किसी भी कालखंड में काल विशेष के प्रसिद्द चर्चित व्यक्तित्वों के चरित्र और कृतित्व के विषय में लोक में जो कुछ भी प्रचारित रहता है, क्या वह वही होता है जो वास्तव में वह हैं या थे?? शायद नहीं न !!! क्योंकि व्यक्ति विशेष के विषय में लिखित रूप में जो कुछ भी संगृहित होता है,वस्तुतः वह लेखक /प्रचारक या लिखवाने प्रचारित करवाने वाले के हिसाब से होता है..लेखक अपने रूचि और संस्कार के अनुरूप व्यक्ति विशेष का चरित्र एवं कृतित्व गढ़ उसे लोक तक पहुंचता है. कभी कभी तो यह सत्य वास्तविकता से कोसों दूर हुआ करती है. कालांतर में व्यक्ति विशेष के विषय में जो विचार धारा सर्वाधिक प्रचार पाती है, वही मत स्थिर करने का आधार भी बनती है..
आज मिडिया सिने अभिनेता अमिताभ बच्चन जी का नाम " सदी के महानायक " लगाये बिना नहीं लेती..अमिताभ जी परिपक्व अभिनेता और प्रभावशाली व्यक्तित्व के स्वामी हैं,सुसंस्कृत शालीन सज्जन प्राणी हैं.. मेरे मन में उनके लिए बड़ा आदर भाव है,परन्तु उनके लिए इस उपाधि का प्रयोग मुझे अखर जाता है. हिन्दी भाषा जानने, शब्दों के अर्थ और महत्त्व समझने वालों की तो छोडिये, भारतीय सिनेमा के दर्शक /प्रशंशक भी क्या ह्रदय पर हाथ धर निरपेक्ष निष्पक्ष भाव से कह पाएंगे कि भारतीय सिनेमा के पिछले सौ वर्षों (सदी) में अमिताभ बच्चन जी सा धुरंधर अभिनेता हिन्दी सिनेमाँ में और कोई हुआ ही नहीं है ??? और जहाँ तक बात रही महानायकत्व की तो 'महानायक' शब्द का प्रयोग "महान अभिनेता" के अर्थ में होना चाहिए या "महान नेतृत्वकर्ता " के रूप में, यह हिन्दी भाषा के ज्ञाता विचार कर निर्धारित सकते हैं. वर्तमान का सत्य यही है कि यह उपाधि इतना प्रचारित कर दिया गया है कि इसपर प्रश्चिन्ह लगाने का कोई सोच भी नहीं पाता..यह प्रचार अतिरंजना ऐसे ही विस्तृत हुआ तो बहुत बड़ी बात नहीं कि आज से कुछ दशक या शतक वर्ष उपरान्त इनके चरित्र के साथ कुछ चमत्कारिक किंवदंतियाँ भी जुड़ जाएँ.. इन्हें महान अवतार ठहरा मंदिरों में प्रतिस्थापित करने लगा जाए और फूल फल अगरबत्ती से इनकी पूजा अर्चना आरम्भ हो जाए... अपने चारों ओर ऐसे दृष्टान्तों की कोई कमी नहीं.
एक और दृष्टान्त... आज खूब चर्चा में हैं डॉक्टर विनायक सेन..कुछ लोग इन्हें महान ठहराने में एड़ी चोटी साधे हुए हैं, तो कुछ आतंकवादियों का सहयोगी ठहरा अहर्निश निंदा में व्यस्त हैं..एक ही साथ,एक ही समय में , दो एक दम विपरीत विचारधाराएँ प्रचारित हैं. आमजन दिग्भ्रमित हैं कि इस व्यक्तित्व की वास्तविकता आखिर है क्या. अच्छा, बुरा क्या मानें इन्हें??.. आज जब व्यक्ति हमारे बीच उपस्थित है, तब तो वास्तविकता तक हमारी पहुँच नहीं, मान लिया आज से कुछ सौ वर्ष बाद इनपर चर्चा हुई या इनके विषय में मत स्थिर करना होगा, तो हम किस आधार पर करेंगे ??? संभवतः इसका आधार आज की बहुप्रचरित धारा ही होगी...नहीं ?? चलिए, वर्तमान की बात हो या दो ढाई सौ वर्ष पीछे की बात,किसी प्रसंग की सत्यता तक कोई अनुसंधानकर्ता पहुँच भी जाए ,पर बात जब हजारों या लाखों वर्ष पहले की हो तब ?? सत्यान्वेषण इतना ही सरल होगा क्या ???
विश्व में प्रचलित धर्म सम्प्रदायों में चाहे वह इस्लाम हो,इसाई हो या अन्यान्य कोई भी धर्म सम्प्रदाय, किसीमे भी अपने धर्म संस्थापकों, प्रवर्तकों , नायकों ,पूज्य श्रेष्ठ व्यक्तियों के चरित्र को लेकर अनास्था या मत विभिन्नता उतनी नहीं जितनी कि हिन्दुओं में है. यूँ भी एक परंपरा सी बनी हुई है कि हिन्दुओं के पौराणिक पात्रों तथा प्रसंगों को मिथ या कल्पना ठहरा नकार दिया जाए.. इधर कुछेक संस्थाओं , विद्वानों ने इनकी सत्यता जांचने का बीड़ा उठाया तो है, पर देखा जाय कि उनके प्रयोजन कितने निष्पक्ष हैं.. मुझे विश्वास है कि इस दिशा में यदि गंभीर और निष्पक्ष प्रयास किये जायं तो समय सिद्ध करेगा कि ये पौराणिक पात्र विशुद्ध इतिहास के अंग हैं, मिथ या कपोल कल्पना नहीं..
बात जब पौराणिक पात्रों युगपुरुषों, महानायकों की होती है,तो मर्यादापुरुसोत्तम राम और महानायक कृष्ण का नाम ध्यान में सबसे पहले आता है.. पर इनके विषय में लिखित संरक्षित साहित्य का अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि युग के इतिहास का रुख मोड़ देने वाले इन दो महापुरुषों में से राम के चरित्र के साथ कलमकारों ने जितना न्याय किया उतना कृष्ण के चरित्र के साथ नहीं किया. तुलसीदास जैसे सहृदय कवि ने जिस प्रकार राम कथा तथा उनके चरित्र को विस्तार दे इसे जन जन के ह्रदय में प्रतिष्ठित कर जनमानस के लिए पूज्य और अनुकरणीय बनाया, ऐसा सौभाग्य कृष्ण चरित्र को प्राप्त न हुआ..वैसे तुलसीदास ही क्या राम का चरित्र जिन हाथों गया और विवेचित हुआ अधिकाँश ने उसके साथ न्याय किया,परन्तु विडंबना रही कि कृषण के जीवन और चरित्र को प्रत्येक कलमकारों ने अपने रुचिनुसार खण्डों में ले खंडविशेष को ही विस्तार दिया.
कोई कृष्ण के बाल रूप पर मुग्ध हो, वात्सल्य रस में लेखनी डुबो बालसुलभ चेष्टाओं को चित्रांकित करने में लगा रहा तो कोई श्रृंगार में निमग्न उसे पराकाष्ठा देने में एडी चोटी एक करता रह गया..किसीने उन्हें अलौकिक,चमत्कारिक परमेश्वर ठहराया तो किसीको कृष्ण धूर्त चतुर कूटनीतिज्ञ और राजनीतिज्ञ भर लगे. समग्र रूप में इस विराट व्यक्तित्व के सम्पूर्ण जीवन और कर्म की विवेचना करने में भक्तिकाल से लेकर रीतिकाल तक के किसी भी मूर्धन्य कवि ने अभिरुचि न दिखाई ..कृष्ण के लोक रंजक रूप पर तो खूब पन्ने रंगे गए पर उनके लोकरक्षक रूप को लोक के लिए अनुकरणीय रूप में समुचित ढंग से कोई नहीं रख पाया...
रीतिकालीन साहित्यकारों में तो श्रृंगार के प्रति आसक्ति ऐसी थी कि राज्याश्रित कवियों ने कृष्ण को लम्पट कामी और लुच्चा ही बनाकर छोड़ दिया.एक साधारण मनुष्य तक की गरिमा न छोडी उनमे.. यूँ भी श्रुति और स्मृति में संरक्षित हिन्दू धर्म ग्रंथों के उपलब्ध लिखित अंशों को सुनियोजित ढंग से प्रक्षेपांशों द्वारा विवादित बना छोड़ने और हिन्दुओं को दिग्भ्रमित करने में अन्य धर्मावलम्बियों ने शताब्दियों में अपार श्रम और साधन व्यय किया है. आस्था जिस आधार पर स्थिर और परिपुष्ट होती है,उसको खंडित किये बिना समूह को दुर्बल और पराजित करना सरल भी तो नहीं....
क्रमशः :-
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