21.1.11

महानायक !!!



किसी भी कालखंड में काल विशेष के प्रसिद्द चर्चित व्यक्तित्वों के चरित्र और कृतित्व के विषय में लोक में जो कुछ भी प्रचारित रहता है, क्या वह वही होता है जो वास्तव में वह हैं या थे?? शायद नहीं न !!! क्योंकि व्यक्ति विशेष के विषय में लिखित रूप में जो कुछ भी संगृहित होता है,वस्तुतः वह लेखक /प्रचारक या लिखवाने प्रचारित करवाने वाले के हिसाब से होता है..लेखक अपने रूचि और संस्कार के अनुरूप व्यक्ति विशेष का चरित्र एवं कृतित्व गढ़ उसे लोक तक पहुंचता है. कभी कभी तो यह सत्य वास्तविकता से कोसों दूर हुआ करती है. कालांतर में व्यक्ति विशेष के विषय में जो विचार धारा सर्वाधिक प्रचार पाती है, वही मत स्थिर करने का आधार भी बनती है..

आज मिडिया सिने अभिनेता अमिताभ बच्चन जी का नाम " सदी के महानायक " लगाये बिना नहीं लेती..अमिताभ जी परिपक्व अभिनेता और प्रभावशाली व्यक्तित्व के स्वामी हैं,सुसंस्कृत शालीन सज्जन प्राणी हैं.. मेरे मन में उनके लिए बड़ा आदर भाव है,परन्तु उनके लिए इस उपाधि का प्रयोग मुझे अखर जाता है. हिन्दी भाषा जानने, शब्दों के अर्थ और महत्त्व समझने वालों की तो छोडिये, भारतीय सिनेमा के दर्शक /प्रशंशक भी क्या ह्रदय पर हाथ धर निरपेक्ष निष्पक्ष भाव से कह पाएंगे कि भारतीय सिनेमा के पिछले सौ वर्षों (सदी) में अमिताभ बच्चन जी सा धुरंधर अभिनेता हिन्दी सिनेमाँ में और कोई हुआ ही नहीं है ??? और जहाँ तक बात रही महानायकत्व की तो 'महानायक' शब्द का प्रयोग "महान अभिनेता" के अर्थ में होना चाहिए या "महान नेतृत्वकर्ता " के रूप में, यह हिन्दी भाषा के ज्ञाता विचार कर निर्धारित सकते हैं. वर्तमान का सत्य यही है कि यह उपाधि इतना प्रचारित कर दिया गया है कि इसपर प्रश्चिन्ह लगाने का कोई सोच भी नहीं पाता..यह प्रचार अतिरंजना ऐसे ही विस्तृत हुआ तो बहुत बड़ी बात नहीं कि आज से कुछ दशक या शतक वर्ष उपरान्त इनके चरित्र के साथ कुछ चमत्कारिक किंवदंतियाँ भी जुड़ जाएँ.. इन्हें महान अवतार ठहरा मंदिरों में प्रतिस्थापित करने लगा जाए और फूल फल अगरबत्ती से इनकी पूजा अर्चना आरम्भ हो जाए... अपने चारों ओर ऐसे दृष्टान्तों की कोई कमी नहीं.

एक और दृष्टान्त... आज खूब चर्चा में हैं डॉक्टर विनायक सेन..कुछ लोग इन्हें महान ठहराने में एड़ी चोटी साधे हुए हैं, तो कुछ आतंकवादियों का सहयोगी ठहरा अहर्निश निंदा में व्यस्त हैं..एक ही साथ,एक ही समय में , दो एक दम विपरीत विचारधाराएँ प्रचारित हैं. आमजन दिग्भ्रमित हैं कि इस व्यक्तित्व की वास्तविकता आखिर है क्या. अच्छा, बुरा क्या मानें इन्हें??.. आज जब व्यक्ति हमारे बीच उपस्थित है, तब तो वास्तविकता तक हमारी पहुँच नहीं, मान लिया आज से कुछ सौ वर्ष बाद इनपर चर्चा हुई या इनके विषय में मत स्थिर करना होगा, तो हम किस आधार पर करेंगे ??? संभवतः इसका आधार आज की बहुप्रचरित धारा ही होगी...नहीं ?? चलिए, वर्तमान की बात हो या दो ढाई सौ वर्ष पीछे की बात,किसी प्रसंग की सत्यता तक कोई अनुसंधानकर्ता पहुँच भी जाए ,पर बात जब हजारों या लाखों वर्ष पहले की हो तब ?? सत्यान्वेषण इतना ही सरल होगा क्या ???

विश्व में प्रचलित धर्म सम्प्रदायों में चाहे वह इस्लाम हो,इसाई हो या अन्यान्य कोई भी धर्म सम्प्रदाय, किसीमे भी अपने धर्म संस्थापकों, प्रवर्तकों , नायकों ,पूज्य श्रेष्ठ व्यक्तियों के चरित्र को लेकर अनास्था या मत विभिन्नता उतनी नहीं जितनी कि हिन्दुओं में है. यूँ भी एक परंपरा सी बनी हुई है कि हिन्दुओं के पौराणिक पात्रों तथा प्रसंगों को मिथ या कल्पना ठहरा नकार दिया जाए.. इधर कुछेक संस्थाओं , विद्वानों ने इनकी सत्यता जांचने का बीड़ा उठाया तो है, पर देखा जाय कि उनके प्रयोजन कितने निष्पक्ष हैं.. मुझे विश्वास है कि इस दिशा में यदि गंभीर और निष्पक्ष प्रयास किये जायं तो समय सिद्ध करेगा कि ये पौराणिक पात्र विशुद्ध इतिहास के अंग हैं, मिथ या कपोल कल्पना नहीं..

बात जब पौराणिक पात्रों युगपुरुषों, महानायकों की होती है,तो मर्यादापुरुसोत्तम राम और महानायक कृष्ण का नाम ध्यान में सबसे पहले आता है.. पर इनके विषय में लिखित संरक्षित साहित्य का अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि युग के इतिहास का रुख मोड़ देने वाले इन दो महापुरुषों में से राम के चरित्र के साथ कलमकारों ने जितना न्याय किया उतना कृष्ण के चरित्र के साथ नहीं किया. तुलसीदास जैसे सहृदय कवि ने जिस प्रकार राम कथा तथा उनके चरित्र को विस्तार दे इसे जन जन के ह्रदय में प्रतिष्ठित कर जनमानस के लिए पूज्य और अनुकरणीय बनाया, ऐसा सौभाग्य कृष्ण चरित्र को प्राप्त न हुआ..वैसे तुलसीदास ही क्या राम का चरित्र जिन हाथों गया और विवेचित हुआ अधिकाँश ने उसके साथ न्याय किया,परन्तु विडंबना रही कि कृषण के जीवन और चरित्र को प्रत्येक कलमकारों ने अपने रुचिनुसार खण्डों में ले खंडविशेष को ही विस्तार दिया.

कोई कृष्ण के बाल रूप पर मुग्ध हो, वात्सल्य रस में लेखनी डुबो बालसुलभ चेष्टाओं को चित्रांकित करने में लगा रहा तो कोई श्रृंगार में निमग्न उसे पराकाष्ठा देने में एडी चोटी एक करता रह गया..किसीने उन्हें अलौकिक,चमत्कारिक परमेश्वर ठहराया तो किसीको कृष्ण धूर्त चतुर कूटनीतिज्ञ और राजनीतिज्ञ भर लगे. समग्र रूप में इस विराट व्यक्तित्व के सम्पूर्ण जीवन और कर्म की विवेचना करने में भक्तिकाल से लेकर रीतिकाल तक के किसी भी मूर्धन्य कवि ने अभिरुचि न दिखाई ..कृष्ण के लोक रंजक रूप पर तो खूब पन्ने रंगे गए पर उनके लोकरक्षक रूप को लोक के लिए अनुकरणीय रूप में समुचित ढंग से कोई नहीं रख पाया...

रीतिकालीन साहित्यकारों में तो श्रृंगार के प्रति आसक्ति ऐसी थी कि राज्याश्रित कवियों ने कृष्ण को लम्पट कामी और लुच्चा ही बनाकर छोड़ दिया.एक साधारण मनुष्य तक की गरिमा न छोडी उनमे.. यूँ भी श्रुति और स्मृति में संरक्षित हिन्दू धर्म ग्रंथों के उपलब्ध लिखित अंशों को सुनियोजित ढंग से प्रक्षेपांशों द्वारा विवादित बना छोड़ने और हिन्दुओं को दिग्भ्रमित करने में अन्य धर्मावलम्बियों ने शताब्दियों में अपार श्रम और साधन व्यय किया है. आस्था जिस आधार पर स्थिर और परिपुष्ट होती है,उसको खंडित किये बिना समूह को दुर्बल और पराजित करना सरल भी तो नहीं....


क्रमशः :-
------------------------------

30.12.10

बीत रहा .......

एक और वर्ष बीत रहा
बीत रहे पल छिन संग
हम भी तो बीत रहे
साँसों के जल से भरा,
घट भी तो रीत रहा.
यह वर्ष भी बीत रहा.


जश्न हम मनाएं क्या
गीत नया गायें क्या
संचित अभिलाषा की
कथा अब सुनाएँ क्या
देख दशा अग जग की
मन तो भयभीत खड़ा ,
हौसला है अस्त पस्त
पार कहाँ सूझ रहा.
यह वर्ष भी बीत रहा.


स्मृति की अट्टालिका मे
पल छिन जो ठहरे हैं
अगणित रंगों मे घुले
रंग बड़े गहरे हैं
उसमे गुमसुम से सभी
सपने सुनहरे हैं
पाँव तो हैं ठिठके  पर
समय प्रवाह जीत रहा.
यह वर्ष भी बीत रहा.


पर पास खड़ा नया साल
देखो मुस्काता  है
मद्धिम सी छेड़ तान  
हम को  बहलाता है
प्राणों मे फ़िर से वही
आस फ़िर जगाता है
बीता जो लम्हा वह
बीत गया बात गयी
आगे का हर पल तो
तेरा बस तेरा है
जाने दे उस पल को
जो बीत रहा बीत रहा.


*******************************

24.12.10

लाल लगाम !!!

सरला - क्या यार...कितने देर से तुझे फोन लगा रही हूँ.. कॉल जा रहा है पर तुझे तो उठाने की फुर्सत ही नहीं...


रीमा- अरे यार , मार्केट गई थी, शाम के लिए गिफ्ट खरीदने. मोबाइल पर्स में था, भीड़ भाड़ में सुनाई नहीं पड़ा.अभी तो घर पहुंची हूँ.


सरला - मैं भी तो इसी लिए तुझे खोज रही थी.....सुन,,,शाम को इक्कठे चलेंगे. तू अपनी गाडी न लेना ,मैं इनके साथ आउंगी और तुम दोनों को पिक कर लूंगी...साथ चलेंगे तो मजा आएगा..


रीमा - हाँ..हाँ, क्यों नहीं...


सरला - देख न, समझ में नहीं आ रहा कि गिफ्ट क्या लूँ.....वैसे तूने क्या लिया ??


रीमा - वियाग्रा...शिलाजीत !!!!


सरला - हा हा हा हा...


रीमा - हा हा हा हा...बता न.... और क्या दिया जाय ???


सरला - हाँ ,बोल तो सही ही रही हो..

बताओ न,यह भी कोई उम्र है शादी करने की??? पचास तो पार हो ही गया होगा, नहीं ???


रीमा- पचास नहीं रे...बावन...!!!


सरला - ओह !!!

सुना है, तीनो बच्चों ने विद्रोह कर दिया है..


रीमा - हाँ, और क्या..दोनों बेटे तो हॉस्टल से आये भी नहीं है..छोटी बेटी ने तो अपने को कमरे में कैद ही कर लिया है जब से चोपड़ा जी इंगेजमेंट कर के आये हैं.. किसी से मिलती जुलती नहीं, खेलती घूमती नहीं..दादी बुआ और चाचियाँ समझा कर थक गए हैं....


सरला - सही तो है...इस उम्र में बच्चे सौतेली माँ बर्दास्त कैसे करेंगे,उसपर भी जबकि उसे गुजरे ढेढ़ साल भी न बीते हों..आसान नहीं है बच्चों के लिए....


अच्छा,लडकी का पता है ???? सुना है, एकदम जवान है, सत्ताईस अट्ठाईस की ...


रीमा - हाँ रे,, सही सुना..


सरला - विधवा तलाकशुदा है या कुआंरी है ????


रीमा- एकदम कुआंरी ???


सरला - सोच तो क्या देखकर माँ बाप ब्याह रहे हैं इस बुढाऊ से ???


रीमा - देखेंगे क्या..पद है, पैसा है, रुतबा है और शरीर भी कोई ऐसा ढला हुआ तो है नहीं. दिखने में चालीस से ज्यादा के नहीं दीखते ...और लडकी बेचारी पांच बहन है.एक कलर्क पाँच पाँच बेटियों के लिए जवान और कमाऊ लड़का कहाँ से खोजेगा ??? वो तो भला हो कि चोपड़ा जी ने उनका उद्धार कर दिया उसका...


सरला - सही कह रही हो..


रीमा - लेकिन एक बात है,उद्धार करना ही था तो तेरी पड़ोसन का करते तो ज्यादा अच्छा होता.... नहीं??????


सरला - तू भी तो बात करती है. चोपड़ा जी इसका उद्धार करते तो फिर बेचारे मजनूँ का कौन करता ?????

हा हा हा हा....


रीमा - हा हा हा हा...वो तो है...

वैसे क्या चल रहा है अभी ???


सरला - अरे तुझे बताना भूल गई ..पता है, परसों क्या हुआ, कि मेरा एक कजिन देल्ही से हमारे यहाँ आया...ट्रेन लेट हो गई थी, रात साढ़े ग्यारह के बदले यह भोर चार बजे पहुंची ....उसके लिए दरवाजा खोला ,तो देखती क्या हूँ, कि मजनू मियां मैडम के छोटे बेटे को गोद में उठाये फ़्लैट के नीचे लिए चले जा रहे हैं और मैडम बड़ी बेटी को घर में ही सोती छोड़ दरवाजा बंद करके उनके पीछे जा रही हैं...यूँ तो मैं नहीं टोकती,पर मुझसे रहा न गया तो मैंने पूछ ही लिया, कि क्या हुआ ,कहाँ जा रही हैं इतनी रात को...तो कहने लगीं, बेटे की तबियत बहुत बिगड़ गई है ,डॉक्टर के पास जा रहे हैं....

अब बता, इतनी सुबह जो घर से निकले, मतलब रात भर मजनू मियां इनके घर ही रहे होंगे...

पहले पहल तो जब आना जाना शुरू हुआ था तो मैडम कहतीं थीं,कलीग हैं,,, मदद कर देते हैं...बच्चों को पढ़ाने आते हैं...

फिर देखा वो साहब इनकी सब्जी भाजी और राशन भी ढ़ोने लगे और अब तो कोई हिसाब ही नहीं कि कब आयेंगे और कब जायेंगे...


रीमा - ऐसा ही है तो दोनों शादी क्यों नहीं कर लेते ????


सरला - पागल हुई हो क्या ????? सब टाइम पास है ???? जवान है हैंडसम है ठीक ठाक पैसा कमाता है,उसे कुआंरी लडकी नहीं मिलेगी क्या जो सैंतीस अडतीस साल की दो बच्चे की अम्मा से शादी करेगा...वैसे तुझे बता दूं..मैंने सुना है कि इसकी शादी कहीं फिक्स हो गई है..दो तीन महीने के अन्दर ही हो जायेगी...


रीमा - हाय !!! फिर मैडम का क्या होगा....

हा हा हा हा...


सरला - होगा क्या ?? कोई और मिल जायेगा..इतनी सुन्दर हैं, दिखने में चौबीस पच्चीस से ज्यादा की नही लगतीं ... ऐसी सुन्दर बेवाओं के पीछे घूमने वालों की कोई कमी थोड़े न होती है...


रीमा - सही कहा रे...अच्छा अपने मियां को बचा कर रखना ..कहीं वो भी न ट्यूशन पढ़ाने निकल पड़ें...हा हा हा हा...


सरला - अरे यार..ये टेंशन तो कभी पीछा नहीं छोडती..इसलिए तो न खुद उधर झांकती हूँ ,न इन्हें झाँकने देती हूँ..


रीमा - सही कहा रे...गजब टेंशन है ये भी..मरद जात का कोई भरोसा नहीं..

अच्छा चल तुझसे बाद में बात करती हूँ..पार्लर वाली आ गई है.. फेसियल कराने के लिए उसे यहीं बुला लिया है..पार्लर की भीड़ मुझे नहीं जमती....

चल शाम में मिलते हैं...देखें बूढ़ी घोडी की लगाम कैसी है...

हा हा हा हा....

चल बाय !!!


रीमा - ओके... बाय !!! शाम में मिलते हैं..ठीक आठ बजे...

ओके...!!!

.............

14.12.10

मीठा माने ????

बच्चे से कुल औ गाँव के आँख के तारे रहे हैं हमरे पवन भैया.बड़े परतिभा शाली.दसवीं में बिहार बोर्ड में टॉप किये रहे और उनका बम्पर नंबर उनको सीधे सीधे इंजीनियरिंग कालेज के गेट्वा के अन्दर ले गया..गणित विज्ञान इतना तगड़ा रहा उनका कि उहाँ भी टॉप किये और उनका रिजल्ट पर न जाने कितने कम्पनी वाले लहालोट हुए. अंततः एक बड़का नामी कम्पनी उनको लूट अपने इहाँ ले जाने में सफल हुआ.उर्जा से ओत प्रोत भैया को शायद ही कभी किसीने थकते या परिश्रम से उबते देखा बरसों बरसों में.घर घर में गार्जियन लोग अपने बच्चों को उनके नाम पर कनैठी दिया करते थे..

एक दिन संझा काल में उनसे मिलने गए तो देखते का हैं कि भाई जी दफ्तर से आकर निढाल भुइयें पर पसर गए हैं.हमको बड़ा अजीब लगा, लाड़ से हम पूछे ,का बात है भाई जी, तबियत उबियत ठीक तो है न ?? का हुआ,चेहरवा ऐसे कुम्हलाया काहे है ?? लाइए, हम गोड़ दबा देते हैं,पांच मिनट में एकदम चकाचक फ्रेस हो जाइएगा..त भैया थके थके सुर में बोले,अरे नहीं रे छुटकी ,रहने दे, गोड़ नहीं मुडी दुखा रहा है..हम कहे, काहे...मुडिया में का हो गया ???? त भैया कहे, भारी कसरत कर के आ रहे हैं रे ...हम कहे....कसरत...दफ्तर में ??? और कसरत किये भी त, उमे मूडी कैसे दुखा गया ??? त बताये कि छः घंटा भाषण दे के आय रहे हैं..दिक्कत भाषण में त नहीं था, पर तिहरा ट्रांसलेशन कर कर के मथवा पिरा गया है..

बात त सहिये है..अब भाय, हम सबको सदा से आदत है अपना बात अपना मातृभाषा में ही सोचने का, त पाहिले त मातृभाषा में सब बात /सोच को सजाओ ,फिर उको ट्रांसलेट करो राष्ट्र भाषा हिन्दी में और फिर सबको अंगरेजी में रूपांतरित करते हुए जिभिया घुमाय घुमाय के , शब्दन को चबाय चबाय के सबके सामने परोसो और ऊ भी किनके सामने, जो ज्ञान लेने को नहीं बल्कि भरब एडभरब और टेंस का गलती पकड़ने को हाथ मुंह खोलकर सामने बैठे हुए हों.. सबसे ज्यादा कोफ़्त तो ई सोचकर होता है कि स्रोता समाज में एको आदमी ऐसा नहीं जो हिन्दी नहीं जानता समझता है,लेकिन विडंबना देखिये कि अपने ही लोगों के सामने ज्ञान बघारने और भारी बने रहने के लिए हमको अंगरेजी चुभलाना पड़ता है..मन भारी नहीं होगा ई परिस्थिति में त और का होगा..

बड़ा दिक्कत है भाई, हमरे ज़माने में बाकी विषय तो छोडिये अन्ग्रेजियो हिंदिये में पढाया जाता था. तीसरा चौथा किलास में जाके गुरूजी शुरू होते थे...बोलो बच्चों - ए से एप्पल, एप्पल माने सेब !!! बी से बैट, बैट माने बल्ला !!! सी से कैट,कैट माने बिल्ली....!!! लय ताल में इसे गवा दिया जाता था और हम भी रस लेके इसे घोंट जाते थे..ई लयकारी दिमाग का भित्ती पर ऐसे जाकर चुभुक के चिपट जाता था कि फिर मरते घड़ी तक दिमाग से ए से एप्पल और बी से बैट नहीं निकलता था.एही लयकारी का बदौलत दू एकम दू और दू दूनी चार का पहाडा कम स कम पच्चीस तक आज भी ऐसे दिमाग में संरक्षित है कि एक बार ऊ लय में पहाडा पटरी पर डाले नहीं कि सब ध्यान के सामने नाच उठता है..

खैर,समय बदल गया है.अब लयकारी वाले रटंत विद्या का जमाना नहीं रहा.पहाडा पढके हिसाब करने का श्रम और समय कौन लगाये.यन्त्र उपलब्ध है,बटन दबाओ और दन से बड़का बड़का नंबर का हिसाब राफ साफ़.. लाख ज्ञान होते हुए भी हमरे ज़माने के लोगों को जो आज भी कसरत करनी पड़ती है समय के साथ कदम ताल कर टाई वाला बनाने में. जीभ निकाल कर जिन्दगी के ई फास्ट चूहे दौड़ में हाँफते पिछुआये भागते चले जा रहे हैं,पर रास्ता पार नहीं पड़ रहा.पर अब बहुत हुआ, हमारे अगले जेनरेशन को ई सबसे निजात मिलना ही चाहिए. भला हो सरकार का जो हमलोगों की समस्या को भली परकार समझी है,इसीलिए तो अंगरेजी अब ओप्सनल विषय नहीं मुख्य विषय बना दिया गया है इस्कूली शिक्षा में..खाली एक विषय क्या ,बल्कि अब तो सारे ही विषय अंगरेजी में ही पढने पढ़ाने की सुगम व्यवस्था है अपने देश में.पांच हजार मासिक कमाने वाला अभिभावक भी आज अपने बच्चों को अंगरेजी माध्यम इस्कूल में ही पढ़ाता है.

देश के ई छोर से ऊ छोर तक गली गली चप्पे चप्पे पर सरकारी, गैर सरकारी ,सहकारी,बेकारी (बेरोजगार युवकों द्वारा चलाई जाने वाली) अंगरेजी इस्कूलों का जाल बिछ गया है और जोर शोर से पूरा परबंध कर दिया गया है कि देश में एक भी बच्चा ऐसा न बचे जिसे इस तिहरे ट्रांसलेशन के बोझ तले दबे कुचले रहना पड़े. गैर सरकारी बड़का इस्कूल सब में तो अंगरेजी ज्ञान के प्रति इतनी सजगता है कि एक तरह से अंगरेजी का रोड रोलर ही चला दिया जाता है बच्चों पर. इस्कूल प्रांगन में रहते कोई बच्चा अगर अपने संगी साथी या शिक्षक से अपनी मातृभाषा या हिन्दी में बतिया ले तो इससे कठोर दंडनीय अपराध और दूसरा कुछ भी नहीं होता..

जरूरी है भाई,एतना सख्त नियम न रहे तो बच्चा सीखेगा कैसे. खुद गम खाए माँ बाप भी आज जबरदस्त सजग हो गए हैं.बच्चा शब्द बोलने भर हुआ कि नहीं उसको नाक आँख कान नहीं नोज आईज और इयर ही सिखाते हैं. और जो वाक्य बोलने भर हुआ तो बा बा बलैक शीप आ ट्विंकल ट्विंकल लिटिल इस्टार तुतलाते आवाज पर रोप देते हैं. इका माने का हुआ,अब यह नहीं बताया जाता. अंगरेजी का हिन्दी माने बताना अब बड़ा ही हेय दृष्टि से देखा जाता है.माना जाता है कि बच्चा बोलते बोलते और सुनते सुनते सब समझने लगेगा.बित्तन बित्तन भर के बच्चों को टीचर अंग्रेजी में हांक देते हैं और बच्चे भंगिमा देखकर अंदाजा लगा लेते हैं कि उन्हें क्या बोला जा रहा होगा. सहिये है , जबतक सोच के स्तर तक अंगरेजी न बिछे आदमी को इस ट्रांसलेशन रोग से निजात कैसे मिलेगा..भाई, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर झंडे गाड़ना है,हिन्दुस्तान को बुलंदी पर पहुँचाना है तो उसके लिए बहुत जरूरी है कि मातृभाषा और राष्ट्रभाषा के मोह से आदमी किनारा करे और खाए पिए सोचे समझे सब खालिस अंगरेजी में...

लेकिन ई पुनीत अभियान में फिल्म विज्ञापन तथा दृश्य संचार माध्यम तंत्र बड़ा रोड़ा अटका रहा है.. अब बताइए कि एक तरफ तो आदमी परेशान है देसी भदेसी भाषा से पीछा छुडाने में और बाजार को इसी सब भाषा पर भरोसा है. उसको लगता है कि एही भाषा का घाघरा पहिन उसका प्रोडक्ट घर घर में घुस पायेगा. कहीं बीडी जलाइले गाना सिनेमा में ठूंसकर सिनेमा हिट कराने का लोग जुगत भिड़ाते हैं तो कहीं चुलबुल पाण्डेय के बिहारी इस्टाइल दिखाकर लोगों को लुभाते हैं. हम पहुँच गए बिना 'माने' कहे ए फॉर एप्पल और बी फॉर बाल पर...और अमिताभ बच्चन साहब कह रहे हैं- मीठा माने ??? अरे समझे सर,मीठा माने केड्बरीज चाकलेट ..पर सर ऐसे माने माने कहके सिस्टम न बिगाडिये.केतना मोसकिल से तो ई माने से पीछा छूटा है.

असल में आपलोग डेराते बहुत हैं.आपको लगता है देसी भदेसी भासा का पंख पर अपना प्रोडक्ट बैठा दीजियेगा तो यह सफल उड़ान उड़ लेगा.लेकिन ऐसा नहीं है आप चाहे देसी हिन्दी में परचारिये या अंगरेजी में, अंगरेजी खान पान रहन सहन को अपनाने घर से निकल चुकी जनता को केवल ई जानकारी भर मिल जाए कि ई है अंगरेजी इस्टाइल ,बस जनता उसे सर माथे लगा अपने दिल में जगह दे देगी.
का कहे विस्वास नहीं हो रहा....
अरे !!!
देख नहीं रहे ,आज की हमारी पीढी भात दाल को नहीं पिज्जा बर्गर और मैगी को ही खाद्य पदार्थ समझती है. आइसक्रीम और चाकलेट स्वतः ही उसके द्वारा मिष्टान्न रूप में स्वीकार्य हो चुकी है.रोजाना एक गिलास बियर पीना उसे स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक लगने लगा है. हाय सेक्सी...!!! आज हमारी बालाओं को गाली नहीं काम्प्लीमेंट लगती है.किशोर वय यदि बिना ब्वाय गर्ल फ्रेंड और डेटिंग के निकल जाय तो इन्हें जीवन और जवानी धिक्कारने लायक लगती है.पैर छूकर परनाम नहीं किया जाता आज, जानना मर्दाना एक दुसरे से मिलते हैं तो गाल से गाल सटाकर हवा में चुम्बन फायर किया जाता है...इतना सब तो हो गया है और क्या चाहिए. अरे अंगरेजी रंग में जितना आज हम भारतीय रंगे हैं, उतना तो किसी पश्चिमी देश का मजाल नहीं कि रंग जाय..तो फिर और माने काहे को समझा रहे हैं. निश्चिन्त रहिये ...आप अन्ग्रेजिये में सब परचारिये न...बिक्री बट्टा होगा ही होगा..बल्कि हम तो कह रहे हैं कि अभी जेतना हो रहा है उससे बहुत जेयादा होगा.काहेकि अंगरेजी भाषा और प्रोडक्ट भारतीय को बिना कोई प्रमाण के ही अपार विश्वसनीय लगता है..

..................

19.11.10

अंधेर नगरी ....

कॉलेज में एक हमारे प्रोफ़ेसर थे.भारी विद्वान् .अपनी विद्वता के बल पर कई सारे गोल्ड मेडल जुटाए थे उन्होंने. उनके नाम के साथ सदा फलां फलां विषय में " एम् ए, पी एच डी, गोल्ड मेडलिस्ट " लिखा रहता था. हमने कभी पढ़ा तो नहीं पर सुन रखा था कि उन्होंने कई सारी किताबें लिख डाली हैं.. पर जब वे विद्वान् प्रोफ़ेसर साहब हमे पढ़ाने आते तो क्लास में बैठे उनकी ओर दीदे फाड़े हमें अपनी आँखों से नींद भागने के लिए ठीक उतनी ही मसक्कत करनी पड़ती थी, जितनी अमेरिका को बिन लादेन को ढूँढने में करनी पड़ रही है...हम भगवान् से एकदम कलपकर मनाते कि कभी उन्घाये दुपहरिया में उन महामहिम का क्लास न पड़े..हर क्लास के ख़तम होने पर हम जी भरकर उस अनजाने व्यक्ति को गरियाते, जिसने इन्हें गोल्ड मेडल पकडाया और जिसने प्रोफ़ेसर बनाया. अगर अटेंडेंस पूरा करने की बाध्यता न होती तो शायद ही कोई विद्यार्थी उनकी क्लास अटेंड करता.प्रोफ़ेसर साहब विद्वान् चाहे जितने रहे हों पर पढ़ाने की कला का 'क' भी उन्हें नहीं पता था. खुद विद्वान् होना और दूसरे को विद्वान् बना देने की कला में बड़ा भारी अंतर होता है.

आज जब अपने प्रधान मंत्री जी की स्थिति देखती हूँ तो बरबस मुझे वही प्रोफ़ेसर साहब याद आ जाते हैं.हमारे प्रोफ़ेसर साहब भी बड़े ही भले मानुस थे और पहुंचे हुए विद्वान् भी,पर अध्यापन के जिस कर्म में वे संलग्न थे,एक तरह से विद्यार्थियों का भविष्य ही न चौपट कर रहे थे. अपने वृहत ज्ञान को विद्यार्थीयों के मन में उतनी ही कुशलता पूर्वक यदि वे उतार पाते ,तभी तो उनके ज्ञान की सार्थकता होती. भला नहीं होता कि वे बैठकर किताबें ही लिखते और विद्यार्थियों को एक ऐसा शिक्षक मिलता जो उनकी समझ के हिसाब से उन्हें विषय समझाकर विद्वान् बना पाता..

लोकतंत्र का ऐसा विद्वान् मालिक/नायक /कर्णधार किस काम का, जिसे अपने लोक का ही पता न हो..मन अत्यंत खिन्न और क्षुब्ध हो जाता है इनकी प्रशासन क्षमता देखकर.आखिर ऐसी भी क्या विवशता है, कि न तो ये देश के भीतर देश को तोड़ रहे तत्वों से निपट पा रहे हैं और न ही बाहरी विध्वंसक शक्तियों को प्रभावी ढंग से हडका पा रहे हैं..इनके एन नाक के नीचे भ्रष्टाचार  पराकाष्ठा को प्राप्त कर चुका है, कैसे विश्वास करें कि इन सबमे इनकी संलिप्तता सह्भागिका या सहमति नहीं है ?? कैसे मान लें, तमाम भ्रष्ट और बेईमानो के बीच ये दूध के धुले पाक साफ़ हैं ? माना कि ये बस रबर स्टाम्प ही हैं और दिखावे भर के लिए ही कुर्सी इन्हें मिली है, लेकिन क्या उस कुर्सी में कोई शक्ति नहीं ?? यह कुर्सी क्या महज किसी मैडम के ड्राइंग रूम की कुर्सी भर है,जिसपर मालिकाना हक ये नहीं जता सकते ?? अरे कुछ नहीं तो ये स्वामिभक्त इतना तो स्मरण रख सकते हैं न, कि इस कुर्सी में देश की सौ करोड़ जनता की शक्ति है और कागज पर इन्हें जो अपरिमित अधिकार मिले हैं,वह कागज यूँ ही हल्की फुल्की हवा में उड़ जाने वाला कागज नहीं बल्कि उसपर सौ करोड़ जनता के हस्ताक्षर ने उसे इतना कीमती और वजनदार बना दिया है कि यूँ ही फूंक मार कोई उसे उड़ा नहीं सकता.. जो सत्य न्याय के पथ पर दृढ़ता से चलेंगे, देश के हर छोटे बड़े हित के लिए कठोर निर्णय लेंगे, तो भले इनका सारा कुनबा इनके विरुद्ध खड़ा हो जाए,जनता इनके पक्ष में ही रहेगी..और चाहे सब कुछ छोड़ दिया जाए,तो व्यक्तिगत तौर पर इतना मान इस कुर्सी का तो रख ही लेना चाहिए न कि आज इसी के बदौलत इनका यह खान पान और मान है.माना कि सरलमना स्वभाव से ही स्वामिभक्त हैं, तो कुछ वफादारी/जवाबदेही  इनका कुर्सी/देश की जनता के प्रति भी बनता है या नहीं ??

यह भारत का दुर्भाग्य ही है कि आज इसके पास कांग्रेस का एक भी मजबूत और साफ़ सुथरा दृढ नैतिकता वाला विकल्प मौजूद नहीं है,नहीं तो कितना समय लगता इनकी जड़ उखड जाने में... एक समय इनके इन्ही रवैयों से मजबूर होकर जनता ने वर्षों के लिए सत्ता इनके लिए सपना बना दिया था.इन्हें क्यों नहीं लगता कि इनके लुभावने विज्ञापन जनता की आँखों को अधिक समय तक चुन्धियाये नहीं रख सकते.इनका विकल्प कोई हो या न हो पर मंहगाई भ्रष्टाचार का जो नंगा नाच अपनी खुली आँखों से जनता रोज देख रही है और पिस रही है,इतनी सरलता से इसे बिसरा मटिया देगी ?? और जो अगली बार फिर से खंडित जनादेश हुआ तो ये और कमजोर ही होंगे न...

आश्चर्य लगता है, घोटालों के जिस सच्चाई को सारा देश जान चुका होता है,जब जमकर उसपर हंगामा होता है,तो शीर्ष  सत्ता आहिस्ते से हिलते डुलते हुए मिमियाती सी आवाज़ में कहने के लिए उठती है कि "इसे बर्दाश्त नहीं किया जायेगा,जांच कराई जायेगी " और हल्ला अधिक बढा तो मांग लिया इस्तीफा और बिठा दिया सी बी आई जांच..हंसी आती है,कौन नहीं जानता सी बी आई की सच्चाई,कि यह किसके अधीन है.सी बी आई या एक्स वाय जेड आयोग जो दशकों दशकों में चार्ज फ़ाइल करेगी और दोषी तो तबतक दुनिया से भी आराम से खा पीकर उठ चुका होगा, ऐसी तो है अपने यहाँ दंड व्यवस्था. नाग नाथ को कुछ समय के लिए पुचकारकर पद से हटाया और सांपनाथ को बैठा दिया कुर्सी पर...हो गया न्याय !!! क्यों भला कोई डरेगा घोटाला करने से ?? ऐसी सुविधाजनक स्थिति तो इमानदार को भी बेईमान बना दे,फिर पहले से ही भ्रष्ट बेईमान की तो बात ही क्या..

क्या इतना भोला अंजान और लाचार है शीर्ष नेतृत्व ,कि इतने इतने पैसे निकल गए और इन्हें पता ही नहीं चला.कुछेक पदाधिकारी,इने गिने मंत्री ,बस इतनों की ही संलिप्तता है इन हजारों लाखों करोड़ों करोड़ के घोटालों में..बाकी सारे के सारे निरीह और भोले ?? हजारों करोड़ का घोटाला हो गया और धराये मधु कोड़ा..क्या अकेले मधु कोड़ा,ए राजा, रामालिंगम राजू,सुरेश कलमाडी आदि आदि ने ही गटक लिया सारा पैसा ?? इस पूरे क्रम में ये और इनके नीचे वालों की ही संलिप्तता थी ?? क्या हम विश्वास कर लें कि इन इकलौते जांबाजों का ही हाजमा इतना दुरुस्त है ??

मधु कोड़ा एक निर्दलीय, झारखण्ड के मुख्यमंत्री क्यों बनाये गए ?? क्योंकि उस पूरे समूह में वही एक सबसे फिट कैंडिडेट थे,जिसके मुंह में जुबान,मन में हिम्मत और माथा में तिड़कमी दिमाग नहीं था.यही आदमी रबर स्टाम्प की तरह काम कर सकता था,जिसे जब चाहा जुतिया दिया ,जब चाहा चुमिया दिया और जो चाहा करवा लिया.लालू जी को क्या राजद में कोई योग्य व्यक्ति नहीं मिला था जब वे जेल नशीन हुए थे ?? या कि राजद के सभी योग्य नेताओं को रबरी देवी ही सबसे कुशल,सबसे योग्य प्रशासक लगी थीं ?? कोड़ा से मनमोहन तक,इन अनेक उदाहरणो  का क्यों कैसे का हिसाब आम जनता के लिए इतना भी अबूझ नहीं रह गया है अब...

बस यही लगता है, क्या कभी भारत की वह जनता जो अपने बच्चों को भरपेट रोटी भले न खिला पाए,तन न ढांक पाए,इलाज न करा पाए और अच्छी शिक्षा तो यूँ भी बड़ी मंहगी है,सो सवाल ही नहीं उठता... नमक खरीदने पर दिए टैक्स से लेकर प्रत्यक्ष परोक्ष कदम कदम पर टैक्स भरती है,कभी जान पायेगी कि उसके पैसों का क्या क्या हो रहा है या इसे अनैतिक ढंग से किस किस ने और कितना कितना खाया ?? यह जनता क्या यह आस संजो सकती है कि जो इने गिने मंत्री संतरी जगजाहिर हो पकडाए भी, उनसे वह अपार धन वसूला जाएगा और वह धन सरकारी खजाने में जमा कर जनता को टैक्स और मंहगाई से राहत मिल जायेगी ?? क्या आम जनता यह अपेक्षा कर सकती है कि कभी भी किसी सरकारी महकमे में छोटे से छोटे काम से लेकर बड़े काम तक करवाने में उसे रिश्वत नहीं देनी पड़ेगी ?? क्या आम जनता मन में यह विश्वास रख सकती है कि लोकतंत्र के तथाकथित रक्षक की आत्मा जग जायेगी और वह सचमुच ही उसके आर्थिक सामाजिक धार्मिक सांस्कृतिक हितों की निरपेक्ष भाव से रक्षा करेगी ??

........

1.11.10

तरु और लता...

कहीं किसी एक कानन में, था सघन वृक्ष एक पला बढ़ा,

था उन्नत उसका अंग अंग, गर्वोन्नत भू पर अडिग अड़ा.


वहीँ पार्श्व में पनपी थी, कोमल तन सुन्दर एक लता.
नित निरख निरख तरु की दृढ़ता, हर्षित उसका चित था डोला.

तरुनाई कोमलता उसकी , तरुवर के मन को भी भायी,
निज शाख झुकाकर उसने भी, कोंपल की उंगली थाम ही ली.


प्रिय ने जो अंगीकार किया, तन मन अपना वह वार चली,
हर शाख शाख पत्ते पत्ते, लिपटी लिपटी वह खूब खिली.


था प्रेम प्रगाढ़ ही दोनों में,पर तरु का मन था अहम् भरा,
आश्रयदाता अवलम्बन वह ,यह भी मन में था बसा रहा.


लघु तुच्छ सदा उसे ठहरा कर, तरु तुष्टि बड़ा ही पाता था,
निज लाचारी को देख ,लता का ह्रिदय क्षुब्ध हो जाता था.


था आत्मविश्वास न रंचमात्र, जो प्रतिकार वह कर पाती,
अपमान गरल नित पी पीकर, भाग्य मान सब सह जाती.


आशंका से मन था कम्पित, कहीं तरु निज हाथ छुड़ा न ले,
कैसे उस बिन जी पायेगी, कहाँ जायेगी इस तन को ले.


तरु ने यदि त्याग दिया उसको,फिर कहाँ ठौर वह पायेगी,
जो भूमि पड़ी उसकी काया, नित पद से  कुचली जायेगी.


था पड़ा सुप्त उसका चेतन, उसको न किंचित भान रहा,
योगक्षेम वाहक जग का, अखिलेश्वर केवल एक हुआ.


जीवन दाता सब जीवों का, सुखकर्ता सबका दुःख हरता,
उसकी कृति ही हर एक प्राणी,नहीं कोई हीन न कोई बड़ा.


सत का सूरज उर में प्रकटा , निर्भय विभोर निश्चिन्त हुई,
मृदुस्वर से प्रिय को समझाकर, उस से हित की ये बात कही.


है सत्य मेरे आधार तुम्ही, तेरे प्रश्रय से विस्तार मेरा,
तुम सदा रहे रक्षक मेरे, तुमसे सुरभित संसार मेरा.


पर तुच्छ नहीं मैं भी इतनी, है व्यर्थ नहीं मेरा होना,
जिस सर्जक की तुम रचना हो,वह ही तो मेरा हेतु बना.


माना कि तुम सम बली नहीं,तुम सा मेरा सामर्थ्य नहीं,
पर कर्तब्य परायण मैं भी हूँ, कभी छोड़ा तेरा संग नहीं.


तुम मुझे सम्हाले रहते हो, तो मैं भी तो रक्षक तेरी,
हो धूप कि आंधी या वर्षा,तुझसे पहले मैं सह लेती .


विपदा जो तेरी ओर बढे ,मैं सदा ढाल बन अडती हूँ ,
मेरे होते कोई वार करे, यह कभी न मैं सह सकती हूँ.


चाहा तेरा है साथ सदा, चाहे जिस ओर गति तेरी,
यूँ ही जीवन भर संग रहूँ , नहीं दूजी कोई साध मेरी.


फिर क्या तुलना क्या रंज भेद, क्यों मन में कोई घाव भरें,
आ स्नेह से हिल मिल संग रहें,क्यों सुखमय जीवन नष्ट करें.


था सार छुपा इसमें सुख का, तरुवर के मन को भी भाया,
जो अहम् बना दुःख का कारण, तरुवर ने उसको त्याग दिया.


...........

22.10.10

अँधा प्रेम !!!

प्रेम,एक ऐसी दिव्य अनुभूति, जिससे सुन्दर,जिससे अलौकिक संसार में और कोई अनुभूति नहीं.जब यह ह्रदय में उमड़े तो फिर सम्पूर्ण सृष्टि रसमय सारयुक्त लगने लगती है.ह्रदय विस्तृत हो ब्रह्माण्ड में और ब्रह्माण्ड ह्रदय में समाहित हो जाता है. मन और कल्पनाएँ अगरु के सुवास से सुवासित और उस जैसी ही हल्की हो व्योम में धवल मेघों के परों पर सवार हो चहुँ ओर विचरने लगता है. मन तन से और तन मन से बेखबर हो जाता है. यह बेसुधी ही आनंद का आगार बन जाती है.पवन मादक सुगंध से मदमाने लगता है और मौन में संगीत भर जाता है. जीवन सार्थकता पाया लगता है..

मनुष्य ही क्या संसार में जीवित ऐसा कोई प्राणी नहीं, जो प्रेम की भाषा न समझता हो और इस दिव्य अनुभूति का अभिलाषी न हो . आज तक न जाने कितने पन्ने इस विषय पर रंगे गए परन्तु इसका आकर्षण ऐसा, इसमें रस ऐसा, कि न तो आज तक कोई इसे शब्दों में पूर्ण रूपेण बाँध पाया है और न असंख्यों बार विवेचित होने पर भी यह विषय पुराना पड़ा है.आज ही क्या, सृष्टि के आरम्भ से इसके अंतिम क्षण तक यह भाव,यह विषय, अपना शौष्ठव,अपना आकर्षण नहीं खोएगा, क्योंकि कहीं न कहीं यही तो इस श्रृष्टि का आधार है..

माना जाता है प्रेम सीमाएं नहीं मानता. यह तो अनंत आकाश सा असीम होता है और जो यह मन को अपने रंग में रंग जाए तो ह्रदय को नभ सा ही विस्तार दे जाता है.प्रेम का सर्वोच्च रूप ईश्वर और ईश्वर का दृश्य रूप प्रेम है..और ईश्वर क्या है ?? करुणा,प्रेम, परोपकार इत्यादि समस्त सद्गुणों का संघीभूत रूप. तो तात्पर्य हुआ जो हृहय प्रेम से परिपूर्ण होगा वहां क्रोध , लोभ , इर्ष्या, असहिष्णुता, हिंसा इत्यादि भावों के लिए कोई स्थान नहीं बचेगा. प्रेमी के ह्रदय में केवल ईश्वर स्वरुप सत का वास होगा और जहाँ सत हो, असत के लिए कोई स्थान ही कहाँ बचता है..

पर वास्तविकता के धरातल पर देखें, ऐसा सदैव होता है क्या ?? प्रेम पूर्णतया दैवीय गुण है,परन्तु इसके रहते भी व्यक्ति अपने उसी प्रेमाधार के प्रति शंकालु , ईर्ष्यालु , प्रतिस्पर्धी, स्वार्थी, कपटी,क्रोधी,अधीर होता ही है. तो क्या कहें ?? प्रेम का स्वरुप क्या माने ?? हम दिनानुदिन तो देखते हैं, प्रेम यदि ह्रदय को नभ सा विस्तार देता है तो छुद्रतम रूप से संकुचित भी कर देता है और कभी तो दुर्दांत अपराध तक करवा देता है. फिर क्या निश्चित करें ? क्या यह मानें कि प्रेम व्यक्ति की एक ऐसी मानसिक आवश्यकता है,जो अपने आधार से केवल सुख लेने में ही विश्वास रखता है, प्रेम के प्रतिदान का ही आकांक्षी होता है? प्रेमी उसकी प्रशंशा करे, उसपर तन मन धन न्योछावर कर दे, उसके अहम् और रुचियों को सर्वोपरि रखे, उसे अपना स्वत्व समर्पित कर दे,तब प्रेमी को लगे कि उसने सच्चे रूप से प्रेम पाया...क्या यह प्रेम है?

क्या इस भाव को जिसे अलंकृत और महिमामंडित कर इतना आकर्षक बना दिया गया है, वैयक्तिक स्वार्थ का पर्यायवाची नहीं ठहराया जा सकता ? एक प्रेमी चाहता क्या है? अपने प्रेमाधार का सम्पूर्ण समर्पण ,उसकी एकनिष्ठता,उसका पूरा ध्यान ,उसपर एकाधिकार, उसपर वर्चस्व या स्वामित्व, कुल मिलाकर उसका सर्वस्व. एक सतत सजग व्यापारी बन जाता है प्रेमी,जो व्यक्तिगत लाभ का लोभ कभी नहीं त्याग पाता. लेन देन के हिसाब में एक प्रेमी सा कुशल और कृपण तो एक बनिक भी नहीं हो पाता.हार और हानि कभी नहीं सह सकता और जहाँ यह स्थिति पहुंची नहीं कि तलवारें म्यान से बाहर निकल आतीं हैं..

प्रेम पाश में आबद्ध प्रेमी युगल प्रेम के प्रथम चरण में परस्पर एक दूसरे में सब कुछ आलौकिक देखता है.जो वास्तव में सामने वाले में रंचमात्र भी नहीं,वह भी परिकल्पित कर लेता है. सामने वाले में उसे रहस्य और सद्गुणों का अक्षय भण्डार दीखता है..युगल परस्पर एक दूसरे के गहन मन का एक एक कोना देख लेने,जान लेने और उसे आत्मसात कर लेने की सुखद यात्रा पर निकल पड़ते हैं. आरंभिक अवस्था में युगल एक दूसरे के लिए अत्यधिक उदार रहते हैं, प्रतिदान की प्रतिस्पर्धा लगी रहती है,जिसमे दोनों अपनी विजय पताका उन्नत रखना चाहते हैं, पर जैसे जैसे ह्रदय कोष्ठक की यह यात्रा संपन्न होती जाती है,कल्पनाओं का मुल्लम्मा उतरने लगता है,यथार्थ उतना सुन्दर ,उतना आकर्षक नहीं लगता फिर. रहस्य जैसे जैसे संक्षिप्तता पाता है,कल्पना के नील गगन में विचारने वाला मन यथार्थ के ठोस धरातल पर उतरने को बाध्य हो जाता है,जहाँ कंकड़ पत्थर कील कांटे सब हैं..इसे सहजता से स्वीकार करने को मन प्रस्तुत नहीं होता और तब आरम्भ होता है हिसाब किताब,कृपणता का दौर.

जो युगल एक दूसरे के लिए प्राण न्योछावर करने को आठों याम प्रस्तुत रहते थे, अपने इस प्रेम को जीवन की सबसे बड़ी भूल मानने लगते हैं,इस परिताप की आंच में जलते प्रेमी क्षोभ मिटाने को सामने वाले को अतिनिष्ठुर होकर दंडित करने लगते हैं और एक समय के बाद इस प्रेम पाश से मुक्ति को छटपटाने लगते हैं या फिर एक बार फिर से एक सच्चे प्रेम की खोज में निकल पड़ते हैं. कहाँ है प्रेम,किसे कहें प्रेम ?? इस युगल ने भी तो बादलों की सैर की थी तथा प्रेम के समस्त लक्ष्ण जिए थे और मान लिया था कि उनका यह प्रेम आलौकिक है.

अब एक और पक्ष -

प्रेम स्वतःस्फूर्त घटना है,जो किसे कब कहाँ किससे और कैसे हो जायेगा ,कोई नहीं कह सकता..इसपर किसी का जोर नहीं चलता और न ही यह कोई नियम बंधन मानता है.

अस्तु,

पचहत्तर हजार आबादी वाला एक गाँव, जिसमे पांच महीने में चौदह वर्ष से लेकर पचपन वर्ष तक के छः प्रेमी जोड़े अपना स्वप्निल संसार बसाने समाज के समस्त नियमों के जंजीर खंडित करते घर से भाग गए.यह आंकडा उक्त गाँव के स्थानीय पुलिस थाने में दर्ज हुए जिसे लोगों ने जाना. ऐसे कितने प्रकरण और हुए जिसे परिवार वालों ने लोक लाज के बहाने दबाने छिपाने का प्रयास किया,कहा नहीं जा सकता. इन छः जोड़ों में से तीन जोड़ा था ममेरे चचेरे भाई बहनों का,एक जोड़ा मामा भगिनी का, एक जोड़ा गुरु शिष्या का और एक जोड़ा जीजा साली का. निश्चित रूप से उसी अलौकिक प्रेम ने ही इन्हें कुछ भी सोचने समझने योग्य नहीं छोड़ा.यह केवल स्थान विशेष की घटना नहीं,विकट प्रेम की यह आंधी सब ओर बही हुई है जो अपने वेग से समस्त नैतिक मूल्यों को ध्वस्त करने को प्रतिबद्ध है...

तो फिर प्रेम तो प्रेम होता है,इसमें सही गलत कुछ नहीं होता,मान कर इन घटनाओं को सामाजिक स्वीकृति/मान्यता मिल जानी चाहिए क्या ?? यह यदि आज गंभीरता पूर्वक न विचारा गया तो संभवतः मनुष्य और पशु समाज में भेद करना कठिन हो जायेगा. शहरों महानगरों में गाँवों की तरह सख्त बंदिश नहीं होती और वहां परिवार तथा आस पड़ोस में ही प्रेम के आधार ढूंढ लेने की बाध्यता भी नहीं होती ,इसलिए वहां चचेरे ममेरे भाई बहनों में ही यह आधार नहीं तलाशा जाता..पर एक बार अपने आस पास दृष्टिपात किया जाय..आज जो कुछ यहाँ भी हो रहा है,सहज ही स्वीकार लेना चाहिए??

परंपरा आज की ही नहीं ,बहुत पुरातन है, पर आज बहुचर्चित है..यह है "आनर किलिंग". इसके समर्थक और विरोधी दोनों ही अपना अपना पक्ष लेकर मैदान में जोर शोर से कूद पड़े हैं.पर "आनर किलिंग" के नाम पर न तो डेंगू मच्छरों की तरह पकड़ पकड़ कर प्रेमियों का सफाया करने से समस्या का समाधान मिलेगा और न ही प्रेम को इस प्रकार अँधा मान कर बैठने से सामाजिक मूल्यों के विघटन को रोका जा सकेगा . आज आवश्यकता है व्यक्तिमात्र द्वारा व्यक्तिगत नैतिकता,सामाजिक मूल्यों की सीमा रेखाओं को सुदृढ़ करने की और प्रेम के सच्चे स्वरुप को पहचानने और समझने की.

समग्र रूप में जो प्रेम व्यक्ति के ह्रदय को नभ सा विस्तृत न बनाये,फलदायी सघन उस वृक्ष सा न बनाये जो अपने आस पास सबको फल और शीतल छांह देती है,जो व्यक्ति को सात्विक और उदार न बनाये,उसका नैतिक उत्थान न करे , वह प्रेम नहीं, प्रेम का भ्रम भर है. प्रेम अँधा नहीं होता,बल्कि उसकी तो हज़ार आँखें होती हैं जिनसे वह असंख्य हृदयों का दुःख देख सकता है और उनके सुख के उद्योग में अपना जीवन समर्पित कर सकता है..

------------