30.12.10

बीत रहा .......

एक और वर्ष बीत रहा
बीत रहे पल छिन संग
हम भी तो बीत रहे
साँसों के जल से भरा,
घट भी तो रीत रहा.
यह वर्ष भी बीत रहा.


जश्न हम मनाएं क्या
गीत नया गायें क्या
संचित अभिलाषा की
कथा अब सुनाएँ क्या
देख दशा अग जग की
मन तो भयभीत खड़ा ,
हौसला है अस्त पस्त
पार कहाँ सूझ रहा.
यह वर्ष भी बीत रहा.


स्मृति की अट्टालिका मे
पल छिन जो ठहरे हैं
अगणित रंगों मे घुले
रंग बड़े गहरे हैं
उसमे गुमसुम से सभी
सपने सुनहरे हैं
पाँव तो हैं ठिठके  पर
समय प्रवाह जीत रहा.
यह वर्ष भी बीत रहा.


पर पास खड़ा नया साल
देखो मुस्काता  है
मद्धिम सी छेड़ तान  
हम को  बहलाता है
प्राणों मे फ़िर से वही
आस फ़िर जगाता है
बीता जो लम्हा वह
बीत गया बात गयी
आगे का हर पल तो
तेरा बस तेरा है
जाने दे उस पल को
जो बीत रहा बीत रहा.


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24.12.10

लाल लगाम !!!

सरला - क्या यार...कितने देर से तुझे फोन लगा रही हूँ.. कॉल जा रहा है पर तुझे तो उठाने की फुर्सत ही नहीं...


रीमा- अरे यार , मार्केट गई थी, शाम के लिए गिफ्ट खरीदने. मोबाइल पर्स में था, भीड़ भाड़ में सुनाई नहीं पड़ा.अभी तो घर पहुंची हूँ.


सरला - मैं भी तो इसी लिए तुझे खोज रही थी.....सुन,,,शाम को इक्कठे चलेंगे. तू अपनी गाडी न लेना ,मैं इनके साथ आउंगी और तुम दोनों को पिक कर लूंगी...साथ चलेंगे तो मजा आएगा..


रीमा - हाँ..हाँ, क्यों नहीं...


सरला - देख न, समझ में नहीं आ रहा कि गिफ्ट क्या लूँ.....वैसे तूने क्या लिया ??


रीमा - वियाग्रा...शिलाजीत !!!!


सरला - हा हा हा हा...


रीमा - हा हा हा हा...बता न.... और क्या दिया जाय ???


सरला - हाँ ,बोल तो सही ही रही हो..

बताओ न,यह भी कोई उम्र है शादी करने की??? पचास तो पार हो ही गया होगा, नहीं ???


रीमा- पचास नहीं रे...बावन...!!!


सरला - ओह !!!

सुना है, तीनो बच्चों ने विद्रोह कर दिया है..


रीमा - हाँ, और क्या..दोनों बेटे तो हॉस्टल से आये भी नहीं है..छोटी बेटी ने तो अपने को कमरे में कैद ही कर लिया है जब से चोपड़ा जी इंगेजमेंट कर के आये हैं.. किसी से मिलती जुलती नहीं, खेलती घूमती नहीं..दादी बुआ और चाचियाँ समझा कर थक गए हैं....


सरला - सही तो है...इस उम्र में बच्चे सौतेली माँ बर्दास्त कैसे करेंगे,उसपर भी जबकि उसे गुजरे ढेढ़ साल भी न बीते हों..आसान नहीं है बच्चों के लिए....


अच्छा,लडकी का पता है ???? सुना है, एकदम जवान है, सत्ताईस अट्ठाईस की ...


रीमा - हाँ रे,, सही सुना..


सरला - विधवा तलाकशुदा है या कुआंरी है ????


रीमा- एकदम कुआंरी ???


सरला - सोच तो क्या देखकर माँ बाप ब्याह रहे हैं इस बुढाऊ से ???


रीमा - देखेंगे क्या..पद है, पैसा है, रुतबा है और शरीर भी कोई ऐसा ढला हुआ तो है नहीं. दिखने में चालीस से ज्यादा के नहीं दीखते ...और लडकी बेचारी पांच बहन है.एक कलर्क पाँच पाँच बेटियों के लिए जवान और कमाऊ लड़का कहाँ से खोजेगा ??? वो तो भला हो कि चोपड़ा जी ने उनका उद्धार कर दिया उसका...


सरला - सही कह रही हो..


रीमा - लेकिन एक बात है,उद्धार करना ही था तो तेरी पड़ोसन का करते तो ज्यादा अच्छा होता.... नहीं??????


सरला - तू भी तो बात करती है. चोपड़ा जी इसका उद्धार करते तो फिर बेचारे मजनूँ का कौन करता ?????

हा हा हा हा....


रीमा - हा हा हा हा...वो तो है...

वैसे क्या चल रहा है अभी ???


सरला - अरे तुझे बताना भूल गई ..पता है, परसों क्या हुआ, कि मेरा एक कजिन देल्ही से हमारे यहाँ आया...ट्रेन लेट हो गई थी, रात साढ़े ग्यारह के बदले यह भोर चार बजे पहुंची ....उसके लिए दरवाजा खोला ,तो देखती क्या हूँ, कि मजनू मियां मैडम के छोटे बेटे को गोद में उठाये फ़्लैट के नीचे लिए चले जा रहे हैं और मैडम बड़ी बेटी को घर में ही सोती छोड़ दरवाजा बंद करके उनके पीछे जा रही हैं...यूँ तो मैं नहीं टोकती,पर मुझसे रहा न गया तो मैंने पूछ ही लिया, कि क्या हुआ ,कहाँ जा रही हैं इतनी रात को...तो कहने लगीं, बेटे की तबियत बहुत बिगड़ गई है ,डॉक्टर के पास जा रहे हैं....

अब बता, इतनी सुबह जो घर से निकले, मतलब रात भर मजनू मियां इनके घर ही रहे होंगे...

पहले पहल तो जब आना जाना शुरू हुआ था तो मैडम कहतीं थीं,कलीग हैं,,, मदद कर देते हैं...बच्चों को पढ़ाने आते हैं...

फिर देखा वो साहब इनकी सब्जी भाजी और राशन भी ढ़ोने लगे और अब तो कोई हिसाब ही नहीं कि कब आयेंगे और कब जायेंगे...


रीमा - ऐसा ही है तो दोनों शादी क्यों नहीं कर लेते ????


सरला - पागल हुई हो क्या ????? सब टाइम पास है ???? जवान है हैंडसम है ठीक ठाक पैसा कमाता है,उसे कुआंरी लडकी नहीं मिलेगी क्या जो सैंतीस अडतीस साल की दो बच्चे की अम्मा से शादी करेगा...वैसे तुझे बता दूं..मैंने सुना है कि इसकी शादी कहीं फिक्स हो गई है..दो तीन महीने के अन्दर ही हो जायेगी...


रीमा - हाय !!! फिर मैडम का क्या होगा....

हा हा हा हा...


सरला - होगा क्या ?? कोई और मिल जायेगा..इतनी सुन्दर हैं, दिखने में चौबीस पच्चीस से ज्यादा की नही लगतीं ... ऐसी सुन्दर बेवाओं के पीछे घूमने वालों की कोई कमी थोड़े न होती है...


रीमा - सही कहा रे...अच्छा अपने मियां को बचा कर रखना ..कहीं वो भी न ट्यूशन पढ़ाने निकल पड़ें...हा हा हा हा...


सरला - अरे यार..ये टेंशन तो कभी पीछा नहीं छोडती..इसलिए तो न खुद उधर झांकती हूँ ,न इन्हें झाँकने देती हूँ..


रीमा - सही कहा रे...गजब टेंशन है ये भी..मरद जात का कोई भरोसा नहीं..

अच्छा चल तुझसे बाद में बात करती हूँ..पार्लर वाली आ गई है.. फेसियल कराने के लिए उसे यहीं बुला लिया है..पार्लर की भीड़ मुझे नहीं जमती....

चल शाम में मिलते हैं...देखें बूढ़ी घोडी की लगाम कैसी है...

हा हा हा हा....

चल बाय !!!


रीमा - ओके... बाय !!! शाम में मिलते हैं..ठीक आठ बजे...

ओके...!!!

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14.12.10

मीठा माने ????

बच्चे से कुल औ गाँव के आँख के तारे रहे हैं हमरे पवन भैया.बड़े परतिभा शाली.दसवीं में बिहार बोर्ड में टॉप किये रहे और उनका बम्पर नंबर उनको सीधे सीधे इंजीनियरिंग कालेज के गेट्वा के अन्दर ले गया..गणित विज्ञान इतना तगड़ा रहा उनका कि उहाँ भी टॉप किये और उनका रिजल्ट पर न जाने कितने कम्पनी वाले लहालोट हुए. अंततः एक बड़का नामी कम्पनी उनको लूट अपने इहाँ ले जाने में सफल हुआ.उर्जा से ओत प्रोत भैया को शायद ही कभी किसीने थकते या परिश्रम से उबते देखा बरसों बरसों में.घर घर में गार्जियन लोग अपने बच्चों को उनके नाम पर कनैठी दिया करते थे..

एक दिन संझा काल में उनसे मिलने गए तो देखते का हैं कि भाई जी दफ्तर से आकर निढाल भुइयें पर पसर गए हैं.हमको बड़ा अजीब लगा, लाड़ से हम पूछे ,का बात है भाई जी, तबियत उबियत ठीक तो है न ?? का हुआ,चेहरवा ऐसे कुम्हलाया काहे है ?? लाइए, हम गोड़ दबा देते हैं,पांच मिनट में एकदम चकाचक फ्रेस हो जाइएगा..त भैया थके थके सुर में बोले,अरे नहीं रे छुटकी ,रहने दे, गोड़ नहीं मुडी दुखा रहा है..हम कहे, काहे...मुडिया में का हो गया ???? त भैया कहे, भारी कसरत कर के आ रहे हैं रे ...हम कहे....कसरत...दफ्तर में ??? और कसरत किये भी त, उमे मूडी कैसे दुखा गया ??? त बताये कि छः घंटा भाषण दे के आय रहे हैं..दिक्कत भाषण में त नहीं था, पर तिहरा ट्रांसलेशन कर कर के मथवा पिरा गया है..

बात त सहिये है..अब भाय, हम सबको सदा से आदत है अपना बात अपना मातृभाषा में ही सोचने का, त पाहिले त मातृभाषा में सब बात /सोच को सजाओ ,फिर उको ट्रांसलेट करो राष्ट्र भाषा हिन्दी में और फिर सबको अंगरेजी में रूपांतरित करते हुए जिभिया घुमाय घुमाय के , शब्दन को चबाय चबाय के सबके सामने परोसो और ऊ भी किनके सामने, जो ज्ञान लेने को नहीं बल्कि भरब एडभरब और टेंस का गलती पकड़ने को हाथ मुंह खोलकर सामने बैठे हुए हों.. सबसे ज्यादा कोफ़्त तो ई सोचकर होता है कि स्रोता समाज में एको आदमी ऐसा नहीं जो हिन्दी नहीं जानता समझता है,लेकिन विडंबना देखिये कि अपने ही लोगों के सामने ज्ञान बघारने और भारी बने रहने के लिए हमको अंगरेजी चुभलाना पड़ता है..मन भारी नहीं होगा ई परिस्थिति में त और का होगा..

बड़ा दिक्कत है भाई, हमरे ज़माने में बाकी विषय तो छोडिये अन्ग्रेजियो हिंदिये में पढाया जाता था. तीसरा चौथा किलास में जाके गुरूजी शुरू होते थे...बोलो बच्चों - ए से एप्पल, एप्पल माने सेब !!! बी से बैट, बैट माने बल्ला !!! सी से कैट,कैट माने बिल्ली....!!! लय ताल में इसे गवा दिया जाता था और हम भी रस लेके इसे घोंट जाते थे..ई लयकारी दिमाग का भित्ती पर ऐसे जाकर चुभुक के चिपट जाता था कि फिर मरते घड़ी तक दिमाग से ए से एप्पल और बी से बैट नहीं निकलता था.एही लयकारी का बदौलत दू एकम दू और दू दूनी चार का पहाडा कम स कम पच्चीस तक आज भी ऐसे दिमाग में संरक्षित है कि एक बार ऊ लय में पहाडा पटरी पर डाले नहीं कि सब ध्यान के सामने नाच उठता है..

खैर,समय बदल गया है.अब लयकारी वाले रटंत विद्या का जमाना नहीं रहा.पहाडा पढके हिसाब करने का श्रम और समय कौन लगाये.यन्त्र उपलब्ध है,बटन दबाओ और दन से बड़का बड़का नंबर का हिसाब राफ साफ़.. लाख ज्ञान होते हुए भी हमरे ज़माने के लोगों को जो आज भी कसरत करनी पड़ती है समय के साथ कदम ताल कर टाई वाला बनाने में. जीभ निकाल कर जिन्दगी के ई फास्ट चूहे दौड़ में हाँफते पिछुआये भागते चले जा रहे हैं,पर रास्ता पार नहीं पड़ रहा.पर अब बहुत हुआ, हमारे अगले जेनरेशन को ई सबसे निजात मिलना ही चाहिए. भला हो सरकार का जो हमलोगों की समस्या को भली परकार समझी है,इसीलिए तो अंगरेजी अब ओप्सनल विषय नहीं मुख्य विषय बना दिया गया है इस्कूली शिक्षा में..खाली एक विषय क्या ,बल्कि अब तो सारे ही विषय अंगरेजी में ही पढने पढ़ाने की सुगम व्यवस्था है अपने देश में.पांच हजार मासिक कमाने वाला अभिभावक भी आज अपने बच्चों को अंगरेजी माध्यम इस्कूल में ही पढ़ाता है.

देश के ई छोर से ऊ छोर तक गली गली चप्पे चप्पे पर सरकारी, गैर सरकारी ,सहकारी,बेकारी (बेरोजगार युवकों द्वारा चलाई जाने वाली) अंगरेजी इस्कूलों का जाल बिछ गया है और जोर शोर से पूरा परबंध कर दिया गया है कि देश में एक भी बच्चा ऐसा न बचे जिसे इस तिहरे ट्रांसलेशन के बोझ तले दबे कुचले रहना पड़े. गैर सरकारी बड़का इस्कूल सब में तो अंगरेजी ज्ञान के प्रति इतनी सजगता है कि एक तरह से अंगरेजी का रोड रोलर ही चला दिया जाता है बच्चों पर. इस्कूल प्रांगन में रहते कोई बच्चा अगर अपने संगी साथी या शिक्षक से अपनी मातृभाषा या हिन्दी में बतिया ले तो इससे कठोर दंडनीय अपराध और दूसरा कुछ भी नहीं होता..

जरूरी है भाई,एतना सख्त नियम न रहे तो बच्चा सीखेगा कैसे. खुद गम खाए माँ बाप भी आज जबरदस्त सजग हो गए हैं.बच्चा शब्द बोलने भर हुआ कि नहीं उसको नाक आँख कान नहीं नोज आईज और इयर ही सिखाते हैं. और जो वाक्य बोलने भर हुआ तो बा बा बलैक शीप आ ट्विंकल ट्विंकल लिटिल इस्टार तुतलाते आवाज पर रोप देते हैं. इका माने का हुआ,अब यह नहीं बताया जाता. अंगरेजी का हिन्दी माने बताना अब बड़ा ही हेय दृष्टि से देखा जाता है.माना जाता है कि बच्चा बोलते बोलते और सुनते सुनते सब समझने लगेगा.बित्तन बित्तन भर के बच्चों को टीचर अंग्रेजी में हांक देते हैं और बच्चे भंगिमा देखकर अंदाजा लगा लेते हैं कि उन्हें क्या बोला जा रहा होगा. सहिये है , जबतक सोच के स्तर तक अंगरेजी न बिछे आदमी को इस ट्रांसलेशन रोग से निजात कैसे मिलेगा..भाई, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर झंडे गाड़ना है,हिन्दुस्तान को बुलंदी पर पहुँचाना है तो उसके लिए बहुत जरूरी है कि मातृभाषा और राष्ट्रभाषा के मोह से आदमी किनारा करे और खाए पिए सोचे समझे सब खालिस अंगरेजी में...

लेकिन ई पुनीत अभियान में फिल्म विज्ञापन तथा दृश्य संचार माध्यम तंत्र बड़ा रोड़ा अटका रहा है.. अब बताइए कि एक तरफ तो आदमी परेशान है देसी भदेसी भाषा से पीछा छुडाने में और बाजार को इसी सब भाषा पर भरोसा है. उसको लगता है कि एही भाषा का घाघरा पहिन उसका प्रोडक्ट घर घर में घुस पायेगा. कहीं बीडी जलाइले गाना सिनेमा में ठूंसकर सिनेमा हिट कराने का लोग जुगत भिड़ाते हैं तो कहीं चुलबुल पाण्डेय के बिहारी इस्टाइल दिखाकर लोगों को लुभाते हैं. हम पहुँच गए बिना 'माने' कहे ए फॉर एप्पल और बी फॉर बाल पर...और अमिताभ बच्चन साहब कह रहे हैं- मीठा माने ??? अरे समझे सर,मीठा माने केड्बरीज चाकलेट ..पर सर ऐसे माने माने कहके सिस्टम न बिगाडिये.केतना मोसकिल से तो ई माने से पीछा छूटा है.

असल में आपलोग डेराते बहुत हैं.आपको लगता है देसी भदेसी भासा का पंख पर अपना प्रोडक्ट बैठा दीजियेगा तो यह सफल उड़ान उड़ लेगा.लेकिन ऐसा नहीं है आप चाहे देसी हिन्दी में परचारिये या अंगरेजी में, अंगरेजी खान पान रहन सहन को अपनाने घर से निकल चुकी जनता को केवल ई जानकारी भर मिल जाए कि ई है अंगरेजी इस्टाइल ,बस जनता उसे सर माथे लगा अपने दिल में जगह दे देगी.
का कहे विस्वास नहीं हो रहा....
अरे !!!
देख नहीं रहे ,आज की हमारी पीढी भात दाल को नहीं पिज्जा बर्गर और मैगी को ही खाद्य पदार्थ समझती है. आइसक्रीम और चाकलेट स्वतः ही उसके द्वारा मिष्टान्न रूप में स्वीकार्य हो चुकी है.रोजाना एक गिलास बियर पीना उसे स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक लगने लगा है. हाय सेक्सी...!!! आज हमारी बालाओं को गाली नहीं काम्प्लीमेंट लगती है.किशोर वय यदि बिना ब्वाय गर्ल फ्रेंड और डेटिंग के निकल जाय तो इन्हें जीवन और जवानी धिक्कारने लायक लगती है.पैर छूकर परनाम नहीं किया जाता आज, जानना मर्दाना एक दुसरे से मिलते हैं तो गाल से गाल सटाकर हवा में चुम्बन फायर किया जाता है...इतना सब तो हो गया है और क्या चाहिए. अरे अंगरेजी रंग में जितना आज हम भारतीय रंगे हैं, उतना तो किसी पश्चिमी देश का मजाल नहीं कि रंग जाय..तो फिर और माने काहे को समझा रहे हैं. निश्चिन्त रहिये ...आप अन्ग्रेजिये में सब परचारिये न...बिक्री बट्टा होगा ही होगा..बल्कि हम तो कह रहे हैं कि अभी जेतना हो रहा है उससे बहुत जेयादा होगा.काहेकि अंगरेजी भाषा और प्रोडक्ट भारतीय को बिना कोई प्रमाण के ही अपार विश्वसनीय लगता है..

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19.11.10

अंधेर नगरी ....

कॉलेज में एक हमारे प्रोफ़ेसर थे.भारी विद्वान् .अपनी विद्वता के बल पर कई सारे गोल्ड मेडल जुटाए थे उन्होंने. उनके नाम के साथ सदा फलां फलां विषय में " एम् ए, पी एच डी, गोल्ड मेडलिस्ट " लिखा रहता था. हमने कभी पढ़ा तो नहीं पर सुन रखा था कि उन्होंने कई सारी किताबें लिख डाली हैं.. पर जब वे विद्वान् प्रोफ़ेसर साहब हमे पढ़ाने आते तो क्लास में बैठे उनकी ओर दीदे फाड़े हमें अपनी आँखों से नींद भागने के लिए ठीक उतनी ही मसक्कत करनी पड़ती थी, जितनी अमेरिका को बिन लादेन को ढूँढने में करनी पड़ रही है...हम भगवान् से एकदम कलपकर मनाते कि कभी उन्घाये दुपहरिया में उन महामहिम का क्लास न पड़े..हर क्लास के ख़तम होने पर हम जी भरकर उस अनजाने व्यक्ति को गरियाते, जिसने इन्हें गोल्ड मेडल पकडाया और जिसने प्रोफ़ेसर बनाया. अगर अटेंडेंस पूरा करने की बाध्यता न होती तो शायद ही कोई विद्यार्थी उनकी क्लास अटेंड करता.प्रोफ़ेसर साहब विद्वान् चाहे जितने रहे हों पर पढ़ाने की कला का 'क' भी उन्हें नहीं पता था. खुद विद्वान् होना और दूसरे को विद्वान् बना देने की कला में बड़ा भारी अंतर होता है.

आज जब अपने प्रधान मंत्री जी की स्थिति देखती हूँ तो बरबस मुझे वही प्रोफ़ेसर साहब याद आ जाते हैं.हमारे प्रोफ़ेसर साहब भी बड़े ही भले मानुस थे और पहुंचे हुए विद्वान् भी,पर अध्यापन के जिस कर्म में वे संलग्न थे,एक तरह से विद्यार्थियों का भविष्य ही न चौपट कर रहे थे. अपने वृहत ज्ञान को विद्यार्थीयों के मन में उतनी ही कुशलता पूर्वक यदि वे उतार पाते ,तभी तो उनके ज्ञान की सार्थकता होती. भला नहीं होता कि वे बैठकर किताबें ही लिखते और विद्यार्थियों को एक ऐसा शिक्षक मिलता जो उनकी समझ के हिसाब से उन्हें विषय समझाकर विद्वान् बना पाता..

लोकतंत्र का ऐसा विद्वान् मालिक/नायक /कर्णधार किस काम का, जिसे अपने लोक का ही पता न हो..मन अत्यंत खिन्न और क्षुब्ध हो जाता है इनकी प्रशासन क्षमता देखकर.आखिर ऐसी भी क्या विवशता है, कि न तो ये देश के भीतर देश को तोड़ रहे तत्वों से निपट पा रहे हैं और न ही बाहरी विध्वंसक शक्तियों को प्रभावी ढंग से हडका पा रहे हैं..इनके एन नाक के नीचे भ्रष्टाचार  पराकाष्ठा को प्राप्त कर चुका है, कैसे विश्वास करें कि इन सबमे इनकी संलिप्तता सह्भागिका या सहमति नहीं है ?? कैसे मान लें, तमाम भ्रष्ट और बेईमानो के बीच ये दूध के धुले पाक साफ़ हैं ? माना कि ये बस रबर स्टाम्प ही हैं और दिखावे भर के लिए ही कुर्सी इन्हें मिली है, लेकिन क्या उस कुर्सी में कोई शक्ति नहीं ?? यह कुर्सी क्या महज किसी मैडम के ड्राइंग रूम की कुर्सी भर है,जिसपर मालिकाना हक ये नहीं जता सकते ?? अरे कुछ नहीं तो ये स्वामिभक्त इतना तो स्मरण रख सकते हैं न, कि इस कुर्सी में देश की सौ करोड़ जनता की शक्ति है और कागज पर इन्हें जो अपरिमित अधिकार मिले हैं,वह कागज यूँ ही हल्की फुल्की हवा में उड़ जाने वाला कागज नहीं बल्कि उसपर सौ करोड़ जनता के हस्ताक्षर ने उसे इतना कीमती और वजनदार बना दिया है कि यूँ ही फूंक मार कोई उसे उड़ा नहीं सकता.. जो सत्य न्याय के पथ पर दृढ़ता से चलेंगे, देश के हर छोटे बड़े हित के लिए कठोर निर्णय लेंगे, तो भले इनका सारा कुनबा इनके विरुद्ध खड़ा हो जाए,जनता इनके पक्ष में ही रहेगी..और चाहे सब कुछ छोड़ दिया जाए,तो व्यक्तिगत तौर पर इतना मान इस कुर्सी का तो रख ही लेना चाहिए न कि आज इसी के बदौलत इनका यह खान पान और मान है.माना कि सरलमना स्वभाव से ही स्वामिभक्त हैं, तो कुछ वफादारी/जवाबदेही  इनका कुर्सी/देश की जनता के प्रति भी बनता है या नहीं ??

यह भारत का दुर्भाग्य ही है कि आज इसके पास कांग्रेस का एक भी मजबूत और साफ़ सुथरा दृढ नैतिकता वाला विकल्प मौजूद नहीं है,नहीं तो कितना समय लगता इनकी जड़ उखड जाने में... एक समय इनके इन्ही रवैयों से मजबूर होकर जनता ने वर्षों के लिए सत्ता इनके लिए सपना बना दिया था.इन्हें क्यों नहीं लगता कि इनके लुभावने विज्ञापन जनता की आँखों को अधिक समय तक चुन्धियाये नहीं रख सकते.इनका विकल्प कोई हो या न हो पर मंहगाई भ्रष्टाचार का जो नंगा नाच अपनी खुली आँखों से जनता रोज देख रही है और पिस रही है,इतनी सरलता से इसे बिसरा मटिया देगी ?? और जो अगली बार फिर से खंडित जनादेश हुआ तो ये और कमजोर ही होंगे न...

आश्चर्य लगता है, घोटालों के जिस सच्चाई को सारा देश जान चुका होता है,जब जमकर उसपर हंगामा होता है,तो शीर्ष  सत्ता आहिस्ते से हिलते डुलते हुए मिमियाती सी आवाज़ में कहने के लिए उठती है कि "इसे बर्दाश्त नहीं किया जायेगा,जांच कराई जायेगी " और हल्ला अधिक बढा तो मांग लिया इस्तीफा और बिठा दिया सी बी आई जांच..हंसी आती है,कौन नहीं जानता सी बी आई की सच्चाई,कि यह किसके अधीन है.सी बी आई या एक्स वाय जेड आयोग जो दशकों दशकों में चार्ज फ़ाइल करेगी और दोषी तो तबतक दुनिया से भी आराम से खा पीकर उठ चुका होगा, ऐसी तो है अपने यहाँ दंड व्यवस्था. नाग नाथ को कुछ समय के लिए पुचकारकर पद से हटाया और सांपनाथ को बैठा दिया कुर्सी पर...हो गया न्याय !!! क्यों भला कोई डरेगा घोटाला करने से ?? ऐसी सुविधाजनक स्थिति तो इमानदार को भी बेईमान बना दे,फिर पहले से ही भ्रष्ट बेईमान की तो बात ही क्या..

क्या इतना भोला अंजान और लाचार है शीर्ष नेतृत्व ,कि इतने इतने पैसे निकल गए और इन्हें पता ही नहीं चला.कुछेक पदाधिकारी,इने गिने मंत्री ,बस इतनों की ही संलिप्तता है इन हजारों लाखों करोड़ों करोड़ के घोटालों में..बाकी सारे के सारे निरीह और भोले ?? हजारों करोड़ का घोटाला हो गया और धराये मधु कोड़ा..क्या अकेले मधु कोड़ा,ए राजा, रामालिंगम राजू,सुरेश कलमाडी आदि आदि ने ही गटक लिया सारा पैसा ?? इस पूरे क्रम में ये और इनके नीचे वालों की ही संलिप्तता थी ?? क्या हम विश्वास कर लें कि इन इकलौते जांबाजों का ही हाजमा इतना दुरुस्त है ??

मधु कोड़ा एक निर्दलीय, झारखण्ड के मुख्यमंत्री क्यों बनाये गए ?? क्योंकि उस पूरे समूह में वही एक सबसे फिट कैंडिडेट थे,जिसके मुंह में जुबान,मन में हिम्मत और माथा में तिड़कमी दिमाग नहीं था.यही आदमी रबर स्टाम्प की तरह काम कर सकता था,जिसे जब चाहा जुतिया दिया ,जब चाहा चुमिया दिया और जो चाहा करवा लिया.लालू जी को क्या राजद में कोई योग्य व्यक्ति नहीं मिला था जब वे जेल नशीन हुए थे ?? या कि राजद के सभी योग्य नेताओं को रबरी देवी ही सबसे कुशल,सबसे योग्य प्रशासक लगी थीं ?? कोड़ा से मनमोहन तक,इन अनेक उदाहरणो  का क्यों कैसे का हिसाब आम जनता के लिए इतना भी अबूझ नहीं रह गया है अब...

बस यही लगता है, क्या कभी भारत की वह जनता जो अपने बच्चों को भरपेट रोटी भले न खिला पाए,तन न ढांक पाए,इलाज न करा पाए और अच्छी शिक्षा तो यूँ भी बड़ी मंहगी है,सो सवाल ही नहीं उठता... नमक खरीदने पर दिए टैक्स से लेकर प्रत्यक्ष परोक्ष कदम कदम पर टैक्स भरती है,कभी जान पायेगी कि उसके पैसों का क्या क्या हो रहा है या इसे अनैतिक ढंग से किस किस ने और कितना कितना खाया ?? यह जनता क्या यह आस संजो सकती है कि जो इने गिने मंत्री संतरी जगजाहिर हो पकडाए भी, उनसे वह अपार धन वसूला जाएगा और वह धन सरकारी खजाने में जमा कर जनता को टैक्स और मंहगाई से राहत मिल जायेगी ?? क्या आम जनता यह अपेक्षा कर सकती है कि कभी भी किसी सरकारी महकमे में छोटे से छोटे काम से लेकर बड़े काम तक करवाने में उसे रिश्वत नहीं देनी पड़ेगी ?? क्या आम जनता मन में यह विश्वास रख सकती है कि लोकतंत्र के तथाकथित रक्षक की आत्मा जग जायेगी और वह सचमुच ही उसके आर्थिक सामाजिक धार्मिक सांस्कृतिक हितों की निरपेक्ष भाव से रक्षा करेगी ??

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1.11.10

तरु और लता...

कहीं किसी एक कानन में, था सघन वृक्ष एक पला बढ़ा,

था उन्नत उसका अंग अंग, गर्वोन्नत भू पर अडिग अड़ा.


वहीँ पार्श्व में पनपी थी, कोमल तन सुन्दर एक लता.
नित निरख निरख तरु की दृढ़ता, हर्षित उसका चित था डोला.

तरुनाई कोमलता उसकी , तरुवर के मन को भी भायी,
निज शाख झुकाकर उसने भी, कोंपल की उंगली थाम ही ली.


प्रिय ने जो अंगीकार किया, तन मन अपना वह वार चली,
हर शाख शाख पत्ते पत्ते, लिपटी लिपटी वह खूब खिली.


था प्रेम प्रगाढ़ ही दोनों में,पर तरु का मन था अहम् भरा,
आश्रयदाता अवलम्बन वह ,यह भी मन में था बसा रहा.


लघु तुच्छ सदा उसे ठहरा कर, तरु तुष्टि बड़ा ही पाता था,
निज लाचारी को देख ,लता का ह्रिदय क्षुब्ध हो जाता था.


था आत्मविश्वास न रंचमात्र, जो प्रतिकार वह कर पाती,
अपमान गरल नित पी पीकर, भाग्य मान सब सह जाती.


आशंका से मन था कम्पित, कहीं तरु निज हाथ छुड़ा न ले,
कैसे उस बिन जी पायेगी, कहाँ जायेगी इस तन को ले.


तरु ने यदि त्याग दिया उसको,फिर कहाँ ठौर वह पायेगी,
जो भूमि पड़ी उसकी काया, नित पद से  कुचली जायेगी.


था पड़ा सुप्त उसका चेतन, उसको न किंचित भान रहा,
योगक्षेम वाहक जग का, अखिलेश्वर केवल एक हुआ.


जीवन दाता सब जीवों का, सुखकर्ता सबका दुःख हरता,
उसकी कृति ही हर एक प्राणी,नहीं कोई हीन न कोई बड़ा.


सत का सूरज उर में प्रकटा , निर्भय विभोर निश्चिन्त हुई,
मृदुस्वर से प्रिय को समझाकर, उस से हित की ये बात कही.


है सत्य मेरे आधार तुम्ही, तेरे प्रश्रय से विस्तार मेरा,
तुम सदा रहे रक्षक मेरे, तुमसे सुरभित संसार मेरा.


पर तुच्छ नहीं मैं भी इतनी, है व्यर्थ नहीं मेरा होना,
जिस सर्जक की तुम रचना हो,वह ही तो मेरा हेतु बना.


माना कि तुम सम बली नहीं,तुम सा मेरा सामर्थ्य नहीं,
पर कर्तब्य परायण मैं भी हूँ, कभी छोड़ा तेरा संग नहीं.


तुम मुझे सम्हाले रहते हो, तो मैं भी तो रक्षक तेरी,
हो धूप कि आंधी या वर्षा,तुझसे पहले मैं सह लेती .


विपदा जो तेरी ओर बढे ,मैं सदा ढाल बन अडती हूँ ,
मेरे होते कोई वार करे, यह कभी न मैं सह सकती हूँ.


चाहा तेरा है साथ सदा, चाहे जिस ओर गति तेरी,
यूँ ही जीवन भर संग रहूँ , नहीं दूजी कोई साध मेरी.


फिर क्या तुलना क्या रंज भेद, क्यों मन में कोई घाव भरें,
आ स्नेह से हिल मिल संग रहें,क्यों सुखमय जीवन नष्ट करें.


था सार छुपा इसमें सुख का, तरुवर के मन को भी भाया,
जो अहम् बना दुःख का कारण, तरुवर ने उसको त्याग दिया.


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22.10.10

अँधा प्रेम !!!

प्रेम,एक ऐसी दिव्य अनुभूति, जिससे सुन्दर,जिससे अलौकिक संसार में और कोई अनुभूति नहीं.जब यह ह्रदय में उमड़े तो फिर सम्पूर्ण सृष्टि रसमय सारयुक्त लगने लगती है.ह्रदय विस्तृत हो ब्रह्माण्ड में और ब्रह्माण्ड ह्रदय में समाहित हो जाता है. मन और कल्पनाएँ अगरु के सुवास से सुवासित और उस जैसी ही हल्की हो व्योम में धवल मेघों के परों पर सवार हो चहुँ ओर विचरने लगता है. मन तन से और तन मन से बेखबर हो जाता है. यह बेसुधी ही आनंद का आगार बन जाती है.पवन मादक सुगंध से मदमाने लगता है और मौन में संगीत भर जाता है. जीवन सार्थकता पाया लगता है..

मनुष्य ही क्या संसार में जीवित ऐसा कोई प्राणी नहीं, जो प्रेम की भाषा न समझता हो और इस दिव्य अनुभूति का अभिलाषी न हो . आज तक न जाने कितने पन्ने इस विषय पर रंगे गए परन्तु इसका आकर्षण ऐसा, इसमें रस ऐसा, कि न तो आज तक कोई इसे शब्दों में पूर्ण रूपेण बाँध पाया है और न असंख्यों बार विवेचित होने पर भी यह विषय पुराना पड़ा है.आज ही क्या, सृष्टि के आरम्भ से इसके अंतिम क्षण तक यह भाव,यह विषय, अपना शौष्ठव,अपना आकर्षण नहीं खोएगा, क्योंकि कहीं न कहीं यही तो इस श्रृष्टि का आधार है..

माना जाता है प्रेम सीमाएं नहीं मानता. यह तो अनंत आकाश सा असीम होता है और जो यह मन को अपने रंग में रंग जाए तो ह्रदय को नभ सा ही विस्तार दे जाता है.प्रेम का सर्वोच्च रूप ईश्वर और ईश्वर का दृश्य रूप प्रेम है..और ईश्वर क्या है ?? करुणा,प्रेम, परोपकार इत्यादि समस्त सद्गुणों का संघीभूत रूप. तो तात्पर्य हुआ जो हृहय प्रेम से परिपूर्ण होगा वहां क्रोध , लोभ , इर्ष्या, असहिष्णुता, हिंसा इत्यादि भावों के लिए कोई स्थान नहीं बचेगा. प्रेमी के ह्रदय में केवल ईश्वर स्वरुप सत का वास होगा और जहाँ सत हो, असत के लिए कोई स्थान ही कहाँ बचता है..

पर वास्तविकता के धरातल पर देखें, ऐसा सदैव होता है क्या ?? प्रेम पूर्णतया दैवीय गुण है,परन्तु इसके रहते भी व्यक्ति अपने उसी प्रेमाधार के प्रति शंकालु , ईर्ष्यालु , प्रतिस्पर्धी, स्वार्थी, कपटी,क्रोधी,अधीर होता ही है. तो क्या कहें ?? प्रेम का स्वरुप क्या माने ?? हम दिनानुदिन तो देखते हैं, प्रेम यदि ह्रदय को नभ सा विस्तार देता है तो छुद्रतम रूप से संकुचित भी कर देता है और कभी तो दुर्दांत अपराध तक करवा देता है. फिर क्या निश्चित करें ? क्या यह मानें कि प्रेम व्यक्ति की एक ऐसी मानसिक आवश्यकता है,जो अपने आधार से केवल सुख लेने में ही विश्वास रखता है, प्रेम के प्रतिदान का ही आकांक्षी होता है? प्रेमी उसकी प्रशंशा करे, उसपर तन मन धन न्योछावर कर दे, उसके अहम् और रुचियों को सर्वोपरि रखे, उसे अपना स्वत्व समर्पित कर दे,तब प्रेमी को लगे कि उसने सच्चे रूप से प्रेम पाया...क्या यह प्रेम है?

क्या इस भाव को जिसे अलंकृत और महिमामंडित कर इतना आकर्षक बना दिया गया है, वैयक्तिक स्वार्थ का पर्यायवाची नहीं ठहराया जा सकता ? एक प्रेमी चाहता क्या है? अपने प्रेमाधार का सम्पूर्ण समर्पण ,उसकी एकनिष्ठता,उसका पूरा ध्यान ,उसपर एकाधिकार, उसपर वर्चस्व या स्वामित्व, कुल मिलाकर उसका सर्वस्व. एक सतत सजग व्यापारी बन जाता है प्रेमी,जो व्यक्तिगत लाभ का लोभ कभी नहीं त्याग पाता. लेन देन के हिसाब में एक प्रेमी सा कुशल और कृपण तो एक बनिक भी नहीं हो पाता.हार और हानि कभी नहीं सह सकता और जहाँ यह स्थिति पहुंची नहीं कि तलवारें म्यान से बाहर निकल आतीं हैं..

प्रेम पाश में आबद्ध प्रेमी युगल प्रेम के प्रथम चरण में परस्पर एक दूसरे में सब कुछ आलौकिक देखता है.जो वास्तव में सामने वाले में रंचमात्र भी नहीं,वह भी परिकल्पित कर लेता है. सामने वाले में उसे रहस्य और सद्गुणों का अक्षय भण्डार दीखता है..युगल परस्पर एक दूसरे के गहन मन का एक एक कोना देख लेने,जान लेने और उसे आत्मसात कर लेने की सुखद यात्रा पर निकल पड़ते हैं. आरंभिक अवस्था में युगल एक दूसरे के लिए अत्यधिक उदार रहते हैं, प्रतिदान की प्रतिस्पर्धा लगी रहती है,जिसमे दोनों अपनी विजय पताका उन्नत रखना चाहते हैं, पर जैसे जैसे ह्रदय कोष्ठक की यह यात्रा संपन्न होती जाती है,कल्पनाओं का मुल्लम्मा उतरने लगता है,यथार्थ उतना सुन्दर ,उतना आकर्षक नहीं लगता फिर. रहस्य जैसे जैसे संक्षिप्तता पाता है,कल्पना के नील गगन में विचारने वाला मन यथार्थ के ठोस धरातल पर उतरने को बाध्य हो जाता है,जहाँ कंकड़ पत्थर कील कांटे सब हैं..इसे सहजता से स्वीकार करने को मन प्रस्तुत नहीं होता और तब आरम्भ होता है हिसाब किताब,कृपणता का दौर.

जो युगल एक दूसरे के लिए प्राण न्योछावर करने को आठों याम प्रस्तुत रहते थे, अपने इस प्रेम को जीवन की सबसे बड़ी भूल मानने लगते हैं,इस परिताप की आंच में जलते प्रेमी क्षोभ मिटाने को सामने वाले को अतिनिष्ठुर होकर दंडित करने लगते हैं और एक समय के बाद इस प्रेम पाश से मुक्ति को छटपटाने लगते हैं या फिर एक बार फिर से एक सच्चे प्रेम की खोज में निकल पड़ते हैं. कहाँ है प्रेम,किसे कहें प्रेम ?? इस युगल ने भी तो बादलों की सैर की थी तथा प्रेम के समस्त लक्ष्ण जिए थे और मान लिया था कि उनका यह प्रेम आलौकिक है.

अब एक और पक्ष -

प्रेम स्वतःस्फूर्त घटना है,जो किसे कब कहाँ किससे और कैसे हो जायेगा ,कोई नहीं कह सकता..इसपर किसी का जोर नहीं चलता और न ही यह कोई नियम बंधन मानता है.

अस्तु,

पचहत्तर हजार आबादी वाला एक गाँव, जिसमे पांच महीने में चौदह वर्ष से लेकर पचपन वर्ष तक के छः प्रेमी जोड़े अपना स्वप्निल संसार बसाने समाज के समस्त नियमों के जंजीर खंडित करते घर से भाग गए.यह आंकडा उक्त गाँव के स्थानीय पुलिस थाने में दर्ज हुए जिसे लोगों ने जाना. ऐसे कितने प्रकरण और हुए जिसे परिवार वालों ने लोक लाज के बहाने दबाने छिपाने का प्रयास किया,कहा नहीं जा सकता. इन छः जोड़ों में से तीन जोड़ा था ममेरे चचेरे भाई बहनों का,एक जोड़ा मामा भगिनी का, एक जोड़ा गुरु शिष्या का और एक जोड़ा जीजा साली का. निश्चित रूप से उसी अलौकिक प्रेम ने ही इन्हें कुछ भी सोचने समझने योग्य नहीं छोड़ा.यह केवल स्थान विशेष की घटना नहीं,विकट प्रेम की यह आंधी सब ओर बही हुई है जो अपने वेग से समस्त नैतिक मूल्यों को ध्वस्त करने को प्रतिबद्ध है...

तो फिर प्रेम तो प्रेम होता है,इसमें सही गलत कुछ नहीं होता,मान कर इन घटनाओं को सामाजिक स्वीकृति/मान्यता मिल जानी चाहिए क्या ?? यह यदि आज गंभीरता पूर्वक न विचारा गया तो संभवतः मनुष्य और पशु समाज में भेद करना कठिन हो जायेगा. शहरों महानगरों में गाँवों की तरह सख्त बंदिश नहीं होती और वहां परिवार तथा आस पड़ोस में ही प्रेम के आधार ढूंढ लेने की बाध्यता भी नहीं होती ,इसलिए वहां चचेरे ममेरे भाई बहनों में ही यह आधार नहीं तलाशा जाता..पर एक बार अपने आस पास दृष्टिपात किया जाय..आज जो कुछ यहाँ भी हो रहा है,सहज ही स्वीकार लेना चाहिए??

परंपरा आज की ही नहीं ,बहुत पुरातन है, पर आज बहुचर्चित है..यह है "आनर किलिंग". इसके समर्थक और विरोधी दोनों ही अपना अपना पक्ष लेकर मैदान में जोर शोर से कूद पड़े हैं.पर "आनर किलिंग" के नाम पर न तो डेंगू मच्छरों की तरह पकड़ पकड़ कर प्रेमियों का सफाया करने से समस्या का समाधान मिलेगा और न ही प्रेम को इस प्रकार अँधा मान कर बैठने से सामाजिक मूल्यों के विघटन को रोका जा सकेगा . आज आवश्यकता है व्यक्तिमात्र द्वारा व्यक्तिगत नैतिकता,सामाजिक मूल्यों की सीमा रेखाओं को सुदृढ़ करने की और प्रेम के सच्चे स्वरुप को पहचानने और समझने की.

समग्र रूप में जो प्रेम व्यक्ति के ह्रदय को नभ सा विस्तृत न बनाये,फलदायी सघन उस वृक्ष सा न बनाये जो अपने आस पास सबको फल और शीतल छांह देती है,जो व्यक्ति को सात्विक और उदार न बनाये,उसका नैतिक उत्थान न करे , वह प्रेम नहीं, प्रेम का भ्रम भर है. प्रेम अँधा नहीं होता,बल्कि उसकी तो हज़ार आँखें होती हैं जिनसे वह असंख्य हृदयों का दुःख देख सकता है और उनके सुख के उद्योग में अपना जीवन समर्पित कर सकता है..

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27.9.10

आन बसो हिय मेरे.....

प्रभुजी प्यारे ,

आन बसो हिय मेरे...


साँसों से मैं डगर बुहारूँ,
नैनन जल से पाँव पखारूँ,
चुन चुन भाव के मूंगे मोती,
हार तुझे पहनाऊं ...
हे स्वामी प्यारे,
आन बसो हिय मेरे...


लाख चौरासी योनि भटका,
मानुस तन को ये मन तरसा,
तब ही जीव पाए यह काया ,
जब तूने उसे परसा ...
ओ ठाकुर न्यारे,
ना छोडो कर मेरे....
प्रभुजी प्यारे,
आन बसो हिय मेरे...


तू न बसे जो ह्रदय हमारे,
मोह गर्त से कौन उबारे,
पञ्च व्याधि ले डोरी फंदा,
बैठा सांझ सकारे ...
ओ पालन हारे,
त्रिताप हरो हमारे ....
प्रभुजी प्यारे,
आन बसो हिय मेरे...


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15.9.10

किला फतह

परीक्षा फल तीन महीने बाद निकलने वाला था,सो उसबार वहां गयी तो पूरे ढाई महीने रहने का अवसर मिल गया ... आनंद सर्वत्र पसरा पड़ा था वहां जिसमे हम दिन रात डूबते उतराते रहते थे..आनंद के अजस्र स्रोतों मध्य सर्वाधिक सुखकारी उसका वह साहचर्य सुख ही था जो मेरी ममेरी बहन की सहपाठी सातवीं कक्षा में अध्यनरत छात्रा थी.. प्रतिदिन सुबह विद्यालय जाने से पूर्व वह यहाँ अपनी सखी को संग लेने आया करती थी. पहली बार जब उसपर दृष्टि पड़ी थी तो ठिठक कर रह गयी थी..उसके भोलेपन और अनिद्य सौंदर्य ने ह्रदय को ऐसे बाँधा कि उसके सानिध्य को यह विकल रहने लगा था.. बहन को मैंने मना लिया कि विद्यालय से वापसी में प्रतिदिन उसे वह अपने साथ लेती आये.

दूध में गुलाब की पंखुडियां घोल शायद ईश्वर ने उसे रंग दिया था. हंसती तो रक्ताभ कपोल ह्रदय में उजास भर देते थे.. बड़ी बड़ी विस्तृत आँखें और सघन पलकें बिना काजल लगाये भी कजरारी लगतीं थीं और उसके अधर...उफ़ !!! बात बात पर उसका खिलखिलाना किसी भी मुरझाये मन को तरोताजा करने में समर्थ था. जान बूझ कर मैं उन दोनों को अपने पास बिठा लेती और कभी कहानियां सुना तो कभी चुटकुले उन्हें भरमाती..वे मुग्ध हो अपने मुख मंडल पर प्रसंगोनुकूल भाव बिखेरतीं और मैं विभोर होकर अपने हिस्से का रस लेती..कभी कहीं किसी पटचित्र में राधा रानी की मनोहारी छवि देखी थी, उस बाला में मुझे वही रूप साकार दीखता था.

मेरे उस पूरे प्रवास में यह क्रम कभी बाधित न हुआ था.. वहां से वापसी से हफ्ते भर पहले पता चला कि उसका विवाह सुनिश्चित हो गया है जो कि छठवें ही दिन होनेवाला है...बैठक में उसके दादाजी मेरे नानाजी को न्योतने आये थे..तिलमिलाती हुई मैं उनके सम्मुख पहुँची. हालाँकि तब मेरी भी अवस्था ऐसी न थी कि कोई मुझ किशोरी को गंभीरता से लेता. पर इससे मैं अपने प्रश्न पूछने की अर्हता थोड़े न खोने वाली थी..मैंने जाकर प्रश्न दाग ही दिया..

संभवतः वे स्वयं ही अपना पक्ष रख शान बघारने और मेरे नानाजी को सीख देने के लिए इस प्रश्न की आकांक्षा कर रहे थे, सो अतिउत्साहित हो उन्होंने अपना पक्ष रखा ..." हमारे मैथिल समाज में कन्यादान की परंपरा है..कन्या का अर्थ है ऐसी कन्या, जो सचमुच ही कन्या हो. यदि कन्या अपने मायके में ही बड़ी ही जाती है तो माता पिता नरकगामी होते हैं. समय भले कितना भी बदल गया हो,पर हमारे वंश में आजतक इस परंपरा का खंडन न हुआ है और न होगा...."

अगले छः दिन मैं तिलमिलाती रही और ठान लिया था कि जो हो जाए, किसी स्थिति में नहीं जाउंगी इस विवाह में..पर न जाने कौन सी डोर थी जिसमे आबद्ध सम्मोहित सी अन्य परिवार जनों संग मैं उनके घर की ओर बढ़ चली..जब हम पहुंचे,द्वार पूजा संपन्न हो चुकी थी और अगले रीति की प्रतीक्षा में वर अपने संगी साथियों संग पंडाल में ही विराज मान थे..माथे पर सुशोभित मौर के कारण वर का मुख मंडल तो न दिखा पर उनका पहलवान सा डील डौल मेरी पिंडलियों को कंपकपा गया...वहां हँसी हिलोड़ का माहौल था और गुजरते हुए मेरे कानों में वर के एक संगी का स्वर गया - "देखो, आज जदि किला फतह न किया न...तो फिर......, फिर जीवन भर गुलाम बने रहना ,सो ध्यान रहे......हा हा हा हा....."

पीली साड़ी और आभूषण से सुसज्जित उस गुडिया का मुग्धकारी रूप नैनों को ऐसे मोह गया कि पलकें, कई पल को अपना स्वाभाविक गुण ही भूल गयीं.एकटक स्थिर हो गयीं उसपर जाकर.पर यह अवस्था अधिक देर तक न रह पाई.जैसे ही परिस्थिति का ध्यान आया, आँखें धार बहाने लगीं.उनके घर के निकट ही हमारा घर था, छोटी बहन को नानी को बता देने को कह मैं घर वापस चली आई...

नानी मामी जब वापस आयीं तो वर और वर के घर के गुण बखाने नहीं अघा रही थीं..कई पीढ़ियों से लक्ष्मी जी ने झा जी के घर में स्थायी निवास बना रखा था.पर सरस्वती जी की कृपा दृष्टि उन्हें अबतक न मिली थी.. झा जी ने अपने जीवन में बड़ा प्रयास किया पर दो पीढ़ियों में न तो कोई बाल बच्चा उच्च शिक्षा पा सका न ही चाहकर भी अबतक वे कोई इंजीनियर डाक्टर दामाद दरवाजे पर उतार पाए थे. परन्तु इस बार ईश्वर ने उनकी साध पूरी कर दी थी.. वर के घर केवल लक्ष्मी जी ही नहीं सरस्वती जी भी बसती थीं.वर बिजली विभाग में कनीय अभियंता थे...

उसबार जो ननिहाल से वापस आई तो फिर दो वर्ष बाद ही ममेरे भाई के विवाह के अवसर पर पुनः जाने का सुयोग बना ..प्रणाम पाती, कुशल क्षेम ,भोजन इत्यादि का उद्योग संपन्न हुआ ही था कि छोटी बहन पूछ बैठी...दीदी आपको मेरी वो सखी याद है ?? मिलेंगी उससे ??? मेरा ह्रदय उस स्मृति गंध से आलोड़ित हो गया.तीव्र उत्कंठित हो मैंने उससे आग्रह किया कि बाकी सब बाद में होता रहेगा,पहले तू मुझे उससे मिलवा दे.

यह एक अच्छी परंपरा थी उनमे, कि विवाह भले बाल्यावस्था में हो जाए पर द्विरागमन(गौना) कम से कम तीन, पांच या सात वर्ष बाद ही हुआ करता था.दामाद भले अपने ससुराल आता जाता रहता था,पर कन्या गौने के बाद ही अपने ससुराल जाती थी. अभी उसका गौना नहीं हुआ था इसलिए वह यहीं रह रही थी..लम्बे डग भरते हम उसके घर पहुँच गए.बड़ा परिवार था उनका , कई महिलायें आँगन में विराजित थीं. शिष्टाचार निभाते पैर छूने का अभियान चल पड़ा और इसी क्रम में बच्चे को गोद में लिए मैंने जिसके पैर छुए ,अनायास वहां हंसी की फुहार फूट पडी .. वह भी लपक कर पीछे हट गई. सिर उठाकर देखा तो प्रथम दृष्टया पहचान न पाई..

बहन ने झकझोरा...अरे दी, नहीं पहचाना आपने...इसी से तो मिलने दौड़ी हुई आयीं थीं आप. ध्यान से देखा, तो कलेजा दरक गया. वह जो छवि मन में बसी थी,उसकी क्षीण सी रेखा बची थी वहां. पूरा चेहरा बरौनियों से भरा हुआ. रंग उतरकर गेहूंआ भी नहीं बच गया था. लम्बी अवश्य हो गई थी पर लावण्यता रंचमात्र भी न बची थी उसमे.. कहीं अनजाने में यदि देखती तो किसी हालत में उसे नहीं पहचान पाती मैं..एक और धमाका हुआ...बताया गया कि यह गोद का बालक उसी का कोखजाया है..

किला केवल फतह ही नहीं हुआ था, अपितु उसे पूर्णतः ध्वस्त भी कर दिया गया था.....
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9.9.10

दानवीर राजा बलि !!!

राजा बलि विष्णु के अनन्य उपासक भक्तप्रवर प्रहलाद के पौत्र थे. थे तो राक्षस कुल के , परन्तु परम सात्विक तथा भगवान् विष्णु के परम भक्त थे. सदाचारी राजा सत्कार्य में लीन रह प्रजा का पुत्रवत पालन करते. इनकी दानशीलता जगद्विख्यात थी. इनके द्वार से कोई याचक रिक्तकर कभी न लौटा था. परन्तु कालांतर में इसी बात का राजा बलि को अभिमान हो गया. सर्वविदित है, भक्त का अभिमान प्रभु का भोजन हुआ करता है.तो जैसे भगवान् ने महर्षि नारद का मोह और अहंकार भंग किया था, वैसे ही अपने इस भक्त के चरित्रमार्जन को भी प्रस्तुत हो गए..

एक दिन जब राजा बलि पूजनोपरांत याचकों को दान देने हेतु द्वार से बाहर आये तो उन्होंने क्षत्र तथा कमण्डलु धारण किये बावन उंगली के बाल याचक को देखा. राजन ने सबसे पहले उन्ही से उनके अभीष्ट की जिज्ञासा की और वामन ने उनसे तीन पग भूमि दान में माँगा. राजन आश्चर्यचकित हो गए उन्हें याचक के बुद्धि विवेक पर अपार शंका हुई और उन्होंने सोचा कि हो सकता है याचक अपनी क्षमता से अनभिज्ञ है.अब यह छोटा बालक कितने भी प्रयास से भूमि पर डग भरेगा तो भी कितनी भूमि घेर पायेगा. अतः उसकी सहायतार्थ उन्होंने उनसे आग्रह किया कि इतनी तुच्छ वस्तु मांग वे उन्हें लज्जित न करें.वे चाहें तो कुछ गाँव अथवा राज्य ही मांग लें अन्यथा कुछ बहुमूल्य ऐसा मांगे जिसे देने में भी उन्हें प्रसन्नता हो.पर वामन भी थे कि अड़ गए कि उन्हें चाहिए तो तीन पग भूमि या नहीं तो कुछ नहीं.

हार कर राजन ने उनका प्रस्ताव स्वीकार लिया . पर वामन भी कम न थे..उन्होंने राजन से कहा कि ऐसे ही न लूँगा, पहले आप संकल्प कीजिये और वचन दीजिये कि बाद में आप न मुकरेंगे तभी मैं अपनी इच्छित लूँगा. मामला उलझा देख राजा बलि के गुरु शुक्राचार्य ने जब अपनी दिव्य दृष्टि से देखा तो याचक और उसकी उसकी मंशा सब उनके सम्मुख प्रकट हो गयी..उन्होंने राजा को समझाना प्रारंभ किया कि वे इस वामन की बातों में न आयें ,यह छलिया है उन्हें कहीं का न छोड़ेगा.परन्तु वचनबद्ध राजन कब पीछे हटने वाले थे.

राजन दानी और वामन यजमान बन कुश के आसन पर विराजे और वामन ने अपने कमण्डलु का जल संकल्प के लिए कुश पकडे राजन के कर में डालने का उपक्रम किया.इधर जब शुक्राचार्य ने बात बनती न देखी तो अपने योग बल से वे अतिशूक्ष्म रूप धर कर कमण्डलु की टोंटी में जाकर बैठ गए और जलधार को ही अवरुद्ध कर दिया. उन्हें भय हुआ कि राजन का सब कुछ दान में जब यह वामन ही ले लेगा तो मेरे लिए क्या बचेगा.अतः इस कार्य को बाधित करना अतिआवश्यक था..इधर जल धार अवरुद्ध देख वामन ने अपने कुषाशन से एक कुषा खींचकर टोंटी में डाल कर खरोंच दिया जिससे कि अवरोध दूर हो जाय. कुषा जाकर सीधे शुक्राचार्य की आँख में लगी और रुधिर प्रवाह होने लगा.छटपटाकर शुक्राचार्य जी बाहर निकले और एक आँख वाले काने बनकर रह गए. तभी से यह कहावत चल पड़ी कि दान में जो विघ्न डाले,नजर लगाये, वह काना हो जाता है..

संकल्प पूरा हुआ और राजन ने वामन से कहा कि अब इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में जहाँ की भी भूमि लेना चाहें निःसंकोच ले लें.वामन, अबतक जो बावन उंगली के थे, ने अपना विराट रूप प्रकट किया और एक पग पाताल पर रख धरती होते हुए दूसरे पग से सारा आकाश नाप लिया और तीसरा पग धरने को राजन से स्थान माँगा. राजन सोच में पड़ गए,परन्तु त्वरित गति से उनकी पत्नी ने जो कि परम विदुषी ही नहीं विष्णुभक्त भी थी,ने स्थिति सम्हाली. उसने प्रभु का आशय समझ लिया और राजन को समझाया कि अभी तक तो आपने भौतिक भूमि दान किया है, पंचतत्वों से निर्मित आपका यह शरीर भी तो भूमि सामान ही है जो अभी बच ही रहा है,अब इसे प्रभु को अर्पित कर दें..राजन ने झट अपना शीश प्रभु के सम्मुख नत कर स्वयं को प्रभु को अर्पित कर दिया..

राजन परम भक्त थे ,परन्तु मोह ने उन्हें विभ्रम में डाल दिया था.वे जानते थे कि इस ब्रह्माण्ड के एकाधिकारी प्रभु ही हैं ,पर इस बात को वे व्यवहार और स्मरण में नहीं रख पाए थे.तभी तो वे किसी को भी कुछ यह सोचकर देते थे कि अपनी वस्तु वे दान कर रहे हैं.प्रभु पर उनकी श्रद्धा थी,पर उन्होंने अबतक स्वयं को पूर्ण रूपेण प्रभु को समर्पित नहीं किया था, तभी तो सहज ही अहंकार ने उन्हें ग्रस लिया था. और प्रभु उन्हें पूर्णतः दुर्गुणों से मुक्त कर पवित्र कर देना चाहते थे. प्रभु अपने सच्चे भक्तों की देख भाल ठीक ऐसे ही करते हैं जैसे एक वैद्य अपने रोगी की करता है.प्रभु ने भी अपने इस परम स्नेही भक्त के इस रोग से त्राण के लिए यह स्वांग रचा था.

राजन ने जब स्वयं को निश्छल भाव से प्रभु को समर्पित कर दिया तो भगवान् अति प्रसन्न हुए और उन्होंने राजा बलि से पुरुष्कार स्वरुप इच्छित वर मांगने को कहा. बलि अबतक समझ चुके थे कि प्रभु पर आस्था होते हुए भी चूँकि आजतक उन्होंने उन्हें अपने चित्त का प्रहरी न बनाया था तो सहज ही दुर्गुणों ने उनपर अपना आधिपत्य जमा लिया .तो जबतक इस चित्त के प्रहरी स्वयं विष्णु न होंगे माया से बचे रहना संभव नहीं है. सो उन्होंने प्रभु से आर्त प्रार्थना की कि अब से प्रभु सदैव उनके नयनों के सम्मुख रहें और किसी भी प्रकार के दुर्गुण दोष से उनकी रक्षा ठीक ऐसे ही करें जैसे एक स्वामिभक्त द्वारपाल सतत सजग रह द्वार पर डटे अपने राजा की करता है..

भगवान् तो ऐसे ही सत्पुरुष भक्त से बंध जाते हैं,तो यहाँ तो वे वचन से भी बंधे हुए थे. उन्होंने प्रसन्नता पूर्वक यह अधिभार लिया और पातालपुरी में राजा बलि के राज्य में आठों प्रहर राजा के सम्मुख सशरीर उपस्थित रह उनकी रक्षा करने लगे . इधर वैकुण्ठ से बाहर रहे जब बहुत दिन हो गए तो सभी देवी देवता समेत लक्ष्मी जी अत्यंत चिंतित हो गयीं...सब सोच में पड़े थे कि ऐसा कबतक चलेगा.जैसी स्थिति थी इसमें न भगवान् भक्त को छोड़ सकते थे और भक्त द्वारा स्वेच्छा से उन्हें मुक्त करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता था..तब इस कठिन काल में नारद जी ने माता लक्ष्मी को एक युक्ति बताई. उन्होंने कहा कि एक रक्षा सूत्र लेकर वे राजा बलि के पास अपरिचित रूप में दीन हीन दुखियारी बनकर जाएँ और राजा बलि को भाई बनाकर दान में प्रभु को मांग लायें..

लक्ष्मी जी राजा बलि की दरबार में उपस्थित हुईं और उन्होंने उनसे आग्रह किया कि वे उन्हें भाई बनना चाहती हैं.राजन ने उनका प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया और उनसे रक्षासूत्र बंधवा लिया. रक्षासूत्र बंधवाने के उपरान्त राजन ने लक्ष्मी जी से आग्रह किया कि वे अपनी इच्छित कुछ भी उनसे मांग लें,जबतक वे कुछ उपहार न लेंगी,उन्हें संतोष न मिलेगा..लक्ष्मी जी इसी हेतु तो वहां आयीं थीं. उन्होंने राजन से कहा कि आप मुझे अपनी सबसे प्रिय वस्तु दे दें.. राजन घबडा गए. उन्होंने कहा मेरा सर्वाधिक प्रिय तो मेरा यह प्रहरी है,परन्तु इसे देने से पूर्व तो मैं प्राण त्यागना अधिक पसंद करूँगा.

तब लक्ष्मी जी ने अपना परिचय उन्हें दिया और बताया कि मैं आपके उसी प्रहरी की पत्नी हूँ,जिन्हें आपने इतने दिनों से अपने यहाँ टिका रखा है. अब तो राजा पेशोपेश में पड़ गए..बात हो गई थी कि जिन्हें उन्होंने बहन माना था, उसके सुख सौभाग्य और गृहस्थी की रक्षा करना भी उन्ही का दायित्व था और यदि बहन की देखते तो उन्हें अपने प्राणों से भी प्रिय अपने इष्ट का साथ छोड़ना पड़ता.. पर राजन भक्त संत और दानवीर यूँ ही तो न थे.. उन्होंने अपने स्वार्थ से बहुत ऊपर भगिनी के सुख को माना और प्रभु को मुक्त कर उनके साथ वैकुण्ठ वास की सहमति दे दी ..परन्तु इसके साथ ही उन्होंने लक्ष्मी जी से आग्रह किया कि जब बहन बहनोई उनके घर आ ही गए हैं तो कुछ मास और वहीँ ठहर जाएँ और उन्हें आतिथ्य का सुअवसर दें..

लक्ष्मी जी ने उनका आग्रह मान लिया और श्रावण पूर्णिमा (रक्षाबंधन) से कार्तिक मास की त्रयोदशी तिथि (धनतेरस ) तक विष्णु और लक्ष्मी जी वहीँ पाताल लोक में रजा बलि के यहाँ रहे . धनतेरस के बाद प्रभु जब लौटकर वैकुण्ठ को गए तो अगले दिन पूरे लोक में दीप पर्व मनाया गया. माना जाता है कि प्रत्येक वर्ष रक्षा बंधन से धनतेरस तक विष्णु लक्ष्मी संग राजा बलि के यहाँ रहते हैं और दीपोत्सव का अन्य कई कारणों संग एक कारण यह भी है..


आज भी जब किसी को रक्षा सूत्र बंधा जाता है तो यह मंत्र उच्चारित किया जाता है -

" ॐ एन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबलः
तेन त्वा मनुबधनानि रक्षे माचल माचल
"

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18.8.10

आखिरी ख्वाहिश ....

बरसों तक केवल चैनपुर ही नहीं, आस पास के कई गांवों के मामले भी बिना मियां हबीबुल्लाह अंसारी के सरपंची के निपटता न था. अपनी नेकदिली और शराफत के बदौलत सबके दिलों पर बादशाहत हासिल थी उन्हें.. मियां बीबे के झगडे से लेकर इलाके के बड़े बड़े मसले वे चुटकियों में ऐसे निपटा देते , कि उनकी अक्लमंदी देख लोग दंग रह जाते...लेकिन कहते हैं न पूर्व जन्म के कु और सु कर्म वर्तमान जन्म में इंसान को औलाद के रूप में मिलते हैं.तो शायद यही वजह रही होगी कि निहायत ही शरीफ मियां जी के पिछले सभी जन्मों का हिसाब बराबर करने को अल्लाह मियां ने तीन तीन नालायक औलाद से नवाज दिया...मियां की लाख कोशिशों के बाद भी न तो वे तालीम हासिल कर पाए ,न नेकदिल इंसान बन पाए . अव्वल बढ़ती उम्र के साथ दिन ब दिन लंठई और लुच्चई में खरे होते गए. आये दिन अपने कारनामो से ये बाप की जान छीलते रहते थे..

लोग शिकायत फ़रियाद लेकर आते,पंचयती बैठती,फैसला भी होता,पर उसे मानता कौन.. थक हार कर लोगों ने मियां जी से किनारा कर लिया..न कोई उन्हें अपने मामलों में बुलाता और न ही उनके बेटों की शिकायत लेकर उनके पास जाता.मियां जी के पास जाने से सीधे थाने जाना लोगों को अधिक जंचने लगा. लेकिन इन गुंडे मवालियों ने थानेदार से भी ऐसी सांठ गाँठ कर रखी थी कि वह इन लफंगों की नहीं थाने पहुंचे शिकायतकर्ता पर ही गाज गिराता था...

औलाद की करतूतों ने मियांजी को खुद से नजरें मिलाने लायक भी न छोड़ा था...एक तो अन्दर की टूटन ऊपर से बेवफा बुढ़ापा.आठों पहर दोजख की आग में जलते रहते वे..साठ की उमर पहुँचते पहुँचते जैसे ही रतौंधी ने ग्रसा, कि मौके का फायदा उठा उनकी औलादों ने धोखे से जायदाद के कागजातों पर उनसे दस्तखत करवा,उनका सबकुछ कब्जिया लिया..इसके बाद तो रोटी के दो कौर के लिए कुत्ते से भी बदतर उनकी जिदगी बना दी..

लम्बे समय तक खटियाग्रस्त रहने के बाद, अपना अंत नजदीक जान एक दिन हबीब मियां ने अपने सभी बेटे और बहुओं को ख़ास राज बताने के लिए बुलाया..बेटों को लगा अब्बा शायद किसी गड़े छिपे धन के बारे में बताएँगे...और सचमुच मियांजी ने उन्हें अपने वालिद की तस्वीर के पीछे छिपा कर रखी हुई सौ अशर्फियों का पता दे दिया, लेकिन इससे पहले उन्होंने उनसे करार करवा लिया कि वे उनकी आखिरी ख्वाहिश जरूर पूरी करेंगे..

उनकी यह ख्वाहिश कुछ यूँ थी -

" बचपन में जिस सरकारी स्कूल में उन्होंने अपनी पढ़ाई की थी,उसके आहते में एक आसमान छूता आम का पेड़ था..पेड़ों पर चढ़ने में वे इतने उस्ताद थे कि पेड़ की जिस शाख पर बन्दर भी चढ़ने से पहले तीन बार सोचते थे,पलक झपकते ही वे चढ़ जाते थे और फिर चाहे उसपर डोल पत्ता खेलने की बात हो, या कच्चे पक्के आम तोड़ने की बात, उनसा अव्वल पूरे गाँव में कोई न था..अपने इस उस्तादी के बल पर वे सब के लीडर बने थे और इसी दरख़्त ने उन्हें हरदिल अजीज बनाया था...

तो मियांजी की आखिरी ख्वाहिश यही थी कि जब भी उनका इंतकाल हो , बिना किसी को खबर लगे, रात के नीम अँधेरे में उन्हें उस दरख़्त की सबसे ऊंची शाख (जहाँ तक उनके बच्चे पहुँच सकते हों) पर उनके पैरों में रस्सी बाँध, उन्हें उल्टा लटका कर पूरे चौबीस घंटे के लिए छोड़ दिया जाय..इन दुनिया को छोड़ कर जाने से पहले वे अपने उस अजीज, महबूब, दरख़्त के आगोश से मन भर लिपट लेना चाहते थे.. अगरचे ऐसा न किया गया तो उनकी रूह कभी सुकून न पायेगी,यह दावा था उनका....

और जबतक वे पेड़ पर लटके हों , उनके बच्चे अपने तमाम यार दोस्तों और समधियाने वालों को इकट्ठी कर, उनके दिए इन अशर्फियाँ में से दो अशर्फियाँ खर्च कर,सबको खूब अच्छी सी दावत दें..लेकिन सनद रहे, कि दावत ख़त्म होने तक किसी को यह इल्म न हो कि उनका इंतकाल हो गया है..अपने बच्चों और अजीजों को खाते पीते जश्न मानते देख वे खुशी खुशी जन्नतनशीन हो जायेंगे..."

बड़ी अटपटी सी थी यह ख्वाहिश...पर बेटे बहुओं ने सोचा,चलो जिन्दगी भर तो बुड्ढे की एक बात न रखी..अब इस छोटी सी बात को रख लेने में कोई हर्ज नहीं है..वैसे भी इसकी ख्वाहिश न पूरी की, तो हो सकता है बुढऊ जिन्न बनकर जीना हराम कर दे..सो तय हुआ कि अब्बा हुजूर की यह ख्वाहिश जरूर पूरी की जायेगी...

संयोग से महीने भर के अन्दर हबीब मियां अल्लाह को प्यारे हो गए..ढलती शाम में उनका इंतकाल हुआ था..बेटों ने रात गहराने का इन्तजार किया और तबतक सभी यार दोस्तों को अगली दोपहर के दावत के लिए न्योत आये..और फिर जैसा मियां ने कहा था,वैसा ही कर दिया..अगले दिन दोपहर को उस शानदार दावत में थानेदार, आस पास के इलाके के सभी लफंगे और बहुओं के मायके वालों का जबरदस्त मजमा लगा..

इधर दावत शबाब पर थी और उधर शहर में एस पी के पास गाँव वालों का खाफिला इस शिकायत के साथ पहुंचा हुआ था कि हबीब मियां के तीनो मवाली बेटों ने अपने बाप का खून कर उसे स्कूल के आहते में पेड़ पर लटका दिया है,जिस दरिंदगी मे थानेदार की भी शह है और अब सारे मिल मजलूम बाप के मौत का जलसा मना रहे हैं.बदमाशों से निजात पाने को लालायित कई लोग खुद को इस वाकये के चश्मदीद गवाह भी ठहरा रहे थे..

एस पी को दल बल सहित पहुंचकर कार्यवाई करनी ही पडी..वहां पहुँच एस पी की भी लौटरी खुल गयी..क्योंकि एकसाथ इक्कट्ठे इतने अपराधियों को पकड़ना कोई हंसी थोड़े न था.. इलाके के लगभग सभी नामी गिरामी गुंडे और भ्रष्ट अफसर बैठे ठाले एस पी के हाथ लग गए.

और मियां हबीबुल्लाह अंसारी ... जीते जी जो न्याय नहीं कर पाए ,मरते मरते कर गए थे....

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6.8.10

धन का सदुपयोग ..

अस्त्र सश्त्रों के विषय में मेरी अल्पज्ञता ठीक वैसी ही है ,जैसी मंत्री पद पर आसीन किसी जनसेवक की अपने क्षेत्र की जनसमस्याओं के विषय में हुआ करती है..सो पूर्णतः अनभिज्ञ हूँ कि एक इंसास रायफल का क्रय या विक्रय (चोर बाजार में)मूल्य क्या होता है, परन्तु इतना मैं जानती हूँ कि यदि इंसास रायफल बेचकर साढ़े तीन लाख रुपये मिले और उस पैसे से एक आटा चक्की लगवाई जाय, एक स्कूटी,एक टी वी तथा कुछ अन्य घरेलू उपकरण खरीदने के उपरान्त भी इसमें से एक लाख रुपये बचाकर भविष्य कोष में संरक्षित रख लिया जाय, तो इससे अच्छा निवेश, इससे अच्छी दूरंदेसी तथा इससे अच्छा धन का सदुपयोग और कुछ नहीं हो सकता..

प्रसंग स्पष्ट न हुआ ?? अरे, स्पष्ट होगा भी कैसे ,राहुल डिम्पी में व्यस्त हमारे राष्ट्रीय चैनलों को यह अवकाश कहाँ कि अपना कैमरा इन उल्लेखनीय समाचारों पर भी घुमाएं. प्रकरण यह है कि, विगत कुछ दिनों से थानों से अस्त्र लुप्त होने की घटनाएं हमारे प्रादेशिक समाचार पत्र को शोभायमान कर रहे थे ,जिसमे कि इसके संरक्षकों (पुलिसकर्मियों) की ही संलिप्तता थी.कई दिनों तक अखबार के पांचवें छट्ठे पन्ने पर स्थान पाता हुआ यह समाचार अंततः मुख्यपृष्ठ को प्राप्त हुआ ,जिसमे प्रमाण सहित उधृत था कि अमुक पुलिसकर्मी के नाम आवंटित, अमुक इंसास को, अमुक व्यक्ति ने कोलकाता के, अमुक व्यक्ति को साढ़े तीन लाख में बेचा और प्राप्त उस धन को, अमुक अमुक मद में व्यय किया...

मेरी दृष्टि में महत्वपूर्ण व उल्लेखनीय यह चौरकर्म नहीं , अपितु वह निवेश है, जिसे इतनी दूरदर्शिता व कुशलता से निष्पादित दिया गया है..यह प्राणिमात्र के लिए प्रेरक और अनुकरणीय है...यह, यह भी सिखाता है कि अपने जीवन यापन हेतु केवल सरकार या किसी संस्था विशेष पर आश्रित न रहा जाय बल्कि व्यक्ति अपने पुरुषार्थ के बल पर अपने तथा अपने परिवार का भविष्य निर्मित करे ..और सबसे महवपूर्ण बात यह कि धन चाहे ईमानदारी से कमाया हुआ हो या चोरी चकारी घूसखोरी,बेईमानी से ,अर्जित धन को ऐश मौज ,हँड़िया - दारू में व्यर्थ न गंवाते हुए व्यक्ति भविष्य संवारने में लगाये ...

असाधारण यह प्रसंग यूँ ही ठठ्ठा में उड़ा दिया जाने योग्य नहीं, बहुआयामी चिंतन योग्य भी है...समाचार पत्र ने उक्त व्यक्ति द्वारा क्रयित उपकरणों की जो तालिका प्रस्तुत की है,यह चतुर्थ वर्ग के सरकारी कर्मचारी की करुण आर्थिक स्थिति की बेमिसाल झांकी है...अवकाश प्राप्ति के निकट पहुंचा एक पुलिसकर्मी , इतने वर्षों की चाकरी के उपरान्त भी अपने लिए एक नंबर के पैसे से स्कूटी, टी वी जैसे सामान्य उपकरण भी न खरीद पाए ,तो इससे दुर्भाग्यपूर्ण और क्या हो सकता है...और ऐसे में इस नीरीह जीव से यदि हम अपेक्षा करें कि अपना सर्वस्व न्योछावर करने में तो वह एक पल न लगाये ,पर अपने और अपने संतान के भविष्य के लिए वह किंचित भी चिंतित न हो ,तो यह इनके प्रति अन्याय नहीं तो और क्या है ???

मुझे तो यह नहीं समझ आ रहा कि यह भलामानुष चोर या अपराधी कैसे हुआ..इतने वर्षों में जहाँ झारखण्ड के दिग्गज लालों ने कई कई हज़ार करोड़ की राशि यूँ ही डकार,पचा, अपने तथा अपने पीढ़ियों के लिए स्विस बैंक में संरक्षित रख रखा है, तो उसके सामने सागर जल में से एक बूँद यदि इस झारखंडी लाल ने अपने लिए निकाल लिया तो इसमें हाय तौबा लायक क्या है..इन दिग्गजों के सम्मुख इन निरीहों को चोर कहना इस शब्द तथा कृत्य की घोर अवमानना है . इस महान व्यक्ति को तो गद्दार नहीं ,देशभक्त कहना होगा, जिसने धन से किसी और का घर नहीं भरा बल्कि पूरा का पूरा धन यहीं अपने ही क्षेत्र में,घर के एकदम बगल में ऐसे स्थान में निवेश किया जहाँ आटा,मसाला आदि पिसवाने की भी सुविधा नहीं है..इस तरह एक साथ अपना और अपने आस पास का भला सोचने वाले आज कितने राजनेता हैं...

वैसे भी तो ये अस्त्र शस्त्र नक्सली लूट ही ले जाते और फिर इन्ही के अस्त्रों से इन्हें निपटा डालते...तो अच्छा ही हुआ न कि इन्होने अपने प्राण भी बचाए और इन अस्त्रों को सदगति भी दे दी..अब इन बेचारों को अपराधियों नक्सलियों से भिड़ने, उन्हें मारने की आज्ञा तो है नहीं, क्योंकि उनमे से अधिकाँश या तो सीधे स्वयं ही नेता हैं और बाकी बचे उन नेताओं के सगे संबंधी या लगुए भगुए , तो यूँ ही वर्षों से व्यर्थ पड़े जंग लग रहे अस्त्रों को उपयुक्त हाथों बेच इन्होने पुण्य का काम ही किया है...

रात दिन अपनी तथा इन अस्त्रों की रक्षा करते करते बेचारे पुलिसकर्मियों के प्राण यूँ ही सांसत में फंसे रहते हैं ,ऐसे में स्वयं को तनाव मुक्त रखने का इससे उपयुक्त उपाय और कुछ हो सकता है भला ?? मुझे तो लगता है इस अनुकरणीय कृत्य को प्रत्येक थाने में, प्रत्येक पुलिस कर्मी द्वारा अपनाना चाहिए...बल्कि यही क्यों, अपने पुलिस कर्मियों को समय पर वेतन भत्ते सुविधाएँ दे पाने में अक्षम झारखण्ड सरकार को चाहिए कि अस्त्र शस्त्र सहित पूरा पुलिस बल ही नक्सलियों को इस अनुबंध के साथ आउटसोर्स (हस्तांतरित) कर दे कि सुव्यवस्थित व सुसंगठित ढंग से व्यवस्था चलाने में सिद्धहस्त ये संगठन राज्य तथा पुलिस बल की सुरक्षा करें..अपरोक्ष रूप से नहीं, बल्कि सीधे सीधे प्रत्यक्षतः राज्य व्यवस्था का सञ्चालन करें..

कहने की आवश्यकता नहीं कि पिछले एक दशक से भी कम समय में, जिस प्रकार से इन संगठनों ने अपने आप को सुसंगठित ,सुदृढ़ तथा प्रभावशाली बनाया है,यह इनकी कुशल प्रबंधन क्षमता का प्रत्यक्ष प्रमाण है.इनके हाथों राज्य की बागडोर आते ही निश्चित ही राज्य का बहुमुखी विकाश होगा..राज्य व्यवस्था प्रत्यक्ष इनके हाथों होगी तो , न तो इनके द्वारा न आमजन द्वारा हड़ताल, बंदी या अन्य अव्यवस्था की स्थिति बनेगी. तो ऐसे में निश्चित है कि राज्य का आय बढेगा ही बढेगा.इसमें समग्र रूप से नेता ,जनता तथा संगठन सबका हित होगा...

देखिये कितनी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि दस बीस दर्जन पुलिस कर्मी एक साथ मर जाएँ तो भी सरकार कहती है कि ,इन्हें तो रखा ही गया है भिड़ने मरने के लिए..लेकिन एक नक्सली मारा जाये तो पांच पांच राज्यों की सांस एक साथ इनके एक आवाज पर बंद हो जाती है..संगठन में भरती के लिए न शैक्षणिक योग्यता की आवश्यकता ,न जात पात या आरक्षण की किचकिच, बस दिल में जज्बा हो और हथियार चलाने का हुनर,फिर जीवन और भविष्य सुरक्षित..मरने पर परिवार वालों को कम्पंशेशन पाने का कोई चक्कर नहीं.ऐसे में बस एक इस पार से उसपार जाते ही पुलिसकर्मी कितने सुखी और सुरक्षित हो जायेंगे...

खैर, ये सब बड़ी बड़ी बाते हैं, झारखण्ड सरकार पूरे पुलिस तथा शासन तंत्र को नक्सलियों के हवाले करे न करे या जब करे तब करे, अभी मैं सरकार से निवेदन करना चाहती हूँ कि, इस महत घटना में लिप्त पुलिसकर्मियों को अवश्य ही पुरस्कृत करे दे.. क्योंकि यदि यह न किया गया तो जनमानस को कभी न समझाया जा सकेगा कि धन चाहे इमानदारी का हो या बेईमानी का सदा उसका सदुपयोग ही करना चाहिए...

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30.7.10

महाप्रलय...

युधिष्ठिर द्वारा यक्ष के प्रश्न - किमाश्चर्यम ?? का उत्तर " व्यक्ति प्रतिपल देखता है कि इस संसार में जन्मा व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त हो रहा है,फिर भी व्यक्ति स्वयं के मरण का स्मरण नहीं रख पाता,इससे बड़ा आश्चर्य क्या हो सकता है.." मेरे मस्तिष्क में गहरे उतर जम गया है..सचमुच कितना सटीक कहा था उन्होंने...अपने आस पास सबको मरते देखती हूँ,जानती हूँ कि एक न एक दिन मुझे भी मरना ही है,पर पूरे मन से विश्वास नहीं होता इसपर.सारी दुनिया का मरण कल्पित हो पाता है ,पर अपने अंत की कल्पना बस कल्पना ही लगती है..

ईमानदारी से कहूँ तो मरने से बहुतै डर लगता है भैया. इतना सब कुछ मर मर के जमा किया यहाँ.. और औचक एक दिन टन्न से टाँय बोल जायेंगे सब यहीं छोड़ छाड़ कर...कहाँ जायेंगे,क्या होगा उसके बाद, कुछ पाता नहीं. इसलिए बेहतर है कि इसे भुलाए ही रखा जाय... मुझे तो बड़ी कोफ़्त होती है, यदि कोई बार बार याद दिलाये मरने की बात...इसलिए आजतक किसी इंश्योरेंस वाले को फटकने नहीं दिया, गोया दस मिनट सामने बैठ जाएँ तो पक्का भरोसा दिला देते हैं कि बस अब अगले ही किसी दुर्घटना में मेरा मरना तय है.

वे बाबा लोग जो शरीर और जीवन को व्यर्थ नश्वर सिद्ध करते चलते हैं, इनके चक्कर से भी लम्बी दूरी रखना ही मुझे श्रेयकर लगता है..एक हमारे परिचित हैं,उनके पिताजी ऐसे ही बाबाओं के कुछ महीनों के संगत के बाद शरीर और दुनिया को नश्वर मान अपना सारा कमाया धन बाबाजी के ट्रस्ट के नाम कर, लोटा डोरी लेकर निकल पड़े धाम यात्रा को.फिर कहाँ गए,कोई खोज खबर न मिली उनकी..बेचारे बच्चे उनके संपत्ति के लिए ट्रस्ट के साथ केस में उलझे पड़े हैं कई वर्षों से..इसलिए बाबा...ना बाबा ना...

अब देखिये न , अतिवृष्टि अनावृष्टि ,पानी की कमी,अनाज की कमी, इसकी कमी, उसकी कमी आदि आदि देख देख कर ऐसे ही मन घबराया रहता है,ऊपर से ये पर्यावरण वाले , ग्लोबल वार्मिंग का रट्टा लगाकर दिमाग घुमाए दिए रहते हैं. खतरा तो ऐसे बताते हैं ,जैसे बस कुछ महीनो की ही बात हो..सारा ग्लेशियर पिघला और धरती डूबी..आये दिन डराने और मरण याद दिलाने वाले इन कमबख्तों ने चैन से जीना मुहाल कर दिया है..

अभी कुछ ही महीने पहले की बात है,पखवाड़े तक हमारे महान भारतीय समाचार चैनल चीख चीख कर रात दिन एक किये हुए थे कि बस अमुक तिथि को महाप्रलय आया ही आया..कोई माई का लाल टाल नहीं सकता इसे.संग साथ में ऐसे ऐसे दृश्य दिखा रहे थे, जैसे पिछले प्रलय में इन्होने उसकी रिकोर्डिंग कर रखी हो....हाय !!! जान मुंह को आ जा रहा था सब देख देख कर..वो तो भला हो कि भगवान् ने छंटाक भर दिमाग और तर्क शक्ति दे दी थी, जिसने कि डूबते जान को सहारा देते हुए डपटते हुए कहा...
"अरे बुरबक , ई चैनल वाला लोक का आफिस भी तो इसी धरती पर है न...महापरलय के समय ई सब क्या दूसरे ग्रह पर चले जायेंगे और वहां से सीधा प्रसारण दिखाएँगे ?? अरे ई सब जब इतना आश्वस्त होकर दर्शक से कह रहे हैं कि महापरलय का सीधा परसारण केवल इनके चैनल पर सबसे बढ़िया दिखाया जाएगा, इसलिए कोई और चैनल न देख इनका चैनल देखो ...तो निश्चित ही इनको विश्वास है कि इनको या इनके दर्शकों को कुछ नहीं होने वाला..इसलिए कुछ नहीं होगा ,निश्चिन्त रहो..." ओह !! जान बची..

सनसना सनसना के इतना डराते हैं ये मुए चैनल वाले कि हमने तो छोड़ ही दिया इन माध्यमों से समाचार देखना. अब देश विदेश का समाचार जानने को हम तीन रुपये का प्रादेशिक समाचार पत्र तीन मिनट में पढ़ लेते हैं.तीन मिनट इसलिए कि इससे ज्यादा समय में विस्तार में समाचार पढने से रक्त चाप पर बड़ा ही नकारात्मक प्रभाव पड़ता है और हम नहीं चाहते कि हमारे अस्वस्थता या मरण का कारण ये फालतू के समाचार बने..लेकिन क्या करें ,इनको भी चैनल वाला बीमारी लग गया है... सफलता का फार्मूला इनको भी सनसनी ही लगता है.. आज सुबह समाचार पत्र पढ़ रहे थे कि एक जगह जाकर ध्यान टंग गया..कुछ पश्चिमी वैज्ञानिकों ने फिर से दावा ठोंका है कि , दो हजार बारह में महाप्रलय आएगा ही आएगा..उनका कहना है कि एक बड़ा भारी भरकम विशालकाय ग्रह तेजी से पृथ्वी की ओर दौड़ा भागा चला आ रहा है और जब यह पृथ्वी से टकराएगा तो पृथ्वी दीपावली में फोड़े जाने वाले साउंड बोम्ब की तरह भड़ाम करके फूट लेगी और उक्त ग्रह में समां जायेगी..

..उफ़.... फिर से महाप्रलय !!! ...

लेकिन भैया हम नहीं मानेंगे...बचपन से पूजा आयोजन के समय सुनते आये हैं - कलियुगे प्रथम चरणे, आर्यावर्ते, भरतखंडे, अमुक वासस्थाने, मासोत्तमे अमुक मासे......
मन धीर धरो...निश्चिन्त रहो....अभी कलियुग प्रथम चरण में ही हैं... और जब से हम जन्मे हैं,पहला चरण खिसका नहीं है तनिको..एक एक चरण इतना इतना बड़ा है इसका..ऐसा ऐसा तीन चरण बचा हुआ है अभी..एक एक चरण कई कई हजार साल का..अभी तुरंत फुरंत में कुछ नहीं होने वाला.. अभी तो कितना कुछ बचा हुआ है घटित होने को..जिस जिस बात पर मुंह पर हाथ रखकर लम्बी सांस खींचकर हम कहते हैं .." समय बदल गया भैया, घोर कलयुग आ गया.." , तो अभी तो यह सब कुछ ,सारा पाप बाल्यावस्था में ही है ..अभी तो आगे बढ़ यह किशोर वय, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था,वृद्धावस्था ...सब पार करेगा .. जब सचमुच ही सबकुछ नष्ट भ्रष्ट हो जाएगा..पाप पाप ही नहीं रहेगा,क्योंकि पुण्य नाम का कुछ बचबे नहीं करेगा जो आदमी फरक करे...तब आएगा परलय..

अपने ग्रंथों में वृहत्त व्याख्या है कलियुग के अगले चरणों की और समय के साथ सबका प्रमाण भी उपलब्ध होता जा रहा है...कहा गया, कलयुग के आरम्भ में ही सरस्वती नदी लुप्त हो जायेंगी....हो गया..यमुना जी के सूखने का जो काल बताया गया है,वह भी सत्य होता दीख रहा है और युग के मध्य तक गंगा जी के पृथ्वी छोड़ने की जो बात कही गयी है,देख लीजिये..अविश्वास करने लायक लगता है क्या...

धर्म, समाज,संस्कृति में अभी तो बहुत कुछ बदलना लिखा है..अभी बहुत टाइम है भाई प्रलय होने में..अभी तो इतने सारे जंगल पेड़ पहाड़ बचे हुए हैं.सब को आदमी दोनों हाथों से मन भर काटेगा, तो भी सब ख़तम होने में टाइम लगेगा. भगवान् की बनाई दुनिया का हुलिया जब पूरी तरह आदमी बदल देगा तब न आएगा प्रलय...और तब तक तो हम न जाने और कितना जनम ले लेंगे. लेकिन असली टेंशन तो इसी में है.अभिये दुनिया का हालत देख देख कर मन त्रस्त है, अगले जनम में इससे भी बुरा देखना पड़ा तो कितना कष्ट होगा..इससे तो अच्छा है कि अभिये ,इसी जिन्दगी में परलय आ जाये कि सब कहानी ख़तम हो जाए....और बुरा देखने लायक कुछ न बचे..और जो अगला जनम होवे तो सीधे सतयुग में होवे..

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21.6.10

प्रेम से तुमने देखा जो प्रिय !!!

प्रेम से तुमने देखा जो प्रिय,
मन मयूर उन्मत्त हो गया.

विदित हुआ मुझ में अनुपम सा,
सब कुछ प्रकृति प्रदत्त हो गया.

मन-चातक यूँ तृप्त हुआ ज्यों,
स्वाति का वह नीर पा गया.

जेठ की तपती दोपहरी में ,
वसुधा ने बरसात पा लिया...

रख लो हे प्रिय उर में भरकर,
घुल सांसों संग बहूँ निरंतर.

चाहूँ भी तो ढूंढ न पाऊं,
स्वयं को खो दूँ तुममे रमकर.

न ही चाहना धन वैभव की,
न ही कामना स्वर्ग मोक्ष की.

हृदय तेरे बस ठौर मिले औ,
मुखाग्नि पाऊं तेरे कर...


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9.6.10

शिक्षा और आत्मविकास

कथा कहानियों से मेरा लगाव संभवतः जन्मगत ही था ,जो स्वतः ही मुझे इसके विभिन्न श्रोतों से सदैव ही जोड़ता रहा..कथा संसार में तन्मयता से विचरण कर नित नवीन अनुभव प्राप्त करना और उसे जीवन सन्दर्भ में देखना गुनना मुझे अतिशय प्रिय था. बचपन में नयी कक्षा में जाने के बाद जैसे ही नयी पुस्तकें मुझे मिलती , कक्षा में पढाये जाने की प्रतीक्षा किये बिना मैं उन्हें चाटने बैठ जाया करती. सबसे पहले हिंदी की पुस्तक फिर इतिहास की और जब सब चाट चुकती तो भूगोल आदि की पुस्तकें मैं घोंट जाया करती..इनके साथ पाए रोमांचक अनुभव मुझे असीम तृप्ति दिया करते..

आगे कॉलेज शिक्षा क्रम में भी मैंने साहित्य, इतिहास,समाज शास्त्र तथा राजनीति शास्त्र ही मुख्य विषय रूप में लिया,जो अंतत स्नातकोत्तर में साहित्य के साथ संपन्न हुआ..परन्तु एक बड़ी भारी समस्या थी..इतिहास की पूरी पुस्तक कहानी या उपन्यास की तरह तो मुझे कंटस्थ रहती , पर घटनाक्रमों की तिथियाँ और उलटे पुल्टे नाम मेरे मस्तिष्क से कभी चिपक न पाते.. इसी तरह राजनीति शास्त्र में भी सिद्धान्तकारों की उक्तियों/सिद्धांतों को जो कि लगभग एक से ही हुआ करते थे, उन्हें रटना और शब्द प्रतिशब्द परीक्षा में लिख पाना मुझसे कभी न हो पाया...मुझे लगता, सबने लगभग एक ही बात तो कही,फिर क्या फर्क पड़ता है कि वाक्य में किस शब्द का प्रयोग किया गया...

जहाँ एक ओर सैद्धांतिक (किताबी) तथा व्यावहारिक राजनीति (व्यवहार में राजनीति जिस रूप में है) में मुझे कोई साम्य न दीखता और फलतः इसकी उपयोगिता संदिग्ध दीखती थी वहीँ इतिहास भी मुझे रटने नहीं सीखने की बात लगती थी..मुझे लगता था,हजारों हजारों वर्ष का इतिहास हमें सिर्फ यही तो सिखाता है कि हमें अपने आज को कैसे सुखद बनाना है,क्या करने से बचना है और क्या अवश्य ही करना है..घटनाक्रमों की तिथियों में मगजमारी कर उन्हें रटने से अधिक आवश्यक है दुर्घटनाओं से सीख ले आगे के लिए सतर्क सजग रह जीवन और जगत में खुशहाली के लिए सचेष्ट रहना .वस्तुतः व्यापक रूप में शिक्षा का उद्देश्य मुझे आत्मविकास के अतिरिक्त और कुछ नहीं लगता...

दिनानुदिन शिक्षा का संकुचित होता उद्देश्य मुझे बड़ा ही विछुब्ध करता रहा है और यही समस्त विसंगतियों का भी कारण लगता है. हम चाहे कोई भी विषय ,कितना भी पढ़ जाएँ और विषय पर लाख विशारद्ता हासिल कर लें, नए नए अविष्कार कर लें,एक से बढ़कर एक नवीन कीर्तिमान स्थापित कर लें ,जब तक हम अपना नैतिक विकास नहीं कर लेते,एक सच्चा और अच्छा मनुष्य नहीं बन जाते , क्या हम सुशिक्षित होने का दंभ भर सकते है और सच्चे अर्थों में जीवन में सुख पा सकते हैं ?? आज शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य धनोपार्जन रह गया है और ऐसे में हम कैसे अपेक्षा कर सकते हैं कि व्यक्ति परिवार समाज और देश सुसंस्कृत, सुगठित और शांत रहेगा..

देखिये न, रोज तो नए नए अविष्कार हुए जा रहे हैं, भौतिक सुख सुविधाओं के उपकरणों से घर और बाज़ार अटे पटे पड़े हैं, पर मनुष्य रोज थोडा और अशांत ,थोडा और अकेला, थोडा और भयभीत होता चला जा रहा है. अशांत छटपटाता दिग्भ्रमित मनुष्य कुछ और साधन जुटा उसमे सुख ढूँढने बैठ जाता है.उसे लगता है,फलां सामान यदि वह खरीद ले तो पूरा संतुष्ट हो जायेगा और फिर उस सामान को जुटाने के लिए धन कमाने की होड़ में जुट जाता है..

वय का एक हिस्सा डिग्रियां जुटाने में, दूसरा हिस्सा डिग्रियां भंजा उपकरण जुटाने में और तीसरा हिस्सा भौतिक विलासिता में डूब अबतक क्षरित रोगयुक्त काया को रोगमुक्त करने के प्रयासों में जुट मनुष्य संपन्न करता है ..जीवन जो इस उद्देश्य और महत्वाकांक्षा संग आरम्भ हुआ कि येन केन प्रकारेण अधिकाधिक धन जुटाना है,विलासिता के साधन जुटाना है अंततः अशांति और व्याकुलता ही पाता है. जिसके पास जितना धन वह उतना ही अधिक व्याकुल. संसार का एक मनुष्य नहीं जो यह कहे,नहीं बस इतना ही मुझे चाहिए,इससे अधिक अब एक पैसा नहीं...

ऐसा नहीं है कि आज निचली कक्षा से लेकर ऊपरी कक्षाओं के पाठ्यक्रमो तक में चरित्र निर्माण या नैतिक उत्थान के पाठ्य सामग्री नहीं हैं. सत्य बोलना,आचरण को शुद्ध व्यवस्थित अनुशाषित तथा उद्दात्त रखने वाले पाठ नहीं हैं, पर समस्या यह है कि उन अच्छी बातों को भी इस तरह पढाया जाता है,जिसे बच्चे केवल रटने और परीक्षा में अंक लाने भर की उपयोगिता योग्य समझते हैं.व्यावहारिक रूप में न ही परिवार में अभिभावक अपने बच्चों में यह बैठा पाते हैं कि वे उन्हें शिक्षा इसलिए दिलवा रहे हैं ताकि उनके संस्कार परिष्कृत हों, उनका आत्मोत्थान हो और न ही शैक्षणिक संस्थाओं द्वारा व्यावहारिक रूप से यह प्रयास किया जाता है. आज व्यक्तित्व निर्माण अर्थोपार्जन के सम्मुख पूर्णतः गौण हो चुका है.मुझे तो सदैव ही यही लगता है कि आज जो शिक्षा व्यवस्था है वह मनुष्य नहीं भेड़ों की भीड़ तैयार कर रही है,जिसमे प्राण तो हैं पर चिंतन योग्यता नहीं..

ऐसे समय में मुझे रामायण ,महाभारत भगवतगीता आदि की उपयोगिता, प्रासंगिकता जो कि तेजी से हमारे घरेलू परिवेश आचरण और विश्वास से त्यज्य हुए जा रहे हैं, कुछ अधिक ही लगती है. इन के कथाओं में उल्लिखित पात्र,उनके जीवन चरित्र और परिस्थितियां वस्तुतः कोरे सैद्धांतिक नहीं,बल्कि पूर्णतः व्यवहारिक हैं,जो कि मनुष्यमात्र के विवेक और संस्कार का परिष्करण पुष्टिकरण और मार्गदर्शन करने की क्षमता रखते हैं..जबतक परिवार समाज का आस्तित्व इस धरती पर है,किसी भी धर्म पंथ के अनुयायी समाज के लिए यह प्रासंगिक रहेगा. इनकी शिक्षाओं में आज भी वह शक्ति है जो समाज को दिशा दिखा मनुष्यमात्र का नैतिक उत्थान कर सकती है. यह अलग बात है कि पूर्वाग्रह ग्रस्त हमारी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष सरकार इन से सम्बंधित पुस्तकों को पूर्णतः एक धर्म विशेष की पूजा पाठ संबंधी पुस्तकें ठहरा इन्हें पाठ्यक्रम से बाहर रखना ही श्र्येकर मानती है...

इन परिस्थितियों में गंभीरता से हमें विचार करना होगा कि हमें अपने और अपने संतान के सुख के लिए आत्मोत्थान के इन माध्यमो से जुड़ना ही होगा ,जीवन दृष्टिकोण को वृह्हत्तर करना ही होगा. संतोष और शांति साधन में नही होता बल्कि यह तो मनुष्य के ह्रदय में ही अवस्थित होता है,बस शाश्वत चिंतन द्वारा इस शक्ति को जागृत कर पाया जा सकता है..



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17.5.10

उन्माद सुख ....

अपने जन्मजात संस्कार और अभिरुचियों के अतिरिक्त अपने परिवेश में जीवन भर व्यक्ति जो देखता सुनता और समझता है उसीके अनुरूप किसी भी चीज के प्रति उसकी रूचि- अरुचि विकसित होती है..बचपन से ही नशेड़ियों को जिन अवस्थाओं में और व्यवहार के साथ मैंने देखा , इसके प्रति मेरे मन में इतनी घृणा और वितृष्णा भर गयी थी कि मैं मान न पाती थी कि कोई नशेडी सज्जन भी हो सकता है. यह घृणा वर्षों तक मन को घेरे रही, पर कालांतर में मुझे इस उन्माद में भी एक बड़ी अच्छी बात दिखी . मुझे लगा नशा, नशेड़ी का भले लाख अहित करे पर जब किसी को जानना समझना और उसके प्रति अपनी धारणा स्थिर करनी हो, तो यह बड़े काम की हुआ करती है.क्योंकि और कुछ हो न हो उन्माद/नशा व्यक्ति को हद दर्जे का ईमानदार अवश्य बना देती है...

एक बार व्यक्ति टुन्नावस्था को प्राप्त हुआ नहीं कि देख लीजिये, अपने सारे मुखौटे अपने हाथ नोचकर वह अपने वास्तविक स्वरुप में आपके सामने उपस्थित हो जायेगा.फिर जी भरकर उसे देखिये परखिये और अपना अभिमत स्थिर कीजिये . मन के सबसे निचले खोह में यत्न पूर्वक संरक्षित दु - सु वृत्तियों ,भावों और स्वार्थों को एकदम प्लेट में सजा वह आपको सादर समर्पित कर देगा फिर आश्वस्त होकर निश्चित कीजिये की सामने वाले को कितना महत्त्व तथा अपने जीवन में स्थान देना है..

यह विभ्रम न पालें कि सामने वाला यदि गलियां दे रहा है तो दोष उस नशीले पदार्थ का है.वस्तुतः यह तो उसकी स्वाभाविक अंतर्वृत्तियां हैं,जिसपर से जैसे ही बुद्धि का नियंत्रण शिथिल पड़ा नहीं कि मन मनमौजी बन बैठा... इस परम पावन टुन्नावस्था में सभी लोग गलियां ही नहीं देते जहाँ कुछ लोग अत्यधिक भावुक हो जाते हैं, कुछ आक्रोशित , तो कुछ एकदम सुस्त पस्त हो जातें है और कई तो कवि शायर तक हो जाते हैं...अपने यहाँ कई महान गायक ऐसे हैं जो बिना मद्यपान के उत्कृष्ट प्रदर्शन ही नहीं कर पाते....
वो अमिताभ बच्चन जी ने जो परम दार्शनिक अविस्मरनीय अमृतवाणी कही थी इस सन्दर्भ में, वह यूँ ही नहीं कही थी..." नशा शराब में होता तो नाचती बोतल...."

तो बात तय रही कि जब व्यक्ति उन्मादित हो तो सरलता पूर्वक मुखौटे के पीछे के व्यक्ति को देखा परखा जा सकता है...सो जो नशा नहीं करते और इससे घृणा करते हैं,इस आधार पर इसे कल्याणकारी मान सकते हैं.. वैसे नशा केवल शराब गांजा भांग अफीम इत्यादि इत्यादि अवयवों का ही नहीं होता ,बल्कि कुछ उन्माद / नशा तो ऐसे होते हैं कि इनके आगे बड़े से बड़े ड्रग्स भी पानी भरते हैं. खाने पीने वाले अवयवों से उन्माद तो इनके सेवनोपरान्त ही चढ़ता है, जो कुछ समयोपरांत स्वतः ही उतर जाता है, पर " अहंकार " का मद तो ऐसा मद है जो व्यक्ति को आभास भी नहीं हो पाता कि कब यह सर चढ़ कर कुण्डली मार बैठ गया और से ऐसे ऐसे कार्य करवाने लगा जो उसके पतन को सुनिश्चित किये चला जा रहा है. अब चाहे यह धन ,बल ,बुद्धि, समृद्धि, पद ,रूप या इस प्रकार के किसी भी गुण का अहंकार उन्माद हो...

यूँ सन्मार्ग पर चलने का, परोपकार करने का या अच्छे काम करने का नशा भी कई लोगों को होता है और जिन लोगों को यह नशा होता है ऐसे ही लोग दुनियां को दिशा देते हैं,मानवता को सिद्ध और सार्थक करते हैं,पर यह नशा जरा दुर्लभ है. तनिक ध्यान देकर दोनों प्रकार के उन्माद का अंतर समझना होगा. सात्विक उन्मादी निश्चित ही विशाल हृदयी ,विनयशील ,परदुखकातर होते हैं , उनके समस्त प्रयास कल्याणकारी होते हैं. सत्य, धर्म के रक्षार्थ सहज ही प्राणोत्सर्ग को ये तत्पर रहते हैं. करुणा क्षमा ममत्व इनके स्थायी गुण होते हैं,इनकी सोच समझ चिंतन,सब सात्विक और विराट हुआ करते हैं और इसके ठीक विपरीत अभिमानी अपने सुख संतोष और तुष्टि हित ही समस्त उद्यम करते हैं , किसी को अपमानित प्रताड़ित कर ये परमसुख पाते हैं... और तो और यदि कोई इनका अहित करे ,कहीं इनका अहम् आहत हो तो किसीके प्राण लेने में भी ये पल को नहीं झिझकते ..

बड़ी विडंबना है...नाम यश पद प्रतिष्ठा सुख एकत्रित करने को, हर प्रकार से बड़ा होने को, जो व्यक्ति प्रतिपल सजग सचेष्ट रहता है,वह स्मरण नहीं रख पाता कि यदि उसे बड़ा होना है ,मान पाना है, तो सचमुच ही बड़ा बनना पड़ेगा, संकीर्ण ह्रदय,छोटी सोच का रह वह कभी बड़ा नहीं हो सकता. कितना भी कुशल अभिनेता क्यों न हो, मुखौटा लगा, कुछ समय के लिए व्यक्ति नाम,मान, यश, प्रतिष्ठा यदि कमा भी ले, तो उसे चिरस्थायी नहीं रख सकता. कोई न कोई पल ऐसा आएगा जब अभिमान मद में चूर हो व्यक्ति चूकेगा ही और सारी पोल पट्टी खुलते क्षण न लगेगा ...

अंगुलिमाल जब गंडासा ले भगवान् बुद्ध की हत्या करने को उद्धत हो उनके सामने आ खड़ा हो गया तो भी भगवान् बुद्ध की जो स्थायी प्रवृत्ति क्षमा दया करुणा और शांति थी,वही बनी रही और उनके इसी गुण ने, उनके विराट व्यक्तित्व ने, अंगुलिमाल को भी हत्यारे से योगी बना दिया. यह होता है सात्विक स्वरुप और उसका असर . यह कहकर हथियार रखा जा सकता है कि ये सब बड़ी बड़ी बातें हैं, हम साधारण जन भगवान् बुद्ध थोड़े न बन सकते हैं,पर भाई एक बार अपने ह्रदय को टटोल कर देखें, यदि यह अवसर मिले कि मन भर मान सम्मान,पद प्रतिष्ठा की मात्रा बटोर लेने का अवसर मिले , तो अपने रूचि के क्षेत्र में भगवान् बुद्ध सा सफल, सिद्ध, प्रसिद्द और पूज्य कौन नहीं होना चाहेगा ?

तुलसी दास जी ने कहा है- " कुमति सुमति सबके उर रहहीं..." सभी धर्मों, सम्प्रदायों, पंथों ने स्वीकारा है कि मनुष्य के भीतर देव और दानव दोनों ही बसते हैं, बस बात है कि किसे किसने अपने वश में कर रखा है..दानव देव के वश में होगा तो मनुष्य देवतुल्य हो जायेगा और देव दानव के वश में होगा तो मनुष्य असुर सम होगा. महाभारत के महा संग्राम में रथ पर बैठे अर्जुन और सारथि बने कृष्ण कितना कुछ सिखा जाते हैं.... जबतक व्यक्ति स्वयं को अपनी वृत्तियों को इस प्रकार निबंधित न करेगा ,वह जीवन संग्राम नहीं जीत सकता.इस रथ में जुटे घोड़े वस्तुतः काम क्रोध लोभ मोह और अहंकार रूपी स्वेच्छाचारी घोड़े हैं जो सदैव ही मनुष्य को तीव्र वेग से अपनी अपनी दिशा में भगा ले जाने को उद्धत रहते हैं..परन्तु एक बार जब इनकी लगाम व्यक्ति कुशल सारथी ईश्वर (विवेक) के हाथों सौंप देता है, अभ्यास द्वारा बल(अर्जुन के रथ पर विराजमान हनुमान जी ) को साध निष्काम कर्म को तत्पर और समर्पित होता है, जीवन संग्राम में धर्ममार्ग से क्षण को भी विलगित नहीं होता है , तो फिर साधन साथ हो न हो,विजयश्री उसे मिलती ही है...

दुनिया में इतने सारे लोग जो इस प्रकार विभिन्न व्यसनों में लिप्त हैं, उन्मादित होने को लालायित रहते हैं , ऐसा नहीं है कि प्रमाद /नशा में कोई सुख नहीं. सुख है, और बहुत बहुत सुख है.सुख है तभी तो लोग इसकी ओर इस तरह भागते हैं...पर तय यह करना होगा कि कौन सा सुख किस कीमत पर लेना है.दुनियां में मुफ्त कुछ भी नहीं होता, हर सुख की कोई न कोई कीमत होती है, बस चयन में जो चपलता, बुद्धिमानी दिखायेगा ,वही जय या पराजय पायेगा...


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7.4.10

खुजली का सुख

मनुष्य शरीर में व्यापने वाले असंख्य व्याधियों में ऐसी कोई व्याधि नहीं जो कष्टकर न हो...परन्तु " खुजली " एक ऐसी व्याधि है जो भले त्वचा को लाख घात पहुंचाए, पर खुजाने के सुख आनंद और तृप्ति का वह भली प्रकार कह सकता है जो कभी भी इस व्याधि के चपेट में आ चुका हो और खुजाने का सुख पा चुका हो....सोचिये न ,कहीं किसी ऐसे स्थान और स्थिति में जहाँ चहुँ ओर से हम वरिष्ठ जनों से घिरे हुए हों और उसी पल शरीर के नितांत वर्ज्य प्रदेश में जोर की खजुआहट मचे.. शिष्टाचार का तकाजा, हम खुलकर खजुआ ही नहीं सकते...कैसी कष्टप्रद स्थिति बनती है, कितनी कसमसाहट होती है...घोर खुजलीकारक उस क्षण में यदि मन भर खुजलाने का सुअवसर मिल जाए तो वह सुख बड़े बड़े सुखो को नगण्य ठहराने लायक हो जाती है.




खुजली एक ऐसा रोग है, जितना खुजाओ, त्वचा जितनी ही छिले जले , आनंद उतना ही बढ़ता चला जाता है...खुजाते समय इस बात का किंचित भी भान कहाँ रहता है कि चमड़ी की क्या गत बन रही है..परन्तु क्या खुजली का निराकरण खुजलाना है ???

नहीं !!!

बल्कि समय रहते यदि इसका उपचार न कराया गया तो कभी कभी त्वचा पर पड़ा दाग जीवन भर के लिए अमिट बनकर रह जाता है या फिर कई अन्य असाध्य रोग का कारण भी बन जाता है.....



अब आगे,

क्या खुजली केवल एक बाह्य शारीरिक रोग है,जो शरीर के त्वचा में ही हुआ करती है????

नहीं !!!

खुजली का प्रभावक्षेत्र केवल शरीर नहीं...मन भी है. शारीरिक खुजली के विषय में तो हम सभी जानते हैं,चलिए आज हम मानसिक खुजली को जाने,जो कि त्वचा के रोग से कई लाख गुना अधिक गंभीर और अहितकारी है.. शारीरिक खुजली तो कतिपय औषधियों द्वारा मिटाई भी जा सकती है, परन्तु मानसिक खुजली के निराकरण हेतु तो बाह्य रूप में खा सकने वाली कोई गोली या सिरप अभी तक बनी ही नहीं है..



अब यह मानसिक खुजली है क्या ??

"जीवन में घटित दुखद कष्टदायक घटनाओं की स्मृति को वर्षों तक स्मृति पटल पर संरक्षित और पोषित रखना ही मानसिक खुजली है".

जिस प्रकार शारीरिक खुजली त्वचा को घात पहुंचाते हुए भी सुखकारी लगती है,ठीक वैसे ही यह मानसिक खुजली भी मन मस्तिष्क को क्षत विक्षत करते संतोषकारी लगती है...

सचेत रहें ,देखते रहें , जब भी हमारी प्रवृत्ति इस प्रकार की बनने लगे कि हम अपने जीवन में घटित दुर्घटनाओं को, दुखद स्मृतियों को बारम्बार दुहराने लगे हैं, नित्यप्रति उनका स्मरण करने और दुखी होने को सामान्य दिनचर्या का अंग बनाते जा रहे हैं, तो निश्चित मानिए कि हम उस गंभीर असाध्य रोग से ग्रसित हो रहे हैं..यह रोग आगे बढ़ते हुए दीमक की भांति मनुष्य के अंतस को खोखला करता जीवन दृष्टिकोण ही नकारात्मक करने लगता है और इसके चपेट में आया मनुष्य इसका आभास भी नहीं कर पाता..



इस व्याधि संग हमें दुखी रहने का व्यसन लग जाता है.. हम दुखी रहने में ही सुख पाने लगते हैं.. अवस्था यहाँ तक पहुँच जाती है कि यदि कभी कोई दिन ऐसा बीता कि दुखद स्मृतियों को दुहराया नहीं,तो और दुखी हो जाते हैं और फिर यह जीवन जगत सब निस्सार अर्थ हीन लगने लगता है..हमारे सम्मुख लाख सुख आकर क्यों न बिछ जाँय हम हर्षित नहीं हो पाते और यही नहीं हमारे आस पास हमारा नितांत ही आत्मीय भी यदि प्रसन्न हो तो हम यथासंभव प्रयास करेंगे कि वह हमारे दुःख के कुएं में आ उसमे डूब जाय और ऐसा न हुआ तो अपने उस आत्मीय की प्रसन्नता से ही चिढ होने लगेगी...



मन और मष्तिष्क यदि निरंतर ही दुखद ( नकारात्मक ) स्थिति में पड़ा रहे, तो न केवल हमारे संरचनात्मक सामर्थ्य का ह्रास होता है अपितु यह तीव्रता से शरीर को भी रोग ग्रस्त कर देता है..स्वाभाविक ही तो है,शरीर का नियंत्रक मन मष्तिष्क ही जब स्वस्थ न रहे,तो हम कैसे अपेक्षा कर सकते हैं कि मनन चिंतन सोच कार्य व्यवहार सब स्वस्थ और सकारात्मक हो ....



अब विचार रोग के स्रोतों पर :-

अन्न जल के रूप में जो भोज्य पदार्थ हम ग्रहण करते हैं वह शारीरिक सञ्चालन हेतु भले यथेष्ट हो ,पर मनुष्य को इतना ही तो नहीं चाहिए, उसे मानसिक आहार भी चाहिए.यद्यपि ग्रहण की गयी अन्न जल वायु रूपी आहार भी मनोवस्था पर प्रभाव डालती है,पर इसके अतिरिक्त विभिन्न दृश्य श्रव्य माध्यमो से तथा मनन चिंतन द्वारा नित्यप्रति जो हम ग्रहण करते हैं,वह आहार मुख्य रूप से हमारे मानसिक स्वस्थ्य को प्रभावित और नियंत्रित करता है.. और जैसे दूषित भोजन शारीरिक अस्वस्थता का कारण होता है,वैसे ही विभिन्न दृश्य श्रव्य माध्यमों से ग्रहण की गयी दूषित/नकारात्मक सोच विचार हमारे मानसिक अस्वस्थता का हेतु बनती है...



विडंबना है कि दिनानुदिन जटिल होते जीवन चक्र के मध्य जितनी मात्रा में हमारे मानसिक सामर्थ्य का ह्रास/खपत हो रहा है, उतनी मात्रा में न तो पौष्टिक शारीरिक आहार जुटा पाने में हम सक्षम हो पा रहे हैं और न ही स्वस्थ मानसिक आहार..आज तनाव ग्रस्त मष्तिष्क जब मनोरंजन के माध्यम से विश्राम चाहता है, तो मनोरंजन के साधन रूप में उसे सबसे सुगम साधन टी वी के रूप में ही मिलता है. और देखिये न, मन मष्तिस्क और नयनों को चुंधियाते इस चमकीले माध्यम ने ,जो अहर्निश नकारात्मक पात्र कथाएं परोस परोस कर, षड़यंत्र ,अश्लीलता और सनसनी दिखा दिखाकर लोगों को क्या खुराक दे रहा है..बड़े आराम से यह मानव मन मस्तिष्क का प्रेम पूर्वक भक्षण कर रहा है. यद्यपि ऐसा नहीं है कि इससे नियमित जुड़े रहने वाले भी यह सब देख खीझते नहीं हैं,पर इनमे स्थित रहस्य रोमांच इन्हें इनसे दूर नहीं होने देता और फलतः सब जानते समझते भी इस से जुड़े रहते हैं..अपनी हानि देख सह भी उसी से जुड़े रहना, यह मानसिक खुजली नहीं तो और क्या है ??



पठन पाठन, बागवानी,समाज सेवा ,विभिन्न कला माध्यम, इत्यादि अनेक रचनात्मक कार्य जो व्यक्ति में असीमित सकारात्मक उर्जा भर सकते हैं...पर आज कितने लोग रह गए हैं जो इन श्रोतों के साथ जुड़े हुए सुख संतोष पाने को प्रयासरत हैं ?? भौतिक सुख सुविधायों के साधनों की आज कैसी बाढ़ सी आई हुई है,पर जितनी तीव्रता से इनकी भरमार हो रही है, उससे दुगुनी तीव्रता से मानवमात्र में मानसिक अवसाद भी बढ़ रहा है,मनोरोग बढ़ रहें हैं, आत्महत्याएं बढ़ रही हैं, सम्बन्ध आत्मीयता सहनशीलता धैर्य सब ध्वस्त हुए जा रहे हैं,परिवार ,समाज और देश टूट रहा है..यह सब टूट इसलिए रहा है क्योंकि इसकी प्रथम इकाई मनुष्य रोज स्वस्थ मानसिक आहार के आभाव में अन्दर से टूट रहा है..



इस त्रासद अवस्था में गंभीर रूप से आत्मावलोकन तथा शारीरिक मानसिक स्वस्थ्य के प्रति यथेष्ट सचेष्ट रहने की आवश्यकता है.नहीं तो हमारा सुखी रहने का ध्येय कभी पूर्णता न पायेगा.. व्यापक रूप में हमें अपने जीवन दृष्टिकोण को भी निश्चित रूप से बदलना पड़ेगा...हमारा वश अपने भाग्य पर, अपने जीवन में घटित घटनाओं पर भले न हो ,पर हमारा वश इसपर अवश्य है कि हम उन घटनाओं को किस रूप में देखें..इस संसार का एक भी मनुष्य यह दावा नहीं कर सकता कि उसके जीवन में सुखद कुछ भी न घटा है...तो हमें करना यही होगा कि दुखद स्मृतियाँ जो घट चुकी हैं,बीत चुकी हैं,उन्हें बीत जाने दें,मुट्ठी में भींच कर ,ह्रदय से लगाकर सदा उन्हें जीवित पोषित न रखें और इसके विपरीत सुखद स्मृतियों को सदा ही जिलाएँ रखें,नित्यप्रति उसे दुहराते रहें...जब हम अपने सुखद स्मृतियों की तालिका को दुहराते रहने की प्रवृत्ति बना लेंगे, न केवल दुखद परिस्थितियों के धैर्यपूर्वक सामना करने की अपरिमित क्षमता पाएंगे बल्कि हमारी प्रसन्न और प्रत्येक परिस्थिति में सहज, धैर्यवान रहने की जीवन दृष्टियुक्त सकारात्मक सोच, कईयों के जीवन में सुख और सकारात्मकता बिखेरने का निमित्त बनेगी...



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16.3.10

आ'रक्षण - रक्षण किसका ??

नेताजी बहुतै खिसियाये हुए हैं.आजकल जहाँ देखिये वहां चैनल सब पर चमक रहे हैं और सबको चमका रहे हैं...एलान किये हैं कि उनका लाश पर महिला आरक्षण बिल पास होगा.....नेताजी फरमाते हैं .....वे महिलाओं के खिलाफ नहीं हैं, बल्कि वो तो इतना चाहते हैं कि महिला आरक्षण का लाभ पढी लिखी फ़र फ़र उडती फिरती परकटी बलकटी उन महिलाओं को नहीं ,बल्कि यह उन महिलाओं को मिले, जो नरेगा के अंतर्गत बोझा ढ़ोने का काम करती हैं,जो अल्पसंख्यक समाज से आती हैं,जो अत्यंत पिछड़े वर्ग से आती हैं..संसद में जा राज्य व्यवस्था चलाने का अधिकार उन महिलाओं को मिलना चाहिए जो शिक्षा से वंचित हैं,पारिवारिक सामाजिक अधिकार से वंचित हैं..


देखिये तो,कितना पवित्र बात करते हैं नेताजी , कितना बड़ा ह्रदय है उन का..जो लोग मंत्री जी को घाघ और महिला विरोधी सिद्ध करते उनकी कथनी करनी में भेद बताते हैं,वे यह भूल जाते हैं कि यदि नेताजी महिलाओं के खिलाफ होते तो एक गोबर थपनी, अंगूठा छाप को मुख्यमंती बनाते..भाई बहुत हुआ , बहुत दिन राज कर लिया पढ़े लिखों ने अब तो अवसर उन्हें मिलना चाहिए जिनका कलम किताब से कोई वास्ता न हो..


नेताजी महान समाजवादी हैं...वे समाज में ऊंच नीच का भेद समाप्त करने में नहीं,बल्कि सभी नीच को ऊंच बना देने और सभी ऊंच को नीच बना देने में विश्वास करते हैं..और हाँ,नीच और ऊंच का पैमाना है जाति और धर्म..नेताजी कहते हैं राजनीति खून बनकर उनके नस नस में बहती है..उनके बाप दादा चप्पलो नहीं पहनते थे...पर देखिये तो, ऊ अपना कैसा मकाम बनाये हैं (....कि उनका कम से कम अगला सात पीढी कुछो नहीं कमाएगा तो भी जमीन पर बिना पाऊं रखे जीवन बिता सकता है,एकदम राजशाही अंदाज में...) एहिसे सब लोग उनसे जलता है और उनका बदनाम करने का हर घड़ी साजिश रचता रहता है..


हम तो भाई लोहा मान लिए इनका और इनके जैसे जैसों का..राजनीति सही माने से ये ही लोग सीखे हैं और कर रहे हैं...किसी भी देश में एकछत्र शासन जमाये रखने और चलाने के लिए जो सबसे सफल टोटका काम में आता है,ऊ एहई है....जितना फूट डालोगे जितना आमजन को भरमाओगे, ओतना सुखी और समृद्ध रहोगे..


महिला आरक्षण वाला ई केस में नेताजी को मालूम है, जदी इनका ई गोटी चल गया तो दू तीन झक्कास ऑप्शन खुलेगा...सबसे प्रबल सम्भावना तो इसीका बनेगा कि महिला आरक्षण का ई बिले पास नहीं हो,जैसे एतना साल से लटका हुआ है ...खुदा न खास्ता, पास होइयो गया तो उसमे इतना इतना पेंच होगा कि देश और महिलाओं को अगला दो टर्म उसे समझने में ही लग जायेगा और तबतक तो नेताजी का नैया शुभ शुभ करके पार हो लेगा.....और तीसरा सबसे बड़ा सफलता ई होगा कि संसद में स्थान, महिला हो कि पुरुष, केवल अनपढ़ ,लंठ लठैत लोग के लिए बचेगा.अपना दादागिरी सदा सर्वदा के लिए कायम रखने को ई बड़ा आवश्यक है.


सब भाई बहिनी लोग कभी जाति के नाम पर,कभी भाषा और छेत्रवादिता के नाम पर और कभी धर्म के नाम पर सिर फुटौअल करते रहें,ये माई बाप लोग देश के बाहरी भीतरी लंठों / आतंकियों की सेनाओं को पोसते रहें और अंततः दिहाड़ी कमाने वालों से लेकर बड़े बड़े औद्योगिक घराने तक खाने पीने सूंघने की चीजों से लेकर उपयोग की हर वस्तु पर टैक्स अदा कर कर के इनके स्विस बैंक को आबाद करने के लिए पिसते रहें...हो गयी राजनीति...हम भी खुश कि हम सबसे बड़े प्रजातान्त्रिक राष्ट्र में रहते हैं और ये भी मस्त कि ये इतने बड़े जनतंत्र को चलाते हैं...


चलिए हम सब मिलकर इनकी हाथों को और मजबूत बना दें ताकि देश में बस एक ही योग्यता चले कि हम आप जन्मे किस जाति में हैं या कौन देवी देवता को पूजते हैं...तो क्या हुआ यदि किसीने कलम कागज़ घिस घिस कर अस्सी,पचासी,नब्बे प्रतिशत अंक अर्जित किया है....यदि आप निम्न जाति के नहीं, अल्पसंख्यक(??) नहीं, तो भाई आपके लिए नौकरी के नाम पर मैकडोनाल्ड,पिज्जा हट , कॉल सेंटरों या कोर्पोरेट हाउसों में काम है (...अभी हाल फिलहाल के लिए तो बस ये ऐसे कुछ राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय संस्थान हैं, जहाँ आरक्षनासुर पहुंचा नहीं है)...


आज हमारे माननीय नेतागण चित्त में पूर्णतः धंसा चुके हैं कि देश/प्रशासन को चलाने के लिए प्रतिभा की नहीं, बल्कि जातिगत योग्यता की आवश्यकता है.सवर्ण यदि पंचानवे प्रतिशत अंक भी लाता है तो उसमे कुशल प्रबंधन की वह योग्यता, प्रतिभा नहीं होगी जो चालीस पैंतालीस प्रतिशत अंक लाने वाले पिछड़े,अल्पसंख्यक इत्यादि जातिवालों में होगी..और जहांतक पंचायत से लेकर विधान सभा, लोकसभा या राज्यसभा इत्यादि में जा देश/ प्रशासन के कुशल प्रबंधन की बात है,उसके लिए न तो किसी भी प्रकार के शैक्षणिक योग्यता की आवश्यकता है और न ही पूर्वानुभव की..अपने देश में राजनीति एकमात्र रोजगार है जिसके लिए न किसी परीक्षा में उतीर्ण होने की, न कार्य/प्रभाग के विशेषज्ञता की या पूर्वानुभव की आवश्यकता है...बल्कि अधिकांशतः तथाकथित गरीबों के मसीहा,जमीनी नेताओं को विश्वास है कि एक अशिक्षित महिला/पुरुष जितनी कुशलता से राज काज चला सकता है,उतना पढ़ा लिखा तो कदापि नहीं..


बड़ा जी कर रहा है कि पूछूं ...नेताजी यदि महिलाओं के लिए सीट आरक्षित हो भी जाती है तो क्या उसमे ऐसा कोई प्रावधान होगा क्या, कि गाँव शहर से पढी लिखी काबिल महिलाओं को खोज खोज कर आप लायेंगे और उन्हें संसद तक पहुंचाएंगे ??? अरे भाई, डरते काहे को हैं,आज अपने देश में जितने भी राजनितिक दल हैं,कुछेक अपवादों को छोड़ लगभग सबके सब तो दलविशेष के शीर्ष "नेता एंड फेमिली" के ही हैं और "राजा/रानी एंड संस" के तर्ज पर ही पीढी दर पीढी चल रहे हैं, तो भाई आप जिसे अपनी पार्टी का टिकट देंगे वही तो चुनाव में खड़ा होगा न ??? तो भाई ,आप अपने और अपने परिवार वालों तथा लग्गू भग्गुओं की पत्नी ,बहु बेटियों को ही टिकट दीजियेगा.....और हाँ यदि आपको यह लगता है कि पढ़ी लिखी महिला केवल रबर स्टंप न रह कुर्सी चुभुक कर धर अपना कब्ज़ा जमा सकती है, तो थोडा मेहनत कीजिये,परिवार से ऐसी महिला को चुनिए जो एकदम ठप्पा हो...


अरे.... अरे ,ई मति समझिये कि हम "आ-रक्षण" के विरिधी हैं...हम कद्दू आम जन तो बस एही आकांक्षा रखते हैं कि समाज में दबे कुचले वंचित प्रत्येक जन का रक्षण शासन प्रशासन करे...पर भाई, ऐसे नहीं,जैसे आज आप लोग कर रहे हैं....तनिक आँख खोलकर चारों ओर देखिये...आज अमीरी गरीबी जातिगत नहीं रह गया है, गरीबी किसीको भी जाति के आधार पर नहीं बख्सता....तो सरकार, तनिक रहम कीजिये, साधनहीन को साधन दीजिये,खाने-पीने, पढने-लिखने, स्वस्थ रहने और जीने का सामान अधिकार और सुविधा , प्रत्येक देशवासी को बिना जात-पात, धर्म, भाषा, क्षेत्र का भेद किये दीजिये..देश को प्रगति के पथ पर ले जाना है तो प्रतिभावान को अवसर दीजिये,उसके हाथों तंत्र / व्यवस्था दीजिये,जिससे वह जनतंत्र को सच्चे मायने में सफल सजग और मजबूत बना सके....

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22.2.10

बहुत याद आये !!!

मादक मंद समीर बसंती,
छूकर तन, मन को सिहराए,
इस मोहक बेला में साथी, आये, बहुत याद तुम आये !!!

नींद पखेरू,पलकों को तज,
स्मृति गगन में चित भटकाए,
इस नीरव बेला में साथी,आये, बहुत याद तुम आये !!!

पूनम का चंदा ये चकमक,
छवि बन तेरा, नेह लुटाये,
इस मादक बेला में साथी, आये, बहुत याद तुम आये !!!

उर चातक के स्वाति प्यारे,
तुम बिन तृष्णा कौन बुझाये,
आकर साथी कंठ लगा ले, पाए हृदय मिलन-सुख पाए !!!


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9.2.10

भक्ति शक्ति युक्ति आगार...

किसी घनघोर मजबूरी में, घटाटोप भुच्च अनहरिया रात में, सुनसान सड़क पर एकदम अकेले, कहीं चले जाय रहे हों,सन्नाटे का साँय साँय कान सुन्न कर रहा हो, झींगुर और टिटही अपना तान राग छेडे ईस्पेसल इफ्फेक्ट दे रहा हो और ऐसे में अचानक से सामने एक ऐसा जीव परकट हो जाय ,जो न आज तलक कहीं देखे, न सुने...हाँ, भूत परेत का खिस्सा कहानी में ऐसा विराट वर्णन खूबे सुने रहै और जमकर ओका ठट्ठा भी उडाये रहै ...तब ऊ सिचुएसन मा सबसे पाहिले मुँह औ दिमाग पर का आएगा?? बड़का से बड़का तोप नास्तिक भी आपै आप बड़बडावे लगैगा ...

" भूत परेत निकट नहीं आवै ,महावीर जब नाम सुनावै "
उस समय जदि भुतवा कहे ... " का रे ससुर, तू तो ढेर विज्ञान बतियाता रहा,अब काहे को बजरंगबली को बुला रहा है बे...हिम्मत है तो चल, हमरे संग सवाल जवाब का हु तू तू खेल के दिखा...."
तब भैया, जरा कलेजा पर हाथ धर के ईमान से कहिये....लेंगे चैलेन्ज,कहेंगे उससे,न भूत वूत होता है,न हनुमान वनुमान ??

अच्छा चलिए, छोड़िये ये काल्पनिक सिचुएशन ,,, फरज कीजिये, हवाई जहजवा में बइठे, ऊपर दूर अकास में सुखी-सुखी औ खुसी-खुसी उड़े जा रहे हैं...आ ठीक बिच्चेइ असमान में डरैवर साहेब उदघोषणा कर दें..." परम आदरनीय भइया औ बहिनी लोग, हमको बहुतै खेद संग कहना पड़ रहा है कि, बिमनवा में आई तकनीकी खराबी का चलते, अब हम ईका आगे नहीं उड़ा ले जा सकते हैं....सो, भाई बंधू लोग,अब अपना लोटा डंडी समेटो औ छतरिया पहिन के कूद लो हमरे पिच्छे पिच्छे ..हमरी पूरी सुभकमना आप सभौं के साथ है.."
अब बताइए,पलेनवा में चढ़े वाला सब लोग असमान से कूदे का टिरेनिंग लेके तब जहजवा में तो बैठते नहीं न... बडका से बडका चुस्त कुदाक के हाथ भी छतरी धरा , जब एतना ऊपर से धकियाया जाएगा त छतरी धर हावा में लटकते अइसन भयंकर सिचुएसन में भाई बहिनी लोग किसको गुहारेंगे ?? जो हनुमान जी का नाम भर भी सुने होंगे, झट बुदबुदाये लगेंगे....

"संकट ते हनुमान छुड़ावै, मन क्रम वचन ध्यान जो लावे..."
"जन के काज विलम्ब न कीजै ,आतुर दौरि महासुख दीजै"
"बिलम्ब केहि कारन स्वामी, कृपा करहु उर अंतरयामी "

चलिए आज उन्हीं बजरंग बली जी की बिना किसी कारण या संकट के भी एक बार सरधा पूरवक याद करते उनके चरित की परिचर्चा उनका जयकारा लगाते करें...
" लाल देह लाली लसै ,अरु धर लाल लंगूर | बज्र देह दानव दलन,जय जय जय कपि सूर || "

अपने ईष्ट श्रीरामजी की ऐसी भक्ति किये बजरंगबली कि भक्त के शिरोमणि बन गए...उनके जइसा भक्त बहुतै कम हुए हैं ई धरती पर.....भगति की  पराकाष्ठा देखिये, कि उ तो यहाँ तक प्रण ले लिए हैं कि, इस संसार में जा तलक एक ठो भी मनुस के मन ध्यान में श्री सीता राम जी बसेंगे , तब तक उ ओके रक्षा का वास्ते इहै संसार में डटे रहेंगे....बजरंगबली जी की एही एकनिष्ठ सरधा देखकर सीतामैया ने भी उनको वरदान दिया था ...

"अजर अमर गुननिधि सुत होहु, करहु सदा रघुनायक छोहू.."

ऐसे संकट मोचन हैं बजरंगी, कि अपने भगतों का ही नहीं बल्कि अपने परभू का भी संकट हरण करते हैं... जब भी प्रभु श्रीराम संकट में पड़े ऊ उपस्थित हो गए उनकी सेबा में...हर संकट में जदि कोई एक नाम प्रभु श्रीराम के मुख पर सबसे पाहिले आया तो उ था ...हनुमानजी का ही ...चाहे सीता मैया को सात समुद्दर लांघ के खोजने का काम हो या कदम कदम पर श्री राम लछमन या जानकी जी सहित धर्म की रच्छा करने का काम...और उनका शील और विनय तो देखिये कि कभी भी किसी भी काम का क्रेडिट अपने नहीं लिए,सब श्री राम की कृपा को दिए..... शक्ति , भक्ति और युक्ति के चरम का जहाँ कहीं भी जिकर होगा, सबसे पहिला नाम बजरंगबलि का ही आएगा...

वानर सेना जब सीता मैया को खोजते हुए समुद्र किनारे पहुँचे और विराट अथाह उस समुद्र को देख कपारे हाथ धरे सब हिम्मत हार बैठ गए, तो ऐसे समय में भी सर्व समर्थ हनुमान जी तबतक आगे बढ़के उद्धत नहीं हुए जबतक कि जाम्बवंत जी उनको आज्ञा और उत्साह नहीं दिए..शिष्टता यही है कि सेनापति या अग्रज जबतक आदेश न दे,ढेर नहीं कूदना चाहिए,समूह के अनुसासन का एही कायदा होता है..चूँकि सेना में वरिष्ट अग्रज जाम्बवंत जी मौजूद थे, सो हनुमान जी उनका मान रखते हुए तब तक चुप हो बैठे रहे जबतक कि जाम्बवंत जी खुदै आगे बढ़के उनको आदेश न दिए..जो सचमुच में सर्व समर्थ होता है,वह विनयशील अवश्ये होता है,यह हनुमान जी हर समय जताए बताये..
लालुआये पन्जुआये हनुमान जी एकै बार उठे औ हुंकार लेकर जब लंका का ओर छलांग लगाये त - " जेहि गिरी चरण देई हनुमंता,चलेहिगा सो पाताल तुरंता" ...उनका चाप से पहार रसातल में धंस गया...आज जदि किसी के पास एतना ताकत/सामर्थ्य रहे,तो दू मिनट में पूरा दुनिया को मचोड़ मचाड़ के सौस लगाके खा जाएगा.. सामर्थ्य बिना शील और संस्कार के विनाशकारी होता है,यह सास्वत सत्य है...

बजरंग बली खाली बलसालिये नहीं रहे,बडका विद्वान् और चतुर भी रहे..ई बात का परमान जगह जगह पर रामायण में मिलता है...जब लंका के रास्ते बीच सम्मुद्दर में सुरसा उनको खाने वास्ते छेकी, त कैसे उको चकमा देके बजरंगबली अपना चतुरता का परदरसन किये, सबे जानते हैं..जब गुप्त रहकर काम बनाना था,गुप्त रह कर बनाये और जब विसाल भूधराकार सरीर परगट कर काम बनाना था,तब वैसा ही किये..सीता मैया को चुप्पे चुप्पे खोज निकालना था,तो मच्छर एतना साइज बनाकर घूम लिए औ जब सतरुअन को प्रभु राम का परभाव देखाना था तो असोक वाटिका को उजार पूरा लंका को जलाकर राख कर दिए...


कल्पना कीजिये ..एकदम अनजान जगह,कोइयो जात जेवार का नहीं, बोली भासा वाला नहीं, चारों तरफ से बिसाल विकराल सर्वभक्षी निसाचर चारों पहर घूम रहे हैं,कब उठाकर मुंह में गड़प जाएँ औ डकारों न लें,कौनो भरोसा नहीं.....ऊपर से दस मुडिया वाला विकराल राच्छस घड़ी घड़ी कहे कि चलो हमसे बियाह करो नहीं तो तुम्हारा चटनी पीस के ई राच्छस लोग खा जायेगा,तुम्हरा पति खोजते रह जायेगा कि कहाँ बिला गयी..नैहर सासुर वाला बोलेगा राम के संग गयी रही जंगल में ,जंगल का दुःख नहीं सहाया होगा, तो भाग भूग गयी होगी कहीं, साथ में फुसफुसाते हुए कहेंगे " सुने हैं कि लंका का राजा, उसको बियाह करने को उठा ले गया, का जाने बियाह उआह करके ओकरे संग घर बसा ली होगी..." तुम तो बचोगी नहीं जवाब देवे का वास्ते ,जेकरे मुंह में जो आएगा उ कहेगा..हम तुमको उठा लाये,जात तो तुम्हरा ऐसे भी चला ही गया..ई से अच्छा है कि हमरे संग बियाह कर लो,हम तुमका सब रानियन का हेडरानी बना के रखेंगे...बतवा मान लो,परेम से समझा रहे हैं, कहीं दिमाग घूम घुमा गया तो फिर सोच लो,अब और हमरा सबर को न हिलाओ..."

मैया सीता ...बेचारी के हिरदय पर का बीतता रहा होगा ई सब सुन सुन कर ,पतिवरता राजरानी का जी केतना पिराता रहा होगा..तबै तो उ खिसिया कर बोली...

" सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा, कबहूँ कि नलिनी कराइ विकासा ||
अस मन समुझु कहती जानकी,खल सुधि नहीं रघुवीर बानकी ||
सठ सूने हरि आनेहि मोही,अधम निल्लज लाज नहीं तोही ||"

लेकिन सीता मैया को भीतरे भीतरे तो लगिए रहा होगा कि ई लम्पट मुंहझौंसा पतित का का ठिकाना, दूसरे की मेहरारू को छल से उठा लाने में एगो घड़ी लाज नहीं आया, का जाने आगे का करेगा...बेचारी बेकल हो गयीं होंगी, एतना दिन हो गया था कि ई संसय होना भी वजिबे था कि का जाने प्रभु राम इहाँ तक पहुँच पायेंगे कि नहीं,कहीं उनके आने से पाहिले रावनवा खा पका गया या जोर जबरदस्ती किया तो अबला अकेली उका सामना कैसे करेगी.....बेचारी कलपते हुए अपन ऊ काया का, जाके कारन सब झोर झमेला रहा,ओकरे अंत करने को कभी राच्छसी त्रिजटा से तो कभी वृच्छ असोक से अग्नी मांग रही हैं कि...उहेई समय धप्प से गाछ पर से कुदुक हनुमानजी परगट हो गए प्रभुराम के संदेस के साथ....

धरमहीनों का ऊ नगरी में मैया सीता को कोई पहली बार इतने दिन बाद सनमान सरधा के साथ 'माता' कहा होगा....कोई अंदाजा लगा सकता है,उस समय मैया सीता के हिरदय में हर्ष और ममता का कैसा अद्भुद हिलोर उछाह उठा होगा...उसमे भी जब पवनसुत अपना विसाल रूप परगट कर के माता को देखाए होंगे तो निरासा का समुद्दर में डूबे उनके कैसा सम्बल मिला होगा...माता का अपमान का बदला लेने का लिए जब कोई पुत्र उसका अपमान करने वाला का पूरा राज पाट महल अटारी जलाकर ख़ाक कर दे,तो उस हिरदय में गर्व संतोस और ममता का जो उफान उठा होगा और उस हिरदय से जो आशीर्वाद निकलेगा,ऊ कैसे खाली जा सकता है...अरे, माता का आशीर्वाद जब दुर्योधन जैसे पापी को भी बज्र जैसा बना सकता है तो ई तो परम पुन्यवान हनुमान जी थे...
माता ने अपने इस सुपुत्र को - " अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता,अस बर दीन जानकी माता"
" माता जानकी की किरपा से पवनसुत को जो वरदान मिला, उससे पवनसुत किसी को भी आठों सिद्धि और नवों निधि दे सकते हैं "
और ये आठों सिद्धि और नौ निधि हैं....

सिद्धि-

१) अणिमा - जिससे साधक किसी को दिखाई नहीं पड़ता और कठिन से कठिन पदार्थ में परवेस कर सकता है..

२) महिमा - जिसमे योगी अपने को कितना भी विशाल आकार का बना सकता है.

३) गरिमा - जिसमे साधक अपने को चाहे कितना भी भारी बना सकता है.

४) लघिमा - जिसमे साधक जितना चाहे उतना हल्का बन सकता है.

५) प्राप्ति - जिसमे इच्छित वस्तु की प्राप्ति संभव है.

६) प्रकामी - जिसमे इच्छा करने पर वह पृथ्वी में समा सकता है, आकाश में उड़ सकता है.

७) ईशित्व - जिससे सब पर शासन का सामर्थ्य पाता है.

८) वशित्व - जिससे दूसरों को वश में किया जा सकता है.

नौ निधि .....

पद्म , महापद्म, शंख, मकर, कछप, मुकुंद, कुंद, नील, बर्च्च ...

माता पिता या अग्रजों का सरधा और सम्मान पूरवक सच्चे हिरदय से सेवा करने से जो फल मिलता है,उसका इससे परतच्छ उदाहरण औ का हो सकता है...

हो सकता है हनुमान जी,राम जी,कृष्ण भगवान्, आदि आदि ई सब के सब कोरे काल्पनिक पात्र हों, इनका कोई आस्तित्व या वास्तविक आधार न हो...पर किसी ऐसे अवधारणा से ,ऐसे आधार से, जिससे घोरतम संकट में भी उबरने का आस विस्वास मिले, इनके चरित्र से अपने चरित्र को ऊपर उठाने संवारने का प्रेरणा मिले...तो इन चरित्रों को नकारना, उचित होगा क्या ???
सुख ही तो पाने के समस्त यत्न विज्ञान भी कर रहा है,पर इसके कतिपय पुरोधा संगे संग नारा दिए जा रहे हैं कि भूत परेत लछमी दुर्गा राम किसन ई सब अंधविश्वास है...तो अँधा ही सही,यह विश्वास बेहतर नहीं जो व्यक्ति को उद्दात्त चरित्र वाला बनने का प्रेरणा दे ???

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2.2.10

लोकधर्म (अंतिम भाग )

आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी की अनुपम कृति "गोस्वामी तुलसीदास" से साभार :-



भक्त कहलानेवाले एक विशेष समुदाय के भीतर जिस समय यह उन्माद कुछ बढ़ रहा था , उस समय भक्तिमार्ग के भीतर ही एक ऐसी सात्त्विक ज्योति का उदय हुआ जिसके प्रकाश में लोकधर्म के छिन्नभिन्न होते हुए अंग भक्ति सूत्र के द्वारा ही फिर से जुड़े | चैतन्य महाप्रभु के भाव के प्रभाव के द्वारा बंगदेश ,अष्टछाप के कवियों के संगीत श्रोत के द्वारा उत्तर भारत में प्रेम की जो धारा बही ,उसने पंथवालो की परुष बचनावाली से सुखते हुए हृदयों को आर्द्र तो किया , पर वह आर्य शास्त्रानुमोदित लोकधर्म के माधुर्य की ओर आकर्षित न कर सकी | यह काम गोस्वामी तुलसीदास जी ने किया | हिन्दू समाज में फैलाया हुआ विष उनके प्रभाव से चढ़ने न पाया | हिन्दू जनता अपने गौरवपूर्ण इतिहास को भुलाने , कई सहस्त्र वर्षो के संचित ज्ञानभंडार से वंचित रहने , अपने प्रातःस्मरणीय आदर्श पुरुषों के आलोक से दूर पड़ने से बच गयी | उसमें यह संस्कार न जमने पाया कि श्रद्धा और भक्ति के पात्र केवल सांसारिक कर्तव्यों से विमुख ,कर्ममार्ग से च्युत कोरे उपदेश देनेवाले ही हैं | उसके सामने यह फिर से अच्छी तरह झलका दिया गया कि संसार में चलते व्यापारों में मग्न ,अन्याय के दमन के अर्थ रणक्षेत्रों में अद्भुत पराक्रम दिखानेवाले , अत्याचार पर क्रोध से तिलमिलानेवाले , प्रभूत शक्तिसंपन्न होकर भी क्षमा करनेवाले अपने रूप ,गुण और शील से लोक का अनुरंजन करनेवाले ,मैत्री का निर्वाह करनेवाले , प्रजा का पुत्रवत पालन करनेवाले ,बड़ों की आज्ञा का आदर करनेवाले ,संपत्ति में नम्र रहनेवाले ,विपत्ति में धैर्य रखनेवाले प्रिय या अच्छे ही लगते हैं , यह बात नहीं है | वे भक्ति और श्रद्धा के प्रकृत आलंबन हैं , धर्म के दृढ प्रतीक हैं |

सूरदास आदि अष्टछाप के कवियों ने श्रीकृष्ण के श्रृंगारिक रूप के प्रत्यक्षीकरण द्वारा ' टेढ़ी सीधी निर्गुण वाणी ' की खिन्नता और शुष्कता को हटाकर जीवन की प्रफुल्लता का आभास तो दिया , भागवान के लोक -संग्रहकारी रूप का प्रकाश करके धर्म के सौंदर्य का साक्षात्कार नहीं कराया | कृष्णोपासक भक्तों के सामने राधाकृष्ण की प्रेमलीला ही रखी गयी , भगवान की लोकधर्म स्थापना का मनोहर चित्रण नहीं किया गया अधर्म और अन्याय से संलग्न वैभव और समृद्धि का जो विच्छेद उन्होंने कौरवों के विनाश द्वारा कराया , लोकधर्म से च्युत होते हुए अर्जुन को जिस प्रकार उन्होंने सँभाला ,शिशुपाल के प्रसंग में क्षमा और दंड की जो मर्यादा उन्होंने दिखाई , किसी प्रकार ध्वस्त न होनेवाले प्रबल अत्याचारी निराकरण की जिस नीति के अवलंबन की व्यवस्था उन्होंने जरासंध वध द्वारा की , उसका सौन्दर्य जनता के ह्रदय में अंकित नहीं किया गया | इससे असंस्कृत हृदयों में जाकर कृष्ण की श्रृंगारिक भावना ने विलासप्रियता का रूप धारण किया और समाज केवल नाच-कूद कर जी बहलाने के योग्य हुआ |

जहाँ लोकधर्म और व्यक्तिधर्म का विरोध हो वहाँ कर्ममार्गी गृहस्थी के लिए लोकधर्म का ही अवलंबन श्रेष्ठ है | यदि किसी अत्याचारी का दमन सीधे न्यायसंगत उपायों से नहीं हो सकता तो कुटिल नीति का अवलंबन लोकधर्म की दृष्टि से उचित है | किसी अत्याचारी द्वारा समाज को जो हानि पहुँच रही है ,उसके सामने वह हानि कुछ नहीं है जो किसी एक व्यक्ति के बुरे दृष्टान्त से होगी | लक्ष्य यदि व्यापक और श्रेष्ट है तो साधन का अनिवार्य अनौचित्य उतना खल नहीं सकता | भारतीय जनसमाज में लोकधर्म का यह आदर्श यदि पूर्ण रूप से प्रतिष्टित रहने पाता तो विदेशियों के आक्रमण को व्यर्थ करने में देश अधिक समर्थ होता |

रामचरित के सौन्दर्य द्वारा तुलसीदासजी ने जनता को लोकधर्म की ओर जो फिर से आकर्षित किया ,वह निष्फल नहीं हुआ | वैरागियों का सुधार चाहे उससे उतना न हुआ हो ,पर परोक्ष रूप में साधारण गृहस्थ जनता की प्रवृति का बहुत कुछ संस्कार हुआ | दक्षिण में रामदास स्वामी ने इसी लोकधर्माश्रित भक्ति का संचार करके महाराष्ट्र शक्ति का अभ्युदय किया | पीछे से सिखों ने भी लोकधर्म का आश्रय लिया ओर सिख शक्ति का प्रादुर्भाव हुआ | हिन्दू जनता शिवाजी और गुरु गोविन्दसिंह को राम - कृष्ण के रूप में और औरंगजेब को रावण और कंस के रूप में देखने लगी | जहाँ लोक ने किसी को रावण और कंस के रूप में देखा कि भगवान के अवतार की संभावना हुई |

गोस्वामीजी ने यधपि भक्ति के साहचर्य से ज्ञान ,वैराग्य का भी निरूपण किया है और पूर्ण रूप से किया है , पर उनका सबसे अधिक उपकार गृहस्थों के उपर है जो अपनी प्रत्येक स्थिति में उन्हें पुकारकर कुछ कहते हुए पाते हैं और वह ' कुछ ' भी लोकव्यवहार के अंतर्गत है ,उसके बाहर नहीं | मान-अपमान से परे रहनेवाले संतों के लिए तो वे ' खल के वचन संत सह जैसे ' कहते हैं पर साधारण गृहस्थों के लिए सहिष्णुता के मर्यादा बाँधते हुए कहते हैं कि ' कतहूँ सुधाइहु तें बड़ दोषू ' | साधक और संसारी दोनों के भागों की ओर वे संकेत करते हैं | व्यक्तिगत सफलता के लिए जिसे 'नीति ' कहते हैं , सामाजिक आदर्श की सफलता का साधक होकर वह ' धर्म ' हो जाता है |

सारांश यह कि गोस्वामीजी से पूर्व तीन प्रकार के साधु समाज के बीच रमते दिखाई देते थे |एक तो प्राचीन परंपरा के भक्त जो प्रेम में मग्न होकर संसार को भूल रहे थे ,दुसरे वे जो अनधिकार ज्ञानगोष्टी द्वारा समाज के प्रतिष्ठित आदर्शों के प्रति तिरस्कार बुद्धि उत्पन्न कर रहे थे , और तीसरे वे जो हठयोग , रसायन आदि द्वारा अलौकिक सिद्धियों की व्यर्थ आशा का प्रचार कर रहे थे | इन तीनों वर्गों के द्वारा साधारण जनता के लोकधर्म पर आरूढ़ होने की संभावना कितनी दूर थी , यह कहने की आवश्यकता नहीं | आज जो हम फिर झोपड़ों में बैठे किसानों को भरत के 'भायप भाव ' पर , लक्ष्मन के त्याग पर ,राम की पितृभक्ति पर पुलकित होते हुए पाते है , वह गोस्वामीजी के ही प्रसाद से | धन्य है ग्राहस्थ्य जीवन में धर्मालोकस्वरुप रामचरित और धन्य हैं उस आलोक को घर घर पहुँचनेवाले तुलसीदास ! व्यावहारिक जीवन धर्म की ज्योति से एक बार फिर जगमगा उठा - उसमें नई शक्ति का संचार हुआ | जो कुछ भी नहीं जनता , वह भी यह जनता है कि -

जे न मित्र दुःख होहिं दुखारी | तिनहिं बिलोकत पातक भारी | |

स्त्रियाँ और कोई धर्म जानें , या न जानें , पर वे वह धर्म जानती हैं जिससे संसार चलता है | उन्हें इस बात का विश्वास रहता है कि -

वृद्ध ,रोग बस ,जड़ ,धनहीना | अंध बधिर क्रोधी अति दीना ||
ऐसेहु पति कर किए अपमाना | नारि पाव जमपुर दुःख नाना ||

जिसमें बाहुबल है उसे यह समझ भी पैदा हो गयी है कि दुष्ट और अत्याचारी 'पृथ्वी के भार' हैं ; उस भार को उतारनेवाले भगवान के सच्चे सेवक हैं | प्रत्येक देहाती लठैत 'बजरंगबली ' की जयजयकार मानता है - कुम्भकर्ण की नहीं | गोस्वामीजी ने ' रामचरित - चिंतामणि ' को छोटे -बड़े सबके बीच बाँट दिया जिसके प्रभाव से हिन्दू समाज यदि चाहे -सच्चे जी से चाहे - तो सब कुछ प्राप्त कर सकता है|

भक्ति और प्रेम के पुटपाक द्वारा धर्म को रागात्मिका वृत्ति के साथ सम्मिश्रित करके बाबाजी ने एक ऐसा रसायन तैयार किया जिसके सेवन से धर्म मार्ग में कष्ट और श्रांति न जान पड़े ,आनन्द और उत्साह के साथ लोग आप से आप उसकी ओर प्रवृत हों , धरपकड़ और जबरदस्ती से नहीं | जिस धर्ममार्ग में कोरे उपदेशों से कष्ट ही कष्ट दिखाई पड़ता है , वह चरित्र - सौंदर्य के साक्षात्कार से आन्नदमय हो जाता है | मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति और निवृत्ति की दिशा को लिए हुए धर्म की जो लीक निकलती है , लोंगों के चलते - चलते चौड़ी होकर वह सीधा राजमार्ग हो सकती है ; जिसके सम्बन्ध में गोस्वामीजी कहते है -

' गुरु कह्यो राम भजन नीको मोहि लगत राजडगरो सो |'

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