27.6.08

प्राणाधार बिना.........

तुमने तो स्वयं को समेट लिया,
मैं तुम बिन धूल बनी बिखरी.
आंधी आई तो संग उडी,
जो जल बरसा तो बह निकली.
रिश्तों ने भी मुंह मोड़ लिया,
हर अपना कुछ और तोड़ गया.
ज्यों ही तुमने ऊँगली छोडी ,
हो विदा जहाँ से विमुख हुए,
क्या जानो मुझपर क्या गुजरी,
कैसे जीवन मे तमस घिरी.
साँसें अब हैं ठहरी ठहरी,
धड़कन गुमसुम सहमी सहमी.
सपने भी तो हैं स्याह हुए,
आशा की लड़ियाँ हैं बिखरी.
नयनो मे कांटे उग आए,
यह ह्रदय हुआ छलनी छलनी.
नींदें पलकों को छोड़ गई,
अधरों पर मौन जमी ठहरी.
कुछ भान नही रहता मुझको,
कब किरण खिली कब रात ढली.
जाने क्यों हूँ अब भी जीती ,
जाने अब क्या है आस बची.
किंचित अंतस मे तेरा बसना,
स्मृति मे हर पल का रमना.
मेरा है जीवन श्रोत वही,
मेरे होने का कारण भी.
जबतक मुझमे तुम जीते हो,
बिन देह भी मैं निर्जीव नही.
अनुभूति तेरे होने भर का,
अस्तित्व मेरा संचालित करती.

23.6.08

परिताप

पूजा ही अभिशाप बन गई,
मन की भाषा पाप बन गई।

तुमको जीवन सौंप क्या दिया,
जीवन ही परिताप बन गई।

शक्ति के कर अस्त्र सुस्सज्जित
शक्तिहीन बलिदान चढ़ गई.

सुख से जीने की अभिलाषा,
मोती बन नयनो से ढल गई।

गुब्बारों से रिश्ते नाते,
गहरे उर में घाव कर गई.

जीवन की ढलती संझा अब
अमावस ही संगिनी रह गई।

थकी थकी ये बोझिल पलकें,
चिरनिद्रा की बाट निहोरे।

आकर कब ये अंग लगाये,
इतनी सी बस साध रह गई.

20.6.08

आप साहित्यकार किसे कहते हैं????????

बहुत स्थानों/ संचार माध्यमो में बड़े जोर की बहस छिडी हुई है ''ब्लागर बनाम साहित्यकार''.या ''क्या ब्लाग्स में जो इन दिनों लिखा जा रहा है वे यूँ ही फालतू की भडास है या इसमे कुछ स्तरीय भी है,.इन्हे साहित्य कहना साहित्य की तौहीनी है,वगैरह वगैरह...........विषय ने सोचने पर मजबूर कर दिया कि जरा सत्य तथ्य को एक बार अपनी नजरों से भी खंगाल कर देखा जाए. ब्लाग्स वर्त्तमान संचार क्रांति का वह अनुपन वरदान है,जहाँ हम अपनी बात सहज ही कईयों तक पहुँचा सकते हैं और दूसरों की राय जान सकते हैं.जहाँ एक ओर पठन पाठन से जुड़े लोगों के लिए यह टानिक बन उपयुक्त मानसिक तुष्टता उपलब्ध कराने का जरिया है वहीँ मनोरंजन का सुगम माध्यम भी. कुछ वर्षों पहले तक यह महज कल्पना करने वाली बात थी कि एक दिन ऐसा आएगा जब अपनी मातृभाषा का उपयोग इतनी सहजता से इस माध्यम के द्वारा हम कर पाएंगे.पर कहते हैं न कोई भी वरदान हो वह उसके उपयोगकर्ता के उपयोग पर ही अच्छा या बुरा प्रभाव देती है.शक्ति सामर्थ्य यदि सही हाथों में जाए तो वह वरदान बन जाती है नही तो वह किसी अभिशाप से कम नही.वही हाल हिन्दी ब्लागिंग का भी है.कुछ सचमुच ही केवल भडास केन्द्र हैं,कुछ मध्यम कोटि के अभिव्यक्ति का माध्यम जहाँ कुछ क्षण को ठहरा जा सकता है,और कुछ, जो कुछ भी रच रहे हैं वह किसी भी लिहाज से उच्चकोटि के साहित्य से किसी भी मामले में कमतर नही.हमने साहित्य की जो परिभाषा ,अवधारणा पढ़ी सुनी थी उसके अनुसार गद्य,पद्य,कथा उपन्यास,जीवनी चाहे किसी भी भी विधा का अनुसरण कर रचित वह रचना जो मन को सहज ही छू लेने वाली हो,बोधगम्य और ग्राह्य हो तथा किसी न किसी रूप में सकारात्मक रूप से जीवन को प्रभावित कर पाने का सामर्थ्य रखती हो साहित्य है.और यह जितना ही गहन और व्यापक रूप में प्रभावशाली होगा उतना ही दीर्घजीवी या कालजयी होगा.इस कसौटी पर कसकर यदि हम समकालीन हिन्दी ब्लोगिंग को देखेंगे तो परिणाम काफ़ी उत्साहजनक हैं.अब प्रतिक्रिया सांख्यिकी पर न जायें,अधिकाँश लोग हैं जो केवल पढने में अभिरुचि रखते हैं,टिप्पणियां देने में नही.इस से रचना या रचनाकार विशेष का महत्व कम नही हो जाता.और पाठक बेवकूफ भी नही होता उसे ठीक पता है कि रचना और रचनाकार का बौद्धिक/साहित्यिक स्तर क्या है.और उसी अनुसार अपना पाठ्य चयन कर लेता है.कुछ ब्लाग/विषय सनसनीखेज सामग्रियां परोस उबलते पानी के बुलबुले से क्षणिक प्रसिद्धि भले पा जायें पर इससे सम्मानजनक स्तर नही पा सकते. दीर्घजीवी नही हो सकते.एक समय था जब रचना प्रकाशन का माध्यम केवल प्रिंट मिडिया ही हुआ करता था,जिसे साहित्य कहा जाता था.पर हम सब जानते हैं कि उन उच्चस्तरीय रचनाकारों को भी रचना प्रकाशन के लिए प्रकाशकों के आगे पीछे घूम कितने पापड़ बेलने पड़ते थे.और कई बार रोजी रोटी के जुगाड़ का चक्कर उन्हें प्रकाशकों की बिकाऊ सामग्रियों के लेखन को मजबूर करती थीं.उस दौर में भी असंख्य कामोत्तेजक सामग्रियां साहित्य के नाम पर लिखी छापी जातीं थीं और खूब बिकती भी थीं,तो इसीसे वह कालजयी साहित्य की श्रेणी में तो नही आ गयीं. इसलिए मेरा मत है की लेखन को सर्वोच्च दायित्व मानकर व्यक्ति समाज देश और दुनिया के लिए जो लिखेगा या लिखा जाता है,लेखन निसंदेह नैसर्गिक साहित्य ही है और रचनाकार साहित्यकार.बिना विवाद में फंसे अपने धर्म का सतत पालन ही हमारा कर्तब्य होना चाहिए,तभी हम आंशिक रूप से अपनी मातृभाषा के क़र्ज़ का एकांश मोल चुका पाएंगे.

18.6.08

New age NGO’S

The cold winter is over। The blissful spring is about to get over ।The blistering summer is on its way and with it are the scores of articles on global warming/climate change।

Just a recap of how the winter had been for India this year ।Intense cold waves blew over the northern part of the sub-continent .Supplies couldn’t reach the Siachen because of the road blockage caused by heavy snowfall .Parts of Himachal and Uttarakhand where people had never seen snowfall experienced it for the first time .We celebrated the coldest new year’s eve in decades. But the winter is over. Strangely enough this year from November the first few weeks of February,we could hardly see any article on climate change or global worming in the newspaper, tabloids or the magazines. There was lone article in ‘DOWN TO EARTH’ on the Bali Summit. It seems that all the great intellectual men who write the articles went to Hibernate along with the polar bears of arctic and the garter snakes of Manitoba but as the summer is approaching, it is bringing with it a tide of articles written by these great men on global worming. The first articles on global worming after cold winter make us feel even hotter and uncomfortable. If we carefully look a chronology of the movies and articles released on these subjects we would discover that all these articles and documentaries were released in the summer time. The Oscar winning documentary by Al Gore was released in the summer of 2005.Well in 2005 we had experienced the hottest summer in decades.

After reading these articles we curse the factories and industries for causing global worming. These articles send alarm bells ringing and bring with them terror, horror and panic and as the summer proceeds they become even more horrifying and terrifing.By the time it’s May and summer has reached its zenith. These articles are good enough to spill the milk out of your nose. They are so scary that they make you believe that an apocalypse is not far away.

By the ides of March the first articles on global worming had started to appear. The head line of an article read ‘PM MANMOHAN SINGH AND AL GORE DISCUSS CLIMETE CHANGE’.A careful reading of the news revealed the prime minister’s deep concern about the issue of global worming.Well, this is good news in a way; climate change is on the very long list of things which Manmohan Singh is concerned about. By the 15nth of April the headline would be like ‘’urgent action required by the government. Study says by the year 20…. UP, BIHAR AND WEST BENGAL would be reduced to deserts.’’

Like cinema earns by selling entertainment, the NGO’s earn by selling fear and tragedy and try to convince people that the situation is really bad and they the only ones who can fix it. Today people are so busy in their own lives that they don’t have the time and energy to dedicate to these issues. But we can’t ignore the fact that Indian economy is booming and so is the bank balance of people which enables them to spend on philanthropy. The NGO’s, realize this fact and have their eyes on the billions donated by the richie-riches of today’s world. As far as creating fear is concerned they have been quite good at it.

The irony is that an issue that should have been the topic of concern in the 80’s and 90’s has been gaining momentum since the past few years and this is all because of the work done by the NGO’s .It’s not that the NGO’s didn’t exist in the 90’s .But they have been able to attract much attention of late because of their changed nature .

The irony is that these NGO’s have started to try gimmicks which suit only the politicians. The 21st century has seen the commercialization of social service organization and this finds a sad reflection in their actions.
These organization work more to hinder the growth of economy. Every time a factory is set up these NGO’s readily perform the ritual of filing a case in the court against it. They may offer a host of reasons for it like concern over cutting of trees or depletion of natural resources. Every time a positive step is taken these NGO’s readily find a defect in it. Once someone from this breed of NGO’s described the carbon credit system as it was just like allowing a person to kill people and relieve him from the guilt by letting him confess in the church.

The statistics given by these NGO’s is always an exaggerated version of the official data. For instance if the official statistics say that 5% of rural India is devoid of potable water according to a study conducted by these NGO’s the figure would be 50%. They end up creating a doomsday scenario. In a situation lake this it would be a noble idea to suggest to people that they use their brain and not get completely influenced by these articles. We must remain well informed but should have the intelligence to separate fact from trash.

Sankalp Rathour
Class 10nth
Scindia School Gwalior
(बेटे के कलम से...........पढ़कर बड़ा अच्छा लगा कि इस उम्र में भी अपने आस पास के विषयों के प्रति ये कितनी पैनी नजर रखते हैं और उसमे गहरे उतरकर सत्य तथ्य तक पहुँचने की उत्सुकता भी.बेटे के स्कूल के पाक्षिक पत्रिका में उसका यह लेख प्रकाशित हुआ था.मैंने उसे यहाँ प्रकाशित कर दिया है.)

17.6.08

प्रिय पत्र तुम्हारा..........

आते ही सुधबुध बिसराता ,प्रिय यह पत्र तुम्हारा,
विरह विदग्ध तप्त धरा पर ,बह जाए रस धारा।

शब्द शब्द प्रतिरूप तुम्हारा,मुझ मे प्राण भरे,
आलिंगन भर भाव ,मुझे आत्मविस्मृत करे.

धुंध घनी यादें तेरी,मुझपर आच्छादित है,
साँस मेरी मिल साँस से तेरी हुई सुवासित है।

रूप तेरा साकार हुआ कागज के इस टुकड़े मे
दूरी का संताप मिटा डाला जैसे एक पल मे।

मुझमे देख स्पंदन तेरा कण कण व्याप्त हुआ,
थके थके मन मे देखो अद्भुत रोमांच भरा.

कली खिली और महकी बगिया मेरे मन उपवन की,
नस नस मे उठ आई लहरें फ़िर से मधुर मिलन की.

मौन मिलन से मेरे प्रियतम हम हैं एक हुए,
कौन बसा है कितना किसमे प्रश्न ही गौण हुए.

कठिन नही होता पीड़ा को बरसों तक भी सहना,
प्रियतम मेरे तुम बन पाती मुझतक आते रहना.

14.6.08

संवेदनशीलता

यूं तो संवेदना,जड़ प्रानधारी पेड़ पौधों मे भी होती है,पर यह जिस प्रखर रूप मे प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ रचना, मनुष्य मे विद्यमान होती है और अपने असीमित सामर्थ्य के बल पर इन संवेदनाओं का संवहन,निर्वहन और प्रतिपादन जितना मनुष्य द्वारा सम्भव हो पाता है,श्रीष्टि का अन्य कोई प्राणी उतना सामर्थ्य नही रखता. यह मनुष्य मे प्रकृति प्रद्दत्त वह गुण है जो श्रीष्टि को सुंदर से सुन्दरतम बनाता है.यह तो हुई जो सहज स्वाभाविक रूप से हुआ करती है और जिसे पाने और धारण करने के लिए कोई द्रव्य नही खर्चना पड़ता उसकी बात.पर वर्तमान मे जो वस्तुस्थिति है,जितनी तेजी से द्रव्य / भौतिक वस्तुओं की अहमियत दिन दूनी रात चौगुनी वेग से विस्तार पाती जा रही है,उतनी ही तेजी से मानव मूल्यों ,संस्कारों के साथ साथ संवेदनशीलता भी त्याज्य होती जा रही है.स्थिति यह है की बहुधा संवेदनशील मनुष्य बेवकूफ या पागल की श्रेणी मे गिना जाने लगा है. यहाँ संवेदनशीलता से मेरा तात्पर्य पर सुख दुःख के प्रति संवेदनशीलता से है.वैसे ऐसा नही की मनुष्य संवेदनहीन होता जा रहा है,उसकी संवेदनशीलता का महज दायरा बड़ा तंग होता जा रहा है.अब उसमे अपर से सिमट स्व का घेरा दिनानुदिन बढ़ता ही जा रहा है.निज के सुख दुःख इच्छा अनिच्छा के प्रति मनुष्य जितना सतत सजग और सचेष्ट रहने लगा है कि उसके लिए अपने आस पास किसी को भी कष्ट देने के प्रति झिझक तेजी से समाप्ति की ओर उन्मुख है और प्रतिफल मे जो व्यवस्था सामने है वह परिवार समाज देश को विघटन की ही ओर अग्रसर कर रहा है.

जन्म लेने के साथ ही एक बच्चे को एक उसी पूरी व्यवस्था के साथ दो चार होना पड़ता है जिसमे बिना धन/पैसे के जन्म तक ले पाना सम्भव नही.एक जमाना था जब बच्चे का जन्म घर मे ही हुआ करता था,पर अब निर्धन भी जच्चा अस्पताल मे ही संपन्न करवाता है.उसके बाद से तो परिवार संमाज और शिक्षण संस्थान तक की सारी व्यवस्था इसी पैसे की नींव पर रखी हुई है.हर चीज की गुणवत्ता पूर्णतः इसी धन की मात्रा पर ही निर्भर करती है.अपने आस पास सब जगह देख सुन समझ कर बच्चा जो एक बात सीख पाता है वह यही कि 'बिन पैसा सब सून'.सो फ़िर सारी दौड़ सारा प्रयास ही एक मार्गी इस ओर उन्मुख हो जाता है.व्यवस्था उस बाल मन को भौतिक वस्तुओं की महत्ता समझाने और उसे प्राप्त कर पाने के क्रम मे श्रेष्ठतम योग्यता पाने की दौड़ मे झोंक देती है. आज की पीढ़ी का आदर्श शायद ही वे महापुरुष हैं जिन्होंने धन को केवल जीवन जीने का माध्यम माना और मात्र उसके संचय को ही ध्येय नही माना. जो पीढी हम तैयार कर रहे हैं ,जब वह तैयार होगी और आगे चलकर वह जो पीढी बनाएगी,उसकी परिकल्पना कर पाना बड़ा ही त्रासद लगता है.मानव मूल्यों का वरण कर उसे जीवन मे सर्वोच्च स्थान दे चारित्रिक निर्माण का प्रयास न ही अभिभावकों द्वारा हो रहा है न ही शिक्षण संस्थानों द्वारा संपादित किया जा रहा है,जो कि बड़ी ही सोचनीय स्थिति है.किसी भी क्षेत्र मे अव्वल आ उसके द्वारा धनोपार्जन ही एकमात्र विकल्प बच्चों के लिए छोडा जा रहा है,जहाँ हर कोई एक दूसरे से भाईचारे के भाव से नही अपितु एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी के रूप मे खड़ा ओर जुडा है और उसे अपने आस पास सबको पछाड़ सबसे आगे निकल जाना है भले इसमे साम दाम दंड भेद निति कोई भी उपक्रम क्यों न अपनाना पड़े

वर्तमान संचार क्रांति ने दुनिया का जो हित किया है ,उससे कम अहित भी नही किया.इन माध्यमो ने जो एक्सपोजर उपलब्ध कराये हैं वह निश्चय ही बच्चों की संवेदनशीलता पर कुठाराघात किया है. प्रति दिन घटित आस पास की दुर्घटनाएं जब एक वयस्क मन को सुन्न करने लगा है तो बालमन पर इसके प्रभाव की परिकल्पना की जा सकती है.अब बड़ी से बड़ी घटनाएँ बड़े ही सरलता से सामान्य भाव से लिया जाने लगा है.सामान्य ज्ञान का जो स्तर कभी बीस बाईस की उम्र मे हुआ करता था,बमुश्किल वह आज के बच्चों मे दस बारह की उम्र मे हो जाया करती है.पर समस्या यह है की हर नई चीज को आजमाकर देख लेने की अदम्य लालसा रखने वाला यह उम्र उतनी ही दृढ़ता से विवेक तथा करनीय अकरनिया मे भेद कर उस पर अमल कर पाने मे समर्थ तो होता नही, तो फ़िर दिग्भ्रमित हो बड़े ही सुगमता से अनैतिक यौनाचार और अनाचार की ओर अग्रसर हो जाता है.

जब जीवन का मूलमंत्र ही धनोपार्जन रह जाए तो उसके अर्जन के लिए अख्तियार किए जाने वाले नैतिक अनैतिक उपायों मे भी कितना विभेद रह जाता है.संवेदनशीलता और सर्वजन हिताय,सर्वजन सुखाय की बातें कोरी किताबी बातें बन रह जाती हैं. संवेदनशील होना दृढ़ चारित्रिक बल का प्रतीक नही बल्कि दुर्बलता और कामयाबी के मार्ग का बाधक माना जाने लगा है.आज के किशोरों से जब बात कर उनके जीवन के लक्ष्य जानने की कोशिश की तो देखा उनमे गहरे बैठा एक ही विश्वाश है कि ,सफलता का मानक ही अधिक से अधिक भौतिक साधन संपन्न होना हैं. और इनका सारा प्रयास इस ओर एकमुखी है.दुखद यह है कि भविष्य के प्रति आशंकित या उज्जवल भविष्य के लिए लालायित अभिभावक भी बच्चों को इस भ्रामक स्थिति से निकलने के लिए किंचित भी जागरूक और प्रयासरत नही बल्कि उसे और अधिक संपुष्ट करने मे लगे हुए हैं. वर्तमान मे गिने चुने अभिभावक ही अपने भर बाल मन मे यह भरने का प्रयास करते हैं कि सच्चरित्रता ,मानवीय मूल्य, त्याग,दया,क्षमा,अहिंसा,कर्मठता,संतोष इत्यादि यदि व्यक्तिव का अंग न हो तो लाख संचित धन भी सही मायने मे सुखी और संतुष्ट नही कर सकता.

अब बात यह है की चाहे शिक्षण संस्थान हो या सामाजिक व्यवस्था ,इन्हे जादू की छड़ी घुमा आमूल बदला तो नही जा सकता ,पर यदि इसी समाज की इकाई अपने आस पास के नन्हें कोमल बालमन मे मूल्यों और संवेदनशीलता की परत बालपन मे ही डाल उसके विकास की ओर प्रयत्नशील हुआ जाए तो कम से कम यह आशा तो रखी जा सकती है की किसी एक सुह्रिदय मे भी यह अंकुर फल निकला तो वृक्ष बन कई वृक्षों का प्रणेता बन सकता है और श्रीष्टि की सुन्दरता बरकरार रह सकती है.

6.6.08

गया जमाना

गहरे अंतस का एक कोना,
प्रिय कभी उस ओर न जाना.

वहाँ बसी कुछ कोमल यादें,
खोया बचपन गया जमाना.

टूटी फूटी फटा पुराना,
गुडिया गहने और खिलौना.

कथा कहानी परियों वाली.
बिना बात के हँसना रोना.

माँ की लोरी,लाड पिता का,
संगी साथी संग झगड़ना.

नन्हें पलकों मे बसता वो,
सुंदर सुंदर स्वप्न सलोना.

न सीमा मे कैद जिंदगी,
ना ही कोई रही वर्जना.

कौन है अपना कौन पराया,
उंच नीच का भेद न माना.

जिसने भी पुचकार भर दिया,
सहज मानना उसको अपना.

बार बार समझाऊं मनको,
बीता बचपन गया ज़माना,

फ़िर भी मुड़ मुड़ उसे देखता,
चाहे फ़िर से गले लगाना.

उस कोने से रहे दमकता,
मेरे मन का हर एक कोना.