24.9.09

सिंदूरदान (एक पौराणिक आख्यान) भाग - 2

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गतांक से आगे...

परन्तु क्या यह सब इतना ही सहज था..एक ओर तो क्षोभग्रस्त महारानी लज्जा शोक और पापबोध से घुली जा रही थीं, तो दूसरी ओर कणाद भी मोह और विवेक के मध्य छिड़े गहन द्वंद में घिरा अपना मत और करनीय स्थिर करने में स्वयं को सर्वथा असमर्थ पा रहा था.सरोवर सुन्दरी के आलौकिक सौन्दर्य को विस्मृत कर पाना उसके लिए असंभव हो रहा था.स्मृतिपटल पर अवस्थित वह दृश्य उसे उदिग्न कर दिया करता... सदैव ही उसे आभास होता जैसे वह निष्कलुष सौन्दर्य उसे अपने भुजपाश में आबद्ध होने को प्रतिपल प्रणय निवेदन भेज रहा है.


मोहग्रस्त कणाद कभी तो दर्पण के सम्मुख बैठ विभिन्न प्रकार से अपना श्रृंगार करता, अपनी ही छवि पर मुग्ध होता परन्तु जैसे ही विवेक उसे झकझोर उस पर अट्टहास करता ,वह स्वयं को दण्डित करने लगता. विछिप्त सी हो गयी थी उसकी स्थिति..आर्या गांधारी समस्त उपक्रम देख समझ रही थी,परन्तु कुछ भी कर पाने में वह असमर्थ थी. न तो वे महारानी का सत्य उद्घाटित कर सकतीं थीं न ही शिष्य की भ्रमित बुद्धि पर उनकी धर्मदेशना का किंचित भी प्रभाव पड़ रहा था...दुश्चिंताओं में घिरी आर्या के सम्मुख आचार्यवर के पुनरागमन के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प न रह गया था.महारानी को तो उन्होंने समझा लिया था परन्तु कणाद के सम्पूर्ण गतिविधियों पर दृष्टि रखने के अतिरिक्त उनके पास अन्य कोई साधन न था...


असह्य प्रतीक्षा का वह दीर्घ अन्तराल अंततः समाप्त हुआ और आचार्य के आगमन के साथ ही आर्या गांधारी के व्याकुल मन ने कई दिनों उपरांत अवलंबन पाया . अधीरता से वे रात्रि के एकान्तवेला की प्रतीक्षा करने लगी , जबकि वे आचार्यवर को समस्त वृतांत बता पातीं और इस घोर संकट से मुक्ति का मार्ग संधान वे कर पाते ...

उधर अपने सहपाठियों का संग पा कणाद पुनः प्रफ्फुलित हो गया था.समस्त शिष्य अतिउत्साहित हो यात्रा वृतांत कणाद को सुना रहे थे. परन्तु जो वृतांत कणाद के पास था वह तो अकल्पनीय ही था सबके लिए.. कणाद ने अनुमानित किया था कि ऋषिप्रसाद में गोपनीय ढंग से निवास करने वाली वह अप्सरा कोई ऋषि कन्या ही थी. अंत्यंत उत्साहित हो उसने अपने सहपाठियों को समस्त वृतांत तथा अनुमानित ऋषि कन्या के अनिर्वचनीय अनिद्य सौन्दर्य की विरुदावली सुनाई...

फिर क्या था, कणाद का मोह ऐसे विस्तृत हुआ कि उसके चुम्बकीय प्रभाव में अन्यान्य छात्र भी आ गए और उनके मध्य वाक् युद्ध प्रारंभ हो गया. सभी स्वयं को श्रेष्ठ घोषित कर पाणिग्रहण हेतु स्वयं को उस कन्या का अधिकारी ठहरा रहे थे.ज्येष्ठ शिष्य ने अपने ज्येष्ठता का कारण दिया तो कणाद ने अपने सर्वप्रथम दर्शन और प्रेम का. इसके साथ ही रमणी पर अधिकार हेतु किसी ने अपने बल का तो किसी ने अपने सौन्दर्य का और किसी ने धन का आधार स्थापित किया. आपसी सद्भाव सौहाद्र भाव तिरोहित हो मोह और इर्ष्या ने परस्पर सबको एक दूसरे का प्रबल प्रतिद्वंदी तथा शत्रु बना दिया था...

इस तथ्य से सभी भली भांति परिचित थे कि आचार्य विद्याध्यन के मध्य ब्रह्मचर्य व्रत खण्डित कर गृहस्थ स्थापना की आज्ञां कदापि न देंगे. सो गुरुवर संग किसी प्रकार की मंत्रणा किये या उनकी आज्ञा बिना ही समस्त शिष्य अपने अभिभावकों से विवाह का अनुज्ञान पाने आचार्यवर के नाम एक पत्र छोड़ कर स्वगृह को प्रस्थान कर गए. प्रातःकाल रिक्त संघाराम ने पूर्व से ही दुर्घटना से मर्माहत आचार्य और देवी गांधारी के ह्रदय पर मानों तुषारपात सा कर उन्हें दुःख के सागर में आकंठ निमग्न कर दिया. शोक संतप्त आर्या अपने पुत्रवत शिष्यों के मोह-ग्रस्त अवस्था का ध्यान कर उनका पतन लक्ष्य कर आहत हो विलाप करने लगी.

आचार्य खालित आहत अवश्य थे परन्तु निराश न थे..उन्हें अपनी दी हुई शिक्षा और शिष्यों के सुसंस्कार पर पूर्ण विश्वास था. भग्नहृदया भगिनी को उन्होंने आश्वस्त किया कि कुलीन शिष्यगणों की वर्तमान मनोदशा वयजनित विभ्रम है जो कि नितांत ही क्षणिक है,जैसे ही उनका विवेक जागृत होगा, पश्चात्ताप की अग्नि में शुद्ध हो वे पुनः अपने सुसंस्कार और कर्तब्य का सर्वोत्कृष्ट रूप से वहन करेंगे.... क्षात्रावास में उनका विद्याध्यन हेतु पुनरागमन अवश्यम्भावी है.वस्तुतः विधाता रचित इस घटना के पीछे भी छुपा हुआ उनका कल्याणकारी महत उद्देश्य ही है..दिव्य द्रष्टा आचार्यवर के धीर गंभीर आशापूर्ण वचनों ने आर्या के दग्ध ह्रदय को अनिर्वचनीय शीतलता प्रदान की..

इधर महारानी के गृहत्याग उपरांत क्रोध शांत होने पर जब कोशल नरेश को अपने अकरणीय का आभास हुआ तो वे विह्वल हो उठे और उन्होंने राज्य में चहुँ ओर महारानी का संधान आरम्भ कर दिया..परन्तु सब ओर से उन्हें निराशा ही मिली..निराशा पश्चात्ताप और वियोग महाराजा के दग्ध ह्रदय में हविष्याग्नि बन विरह ज्वाला को और भी उग्र कर दिया करते थे....अंततः चहुँ ओर से निराशा प्राप्ति उपरांत अब नृप के सम्मुख महारानी के संधान हेतु आचार्य के दिव्य ज्ञान का सहयोग लेने के अतिरिक्त कोई विकल्प न था..

शोक क्षोभ से विह्वल नरेश आश्रम में उपस्थित हो आचार्यवर के सम्मुख व्याकुल भाव से रुदन करने लगे...परन्तु उन्हें कहाँ आभास था कि जिस अभिलाषा से वे आश्रम में उपस्थित हुए हैं, उनका अभीष्ट तो वहीँ सुरक्षित है.जैसे ही उनके सम्मुख यह रहस्योद्घाटन हुआ कोशल नरेश आभारनत हो आचार्यद्वय के चरणों में नतमस्तक हो गए....

दंपत्ति का पुनर्मिलन आह्लाद को भी आह्लादित करने वाला हुआ.परन्तु आचार्यवर ने ऐतिहासिक निर्णय लेते हुए नरेश से कहा कि उन्हें उनकी भार्या तभी प्राप्त होगी जब कि वे अग्नि के सम्मुख पवित्र वैदिक मंत्रों के साथ सप्त वचन लेंगे और अग्निदेव को साक्षी मान महारानी की मांग में सिन्दूर भरेंगे...

पवित्र वैदिक मंत्रों संग महारानी का सिंदूरदान संपन्न हुआ.पतिपत्नी ने गृहस्थ धर्म की मर्यादा और अक्षुणता हेतु समस्त देवी देवताओं को साक्षी रख मृत्युपर्यंत एक दूसरे के प्रति प्रेम ,निष्ठां , मर्यादा, आदर और सेवा का शपथ लिया और तभी से परंपरा में सिंदूरदान नाम की इस पावन परंपरा का श्रीगणेश हुआ. सौभाग्य सिन्दूर विवाहित तथा अविवाहित स्त्री के मध्य अंतर स्थापित करने वाला सुगम साधन ही नहीं, स्त्री की मान रक्षा तथा पति के कर्तब्यबोध का सफल वाहक भी बन गया.

पुत्रीवत महारानी को पतिगृह विदा करते आचार्य वर तथा आर्या गांधारी का ह्रदय विह्वल हो उठा,परन्तु उसके सुखी जीवन के आभास और अभिलाषा ने उन्हें परम संतुष्टि और अनिर्वचनीय आनंद भी दिया..

महरानी के गमनोपरांत जब शिष्यगण अपने अभिभावकों से पाणिग्रहण हेतु सहमति ले आश्रम में उपस्थित हुए तो वहां की साज-सज्जा और विवाह वेदी देख अनिष्ट की आशंका से उनका मन विचलित होने लगा. सशंकित ह्रदय वे सभी आर्या तथा आचार्य के सम्मुख उपस्थित हुए तथा अपनी धृष्टता के लिए क्षमायाचना करते हुए अपना प्रयोजन स्पष्ट किया..अपना-अपना पक्ष रखते हुए सबने उस ऋषिकन्या पर अपना अधिकार स्थापित किया तथा पाणिग्रहण की अनुमति मांगी .

आचार्य कुछ पल को तो शांत भाव से समस्त अघटित देखते रहे,यकायक भीषण चीत्कार के साथ उठ खड़े हुए..उस भीषण वज्र ध्वनि ने सभी शिष्यों को स्तब्ध कर दिया.सभी निष्पलक निर्मिमेष दृष्टि से आचार्यवर को देखने लगे...और जैसे ही आचार्यवर ने महारानी का सत्य उनके सम्मुख उद्घाटित किया, लज्जा ग्लानि और पापबोध ने उन्हें विक्षिप्त सा कर दिया...जिन्हें वे अबतक एक कुंवारी ऋषिकन्या मान रहे थे ,वह तो परम वन्दनीय महारानी थीं. क्षणमात्र में मोह तिरोहित हो गया और आत्मग्लानि की भीषण ज्वाला में उनका कोमल ह्रदय दग्ध होने लगा..आचार्यवर के चरणों में भूलुंठित शिष्य अपने इस निकृष्ट कुकृत्य हेतु प्राणदंड की याचना करने लगे.

आचार्यवर ने कठोर शब्दों में उन्हें सावधान किया कि इस घोरतम पाप के लिए उन्हें दंड तो अवश्य मिलेगा परन्तु दंड की उद्घोषणा अगले दिन प्रातः काल की जायेगी इस अवधि-मध्य यदि कोई क्षात्र दंडमुक्ति की अभिलाषा रखता हो तो बिना आज्ञा, आश्रम छोड़कर जा सकता है..

कठोरतम दंड का आश्वासन पा शिष्यों ने मानों नूतन जीवन का आधार पाया था..अत्यंत अधीरतापूर्वक वे उषा काल की प्रतीक्षा करने लगे.अन्य दिनों की अपेक्षा बहुत पहले ही नित्यक्रिया से निवृत हो वे आचार्यवर के कक्ष के सम्मुख उपस्थित हो गए.

शिष्यों की प्रतिबद्धता ने आचार्यवर को परम सुख और संतोष दिया. पश्चात्ताप की जिस अग्नि में इतने काल तक वे जले थे, उसमे से उनका ह्रदय विशुद्ध कंचन बन बाहर आ गया था.अब इससे बड़ा दंड और क्या हो सकता था कि जीवन भर वे अपने इस अकरणीय से शिक्षा ले मोह बंधन से मुक्त रहते. आचार्यवर ने उन्हें दंडमुक्त कर परम ज्ञान का वह उपदेश दिया जो उनके शिक्षण समाप्ति के पूर्व उन्हें प्राप्त होता. इसके साथ ही आचार्यवर ने अपने इन परमज्ञानी शिष्यों को विश्व कल्याण हेतु ज्ञान प्रसार की आज्ञा दे समाज के बीच भेज दिया..

सर्वविदित है कि महर्षि गौतम, कपिल, जैमिनी, पतंजलि, व्यास और कणाद ने ज्ञान रूपी वह धरोहर विश्व को सौंपी है जो सृष्टि के अंत तक संसार का मार्गदर्शन करती रहेंगी....

(हिंदी साहित्य के सिद्ध हस्ताक्षर, परम आदरणीय श्री रामेश्वर प्रसाद सिंह की ह्रदय से आभारी हूँ,जिनके पुराणों,जैन तथा बौद्ध ग्रंथों के गहन अध्ययन अन्वेश्नोपरांत लिखित महान आध्यात्मिक ऐतिहासिक उपन्यास " पाटलीपुत्र की राजनर्तकी " के अध्ययन क्रम में इस प्रसंग से अवगत होने का सौभाग्य मिला...

उक्त पुस्तक में तो यह प्रसंग अत्यंत विस्तृत रूप में उल्लिखित है,मैंने उसके साररूप को अपने शब्दों में ढाल यहाँ प्रेषित करने का प्रयास किया है.चूँकि यह प्रसंग मेरे लिए सर्वथा नवीन एवं रोमांचक था,सो मैंने सार्वजानिक स्थल पर इसे सर्वसुलभ करने का निर्णय लिया. )

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22.9.09

सिंदूरदान (एक पौराणिक आख्यान) भाग-1

वैदिक युग के भी पूर्व सतयुग के आरंभिक काल की कथा है.उन दिनों माता जान्हवी धरा पर अवतरित न हुई थीं..सिन्धु तथा सरस्वती नदी के संगमस्थल पर दैवज्ञ आचार्य महर्षि खालित का गुरुकुल अवस्थित था. महर्षि की बाल विधवा भगिनी गांधारी आश्रम की संचालिका थी.महर्षि के अतुल ज्ञान तथा आर्या गांधारी के वात्सल्यमयी छत्रछाया में छः शिष्य - गौतम, कपिल, जैमिनी, पतंजलि, व्यास और कणाद ब्रह्मचर्य व्रत धारण किये शिक्षण प्राप्त कर रहे थे.



सात वर्षों की शिक्षावधि समाप्त हो चुकी थी,पांच वर्ष शेष रह गए थे. इस काल में कुशाग्रबुद्धि सुसंस्कारी शिष्यों ने कठोरतम साधना द्वारा अपनी कुल कुंडलिनी पर्याप्त जागृत कर ली थी. आत्मबोध तथा युगबोध ने उनके सम्मुख मोह माया को नगण्य कर दिया था.आचार्य खालित तथा आर्या गांधारी को अपने इन पुत्रवत शिष्यों से जितना स्नेह था उतना ही उनपर गर्व भी था.


इन्ही दिनों एक दिन मध्यरात्रि में आश्रम की नीरवता को एक अनिद्य सुन्दरी रमणी के करुण क्रंदन ने अभिशप्त कर दिया. आर्या गांधारी तथा आचार्य महर्षि के पाद पद्मों में भूलुंठित रमणी आश्रय हेतु गुहार लगा रही थी...वह परम सुन्दरी और कोई नहीं कोशल नरेश की अर्धांगिनी महारानी वेपुथमति थी. क्रोधोन्मत्त नृप ने पतिपरायना भार्या का परित्याग कर दिया था..भग्नहृदया महारानी को अपने मान शील की रक्षा की शरणस्थली आश्रय स्वरुप एकमात्र विकल्प यह पावन आश्रम ही दृष्टिगत हुआ था, सो निःशंक निस्पंद उस रात्रि में ऋषि आश्रम में वह आ उपस्थित हुई थी.


महारानी की करुण अवस्था ने भाई बहन के ह्रदय को दग्ध कर दिया.. उन्होंने महारानी को पुत्रीवत स्नेह और आश्रय का आश्वासन दे आश्वस्त किया. परन्तु महारानी के आलौकिक सौन्दर्य ने उन्हें चिंतित और दुविधाग्रस्त भी कर दिया .एक तो महारानी की मानरक्षा के लिए इस तथ्य की गोपनीयता सर्वथा अनिवार्य थी और इसके लिए उन्हें महारानी के लिए गोपनीय वास की व्यवस्था करनी थी और दूसरे अपरिपक्व वयि शिष्यों को उनके परिपक्व होने तथा शिक्षण समाप्ति पर्यंत स्त्री संपर्क से पूर्णतः वंचित रखना था. जिस वयः संधि पर उनके शिष्यगन अवस्थित थे,उनमे विवेक उतना प्रखर न हुआ था कि वे अपना करनीय भली भांति स्थिर कर पाते.आचार्यवर अपने शिष्यों के शिक्षण समाप्ति से पूर्व किसी भी भांति तपश्चर्या में विघ्न उपस्थित होने देना नहीं चाहते थे.


अंततः भाई बहनों ने गहन मंत्रणा कर आश्रम के विस्तृत प्रांगन के एक जनशून्य अलंघ्य दुकूल में महारानी के रहने की समुचित व्यवस्था कर दी तथा महारानी से वचन लिया कि अपनी गोपनीयता को संरक्षित रखते हुए वे कभी भी आश्रम के अवांछित भाग में आवागमन नहीं करेंगी. विछिन्न हृदया महारानी तो स्वयं ही एकांत की अभिलाषिनी थीं, अभीष्ट पूर्ण होते देख उनके संतप्त उदिग्न ह्रदय में नव आशा का संचार हुआ. समय के साथ आर्या गांधारी की देख रेख उनके वात्सल्यपूर्ण स्नेहिल व्यवहार तथा धर्मदेशना के संग आश्रम के उस पवित्र सात्विक परिवेश में शनैः शनैः महारानी का संताप भी घुलने लगा..


कुछ मास में जब सब व्यवस्थित और सुचारू रूप से चलने लगा, पूर्वनियोजित कार्यक्रमानुसार आचार्य ने अपने शिष्यगणों संग चातुर्मास हेतु तीर्थाटन का अनुष्ठान किया. सब व्यवस्था हो गयी किन्तु प्रस्थान से ठीक एक दिन पूर्व कनिष्ठ शिष्य कणाद भीषण ज्वर बाधा से पीड़ित हो गया. उसके स्वस्थ होने तक यात्रा स्थगित कर दी गयी. आचार्य सहित समस्त शिष्य समुदाय उसके उपचार और सेवा में जुट गए,परन्तु रोग दिनानुदिन असाध्य ही होता गया. ज्वर मुक्त होने में कणाद को मास भर लग गया.परन्तु इस दीर्घकालिक ज्वर ने उसे जीर्णकाय कर, उसकी शारीरिक अवस्था ऐसी न छोडी थी कि वह सहस्त्र कोसों की पद यात्रा में सक्षम हो पाता. अंतत महर्षि ने उसे स्वास्थ्य लाभ हेतु आश्रम में ही आर्या गांधारी की देख रेख में छोड़, अन्य शिष्यों संग तीर्थयात्रा को प्रस्थान किया...


स्वास्थ्य लाभ करते हुए कणाद देवी गांधारी के संग आश्रम में रह तो गया परन्तु अपने सहपाठियों का विछोह उसे कष्टकर लगने लगा. एकाकीपन ने उसके मन को अस्थिर और व्यथित कर रखा था...ऐसे ही एक दिन पूर्णमासी की रात्रि को तृतीय प्रहर में ही उसकी निद्रा विखण्डित हो गयी. विचलित मन आसन त्याग जब वह कक्ष से बाहर आया तो, शुभ्र ज्योत्स्ना की चहुँ ओर विस्तृत धवल आभा ने उसे विमुग्ध कर दिया. मन का एकाकीपन और अस्थिरता जैसे उस धवल उर्मी में धुल कर बह गया.आत्मविस्मृत मंत्रमुग्ध हो प्रकृति की उस मनोरम छटा का आनंद लेते हुए उस सौन्दर्य सुधा का रसपान करता भ्रमण को निकल पड़ा..आनंद और चिंतन में मग्न किशोर लक्ष्य ही न कर पाया कि कब उसने आश्रम के निषिद्ध प्रकोष्ठ की परिसीमा का उल्लंघन कर दिया था.....


संयोगवश दुश्चिंताओं में घिरी रानी भी असमय निद्रा भंग के बाद क्लांत मन को प्रकृति की सुरम्यता में रमा दुश्चिंताओं से मुक्ति हेतु सरोवर में स्नान करने चली आयीं थीं.चूँकि रानी आचार्य तथा शिष्यों के तीर्थाटन गमन तथ्य से अवगत थी ,सो निश्चित होकर उन्होंने सरोवर के दुकूल में अवस्थित वृक्ष की शाख पर अपने वस्त्र रख सरोवर के स्निग्ध जल में मुक्त भाव से संतरण करने लगीं.


सरोवर कूल में वृक्ष द्रुमो पर रखे वस्त्रों का मस्तक पर स्पर्श होते ही सहसा कणाद का ध्यान भंग हुआ और जैसे ही उसकी दृष्टि सद्यः स्नाता सर्वांग सुंदरी महारानी पर पडी अचंभित किशोर जड़वत वहां संज्ञासून्य सा ठिठका खडा अपलक उस दृश्य को निहारता रह गया..आकस्मात जब महारानी की दृष्टि इस ओर गयी तो संकोच लज्जा और भयवश वह भी पल भर को काष्ठवत स्थिर हो गयी.परन्तु शीघ्र ही अपनी सम्पूर्ण उर्जा लगा द्युत गति से सरोवर से बाहर निकल पलक मारते लता द्रुमो के मध्य लुप्त हो गयी..


कुछ क्षणों का यह सम्पूर्ण दृश्य विद्युत्पात सा बारम्बार कणाद के मनोमस्तिष्क पर कौंधने लगा...यह एक स्वप्न था अथवा सत्य , निर्णीत करने में वह सर्वथा असमर्थ हो रहा था. हतप्रभ सा किशोर चकित थकित उसी मुद्रा में एक प्रहर तक जड़वत ऐसे ही निर्मिमेष दृष्टि से सरोवर को निहारता सुध बुध बिसराए खडा रह गया.


प्रतिदिन की भांति चतुर्थ प्रहर में आकर जब कणाद ने आर्या गांधारी का अभिवादन और चरण स्पर्श नहीं किया तो चिंतातुर गांधारी ही संघाराम (छात्रावास) की ओर चल दी. वहां कणाद को अनुपस्थित देख अनिष्ट की आशंका से आतंकित गांधारी आश्रम में चहुँ ओर उसका संधान करने लगी. अनुमानित किसी भी स्थल पर उसे न पा सशंकित जब वह महारानी के प्रकोष्ठ की ओर बढ़ी और सरोवर के कूल में महारानी के वस्त्रों के निकट निश्चल कणाद को विस्मृत उस अवस्था में देखा तो सबकुछ समझने में उन्हें दो पल भी न लगा...


अंततः वही हुआ था, जिसका उन्हें भय था. महारानी के अतुलित सौन्दर्य ने बालक के बुद्धि विवेक को राहु सा ग्रस लिया था..आशंकित आर्या ने शिष्य को झकझोरा .. तंद्रा भंग होने पर स्वयं की स्थिति का उसे भान हुआ. वर्जित प्रदेश में प्रवेश कर आश्रम के अनुशाशन को तो उसने भंग किया ही था, वस्त्रहीना स्त्री के सम्मुख इस प्रकार निर्लज्जता से खड़े रह उसका घोर अपमान भी किया था. अनुशाशन तथा मर्यादा भंग कर उसने घोरतम अपराध किया था. विवेक जब पुनर्प्रतिष्ठित हुआ तो अपराधबोध से उसका ह्रदय दग्ध होने लगा..अपने ही मुख से अपने समस्त दोषों को स्वीकृत करते हुए माता गांधारी के पाद पद्मों में लोट कर वह अपने लिए कठोरतम दंड की याचना करने लगा.


बालक के निष्कलुष अश्रुबिंदुओं ने ममतामयी गांधारी का ह्रदय द्रवित कर दिया था..उसकी स्वीकारोक्ति ने उन्हें संशयहीन कर दिया..इस अप्रिय प्रसंग को स्वप्नवत विस्मृत करते हुए, उस निषिद्ध प्रदेश में पुनर्प्रवेश न करने के अनुशासन का प्रतिबद्धता पूर्वक पालन करने का निर्देश दे आर्या एक प्रकार से निश्चिंत सी हो गयी. कणाद ने भी शपथ लेते हुए माता को आश्वस्त किया कि इस प्रकार का अकरणीय भविष्य में कदापि घटित न होगा...

क्रमशः


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8.9.09

समालोचना !!!

सम्पूर्ण श्रृष्टि में चर चराचर, प्रत्येक उद्यम सुख और आनंद प्राप्ति के निमित्त ही तो करते हैं. परन्तु समस्या यह है कि सुख आनंद विभिन्न श्रोतों द्वारा जितना अधिक हम लेने / जोड़ने में तत्पर रहा करते हैं, उतना किसी को देने में नहीं. जबकि यदि हम सचमुच ही शाश्वत सुख के अभिलाषी हैं, तो मन वचन और कर्म से सतत सजग रह कर हमें अपने आस पास अपने से जुड़े प्रकृति से लेकर प्राणिमात्र को सुख देना होगा...क्योंकि भौतिकी का यह सिद्धांत निर्विवादित सत्य है कि, हमारे द्वारा संपादित प्रत्येक क्रिया के सापेक्षिक समानुपातिक प्रतिक्रिया होती है..यदि हम सदैव यह ध्यान रखें कि अमुक कारक यदि मेरे सुख का कारण बनती है तो मैं भी दूसरे को यह सुख दूँ, तो संसार में दुःख का संभवतः कोई कारण ही नहीं बचेगा...

जैसे कि यही देख लें , सामान्य जीवन में हम प्रशंषित प्रोत्साहित होने में तो सुख पाते हैं,परन्तु सच्चे मन से प्रशंशा या प्रोत्साहन देने में संकोच कर जाते हैं. अधिकांशतः ऐसे अवसरों पर हमारा अहम् आड़े आ जाया करता है. यही नहीं, बहुधा जाने अनजाने अपने आत्मीय, अपने प्रिय तक से ऐसा कुछ कह जाया करते हैं, जो उनकी आत्मा को गहरे खरोंच जाया करती हैं. हमारे लिए साधारण लगने वाली बातों को भी मन में चुभ जाने पर हमारे अपने अति गंभीरता से ले लिया करते हैं और फिर ये बातें उनके जीवन की दिशा ही बदल दिया करती है. नकारात्मक बातें जीवन को अधोगामी बना बड़ा ही घातक परिणाम छोडा करती हैं...

मेरी एक प्रिय सखी है. उसके लेखन की मैं कायल हूँ..परन्तु इधर बहुत लम्बे समय से उसका मन लेखन से विरत हो गया था...पहले तो मुझे लगा उसकी अन्मयस्कता का कारण संभवतः पारिवारिक व्यस्तता है, पर वार्ता क्रम में जब उसे बड़ा ही निराश हतोत्साहित सा देखा तो मैं कारण जानने को बाध्य हो गयी.....बहुत खोंदने पर ज्ञात हुआ कि एक वरिष्ठ साहित्यकार , जिनपर उसकी अपार आस्था और श्रद्धा थी तथा जिनके मार्गदर्शन में चलना ही उसने अपना परम कर्तब्य माना था, ने न जाने क्या सोचकर उसके लेखन कला की तीव्र भर्त्सना कर दी...इस घटना से उसका संवेदनशील ह्रदय इतना आहत और हतोत्साहित हुआ कि उसने स्वयं ही अपने आप को अयोग्यता का प्रमाण पत्र देते हुए भविष्य में रचनाशीलता से किनारा करने का मन बना लिया.यह मेरे लिए असह्य था,क्योंकि अपनी श्रीजनात्मकता से वह साहित्य को समृद्धि प्रदान कर रही थी...

अपने जीवन में बहुधा ही इन परिस्थितियों से मैं स्वयं भी गुजरी हूँ तथा असंख्य लोगों को गुजरते देखा है,चाहे वह घर हो,कार्यालय हो, साहित्य/कला का क्षेत्र हो या जीवन से जुड़ा कोई भी अन्य क्षेत्र...और मुझे लगता है इस संसार का कोई मनुष्य नहीं जो इससे अछूता रहा होगा..जिससे हम नकारात्मकता की अपेक्षा किये होते हैं,जो हमारे आत्मीय नहीं होते , उनकी आलोचना से भले हम आहत न हो..परन्तु अपने आत्मीय जनों या जिनपर हमें आपर आस्था हो, अनपेक्षित रूप से यदि आलोचना मिले या प्रोत्साहन न मिले,तो हतोत्साहित हताश होना स्वाभाविक है.

ऐसी परिस्थतियों में हौसला हार कर शिथिल हो बैठा जाना, अपने कर्तब्य से विमुख होना, स्वाभाविक सही पर उतना ही अनुचित है, जितना कि किसी को हतोत्साहित करना. यदि हमने अपने कर्म का मार्ग परोपकार(मन वचन या कर्म से किसी को भी सुख देने का) का चुना है, तो ऐसे मार्ग पर कर्म विमुख कर्ताब्य्च्युत होकर बैठना निसंदेह पाप है. हाँ बात यह है कि संवेदनशील ह्रदय जब आहत व्यथित होगा यह नकारात्मक भाव हमारे रचनात्मक उर्जा का क्षय तो करेगा ही...ऐसे में इससे उबरने के साधनों पर यदि विचार कर लिया जाय तथा उसे सदैव ध्यान में रखा जाय तो नकारात्मक भाव से यथासंभव शीघ्रातिशीघ्र छुटकारा मिल सकता है..

सबसे पहले इसपर विचार करें कि क्या आलोचक की व्यक्तिगत योग्यता, अभिरुचि या कार्यक्षेत्र वह है कि वह हमारे विचारों और कार्यों का सही मूल्यांकन कर सकता है....

दुसरे, कि कहीं अधिकांश व्यक्तियों या उनके कृतित्वों का क्षिद्रान्वेशन आलोचक की स्वाभाविक प्रवृत्ति ही तो नहीं .....(क्योंकि कुछ वरिष्ठ और महत्वपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित तथा महत कार्य संपादित कर रहे व्यक्ति भी कुंठाग्रस्त नकारात्मक प्रवृत्ति के होते हैं और उनसे सकारात्मकता की आशा करना रेत से तेल निकलने सा है)

तीसरे ,यदि आलोचक में उपर्युक्त कोई भी दोष नहीं, तो कहीं ऐसा तो नहीं कि उसने जब नकारात्मक प्रतिक्रिया दी उस कालावधि में वह तनावग्रस्त ,खीझा चिड़चिडाया हुआ था .

इन तथ्यों को ध्यान में रखकर ही निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए कि आलोचक की बातों को कितना वजन देना है और अंगीकार करना है. यूँ तो सर्वोत्तम यह होता है कि सौ पैसे अपनी भी न सुनी जाय.... सबकी सुन, अपनी तथा बाकियों की बातों को अपने विवेक की कसौटी पर भली प्रकार जांच परख कर,अभिमत स्थिर करना ही श्रेयकर हुआ करता है और तत्पश्चात उस मार्ग पर पूर्ण सकारात्मक उर्जा के साथ अग्रसर हों..सामान्यतया यदि व्यक्ति सकारात्मकता से गहरे जुड़ा होता है तो उसका विवेक भी उतना ही जागृत होता है और फिर छोटी छोटी बातों, दुर्घटनाओं की तो बात ही क्या, बड़ी से बड़ी दुर्घट्नाये बाधाएं उसका कर्मपथ अवरुद्ध बाधित नहीं कर पातीं.

कहते हैं न...... " खुदी को कर बुलंद इतना,कि खुदा भी बन्दे से खुद पूछे, बता तेरी रजा क्या है..." वस्तुतः सही मायने में जिसने भी अपने आत्मबल को सुदृढ़ कर लिया ,विवेक को सतत जागृत रखा, जीवन उसीने जिया...वही विजेता बना... क्योंकि अंततः जीवन में यदि कुछ माने रखता है तो स्वयं द्वारा निष्पादित सत्कर्म और उससे प्राप्त संतोष और शांति...

यह सतत स्मरणीय है कि समालोचना क्रम में सदैव सकारात्मक रहें,नहीं तो आपकी नकारात्मक उक्ति किसी की रचनात्मक प्रतिभा को समूल नष्ट कर सकती है...


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