पथ के कंटक गुंथ ह्रदय मेरे,
जिस पल भी व्याकुल करते हैं.
सब ताप मेरे संताप मेरे,
उन नयनो में घिर झरते हैं.
उन अश्रु कणों के सागर में,
आकंठ निमग्न अस्तित्व मेरा,
जलधि बाहर क्योंकर आऊं,
जो जल ही जीवन सार निरा.
व्रत रक्षा स्नेह समर्पण का,
वह पूर्ण प्रतिष्ठित करता है.
मेरे सुख भर के ही निमित्त,
अपनी हर सांस वह धरता है.
मैं ध्येय हूँ उसके जीवन का,
वह ईश मेरे मन मंदिर का,
कर दिया समर्पित निज अवगुण,
प्रतिरूप है वह परमेश्वर का.
मेरे रोम रोम वह ही रमता,
बन रक्त शिराओं में बहता.
उसके बिन मैं जल बिन मछली,
मेरे बिन वह भी चातक सा.
श्रद्धा पूजा आधार वही,
सपना सुन्दर संसार वही.
वह संग चिरायु सतत रहे,
मेरा तो साज सिंगार वही...
30.3.09
24.3.09
लेडी डॉक्टर (संस्मरण)
यह संभवतः प्रत्येक पीढी के साथ होता है कि ३५ - ४० या ४५ की वय पार कर जाने के बाद, लोग मानसिक रूप से अतीत में जीने में सुखानुभूती करते हैं. ईश्वर ने मानव मस्तिष्क में ऐसी व्यवस्था कर दी है कि समय के साथ स्वतः ही दुखद स्मृतिया धुंधली पड़ क्षीण हो जाती हैं.पूर्णत समाप्त न भी हों तो व्यथा की तीव्रता अवश्य क्षीण कर जाती है.परन्तु व्यवस्था की अलौकिकता है कि एक ओर जहाँ दुखद स्मृतियाँ समय के मस्तिष्क पटल से मिटने लगती हैं प्रभावहीन होती जाती हैं वहीँ सुखद स्मृतियाँ समय के साथ और भी प्रखर होती जाती हैं और सच पूछिए तो यही मनुष्य को उर्जा भी प्रदान करती है.उसमे भी बालपन के संस्मरण संभवतः सर्वाधिक सुखद हुआ करती हैं.आज एक संस्मरण आपलोगों के साथ भी बांटती हूँ..
बाल्यकाल से युवावस्था तक अपने भोंदुपने में हमने ऐसे ऐसे कारनामे किये कि आज भी उक्त घटनाये मेरे संग संग उनके साक्षी रहे लोगों के मनोरंजन के साधन हैं.
संयोग ऐसा रहा कि बाल्यकाल और विवाहोपरांत भी मेरे जीवन के २७ वर्ष तक ऐसे स्थानों पर हमारा वास रहा जहाँ नागरी सभ्यता संस्कृति की पहुँच न थी. .उन स्थानों को हम न देहात कह सकते हैं न ही शहर.मेरे पिताजी माइनिंग इंजीनियर थे और हम सदा ही पहाडों जंगलों के बीच कम्पनी द्वारा बसाये छोटे से कालोनियों में रहे ,जहाँ जंगलों पहाडों के बीच विशुद्ध प्राकृतिक परिवेश में वर्षों तक हमारी सरलता संरक्षित रही.
बात उन दिनों की है जब मैं बी.ए. प्रथम वर्ष में थी. घर से दूर शहर में एक महाविद्यालय में कुछ दिन पूर्व ही दाखिला हुआ था सो किसी के साथ घनिष्टता नही हुई थी.यूँ भी मैं बहुत अधिक अंतर्मुखी स्वभाव की थी.बहुत अधिक मेल जोल मेरा किसी से न था.मित्र के नाम पर अब तक पुस्तकें और मेरे दो छोटे भाई ही मेरे मित्र थे जिनकी संगति में स्वाभाविक ही मेरा सामान्य ज्ञान निम्नतम स्तर पर था.
पता नही कैसे मेरे सीने (ब्रेस्ट) में एक घाव हो गया,जो प्रत्येक दिन के साथ बढ़ता हुआ असह्य कष्टकारक होता गया.पन्द्रह सोहल दिन होते होते यह स्थिति हो गई कि उस असह्य पीडा ने मुझे कलम तक पकड़ने में अक्षम कर दिया...मुझे कराहते छटपटाते देख कुछ सहपाठियों ने जोर देकर मुझसे कारण जान लिया और फ़िर बात छात्रावास की अधीक्षिका तक पहुँचा दी गयी.
पता नहीं क्या सोचकर हमारे महिला क्षात्रावास के लिए पुरुष चिकित्सक नियुक्त किया गया था.आज सा दिमाग रहता तो इसीके लिए एक आन्दोलन कर बैठती..पर उस समय यह सब सोचना नहीं आता था.खैर,अधीक्षिका ने उक्त बुजुर्ग पुरुष चिकित्सक को बुलवा लिया और उनके आने पर मुझे बुलाया गया.
चिकित्सक और अधीक्षिका ने लाख पुचकारा पर मैंने उन्हें वह घाव का स्थान नहीं दिखाया..अब महिला चिकित्सक होती तो कोई और बात होती. हारकर बुजुर्ग चिकित्सक महोदय ने अंदाजे से अपने अनुभव के आधार पर कुछ औषधियां लिख दीं. पर उनकी विद्वता और अनुभव पूर्णतः विफल रहा और उन दवाइयों के सेवन ने मेरी रही सही गति भी निकाल दी.
जहाँ हम रहते थे, माइंस के छोटे अस्पताल में भले और कोई सुविधा न हो पर एक पुरूष और एक महिला चिकित्सक अवश्य होते थे..यह अलग बात थी कि तब तक सिलाई बुनाई में दक्ष उन महिला चिकित्सकों से मैंने कभी अपनी कोई बीमारी नही दिखाई थी.आज तक जरूरत जो न पड़ी थी.
अगले दिन दुखद सन्देश के साथ छोटा भाई क्षात्रावास मुझे लिवाने आया कि अविलम्ब चलना है,माताजी का सड़क दुर्घटना में पैर टूट गया है जिन्हें जमशेदपुर के अस्पताल में रखा गया है. कुछ समय के लिए तो अपनी पीड़ा बिसरा गई मैं और ट्रेन पकड़ भागती हुई माताजी के पास पहुँची. तबतक तो प्लास्टर और ट्रैकसन वगैरह लग चुका था और वे कुछ व्यवस्थित भी हो चुकी थीं ,पर हम दोनों माँ बेटी खूब रोई.
माताजी तो रोकर चुप हो गयीं पर चिकित्सक महोदय के उन पीडाहारी औषधि ने मेरी जो स्थिति की थी कि मारे पीडा के मेरे आंसू थमने का नाम नही ले रहे थे.जब तीसरे दिन भी माताजी ने मुझे रोते देखा तो अबतक जो मुझे सांत्वना दिए जा रहीं थीं,कुछ झुंझला सी पड़ीं. उनका झुंझलाना था कि मैं बुरी तरह रो पड़ी और उन्हें अपने घाव के बारे में बताया.
माताजी ने पिताजी को बताया और अविलम्ब मुझे किसी महिला चिकित्सक(लेडी डाक्टर) से दिखवाने को कहा.जिस अस्पताल में हम थे वह काफी बड़ा था और यहाँ हरेक बीमारी के लिए अलग अलग विभाग थे.पिताजी पूरे अस्पताल का एक पूरा चक्कर लगा आए और वापस आकर उन्होंने माताजी से मंत्रणा की.देर तक मंत्रणा हुई और फ़िर पिताजी ने मुझे अपने साथ चलने को कहा.
उन दिनों हमारे स्वभाव में ही नहीं हुआ करता था कि अभिभावकों से अधिक प्रश्न पूछते या जब उनके पीछे चलना हो तो अपना दिमाग लगाते कि कहाँ जा रहे हैं, जरा देख जान लें. पिताजी ने एक विभाग में मेरा नंबर लगा दिया था और टोकन लाकर मेरे हाथ पकड़ा दिया ,चूंकि वहां पुरुषों का प्रवेश वर्जित था सो उन्होंने मुझे अपना नंबर आने पर दिखाकर और दवा लेकर माताजी के पास चले जाने की हिदायत दी और स्वयं वहां से चले गए.
उन दिनों शहरों या बड़े भीड़ भाड़ वाले स्थानों में हमारी स्थिति वैसी ही होती थी जैसा कि किसी जंगल में निवास करने वाले सीधे साधे वन्य पशु की शहर के भीड़ भाड़ वाले सड़क पर आने पर होती है. जहाँ मैं बैठी थी पचास के ऊपर केवल महिलाएं ही थीं.परन्तु फिर भी मैं उस अपरिचित भीड़ में बड़ी असहजता का अनुभव कर रही थी.पर वहां से भागने का कोई चारा न था सो मन मार कर बैठी रही. मेरा क्रमांक संभतः बत्तीसवां था.अपनी पारी की प्रतीक्षा में बैठी थी.
मुझे तो यूँ भी आस पास किसी से मतलब नही रहा करता था पर मेरा दुर्भाग्य था कि वहां अधिकाँश को मुझमे बड़ी दिलचस्पी थी और प्रत्येक दो तीन मिनट के अन्तराल पर महिलाएं मुझसे प्रश्न करने लगी.मुझे लगा आस पास की सभी महिलाओं में मैं शायद सबसे छोटी हूँ इसलिए मुझसे सहनुभूतिवस प्रश्न कर रही हैं.पर अधिकांशतः उनके प्रश्नों का आशय मैं समझ नही पा रही थी और मैं जो उत्तर उन्हें दे रही थी वह संभवतः उन्हें संतुष्ट नहीं कर पा रहा था..
उनका प्रश्न होता -
"शादी हो गई ??"मैं - जी नही." कौन सा महिना चल रहा है ?"" जी फरवरी " ........ उसके बाद वे एक दूसरे का मुंह देखने लगती थीं और फ़िर प्रश्न करती " तुम्हारा कौन सा महीना है ??? "
मैं निरुत्तर उनके मुंह देखने लगती और वे अगल बगल वालियों से फुसफुसाने लगतीं. मैं हैरान कि ये क्या पूछ रही हैं और ऐसे मुझे क्यों घूर रही हैं...
लम्बी प्रतीक्षा के बाद मेरी पारी आई.चिकित्सिका के कक्ष में एक साथ तीन मरीजों को भेजा जा रहा था.मैं दूसरे नंबर पर थी.जैसे ही मुझसे पहले वाली उस मुस्लिम महिला ने अपने कागज दिखाए वह अधेड़ खडूस सी चिकित्सिका उसके ऊपर उबल पड़ी.
फ़िर से आ गई ........मैं तुम्हे नही देखूंगी........जाओ अपने आदमी (पति) को बुलाकर लाओ.तुम्हे पिछली बार ही कहा था न कि अब और बच्चे पैदा नही करो.........ये तुम्हारा दसवां है न.........क्यों नही बंद करवाती???????
महिला ...... " जी हमारे मजहब में यह हराम है जी....हमें सब धरम से बहार निकाल देंगे.........मैंने अपने आदमी से कहा था पर उसने मुझे बहुत गलियां दी और छोड़ देने की धमकी भी..........मैं क्या करूँ......वह दूसरी शादी कर लेगा.........."
काफी देर तक दोनों उलझी रहीं और झुंझलाते हुए चिकित्सिका ने उसे डांटते डांटते ही मुझे आदेश दिया....
" खड़ी क्या हो, लेट जाओ........."
मैं चुपचाप जाकर बेड पर लेट गई.जब वो मुड़कर मेरी ओर आई और मुझे चुपचाप सावधान की मुद्रा में लेटे देखा तो फ़िर से उबल पड़ी........
लाख बार कहा तुमलोगों से कि साड़ी पहनकर आया करो और अगर सलवार पहनकर आना ही है तो पहले से खोल कर रखा करो........पर नही ..........केवल टाइम वेस्ट करना है मेरा.....
भयभीत मैं सुन रही थी,पर मेरी समझ में नही आ रहा था कि मैं सलवार क्यों खोलूं भला.
मैंने डरते डरते इंगित करते हुए कहा....
" जी, लेकिन मुझे तो तकलीफ यहाँ ऊपर है........."
अब चौंकने की बारी उसकी थी.
"ऊपर मतलब??"
"....मुझे घाव हो गया है."
चिकित्सिका - कहाँ घाव हुआ है????
मैंने हाथ से ईशारा किया........." यहाँ "
चिकित्सिका - " घाव हुआ तो यहाँ क्यों आई, मालूम नही यह गाइनिक डिपार्टमेंट है और आज के दिन केवल प्रेग्नेंट लेडी का चेकअप होता है..........किसने भेजा तुम्हे यहाँ.......... जाओ मेडिसीन या सर्जरी में दिखाओ.."
मैं उस से क्या कहती कि लेडी डाक्टर से दिखाने के लिए पिताजी ने मुझे यहाँ भेजा था.
अब बेचारे पिताजी भी क्या करते, मेडिसीन या सर्जरी डिपार्टमेंट में कोई महिला चिकित्सक न थीं और हमारे लिए तो डाक्टर मतलब डाक्टर होता था. तो क्या हुआ यदि वे प्रसूती विभाग में थीं.
आज लगता है ,बहुत ही अच्छा हुआ जो हमारा एक्सपोजर बहुत सारे सन्दर्भों, विशेषकर सेक्स संबन्धी परिपेक्ष्यों में नगण्य रहा. ऐसा नही है कि सिर्फ़ मैं ही ऐसी थी,उस समय सामाजिक परिवेश कुछ ऐसा था कि किशोर और युवा वय की बहुसंख्यक लड़कियां ऐसी ही होती थी.पर आज के परिपेक्ष्य में जब देखती हूँ तो एक धक्का सा जरूर लगता है.
स्कूल कालेजों में जो प्रयास यौन शिक्षा ( सेक्स एजुकेसन ) के लिए किया जा रहा है उसमे ज्ञान वर्धन कितना हो रहा है पता नहीं, पर ये बहुत हद तक " कामुद्दीपन" में सहायक या प्रयुक्त होते हैं. वैसे भी आज सेक्स शिक्षा कितनी प्रासंगिक रह गई है जबकि सिनेमा, इश्तेहार, पुस्तकें, इंटरनेट या अन्यान्य मध्यमो से, चारों ओर से ही उस अल्पवय मस्तिष्क पर इस प्रकार के दृश्य श्रव्य अवयवों की वर्षा सी हो रही है.अल्पवय में गुप्त ज्ञान का व्यापक ज्ञान कभी उपयोगी या श्रेयकर नहीं होता...हमें मिलकर इससे बचने का कोई उपाय अवश्य सोचना होगा,नहीं तो इसके परिणाम निश्चित ही घातक होंगे...
खैर ,कभी कभी जब निर्णय के लिए बैठती हूँ तो निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाती कि वह नादानी भली थी या आज की यह समझदारी... ।
==========================
पोस्ट के प्रकाशन के उपरांत जब रंजू दी (रंजना भाटिया) की यह टिपण्णी देखी - (रंजना तुम्हारा यह संस्मरण बहुत से सवाल छोड़ गया ।वह वक़्त मासूम बहुत था ॥अपने शारीरिक बदलाव के बारे में भी पूछना ,बताना बहुत हिम्मत का काम होता था जो अक्सर हम कर ही नहीं पाते थे पर जिस तरह की तकलीफ तुमने भोगी वह भी विचारणीय है ॥आज के बच्चे बहुत सी बाते हमसे भी अधिक जानते हैं ..किसी भी शिक्षा का उद्देश्य सही दिशा में हो तो वह लाभकारी है ...पर यह भी उतना ही कड़वा सच है कि आज का खुला माहौल एक उन्मुक्त भयवाह वातावरण बना रहा है ..सेक्स शिक्षा के साथ साथ सही शारीरिक शिक्षा अपने स्वस्थ के प्रति सचेत रहना आज की जरुरत बनती जा रही है)
जिसने कि मुझे बहुत ही प्रभावित किया. तो लगा कि बात लम्बी अवश्य हो जायेगी पर इसे थोडा और विस्तार अवश्य दिया जाय...
रंजू दी की बात से मैं बहुत अधिक सहमत हूँ.संभवतः इस आलेख के माध्यम से मैं अपना आशय अभी तक स्पष्ट नहीं कर पाई थी.वस्तुतः जो उन्होंने कहा,वही मैं भी कहना चाह रही थी...अपने शरीर के प्रति अल्पज्ञता किस भांति हमें कष्ट में डाल देती थीं,इसके अनुभवों के भण्डार हैं हमारे पास.
शरीर का ज्ञान होना और उसके प्रति सजगता अत्यंत आवश्यक है,किन्तु शरीर का समय से पूर्व जग जाना...यह समाज को अस्वस्थ कर देता है...
जैसे प्राण रक्षक औसधि की भी नियत से अधिक मात्रा का सेवन प्राणघातक होता है,वैसे ही ज्ञान की मात्रा भी अवश्य ही वयानुसार नियत होनी चाहिए...
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बाल्यकाल से युवावस्था तक अपने भोंदुपने में हमने ऐसे ऐसे कारनामे किये कि आज भी उक्त घटनाये मेरे संग संग उनके साक्षी रहे लोगों के मनोरंजन के साधन हैं.
संयोग ऐसा रहा कि बाल्यकाल और विवाहोपरांत भी मेरे जीवन के २७ वर्ष तक ऐसे स्थानों पर हमारा वास रहा जहाँ नागरी सभ्यता संस्कृति की पहुँच न थी. .उन स्थानों को हम न देहात कह सकते हैं न ही शहर.मेरे पिताजी माइनिंग इंजीनियर थे और हम सदा ही पहाडों जंगलों के बीच कम्पनी द्वारा बसाये छोटे से कालोनियों में रहे ,जहाँ जंगलों पहाडों के बीच विशुद्ध प्राकृतिक परिवेश में वर्षों तक हमारी सरलता संरक्षित रही.
बात उन दिनों की है जब मैं बी.ए. प्रथम वर्ष में थी. घर से दूर शहर में एक महाविद्यालय में कुछ दिन पूर्व ही दाखिला हुआ था सो किसी के साथ घनिष्टता नही हुई थी.यूँ भी मैं बहुत अधिक अंतर्मुखी स्वभाव की थी.बहुत अधिक मेल जोल मेरा किसी से न था.मित्र के नाम पर अब तक पुस्तकें और मेरे दो छोटे भाई ही मेरे मित्र थे जिनकी संगति में स्वाभाविक ही मेरा सामान्य ज्ञान निम्नतम स्तर पर था.
पता नही कैसे मेरे सीने (ब्रेस्ट) में एक घाव हो गया,जो प्रत्येक दिन के साथ बढ़ता हुआ असह्य कष्टकारक होता गया.पन्द्रह सोहल दिन होते होते यह स्थिति हो गई कि उस असह्य पीडा ने मुझे कलम तक पकड़ने में अक्षम कर दिया...मुझे कराहते छटपटाते देख कुछ सहपाठियों ने जोर देकर मुझसे कारण जान लिया और फ़िर बात छात्रावास की अधीक्षिका तक पहुँचा दी गयी.
पता नहीं क्या सोचकर हमारे महिला क्षात्रावास के लिए पुरुष चिकित्सक नियुक्त किया गया था.आज सा दिमाग रहता तो इसीके लिए एक आन्दोलन कर बैठती..पर उस समय यह सब सोचना नहीं आता था.खैर,अधीक्षिका ने उक्त बुजुर्ग पुरुष चिकित्सक को बुलवा लिया और उनके आने पर मुझे बुलाया गया.
चिकित्सक और अधीक्षिका ने लाख पुचकारा पर मैंने उन्हें वह घाव का स्थान नहीं दिखाया..अब महिला चिकित्सक होती तो कोई और बात होती. हारकर बुजुर्ग चिकित्सक महोदय ने अंदाजे से अपने अनुभव के आधार पर कुछ औषधियां लिख दीं. पर उनकी विद्वता और अनुभव पूर्णतः विफल रहा और उन दवाइयों के सेवन ने मेरी रही सही गति भी निकाल दी.
जहाँ हम रहते थे, माइंस के छोटे अस्पताल में भले और कोई सुविधा न हो पर एक पुरूष और एक महिला चिकित्सक अवश्य होते थे..यह अलग बात थी कि तब तक सिलाई बुनाई में दक्ष उन महिला चिकित्सकों से मैंने कभी अपनी कोई बीमारी नही दिखाई थी.आज तक जरूरत जो न पड़ी थी.
अगले दिन दुखद सन्देश के साथ छोटा भाई क्षात्रावास मुझे लिवाने आया कि अविलम्ब चलना है,माताजी का सड़क दुर्घटना में पैर टूट गया है जिन्हें जमशेदपुर के अस्पताल में रखा गया है. कुछ समय के लिए तो अपनी पीड़ा बिसरा गई मैं और ट्रेन पकड़ भागती हुई माताजी के पास पहुँची. तबतक तो प्लास्टर और ट्रैकसन वगैरह लग चुका था और वे कुछ व्यवस्थित भी हो चुकी थीं ,पर हम दोनों माँ बेटी खूब रोई.
माताजी तो रोकर चुप हो गयीं पर चिकित्सक महोदय के उन पीडाहारी औषधि ने मेरी जो स्थिति की थी कि मारे पीडा के मेरे आंसू थमने का नाम नही ले रहे थे.जब तीसरे दिन भी माताजी ने मुझे रोते देखा तो अबतक जो मुझे सांत्वना दिए जा रहीं थीं,कुछ झुंझला सी पड़ीं. उनका झुंझलाना था कि मैं बुरी तरह रो पड़ी और उन्हें अपने घाव के बारे में बताया.
माताजी ने पिताजी को बताया और अविलम्ब मुझे किसी महिला चिकित्सक(लेडी डाक्टर) से दिखवाने को कहा.जिस अस्पताल में हम थे वह काफी बड़ा था और यहाँ हरेक बीमारी के लिए अलग अलग विभाग थे.पिताजी पूरे अस्पताल का एक पूरा चक्कर लगा आए और वापस आकर उन्होंने माताजी से मंत्रणा की.देर तक मंत्रणा हुई और फ़िर पिताजी ने मुझे अपने साथ चलने को कहा.
उन दिनों हमारे स्वभाव में ही नहीं हुआ करता था कि अभिभावकों से अधिक प्रश्न पूछते या जब उनके पीछे चलना हो तो अपना दिमाग लगाते कि कहाँ जा रहे हैं, जरा देख जान लें. पिताजी ने एक विभाग में मेरा नंबर लगा दिया था और टोकन लाकर मेरे हाथ पकड़ा दिया ,चूंकि वहां पुरुषों का प्रवेश वर्जित था सो उन्होंने मुझे अपना नंबर आने पर दिखाकर और दवा लेकर माताजी के पास चले जाने की हिदायत दी और स्वयं वहां से चले गए.
उन दिनों शहरों या बड़े भीड़ भाड़ वाले स्थानों में हमारी स्थिति वैसी ही होती थी जैसा कि किसी जंगल में निवास करने वाले सीधे साधे वन्य पशु की शहर के भीड़ भाड़ वाले सड़क पर आने पर होती है. जहाँ मैं बैठी थी पचास के ऊपर केवल महिलाएं ही थीं.परन्तु फिर भी मैं उस अपरिचित भीड़ में बड़ी असहजता का अनुभव कर रही थी.पर वहां से भागने का कोई चारा न था सो मन मार कर बैठी रही. मेरा क्रमांक संभतः बत्तीसवां था.अपनी पारी की प्रतीक्षा में बैठी थी.
मुझे तो यूँ भी आस पास किसी से मतलब नही रहा करता था पर मेरा दुर्भाग्य था कि वहां अधिकाँश को मुझमे बड़ी दिलचस्पी थी और प्रत्येक दो तीन मिनट के अन्तराल पर महिलाएं मुझसे प्रश्न करने लगी.मुझे लगा आस पास की सभी महिलाओं में मैं शायद सबसे छोटी हूँ इसलिए मुझसे सहनुभूतिवस प्रश्न कर रही हैं.पर अधिकांशतः उनके प्रश्नों का आशय मैं समझ नही पा रही थी और मैं जो उत्तर उन्हें दे रही थी वह संभवतः उन्हें संतुष्ट नहीं कर पा रहा था..
उनका प्रश्न होता -
"शादी हो गई ??"मैं - जी नही." कौन सा महिना चल रहा है ?"" जी फरवरी " ........ उसके बाद वे एक दूसरे का मुंह देखने लगती थीं और फ़िर प्रश्न करती " तुम्हारा कौन सा महीना है ??? "
मैं निरुत्तर उनके मुंह देखने लगती और वे अगल बगल वालियों से फुसफुसाने लगतीं. मैं हैरान कि ये क्या पूछ रही हैं और ऐसे मुझे क्यों घूर रही हैं...
लम्बी प्रतीक्षा के बाद मेरी पारी आई.चिकित्सिका के कक्ष में एक साथ तीन मरीजों को भेजा जा रहा था.मैं दूसरे नंबर पर थी.जैसे ही मुझसे पहले वाली उस मुस्लिम महिला ने अपने कागज दिखाए वह अधेड़ खडूस सी चिकित्सिका उसके ऊपर उबल पड़ी.
फ़िर से आ गई ........मैं तुम्हे नही देखूंगी........जाओ अपने आदमी (पति) को बुलाकर लाओ.तुम्हे पिछली बार ही कहा था न कि अब और बच्चे पैदा नही करो.........ये तुम्हारा दसवां है न.........क्यों नही बंद करवाती???????
महिला ...... " जी हमारे मजहब में यह हराम है जी....हमें सब धरम से बहार निकाल देंगे.........मैंने अपने आदमी से कहा था पर उसने मुझे बहुत गलियां दी और छोड़ देने की धमकी भी..........मैं क्या करूँ......वह दूसरी शादी कर लेगा.........."
काफी देर तक दोनों उलझी रहीं और झुंझलाते हुए चिकित्सिका ने उसे डांटते डांटते ही मुझे आदेश दिया....
" खड़ी क्या हो, लेट जाओ........."
मैं चुपचाप जाकर बेड पर लेट गई.जब वो मुड़कर मेरी ओर आई और मुझे चुपचाप सावधान की मुद्रा में लेटे देखा तो फ़िर से उबल पड़ी........
लाख बार कहा तुमलोगों से कि साड़ी पहनकर आया करो और अगर सलवार पहनकर आना ही है तो पहले से खोल कर रखा करो........पर नही ..........केवल टाइम वेस्ट करना है मेरा.....
भयभीत मैं सुन रही थी,पर मेरी समझ में नही आ रहा था कि मैं सलवार क्यों खोलूं भला.
मैंने डरते डरते इंगित करते हुए कहा....
" जी, लेकिन मुझे तो तकलीफ यहाँ ऊपर है........."
अब चौंकने की बारी उसकी थी.
"ऊपर मतलब??"
"....मुझे घाव हो गया है."
चिकित्सिका - कहाँ घाव हुआ है????
मैंने हाथ से ईशारा किया........." यहाँ "
चिकित्सिका - " घाव हुआ तो यहाँ क्यों आई, मालूम नही यह गाइनिक डिपार्टमेंट है और आज के दिन केवल प्रेग्नेंट लेडी का चेकअप होता है..........किसने भेजा तुम्हे यहाँ.......... जाओ मेडिसीन या सर्जरी में दिखाओ.."
मैं उस से क्या कहती कि लेडी डाक्टर से दिखाने के लिए पिताजी ने मुझे यहाँ भेजा था.
अब बेचारे पिताजी भी क्या करते, मेडिसीन या सर्जरी डिपार्टमेंट में कोई महिला चिकित्सक न थीं और हमारे लिए तो डाक्टर मतलब डाक्टर होता था. तो क्या हुआ यदि वे प्रसूती विभाग में थीं.
आज लगता है ,बहुत ही अच्छा हुआ जो हमारा एक्सपोजर बहुत सारे सन्दर्भों, विशेषकर सेक्स संबन्धी परिपेक्ष्यों में नगण्य रहा. ऐसा नही है कि सिर्फ़ मैं ही ऐसी थी,उस समय सामाजिक परिवेश कुछ ऐसा था कि किशोर और युवा वय की बहुसंख्यक लड़कियां ऐसी ही होती थी.पर आज के परिपेक्ष्य में जब देखती हूँ तो एक धक्का सा जरूर लगता है.
स्कूल कालेजों में जो प्रयास यौन शिक्षा ( सेक्स एजुकेसन ) के लिए किया जा रहा है उसमे ज्ञान वर्धन कितना हो रहा है पता नहीं, पर ये बहुत हद तक " कामुद्दीपन" में सहायक या प्रयुक्त होते हैं. वैसे भी आज सेक्स शिक्षा कितनी प्रासंगिक रह गई है जबकि सिनेमा, इश्तेहार, पुस्तकें, इंटरनेट या अन्यान्य मध्यमो से, चारों ओर से ही उस अल्पवय मस्तिष्क पर इस प्रकार के दृश्य श्रव्य अवयवों की वर्षा सी हो रही है.अल्पवय में गुप्त ज्ञान का व्यापक ज्ञान कभी उपयोगी या श्रेयकर नहीं होता...हमें मिलकर इससे बचने का कोई उपाय अवश्य सोचना होगा,नहीं तो इसके परिणाम निश्चित ही घातक होंगे...
खैर ,कभी कभी जब निर्णय के लिए बैठती हूँ तो निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाती कि वह नादानी भली थी या आज की यह समझदारी... ।
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पोस्ट के प्रकाशन के उपरांत जब रंजू दी (रंजना भाटिया) की यह टिपण्णी देखी - (रंजना तुम्हारा यह संस्मरण बहुत से सवाल छोड़ गया ।वह वक़्त मासूम बहुत था ॥अपने शारीरिक बदलाव के बारे में भी पूछना ,बताना बहुत हिम्मत का काम होता था जो अक्सर हम कर ही नहीं पाते थे पर जिस तरह की तकलीफ तुमने भोगी वह भी विचारणीय है ॥आज के बच्चे बहुत सी बाते हमसे भी अधिक जानते हैं ..किसी भी शिक्षा का उद्देश्य सही दिशा में हो तो वह लाभकारी है ...पर यह भी उतना ही कड़वा सच है कि आज का खुला माहौल एक उन्मुक्त भयवाह वातावरण बना रहा है ..सेक्स शिक्षा के साथ साथ सही शारीरिक शिक्षा अपने स्वस्थ के प्रति सचेत रहना आज की जरुरत बनती जा रही है)
जिसने कि मुझे बहुत ही प्रभावित किया. तो लगा कि बात लम्बी अवश्य हो जायेगी पर इसे थोडा और विस्तार अवश्य दिया जाय...
रंजू दी की बात से मैं बहुत अधिक सहमत हूँ.संभवतः इस आलेख के माध्यम से मैं अपना आशय अभी तक स्पष्ट नहीं कर पाई थी.वस्तुतः जो उन्होंने कहा,वही मैं भी कहना चाह रही थी...अपने शरीर के प्रति अल्पज्ञता किस भांति हमें कष्ट में डाल देती थीं,इसके अनुभवों के भण्डार हैं हमारे पास.
शरीर का ज्ञान होना और उसके प्रति सजगता अत्यंत आवश्यक है,किन्तु शरीर का समय से पूर्व जग जाना...यह समाज को अस्वस्थ कर देता है...
जैसे प्राण रक्षक औसधि की भी नियत से अधिक मात्रा का सेवन प्राणघातक होता है,वैसे ही ज्ञान की मात्रा भी अवश्य ही वयानुसार नियत होनी चाहिए...
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18.3.09
प्रतिष्ठा !! (कहानी) भाग - 2
रामेश्वर अपनी ही बेटी के खून से अपने हाथ रंग आये थे...तेरह बरस में शादी और गौने से पहले ही साल भर के अन्दर विधवा हुई बेटी का दुःख उनसे देखा नहीं गया और उसके मोह में पड़कर घर परिवार सबकी बात काटते हुए उन्होंने अपनी अपार सहृदयता दिखाते हुए उसे पढाई में लगा दिया था.लडकी पढने में बहुत तेज़ थी.हर साल अपने कक्षा में अव्वल आती रही और बारहवीं के बाद उसने आगे पढ़नी चाही.रामेश्वर बाबू ने शहर में कालेज में उसका दाखिला करवा दिया.पर यहीं उनसे भारी चूक हो गयी.
लडकी को शहर की हवा लग गयी..परंपरा संस्कार और परिवार के इज्ज़त को ताक पर रखकर उसने अपने ही कालेज के प्रोफेसर से प्रेम की पींगें बढा ली, जो एक नीच जात का लड़का था.और तो और उस कमजात के साथ मुंह काला कर, खुलेआम उससे प्रेम का एलान कर रही थी और उससे ब्याह करने की जिद ठानी हुई थी.
रामेश्वर बाबू ने ममता और सहृदयता दिखाते हुए उसके जिंदगी सवारने के लिए आगे पढने की पूरी सहूलियत और छूट जरूर दी थी....लेकिन इसका यह मतलब न था कि उसे परंपरा और परिवार की प्रतिष्ठा को भी छिन्न भिन्न करने देते....लड़की ने जो अपनी सफ़ेद साडी के साथ साथ उनके परिवार के आबरू को दागदार करने की कोशिश की थी और वह भी एक नीच जात के लड़के के साथ..यह असह्य और अक्षम्य था.....
पत्नी के माध्यम से जब उन्हें इस बात की खबर लगी तो वे गुस्से से एकदम बौरा गए..... दहाड़ते हुए, बन्दूक लेकर घर से निकल पड़े लड़के को मारने....लेकिन किसी तरह बाँध छेककर परिवार वालों ने उन्हें रोका......
कितनी मुश्किल से तो रामेश्वर की पत्नी का अपने पति को मुखिया बनने, दोनों भाइयों और परिवार के बीच कभी न पाटी जा सकने वाली खाई बनाने का सपना साकार होने जा रहा था, इसे किसी कीमत पर वह खोना नहीं चाहती थी.. रामेश्वर के हाथ पैर धरकर किसी तरह उनसे हथियार छीना गया.उन्हें समझाया गया कि इस नाजुक समय में दिमाग से काम लेना चाहिए.सबका मत यही बना कि अभी अपनी लडकी को ही किसी तरह समझा बुझा या धमकाकर चुप करा दिया जाय,लड़की का पेट धुलवा दिया जाय और चुनाव निपटते ही लड़के को ठिकाना लगा दिया जायेगा...फिर न रहेगा बांस ,न बजेगी बंसी.
नाजायज बच्चा गिराना, विधवाओं के नाजायज सम्बन्ध या उम्रदराजों की भी लम्पटता, कोई अजूबी घटना न थी गाँव के लिए. लेकिन, खुलेआम चुनौती देकर ऐसा कुछ भी करने की हिमाकत धनाढ्य सवर्ण पुरुषों को छोड़ किसीमे न थी. विधवा का पुनर्विवाह या अंतरजातीय विवाह आज भी घोर कुकर्म था गाँव वालों के लिए...इस नाजुक मौके पर अगर विरोधी के हाथों यह मुद्दा लग जाता तो परिवार की प्रतिष्ठा और चुनाव,दोनों का बंटाधार हो जाता...
अब समझाते तो क्या, जैसे ही उन्होंने बेटी को धमकाना शुरू किया,वह भी थी तो आखिर उनका ही खून और साथ ही उच्च शिक्षा ने उसे कूपमंडूकता से बाहर निकाल अपने जीवन और अधिकारों के प्रति पर्याप्त सजग कर दिया था.लडकी मौके की नजाकत को न समझ पायी और भिड गयी बाप के साथ...
फिर तो बात बढ़ते बढ़ते इतनी बढ़ गयी कि रामेश्वर बाबू ने जो हाथ में आया उसीसे पीट पीट कर उसका कचूमर निकाल दिया और उसे मौत के मुंह में पहुंचाकर अपने क्रोध की प्यास बुझाई.....शरीर और विद्रोह के उस स्वर को टुकड़े टुकड़े कर परंपरा और प्रतिष्ठा बचा लिया था उन्होंने...
घर में कोहराम मच गया... बात ऐसी न हुई थी जो चाहरदीवारी के अन्दर ही छुपी रह जाती..क्रोध का ज्वार शांत हुआ तो परिणाम के भय ने आतंकित कर दिया....भयाक्रांत, क्षुब्ध और उदिग्न ह्रदय को अपने रक्षक और तारनहार रूप में केवल बड़ा भाई ही दिखा...आज भी वे मानते थे कि भाई के प्रभाव और औकात के आगे उनका अपना व्यक्तिव कितना बौना है.सो वे भाग चले आसरे की ओर.उस घड़ी दुर्घटना से अचंभित आतंकित किन्कर्तब्यविमूढ़ बाकी सदस्यों को भी तारनहार बिन्देश्वर बाबू ही दिखे थे...
मुसीबत की इस घड़ी ने पारस्परिक वैमनस्यता को अप्रासंगिक कर दिया था. आंसुओं में मन के सारे मैल बह गए थे. दोनों भाइयों के ह्रदय अभी एक से धड़क रहे थे,अंतर केवल इतना था कि जहाँ रामेश्वर अपनी सुध बुध खोये हुए थे वही बिन्देश्वर तेजी से अगले कदम के बारे में सोच रहे थे.....समय ठीक न था,जो भूल हो चुकी थी,उसके बाद एक भी चूक महाविनाशक हो सकती थी....
राजनीति बिन्देश्वर बाबू के खून में बसी थी...हवाओं का रुख मोड़ना उन्हें अच्छी तरह आता था. अविलम्ब घर के सभी सदस्यों को इकठ्ठा किया और दुर्घटना की जानकारी देते हुए परिस्थिति की गंभीरता और विकटता से अवगत कराया.परिस्थिति से निपटने के लिए जो योजना उन्होंने बनायीं थी,उसके अनुसार उन्होंने सबको जिम्मेदारियां सौंपी और सबके साथ रामेश्वर को संग ले उसके घर पहुंचे...
वहां भी सबको समझा बुझाकर स्थिति की कमान उन्होंने अपने हाथ ले लिया....घंटे भर के अन्दर बिरादरी के सभी गणमान्य प्रतिष्ठित लोगों का जुटान कर लिया गया और मामले को ऐसे परोसा गया,जिसके तहत यह बात सामने आई कि किसी दूसरे इलाके वाले ने उनके गाँव की प्रतिष्ठा को जो मैला किया,उसे अपने ही संतान के रक्त से धोकर इस महान परिवार ने समूची बिरादरी का उद्धार किया था...
बिन्देश्वर बाबू ने मामले को ऐसा घुमाया कि बिरादरी वालों के नजर में वे दोनों ही भाई पूज्य बन गए....बिन्देश्वर बाबू ने इसी बहाने बिरादरी वालों को जमकर लताडा जिनके आपसी फूट के वजह से छोटी जाति वाले आज इतने मजबूत हो गए थे....इन लोगों को सेट कर आश्वस्त हो जाने के बाद उन्होंने चुनाव के अन्य उम्मीदवारों जगदेव पासवान,हबीब मियां तथा गाँव के अन्य सभी रसूखदार लोगों को बुलवा पंचायत बैठाई.
पूरी घटना को वहां इस तरह रखा गया कि सभी लोग एक मत से दोनों भाइयों के इस कृत्य की सराहना करने लगे और लगे हाथ फैसला हुआ कि, शहर के उस कमजात छोकरे ने, जिसने कि एक विधवा की आबरू पर हाथ डाला, उसे उसके इस कुकृत्य की सजा मृत्युदंड के रूप में अविलम्ब दी जाय और पूरे समाज को सीख देने के लिए दोनों की चिता एक साथ जलाई जाय.....
जब तक यह पागल और बौराई हथियारों से लैस भीड़ उस दुस्साहसी आशिक को पकड़ने उसके घर पहुँचती,रामेश्वर बाबू की छोटी बेटी के मार्फ़त उसतक यह खबर पहुँच चुकी थी और वह वहां से जिला एस पी से मदद की गुहार लगाने निकल चुका था...
दोपहर होने को आया था पर युवक पकड़ में न आया था.तो बिन्देश्वर बाबू की राय पर सर्व सम्मति से फैसला हुआ कि अब शव का अंतिम संस्कार कर दिया जाय.लड़के को बाद में देख लिया जायेगा...
उस अभागन की अर्थी रसूखदार सवर्ण पिता के कन्धों पर भार नहीं बल्कि उनके प्रतिष्ठा को चार चाँद लगा गयी थी.समाज की परंपरा और परिवार की प्रतिष्ठा बचाने के लिए अपनी ही बेटी का बलिदान देना, कोई छोटी उपलब्धि तो नहीं थी.
चिता जलनी शुरू ही हुई थी कि किसी ने आकर खबर दी कि युवक पुलिस दल सहित एस पी साहब को लेकर वहां आ रहा है और किसी भी समय वहां पहुँच सकता है...
उस समय वहां की एकता देखते ही बनती थी. उत्साही उन युवकों ने, जो अबतक उस विधवा के नाम पर लार टपकाया करते थे,गाँव की प्रतिष्ठा बचाने के लिए अनान फनान में सभी जीपों मोटरसायकिलों तथा आस पास के घरों से पेट्रोल तथा मिट्टी के तेल इक्कट्ठे कर चिता के मद्धिम आग को लपटों में बदल दिया और सभी ने एक स्वर से दोनों भाइयों का जयकारा लगते हुए आश्वस्त किया कि एस पी साहब आयेंगे तो क्या,उन्हें पूरे गाँव से एक गवाह नहीं मिलेगा...किसी प्रकार की चिंता न करें वे....
और यही हुआ......एस पी उन रसूखदारों द्वारा सेट कर लिए गए.......महीने भर के अन्दर बेचारा युवक गायब कर दिया गया...बिन्देश्वर और रामेश्वाए बाबू के घर एक हो गए थे और सबसे बड़ी बात बिन्देश्वर बाबू भारी मतों से चुनाव जीत गए थे......
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लडकी को शहर की हवा लग गयी..परंपरा संस्कार और परिवार के इज्ज़त को ताक पर रखकर उसने अपने ही कालेज के प्रोफेसर से प्रेम की पींगें बढा ली, जो एक नीच जात का लड़का था.और तो और उस कमजात के साथ मुंह काला कर, खुलेआम उससे प्रेम का एलान कर रही थी और उससे ब्याह करने की जिद ठानी हुई थी.
रामेश्वर बाबू ने ममता और सहृदयता दिखाते हुए उसके जिंदगी सवारने के लिए आगे पढने की पूरी सहूलियत और छूट जरूर दी थी....लेकिन इसका यह मतलब न था कि उसे परंपरा और परिवार की प्रतिष्ठा को भी छिन्न भिन्न करने देते....लड़की ने जो अपनी सफ़ेद साडी के साथ साथ उनके परिवार के आबरू को दागदार करने की कोशिश की थी और वह भी एक नीच जात के लड़के के साथ..यह असह्य और अक्षम्य था.....
पत्नी के माध्यम से जब उन्हें इस बात की खबर लगी तो वे गुस्से से एकदम बौरा गए..... दहाड़ते हुए, बन्दूक लेकर घर से निकल पड़े लड़के को मारने....लेकिन किसी तरह बाँध छेककर परिवार वालों ने उन्हें रोका......
कितनी मुश्किल से तो रामेश्वर की पत्नी का अपने पति को मुखिया बनने, दोनों भाइयों और परिवार के बीच कभी न पाटी जा सकने वाली खाई बनाने का सपना साकार होने जा रहा था, इसे किसी कीमत पर वह खोना नहीं चाहती थी.. रामेश्वर के हाथ पैर धरकर किसी तरह उनसे हथियार छीना गया.उन्हें समझाया गया कि इस नाजुक समय में दिमाग से काम लेना चाहिए.सबका मत यही बना कि अभी अपनी लडकी को ही किसी तरह समझा बुझा या धमकाकर चुप करा दिया जाय,लड़की का पेट धुलवा दिया जाय और चुनाव निपटते ही लड़के को ठिकाना लगा दिया जायेगा...फिर न रहेगा बांस ,न बजेगी बंसी.
नाजायज बच्चा गिराना, विधवाओं के नाजायज सम्बन्ध या उम्रदराजों की भी लम्पटता, कोई अजूबी घटना न थी गाँव के लिए. लेकिन, खुलेआम चुनौती देकर ऐसा कुछ भी करने की हिमाकत धनाढ्य सवर्ण पुरुषों को छोड़ किसीमे न थी. विधवा का पुनर्विवाह या अंतरजातीय विवाह आज भी घोर कुकर्म था गाँव वालों के लिए...इस नाजुक मौके पर अगर विरोधी के हाथों यह मुद्दा लग जाता तो परिवार की प्रतिष्ठा और चुनाव,दोनों का बंटाधार हो जाता...
अब समझाते तो क्या, जैसे ही उन्होंने बेटी को धमकाना शुरू किया,वह भी थी तो आखिर उनका ही खून और साथ ही उच्च शिक्षा ने उसे कूपमंडूकता से बाहर निकाल अपने जीवन और अधिकारों के प्रति पर्याप्त सजग कर दिया था.लडकी मौके की नजाकत को न समझ पायी और भिड गयी बाप के साथ...
फिर तो बात बढ़ते बढ़ते इतनी बढ़ गयी कि रामेश्वर बाबू ने जो हाथ में आया उसीसे पीट पीट कर उसका कचूमर निकाल दिया और उसे मौत के मुंह में पहुंचाकर अपने क्रोध की प्यास बुझाई.....शरीर और विद्रोह के उस स्वर को टुकड़े टुकड़े कर परंपरा और प्रतिष्ठा बचा लिया था उन्होंने...
घर में कोहराम मच गया... बात ऐसी न हुई थी जो चाहरदीवारी के अन्दर ही छुपी रह जाती..क्रोध का ज्वार शांत हुआ तो परिणाम के भय ने आतंकित कर दिया....भयाक्रांत, क्षुब्ध और उदिग्न ह्रदय को अपने रक्षक और तारनहार रूप में केवल बड़ा भाई ही दिखा...आज भी वे मानते थे कि भाई के प्रभाव और औकात के आगे उनका अपना व्यक्तिव कितना बौना है.सो वे भाग चले आसरे की ओर.उस घड़ी दुर्घटना से अचंभित आतंकित किन्कर्तब्यविमूढ़ बाकी सदस्यों को भी तारनहार बिन्देश्वर बाबू ही दिखे थे...
मुसीबत की इस घड़ी ने पारस्परिक वैमनस्यता को अप्रासंगिक कर दिया था. आंसुओं में मन के सारे मैल बह गए थे. दोनों भाइयों के ह्रदय अभी एक से धड़क रहे थे,अंतर केवल इतना था कि जहाँ रामेश्वर अपनी सुध बुध खोये हुए थे वही बिन्देश्वर तेजी से अगले कदम के बारे में सोच रहे थे.....समय ठीक न था,जो भूल हो चुकी थी,उसके बाद एक भी चूक महाविनाशक हो सकती थी....
राजनीति बिन्देश्वर बाबू के खून में बसी थी...हवाओं का रुख मोड़ना उन्हें अच्छी तरह आता था. अविलम्ब घर के सभी सदस्यों को इकठ्ठा किया और दुर्घटना की जानकारी देते हुए परिस्थिति की गंभीरता और विकटता से अवगत कराया.परिस्थिति से निपटने के लिए जो योजना उन्होंने बनायीं थी,उसके अनुसार उन्होंने सबको जिम्मेदारियां सौंपी और सबके साथ रामेश्वर को संग ले उसके घर पहुंचे...
वहां भी सबको समझा बुझाकर स्थिति की कमान उन्होंने अपने हाथ ले लिया....घंटे भर के अन्दर बिरादरी के सभी गणमान्य प्रतिष्ठित लोगों का जुटान कर लिया गया और मामले को ऐसे परोसा गया,जिसके तहत यह बात सामने आई कि किसी दूसरे इलाके वाले ने उनके गाँव की प्रतिष्ठा को जो मैला किया,उसे अपने ही संतान के रक्त से धोकर इस महान परिवार ने समूची बिरादरी का उद्धार किया था...
बिन्देश्वर बाबू ने मामले को ऐसा घुमाया कि बिरादरी वालों के नजर में वे दोनों ही भाई पूज्य बन गए....बिन्देश्वर बाबू ने इसी बहाने बिरादरी वालों को जमकर लताडा जिनके आपसी फूट के वजह से छोटी जाति वाले आज इतने मजबूत हो गए थे....इन लोगों को सेट कर आश्वस्त हो जाने के बाद उन्होंने चुनाव के अन्य उम्मीदवारों जगदेव पासवान,हबीब मियां तथा गाँव के अन्य सभी रसूखदार लोगों को बुलवा पंचायत बैठाई.
पूरी घटना को वहां इस तरह रखा गया कि सभी लोग एक मत से दोनों भाइयों के इस कृत्य की सराहना करने लगे और लगे हाथ फैसला हुआ कि, शहर के उस कमजात छोकरे ने, जिसने कि एक विधवा की आबरू पर हाथ डाला, उसे उसके इस कुकृत्य की सजा मृत्युदंड के रूप में अविलम्ब दी जाय और पूरे समाज को सीख देने के लिए दोनों की चिता एक साथ जलाई जाय.....
जब तक यह पागल और बौराई हथियारों से लैस भीड़ उस दुस्साहसी आशिक को पकड़ने उसके घर पहुँचती,रामेश्वर बाबू की छोटी बेटी के मार्फ़त उसतक यह खबर पहुँच चुकी थी और वह वहां से जिला एस पी से मदद की गुहार लगाने निकल चुका था...
दोपहर होने को आया था पर युवक पकड़ में न आया था.तो बिन्देश्वर बाबू की राय पर सर्व सम्मति से फैसला हुआ कि अब शव का अंतिम संस्कार कर दिया जाय.लड़के को बाद में देख लिया जायेगा...
उस अभागन की अर्थी रसूखदार सवर्ण पिता के कन्धों पर भार नहीं बल्कि उनके प्रतिष्ठा को चार चाँद लगा गयी थी.समाज की परंपरा और परिवार की प्रतिष्ठा बचाने के लिए अपनी ही बेटी का बलिदान देना, कोई छोटी उपलब्धि तो नहीं थी.
चिता जलनी शुरू ही हुई थी कि किसी ने आकर खबर दी कि युवक पुलिस दल सहित एस पी साहब को लेकर वहां आ रहा है और किसी भी समय वहां पहुँच सकता है...
उस समय वहां की एकता देखते ही बनती थी. उत्साही उन युवकों ने, जो अबतक उस विधवा के नाम पर लार टपकाया करते थे,गाँव की प्रतिष्ठा बचाने के लिए अनान फनान में सभी जीपों मोटरसायकिलों तथा आस पास के घरों से पेट्रोल तथा मिट्टी के तेल इक्कट्ठे कर चिता के मद्धिम आग को लपटों में बदल दिया और सभी ने एक स्वर से दोनों भाइयों का जयकारा लगते हुए आश्वस्त किया कि एस पी साहब आयेंगे तो क्या,उन्हें पूरे गाँव से एक गवाह नहीं मिलेगा...किसी प्रकार की चिंता न करें वे....
और यही हुआ......एस पी उन रसूखदारों द्वारा सेट कर लिए गए.......महीने भर के अन्दर बेचारा युवक गायब कर दिया गया...बिन्देश्वर और रामेश्वाए बाबू के घर एक हो गए थे और सबसे बड़ी बात बिन्देश्वर बाबू भारी मतों से चुनाव जीत गए थे......
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16.3.09
प्रतिष्ठा !! (कहानी) भाग- 1
गिनती के पच्चीस दिन ही तो बचे थे चुनाव के.दिन भर की दौड़ धूप गोष्ठी और मगजमारी के बाद थक कर चूर हो चुके थे बिन्देश्वर बाबू. हवा का जो रुख अभी दिखाई पड़ रहा था,वह बहुत अधिक उत्साह जनक नहीं था.कुछ भी अनुमान लगाना मुश्किल था. अब पहले वाली बात न रही थी.उनकी धाक और दबंगता के आगे खुलकर भले कोई सामने आने की हिम्मत अब भी न रखता था ,पर भीतर ही भीतर सुलगती आग कभी भी भड़क कर विकराल विनाशक बन सकती थी. राजपूतों,सवर्णों के आपसी मतभेद तथा अंहकार और छोटी जातिवाले में अधिकार के प्रति सजगता और उनके संगठित हो रहे शक्ति ने परिदृश्य बहुत बदल दिया था।
जगदेव पासवान और हबीब मिया, जिन्हें उन्होंने ही अपोजिसन में खडा किया था, उन्हें विरोधी ताकतों ने उकसाकर भितरघात करने को बहुत हद तक राजी कर लिया था. इन सबने भी अन्दर ही अन्दर अपने लिए अच्छी खासी जमीन तैयार कर ली थी....कुछ घर राजपूत ,ब्रह्मण और यादव से तो वो निश्चिंत थे, पर बाकी सभी के साथ दुसाध,भुइंयाँ,कुर्मी कहार,चमार, मुसलमान आदि वोटर किसके सर जीत का सेहरा बंधेंगे, अंदाजा लगाना मुश्किल हो रहा था..मुंह पर सभी सबको आश्वासन दे रहे थे,पर अंततः करेंगे क्या,यह कोई नहीं जानता था.
पिछले तीन टर्म से बिन्देश्वर बाबू निर्विरोध चुनाव जीत रहे थे. इतना ही नहीं अपने अपोजिसन के केंडीडेट भी वे ही तय किया करते थे और उनकी जप्त जमानत की भरपाई भी वही किया करते थे.इस इलाके में सदियों से उनके पुरखों ने ही राज किया था और परम्परानुसार घर का बड़ा बेटा ही राज के लिए उत्तराधिकारी हुआ करता था,भले जमींदारी समाप्त हो प्रजातंत्र का यह पंचायती चुनाव ही क्यों न हो. हमेशा से इसी परिवार का मुखिया उत्तराधिकारी नियत करता आ रहा था. लेकिन सदियों की यह परंपरा इसबार ध्वस्त हो गयी थी.पत्नी साले और इनसे डाह रखने वाले कुचाक्रियों के बहकावे में आकर रामेश्वर बाबू अपने बड़े भाई बिन्देश्वर बाबू के खिलाफ खड़े हो गए थे।
बिन्देश्वर बाबू समय पहचान रहे थे और आज भाई को छोड़ कोई और अगर खिलाफत में इस तरह सामने आता और मोर्चा खोलता तो उन्हें इतना असह्य कष्ट न होता,पर आज जो अपना भाई ही परम्परा को छिन्न भिन्न कर दुश्मनी पर उतर आया था और उन सारे लोगों को जो वर्षों से इनकी एकता को खंडित कर इनके ताकत और प्रभाव को समाप्त करना चाहते थे,उन्हें सुनहरा मौका दे रहा था,यह बात उन्हें तिल तिल कर तोड़ रही थी..आज तक इस इलाके में उनके परिवार का एकछत्र शासन रहा था.लोग इतने भयाक्रांत रहा करते थे कि चाहकर भी कोई सामने आकर इनका अहित करने की नहीं सोच पाता था. पर आज तो सबको खुला अवसर मिल गया था,हंसने का भी और काटने का भी.
जनानियों के चिख चिख से तंग आकर दोनों भाइयों के सम्मिलित सहमति से जो चूल्हे अलग हुए,वह अलगौझा आज यहाँ तक आ पहुंचा था..पहले चूल्हे अलग हुए,फिर आँगन और अब दिल भी अलग हो गए थे. दोनों तरफ आग लगाने वालों को सुनहरा मौका मिल गया था. बिन्देश्वर बाबू कान के कच्चे न थे,पर कमअक्ल रामेश्वर बाबू को लोग आसानी से फुसला लिया करते थे..हालाँकि बिन्देश्वर बाबू अपने भाई की कमजोरी जानते थे और उन्हें पाता था कि उसके अधिकाँश हरकतों के पीछे उनसे वैर रखने वालों का ही हाथ हुआ करता था,पर इस तरह रामेश्वर को लोगों के हाथों कठपुतली बने इस्तेमाल होते देखना, उन्हें बड़ा ही क्षुब्ध कर जाता था..
चुनाव के नोमिनेशन से पहले तक किसी तरह घर की इज्ज़त को बिन्देश्वर बाबू ढंके हुए थे.पर रामेश्वर ने उनके खिलाफ खड़े होकर चाहरदीवारी के अन्दर के विवाद को सड़क पर लाकर खडा कर दिया था.अब तो हितचिंतकों की नजरों में भी बिन्देश्वर बाबू को व्यंग्य दीखता था.जो घर आज तक दूसरों के झगडे सुलझाया करता था,उसीके किस्से अब सारे आम चटखारे लेकर बांचे जाते थे..
बिन्देश्वर बाबू ने सोचा खुद ही चुनाव से नाम वापस लेकर घर की इज्ज़त बचा लें,पर तबतक बात इतनी आगे बढ़ गयी थी कि उनके इस फैसले के विरोध में उनके अपने परिवार और हितचिन्तक ही अड़ गए थे. एक तरह से उनके वापस मुड़ते पैर को उनके पक्षधरों ने हथियार बनाकर आगे बढा उसे सामने जमीन पर ऐसे रोप दिया था दिया था कि चाहकर भी उसे हिलाने डुलाने में वे अक्षम हो गए थे.
रात दो पहर बीत चुका था. घर में कुत्ते और पहरेदारों को छोड़ लगभग सभी सो चुके थे.पर नींद बिन्देश्वर बाबू के आँखों से कोसों दूर थी.क्षोभ चिंता क्रोध आदि आदि ने उन्हें ऐसे घेर लिया था कि नीद उनकी आँखों से पलायन कर चुकी थी.उसी समय उनके दरवाजे की सांकल बजी.आशंकित स्वर में बिन्देश्वर बाबू ने पूछा....कौन????
बाहर से पहरेदार सुखदेव ने प्रत्युत्तर में अपना नाम बताते हुए दरवाज़ा खोलने का आग्रह किया....
सुखदेव के स्वर की व्यग्रता ने बिन्देश्वर बाबू को आशंकित कर दिया..लगभग भागकर उन्होंने दरवाज़ा खोला...सुखदेव ने खबर दी कि दरवाजे पर रामेश्वर बाबू खड़े हैं और अभी तुंरत मिलने की जिद कर रहे हैं....क्या किया जाय ???
घड़ी भर तो बिन्देश्वर बाबू ऊहापोह में रहे...फिर उन्होंने रामेश्वर को बैठक में लिवा लाने को कहा...आदेश पाकर भी सुखदेव ठिठका रहा, तो उन्होंने उसे आश्वस्त करते हुए कहा....."जो भी है,भाई है मेरा....कोई बहुत बड़ा अहित नहीं कर सकता...डर मत, जाकर लिवा ला.......देखते हैं, क्या बात है "
...यह बात उन्होंने सुखदेव से कही जरूर थी, पर यह दिलासा उन्होंने अपने आप को भी दिया था, क्योंकि आज कुछ लोग दबी जुबान बिन्देश्वर बाबू को रामेश्वर से सम्हल कर रहने की सलाह दे गए थे,जिसे उन्होंने उस समय तो उन्होंने झिड़क दिया था...पर मन से पूरी तरह न झिड़क पाए थे....
बिन्देश्वर बाबू के बैठक में पहुंचने के कुछ क्षणों बाद ही रामेश्वर सुखदेव के साथ पहुँच गए...आते ही वे बिन्देश्वर बाबू के कदमो पर लोट गए और ''भैया हम बर्बाद हो गए" कहकर पैर पकड़कर फूट फूट कर रोने लगे।
बिन्देश्वर बाबू इस अप्रत्याशित स्थिति के लिए बिलकुल तैयार न थे,बुरी तरह अकबका गए और रामेश्वर को किसी तरह पैरों से खींचकर उठाकर उन्होंने खडा किया.खींचतान में रामेश्वर बाबू की ओढी चादर हट गयी थी और जब वो खड़े हुए तो उनके खून से तर कपडों को देख बिन्देश्वर बाबू बुरी तरह आशंकित हो गए...समझा बुझाकर, पानी वगैरह पिलाकर उन्होंने किसी तरह रामेश्वर बाबू को शांत किया और सारा मामला पूछा .रामेश्वर बाबू ने जो बताया, सुनकर दो पल को उनका दिमाग भी एकदम से सन्न रह गया.....
जगदेव पासवान और हबीब मिया, जिन्हें उन्होंने ही अपोजिसन में खडा किया था, उन्हें विरोधी ताकतों ने उकसाकर भितरघात करने को बहुत हद तक राजी कर लिया था. इन सबने भी अन्दर ही अन्दर अपने लिए अच्छी खासी जमीन तैयार कर ली थी....कुछ घर राजपूत ,ब्रह्मण और यादव से तो वो निश्चिंत थे, पर बाकी सभी के साथ दुसाध,भुइंयाँ,कुर्मी कहार,चमार, मुसलमान आदि वोटर किसके सर जीत का सेहरा बंधेंगे, अंदाजा लगाना मुश्किल हो रहा था..मुंह पर सभी सबको आश्वासन दे रहे थे,पर अंततः करेंगे क्या,यह कोई नहीं जानता था.
पिछले तीन टर्म से बिन्देश्वर बाबू निर्विरोध चुनाव जीत रहे थे. इतना ही नहीं अपने अपोजिसन के केंडीडेट भी वे ही तय किया करते थे और उनकी जप्त जमानत की भरपाई भी वही किया करते थे.इस इलाके में सदियों से उनके पुरखों ने ही राज किया था और परम्परानुसार घर का बड़ा बेटा ही राज के लिए उत्तराधिकारी हुआ करता था,भले जमींदारी समाप्त हो प्रजातंत्र का यह पंचायती चुनाव ही क्यों न हो. हमेशा से इसी परिवार का मुखिया उत्तराधिकारी नियत करता आ रहा था. लेकिन सदियों की यह परंपरा इसबार ध्वस्त हो गयी थी.पत्नी साले और इनसे डाह रखने वाले कुचाक्रियों के बहकावे में आकर रामेश्वर बाबू अपने बड़े भाई बिन्देश्वर बाबू के खिलाफ खड़े हो गए थे।
बिन्देश्वर बाबू समय पहचान रहे थे और आज भाई को छोड़ कोई और अगर खिलाफत में इस तरह सामने आता और मोर्चा खोलता तो उन्हें इतना असह्य कष्ट न होता,पर आज जो अपना भाई ही परम्परा को छिन्न भिन्न कर दुश्मनी पर उतर आया था और उन सारे लोगों को जो वर्षों से इनकी एकता को खंडित कर इनके ताकत और प्रभाव को समाप्त करना चाहते थे,उन्हें सुनहरा मौका दे रहा था,यह बात उन्हें तिल तिल कर तोड़ रही थी..आज तक इस इलाके में उनके परिवार का एकछत्र शासन रहा था.लोग इतने भयाक्रांत रहा करते थे कि चाहकर भी कोई सामने आकर इनका अहित करने की नहीं सोच पाता था. पर आज तो सबको खुला अवसर मिल गया था,हंसने का भी और काटने का भी.
जनानियों के चिख चिख से तंग आकर दोनों भाइयों के सम्मिलित सहमति से जो चूल्हे अलग हुए,वह अलगौझा आज यहाँ तक आ पहुंचा था..पहले चूल्हे अलग हुए,फिर आँगन और अब दिल भी अलग हो गए थे. दोनों तरफ आग लगाने वालों को सुनहरा मौका मिल गया था. बिन्देश्वर बाबू कान के कच्चे न थे,पर कमअक्ल रामेश्वर बाबू को लोग आसानी से फुसला लिया करते थे..हालाँकि बिन्देश्वर बाबू अपने भाई की कमजोरी जानते थे और उन्हें पाता था कि उसके अधिकाँश हरकतों के पीछे उनसे वैर रखने वालों का ही हाथ हुआ करता था,पर इस तरह रामेश्वर को लोगों के हाथों कठपुतली बने इस्तेमाल होते देखना, उन्हें बड़ा ही क्षुब्ध कर जाता था..
चुनाव के नोमिनेशन से पहले तक किसी तरह घर की इज्ज़त को बिन्देश्वर बाबू ढंके हुए थे.पर रामेश्वर ने उनके खिलाफ खड़े होकर चाहरदीवारी के अन्दर के विवाद को सड़क पर लाकर खडा कर दिया था.अब तो हितचिंतकों की नजरों में भी बिन्देश्वर बाबू को व्यंग्य दीखता था.जो घर आज तक दूसरों के झगडे सुलझाया करता था,उसीके किस्से अब सारे आम चटखारे लेकर बांचे जाते थे..
बिन्देश्वर बाबू ने सोचा खुद ही चुनाव से नाम वापस लेकर घर की इज्ज़त बचा लें,पर तबतक बात इतनी आगे बढ़ गयी थी कि उनके इस फैसले के विरोध में उनके अपने परिवार और हितचिन्तक ही अड़ गए थे. एक तरह से उनके वापस मुड़ते पैर को उनके पक्षधरों ने हथियार बनाकर आगे बढा उसे सामने जमीन पर ऐसे रोप दिया था दिया था कि चाहकर भी उसे हिलाने डुलाने में वे अक्षम हो गए थे.
रात दो पहर बीत चुका था. घर में कुत्ते और पहरेदारों को छोड़ लगभग सभी सो चुके थे.पर नींद बिन्देश्वर बाबू के आँखों से कोसों दूर थी.क्षोभ चिंता क्रोध आदि आदि ने उन्हें ऐसे घेर लिया था कि नीद उनकी आँखों से पलायन कर चुकी थी.उसी समय उनके दरवाजे की सांकल बजी.आशंकित स्वर में बिन्देश्वर बाबू ने पूछा....कौन????
बाहर से पहरेदार सुखदेव ने प्रत्युत्तर में अपना नाम बताते हुए दरवाज़ा खोलने का आग्रह किया....
सुखदेव के स्वर की व्यग्रता ने बिन्देश्वर बाबू को आशंकित कर दिया..लगभग भागकर उन्होंने दरवाज़ा खोला...सुखदेव ने खबर दी कि दरवाजे पर रामेश्वर बाबू खड़े हैं और अभी तुंरत मिलने की जिद कर रहे हैं....क्या किया जाय ???
घड़ी भर तो बिन्देश्वर बाबू ऊहापोह में रहे...फिर उन्होंने रामेश्वर को बैठक में लिवा लाने को कहा...आदेश पाकर भी सुखदेव ठिठका रहा, तो उन्होंने उसे आश्वस्त करते हुए कहा....."जो भी है,भाई है मेरा....कोई बहुत बड़ा अहित नहीं कर सकता...डर मत, जाकर लिवा ला.......देखते हैं, क्या बात है "
...यह बात उन्होंने सुखदेव से कही जरूर थी, पर यह दिलासा उन्होंने अपने आप को भी दिया था, क्योंकि आज कुछ लोग दबी जुबान बिन्देश्वर बाबू को रामेश्वर से सम्हल कर रहने की सलाह दे गए थे,जिसे उन्होंने उस समय तो उन्होंने झिड़क दिया था...पर मन से पूरी तरह न झिड़क पाए थे....
बिन्देश्वर बाबू के बैठक में पहुंचने के कुछ क्षणों बाद ही रामेश्वर सुखदेव के साथ पहुँच गए...आते ही वे बिन्देश्वर बाबू के कदमो पर लोट गए और ''भैया हम बर्बाद हो गए" कहकर पैर पकड़कर फूट फूट कर रोने लगे।
बिन्देश्वर बाबू इस अप्रत्याशित स्थिति के लिए बिलकुल तैयार न थे,बुरी तरह अकबका गए और रामेश्वर को किसी तरह पैरों से खींचकर उठाकर उन्होंने खडा किया.खींचतान में रामेश्वर बाबू की ओढी चादर हट गयी थी और जब वो खड़े हुए तो उनके खून से तर कपडों को देख बिन्देश्वर बाबू बुरी तरह आशंकित हो गए...समझा बुझाकर, पानी वगैरह पिलाकर उन्होंने किसी तरह रामेश्वर बाबू को शांत किया और सारा मामला पूछा .रामेश्वर बाबू ने जो बताया, सुनकर दो पल को उनका दिमाग भी एकदम से सन्न रह गया.....
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