिभाषित कर प्रतिष्ठित कर जाते हैं.


आस्तित्व का आविर्भाव जैसे ही धरती पर होता है, शरीर की आँखें खुलती नहीं कि जिज्ञासाओं की आँखें भी खुल जाती है. क्यों और कैसे, जैसे बोध और जिज्ञासा ही मनुष्य को अन्य प्राणियों से इतर,विशिष्ठ करते हैं और यही जिज्ञासा ज्ञान विज्ञान का भी विस्तार करता है..


मेरा प्रबल विश्वास है कि किसी भी धर्म परंपरा में निहित व्रत त्योहारों के प्रावधान में सभ्यता संस्कृति और समाज के व्यापक मंगल के कारक निहित हैं. प्रबुद्ध ऋषियों मनीषियों ने वर्षों तक कठोर साधना और वैज्ञानिक अन्वेशानोपरांत इन्हें धर्म और परंपरा में नियोजित और प्रतिष्ठित किया है.......परन्तु बाल्यावस्था से ही रंगोत्सव (होली) का जो स्वरुप देखा था और इस परंपरा में निहित जितने कारणों/आख्यानों, भावों को जान पायी थी,इसकी प्रासंगिकता और अपरिहार्यता मुझे नितांत ही अनावश्यक लगती थी.उच्श्रीन्ख्लता को धार्मिक आधार देते इस पर्व की प्रासंगिकता मुझे समझ नहीं आती थी. अपितु यदि यह कहूँ कि मानस में इसकी छाप एक निकृष्ट, वीभत्स उत्सव के रूप में थी तो कोई अतिशियोक्ति न होगी......


यह ईश्वर की ही असीम अनुकम्पा थी कि गत वर्ष रंगोत्सव के अवसर पर वृन्दावन जाना हुआ.... सुसंयोग से बांकेबिहारी जी के मंदिर के अत्यंत निकट ठहरने की व्यवस्था भी हो गयी....वहां दो दिनों में जो भी देखा, उस समय की मनोदशा की तो क्या कहूँ, अभी भी उसका स्मरण मात्र ही रोमांचित और भावुक कर देता है और भावावेश शब्दों को कुंठित अवरुद्ध कर देता है....


इतने वर्षों की जिज्ञासा ऐसे शांत होगी,कभी परिकल्पित न किया था. कहाँ तो रंगोत्सव का पर्याय ही , उच्श्रीन्ख्लता, रासायनिक रंगों का दुरूपयोग, मांसाहार ,मादक पदार्थों का सेवन और होली के नाम पर शीलता का उल्लंघन इत्यादि ही देखा था.......और जो वहां देखा तो बस आत्मविस्मृत हो देखती ही रह गयी........


पूरे क्षेत्र में कहीं भी मद्य (नशीले पदार्थ) और मांसाहार का नामोनिशान नहीं था. बच्चों से लेकर बुजुर्ग स्त्री पुरुष, स्थानीय नागरिक या आगंतुक तक सभी संकरी गलियों या सडकों से निर्भीक गुजरते हुए बिना किसी परिचय तथा भेद भाव के, बिना किसी को स्पर्श किये रंग गुलाल से सराबोर किये जा रहे थे. कुछ लोगों का समूह वाद्य यंत्रों के साथ तो कुछ ऐसे ही तालियाँ बजाते हुए, भजन गाते हुए, झूमते नाचते गलिओं से गुजर रहे थे. कौन सधवा है,कौन विधवा न रंग डालने वाले इसका भान रख रहे थे और न ही रंगे जाने वालों को कोई रंज या क्षोभ था......जिस तरह से निर्भीक हो किशोरियां ,युवतियां , महिलाएं मार्गों पर चल रहीं थीं और जितनी शिष्टता से उनपर रंग डाले जा रहे थे ,यह तो अभिभूत ही कर गया....क्योंकि इसकी परिकल्पना हम अपने क्षेत्र में कतई नहीं कर सकते.


बाँकेबिहारी जी के मंदिर का पूरा प्रांगण रंग गुलाल से सराबोर था....जहाँ कहीं भी गयी,जहाँ तक दृष्टि गयी देखा , पूरा वृन्दावन ही भक्तिमय रंगमय हो विभोर हो झूम रहा है, गा रहा है..........इन दृश्यों ने मन ऐसे बाँधा कि ...लगा द्वापर बीता कहाँ है......यह तो यहीं ठहरा है, आज भी........तन मन आत्मा ऐसे रंग गया कि, यह पावन उत्सव - रंगोत्सव, अपने पूर्ण अर्थ और दिव्य स्वरुप में मनोभूमि पर अवतरित हो गया.........


मन बड़ा कचोट जाता है और लगता है कि जिस लोक कल्याणकारी सात्विक भाव के साथ परंपरा में पर्व त्योहारों का प्रावधान हुआ था,क्या हम उन्हें उनके उसी अर्थ और स्वरुप में नहीं मना सकते........समस्या है कि हम सुख तो पाना चाहते हैं, पर यह विस्मृत कर जाते हैं कि सात्विक सुख ही असली सुख है.यही चिरस्थायी होता है और यह सुख आत्मा तक पहुंचकर क्लांत मन को विश्राम तथा सकारात्मक उर्जा प्रदान करता है.तन रंगने से अधिक आवश्यक मन को रंगना है.........चिर सुख हेतु एक बार सात्विक रंगों से रंगकर देखें इस मन को........देखें कितना आनद है इस रंग मे...........

**************************************************

24.2.09

अरे, वाह !! हम तो ब्लागर हैं !!!

आज तक ब्लागिंग हमारे लिए पढने और उद्गारों को अभिव्यक्त करने का एक सुगम माध्यम भर था ,पर भाई शैलेश भारतवासी के प्रयास से बाईस फरवरी को रांची में आयोजित अभूतपूर्व इस ऐतिहासिक ब्लागर मीट में क्या सम्मिलित हुए कि जबरदस्त अनुभूति हुई, लगा हम इलेक्ट्रानिक पन्ने पर महज पढने लिखने वाले नही बल्कि बड़े ख़ास जीव हैं..अब तो हम एक अलग प्रजाति के अंतर्गत हैं,कालर ऊपर उठा कह सकते हैं........भई ,हम कोई ऐरे गैरे नही,बिलागर हैं... भले पत्रकारों और साहित्यकारों के साथ साथ बहुतायतों की नजरों में हम इन्टरनेट पर टाइम पास करने वाले तुच्छ जीव क्यों न हों......


लगभग डेढ़ महीने पहले शैलेश ने जब इस तरह के कार्यक्रम के आयोजन के विषय में बात की थी तो झारखण्ड में मुझे इसकी सफलता पर बड़ा शंशय था..परन्तु यह उसकी दृढ़ इच्छा शक्ति,लगन और परिश्रम का ही फल था कि कार्यक्रम इतनी सफलतापूर्वक संपन्न हो पाया..एक ओर जहाँ आयोजिका/व्यवस्थापिका भारतीजी के उदार ह्रदय(आयोजन के लिए जिन्होंने ह्रदय खोल मुक्त हस्त से धन व्यय किया था ) को देख हम अभिभूत हुए, वहीँ पत्रकार समुदाय का ब्लॉग के बारे में राय जानने का मौका भी मिला और सबसे बड़ी बात, इसी बहाने उन लोगों से संपर्क का सुअवसर मिला, जिन लोगों को आज तक सिर्फ़ पढ़ा था और अपनी कल्पना में उनकी छवि गढी थी. उनके साथ आमने सामने बैठकर बात चीत करना निश्चित रूप से बड़ा ही सुखद अनुभव रहा....


यह बड़े ही हर्ष और उत्साह का विषय है कि आज आमजनों को इलेक्ट्रानिक मिडिया (ब्लॉग )एक ऐसा माध्यम उपलब्ध है जिसके जिसके अंतर्गत अभिव्यक्ति कितनी सुगम और सर्वसुलभ हो गई है. अभिवयक्ति सही मायने में स्वतंत्रता पा रही है. मुझे लगता है,तालपत्रों पर से कागज पर और फ़िर इलेक्ट्रानिक संचार माध्यम पर उतरकर भी ज्ञान/साहित्य यदि ज्ञान/साहित्य है तो देर सबेर ब्लॉग के माध्यम से अभिव्यक्त सामग्री को भी टुच्चा और टाइम पास कह बहुत दिनों तक नाकारा नही जा सकेगा.हाँ, पर यह नितांत आवश्यक है कि अपना स्थान बनाने और स्थायी रहने के लिए ब्लाग पर डाली गई सामग्री स्तरीय हो. यह बड़े ही हर्ष और सौभाग्य की बात है कि तकनीक जो अभी तक अंगरेजी की ही संगी या चेरी थी, अब वहां हिन्दी भी अपना स्थान बनाने में सफल हुई है.


भाषा केवल सम्प्रेश्नो के आदान प्रदान का माध्यम भर नही होती, बल्कि उसमे एक सभ्यता की पूरी सांस्कृतिक सांस्कारिक पृष्ठभूमि,विरासत समाहित होती है. वह यदि मरती है तो,उसके साथ ही उक्त सभ्यता के कतिपय सुसंस्कार भी मृत हो जाते हैं ..विगत दशकों में हिन्दी जिस प्रकार संस्थाओं के कार्यकलाप से लेकर शिक्षण संस्थाओं तथा आम जन जीवन से तिरस्कृत बहिष्कृत हुई है, देखकर कभी कभी लगता था कि कहीं,जो गति संस्कृत भाषा ,साहित्य की हुई ,उसी गति को हिन्दी भी न प्राप्त हो जाय.पर भला हो बाजारवाद का,जिसने तथाकथित शिक्षित प्रगतिवादी तथा कुलीनों की तरह हिन्दी को अस्पृश्य नही बल्कि अपार सम्भावना के रूप में देखा ओर तकनीक में इसे भी तरजीह दिया.बेशक लोग हिन्दी में बाज़ार देखें ,हमें तो यह देखकर हर्षित होना है कि उन्नत इस तकनीक के माद्यम से हम हिन्दी प्रचार प्रसार और इसे सुदृढ़ करने में अपना योगदान दे सकते हैं. आज इस माध्यम के कारण ही प्रिंट तथा इलेक्ट्रानिक मिडिया के बंधक बने ज्ञान को अभिव्यक्त होने के लिए जो मुक्त आकाश मिला है,यह बड़ा ही महत्वपूर्ण सुअवसर है,जिसका सकारात्मक भाषा को समृद्ध और सुदृढ़ करने में परम सहायक हो सकता है और इसका सकारात्मक उपयोग हमारा परम कर्तब्य भी है..


आज ब्लाग अभिव्यक्ति को व्यक्तिगत डायरी के परिष्कृति परिवर्धित रूप में देखा जा रहा है, परन्तु यह डायरी के उस रूप में नही रह जाना चाहिए जिसमे सोने उठने खाने पीने या ऐसे ही महत्वहीन बातों को लिखा जाय और महत्वहीन बातों को जो पाठकों के लिए भी कूड़े कचड़े से अधिक न हो प्रकाशित किया जाय. इस अनुपम बहुमूल्य तकनीकी माध्यम का उपयोग यदि हम श्रीजनात्मक/रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए करें तो इसकी गरिमा निःसंदेह बनी रहेगी और कालांतर में गरिमामय महत्वपूर्ण स्थान पाकर ही रहेगी.केवल अपने पाठन हेतु निजी डायरी में हम चाहे जो भी लिख सकते हैं,परन्तु जब हम सामग्री को सार्वजानिक स्थल पर सर्वसुलभ कराते हैं, तो हमारा परम कर्तब्य बनता है कि वैयक्तिकता से बहुत ऊपर उठकर हम उन्ही बातों को प्रकाशित करें जिसमे सर्वजन हिताय या कम से कम अन्य को रुचने योग्य कुछ तो गंभीर भी हो. हाथ में लोहा आए तो उससे मारक हथियार भी बना सकते हैं और तारक जहाज भी.अब हमारे ही हाथ है कि हम क्या बनाना चाहेंगे.
......................................................................................................

12.2.09

!!! झूम बराबर झूम !!!

भक्त प्रहलाद जब प्रभु प्रेम सरिता में आकंठ निमग्न हो तन मन की सुधि बिसरा तन्मय हो प्रभु वंदन में लीन हो जाते और झूमकर गायन और नृत्य में मग्न हो जाते थे तो उस अद्भुत दृश्य को देखने के लिए देवता भी विभोर हो इस विहंगम दृश्य का अवलोकन करने और इस दुर्लभ रस का पान करने लगते थे. .


लेकिन कहते हैं न अंहकार व्यक्ति को इतना अँधा कर देता है कि उसे मोह माया ममता हित अनहित किसी का भान नही रहता,सो मदांध हिरण्यकश्यप जो कि अपने बल के अंहकार में विवेकरहित हो चुका था, उसके लिए पुत्र पुत्र नही बल्कि एक प्रतिद्वंदी, एक चुनौती था, जो उसके ही घर में रह उसके शत्रु में आस्था रखता था,आठों प्रहार उसका का गुण गान किया करता था. अंहकार ने उसके ह्रदय से वात्सल्य भाव पूर्ण रूपेण तिरोहित कर उसके स्थान पर प्रतिद्वंदिता और शत्रुता का भाव प्रतिष्टित कर दिया था. अपने ही संतान और उत्तराधिकारी को नष्ट करने ,उसका वध करने को प्रतिपल सचेष्ट रहता और भांति भांति के कुचक्र रचा करता था.


बड़ी विचित्र स्थिति थी, एक ही कारक जो प्रहलाद के लिए सुख का श्रोत थी,हिरण्यकश्यप के लिए अपार कष्टदाई थी. घृणा और विद्वेष में निमग्न हिरण्यकश्यप नारायण के लिए जैसे ही विष वमन(दुर्वचन) करने लगता,पुत्र की भावनाओं को आहत करने को उद्धत होता ,नारायण नाम के श्रवण मात्र से प्रहलाद ऐसे आह्लादित और विभोर हो जाते कि वे भक्ति रस में निमग्न हो सुध बुध बिसरा उन्मत्त हो नृत्य करने लगते.एक ही कारण एक के लिए अपार सुख और दूसरे के लिए असह्य कष्ट का निमित्त थी.


एक दिन ऐसे ही भरी सभा में जैसे ही हिरण्यकश्यप ने प्रहलाद के आराध्य के लिए दुर्वचन बोलना आरम्भ किया कि प्रहलाद की फ़िर से वही दशा हो गई. हिरण्यकश्यप के लिए यह सब असह्य था.उसने सैनिकों को आदेश दिया कि अविलम्ब प्रहलाद को पकड़ कर कारागार में डाल दिया जाय और जितनी बार वह नारायण का नाम ले प्रति नाम दस कोड़े मारा जाय. आज्ञानुसार सैनिक प्रहलाद को पकड़ने आगे बढे,पर यह क्या..... जैसे ही उन्होंने प्रहलाद का स्पर्श किया, वे भी वैसे ही उन्मत्त हो प्रहलाद के साथ झूम झूम कर नृत्य में मग्न हो गए.. यह दृश्य हिरण्यकश्यप की क्रोधाग्नि को और भी भड़का गया..उसने तुंरत कुछ और सैनिकों को इन लोगों को पकड़कर कालकोठरी पहुँचाने का आदेश दिया.परन्तु जैसे ही सैनिकों की यह टुकडी वहां पहुँच इन्हे पकड़ने को उद्धत हुई कि पिछली बार की भांति ये भी वैसे ही मग्न हो गए.इसके बाद तो बस पूरा परिदृश्य ही यही हो गया.जितने लोग जाते सभी उसी रंग में रंग जाते.पूरी सभा ही भक्तिमय हो गई थी.


हिरण्यकश्यप क्रोध से बावला हो गया.यूँ भी उसे प्रजा की अभिरुचि का आभास था.वह जानता था कि भयाक्रांत हो प्रजा भले उसका मुखर विरोध नही कर रही,परन्तु प्रजा के हृदयशीर्ष पर उसकी शत्रु का उपासक उसका पुत्र ही विराजता है.उसकी सत्ता और ईश्वरत्व को चुनौती उसका अपना ही पुत्र दे रहा है....इसलिए वह इसके मूल को ही समाप्त कर जनमानस के सम्मुख दृष्टांत रखना चाहता था कि उसके विरोधी के लिए तीनो लोकों में कहीं स्थान नही है.और आज तो उसके सामने भरी सभा में यह समुदाय उसके दर्प को सरेआम चुनौती दे रहा था. आहत, क्रोध से काँपता वह स्वयं ही उन्मत्त समूह को तितर बितर करने निकल पड़ा.कितनो को उसने मौत के घाट उतार दिया,कितनो को घायल कर दिया पर उस अवस्था में भी लोग पूर्ववत वैसे ही झूमते गाते रहे....


देवताओं का वह समूह,जो स्तब्ध हो यह सब वृत्तांत देख रहा था,उनके मन में तीव्र कौतूहल जगा . उन्होंने निकट खड़े नारदजी से प्रश्न किया कि आज जो कौतुक उन्होंने सभा मंडप में देखा ,आज तक उन्होंने जो सुन जान रखा था कि भक्ति में इतनी शक्ति होती है कि भक्त के प्रभामंडल के संपर्क भर से व्यक्ति के समस्त कलुष नष्ट हो जाते हैं और उसके ह्रदय में भी इसकी अजश्र धारा प्रवाहमान हो जाती है, यह दृश्य उसका साक्षात् प्रमाण है. जड़ संस्कार और क्रूर कर्म में लिप्त इतने बड़े समूह की जिस प्रहलाद के स्पर्शमात्र से यह गति हुई , परन्तु पिता होते हुए भी हिरण्यकश्यप पर प्रहलाद के सुसंस्कारों ,शीर्ष भक्ति का रंचमात्र भी प्रभाव क्यों नही पड़ा.....


तब नारदजी ने उनके शंकाओं का समाधान करते हुए कहा कि जैसे विद्युत् तरंग प्रवाहित होने के लिए वस्तु में रंचमात्र भी धातु तत्त्व की उपस्थिति आवश्यक है, वैसे ही सत्संगति में सकारात्मक भाव का ह्रदय में संचार तभी सम्भव है जब कि व्यक्ति के ह्रदय में सुप्त अवस्था में ही सही सुसंस्कार स्थित हो. ये जितने व्यक्ति प्रहलाद को पकड़ने गए,भले क्रूर कर्म में लिप्त होने के कारण इनके संस्कार शिथिल पड़ गए थे और निरपराध प्रहलाद को प्रताडित करने को ये सचेष्ट हुए थे,परन्तु भक्ति रस में निमग्न पूर्ण जागृत सुसंस्कारी बालक के स्पर्श ने विद्युत् धारा सा प्रवाहित होकर सैनिकों के सुसंस्कारों को भी पूर्ण रूपेण जागृत कर दिया और चूँकि हिरण्यकश्यप में उस संस्कार तत्त्व का पूर्णतः अभाव था, इस कारण उसके मनोमस्तिष्क पर इस तीव्र प्रेम तरंग, सुसंस्कारों का कोई प्रभाव नही पड़ा.....


विज्ञान कहता है कि व्यक्ति में गुण अधिकांशतः अनुवान्शकीय होते हैं, गुणसूत्रों द्वारा पीढियों से विरासत में मिलते हैं.धर्म कहता है, व्यक्ति जन्म और संस्कार अपने संचित कर्म और भाग्यानुसार पाता है. इसलिए घोर अधम व्यक्ति की संतान भी महान संस्कारी होते देखे गए हैं और महान धर्मात्मा की संतान भी दुराचारी कुसंस्कारी पाई गई है..संस्कार का जन्म वस्तुतः जन्म के साथ ही हो जाता है.यह अलग बात है कि यदि परिवेश या परवरिश सही न मिले तो सुसंस्कार सुप्तावस्था में पड़े रहते हैं.परन्तु जैसे ही इन्हे अनुकूल वातावरण उपलब्ध होता है,ये मनोभूमि पर प्रकट हो जाते हैं.वाल्मीकि वर्षों तक चौर कर्म में लिप्त रहे परन्तु जैसे ही उनके सुसंस्कार उदित हुए उन्होंने चिरंतन साहित्य का सृजन कर डाला.ऐसा नही था कि यह संस्कार परवर्ती समय में उनके ह्रदय पर आरोपित हुआ था,यह तो उस समय भी उनके ह्रदय में उपस्थित था जब वे अकरणीय में लिप्त थे.यदि सुंदर सकारात्मक बातों का किसी पर कोई प्रभाव नही पड़ रहा हो तो मान लेना चाहिए कि उसके ह्रदय में उन्हें धारण करने का सामर्थ्य ही नही है.


जिस तरह हजारों मील दूर से छोड़े गए रेडियो तरंगों को उपकरण/माध्यम पकड़ लेता है,ऐसे ही ह्रदय में सुसंस्कार या कुसंस्कार जो भी बीज रूप में उपस्थित होते हैं अपने अनुकूल परिवेश से तरंग(अभिरुचि के साधन) पकड़ लेते हैं......कोई पब/डिस्को में जाकर सुरा और शोर में मगन होने पर झूम पाता है ,तो कोई भक्ति रस में डूबकर ही झूम लेता है.

....................................

5.2.09

आमदनी चौअन्नी ,खर्चा अढईया !

बहुत पुरानी नही, बस ढाई तीन दशक पहले तक परम्परा और प्रवृत्ति थी कि कर्ज लेने वाला मुंह छिपाकर चलता था,क्योंकि कर्ज का अर्थ होता था उसकी लाचारी, जिसका उजागर होना लोग प्रतिष्ठा हनन मानते थे ।जबतक कर्ज चुक न जाए,जवान कुंवारी बेटी सा ह्रदय पर पहाड़ बन वह पड़ा रहता था ,रातों की नीद और दिन का चैन मुहाल रहता था....पर कितने कम अन्तराल में पूरा परिदृश्य ही बदल गया... परम्परा और प्रवृति ने सीधे यू टर्न ले लिया...........

वैश्वीकरण क्या हुआ आमजन के चारों और बाज़ार ही बाज़ार फ़ैल गया....बाज़ार के इस दलदल में आम आदमी आकंठ निमग्न हो गया..... क़र्ज़ बोझ और ग्लानि नही,सुविधा और गर्व का विषय बन गया॥बैंकों और बाज़ार ने सहृदयता के नए प्रतिमान स्थापित किए...... उन्होंने अपने हृदयपट ऐसे खोले कि जिसमे प्रवेश करने से शायद ही कोई बच पाया.......बाज़ार दौडा दौडा कर उपभोक्ताओं को अपने उत्पाद पकड़ाने लगे.......बैंक पकड़ पकड़ कर लोगों के जेब में पैसे ठूंस उनके सपने साकार करने लगे.......घर चाहिए,गाडी चाहिए,टी वी,फ्रिज.....क्या चाहिए ????पैसे नही हैं,अरे चिंता काहे का...5 से 10% डाउन पेमेंट और 0% ब्याज (??) पर दुनिया में जहांतक नजर जाती है,किसी भी भौतिक वस्तु का नाम लीजिये,आपके सामने हाजिर है। और परिणाम, निम्न मध्यम आयवर्ग से लेकर ऊपर तक शायद ही कोई घर बचा जो कर्जमुक्त (लोनविहीन) हो.

इस बाज़ार को सरकार का भी वरदहस्त प्राप्त है। घर जमीन इत्यादि के लिए कर्ज लेने पर आमदनी पर कर राहत का प्रावधान है....तीस वर्ष पहले तक आमजनों की जीवन शैली में प्राथमिकतायें भिन्न हुआ करती थीं, विशेषकर वेतनभोगियों में प्रवृत्ति थी कि पहले बच्चों को पढाना लिखना शादी ब्याह कर के निश्चिंत हुआ जाय तब सबसे बड़े व्यय जमीन घर की व्यवस्था की जाय.आज नौकरी के दो से दस वर्ष के अन्दर सबसे पहले भविष्य के अनुमानित आय के आधार पर घर खरीदा जाता है,जिसकी मासिक किस्त उसके मासिक आय की लगभग तिहाई होती है॥

एक समय था,जब बचत के पैसों से ,जमा पूँजी से व्यक्ति वस्तु विनिमय करता था,व्यय तय करता था...आज बचत के पैसों से नही, भविष्य के अनुमानित/संभावित आय के आधार पर संभावित व्यय तय किए जाते हैं......सिर्फ़ अपनी आय ही नही बल्कि आज की सजग सतर्क दूरदर्शी युवा पीढी व्यय योजना अपनी भावी पत्नी (फलां काम करने वाली कन्या जिसकी मासिक आय लगभग इतनी होगी) के अनुमानित आय तक पर तय कर लेती है .......

और इस पूरे आय व्यय का आधार रह जाता है........"नौकरी" ! तय मासिक किस्त भरने को तय मासिक आय। हाँ, यह अलग बात है कि छोटे मोटे व्यापार में लिप्त लोगों पर लोन दाताओं की उतनी कृपादृष्टि नही रहती. पर सामान्यतः जनमानस में मासिक आय से बचत के धन से व्यय की प्रवृत्ति लगभग नही बची है.....और आज जब मंदी की मार में नौकरी पर वज्रपात हुआ...... तो भयावह परिणाम सबके सामने है.अपनी शान बघारने के लिए बेशकीमती गाडी, घर से लेकर घरेलु उपकरणों तक विभिन्न लोनों की किस्त जिस एक नौकरी के बैसाखी पट टिकी है,बैसाखी हटते ही औंधे मुंह गिरती है.यह गिरना केवल आर्थिक स्थिति का ही नही,जीवन की पूरी गाड़ी ही बेपटरी हो हिचकोले खाने लगती है.

मासिक किस्तों के मकड़जाल में फंसी , नौकरी गँवा चुकी तीस से पचास वर्ष तक के,भारत से लेकर विदेशों तक में बसे भारतीय नौकरीपेशाओं की आर्थिक और मानसिक स्थिति आज क्या है, बहुत जल्दी इसका भयावह रूप प्रकाश में आने लगेगा, जब समाचार पत्र जालसाजी,,हत्या, डकैती या आत्महत्या जैसे समाचारों से पटी रहने लगेगी...अभी तो फ़िर भी थोडी आस है कि यह बहुत लंबा न खिंचेगा......पर ईश्वर न करे यह लंबा खिंच गया, तो क्या होगा, यह भयभीत कर देता है.....

अपनी जमीन से कटकर, नौकरी को सुरक्षित भविष्य की गारंटी मानते हुए , पिछले चार दशकों में हमारे देश में पूरी जनसँख्या जिस तरह लघु कुटीर उद्योग और कृषि कर्म को नकारकर अंधी दौड़ में दौडी है, आज उसका करूप स्वरुप सबके सामने नग्न होकर खड़ा है.


विगत तीन चार दशकों में नौकरी को जिस तरह महिमामंडित(ग्लेमेराइज) किया गया है,कि पढ़े लिखे होने का अर्थ या कहें पढ़ाई की सार्थकता ही नौकरी में माने जाने लगी है...जबतक अम्बानी,बजाज या राजू जैसे उद्योगपति नही बनते,लघु कुटीर उद्योग में संलग्न उद्योगपतियों को नौकरी वालों की अपेक्षा समाज में दोयम दर्जा ही प्राप्त है और कृषि कार्य जिसे कभी सबसे उत्तम माना गया था,(उत्तम खेती, मध्यम बान, अधम चाकरी, भीख निदान)आज पूर्णतः उपेक्षित है......मनुष्य मात्र को अन्न उपलब्ध कराने का दायित्व अब भी उन कन्धों पर है,जो अनपढ़ और साधनहीन हैं....साक्षर या उच्च शिक्षा प्राप्त युवा पीढी खेती करना अपमानजनक और निषिद्ध मानती है.समय रहते न चेते तो, जिस तरह रिटेल चेन बनाकर बड़े औद्योगिक घरानों ने उपभोक्ता बाज़ार पर कब्जा जमाना आरभ किया है,जिस दिन वह उन्ही किसानो से जो आज अपनी जमीन बेच बच्चों को नौकरी करने लायक बनाते हैं,उनकी उसी धरती से सोना उगाने लगेगी तो यही भीड़ अपने ही जमीन पर नौकर बन नौकरी करने जायेगी.पूरी व्यवस्था फ़िर से एक बार पूंजीपतियों और गुलामो वाली होने जा रही है,पर बदहवाश भाग रही भीड़ को इसपर सोचने का अवकाश कहाँ?


आज की पढी लिखी पीढी यदि कृषि कार्य या लघु उद्योग में जुटेगी और मौजूदा सरकारी योजनाओं के साथ साथ आगे भी सुविधाएं मुहैय्या कराने के लिए सरकार को घेरेगी तो निश्चित ही सुखद परिणाम पायेगी।इस क्षेत्र का विकास संभावनाओं के नए द्वार खोलेगा और तभी सच्चे अर्थों में हम अपनी आजादी पाएंगे,आत्मनिर्भर बनेंगे.अब तो समय आ गया है कि वर्तमान की विभीषिका को देखकर लोग चेतें और नौकरी रुपी इस मृग मरीचिका से बाहर निकलने का प्रयास करें॥


इसके साथ ही इस बात का भी पूरा ध्यान रखना होगा कि उपभोक्ता बाज़ार पर हावी हो ,न कि बाज़ार उपभोक्ता पर .मितव्ययिता को हमें अपने स्वभाव का अभिन्न अंग बनाना पड़ेगा.छोटे दूकान के दो सौ पचास रुपये की सूती सर्ट के लिए बड़े ब्रांड को डेढ़ से ढाई हजार तक देना चाहिए कि नही,यह हमें ही तय करना होगा.......एक या दो व्यक्ति की सवारी के लिए प्रतिलीटर साठ सत्तर किलोमीटर चलने वाले वहां का उपयोग करना है या,प्रतिलीटर बारह पन्दरह किलोमीटर चलने वाले चार पहिये वाहन का उपयोग करना है,एक बार तो ठहरकर सोच ही लेना चाहिए.......यदि समय का अभाव या और कोई परेशानी न हो तो हवाई यात्रा न कर रेल यात्रा किया जाना चाहिए या नही,यह भी हमें ही तय करना है....किसी भी साधन का उपयोग या उपभोग आवश्यकता आधारित हो तो उचित है,वैभव प्रदर्शन हेतु हो, तो सर्वथा अनुचित है....


जिस दिन हम अपनी प्रवृत्ति में चौअन्नी कमाई में से पाँच पैसे बचत का लक्ष्य तय करेंगे और अपने बचत के पैसों के आधार पर ही व्यय की योजना बनायेंगे....बहुत सारी समस्याएं समूल नष्ट हो जाएँगी।


_______________________

2.2.09

ऐसी वाणी बोलिए ,मन का आपा खोय.....

कहते हैं, ब्रम्हा जी ने श्रृष्टि की रचना के कुछ काल उपरांत जब पुनरावलोकन किया, तो उन्हें अपनी सम्पूर्ण श्रृष्टि नीरव और स्पन्दन्हीन लगी॥ उन्होंने बड़ा सोचा विचार किया कि इतना कुछ रचके भी आख़िर इसमे क्या कमी रह गई है कि जिस प्रकार जलमग्न धरा में पूर्ण नीरवता व्याप्त थी वैसी ही नीरवता भरे पूरे इस श्रृष्टि में अब भी व्याप्त है। श्रीष्टिक्रम गतिवान तो है,परन्तु वह यंत्रचलित सा भाव विहीन जान पड़ता है .तब उन्होंने देवी सरस्वती का आह्वान किया. चार भुजाओं वाली देवी सरस्वती हाथ में वीणा,पुस्तक,कमल और माला लिए अवतीर्ण हुई और फ़िर देवी ने ज्यों ही अपनी वीणा के तारों को झंकृत किया, दसों दिशाओं में नाद गुंजायमान हो समाहित हो गया.उस नाद से समस्त श्रृष्टि में ध्वनि व्याप्त हो गया.जड़ चेतन सबने स्वर/नाद पाया.सारी श्रृष्टि स्वरयुक्त हो स्पंदित हो गई.

नदी,वृक्ष,पशु,पक्षी,पवन,मेघ,मनुष्य सबने स्वर पाया और नीरव श्रृष्टि मधुर ध्वनि से गुंजायमान हो गया.ब्रम्हा की रची श्रृष्टि सच्चे अर्थों में अब ही पूर्ण हुई थी.वसंत ऋतु की पंचमी तिथि को यह घटना घटी थी और तबसे इस दिवस को देवी सरस्वती का अविर्भाव(जन्म) दिवस के रूप में मनाया जाता है और कालांतर से ही वसंत ऋतु की इस पुण्य पंचमी तिथि को देवी सरस्वती का पूजनोत्सव आयोजित किया जाता है.

इस प्रकार यह माना जाता है कि श्रृष्टि मात्र में जो भी स्वर नाद/संगीत और विद्या है वह भगवती सरस्वती की कृपा से ही है. सरस्वती की साधना से कालिदास जैसे मूढ़ भी परम विद्वान हुए जिन्होंने कालजयी कृति रच डाली.तो जिस वाणी में ईश्वर का वास हो उसे उसे तामसिक कर दूषित नही करना चाहिए.असुद्ध स्थान पर ईश्वर (शुभ के पुंज) नही बसते.यदि ईश्वर की अवधारणा को न भी माने तो इससे तो असहमत नही ही हुआ जा सकता है कि मनुष्य मधुर वाणी और मधुर व्यवहार से जग जीत सकता है.यही मुंह हमें गुड भी खिलाता है और यही गाली भी .

कहते हैं कि, जो वाणी सात द्वारों (पेट,स्वांस नलिका,कंठ,तालू,दंत,जिह्वा,ओष्ठ) से होकर(छनकर) निकलती है, वह ऐसी न हो जो किसी के ह्रदय में आघात करे.ईश्वर ने हमें वाणी रूप में जो अमूल्य सामर्थ्य दिया है,जिसके सहारे हम अपने विचारों का संप्रेषण कर सकते हैं, सम्बन्ध बना सकते हैं और सामने वाले को स्नेह बांटते हुए स्वयं भी अपरिमित स्नेह पा सकते हैं,मानसिक ,कायिक या वाचिक किसी भी रूप में उसे दूषित होने से यत्न पूर्वं बचाना चाहिए.वाचन या लेखन किसी भी रूप में शब्द स्वर वाणी के इस दुर्लभ सामर्थ्य का दुरूपयोग करने से सदैव बचना चाहिए......

गुनी जानो ने कहा है.......

"ऐसी वाणी बोलिए,मन का आपा खोय।

औरों को शीतल करे,आपहु शीतल होय."

एक अहम् को परे कर मधुरता से सुवचन बोलकर देखें,जीवन का सच्चा सुख अपने हाथ होगा. कभी सत्य बोलने के अंहकार में ,तो कभी क्रोध और आवेश में कटु वाणी बोल हम अपनी वाणी को तो दूषित करते ही हैं,सामने वाले को कष्ट पहुंचकर अपने लिए हाय भी बटोरते हैं,जो कि हमें शक्तिहीन ही करती है.. परन्तु एक बात है,मधुर वाणी बोलने से तात्पर्य यह नही कि,मन में द्वेष ,कटुता, वैमनस्यता रखे हुए केवल बोली में मिश्री घोलना.यह छल है जिसकी आयु बहुत लम्बी नही होती....बहुत से लोग ऐसा करते हैं,परन्तु यह बहुत समय तक छिपा नही रह जाता.देर सबेर छल क्षद्म खुलने पर सम्मान और सम्बन्ध दोनों से हाथ धोना पड़ता है..

वस्तुतः हम जो बोलकर अभिव्यक्त करते हैं,उससे बहुत अधिक हमारे सोच में पल रहे सकारात्मक या नकारात्मक भाव, उर्जा तरंग माद्यम से सामने वाले तक पहुँचते हैं.इसे नान वर्बल कम्युनिकेशन कहते हैं जो बहुत ही स्पष्ट और प्रभावी हुआ करते हैं. मन बड़ा ही शक्तिशाली होता है और यह बड़े सहज और प्रभावी ढंग से अनभिव्यक्त सकारात्मक तथा नकारात्मक सम्प्रेश्नो को पकड़ लेता है.इसलिए आवश्यकता वाणी को शुद्ध रखने की नही बल्कि मन और सोच को भी सुद्ध और सकारात्मक रखने की है.

मुंह, कान, आँख, नाक, हाथ, पैर इत्यादि समस्त अंग सम होते हुए भी अपने विचार और व्यवहार से ही मनुष्य मनुष्य से भिन्न होता है।अपने सकारात्मक विचार और मधुर व्यवहार से कोई असंख्य हृदयों पर राज करता है तो कोई अपने दुर्विचार और दुर्व्यवहार से सबके घृणा का पात्र बनता है.प्रेम और सम्मान पाना ,किसी को नही अखरता.लेकिन पाने के लिए हमें सच्चे ह्रदय से यह सबको देना भी पड़ेगा.

********..................********.................********