23.12.11

जीवन..

सांस सांस कर चुकती जाती, साँसों की यह पूंजी,
जीवन क्यों,जगत है क्या, है अभी तलक अनबूझी..

कभी लगे यह विषम पहेली, अनुपम कभी सहेली,
संगसाथ चलने का भ्रम दे, कर दे निपट अकेली.

कभी लगे है क्या कुछ ऐसा, जो मैं न कर पाऊं,
काल तरेरे भौं जब भी तो , दंभ पे अपनी लजाऊँ.

कभी लगे है बचा हुआ क्या, जो न अबतक देखा,
तभी रचयिता विहंस के पूछे, क्या है अबतक देखा.

कूड़ा कचड़ा ही तो समेटा, जन्म कर दिया जाया,
महत ज्ञानसागर का अबतक, बूँद भी कहाँ पाया.

सोचा था पावन जीवन को, सार्थक कर है जाना,
अर्थ ढूंढते समय चुका , वश है क्या गुजरा पाना.

जाने किस पल न्योता आये, क्षण में उठ जाए डेरा,
माया में भरमाया चित, किस विध समझे यह फेरा..



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7.12.11

हाथ का साथ ....




अईसे काहे बघुआ के, अंखिया तरेर के देख रहा है बे,
साला..नंगा..भुक्खर ...???

आ ...समझा !!! ... भूखा है ???
त ई से हमको मतलब..???
सब अपना अपना भाग का खाते हैं...
हम भी अपना पुन्न का स्टाक से खा और इतरा रहे हैं...
तू भूखा.. नंगा... ई तोरा भाग...
त फिर हमरा भरलका मलाईदार छप्पन भोग थरिया देख के ई जलन काहे.. ई आक्रोस काहे..आयं  ??

चल भाग इहाँ से..

नहीं भागेगा..??

त,,, का कल्लेगा बोल..???

जल्ला कट्टा बोली मारेगा...???

हा हा हा हा...कैसे ??

तोरा जीभ त है, हमरे जेब में ...!!!

त,,, अब का ...???

ओ....गोली मारेगा..???

लेकिन कैसे बे...???

हाथ है...???

सबका हाथ काट के हम जमा कर लिए अपना खजाना में...
अब हाथ, केवल औ केवल हमरे पास है...
आ जिसके हाथ में हमरा दिया हाथ है, ओही किसीको भी बोली या गोली, कुच्छो मार सकता है..

एहिलिये न कहते हैं, धड से आके धर लो ई हाथ...ससुर, राज करेगा राज ...!!!

" हमरा हाथ, हमरा हाथ धरने वाले हर जन- जनावर के साथ "



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15.11.11

न्यायप्रिय राजा ....

एक राजा थे, बड़े ही न्यायप्रिय..न्याय करना एक तरह से उनका शौक था,जूनून था,जिन्दगी थी...जबतक दिन भर में सौ, डेढ़ सौ न्याय न कर लेते उन्हें चैन न मिलता,खाना न पचता..कहते हैं, जस राजा तस प्रजा.. उनके विश्वस्त स्वामिभक्त दरबारियों को भी न्याय प्रक्रिया में भाग लेने से प्रिय और कुछ भी न था..वे भी अपना सब काम धाम किनारे कर राजा को न्याय करते देखते रहते और इस एकमात्र विषय की जुगाली करते रहते .
तो एक दिन ऐसे ही न्याय प्रक्रिया के बीच दो अपराधियों को लाया गया.
राजा ने दोनों के अपराध पूछे. तो बताया गया कि "क" ने दस चूहे और पचास मच्छर जान से मारे हैं, कोतवाल को थप्पड़ से मारा है और राजा को अन्यायी कहा है...
और "ख" ने पंद्रह आदमियों को मारा, बीस एक डाके डाले ,करीब डेढ़ दर्जन बलात्कार किया और कई हेराफेरियां की हैं..
राजा अत्यंत क्रोधित हो गए कि जिस राज्य को वे रामराज्य बनाने के लिए दिन रात सोचते रहते हैं,वहीँ उनकी प्रजा ऐसे कारनामों से उनके अभियान पर पानी फेरने को तैयार रहती है...
घुडकते हुए वे गरजे - अरे दुष्टों, क्यों की तुम लोगों ने ऐसी हरकतें..जीव हत्या !!! ऐसा जघन्य अपराध !!! दे दूँ फांसी..???
"क" हड़का नहीं, बल्कि अड़ गया और बोला -

"महाराज, ये भी क्या बात हुई..चूहे मेरी फसलों को नष्ट कर रहे थे, तो न मारता उन्हें...और आपको पता भी है, आपके राजमहल के बाहर क्या स्थिति है .जिन म्युनिसिपैलिटी वालों को नगर की सफाई व्यवस्था देखनी है, मच्छड मारना है, वे तो राजमहल चमकाने और यहाँ के मच्छड मारने में लगे रहते हैं ,तो जो मच्छड दिन रात हमारा खून पीते रहते हैं,उन्हें मार हम अपना खून नहीं बचा सकते..?
और यह कोतवाल , वर्दी की धौंस दिखाकर हफ्ता मांग मांग हमें कंगाल किये हुए है..आज मैंने मना किया तो इसने मुझपर कोड़े बरसाए , तो बताइए न धोता उस अन्यायी को ..? "
"क" की दबंगई और ध्रिष्ट्ता देख राजा समेत समस्त दरबारी हतप्रभ रह गए..
 "ख" की उपस्थिति और अपराध तो लोग भूल ही गए...
ऐसा दुस्साहस ..!!!
सन्नाटा पसर गया दरबार में...
ऐसे में सबसे पहली आवाज उभरी "ख" की -
धिक्कार है,धिक्कार है...शेम शेम...
हमारे अन्नदाता प्रजापालक के साथ ऐसी बेहूदगी से सवाल- जवाब, ऊंची आवाज ..यह तो राज्य को चुनौती है..देशद्रोह है..
सबने "ख" से सहमति जताते हुए - शेम शेम और धिक्कार है, धिक्कार है.. उचारा ..
काफी समय लगा कोलाहल शान्त होने में..फिर बारी आई "ख" की ..
उससे पूछा गया कि ये हत्याएं और अपराध उसने क्यों किये...बिना एक पल गँवाए अत्यंत कातर और विनीत स्वर में गिडगिडा उठा वह ..
"महाराज ये जो भी अपराध गिनाये गए हैं, अपराध हैं,यह मैंने अभी अभी जाना है...सर्वथा अनभिज्ञता में यह सब कर गया  .. अब चूँकि मैंने ईश्वरपुत्र महाराज के साक्षात दर्शन कर लिए तो एकदम से विवेक जाग उठा मेरा, मन निर्मल हो गया... और अभी के अभी मैं ईश्वरपुत्र हमारे महान राजा तथा पवित्र धर्मग्रन्थ की शपथ लेकर कहता हूँ कि अब आगे से कभी भी ऐसे कर्मों में लिप्त नहीं होऊंगा.. "
दोनों पक्षों की सुन ली गई थी.गहन मंत्रणा हुई. और पवित्र न्यायप्रिय राजा ने अपना न्याय सुनाया :-
"ईश्वर ने इस सृष्टि की रचना की ,सब जीवों को जीवन जीने का सामान अधिकार दिया,जिसे लेने का मनुष्य को कोई अधिकार नहीं..इस तरह हत्या के तो "क" और "ख" दोनों ही सामान रूप से दोषी हैं, परन्तु जैसा कि सबने देखा "क" को न ही अपने किये पर पश्चाताप है और न ही आगे वह ऐसा नहीं करेगा, इसका उनसे कोई आश्वासन दिया है, इसके साथ ही राज्य या सत्ता के प्रति इसके मन में स्नेह या आदर का कोई भाव लक्षित नहीं होता..ऐसे अपराधी मनोवृत्ति के मनुष्य का समाज में खुले घूमना घातक है.अतः "क" को उसके जघन्य कृत्य और मानसिकता के लिए मृत्युदंड दिया जाता है..
और जैसा कि आप सबने अभी देखा कि देशभक्ति राष्ट्रप्रेम की भावना कैसे कूट कूट कर "ख" में भरी हुई है, कैसे उसे अपने कृत्य पर घोर पश्चाताप है..कैसे निर्मल और उच्च विचार हैं इसके.. साथ ही इसने आगे ऐसे किसी भी अपराध में लिप्त न होने की सौगंध खायी है ..अतः "ख" को अपराध मुक्त किया जाता है और साथ ही उसकी पवित्र भावना का आदर करते हुए ससम्मान  न्याय समिति में सलाहकार पद पर नियुक्त किया जाता है.."
दूध और पानी को अलग करता ऐसा विवेकपूर्ण न्याय...!!! प्रजा एक स्वर से साधु साधु कर उठी..जयघोष से राजमहल गुंजायमान हो उठा..
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समझे, कथा सन्देश (माने  कि  ओही - मोरल आफ द इस्टोरी) ???
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चलिए हमहीं बता देते हैं -
त मोरल ई है कि, राजनीति में पाप-पुण्य, सही-गलत, निति-नियम ..सब ऊ निर्धारित करता है जिसके हाथ में सत्ता होती है...

जदी राजा सही, त सबकुछ सही, आ राजा गोबर, त राष्ट्र गोबर... बाकी कोई मोरल बाला चिचिया छटपटा के का कर लेगा... चीं चपड़ जरूरत से जादे करेगा त भांग भूजते सूली लटकेगा..
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10.10.11

तीस साल का इतिहास...

तीन, साढ़े तीन दशक !!!! बहुत लम्बा समय होता है यह..एक पूरी जन्मी पीढी स्वयं जनक बन जाती है इस अंतराल में.चालीस से अस्सी बसंत गुजार चुके किसी से पूछिए कि इस अंतराल में क्या क्या बदला देखा उन्होंने..समय की रफ़्तार की वे बताएँगे..परन्तु कई बार कुछ चीजों को देख प्रवाह और परिवर्तन की यह बात एकदम गलत और झूठी लगने लगती है.लगता है इस क्षेत्र विशेष में तो कुछ भी नहीं बदला.यहाँ आकर घड़ी की सुइयां एकदम स्थिर हो टिक टिक कर चलने ,गुजरने का केवल भ्रम दे रही हैं..
लगभग तीन दशक पहले मूर्धन्य व्यंगकार श्री शरद जोशी जी ने समय के उस टुकड़े को कलमबद्ध किया था अपने आलेख "तीस साल का इतिहास" में जो उनकी पुस्तक " जादू की सरकार" में संकलित है..कईयों ने पढ़ा होगा इसे, पर मैं अस्वस्त हूँ कि इसका पुनर्पाठ किसी को भी अप्रिय न लगेगा ...प्रस्तुत है श्री शरद जोशी जी द्वारा लिखित उनकी पुस्तक "जादू की सरकार" का आलेख " तीस साल का इतिहास " जिसे पढ़कर बस यही लगता है कि राजनीति में कभी कुछ नहीं बदलता,चाहे समय कितना भी बदल जाए..
"तीस साल का इतिहास"

कांग्रेस को राज करते करते तीस साल बीत गए . कुछ कहते हैं , तीन सौ साल बीत गए . गलत है .सिर्फ तीस साल बीते . इन तीस सालों में कभी देश आगे बढ़ा , कभी कांग्रेस आगे बढ़ी . कभी दोनों आगे बढ़ गए, कभी दोनों नहीं बढ़ पाए .फिर यों हुआ कि देश आगे बढ़ गया और कांग्रेस पीछे रह गई. तीस सालों की यह यात्रा कांग्रेस की महायात्रा है. वह खादी भंडार से आरम्भ हुई और सचिवालय पर समाप्त हो गई.

पुरे तीस साल तक कांग्रेस हमारे देश पर तम्बू की तरह तनी रही, गुब्बारे की तरह फैली रही, हवा की तरह सनसनाती रही, बर्फ सी जमी रही. पुरे तीस साल तक कांग्रेस ने देश में इतिहास बनाया, उसे सरकारी कर्मचारियों ने लिखा और विधानसभा के सदस्यों ने पढ़ा. पोस्टरों ,किताबों ,सिनेमा की स्लाइडों, गरज यह है कि देश के जर्रे-जर्रे पर कांग्रेस का नाम लिखा रहा. रेडियो ,टीवी डाक्यूमेंट्री , सरकारी बैठकों और सम्मेलनों में, गरज यह कि दसों दिशाओं में सिर्फ एक ही गूँज थी और वह कांग्रेस की थी. कांग्रेस हमारी आदत बन गई. कभी न छुटने वाली बुरी आदत. हम सब यहाँ वहां से दिल दिमाग और तोंद से कांग्रेसी होने लगे. इन तीस सालों में हर भारतवासी के अंतर में कांग्रेस गेस्ट्रिक ट्रबल की तरह समां गई.
जैसे ही आजादी मिली कांग्रेस ने यह महसूस किया कि खादी का कपड़ा मोटा, भद्दा और खुरदुरा होता है और बदन बहुत कोमल और नाजुक होता है. इसलिए कांग्रेस ने यह निर्णय लिया कि खादी को महीन किया जाए, रेशम किया जाए, टेरेलीन किया जाए. अंग्रेजों की जेल में कांग्रेसी के साथ बहुत अत्याचार हुआ था. उन्हें पत्थर और सीमेंट की बेंचों पर सोने को मिला था. अगर आजादी के बाद अच्छी क्वालिटी की कपास का उत्पादन बढ़ाया गया, उसके गद्दे-तकिये भरे गए. और कांग्रेसी उस पर विराज कर, टिक कर देश की समस्याओं पर चिंतन करने लगे. देश में समस्याएँ बहुत थीं, कांग्रेसी भी बहुत थे.समस्याएँ बढ़ रही थीं, कांग्रेस भी बढ़ रही थी. एक दिन ऐसा आया की समस्याएं कांग्रेस हो गईं और कांग्रेस समस्या हो गई. दोनों बढ़ने लगे.
पुरे तीस साल तक देश ने यह समझने की कोशिश की कि कांग्रेस क्या है? खुद कांग्रेसी यह नहीं समझ पाया कि कांग्रेस क्या है? लोगों ने कांग्रेस को ब्रह्म की तरह नेति-नेति के तरीके से समझा. जो दाएं नहीं है वह कांग्रेस है.जो बाएँ नहीं है वह कांग्रेस है. जो मध्य में भी नहीं है वह कांग्रेस है. जो मध्य से बाएँ है वह कांग्रेस है. मनुष्य जितने रूपों में मिलता है, कांग्रेस उससे ज्यादा रूपों में मिलती है. कांग्रेस सर्वत्र है. हर कुर्सी पर है. हर कुर्सी के पीछे है. हर कुर्सी के सामने खड़ी है. हर सिद्धांत कांग्रेस का सिद्धांत है है. इन सभी सिद्धांतों पर कांग्रेस तीस साल तक अचल खड़ी हिलती रही.

तीस साल का इतिहास साक्षी है कांग्रेस ने हमेशा संतुलन की नीति को बनाए रखा. जो कहा वो किया नहीं, जो किया वो बताया नहीं,जो बताया वह था नहीं, जो था वह गलत था. अहिंसा की नीति पर विश्वास किया और उस नीति को संतुलित किया लाठी और गोली से. सत्य की नीति पर चली, पर सच बोलने वाले से सदा नाराज रही.पेड़ लगाने का आन्दोलन चलाया और ठेके देकर जंगल के जंगल साफ़ कर दिए. राहत दी मगर टैक्स बढ़ा दिए. शराब के ठेके दिए, दारु के कारखाने खुलवाए; पर नशाबंदी का समर्थन करती रही. हिंदी की हिमायती रही अंग्रेजी को चालू रखा. योजना बनायी तो लागू नहीं होने दी. लागू की तो रोक दिया. रोक दिया तो चालू नहीं की. समस्याएं उठी तो कमीशन बैठे, रिपोर्ट आई तो पढ़ा नहीं. कांग्रेस का इतिहास निरंतर संतुलन का इतिहास है. समाजवाद की समर्थक रही, पर पूंजीवाद को शिकायत का मौका नहीं दिया. नारा दिया तो पूरा नहीं किया. प्राइवेट सेक्टर के खिलाफ पब्लिक सेक्टर को खड़ा किया, पब्लिक सेक्टर के खिलाफ प्राइवेट सेक्टर को. दोनों के बीच खुद खड़ी हो गई . तीस साल तक खड़ी रही. एक को बढ़ने नहीं दिया.दूसरे को घटने नहीं दिया.आत्मनिर्भरता पर जोर देते रहे, विदेशों से मदद मांगते रहे. 'यूथ' को बढ़ावा दिया, बुड्द्धों को टिकेट दिया. जो जीता वह मुख्यमंत्री बना, जो हारा सो गवर्नर हो गया. जो केंद्र में बेकार था उसे राज्य में भेजा, जो राज्य में बेकार था उसे उसे केंद्र में ले आए. जो दोनों जगह बेकार थे उसे एम्बेसेडर बना दिया. वह देश का प्रतिनिधित्व करने लगा.

एकता पर जोर दिया आपस में लड़ाते रहे. जातिवाद का विरोध किया, मगर अपनेवालों का हमेशा ख्याल रखा. प्रार्थनाएं सुनीं और भूल गए. आश्वासन दिए, पर निभाए नहीं. जिन्हें निभाया वे आश्वश्त नहीं हुए. मेहनत पर जोर दिया, अभिनन्दन करवाते रहे. जनता की सुनते रहे अफसर की मानते रहे.शांति की अपील की, भाषण देते रहे. खुद कुछ किया नहीं दुसरे का होने नहीं दिया. संतुलन की इन्तहां यह हुई कि उत्तर में जोर था तब दक्षिण में कमजोर थे. दक्षिण में जीते तो उत्तर में हार गए. तीस साल तक पुरे, पुरे तीस साल तक, कांग्रेस एक सरकार नहीं, एक संतुलन का नाम था. संतुलन, तम्बू की तरह तनी रही,गुब्बारे की तरह फैली रही, हवा की तरह सनसनाती रही बर्फ सी जमी रही पुरे तीस साल तक.
कांग्रेस अमर है. वह मर नहीं सकती. उसके दोष बने रहेंगे और गुण लौट-लौट कर आएँगे. जब तक पक्षपात ,निर्णयहीनता ढीलापन, दोमुंहापन, पूर्वाग्रह , ढोंग, दिखावा, सस्ती आकांक्षा और लालच कायम है, इस देश से कांग्रेस को कोई समाप्त नहीं कर सकता. कांग्रेस कायम रहेगी. दाएं, बाएँ, मध्य, मध्य के मध्य, गरज यह कि कहीं भी किसी भी रूप में आपको कांग्रेस नजर आएगी. इस देश में जो भी होता है अंततः कांग्रेस होता है. जनता पार्टी भी अंततः कांग्रेस हो जाएगी. जो कुछ होना है उसे आखिर में कांग्रेस होना है. तीस नहीं तीन सौ साल बीत जाएँगे, कांग्रेस इस देश का पीछा नहीं छोड़ने वाली...
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साभार, व्यंगकार श्री शरद जोशी जी के संकलन "जादू की सरकार" के "तीस साल का इतिहास" से !!!

21.9.11

माँ सी...

जब भी कभी हममे से कोई
जो दूर हुआ करते थे उससे
बात बेबात अक्सर
कैसे दलकती थी छाती
भरभराई रहती थी आँखें
माँ की...
पका देती भले वो हर रसोई
सब ही के रूचि की,
पर उस पल जो न वहां मौजूद होता
कहाँ वह चीज उसके
कंठ उतरा था
कभी भी...
हरेक आहट पर मन और कान पातें,
बेचैन फिरती
कि जब तक लौटकर हम
पास उसके आ न जाते.
हमारी गलतियों पर जो सदा
बनती थी चंडी
हमारे हित रही हर सांस
वह मन्नत मानती..
बिना मतलब की ठहरा कर
सदा उसके डरों को
थे कितना हम सभी
खिल्ली उड़ाते ..
जो पहरों कथा प्रवचनों में
रहती मन रमाये
सुना करती थी
दुःख के मूल कारण,
कहाँ थी क्षण को भी उस मोह से
वह मुक्ति पाती.

थी कच्ची बुद्धि मेरी और
किताबी समझ भी थी
तभी तो उसका जीवन
निरा विषादमय लगा था...
जहाँ बलिदान स्व का और
केवल दुःख ही दुःख था
जहाँ न लक्ष्य या
कोई दिशा थी..

लिया संकल्प न उस सा बनूंगी
जो कारण है दुखों का दुर्गति का
प्रबल माया से मैं निसदिन बचूंगी
सजग निर्लिप्त रह है कर्म करना
सिखाया ग्रंथों ने ज्यों यूँ जिउंगी..

पर क्षण में यह क्या हो गया.
वह जैसे ही मेरे वक्ष से लगा..
सोता जो फूटा वह अंतस
जाने कहाँ छुपा था अबतक
बहा अभीतक का सब संचित
सोच समझ सारा संकल्पित .
आलौकिक थी वह अनुभूति
हाथ लगे ज्यों सर्व विभूति.
उसने मुझको पूर्ण कर दिया
नव चिंतन युगबोध दे दिया..

उसकी सम्पूर्ण चेष्टाओं में
गुंथे प्राण ध्यान जग सिमटा
कहूँ क्या बाल चेष्टाओं की
मुझमे अलौकिक सुख जो भरा
उर जो उपजा भाव अनोखा
जड़ चेतन हित करुणा छलका .

मेरा जो भी ऋण है उसपर
तुच्छ बड़ा उसका जो मुझपर
ममता बरसी मेरी असंख्य पर
उसकी तो "माँ ", मैं थी केवल...

बुद्धि विवेक संकल्प या साहस
वह  अपार मुझसे वृहत्तर
शंका नहीं तनिक भी यह कि
हारेगा वह जीवन पथ पर
मगर विलग जब भी होता है
मन क्यों ऐसे बिसुरा करता है ?
कलप कलप कर जी क्यों पूछे -
मेरा लाल,  कुशल से तो है..?
खाया है न ठीक ठाक से ?
चिंता कोई तुझे तो न है ?
जब भी ध्यान चढ़े वह क्षण कि
कैसे वह है गोद दुबकता
जब भी रोग कोई है ग्रसता
दिए सहारा एक दूजे को
सदा ही काटा कठिन घड़ी को
आये ऐसा कोई क्षण जो
हम कैसे काटेंगे विलग हो .
लाख मनालूं ,लाख सम्हालूं
तर्कों से मन को बहलाऊं
फिर भी भर भर आयें आँखें ..
जैसे माँ की भर आती थी..
.............................

7.9.11

गोस्वामी जी का युगबोध ...



कहते हैं एक बार अकबर ने सूरदास जी से पूछा कि वे और गोस्वामी जी दोनों ही तो एक ही विष्णु के भिन्न अवतारों को मानते हुए कविता रचते हैं, तो अपने मत से बताएं कि दोनों में से किसकी कविता अधिक सुन्दर और श्रेष्ठ है. सूरदास जी ने तपाके उत्तर दिया कि कविता की पूछें तो कविता तो मेरी ही श्रेष्ठ है..अकबर सूरदास जी से इस उत्तर अपेक्षा नहीं रखते थे,मन तिक्त हो गया उनका...मन ही मन सोचने लगे , कहने को तो ये इतने पहुंचे हुए संत हैं,पर आत्ममुग्धता के रोग ने इन्हें भी नहीं बख्शा..माना कि अपनी कृति या संतान सभी को संसार में सर्वाधिक प्रिय और उत्तम लगते हैं,पर संत की बड़ाई तो इसी में है कि वह सदा स्वयं को लघु और दूसरे को गुरु माने...

अकबर के मन में ये विचार घुमड़ ही रहे थे कि सूरदास जी ने आगे कहा..

महाशय आपने कविता की पूछी तो मैंने आपको कविता की बात बताई..मैंने जो लिखा है वह सचमुच उत्कृष्ट कविता है,पर गोस्वामी जी ने जो लिखा है,वह तो कविता नहीं साक्षात मंत्र हैं, उसे कविता कहने से बड़ा कोई और पाप हो ही नहीं सकता. समय के साथ जिस प्रकार देवभाषा (संस्कृत) का पराभव और लोप होता जा रहा है, वेद उपनिषद पुराणों आदि के निचोड़ को सरल एवं ग्रहणीय लोक भाषा में जन जन तक पहुँचाने के लिए स्वयं भगवान् शंकर ने गोस्वामी जी के हाथों यह लिखवाया है.

सचमुच यदि ध्यान से देखा जाय तो शायद ही कोई दोहा चौपाई ऐसी मिले जो कहीं न कहीं किसी श्लोक का लोकभाषा में सरलीकरण न हो...

गीता में कहा गया -

यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिः भवति भारत, अभ्युत्थानं अधर्मस्य....

रामचरित में देखिये-

जब जब होहिं धरम के हानी, बढ़हिं असुर अधम अभिमानी....

खैर ,मानने वाले यदि इस अलौकिकता के तर्क को न भी मानें ,तो भी यह तो मानना ही पड़ेगा कि जो विराट जीवन दर्शन इस महत ग्रन्थ में समाहित है, प्राणिमात्र यदि उसका शतांश भी ग्रहण कर ले, आचरण में उतार ले तो जीवन को सच्चे अर्थों में सुखी और सार्थक कर सकता है..केवल हिन्दुओं के लिए नहीं, जीवन और जगत को समझने, इसे सुखद सुन्दर बनाने की अभिलाषा रखने वाले किसी भी देश, भाषा और धर्म पंथ के अनुयायी को यहाँ से वह सबकुछ मिलेगा ,जिसका व्यवहारिक उपयोग वह जीवन के किसी भी क्षेत्र में कर सकता है..

केवल एक कथा भर नहीं लिखी है गोस्वामी जी ने, जिस प्रकार से वे प्रकृति से, समाज से, मानव चरित्र और व्यवहार से छोटी छोटी बातों को लेकर चित्र और दृष्टान्त गढ़ते हैं, मन मुग्ध और विस्मित होकर रह जाता है उनकी इस विराट चेतना और विस्तृत युगबोध पर..

किष्किन्धा में पर्वत शिखर पर गुह्य कन्दरा में बैठे राम लक्ष्मण के मध्य संवाद द्वारा गोस्वामी जी ने क्या विहंगम चित्र खींचा है देखिये-



घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा।।

दामिनि दमक रही घन माहीं। खल कै प्रीति जथा थिर नाहीं।।

बरषहिं जलद भूमि निअराएँ। जथा नवहिं बुध बिद्या पाएँ।।

बूँद अघात सहहिं गिरि कैंसें । खल के बचन संत सह जैसें।।

छुद्र नदीं भरि चलीं तोराई। जस थोरेहुँ धन खल इतराई।।

भूमि परत भा ढाबर पानी। जनु जीवहि माया लपटानी।।

समिटि समिटि जल भरहिं तलावा। जिमि सदगुन सज्जन पहिं आवा।।

सरिता जल जलनिधि महुँ जाई। होई अचल जिमि जिव हरि पाई।।

दो0-

हरित भूमि तृन संकुल समुझि परहिं नहिं पंथ।

जिमि पाखंड बाद तें गुप्त होहिं सदग्रंथ।।14।।

–*–*–

दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई। बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई।।

नव पल्लव भए बिटप अनेका। साधक मन जस मिलें बिबेका।।

अर्क जबास पात बिनु भयऊ। जस सुराज खल उद्यम गयऊ।।

खोजत कतहुँ मिलइ नहिं धूरी। करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी।।

ससि संपन्न सोह महि कैसी। उपकारी कै संपति जैसी।।

निसि तम घन खद्योत बिराजा। जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा।।

महाबृष्टि चलि फूटि किआरीं । जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारीं।।

कृषी निरावहिं चतुर किसाना। जिमि बुध तजहिं मोह मद माना।।

देखिअत चक्रबाक खग नाहीं। कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं।।

ऊषर बरषइ तृन नहिं जामा। जिमि हरिजन हियँ उपज न कामा।।

बिबिध जंतु संकुल महि भ्राजा। प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा।।

जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना। जिमि इंद्रिय गन उपजें ग्याना।।

दो0-

कबहुँ प्रबल बह मारुत जहँ तहँ मेघ बिलाहिं।

जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं।।15(क)।।

कबहुँ दिवस महँ निबिड़ तम कबहुँक प्रगट पतंग।

बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग।।15(ख

इन प्राकृतिक बिम्बों के माध्यम से मनुष्य चरित्र के जिन लक्षणों को वे रेखांकित करते हैं, सुख और सद्गति के लिए जो दर्शन देते हैं,प्रकृति से सीखने का जिस प्रकार आह्वान करते हैं , क्या मनुष्यमात्र के लिए अनुकरणीय नहीं है? क्या विडंबना है, लोग सुखी तो होना चाहते हैं, पर इसके सिद्ध ,स्थायी सात्विक स्रोतों से जुड़ना नहीं चाहते.

बहुधा  लोगों को  कहते सुना है -

* तुलसीदास जी ने स्त्री और शूद्र के प्रति सम्मान का भाव नहीं रखा,इसलिए हम उनका विरोध करते हैं.फलतः ग्रन्थ पढने का प्रश्न ही कहाँ उठता है...?

*बड़े पक्षपाती थे तुलसीदास जी. केवल राम और सीता का गुणगान ही करते रह गए..या फिर जो कोई राम के टहल टिकोरे में थे उन्हें महानता का सर्टिफिकेट दिया ..लक्षमण और भरत की पत्नी जिसने चौदह वर्ष महल में रह कर भी वनवास काटा, उनके लिए खर्चने को तुलसीदास के पास एक शब्द नहीं था...

*क्या पढ़ें रामायण, बात बात पर तो देवताओं से फूल बरसवाने लगते हैं तुलसीदास..अझेल हो जाता है..

* नया क्या है कहानी में...सब तो जाना सुना है...इतने मोटे किताब में सर खपाने कौन जाए...

बिना किसी पूर्वाग्रह के मुक्त ह्रदय से आदि से अंत तक एक बार पढ़कर देखा जाय तो आशंकाओं जिज्ञासाओं के लिए कोई स्थान ही नहीं बचेगा..किसी अलौकिक ब्रह्म की कथा सुनने नहीं, अपने ही आस पास को तनिक और स्पष्टता से जानने, दिनों दिन भौतिक साधनों अविष्कारों की रेल पेल के बाद भी निस दिन दुरूह होते जीवन में शांति और सुख के मार्ग संधान के लिए, जीवन दर्शन को समझने के लिए, जीते जी एक बार अवश्य पढने का प्रयास कर लेना चाहिए..


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11.7.11

चुप्पी तोड़ो ------

निरंतर ह्रासोन्मुख स्थिति यह आस संजोने नहीं देती कि कभी न कभी फिर से अपने देश में वह स्थति आयेगी जब हिन्दी साहित्यिक पत्रिकाओं के दिन बहुर जायेंगे, यह पुनः उस सम्मान और स्तर को प्राप्त होगा जो आज से छः सात आठ दशक पहले था...पढने की तीव्र उत्कंठा लिए ढूँढने निकलो तो अधिकांशतः हाथ मलते रह जाना पड़ता है...ऐसे में जब पत्रिका "समकालीन अभिव्यक्ति " मेरे हाथ आई और अद्योपरांत इसे पढ़ा, तो निराश ह्रदय ने अपार संबल पाया...छोटी सी है यह पत्रिका ,पर इसमें संकलित रचनाओं को पढ़ न केवल रचनाकरों अपितु चयन कर्ता संपादक मंडल के प्रति भी मन श्रद्धा तथा आभारनत हो जाता है...

संपादक "श्री उपेन्द्र कुमार मिश्र " जी पत्रिका के सम्पादकीय में अपने मनोभावों को जिस प्रकार पद्य रूप में प्रेषित करते हैं , वह न केवल उनकी सुस्पष्ट सोच और श्रृजन क्षमता प्रतिबिंबित करती अभिभूत करती है,अपितु वह महत आह्वान ह्रदय को झकझोर कर सचमुच ही चुप्पी तोड़ने को विवश कर देती है..

त्रैमासिक पत्रिका (जनवरी- मार्च २०११) के सम्पादकीय को इस मंच पर उन सब के साथ सांझा करना चाहूंगी,जिन्होंने इसे न पढ़ा हो...
निम्नलिखित  रचना में भाव निकले अवश्य मिश्र जी के ह्रदय से हैं पर शायद ही कोई संवेदनशील पाठक होगा जिसे यह अपने मन की बात न लगेगी..

" चुप्पी तोड़ो "...............


आओ !!!
डूब मरें ....

जब कायर
नपुंसक
बेशर्म
और मुर्दादिल जैसे शब्द
हमें झकझोरने में
हो जाएँ बेअसर
घिघियाना
गिड़गिडाना
और लात जूते खाकर भी
तलवे चाटना
बन जाए हमारी आदत
अपने को मिटा देने की सीमा तक
हम हो जाएँ समझौतावादी

तो आओ !!!
डूब मरें....


जब खून में उबाल आना
हो जाए बंद
भीतर महसूस न हो
आग की तपिश
जब दिखाई न दे
जीने का कोई औचित्य
कीड़े- मकौडों का जीवन भी
लगने लगे हमसे बेहतर
हम बनकर रह जाएँ केवल
जनगणना के आंकड़े
राजनितिक जलसों में
किराए की भीड़ से ज्यादा
न हो हमारी अहमियत

तो आओ !!!
डूब मरें...

जब हमारी मुर्दानगी के परिणामस्वरूप
सत्ता हो जाए स्वेच्छाचारी
हमारी आत्मघाती सहनशीलता के कारण
व्यवस्था बन जाए आदमखोर
जब धर्म और राजनीति के बहुरूपिये
जाति और मज़हब की अफीम खिलाकर
हमें आपस में लड़ाकर
' बुल फाईट ' का लें मजा
ताली पीट - पीटकर हँसे
हमारी मूर्खता पर
और हम
उनकी स्वार्थ सिद्धि हेतु
मरने या मारने पर
हो जाएँ उतारू

तो आओ !!!
डूब मरें...

इससे पहले कि
इतिहास में दर्ज हो जाए
मुर्दा कौम के रूप में
हमारी पहचान
राष्ट्र बन जाए
बाज़ार का पर्याय
जहाँ हर चीज हो बिकाऊ
बड़ी- बड़ी शोहरतें
बिकने को हों तैयार
लोग कर रहे हों
अपनी बारी का इन्तजार
जहाँ बिक रही हो आस्था
बिक रहा ईमान
बिक रहे हों मंत्री
बिक रहे दरबान
धर्म और न्याय की
सजी हो दूकान
सौदेबाज़ों की नज़र में हों
संसद और संविधान
देश बेचने का
चल रहा हो खेल
और हम सो रहे हों
कान में डाले तेल

तो आओ !!!
डूब मरें.....

जब आजाद भारत का अंगरेजी तंत्र
हिन्दी को मारने का रचे षड़यंत्र
करे देवनागरी को तिरस्कृत
मातृभाषा को अपमानित
उडाये भारतीय संस्कृति का उपहास
पश्चिमी सभ्यता का क्रीतदास
लगाये भारत के मस्तक पर
अंगरेजी का चरणरज
तब इस तंत्र में शामिल
नमक हरमों को
देशद्रोही, गद्दारों को
कूड़ेदान में फेंकने के बदले
अगर हम बैठाएं सिर- आँखों पर
करें उनका जय-जयकार
गुलामी स्वीकार

तो आओ !!!
डूब मरें...

जब सरस्वती के आसन पर हो
उल्लुओं का कब्ज़ा
भ्रष्ट, मक्कार और अपराधी
उच्च पदों पर हों प्रतिष्ठित
मानवतावादियों को दी जाए
आजीवन कारावास की सजा
हिंसा को धर्म मानने वाले
रच रहें हों देश को तोड़ने की साज़िश
और हम तटस्थ हो
बन रहें हों बारूदी गंध के आदी
हथियारबंद जंगलों में
उग रही हो आतंक की पौध
हथियारों की फसल
लूट ,हत्या बलात्कार
बन गएँ हों दैनिक कर्म
तो गांधी से आँखें चुराते हुए

आओ !!!
डूब मरें...

जब सत्य बोलते समय
तालू से चिपक जाए जीभ
दूसरे को प्रताड़ित होता देख
हम इतरायें अपनी कुशलता पर
समृद्धि पाने के लिए
बेच दें अपनी आदमियत
जब भूख से दम तोड़ते लोग
कुत्तों द्वारा छोडी हड्डियाँ चूसकर
जान बचाने की कर रहे हों कोशिश
खतरनाक जगहों, घरों, ढाबों में
काम करते बच्चे
पूछ रहे हों प्रश्न -
पैदा क्यों किया?
बचपन क्यों छीना?
हमसे कोई प्यार क्यों नहीं करता?
तब आप चाहें हों
किसी भी दल के समर्थक
विकास के दावे पर थूकते हुए
होते हुए शर्मशार

आओ !!!
डूब मरें...

और जब
टूटती उमीदों के बीच
आकस्मात
कोई लेकर निकल पड़े मशाल
अँधेरे को ललकार
लगा दे जीवन को दांव पर
तो उस निष्पाप, पुण्यात्मा को
यदि हम दे न सकें
अपना समर्थन
मिला न सकें
उसकी आवाज़ में आवाज़
चल न सकें दो कदम उसके साथ
अन्धकार से डरकर
छिप जाएँ बिलों में
बंद कर लें कपाट
तो यह
अक्षम्य अपराध है
अँधेरे के पक्ष में खड़े होने का
षड़यंत्र है
उजाले को रोकने का
इसलिए लोकतंत्र को
अंधेरों के हवाले करने से पहले

आओ !!!
डूब मरें....

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(पत्रिका प्राप्ति हेतु पता-

संपादक

समकालीन अभिव्यक्ति
फ्लैट नंबर 5, तृतीय तल,984,वार्ड नंबर- 7,
महरौली, नयी दिल्ली-30.)

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22.6.11

पूर्णाहुति ...

तो क्या हुआ यदि पांचवीं में तीन साल फेल होने के बाद, फिर कभी फिरकर उसने विद्यालय का मुंह नहीं देखा था. व्यक्ति और परिस्थतियों को नियंत्रित करने की उसकी जो क्षमता थी,वह कोई शिक्षण संस्थान किसी को नहीं सिखाता... दुनियादारी के गुर किताबें सिखा भी कहाँ पाती हैं , बल्कि किताबों में जो होते हैं, उन निति सिद्धांतों पर आँख कान दिए सरपट चले आदमी, तो अपना बेडा ही गर्क न करा ले..

अपनी जन्मदायिनी अथाह लगाव था उसे. अन्धानुगामिनी थी वह उसकी. यहाँ तक कि उसके पिता अपनी पत्नी के जिन दुर्गुणों से त्रस्त और क्षुब्ध रहते थे, वे समस्त गुण उसे खासे जीवनोपयोगी लगते थे..पिता का क्षोभ उसे असह्य था..और फिर एक दिन जब विवेकहीना माता ने नितांत महत्वहीन बात पर क्रोधावेग में अपने शरीर को अग्नि में विसर्जित कर दिया , इस दुर्घटना का पूर्ण दोषी भी उसने अपने जनक को ही ठहराया. फांसी के फंदे तक उन्हें पहुंचा छोड़ने को वह प्रतिबद्ध हो उठी..वो तो नाते रिश्तेदारों ने मिलकर किसी प्रकार स्थिति को सम्हाला और माता के साथ साथ पिता से भी वंचित होने से उन चारों बहनों को बचाया था..

तात्कालिक क्षोभ का ज्वार जब उसका उतरा तो बारह वर्षीय उस बाला ने पूरे सूझ बूझ के साथ अपने घाटे भले का भली प्रकार अंकन किया और इस दुर्घटना में भी अपने लिए सुनहरा अवसर ही पाया..सुविधानुसार जीवन भर वह इसे भुनाती रही..उसने कभी भी अपने पिता को विस्मृत नहीं करने दिया कि वह एक पत्नी हन्ता पापी है..स्वयं को पीड़ित व्यथित और पिता को हीन ठहरा उसने अपने लिए हर किसी का ध्यान और अपार महत्त्व अर्जित किया..जब जो वह चाहती घर में सब उसीके अनुसार होता..

चलता तो यह जीवन भर रहता ,पर उसके मार्ग में पहाड़ सी अवरोधक बनी उसकी विमाता..अपने भर उसने पूरा प्रयत्न किया कि पिता के जीवन में सुख की क्षीण ऊष्मा न पहुंचे , परन्तु सम्पूर्ण यत्न कर भी इस विवाह को वह रोक न पायी..हालाँकि पिता भी सहज भाव से इस विवाह हेतु प्रस्तुत न हुए थे, पर परिवार समाज वालों का दवाब और चार चार नन्ही बच्चियों के लालन पालन और भविष्य की चिंता ने उनके लिए दूसरा कोई मार्ग नहीं छोड़ा था..

अपने पिता के द्वितीय विवाह को उसने अपने पराजय और चुनौती रूप में स्वीकारा था. इस पीड़ा को सदा उसने ह्रदय में जगाये रखा और प्रतिशोधस्वरूप जीवन भर अपने पिता को न तो अपनी दूसरी पत्नी के गुणों को देखने परखने का अवसर दिया और न ही उन्हें इस अपराध बोध से मुक्त होने दिया कि विमाता ला, उन्होंने अपनी पुत्रियों पर कितना बड़ा अत्याचार किया है..अपने चतुर युक्तियों से घटनाओं को संचालित करती शांति प्रेम सद्भाव को कभी उसने अपने घर की चौखट लांघ अन्दर आने न दिया..मानसिक संताप और अशांति तले अहर्निश कुचले जाते पिता को असमय ही कालकलवित होते देख भी उसका ह्रदय न पसीजा था..

तीनो बहनों को भी वह इस प्रकार नियंत्रित करती थी कि जब कभी भी उनका मन अपनी विमाता के ममत्व पर पिघलने को होता था, पल में उस आवेग को अपने समझाइश की झाडू से बुहार वह उनके मन के घृणा के पौध को लहलहा देती थी.. चारों के मन से वितृष्णा निकालने के उपक्रम में विमाता ने क्या न किया. इनका घर बसाने को उन्होंने अपने देह के गहने चुन चुन कर हटा दिए, आधे से अधिक खेत बारी निपटा दिए ,पर फिर भी वह इनके मन में अपने लिए छोटा सा एक कोना नहीं निकाल पाई...

और एक दिन जैसे ही उसे पता चला कि जिस देश में वह रह रही है,वहां के संविधान ने उसे यह अधिकार दिया है कि वह पिता की संपत्ति के टुकड़े कर अपना हिस्सा उगाह सकती है, अपनी बहनों को समझा बुझा फुसला कर वह मायके लेती गयी और अब तक की बची खुची संपत्ति के पांच भाग करा, अपने हिस्से के घर घरारी और खेत बारी बेच, अपने उस सौतेले भाई को उस स्थिति में पहुंचा दिया जिसमे कि वह अपने जनम को कोसता.. परिवार नातेदार और गाँव घर वाले सब उसके खिलाफ एकजुट होकर लड़े थे यह लड़ाई, पर विजय उसे ही मिली ,क्योंकि देश का कानून उसके साथ था.

दुहरी जीत हुई थी उसकी .एक तरफ जहाँ उसने अपने बाल बच्चों के सुखद भविष्य हेतु इतना सारा धन संचित कर लिया था ,वहीँ लगे हाथों विमाता को भी वह आघात दिया था जिससे उबर कर अपने प्राण बचा पाना उसके लिए संभव न था.. जिस विमाता को उसने जीवन भर समस्त समस्याओं का जड़ माना, बिना कोई अस्त्र शस्त्र चलाये उसके प्राण लेने में वह सफल हो गई थी.वर्षों संघर्ष के उपरांत उसके अवसान से उसके प्रतिशोध को पूर्णाहुति मिली थी..

पर कलपते हुए अंतिम हिचकी के साथ विमाता भी ईश्वर से एक विनती कर गयी थी-

"हे ईश्वर !!! इन बच्चियों का घर, बाल बच्चों और धन धान्य से सदा पूर्ण रखना और कभी न कभी इन्ही के द्वारा न्याय अवश्य करना .."



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1.6.11

प्रेम पत्र....

अपार उर्जा उत्साह उस्तुकता आशाओं आकांक्षाओं और स्वर्णिम भविष्य के संजोये स्वपनों से भरा किशोर वय जब पहली बार उस देहरी को लांघता है जिसके बाद उसकी वयस्कता को सामाजिक मान्यता मिलती है,उसे समझदार और समर्थ माना जाने लगता है,बात बात पर बच्चा ठहराने के स्थान पर अचानक हर कोई उसे, अब तुम बच्चे हो क्या ?? कहने लगते हैं, तो वह नव तरुण हर उस विषय को जान लेने को उत्कंठित हो उठता है, जिसतक आजतक उसकी पहुँच नहीं थी...यह रोमांचक देहरी होती है महाविद्यालय की देहरी..

बुद्धि चाहे जितनी विकसित हुई हो तब तक, पर एक तो बचपने के तमगे से मुक्ति की छटपटाहट और दूसरे बारम्बार अपने लिए बच्चे नहीं रह जाने की उद्घोषणा उस वय को स्वयं को परिपक्व युवा साबित करने को प्रतिबद्ध कर देती है. और फिर इस क्रम में जो प्रथम प्रयास होता है,वह होता है प्रेम व्रेम, स्त्री पुरुष सम्बन्ध आदि उन विषयों का अधिकाधिक ज्ञान प्राप्ति का प्रयास जो आज तक नितांत वर्ज्य प्रतिबंधित घोषित कर रखा गया था इनके लिए... पर विडंबना देखिये, उक्त तथाकथित बड़े से बड़ा और समझदार होने की अपेक्षा तो सब करते हैं, पर उसके आस पास के सभी बड़े इस चेष्टा में अपनी समस्त उर्जा झोंके रहते हैं कि इस गोपनीय विषय तक उनके बच्चों की पहुँच किसी भांति न हो पाए . यह अनभिज्ञता उनके गृहस्थ जीवन तक इसी प्रकार बनी रहे, इसके लिए उससे हर बड़े ,हर प्रयत्न और प्रबंध किये रहते हैं...

समय के साथ जैसे जैसे समाज में खुलापन आता गया है, टी वी सिनेमा इंटरनेट आदि माध्यमों ने इस प्रकार से सबकुछ सबके लिए सुलभ कराया है, कि जो और जितना ज्ञान हमारे ज़माने के बच्चों को बीस बाइस या पच्चीस में प्राप्त होता था, बारह ग्यारह दस नौ करते अब तो सात आठ वर्ष के बच्चों को सहज ही उतना प्राप्त हो जाता है..आज मनोरंजन के ये असंख्य साधन बच्चों को जल्द से जल्द वयस्क बन जाने और अपनी वयस्कता सिद्ध करने को प्रतिपल उत्प्रेरित प्रतिबद्ध करते रहते हैं..

खैर, बात हमारे ज़माने की..एकल परिवार के बच्चे हम सिनेमा और कुछेक कथा कहानी उपन्यासों को छोड़ प्रणय सम्बन्ध और प्रेम पत्र ,रोमांटिसिज्म प्रत्यक्षतः देख सीख जान पाने के अवसर कहीं पाते न थे. घर में जबतक रहे, जिम्मेदारियों के समय " इतने बड़े हो गए, इतना भी नहीं बुझाता " और इन वयस्क विषयों के समय निरे बच्चे ठहरा दिए जाते थे..सिनेमा काफी छानबीन के बाद दिखाया जाता था,जिसमे ऐसे वैसे किसी दृश्य की कोई संभावना नहीं बचती थी और विवाह से ढेढ़ साल पहले जब घर में टी वी आया भी तो दूरदर्शन पर दिखाए जा रहे किसी सिनेमा में जैसे ही किसी ऐसे वैसे दृश्य की संभावना बनती , हमें पानी लाने या किसी अन्य काम के बहाने वहां से भगा दिया जाता था..जानने को उत्सुक हमारा मन, बस कसमसाकर रह जाता था..

उधर जब बी ए में छात्रावास गए भी तो वह तिहाड़ जेल को भी फेल करने वाला था..बड़े बड़े पेड़ों से घिरे जंगलों के विशाल आहाते में एक चौथाई में छात्रावास था और बाकी में कॉलेज. चारों ओर की बाउंड्री बीस पच्चीस फीट ऊँची, जिसपर कांच कीले लगी हुईं. छात्रावास और कॉलेज कम्पाउंड के बीच ऊंचा कंटीले झाड़ों वाला दुर्गम दीवार और कॉलेज कैम्पस में खुलने वाला एक बड़ा सा गेट जो कॉलेज आवर ख़त्म होते ही बंद हो जाता था..ग्रिल पर जब शाम को हम लटकते तो लगता कि किसी जघन्य अपराध की सजा काटने आये हम जेल में बंद अपराधी हैं..जबतक हमसे दो सीनियर बैच परीक्षा दे वहां से निकले नहीं और हम सिनियरत्व को प्राप्त न हुए यह जेल वाली फिलिंग कुछ कम होती बरकरार ही रही..लेकिन हाँ,यह था कि समय के साथ जैसे जैसे सहपाठियों संग आत्मीयता बढ़ती गई, ढहती औपचारिकता की दीवार के बीच से इस विषय पर भी खुलकर बातें होने लगीं और अधकचरी ही सही,पर ठीक ठाक ज्ञानवर्धन हुआ हमारा...

अब संस्कार का बंधन कहिये या अपने सम्मान के प्रति अतिशय जागरूकता, कि विषय ज्ञानवर्धन की अभिलाषा के अतिरिक्त व्यवहारिक रूप में यह सब आजमा कर देखने की उत्सुकता हमारे ग्रुप में किसी को नहीं थी..बल्कि पढ़ाई लिखाई को थोडा सा साइड कर मेरी अगुआई में हमारा एक छोटा सा ग्रुप तो इस अभियान में अधिक रहता था कि हमारे सहपाठियों से लेकर जूनियर मोस्ट बैचों तक में इस तरह के किसी लफड़े में फंस किसी ने कुछ ऐसा तो न किया जिससे हमारे छात्रावास तथा उन विद्यार्थियों के अभिभावकों का नाम खराब होने की सम्भावना बनती हो ..आज के बजरंग दल, शिव सैनिक या इसी तरह के संस्कृति रक्षक संगठन वेलेंटाइन डे पर प्रेमियों के खिलाफ जैसे अभियान चलाते हैं, उससे कुछ ही कमतर हमारे हुआ करते थे..यही कारण था कि छात्रावास प्रबंधन के हम मुंहलगे और प्रिय थे.

तो एक दिन इसी मुंहलगेपन का फायदा उठाते हुए हमने कमरा शिफ्ट करती,करवाती परेशान हाल अपनी छात्रावास संरक्षिका से पेशकश की कि हम उनकी मदद कर के ही रहेंगे..बाकी कर्मचारी इस काम में लगे हुए थे, हमारी कोई आवश्यकता इसमें थी नहीं, पर फिर भी हम जी जान से लग गयीं कि यह अवसर हमें मिले और अंततः मैं और मेरी रूम मेट सविता ने उन्हें इसके लिए मना ही लिया... असल में हमारे छात्रावास से जाने और आने वाले दोनों ही डाक (चिट्ठियां) पहले छात्रावास की मुख्य तथा उप संरक्षिका द्वारा पढ़ी जातीं थीं, उसके बाद ही पोस्ट होती थी या छात्रों में वितरित होती थी. यहाँ से जाने वाले डाक में तो कोई बात नहीं थी..कौन जानबूझकर ऐसी सामग्रियां उनके पढने को मुहैया करवाता,पर आने वाले डाकों पर इन कारगुजारियों में लिप्त लड़कियां पूर्ण नियंत्रण नहीं रख पातीं थीं..छात्रावास का पता इतना सरल था कि यदि कोई विद्यार्थी का नाम और पढ़ाई का वर्ष जान लेता तो आँख मूंदकर चिट्ठी भेज सकता था..और जो ऐसी चिट्ठी आ जाती,तो जो सीन बनता था..बस क्या कहा जाय..यूँ सीन बनकर भी ये चिट्ठियां कभी उन्हें मिलती न थी जिसके लिए होती थी,बल्कि ये सब प्रबंधिका के गिरफ्त में ऑन रिकोर्ड रहती थीं...

इस सहायता बनाम खोजी अभियान में जुटे  छोटे मोटे सामान इधर से उधर पहुँचाने के क्रम में हमने वह भण्डार खोज ही लिया..शाल के अन्दर छुपा जितना हम वहां से उड़ा सकते थे, उड़ा लाये. और फिर तो क्या था, प्रेम पत्रों का वह भण्डार कई महीनों तक हमारे मनोरंजन का अन्यतम साधन बना रहा था.प्रत्यक्ष रूप में मैंने पहली बार प्रेम पत्र पढ़े.वो भी इतने सारे एक से बढ़कर एक..

एक पत्र का कुछ हिस्सा तो आज भी ध्यान में है...


" मेरी प्यारी स्वीट स्वीट कमला,

(इसके बाद लाल स्याही से एक बड़ा सा दिल बना हुआ था,जिसमे जबरदस्त ढंग से तीर घुसा हुआ था..खून के छींटे इधर उधर बिखरे पड़े थे और हर बूँद में कमला कमला लिखा हुआ था)
ढेर सारा किस "यहाँ ".."यहाँ".. "यहाँ"..." यहाँ "....
(उफ़ !!! अब क्या बताएं कि कहाँ कहाँ )
......

तुम क्यों मुझसे इतना गुस्सा हो..दो बार से आ रही हो, न मिलती हो, न बात करती ही,ऐसे ही चली जाती हो..अपने दूकान में बैठा दिन रात मैं तुम्हारे घर की तरफ टकटकी लगाये रहता हूँ कि अब तुम कुछ इशारा करोगी,अब करोगी..पर तुमने इधर देखना भी छोड़ दिया है..क्या हुआ हमारे प्यार के कसमे वादे को? तुम इतनी निष्ठुर कैसे हो गयी कमला..?

( काफी लंबा चौड़ा पत्र था.. अभी पूरा तो याद नहीं, पर कुछ लाजवाब लाइने जो आज भी नहीं झरीं हैं दिमाग से वे हैं -)


देखो तुम इतना तेज सायकिल मत चलाया करो..पिछला बार जब इतना फास्ट सायकिल चलाते मेरे दूकान के सामने से निकली ,घबराहट में दो किलो वाला बटखरा मेरे हाथ से छूट गया और सीधे बगल में बैठे पिताजी के पैर पर गिरा..पैर थुराया सो थुराया..तुम्हे पता है सबके सामने मेरी कितनी कुटाई हुई..सब गाहक हंस रहा था..मेरा बहुत बुरा बेइजत्ती हो गया...लेकिन कोई गम नहीं ...जानेमन तुम्हारे लिए मैं कुछ भी सह सकता हूँ...


और तुम आम गाछ पर इतना ऊपर काहे चढ़ जाती हो....उसदिन तुम इतना ऊंचा चढ़ गयी थी, तुम्हारी चिंता में डूबे मैंने गाहक के दस के नोट को सौ का समझकर सौदा और अस्सी रुपये दे दिया ..वह हरामी भी माल पैसा लेकर तुरंत चम्पत हो गया..लेकिन तुम सोच नहीं सकती पिताजी ने मेरा क्या किया...प्लीज तुम ऐसा मत किया करो..

बसंत अच्छा लड़का नहीं है.कई लड़कियों के साथ उसका सेटिंग है...तुम्हारे बारे में भी वह गन्दा गन्दा बात करता है, तुम मिलो तो तुमको सब बात बताएँगे...तुमको पहले भी तो मैं बताया हूँ फिर भी तुम उससे मिलती हो,हंस हंस के बात करती हो..क्यों करती हो तुम ऐसा...वह तुम्हे पैसा दे सकता है,बहुत है उसके पास..पर प्यार मैं तुम्हे दूंगा..
...... .......... ............


यह कमला कौन थी और उसकी निष्ठुरता का कारण क्या था,यह जानने की उत्सुकता हमारी वर्षों बरकरार रही...

* * *
देह दशा में हमसे बस बीस ही थी श्यामा ( हमारा किया नामकरण ) ,पर उसकी शारीरिक क्षमता हमसे चौगुनी थी..जब कभी हम बाज़ार जाते और सामान का वजन ऐसा हो जाता कि लगता अब इज्जत का विचार त्याग उसे सर पर उठा ही लेना पड़ेगा, श्यामा संकट मोचन महाबलशाली हनुमान बन हमारा सारा भार और संकट हर लेती..या फिर जब महीने दो महीने में कभी छात्रावास का पम्प खराब हो जाने की वजह से पहले माले तक के हमारे बाथरूम में समय पर पानी न पहुँच पाता और कम्पाउंड के चापाकल से पानी भर बाथरूम तक पानी ले जाने की नौबत बनती ,जहाँ मैं और सविता मिल एक बाल्टी पानी में से आधा छलकाते और पंद्रह बार रखते उठाते कूँख कांखकर आधे घंटे में पानी ऊपर ले जाते थे,श्यामा हमारे जम्बोजेट बाल्टियों में पूरा पानी भर दोनों हाथों में दो बाल्टी थाम, एक सांस में ऊपर पहुंचा देती थी.चाहे शारीरिक बल का काम हो या उन्घाये दोपहर में क्लास अटेंड कर हमारे फेक अटेंडेंस बना हमारे लिए भी सब नोट कर ले आने की बात , सरल सीधी हमारी वह प्यारी सहेली हमेशा मुस्कुराते हुए प्रस्तुत रहती थी..असीमित अहसान थे उसके हमपर..हम हमेशा सोचा करते कि कोई तो मौका मिले जो उसके अहसानों का कुछ अंश हम उतार पायें...

ईश्वर की कृपा कि अंततः एक दिन हमें मौका मिल ही गया..कुछ ही महीने रह गए थे फायनल को, फिर भी दोपहर की क्लास बंक कर हम होस्टल में सो रहे थे और सदा कि भांति श्यामा पिछली बैंच पर बैठ हमारा अटेंडेस देने और नोट्स लाने को जा चुकी थी..गहरी नींद में पहुंचे अभी कुछ ही देर हुआ था कि हमें जोर जोर से झकझोरा गया..घबरा कर अचकचाए क्या हुआ क्या हुआ कह धड़कते दिल से हम उठ बैठे..देखा श्यामा पसीने से तर बतर उखड़ी साँसों से बैठी हुई है.. पानी वानी पीकर जब वह थोड़ी सामान्य हुई तो पता चला कि आज बस भगवान् ने खड़ा होकर उसकी और हमारे पूरे ग्रुप की इज्जत बचाई है..

हुआ यूँ कि जब वह क्लास करने जा रही थी, गेट से निकली ही थी कि छात्रावास की डाक लेकर आ रहा डाकिया पता नहीं कैसे उससे कुछ दूरी पर गिर गया और उसका झोला पलट गया..श्यामा उसकी मदद करने गयी और बिखरी हुई चिट्ठियां बटोर ही रही थी कि उसकी नजर एक सबसे अलग ,सबसे सुन्दर लिफ़ाफ़े पर पडी जिसपर कि उसीका नाम लिखा हुआ था..डाकिये को किसी तरह चकमा दे उसने अपना वह पत्र पार किया था और जो बाद में खोला तो देखा उसके नाम प्रेम पत्र था.

उसकी बात सुन पल भर को थरथरा तो हम भी गए..पर फिर उसे ढ़ाढस बंधा हमने इसकी तफ्शीस शुरू की..पता चला कि यह युवक श्यामा से कुछ महीने पहले किसी रिश्तेदार की शादी में मिला था और उससे इतना अधिक प्रभावित हुआ था कि उसने श्यामा के घर विवाह का प्रस्ताव भेजा था..श्यामा के समाज में रिश्ते लड़कीवाले नहीं लड़केवाले मांगने आते थे और जैसे नखरे हमारे समाज में लड़केवालों के हुआ करते हैं,वैसे इनके यहाँ लड़कीवालों के हुआ करते थे.. चूँकि इनके समाज में उन दिनों पढी लिखी लड़कियों की बहुलता थी नहीं, तो श्यामा जैसी लड़कियों का भारी डिमांड था. थे तो वे एक ही बिरादरी के और लड़का काफी पढ़ा लिखा और अच्छे ओहदे पर था, पर शायद कुछ पारिवारिक कारण रहे होंगे जो श्यामा के परिवार को यह रिश्ता स्वीकार्य नहीं था..

खैर, हम तो हिस्ट्री ज्योग्राफी जान जुट गए प्रेम पत्र पढने में..लेकिन जो पढना शुरू किया तो दिमाग खराब हो गया..छः सात लाइन पढ़ते पढ़ते खीझ उठे हम..

" ई साला शेक्सपीयर का औलाद, कैसा हार्ड हार्ड अंगरेजी लिखा है रे...चल रे, सबितिया जरा डिक्सनरी निकाल,ऐसे नहीं बुझाएगा सब ..." और डिक्सनरी में अर्थ ढूंढ ढूंढ कर पत्र को पढ़ा गया..एक से एक फ्रेज और कोटेशन से भरा लाजवाब साहित्यिक प्रेम पत्र था... पत्र समाप्त हुआ तबतक हम तीनो जबरदस्त ढंग से युवक के सोच और व्यक्तित्व से प्रभावित हो चुके थे..

गंभीर विमर्श के बाद  हमने श्यामा को सुझाव दिया कि पढ़े लिखे सेटल्ड सुलझे हुए विचारों वाले ऐसे लड़के और रिश्ते को ऐसे ही नहीं नकार देना चाहिए...न ही जल्दीबाजी में हां करना चाहिए न ही न.. कुछ दिन चिट्ठियों का सिलसिला चला, उसके सोच विचार के परतों को उघाड़ कर देख लेना चाहिए और तब निर्णय लेना चाहिए.ठीक लगे तो माँ बाप को समझाने का प्रयास करना चाहिए.और जो वे न माने तो प्रेम विवाह यूँ भी उनके समाज में सामान्य बात है.. नौबत आई तो यहाँ तक बढा जा सकता है..

तो निर्णय हुआ कि इस पत्र का जवाब दिया ही जाय..लेकिन समस्या थी, कि जैसा पत्र आया था,उसके स्तर का जवाब, जिससे श्यामा की भी धाक जम जाए, लिखे तो लिखे कौन..श्यामा तो साफ़ थी, क्या अंगरेजी और क्या साहित्यिक रूमानियत.. सविता की अंगरेजी अच्छी थी, तो हम पिल पड़े उसपर ...खीझ पड़ी वह-
" अबे, अंगरेजी आने से क्या होता है, लिखूं क्या, हिस्ट्री पोलिटिकल साइंस " ...

बात तो थी...सब पहलुओं पर विचार कर यह ठहरा कि साहित्यिक स्तर का प्रेम पत्र अगर कोई लिख सकता है तो वह मैं ही हूँ..पर मेरी शर्त थी कि मैं लिखूंगी तो हिन्दी में लिखूंगी..तो बात ठहरी पत्र हिन्दी में मैं लिखूंगी, सविता उसका इंग्लिश ट्रांसलेशन करेगी और फिर श्यामा उसे अपने अक्षर में फायनल पेपर पर उतारेगी.. इसके बाद अभियान चला लेटर पैड मंगवाने का , क्योंकि अनुमानित किया गया था कि जिस पेपर और लिफ़ाफ़े में पत्र आया है एक कम से कम बीस पच्चीस रुपये का तो होगा ही होगा ,तो जवाब में कम से कम दस का तो जाना ही चाहिए..

और जीवन में पहली बार (आगे भी कुछ और) मैंने जो प्रेम पत्र लिखा, अपनी उस सहेली के लिए लिखा, जबकि उस समय तक मेरा कट्टर विश्वास था कि मुझे कभी किसी से प्रेम हो ही नहीं सकता,यदि मेरा वश चले तो जीवन भर किसी पुरुष को अपने जीवन और भावक्षेत्र में फटकने न दूं, क्योंकि पुरुष, पिता भाई चाचा मामा इत्यादि इत्यादि रिश्तों में रहते ही ठीक रहते हैं, स्त्री का सम्मान करते हैं,एक बार पति बने नहीं कि स्त्री स्वाभिमान को रौंदकर ही अपना होना सार्थक संतोषप्रद मानते हैं...

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(स्मृति कोष से- )
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10.5.11

मन के माने -


(भाग-३)


ठाकुर जी ने त्यागा अपना मंदिर आ दिन भर डोलते रहते थे सेवक के संग संग..उनसे पूछ पूछ उनके पसंद के ज्योनार तैयार करता सेवक तो ठाकुर जी भी हर काम में उसकी मदद करते..दो जने मिलते तो झटपट निपट जाता सारा काम ..और जैसे ही सेवक निपटता,ठाकुर जी उसे साथ लेकर तरह तरह के खेल खेलने में व्यस्त हो जाते..जिस सेवक ने कभी जाना ही नहीं कि बचपन क्या होता है, मुरलीधर के साथ बालपन का स्वर्णिम सुख लूट रहा था..

कुछ दिनों तक तो लीला आश्रम प्रांगण में ही सिमटी रही पर धीरे धीरे यह बाहर भी निकली...अब दोनों जने आश्रम की गायों, ढोरों आदि को ले दूर जंगल में निकल जाते और उहाँ पहुँच जो ठाकुर जी बंसी की धुन छेड़ते तो जंगल के सभी जीव जंतु आकर इन्हें घेर लेते..जल्दी ही जंगल के कई चरवाहे आकर इनके मित्र बन गए और फिर नित्यप्रति ही मंडली आश्रम में जीमने लगी..सब जने जमा होते आ खूब पूरी कचौड़ी उड़ाई जाती..

मजे तो खूब थे,लेकिन गड़बड़ी यह हुई कि बाबा जी का साल भर के लिए जमा किया हुआ राशन पानी का स्टाक बीस बाइस दिन जाते जाते झाँय हो गया..सेवक घोर चिंतित कि अब ठाकुर जी को क्या खिलाया जाय..इधर ठाकुर जी का खुराक भी चार गुना हो गया था..जब तब सेवक से किसी न किसी आइटम की फरमाइश किया करते थे..अनाज का जुगाड़ कहाँ से किया जाय, इसका कोई आइडिया नहीं था बेचारे को..अंत में उसने युक्ति निकाली.. अक्सर ही वह देखता था, बाबा एकादशी या कोई अन्य तिथि बताकर फलाहार या उपवास किया करते थे..अब उन्हें उपवास तो नहीं करवा सकता था , पर आश्रम में फल मूल इतने थे कि फलाहार के नाम पर आराम से कई दिनों तक इनपर गुजर हो सकता था..तो अगले दिन से कभी एकादशी तो कभी कोई और तिथि बताकर वह ठाकुर जी को तरह तरह के फल जुटाकर खिलाने लगा.उनके जो संगी साथी आते ,उन्हें भी फलाहार ही कराता..पर हाँ,इतना था कि अपने लिए वह इन फलों का न्यूनतम उपयोग किया करता, ताकि अधिकाधिक समय तक इनसे काम चला सके..

महीने भर के जगह पर सवा महीने लगा दिए बाबा जी ने वापस आने में और तबतक तो यह हालत हो गई थी कि कई दिनों से ठाकुर जी को फल जिमाकर सेवक खुद केवल जल पर ही दिन काट रहा था..बाबा जी के इन्तजार का एक एक घड़ी उसको पहाड़ लग रहा था..जैसे ही बाबा जी को उसने देखा,उसके जान में जान आई.भागकर वह बाबा के चरणों में लोट गया..पर उसकी जीर्ण स्थिति देख बाबा चिंतित हो गए..उन्हें अंदेशा हुआ कि कहीं सेवक को किसी रोग वोग ने तो नहीं धर लिया..

बाबा ने पूछताछ शुरू की और जो कारण यह जाना कि अन्न के बिना सेवक की यह हालत है..कुल भण्डार निपट चुका है...बाबा को अपने कानो पर विश्वास नहीं हुआ. लम्बे डग भर वे भण्डार में पहुंचे..बात सत्य थी..बाहर नजर घुमाई तो देखा पेड़ों पर फूल बतिया के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं..बाबा परेशान कि ऐसा कैसे हो सकता है कि एक वर्ष का अन्न महीने भर में कोई खा जाय ,आ और तो और फलों से लदे रहने वाले बगीचे में पेड़ों पर बतिया भी न बचे..

तरह तरह की आशंकाओं से बाबा का दिमाग भर गया. कड़ककर उन्होंने सारा हिसाब माँगा ...और जो भी था,पर सेवक की इमानदारी पर कभी किसीने शक न किया था.अपने पर इल्जाम लगता देख सेवक तिलमिला उठा और बताने लगा कि कब कैसे क्या खर्च हुआ..ठाकुर जी ने कब क्या खाया और उनके दोस्तों ने कितनी दावतें उड़ाई..बाबा कड़के..क्या कहा,ठाकुर जी ने सब खाया..कैसे खाया...ठाकुर जी कैसे खा सकते हैं ???

सेवक के आँखों से आंसू झरने लगे..बाबा का पारा सातवें आसमान पर ..एक तो चोरी,ऊपर से रो के दिखा रहा है..बाबा दहाड़े ..ठाकुर जी पर इल्जाम लगाता है..ठाकुर जी खाते हैं,चल खिला कर दिखा ठाकुर जी को..देखूं कैसे खाते हैं ठाकुर जी..यह कहकर उन्होंने रास्ते के चने चबेने वाली पोटली फेंकी सेवक की ओर..थाली में उसे सजाकर सेवक पहुंचा ठाकुर जी के मंदिर..दिल तो उसका चाक चाक हुआ जा रहा था पर चबेना पाते ही सबसे पहले उसके दिमाग में यह आया कि चलो अच्छा हुआ बाबा की पोटली से ठाकुर जी के खाने का इंतजाम हो गया ,नहीं तो कई दिन से बेचारे फलाहार पर ही समय काट रहे थे.. उत्साहित मन वह ठाकुर जी को खिलाने पहुंचा..उसने सोचा , चलो पहले प्रभुजी को यह खिला दिया जाय..फिर तो आपै आप वे मेरी गवाही दे ही देंगे, मुझे कुछ कहने की जरूरत ही कहाँ रहेगी.

पर यह क्या, सामने परोसी थाली, इतने दिन से अन्न को तरस रहे ठाकुर जी पर आज वे अन्न को हाथ ही नहीं लगा रहे..खूब अनुनय विनय की सेवक ने, पर प्रभु होठों पर मुरली धरे पत्थर की मूरत बने हुए..सेवक परेशान कि ये क्या बात हुई..रोज तो मांग मांग कर परेशान कर देते थे और आज ये सामने परोसी थाली छोड़कर मूरत क्यों बने हुए हैं..और उधर बाबा, आपे से बाहर..अपने हाथ की छडी ले वे पिल पड़े सेवक पर..उसे झूठा, चोर ,धोखेबाज़ ,मक्कार और न जाने क्या क्या कहने लगे..अपने आप को वे ठगा महसूस कर रहे थे, क्योंकि सेवक पर अपार विश्वास किया था उन्होंने.. क्रोध के अतिरेक ने उनका धैर्य क्षमा वैराग्य, सब बहा दिया था..

सेवक रोता जाता था और अपने को बेक़सूर बताता जाता था. उसका दिल अलग फटा जा रहा था कि देखो जिसकी इतने दिन से इतने मन से सेवा की, जो मुझे दोस्त दोस्त कहते न थकता था, उसके सामने मेरी सब गति हो रही है,मुझे चोर धोखेबाज ठहराया जा रहा है और वह चुपचाप खड़ा सुन रहा है..माथा पीट पीटकर वह रोने लगा..और तब प्रभु प्रगटे और भोजन की थाल लेकर खुद भी खाने लगे और सेवक के मुंह में भी डालने की चेष्टा करने लगे..हवा में लटका थाल ,हवा में जाता हुआ कौर तो बाबा जी को दिखा पर आधार उन्हें न दिखा..

लेकिन उन्हें समझते देर न लगी कि सेवक ने झूठ नहीं कहा था..प्रभु ने सचमुच सेवक की सेवा प्रत्यक्ष होकर स्वीकारी थी...अब चूँकि उनकी आँखों पर माया और अविश्वास का चश्मा चढ़ा हुआ था, तो ठाकुर जी का साकार रूप दीखता कैसे ..कितने अभागे हैं वे और कितना भाग्यवान है सेवक..रोम रोम में रोमांच भर आया बाबा के..आँखों से अविरल अश्रुधारा बरस पड़ी..कातर भाव से कह उठे, प्रभु,मुझपर भी दया करो, मुझे भी दर्शन दे दो प्रभु...

और जब मन ने समस्त आवरण उतार प्रभु दर्शन और मिलन की उत्कट अभिलाषा की बाबा ने, भक्ति शिखर पर पहुँच कातर याचना की ... प्रभु नयनाभिराम हो उठे..विह्वल हो उठे बाबा. आज जन्म सार्थक हो गया था उनका. आज उन्हें समझ में आया था कि आजतक वे प्रभु की जो सेवा करते थे, वह धार्मिक कर्मकांड मान करते थे,जिससे उनकी आध्यात्मिक उन्नति होती..उनके मन मस्तिष्क ने यह कभी माना नहीं था कि प्रभु साकार रूप में भी भक्तों के बीच उन जैसे ही बनकर रहते हैं...और जब माना नहीं था तो इस असंभव की अभिलाषा भी उन्होंने कभी नहीं की थी.लेकिन सेवक, उसको उन्होंने जो कहा सेवक ने निर्मल भाव से उसे मान लिया और उसके मन के विश्वास ने निराकार को साकार कर दिया..


त इस तरह कथा हुई संपन्न...

इतिशुभम !!!


हम अक्सर कहते सोचते रहते हैं, अमुक अमुक बुराई हम छोड़ना चाहते हैं,यह यह अच्छा करना चाहते हैं,ऐसा अच्छा बनना चाहते हैं,पर क्या करें ,हमसे हो नहीं पाता.. कुल्लमकुल हथियार डाल देते हैं पहले ही.. याद नहीं रख पाते कि मन के माने हार है,मन के माने जीत.पहले मन को कन्विंस कर के अपने अन्दर के बुराई,कमजोरी का समूल नाश करने का यदि हम प्रण ले लें ,तो पत्थर के ईश्वर यदि साकार हो सामने उपस्थित हो सकते हैं,तो ऐसा क्या है जो हम नहीं कर सकते..

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3.5.11

मन के माने ...

(भाग - २)
सबकुछ बड़ा बढ़िया चल रहा था कि एक दिन बाबा के गुरुभाई ने अपने शिष्य के हाथों बाबा को खबर भिजवाई की जीवन की अंतिम घड़ी में वे उनका सानिध्य सुख चाहते हैं.उनकी अस्वस्थता ऐसी है की किसी भी घड़ी साँसों को समेटना पड़ सकता है.. अपने आत्मीय की रुग्णता की खबर ने बाबा को व्याकुल कर दिया और तत्क्षण वे चलने को उद्धत हो उठे , पर अचानक उनके उठे पैर ठिठक गए..उन्हें ख़याल आया की आश्रम तो सेवक सम्हाल लेगा,पर ठाकुर जी की पूजा सेवा कौन करेगा..इस सम्पूर्ण प्रक्रिया से तो वह पूर्णतः अनभिज्ञ है ...और ऐसा कि यह इतनी लम्बी चौड़ी प्रक्रिया कोई दो घड़ी में तो सिखाई नहीं जा सकती थी..बाबा अत्यंच चिंतित.. परेशान... कि क्या करें, क्या न करें..पर सेवक अपने मालिक को चिंतित रहने देता ? उसने आश्वस्त किया कि कौनो चिंता न करें,बस क्या करना है ई बता दें, सब हो जायेगा..

बाबा दिमाग लगाये कि इतना कम टाइम में मंतर उंतर रटाने और विधि कंठस्थ कराना तो संभव है नहीं , सो इसको इसकी समझ के हिसाब से ऐसे सब समझाते हैं कि रटाया हुआ बात बराबर इसके ध्यान में रहे और ठाकुर जी का पूजा सेवा ठीक ठाक होता रहे..तो बाबा सेवक को समझाने लगे...देखो बचवा, ई जो ठाकुर जी हैं न, हमरे मालिक,हमरे प्राण ही नहीं हमरे बच्चे जैसे भी हैं, जितना और जैसा सेवा तुम हमरा करते हो, उससे भी दस गुना आगे बढ़कर इनका करना ..इनका खूब खूब खूब ख़याल रखना... टोटल में ई समझ लो कि पहले जैसे धनिकराम जी की और अब मेरी सेवा तुम करते हो उससे दस गुना आगे बढ़कर तुम इनकी करना और अब आज से इन्हें ही अपना मालिक समझना...फिर शार्ट कट में उन्होंने सेवक को समझा दिया कि ठाकुर जी को ऐसे सुबह में उठाना है, नहलाना धुलाना, चन्दन टीका लगाना है, फूल माला इत्यादि से श्रिंगार कर चारों पहर खूब प्रेम से उन्हें भोजन कराना है.. और जो वो भोजन कर लें, तभी स्वयं प्रसाद खाना..सब समझा बुझा के बाबा ने भण्डार की चाभी ,जिसमे कि साल भर से अधिक का राशन संरक्षित था, सेवक को पकडाया और निकल पड़े गंतब्य की ओर..

ठाकुर जी को दुपहरिया तक का भोजन पानी तो बाबा ने करा दिया था,सेवक का ड्यूटी उसके बाद से शुरू हुआ. आजतक सेवक ठाकुर जी के मंदिर गया न था,उसका ड्यूटी बाहरे बाहरे रहता था, इसलिए उधर के हाल चाल का उसे कोई अंदाजा न था..लेकिन बाबा ने जितना भरोसा उसपर किया था और जो जिम्मेदारी उसको दिया था तो हर हालत में सेवक ने उसपर खरा उतरना ही था..तो उसने अपने अगले कर्तब्य की ओर ध्यान लगाया और सोचा कि अभी तो ठाकुर जी भोजन कर विश्राम कर रहे होंगे,तो चलो चलकर उनका गोड़ दबा देते हैं, उन्हें बड़ा सुख मिलेगा.. यह सोच हौले से किवाड़ खोल वह अन्दर गया...पर यह क्या, अन्दर पहुँच देखता क्या है कि ठाकुर जी का बिछौना एक तरफ आ ठाकुर जी दूसरे तरफ..होंठों पर बंसिया धरे आ टांग में टांग फंसाए मुस्कुराते हुए खड़े हैं..

सेवक को लगा, हो सकता है अभी इनका सोने का मूड न हो, बंसिया ही बजाना चाहते हों..तो कल जोड़ कर उनके सामने बैठ गया और पुचकारते हुए बोला..ठीक है मालिक, चलिए बंसिया ही बजाइए, हम सुन रहे हैं..और टकटकी लगाकर उनके तरफ देखने लगा..बड़ी देर हो गई इन्तजार करते..सेवक हर थोड़ी देर पर बोलता....हूँ ... तो मालिक सुरु किया जाय, हम सुन रहे हैं..पर पोजीशन वही का वही..सेवक परेशान, कि ई का बात हो गई भला, ठाकुर जी सुरु काहे नहीं कर रहे..इतना बोल रहे हैं ,पर न हूँ कर रहे हैं न हाँ..आ बजाने का तो सवाल ही नहीं...

फिर सेवक ने दिमाग लगाया..आज पहला बार हमको देखे हैं न..हो सकता है इसीलिए हमरे सामने झिझक रहे हैं.. चलो,यहाँ से निकल के किवाड़ उन्ग्ठा देते हैं, अकेले में सायद गा बजा लें..ई सायद सेवक का ही गलती है..काहेकि बाबा जी भी खिला पिलाकर ठाकुर जी को एकांत में छोड़ देते थे..जबतक उनका मन होता होगा बजाते होंगे और जब मन करता होगा सो जाते होंगे..कान पकड़ कर माफी मांग सेवक बाहर निकल आया और बाग़ बगीचे की सफाई कर शाम का खाना बनाने में जुट गया..

संध्या हुई और सेवक दिया बत्ती करने मंदिर में पहुंचा..किवाड़ खोलता है तो देखता क्या है कि अभीतक ठाकुर जी उसी पोज में खड़े हैं..सेवक परेशान !!! ई क्या बात हुई है..न हिल रहे हैं, न डोल रहे हैं न बंसिया बजा रहे हैं क्या हो गया इन्हें..आ इतने देर से ऐसे खड़े खड़े जो हाथ पैर मोड़े हुए हैं, सब तो अकड़ उकड़ गया होगा..सेवक उनसे हाल चाल , समस्या पूछने में डट गया कि मालिक कहें तो उनके हिसाब से सेवा करे..पर मालिक तो मौन के मौन..थक गया सेवक पूछते पूछते पर मालिक ने तो जैसे मौन व्रत धर लिया था. चिंता से व्याकुल सेवक, कि ऐसी क्या भूल हो गई उससे कि मालिक अनबोला व्रत ले लिए...उसे याद आया कि कभी कभी जब धनिकराम उससे खिसिया जाते थे तो ऐसे ही चुप्पी साध लेते थे और कुछ करके भी न बोलते थे..ऐसे समय में उनके आगे पीछे डोल कितनी मिन्नतें करनी पड़ती थी, कितना सेबना पड़ता था .. तभी उसे ख़याल पड़ा कि इ सब चक्कर में तो रात ही हो गया और ठाकुर जी को खाना ही नहीं दिया उसने..घबराकर कान पकड़ माफी मांगते और मन में अनुमान लगाते कि हो सकता है इसके वजह से मालिक औरो खिसिया गए होंगे, वह खाना लाने भागा..

खूब बढ़िया से परोसकर और उनके सामने चौका लगाकर भोजन लेकर वह बैठ गया और मिन्नतें करने लगा कि अब गुस्सा छोडो और दो कौर खा लो प्रभु..पर प्रभुजी, न टस न मस..अनुनय विनय करके जब थक गया सेवक तो ख़याल आया शायद इसी लिए बाबा बोले थे कि ई खाली हमरे मालिक नहीं संतान सामान हैं..अब देखने में भी तो इतने छौने से ही हैं आ बाबा भी तो लगता है दुलार उलार करके इनको तनिक जादा ही सनका दिए हैं, इसलिए तो ऊ ऐसे हठी बने हुए हैं...अब कैसे समझाएं इन्हें..ई जो दुनू हाथ से बंसुरिया धरे हैं,पाहिले उसको छोड़ें तभी न भोजन ओजन करेंगे..बस आगे बढ़ सेवक ने मुरलिया छीन कर धर दी एक तरफ और लगा हाथ को सीधा करने...गजब का चमत्कार हुआ ,ठोस पत्थर के उस मूरत का हाथ बिना टूटे सीधा हो गया और मुरलिया सेवक के हाथ...

सेवक को पहली जीत मिली..और उसे समझ आ गया कि अधिक दुलारने से यहाँ बात नहीं बनेगी..छोटे से छौने से ही तो हैं ठाकुर जी, ठीक हैं कि मालिक यही हैं, पर इन्हें तनिक अनुशासन में रखना पड़ेगा..चलो यह तो हो गया..अब जरा इन्हें खिला देना है और फिर जम के इनका तेल पानी कर देना है, ताकि इनका अकडा हाथ पैर तनिक सीधा हो जाए..पर पुचकारते पुचकारते भोर हो गया और ठाकुर जी भोजन करने चौके पर जीमे ही नहीं..सेवक को लगा कि हो सकता है बाबा जी का विछोह ठाकुर जी से नहीं सहा जा रहा होगा, इसीलिए भोजन भात त्यागे हुए हैं..सो तनिक मन वन बहलाना पड़ेगा इनका ताकि इनका ध्यान बँट जाए आ ई खाने को राजी हो जाएँ...

फिर क्या था, जितने स्वांग सेवक भर सकता था, उसने ठाकुर जी के सामने भर लिए..नाचा, गाया, ढोल मृदंग बजाई,तरह तरह के मुंह बनाकर ,चुटकुले सुनाकर उनका मन मोहने की कोशिश की, पर सब बेकार गया..अगला दिन भी पूरा दिन ऐसे ही बीत गाया. तीसरा दिन भी ऐसे ही निकला..सेवक कभी बुकार फाड़ के रोये ,कभी गाये ,कभी पुचकारे,पर किसी बात का कोई असर उनपर हो ही नहीं रहा था..इस बीच ठाकुर जी को बिछौने पर सुला और तेल पानी लगाकर सेवक ने उनके पैर भी सीधे कर दिए थे..अब उसे कोई उपाय न सूझ रहा था,जो कर वह काम बना पाता..तब आया सेवक को गुस्सा..उसने सोचा ,जो बाबा जी लौटकर आयेंगे और देखेंगे कि इसने खाना पीना त्याग अपना हाल बेहाल कर लिया है, तो कितना दुखी होंगे..तो चलो जो प्यार से बात नहीं बन रही है तो रार से ही सही...बस बाहर जा एक मोटा सोंटा ले सेवक लौटा और ठाकुर जी पर चिन्घारा..ढेर हुआ प्यार दुलार..जदि दो पल के अन्दर उठकर अच्छे बच्चे की तरह खाना नहीं खाया न..तो आज ठीक ठाक मरम्मत करूँगा आपकी, फिर चाहे बाबाजी मेरी जान ले लें..

और चमत्कार हुआ..जैसे ही सेवक ने सोंटा घुमाया, मुरलीधर अच्छे बच्च की तरह आकर चुपचाप बैठकर खाने लगे..सेवक के हाथ का सोंटा जहाँ का तहां स्थिर रह गया और सारा गुस्सा झरकर आँखों से बहने लगा..जो मन गुस्से से जल रहा था ,उतनी ही तीव्रता से ग्लानि की आग में दहकने लगा..कि आजतक किसी भी मालिक के आगे जो आँखें सीधी न उठी थीं, वो आज इनके सामने न केवल उठीं बल्कि इन्हें मारने को भी चल निकला था वह..धडाम से सेवक गिर पड़ा स्वामी के चरणों में.. ठाकुर जी ठठाकर हंस पड़े..और सेवक को उठाते हुए बोले..अरे मैं तो चुहल कर रहा था..तुम्हे पता नहीं मुझे स्वांग भरने, खेलने में कितना आनंद आता है..अब चुप भी करो,मुझे खाने दोगे कि नहीं, तीन दिन से भूखा हूँ..चलो जाओ, भागकर जरा चटनी और ले तो आओ ,कितनी स्वादिष्ट बनी है..

मन भर आया सेवक का,गला रुंध गाया..भागा वह चटनी लेने..खूब प्रेम से परोस परोस आग्रह कर कर के उसने भोजन कराया ठाकुर जी को..भोजन कर चुके तो ठाकुर जी ने भी पुचकार पुचकार कर सेवक को खाना खिलाया..और फिर आग्रह कर उसे अपने कक्ष में ही ठहरा लिया..अब, आगे का का बताएं भैया ...फिर तो लीला ही लीला,,लीला ही लीला..



क्रमशः :-

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28.4.11

मन के माने -

(भाग -)
ढेर दिन तक लिखाई पढ़ाई से किनारे रहो तो दिमागी हालत एकदम से भोथराये गंदलाये काई कोचर आ जलकुम्भी से युक्त उस पोखरिया सी हो जाती है जो ढेर दिन तक बिना पानी के आवक जावक,आमद खर्चा के सीमित परिधि में कैद रहे.. विचार प्रवाह भी ढेरे दिन तक कुंद बाधित रहे तो दिमाग का हालत कुछ ऐसा ही बन के रह जाता है..और दीर्घ अंतराल उपरांत इससे उबरने का कोशिस करो भी तो बुझैबे नहीं करता कि शुरुआत कहाँ से किया जाय...का पढ़ा जाय, का लिखा जाय....भारी भारी कन्फ्यूजन !!!

पर जो हो, निकलना तो पड़ेगा ही इससे..तो करते ऐसा हैं कि इससे उबरने को ऊ नुस्खा आजमाते हैं,जो माइंड रिफ्रेश करने ,अनमनाहट भागने के लिए हम बचपन में किया करते थे. छुटपन में जब कभी मन ऐसे ठंढाता सुस्ताता था, इसका उंगली पकड़, इसको खिस्सा कहानी का स्वप्निल संसार में ले जा के घुमा आते थे, आ बस एक बार उधर से हो के ई आया नहीं कि कई कई दिन तक एकदम चकचकाया रहता था.. अब ऐसा है कि ई काम हम अकेले अपने आप में भी कर सकते हैं..पर का है कि चित्त को जबतक उत्तरदायित्व का रस्सा से कस न दीजिये, इसका सुस्ती और फरारीपना ख़तम नहीं होता... इसलिए इसको ई समझाए हैं कि खिस्सा आपको अपने लिए मने मन नहीं दोहराना है,बल्कि स्रोता समाज को सुनना है,आ कथावाचक का कर्तब्य तब समाप्त होता है जब खिस्सा समाप्त हो जाय..

त चलिए अब फालतू का बात बंद, आ सीधे खिस्सा शुरू :-

तनिक पुराने ई उ ज़माने का खिस्सा है जब जल्मुक्त धरती पर जितने बड़े भूभाग में बस्ती बसा रहता था, उससे बीस तीस गुना बड़े भाग में जंगल पहार पसरा रहता था..आमजन बस्तियों में और समाज को दिशा देने वाले, आत्मा परमात्मा आ सत्य संधान में लगे रहने वाले साधु संतजन जंगलों में रहा करते थे..त ऐसे ही किसी बस्ती के बाहर दूर तक पसरे जंगल में छोटा सा पर फल फूलों से लदकद गाछ वृच्छों से घिरे अतिमनोरम, अतिपावन आश्रम में बाबा रामसुख दास जी का बसेरा था.. बाबा पहुंचे हुए संत थे..उनका पुन्य प्रताप आ सात्विकता ऐसा था कि आस पास का पूरा क्षेत्र पावन पुन्य तीर्थ बन गया था..वहां पहुँच मनुष्य तो क्या हिंसक पशु भी हिंसा भाव भूल परम शांति पाते थे.. माया के मारे लोग यदा कदा बाबा के आश्रम में पहुँच उनसे आशीर्वाद आ मार्गदर्शन ले जीवन सुखी सुगम बनाते रहते थे...

लेकिन जमाना कोई भी हो,अच्छे बुरे लोग हर समय संसार में हुआ करते हैं आ सात्विक धार्मिक लोग अपने आस पास घटित होते गलत को देख सदा ही दुखी उदास खिन्न ह्रदय समय को कोसते समय काटते रहते हैं.. ऐसे ही असंतुष्टों में माता लक्ष्मी के कृपापात्र सेठ धनिकराम भी थे ...घोर धार्मिक प्रवृत्ति के सेठ जी पर पता नहीं कितने जन्मों का वांछित संचित था कि उनको पत्नी, पुत्र सभी घोर धर्मभ्रष्ट मिले. असल में हुआ ई कि अधवयसु में बियाह किये थे और बियाह से पाहिले छानबीन किये नहीं कि चित्त प्रवृत्ति से स्त्री है कैसी. बस गरीब घर की कन्या की सुन्दरता देखी और उसे गुदड़ी का नगीना मान शीश पर सजा लिया. उनकी धारणा थी कि अभाव और दरिद्रता स्वाभाविक ही चरित्र को उदात्त बना देती है,ह्रदय को विशालता देती है.. पर विपरीत हुआ. स्त्री निकली घोर तामसिक प्रवृत्ति की.. उसको जो सबसे पहले खटका वह पति का धार्मिक सुभाव ही था. पति को अपने अनुरूप बनाने की उसने यथेष्ट चेष्टा की पर जब विफलता उसके हाथ लगी तो उग्र विद्रोहिणी ने अपने साथ साथ अपने संतानों को भी घोर पथभ्रष्ट बना लिया...पुत्रों के बड़े होने तक तो सेठ जी ने किसी तरह सब निबाहा पर उमर के साथ साथ माता के संरक्षण में उनकी उद्दंडता ऐसी बढ़ी कि धनिकराम जी अपने जीवन से ही ऊब गए..एक दिन जब अति हो गया तो उन्होंने घर त्याग दिया और जीवन त्याग देने के विचार से घर से निकल पड़े. घर से निकलते समय अपनी तरफ से तो उन्होंने सर्वस्व त्याग दिया था, पर विगत बीस वर्षों से छाया की भांति उनका साथ निभाने वाले उनके विश्वासपात्र सेवक सेवकराम ने उनका साथ ठीक इसी तरह न छोड़ा जैसे जीवन की अंतिम बेला तक धर्म मनुष्य का साथ नहीं छोड़ता..

बस्ती बस्ती , जंगल जंगल भटकते भटकते दोनों बाबा रामसुखदास के आश्रम में पहुंचे.. धनिकराम आश्रम क्या पहुंचे, कि जैसे उनका पाप का कोटा ओभर आ पुन्न का कोटा ऑन हो गया...ऊ तो एकदम्मे जैसे नया जनम पा लिए. बाबा का सात्विक सानिध्य उनके लिए अलौकिक था....अध्ययन मनन, धर्म चर्चा, पेड़ पौधे तथा पशुओं की सेवा, आगंतुकों की सेवा आदि में स्वर्गिक आनंद पाते हुए उन्होंने अपना बचा समय अत्यंत सुखपूर्वक बिताया और फिर अपने प्रिय सेवक को बाबा को सौंप एक दिन स्वेच्छा से अपना जीर्ण शरीर त्याग गोलोकगमन किया..

सेवकराम जन्मजात घोषित अभागा था..जन्मते ही माता जहान छोड़ चली थी और जो छः बरस का हुआ तो पिता भी माँ का साथ निभाने ऊ लोक को निकल पड़े.. जाते जाते अच्छा बस इ किये कि नन्हे सेवक को सेठ धनिकराम को सौंप गए ...पुश्तों से सेवक राम का परिवार धनिकराम परिवार का सेवक रहा था.. नमकहलाली उनके रगों में था.. नन्हे सेवक ने भी जनमघूंटी में ही यह पिया था कि इस धरती पर साक्षात दिखने वाले भगवान् के प्रतिनिधि, मालिक ही होते हैं.. भगवान् दुनिया के पालनहार और मालिक इनके पालनहार.. इसलिए इनके डाइरेक्ट भगवान् मालिक हैं.. मालिक का कहा हर वाक्य उसके लिए भगवान् का वाक्य था, उपेक्षा या संदेह का तो कोई प्रश्न ही न था..

माता के जाने का तो उसको ज्ञान न था, पिता गए तो खूब रोया था, क्योंकि लोग बाग़ रो रहे थे और उसे समझा रहे थे कि पिता जिस दुनिया में गए हैं, वहां से कभी लौटकर नहीं आयेंगे..लेकिन धनिकराम का जाना वह सह नहीं पा रहा था..धनिकराम एक साथ ही उसके माता पिता और मालिक सभी थे..हालाँकि मालिक ने उसकी निष्ठा बाबा को ट्रांसफर कर दी थी, इसलिए टहल बजाने में वह कोई कोताही नहीं बरतता था, पर दिल का घाव तो घाव ही था, ऐसे कैसे तुरंत मिट जाता...

पर भाग का बलवान था सेवक ..धनिकराम चले भी गए तो जो वास उसे दे गए थे, वह बड़े बड़े दुखों के पहाड़ को पल में ढाह देने वाला था..ऊपर से बाबा का स्नेहिल व्यवहार..जल्दी ही सेवक के हृदयासन पर वे विराजित हो गए और पूरे प्राणपन से वह आश्रम तथा बाबा की सेवा टहल में लग गया.. उसके आसरे बाबा एकदम निश्चिन्त से होते चले गए. ठाकुर जी की पूजा और भोग आदि लगाने के कार्य के अतिरिक्त सभी उत्तरदायित्व सेवक ने अपने पर ले लिया..ऐसा भक्त चेला पा बाबा भी अपने भाग्य को सराहने लगे..


क्रमशः :-

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11.3.11

स्वाभिमान रैली ....

बहुत बहुत शिकायत है मुझे स्वयं से ,कि अतिसंक्षिप्त कलेवर में मैं कोई बात कह नहीं पाती..और उसपर भी यह विषय ??? इसपर तो बोलना न शुरू करूँ तो ही अच्छा है..क्योंकि मन मस्तिष्क में कैद यह एक ऐसा ज्वालामुखी है, जो यह फट जाए तो दूसरों को ही नहीं स्वयं को भी क्षत विक्षत कर डाले....यूँ यह विषय केवल मेरा ही नहीं, मुट्ठी भर उन लोगों को छोड़ जो इस रोग के पोषक प्रसारक हैं, बहुसंख्यक भारतवासी के लिए यह एक रोग,यह दंश एक ऐसा दंश है,जिससे शायद ही कोई ह्रदय ऐसा हो जो पीड़ित नहीं...

आज अधिक कुछ कहूंगी नहीं..कुछ लिंक दे रही हूँ..देखें...
सड़कें, सरकारी विद्यालय,चिकित्सालय,विभिन्न  कार्यालय, मंत्रालय या जो तंत्र हमारे यहाँ संचालित है सरकार द्वारा ,उसे कौन चला रहा है ??? हम और आप...हम जो पैसे इन्हें देते हैं विभिन्न टैक्सों के माध्यम से उसपर सारी शान सवारी है...तो जो पैसा हम इन्हें देते हैं,उसका ये क्या करते हैं,यह जानने का पूरा हक है हमें..हमारे पैसों पर ये राजा और हम याचक...अब ये तो हमें हिसाब देंगे नहीं...तोचलिए उन स्रोतों तक पहुंचे जहाँ से थोड़ी बहुत जानकारी हमें मिल जाए...

जितने कुमार्गगामी साधु संत हमने जीवन में देखे सुने हैं, सहज ही  विश्वास करना कठिन होता है कि अमुक संत सचमुच सत्पुरुष होगा..पर ठीक है, सद्वाणी बोलने वाला, सत का प्रचार करने वाला, स्वयं कितना सदाचारी है, इस विचार को कुछ समय के लिए हम पूर्णतः किनारे रख दें और ध्यान उस जानकारी पर दें जो ये उपलब्ध करा रहे हैं...यूँ भी मुझे लगता है की अच्छी,कल्याणकारी बातें कौन कह रहा है यह ध्यान में रखने के स्थान पर यदि हम  केवल कल्याणकारी बातों  पर ध्यान केन्द्रित करें और उन बातों को जीवन में उतारें तो निश्चित ही हम अपना अधिक भला कर पायेंगे..

वैसे तो यू ट्यूब पर ये सभी लिंक उपलब्ध हैं..परन्तु मैंने देखा कि एक फालतू से जोक, अश्लील गीत या दृश्यों पर जहाँ लाखों करोड़ों विजिट होते हैं, वहां इन लिंकों पर विजिट कुछ सौ या हजार ही हैं...आज के बाजारू ख़बरों के पोषक टी वी चैनलों को तो फुर्सत नहीं कि ये तथ्य  आमजन तक पहुंचाएं...तो चलिए हम ही इस सद्प्रयास में जुटें और अधिकाधिक लोगों तक इसे पहुंचाएं...

मेरा अनुरोध है कि अपने व्यस्त समय से थोडा समय निकाल इन वीडियो को पूरा सुने...यहाँ मैं सभी लिंक नहीं दे रही हूँ..यदि आप सुनना चाहें तो यू ट्यूब पर जाकर सारे लिंक खोल कर देख /सुन सकते हैं..

27-02-2011-WAR-AGAINST-CORRUPTION-RALLY-RAMLILA-GROUND-DELHI हेडिंग पर जायेंगे तो सभी लिंक वहां उपलब्ध हैं...

फिलहाल के लिए दो लिंक..

विश्व बंधु गुप्ता जी का भाषण :-


बाबा रामदेव जी का खुलासा( सत्य जो सिहरा देगा) :-


और यदि कविता सुनना चाहें तो , हरिओम पवार जी की कविता :-


कृपया अवश्य देखें कि क्या सब हो रहा है देश में.


15.2.11

प्रेम पर्व ..



प्रेम का पावन साप्ताहिकी अनुष्ठान  हर्षोल्लास के साथ अंततः संपन्न हुआ. एक दो दिन में आंकड़े आ जायेंगे कि इन सात दिनों में फूल,कार्ड तथा गिफ्ट आइटमों का कितने का कारोबार हुआ है. खैर, कल पूरे दिन मुझे मेरी नानी याद आती रही. मन कचोट कचोट जाता रहा कि आज अगर वे होतीं तो कितना मजा आता..उन्हें इस पर्व के बारे में हम बताते और उनकी प्रतिक्रिया देखते. अपना क्या कहें, प्रेम-प्यार, परिवार विस्तार सब हो कर एक दशक से अधिक बीत गया, तब जाकर पहली बार इस पुनीत पर्व का नाम सुनने का सौभाग्य मिला .. भकुआए हम, पतिदेव से पूछे , ई का होता है जी, अखबार ,टी वी सब में इ नाम का घनघोर मचा हुआ है. पहले तो घुड़कते हुए उन्होंने मेरा गड़बड़ाया उच्चारण सुधारा, फिर मेरे गँवईपन की जमकर खिल्ली उडी और तब जाकर इस पावन पर्व की महत कथा श्रवण का सुयोग  मिला.. उस दिन भी सबसे पहले ध्यान में नानी ही आई थी...मन में आया कि अविलम्ब ट्रेन पकड़ नानी के पास जाऊं और उन्हें यह सब सविस्तार बताऊँ...पर अफ़सोस कि मैंने ट्रेन पकड़ने में देर कर दी और जबतक मैं उनके पास जाती उन्होंने गोलोकधाम की ट्रेन पकड़ ली..


हमारे गाँव में नया नया सिनेमा हाल खुला. अब यह अलग बात थी कि मिट्टी की दीवार और फूंस की टट्टी से छराया वह गोहाल टाईप हाल केवल प्रोजेक्टर और परदे के कारण सिनेमा हाल कहलाने लायक था, पर हमारे लिए तो वह किसी मल्टीप्लेक्स से कम न था. क्या क्रेज था उसका.ओह... हम भाई बहन तो भाग कर दो तीन बार उधर हो आये थे ,पर बेचारी मामियों को इसका सौभाग्य न मिला था..उसपर भी जब हम आनंद रस वर्णन सरस अंदाज में उनके सम्मुख परोसते तो बेचारियाँ हाय भरकर रह जातीं थीं..खैर उनकी हाय हमारे ह्रदय तक पहुँच हमें झकझोर गई और हमने निर्णय लिया कि नानी को पटा मामियों का सौभाग्य जगाया जाय. तो बस दो दिनों तक नानी के पीछे भूत की तरह लग आखिर उन्हें इसके लिए मना ही लिया..

नानी के गार्जियनशिप में घर की सभी बहुएं, दाइयां ,नौकर और हम भाई बहन मिला करीब तीस पैंतीस लोग सिनेमा देखने गए..उस अडवेंचर और आनंद का बखान शब्दों में संभव नहीं..पर उससे भी आनंद दायक रहा कई माह तक नानी का उस फिल्म के प्रणय दृश्यों पर झुंझलाना और गरियाना. नानी को घेर हम प्रसंग छेड़ देते और फिर जो नानी उसपर अपनी टिपण्णी देती कि, ओह रे ओह...

" पियार ..पियार ..पियार ...ई का चिचियाने ,ढिंढोरा पीटने का चीज है...कोई शालीनता लिहाज,लाज होना चाहिए कि नही..." जिस अंदाज में वे कहतीं कि हँसते हँसते पेट में बल पड़ जाता...

एक बार घर के सारे पुरुष सदस्य रिश्तेदारी में शादी में चले गए थे. घर में बच गयीं मामियां, बाल बुतरू, नानी और नानाजी. जाते तो नानाजी भी ,लेकिन उनकी तबियत कुछ सुस्त थी सो वे घर पर ही रुक गए थे. इधर पुरुषों को निकले एक पहर भी नहीं बीता था कि उल्टी दस्त और बुखार से नानाजी की स्थिति गंभीर हो गई. वैद जी बुलाये गए. उन्होंने कुछ दवाइयाँ दीं जिसे कुछ कुछ देर के अंतराल पर देनी थी.. लेकिन समस्या थी कि घर में बहुओं के आने के बाद से वर्षों से ही नानाजी दरवाजे (बैठक ) पर ही रहते आये थे, जहाँ घर की स्त्रियाँ जाकर रह नहीं सकती थीं. तो मामियों ने जोर देकर नानाजी को जनानखाने में बुलवाया और खूब फुसला पनियाकर नानीजी को उनकी सेवा में लगाया. एक तरफ पति की बीमारी की चिंता और दूसरी तरफ बहुओं से लिहाज के बीच नानी का जो हाल हमने देखा था, आज भी नहीं भूल पाए हैं..

उम्र के साथ नानीजी के आँख की रौशनी तेजी से मंद पड़ती जा रही थी..नमक की जगह चीनी और दस टकिये की जगह सौ टकिये का लोचा लगातार ही बढ़ता चला जा रहा था..सब समझाते डॉक्टर को दिखाने को, पर नानी टालती जाती थी. पर एक बार जब सात मन आटे के ठेकुए में चार मन नमक डाल  आटा मेवा घी आदि की बलि चढी जिसे कुत्ते और गोरू भी सूंघकर छोड़ देते थे, तो नानी डाक्टर को दिखाने को राजी हुईं. डॉक्टर ने देखा और चश्मा बन गया...

दो दिन बाद मामा जी ने नानी से पूछा , अब तो ठीक से दिख रहा है न माँ, कोई दिक्कत नहीं न. सुस्त सी आवाज में उन्होंने कहा, हाँ बेटा ठीक ही है..मामा ने कहा,ठीक है, तो ऐसे मरियाये काहे कह रही है..तो नानी ने तुरंत बुलंद आवाज में भरोसा दिलाया कि ,सब ठीक है,बढ़िया है..लेकिन मामाजी ताड़ गए थे,उनके पीछे पड़ गए..तब उन्होंने बताया कि डॉक्टर जब आँख पर शीशा लगा रहा था, तो एक जो शीशा उसने लगाया,जैसे ही लगाया ,भक्क से सब उजियार हो गया,सब कुछ दिखने लगा..

मामा परेशान..तो क्या इस शीशा से ठीक से नहीं दिखा रहा ???

नानी - दिखा रहा है बेटा..काम चल जा रहा है..पर उ बेजोड़ था..

मामा अधिक परेशान - तो फिर ई वाला शीशा काहे ली..

नानी- ऐसे ही पैसा लगा देती ???

मामा - माने ?????

नानी- अरे, जादा दीखता तो जादा पैसा लगता न....

नानी ने कम दिखाई पड़ने वाले शीशे से काम चला अपने पति पुत्र का पैसा बचा लिया था...

आदमी तो आदमी कुत्ते बिल्ली से भी नानी प्रेम करतीं थीं. घर के सारे कुत्ते बिल्ली नानी के आगे पीछे  डोलते रहते थे..बिल्लियाँ तो उनके कर(शरीर) लग ही सोती थीं ..गाँव भर में मियाँ बीबी की लड़ाई हो या किसीके घर कोई बीमार पड़े. नानी वहां उपस्थित होतीं थीं..सारे गाँव का दुःख दर्द,पौनी पसारी(मेहमान) नानी के अपने थे..देवीं थीं वे सबके लिए..नानी नाना से लगभग पच्चीस वर्ष छोटी थीं ,लेकिन नानाजी के देहांत के बाद उनकी बरखी से पहले ही उनका साथ निभाने चट पट दुनियां से निकल गयीं. नानाजी के साथ ही जैसे उनका जीवन सोत भी सूख गया .. नानाजी गुजरे उस समय भी उन्हें अटैक आया था,पर यह तब लोग जान पाए जब नानाजी के बरखी के पहले उन्हें मेजर अटैक आया..शहर के सबसे बड़े अस्पताल में उन्हें भरती कराया गया. सबकी दुआ थी कि हफ्ते भर में वे आई सी यू से बाहर आ गयीं... केबिन में उन्हें रखा गया और डॉक्टर ने कहा कंडीशन ठीक रहा तो चार दिन बाद डिस्चार्ज कर देंगे..

जीवन भर पूरे टोले मोहल्ले घर घर को नानी ने जितना प्यार बांटा था, उन्हें देखने वालों का अस्पताल में तांता लगा हुआ था..नानी के उन्ही भक्तों में से एक अभागे ने मामा लोगों की बड़ाई कर नानी को सुखी करने के ख़याल से कह दिया..." ऐसे बेटे भगवान् सबको दें. लाखों लाख बाबू उझल दिए अपनी माँ पर, पर माथे पर शिकन नहीं लाये ,यही तो है आपकी कमाई .. और का चाहिए जीवन में..".. बस इतना काफी था उनके लिए. बेटों का पैसा पानी हो,यह वे बर्दाश्त कर सकतीं थीं ?? दो मिनट के अन्दर उन्होंने प्राण त्याग दिया...

प्रेम क्या होता है ,कैसे निभाया जाता है, मेरे कच्चे मन ने बहुत कुछ समझा गुना था उनसे ..आज सोचती हूँ तो लगता है,व्यक्तिगत सुख के प्रति आवश्यकता से अधिक सजग, हममे क्या प्रेम कर पाने की क्षमता है????

खैर, हम भी न.. का कहने निकले थे और का कहने बैठ गए..आज अखबार में पढ़ा प्रेम पर्व विरोधी, प्रेमियों को झाडी झाडी ढूंढ ढूंढ कर परेशान किये हुए हैं (ई अलग बात है कि पुलिस भी इन संस्कृति रक्षकों को दौड़ा दौड़ा के तडिया रही है)...बड़ा खराब लगा हमको..देखिये न कैसे प्रेम का दुश्मन जमाना बना हुआ है.आज ही क्या सदियों सदियों से.. जहाँ कोई प्रेमी मिला नहीं कि उसे कीड़े की तरह मसल देने को समाज मचल उठता है..बताइये , ई भी कोई बात हुआ.अरे मिलने दीजिये प्रेमी जोड़ों को, ऐसा भी क्या खार खाना. ऐसा कीजिये कि मार काट छोडिये...प्रेमियों में प्रेम पनपे और विरह उरह वाला स्थिति आये, उससे पहले उनके प्रेम को फुल फेसिलिटेट कर परवान चढ़ा दीजिये..ब्याह शादी कर दीजिये और साल भर के लिए प्रेमी जोड़े को स्वादिष्ट भोजन पानी,ओढना बिछौना, शौचालय आदि आदि सभी सुविधाओं से लैस एक खूब सुन्दर कमरे में अच्छी तरह से केवल औ केवल प्रेम कर लेने को बंद कर दीजिये..और भर भर के कमाइए पुन्न..

वैसे मुझे लगता है लैला मजनू,शीरी फरहाद ,रोमियो जूलियट या असंख्य ऐसे जोड़ों को यदि मार डालने के स्थान पर प्रेम करने की इस तरह की एकमुश्त सुविधा दी जाती तो उन्हें मारने वालों को अपने हाथ मैले न करने पड़ते.. साल भर के लिए प्रेमी एक कमरे में सब काम छोड़ केवल प्रेम करने को बाध्य रहते तो हम दावा करते हैं छः महीना के अन्दर प्रेम प्यार साफ़ आ  कत्लेआम मच जाता.. प्रेम में विछोह रहे ,तभिये तक प्रेम प्यारा लगता है...प्रेम कर लेना तो सबसे आसान है ..पर निभाना...
एक आग का दरिया है और डूब के जाना है...

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7.2.11

नेता....

भइया, सुनो पते की बात
जो तुमको बनना हो नेता
तो मारो शरम को लात.
भैया, सुनो पते की बात ...

झूठ, कपट, चोरी, बेईमानी
साध इसे करना मनमानी
दीन धरम और नीति की बातें
केवल मुख से है चुभलानी,
जो कभी भाव ये ह्रदय विराजे,
तो जायेगी जात...
कि भैया सुनो पते की बात...

पढना लिखना पाप समझना ,
पर जुगाड़ के डिग्री  रखना ,
सात्विक बातें , मोहक वाणी,
सुथरे कपडे पहन के ठगना,
अगर नहीं कर सकते तिकड़म
नहीं बनेगी बात...
ओ भैया सुनो पते की बात..

पहले अस्त्र शस्त्र चमकाओ,
जन मन में आतंक बसाओ,
फिर जा बैठो नेता के दर ,
राजनीति में छवि चमकाओ,
फहराओ गर भय का झंडा
तभी बढे औकात...
कि भैया सुनो पते की बात..

सत्ता की बस यही कला है
इसी पे चलकर हुआ भला है
सद्विचार संस्कार धर्म ने
राजनीति को सदा छला है
छाया भी तेरा प्रतिद्वंदी है
दे न रहा यदि साथ....
कि भैया सुनो पते की बात...

एक बार जो कुर्सी धर ली
समझो भवसागर ही तर ली,
माल बनालो ऐसे जमकर
दस पुश्तों के जनम सुधर ली.
राजा के सम  नहीं जिए तो..
जीने में क्या स्वाद ..
कि भैया सुनो पते की बात..

जो तुमको बनाना हो नेता
तो मारो शरम को लात.
कि भैया सुनो पते की बात ...

.......

27.1.11

महानायक !!!

(भाग -२)

श्रुति और स्मृति में संरक्षित हिन्दू धर्म ग्रंथों के उपलब्ध लिखित अंशों को सुनियोजित ढंग से प्रक्षेपांशों द्वारा विवादित बना छोड़ने और हिन्दुओं को दिग्भ्रमित करने में अन्य धर्मावलम्बियों ने शताब्दियों में अपार श्रम और साधन व्यय किया है. आस्था जिस आधार पर स्थिर और संपुष्ट होती है, उसको खंडित किये बिना समूह को दुर्बल और पराजित करना संभव भी तो नहीं... और देखा जाए तो एक सीमा तक यह प्रयास सफल भी रहा है.. अन्य धर्मावलम्बियों की तो छोड़ ही दें हिन्दुओं में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं जो कृष्ण को नचैया विलासी ठहरा उसका मखौल उड़ाते हैं और जो कृष्ण में आस्था रखने वाले हैं भी वे स्वयं को भक्त मान तो लेते हैं पर निश्चित और निश्चिन्त हो दृढ़ता पूर्वक इन आक्षेपों का तर्कपूर्ण खंडन नहीं कर पाते. कृष्ण को भगवान् ठहरा पूजा भजन भक्ति भाव में रमे वे अपने आराध्य के दोषों पर दृष्टिपात करना या सुनना घोर पाप ठहरा उसपर चर्चा किये बिना ही निकल जाते हैं.

काव्य कोई समाचार या इतिहास निरूपण नहीं होता,जिसमे ज्यों का त्यों घटनाओं को अंकित कर दिया जाय. काव्य में रस साधना प्रतिस्थापना के लिए अतिरंजना स्वाभाविक है,परन्तु सकारात्मक या नकारात्मक मत और आस्था स्थिर करते समय तर्कपूर्ण और निरपेक्ष ढंग से तथ्यों को देख परख लिया जाय तो भ्रम और शंशय का स्थान न बचेगा.. कृष्ण के सम्पूर्ण जीवन वृत्तांतों और कृतित्वों पर एक लघु आलेख में चर्चा तो संभव नहीं,यहाँ हम उन आक्षेपों पर संक्षेप में विचार करेंगे जो बहुधा ही उनके चरित्र पर लगाये जाते हैं..

बहुप्रचलित प्रसंग है कि गोपियाँ जब यमुना जी में स्नान करती थीं तो कान्हा उनके वस्त्र लेकर निकट कदम्ब के पेड़ पर चढ़ जाते थे और निर्वसना गोपियों को जल से बाहर आ वस्त्र लेने को बाध्य करते थे.. एक बार एक कृष्ण भक्त साधु से मैंने इस विषय में पूछा, तो उनका तर्क था कि कृष्ण गोपियों को देह भाव से ऊपर उठा माया से बचाना चाहते थे..तर्क मेरे गले नहीं उतर पाया..लगा कहीं न कहीं मानते वे भी हैं कि यह कृत्य उचित नहीं और अपने आराध्य को बचाने के लिए वे माया का तर्क गढ़ रहे हैं..अंततः बात तो वहीँ ठहरी है कि कृष्ण की अभिरुचि गोपियों को निर्वस्त्र देखने में थी.

तनिक विचारा जाए, गोपियाँ यमुना जी में जहाँ स्नान करतीं थीं , वह एक सार्वजानिक स्थान था. भले परंपरा में आज भी यह है कि नदी तालाब के जिस घाट पर स्त्रियाँ स्नान करती हैं, वहां पुरुष नहीं जाते ..परन्तु एक सार्वजानिक स्थान पर स्त्री समूह का निर्वस्त्र जल में स्नान करना, न तब उचित था, न आज उचित है... कृष्ण भी सदैव इसके लिए गोपियों को बरजा करते थे और जब उन्होंने इनकी न सुनी तो उन्होंने उन्हें दण्डित करने का यह उपक्रम किया और विलास संधान में उत्सुक सहृदयों द्वारा प्रसंग को कहाँ से कहाँ पहुंचा दिया गया. एक महत कल्याणकारी उद्देश्य को विलास सिद्ध कर छोड़ दिया गया..

यही भ्रम कृष्ण के बहुपत्नीत्व को लेकर भी है..राजनितिक, औद्योगिक घरानों में प्रयास आज भी होते हैं कि विवाह द्वारा प्रतिष्ठा तथा प्रभाव विस्तार हो..प्राचीन काल में तो अधिकाँश विवाह ही राज्य/ प्रभुत्व विस्तार या जय पराजय उपरान्त संधि आदि राजनितिक कारणों से हुआ करते थे. कृष्ण के विवाह भी इसके अपवाद नहीं.एक रुक्मिणी भर से इनका विवाह प्रेम सम्बन्ध के कारण था, बाकी सत्यभामा और जाम्बवंती से इनका विवाह विशुद्ध राजनितिक कारणों से था..रही बात सोलह हजार रानियों की, तो आज के विलासी पुरुष जो बात बात में कृष्ण की सोलह हजार पत्नियों का उदहारण देते हैं,क्या कृष्ण का अनुकरण कर सकते हैं ??

भौमासुर वध के उपरान्त जब उसके द्वारा अपहृत सोलह हजार स्त्रियों को कृष्ण ने मुक्त कराया, तो उनमे से कोई इस स्थिति में नहीं थी कि वापस अपने पिता या पति के पास जातीं और उनके द्वारा स्वीकार ली जातीं..देखें न, आज भी समाज अपहृताओं को नहीं स्वीकारता ,सम्मान देना तो दूर की बात है,तो उस समय की परिस्थितियां क्या रही होंगी....अब ऐसे में आत्महत्या के अतिरिक्त इन स्त्रियों के पास और क्या मार्ग बचा था..कृष्ण ने इनकी स्थिति को देखते हुए सामूहिक रूप से इनसे विवाह कर इन्हें सम्मान से जीने का अधिकार दिया. इनके भरण पोषण का महत उत्तरदायित्व लिया और यह स्थापित किया कि अपहृत या बलत्कृत स्त्रियाँ दोषमुक्त होती हैं,समाज को सहर्ष इन्हें अपनाना चाहिए,सम्मान देना चाहिए...बहु विवाह या बहु प्रेयसी के इच्छुक कितने पुरुष आज ऐसा साहस कर सकते हैं ??? चाहे राधा हों, गोपियाँ हों, या यशोदा, कुंती, द्रौपदी, उत्तरा आदि असंख्य स्त्रियाँ ,स्त्रियों को जो मान सम्मान कृष्ण ने दिया, पुरुष समाज के लिए सतत अनुकरणीय है... जिसे लोग विलासी ठहराते हैं,उसके पदचिन्हों पर पुरुष समाज चल पड़े तो समाज में स्त्रियों के अनादर और उपेक्षा की कोई स्थिति ही नहीं बचेगी .

सबसे महत्वपूर्ण बात, राधा कृष्ण तथा गोपी कृष्ण के रसमय लीलाओं की श्रृंगार रचना में पन्ने रंगने वाले यह नहीं स्मरण रख पाते कि तेरह वर्ष की अवस्था तक ही कृष्ण गोकुल में रहे थे, मथुरा गमन और कंश के विनाश के उपरान्त वे गुरु संदीपन के पास शिक्षा ग्रहण को गुरुकुल चले गए थे और जो वहां से लौटे तो उत्तरदायित्वों ने ऐसे घेरा कि जीवन पर्यंत कभी फिरकर गोकुल नहीं जा पाए . तो तेरह वर्ष की अवस्था तक में कोई बालक ( किशोर कह लें) कितने रास रच सकता है?? हाँ, सत्य है कि कृष्ण गोपियों के प्राण थे,पर यह तो स्वाभाविक ही था.. वर्षों से दमित समूह जिसे पाकर अपने को समर्थ पाने लगता है,उसपर अपने प्राण न्योछावर क्योंकर न करेगा..उनका वह नायक समस्त दुर्जेय शक्तियों को पल में ध्वस्त कर उनकी रक्षा करता है और फिर भी उनके बीच का होकर उनके जैसा रह उनसे अथाह प्रेम करने वाला है, तो कौन सा ह्रदय ऐसा होगा जो अपने इस दुलारे पर न्योछावर न होगा .. और केवल गोपियाँ ही क्यों गोप भी अपने इस नायक पर प्राणोत्सर्ग को तत्पर रहते थे..कंस के पराभव में यही गोप तो कृष्ण की शक्ति बने थे..अब प्रेमाख्यान रचयिताओं को कृष्ण के अनुयायियों भक्तों के प्रेमाख्यान क्यों न रुचे ,यह तो विचारणीय है.

एक बालक जिसके जन्म के पूर्व ही उसकी मृत्यु सुनिश्चित कर दी गई हो, जीवन भर हँसते मुस्कुराते संघर्षरत धर्म स्थापना में रत रहा..रोकर रिरियाकर उसने दिन नहीं काटे, बल्कि उपलब्ध साधनों संसाधनों का ही उपयोग कर समूह को संगठित नियोजित किया और एक से बढ़कर एक दुर्जेय बाधाओं को ध्वस्त करता हुआ एक दिन यदि विश्व राजनीति की ऐसी धुरी बन गया कि सबकुछ उसी के इर्द गिर्द घूमने लगा, कैसी विलक्षण प्रतिभा का धनी रहा होगा वह.. इस तेजस्वी बालक ने एक दमित भयभीत समूह को गीत संगीत का सहारा दे, कला से जोड़ मानसिक परिपुष्टता दी. गौ की सेवा कर दूध दही के सेवन से शरीर से हृष्ट पुष्ट कर अन्याय का प्रतिकार करने को प्रेरित किया..प्रकृति जिससे हम सदा लेते ही लेते रहते हैं,उनका आदर करना संरक्षण करना सिखाया .माँ माटी और गौ से ही जीवन है और इसकी सेवा से ही सर्वसिद्धि मिल सकती है,बालक ने प्रतिस्थापित किया..

न्याय अन्याय के मध्य अंतर समझाने को उसने व्यापक जनचेतना जगाई और लोगों को समझाया कि राजा यदि पालक होता है तो रक्षक भी होता है और जो रक्षक यह न स्मरण रख पाए कि उसकी प्रजा भूखी बीमार और त्रस्त है,उसे कर लेने का भी अधिकार नहीं है.अपने सखा समूह संग माखन मलाई लूट लेना खा लेना और चोरी छुपे दही मक्खन छाछ लेकर मथुरा पहुँचाने जाती गोपियों की मटकी फोड़ देना ,विद्रोह और सीख का ही तो अंग था..

अपने जन की रक्षा क्रम में  न उसे रणछोर कहलाने में लज्जा आई न षड्यंत्रकारियों के षड्यंत्रों का प्रति उत्तर छल से देने में... कृष्ण के सम्पूर्ण जीवन और कृत्यों में श्रृंगार संधान के स्थान पर यदि उनकी समूह संगठन कला, राज्य प्रबंधन कला और उनके जीवन दृष्टिकोण को विवेचित किया जाय और उनके द्वारा स्थापित मूल्यों को अंगीकार किया जाय तो मनुष्यमात्र अपना उद्धार कर सकता है. इस महानायक के जन्म से लेकर प्रयाण पर्यंत जो भी चमत्कारिक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं, तर्क की कसौटी पर कसकर देखें कुछ भी अतिशयोक्ति न लगेगी..

वर्तमान परिपेक्ष्य में आहत व्यथित मन एक ऐसे ही विद्वान् जननायक, महानायक की आकांक्षा करता है..लगता है एक ऐसा ही व्यक्तित्व हमारे मध्य अवतरित हो जो धूमिल पड़ती धर्म और मनुष्यता की परिभाषा को पुनर्स्थापित करे. भ्रष्टाचार का पर्याय बन चुकी राजनीति को निर्मल शुद्ध करे,इसे लोकहितकारी बनाये.नैतिक मूल्यों को जन जन के मन में बसा दे और मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बनने को उत्प्रेरित करे..

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(कृष्ण जीवन से सम्बंधित जितनी पुस्तकें आजतक मैंने पढ़ीं हैं,उनमे आचार्य रामचंद्र शुक्ल और श्री नरेन्द्र कोहली जी की प्रतिस्थापनाओं ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया है.मन इनके प्रति बड़ा आभारनत है..विषय के जिज्ञासुओं को इनकी कृतियाँ बड़ा आनंदित करेंगी,पढ़कर देखें )
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21.1.11

महानायक !!!



किसी भी कालखंड में काल विशेष के प्रसिद्द चर्चित व्यक्तित्वों के चरित्र और कृतित्व के विषय में लोक में जो कुछ भी प्रचारित रहता है, क्या वह वही होता है जो वास्तव में वह हैं या थे?? शायद नहीं न !!! क्योंकि व्यक्ति विशेष के विषय में लिखित रूप में जो कुछ भी संगृहित होता है,वस्तुतः वह लेखक /प्रचारक या लिखवाने प्रचारित करवाने वाले के हिसाब से होता है..लेखक अपने रूचि और संस्कार के अनुरूप व्यक्ति विशेष का चरित्र एवं कृतित्व गढ़ उसे लोक तक पहुंचता है. कभी कभी तो यह सत्य वास्तविकता से कोसों दूर हुआ करती है. कालांतर में व्यक्ति विशेष के विषय में जो विचार धारा सर्वाधिक प्रचार पाती है, वही मत स्थिर करने का आधार भी बनती है..

आज मिडिया सिने अभिनेता अमिताभ बच्चन जी का नाम " सदी के महानायक " लगाये बिना नहीं लेती..अमिताभ जी परिपक्व अभिनेता और प्रभावशाली व्यक्तित्व के स्वामी हैं,सुसंस्कृत शालीन सज्जन प्राणी हैं.. मेरे मन में उनके लिए बड़ा आदर भाव है,परन्तु उनके लिए इस उपाधि का प्रयोग मुझे अखर जाता है. हिन्दी भाषा जानने, शब्दों के अर्थ और महत्त्व समझने वालों की तो छोडिये, भारतीय सिनेमा के दर्शक /प्रशंशक भी क्या ह्रदय पर हाथ धर निरपेक्ष निष्पक्ष भाव से कह पाएंगे कि भारतीय सिनेमा के पिछले सौ वर्षों (सदी) में अमिताभ बच्चन जी सा धुरंधर अभिनेता हिन्दी सिनेमाँ में और कोई हुआ ही नहीं है ??? और जहाँ तक बात रही महानायकत्व की तो 'महानायक' शब्द का प्रयोग "महान अभिनेता" के अर्थ में होना चाहिए या "महान नेतृत्वकर्ता " के रूप में, यह हिन्दी भाषा के ज्ञाता विचार कर निर्धारित सकते हैं. वर्तमान का सत्य यही है कि यह उपाधि इतना प्रचारित कर दिया गया है कि इसपर प्रश्चिन्ह लगाने का कोई सोच भी नहीं पाता..यह प्रचार अतिरंजना ऐसे ही विस्तृत हुआ तो बहुत बड़ी बात नहीं कि आज से कुछ दशक या शतक वर्ष उपरान्त इनके चरित्र के साथ कुछ चमत्कारिक किंवदंतियाँ भी जुड़ जाएँ.. इन्हें महान अवतार ठहरा मंदिरों में प्रतिस्थापित करने लगा जाए और फूल फल अगरबत्ती से इनकी पूजा अर्चना आरम्भ हो जाए... अपने चारों ओर ऐसे दृष्टान्तों की कोई कमी नहीं.

एक और दृष्टान्त... आज खूब चर्चा में हैं डॉक्टर विनायक सेन..कुछ लोग इन्हें महान ठहराने में एड़ी चोटी साधे हुए हैं, तो कुछ आतंकवादियों का सहयोगी ठहरा अहर्निश निंदा में व्यस्त हैं..एक ही साथ,एक ही समय में , दो एक दम विपरीत विचारधाराएँ प्रचारित हैं. आमजन दिग्भ्रमित हैं कि इस व्यक्तित्व की वास्तविकता आखिर है क्या. अच्छा, बुरा क्या मानें इन्हें??.. आज जब व्यक्ति हमारे बीच उपस्थित है, तब तो वास्तविकता तक हमारी पहुँच नहीं, मान लिया आज से कुछ सौ वर्ष बाद इनपर चर्चा हुई या इनके विषय में मत स्थिर करना होगा, तो हम किस आधार पर करेंगे ??? संभवतः इसका आधार आज की बहुप्रचरित धारा ही होगी...नहीं ?? चलिए, वर्तमान की बात हो या दो ढाई सौ वर्ष पीछे की बात,किसी प्रसंग की सत्यता तक कोई अनुसंधानकर्ता पहुँच भी जाए ,पर बात जब हजारों या लाखों वर्ष पहले की हो तब ?? सत्यान्वेषण इतना ही सरल होगा क्या ???

विश्व में प्रचलित धर्म सम्प्रदायों में चाहे वह इस्लाम हो,इसाई हो या अन्यान्य कोई भी धर्म सम्प्रदाय, किसीमे भी अपने धर्म संस्थापकों, प्रवर्तकों , नायकों ,पूज्य श्रेष्ठ व्यक्तियों के चरित्र को लेकर अनास्था या मत विभिन्नता उतनी नहीं जितनी कि हिन्दुओं में है. यूँ भी एक परंपरा सी बनी हुई है कि हिन्दुओं के पौराणिक पात्रों तथा प्रसंगों को मिथ या कल्पना ठहरा नकार दिया जाए.. इधर कुछेक संस्थाओं , विद्वानों ने इनकी सत्यता जांचने का बीड़ा उठाया तो है, पर देखा जाय कि उनके प्रयोजन कितने निष्पक्ष हैं.. मुझे विश्वास है कि इस दिशा में यदि गंभीर और निष्पक्ष प्रयास किये जायं तो समय सिद्ध करेगा कि ये पौराणिक पात्र विशुद्ध इतिहास के अंग हैं, मिथ या कपोल कल्पना नहीं..

बात जब पौराणिक पात्रों युगपुरुषों, महानायकों की होती है,तो मर्यादापुरुसोत्तम राम और महानायक कृष्ण का नाम ध्यान में सबसे पहले आता है.. पर इनके विषय में लिखित संरक्षित साहित्य का अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि युग के इतिहास का रुख मोड़ देने वाले इन दो महापुरुषों में से राम के चरित्र के साथ कलमकारों ने जितना न्याय किया उतना कृष्ण के चरित्र के साथ नहीं किया. तुलसीदास जैसे सहृदय कवि ने जिस प्रकार राम कथा तथा उनके चरित्र को विस्तार दे इसे जन जन के ह्रदय में प्रतिष्ठित कर जनमानस के लिए पूज्य और अनुकरणीय बनाया, ऐसा सौभाग्य कृष्ण चरित्र को प्राप्त न हुआ..वैसे तुलसीदास ही क्या राम का चरित्र जिन हाथों गया और विवेचित हुआ अधिकाँश ने उसके साथ न्याय किया,परन्तु विडंबना रही कि कृषण के जीवन और चरित्र को प्रत्येक कलमकारों ने अपने रुचिनुसार खण्डों में ले खंडविशेष को ही विस्तार दिया.

कोई कृष्ण के बाल रूप पर मुग्ध हो, वात्सल्य रस में लेखनी डुबो बालसुलभ चेष्टाओं को चित्रांकित करने में लगा रहा तो कोई श्रृंगार में निमग्न उसे पराकाष्ठा देने में एडी चोटी एक करता रह गया..किसीने उन्हें अलौकिक,चमत्कारिक परमेश्वर ठहराया तो किसीको कृष्ण धूर्त चतुर कूटनीतिज्ञ और राजनीतिज्ञ भर लगे. समग्र रूप में इस विराट व्यक्तित्व के सम्पूर्ण जीवन और कर्म की विवेचना करने में भक्तिकाल से लेकर रीतिकाल तक के किसी भी मूर्धन्य कवि ने अभिरुचि न दिखाई ..कृष्ण के लोक रंजक रूप पर तो खूब पन्ने रंगे गए पर उनके लोकरक्षक रूप को लोक के लिए अनुकरणीय रूप में समुचित ढंग से कोई नहीं रख पाया...

रीतिकालीन साहित्यकारों में तो श्रृंगार के प्रति आसक्ति ऐसी थी कि राज्याश्रित कवियों ने कृष्ण को लम्पट कामी और लुच्चा ही बनाकर छोड़ दिया.एक साधारण मनुष्य तक की गरिमा न छोडी उनमे.. यूँ भी श्रुति और स्मृति में संरक्षित हिन्दू धर्म ग्रंथों के उपलब्ध लिखित अंशों को सुनियोजित ढंग से प्रक्षेपांशों द्वारा विवादित बना छोड़ने और हिन्दुओं को दिग्भ्रमित करने में अन्य धर्मावलम्बियों ने शताब्दियों में अपार श्रम और साधन व्यय किया है. आस्था जिस आधार पर स्थिर और परिपुष्ट होती है,उसको खंडित किये बिना समूह को दुर्बल और पराजित करना सरल भी तो नहीं....


क्रमशः :-
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